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एकत्रिंशत्तमं पर्व
आर्यागीतिच्छन्दः एवं निश्चितचित्तो दशरथनृपतिस्समप्रमौदासीन्यम् । भेजे रविसमतेजाः सकलकुमावामिलाषदोषविमुक्तः ॥२४॥
इत्याचे रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मचरिते दशरथप्रव्रज्याभिधानं नामकत्रिंशत्तम पर्व ॥३१॥
पापपूर्ण चेष्टासे निवृत्त हो गया हूँ और संसारसे तीव्र भय प्राप्त कर चुका हूँ इसलिए मुनिव्रत धारण करूँगा ।।२४१।। इस प्रकार जिन्होंने अपने चित्तमें दढ़ निश्चय कर लिया था, जो सूर्यके समान तेजस्वी थे और जो समस्त मिथ्याभावोंकी अभिलाषारूपी दोषसे रहित थे ऐसे राजा दशरथने सब प्रकारको उदासीनता धारण कर ली ।।२४२॥
इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध रविषेणाचार्यके द्वारा कथित पभचरितमें राजा दशरथके वैराग्यका वर्णन करनेवाला
इकतीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥३॥
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