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द्वात्रिंशत्तमं पर्व
तत्र कृत्वा नमस्कारं जिनानां शुभ्र भावनाः । रत्न संभवगम्भीरं संयतेन्द्र बुढौकिरे ॥ ६९ ॥ प्रणम्य शिरसा तस्य संवेगभरवाहिनः । नाथोत्तारय संसारादस्मादिति बभाषिरे ॥७०॥ सत्यकेतुगणोशेन तथास्त्विति कृतध्वनौ । जम्मुस्ते परमं तोषं निर्गताः स्मो भवादिति ॥ ७१ ॥ विदग्धो विजयो मेरुः क्रूरः संग्रामलोलुपः । श्रीनागदमनो धीरः शठः शत्रुदमो धरः ॥ ७२ ॥ विनोदः कण्टकः सत्यः कठोरः प्रियवर्धनः । एवमाद्या नृपा धर्मं नैर्ग्रन्थ्यं समशिश्रियन् ॥ ७३ ॥ साधनानि भटास्तेषां गृहील्या नगरीं गताः । द्रुतमर्पयितुं दीनाः पुत्रादीनां त्रपान्विताः ॥७४॥ अणुव्रतानि संगृह्य केचिचियमधारिणः । आराधयितुमुद्युक्ता बोधिबुद्धिविभूषणाः ॥७५॥ सम्यग्दर्शनमात्रेण संतोषमपरे गताः । श्रुखातिविमलं धर्मं जिनानां जितजन्मनाम् ॥७६॥ सामन्तैर्बहुभिर्गत्वा भरताय निवेदितः । वृत्तान्तो सुस्थितश्चायं ध्यायन् किमपि दुःखितः ॥ ७७ ॥ अथानरण्यराजस्य तनयः सुप्रबोधनः । राज्याभिषिञ्चनं कृत्वा भरतस्य सुचेतसः ||७८ ॥ किंचित्पद्मवियोगेन संतप्तं चित्तमुद्वहन् । शोकाम्भोधिनिमग्नेन परिवर्गेण वीक्षितः ॥ ७९ ॥ कृत सान्त्वनमप्युच्चैर्विलपत्स समाकुलम् । अन्तःपुरं परित्यज्य नगरीतो विनिर्गतः ॥८०॥ गुरुपूजां परां कृत्वा द्वासप्ततिनृपान्वितः । सर्वभूतहितस्यान्ते शिश्रिये श्रमणश्रिया ॥ ८१ ॥ अथाप्येकविहारस्य शुभं ध्यानमभीप्सतः । मानसं पुत्रशोकेन कलुषं तस्य जन्यते ॥ ८२ ॥ अन्यदा योगमाश्रित्य दध्यावेवं विचक्षणः । धिक् स्नेहं भवदुःखानां मूलं बन्धमिमं मम ॥ ८३ ॥
वहाँ उज्ज्वल भावनाको धारण करनेवाले सब जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार कर समुद्रके समान गम्भीर मुनिराज के पास गये || ६९ || वहाँ जाकर वैराग्यको धारण करनेवाले सब लोगोंने शिर झुकाकर मुनिराजको नमस्कार किया और तदनन्तर यह कहा कि हे नाथ ! हम लोगोंको इस संसार सागर से पार कीजिए ॥७०॥ इसके उत्तर में मुनियोंके अधिपति सत्यकेतु आचार्यने ज्योंही 'तथास्तु' यह शब्द कहा त्योंही 'अब तो हम संसारसे पार हो गये' यह कहते हुए सब लोग परम सन्तोषको प्राप्त हुए ||७१ ॥ विदग्ध, विजय, मेरु, क्रूर, संग्रामलोलुप, श्रीनागदमन, धीर, शठ, शत्रुदम, धर, विनोद, कण्टक, सत्य, कठोर और प्रियवर्धन आदि अनेक राजाओंने दिगम्बर दीक्षा धारण की ।।७२-७३ || इनके जो सेवक थे वे हाथी, घोड़ा आदि सेनाको लेकर उनके पुत्रोंको सौंपने के लिए शीघ्र ही नगरकी ओर गये । उस समय वे सेवक अत्यन्त दीन तथा लज्जासे युक्त हो रहे थे ||७४|| सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानरूपी आभूषणोंको धारण करनेवाले कितने ही लोग अणुव्रत ग्रहण कर निर्ग्रन्थमुद्राके धारकों की सेवा करने के लिए उद्यत हुए ||७५ ॥ तथा कितने ही लोग संसारको जीतनेवाले जिनेन्द्र भगवान्का अत्यन्त निर्मल धर्म श्रवण कर मात्र सम्यग्दर्शनसे ही सन्तोषको प्राप्त हुए ||७६ || अनेक सामन्तोंने जाकर यह समाचार भरतके लिए सुनाया सो भरत कुछ ध्यान करता हुआ सुखसे बैठा था परंतु यह समाचार सुन दु:खी हुआ ||७७||
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अथानन्तर सम्यक् प्रबोधको प्राप्त हुए राजा दशरथ स्वस्थ चित्तको धारण करनेवाले भरतका राज्याभिषेक कर रामके वियोगसे कुछ सन्तप्त चित्तको धारण करते हुए, सान्त्वना देनेपर भी जो अत्यन्त विलाप कर रहा था ऐसे व्याकुल अन्तःपुरको छोड़ नगरीसे बाहर निकले। उस समय शोकरूपी सागरमें डूबे हुए परिजन उनकी ओर निहार रहे थे ||७८-८० ॥ नगरीसे निकलकर
सर्वभूतहित नामक गुरुके समीप गये और वहाँ बहुत भारी गुरुपूजा कर बहत्तर राजाओंके साथ दीक्षित हो गये || ८१|| यद्यपि मुनिराज दशरथ एकाकी विहार करते हुए सदा शुभ ध्यानकी इच्छा रखते थे तथापि पुत्रशोकके कारण उनका मन कलुषित हो जाता था ॥ ८२॥ एक दिन
१. सागर इव गंभीरस्तम् । २. वादिनः म । ३. निदग्धो म । निर्दग्ध क., ख. । ४. त्रपाचिताः म. ।
५. दशरथः ।
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