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एकत्रिंशत्तमं पर्व आडुढौकन् द्रुतं चारु सामन्ता वाजिवारणम् । पमेन न गृहोतास्ते परमन्यायवेदिना ।।१८९।। विदेशगमनोद्युक्तं दृष्ट्वा तं जानकी भृशम् । श्रीमदंशुकसंवीता विकसत्पद्मलोचना ।।१९।। प्रणम्य श्वसुरं श्वश्रूरापृच्छय च सुहृजनम् । विनीतानुययौ नाथं पौलोमीव सुराधिपम् ॥१९॥ दृष्टा तमुद्यतं गन्तं स्नेह निमरमानसः । लक्ष्मणोऽचिन्तयत् क्रोधं वहन्नयनलक्षकम् ॥१९२॥ अन्यायमीदृशं कतु कथं तातेन वान्छितम् । स्वार्थसंसक्तनित्याशं धिक स्त्रैणमनपेक्षितम् ॥१९३॥ अहो महानुभावोऽयं ज्यायान् पुरुषसत्तमः । मुनेरपीदृशं स्वान्तं दुष्करं जातु जायते ॥१९॥ किमद्यैव करोम्यन्यां सृष्टिमुत्सृज्य दुर्जनान् । भरतस्य बलादाहो करोमि विमुखां श्रियम् ॥१९५॥ विधातुरद्य सामर्थ्य भनज्मि चिरमूर्जितम् । निरुद्धय पादयोज्येष्ठं करोमि श्रीसमुत्सुकम् ॥१९६॥ न युक्तमथवा चित्तं जातक्रोधानुगस्य मे । क्रोधः करोति मोहान्धमपि दीक्षामुपाश्रितम् ॥१९७।। किमनेन विचारेण कृतेनानुचितेन मे । ज्येष्ठस्तातश्च जानाति सांप्रतासांप्रतं बहु ॥१९८॥ सितकीर्तिसमुत्पत्तिर्विधातव्या हि नः पितुः । तूष्णीमेवानुगच्छामि ज्यायान्सं साधुकारिणम् ॥१९९॥ प्रशमय्य स्वयं कोपमित्यादाय शरासनम् । प्रणम्यापृच्छय चाशेषं जनं गुरुपुरस्सरम् ॥२०॥ महाविनयसंपन्नो मार्गयोग्यकृताकृतिः । लक्ष्मीनिलयवक्षस्कः पद्मस्यानुपदं ययौ ॥२०१॥
पितरौ परिवर्गेण सहितौ तनयान्वितौ । वर्षा इव कुर्वाणौ तौ धारामिनयनाम्भसा ॥२०२॥ समान स्थिर था ऐसे राम, मुख्य-मुख्य घोड़ों तथा हाथियोंको स्नेहपूर्ण दृष्टिसे देखते हुए पिताके घरसे बाहर निकल पड़े ॥१८८।। यद्यपि सामन्त लोग शीघ्र ही सुन्दर घोड़े और हाथी ले आये परन्तु परम न्यायके जाननेवाले रामने उन्हें ग्रहण नहीं किया ॥१८९।। पतिको विदेशगमनके लिए उद्यत देख, जिसके शरीरपर सुन्दर वस्त्रका आवरण था, जिसके नेत्र फूले हुए कमलके समान थे ऐसी सीता भी, सास-श्वसूरको प्रणाम कर तथा मित्रजनोंसे पूछकर, जिस प्रकार इन्द्राणी इन्द्रके पीछे चलती है उसी प्रकार रामके पीछे चलने लगी ॥१९०-१९१।।
तदनन्तर जिसका चित्त स्नेहसे भरा हआ था ऐसे लक्ष्मणने जब रामको जाते हए देखा तो नेत्रोंमें छलकते हुए क्रोधको धारण करता हुआ वह चिन्ता करने लगा कि अहो! पिताजी ऐसा अन्याय क्यों करना चाहते हैं ? जिसमें निरन्तर स्वार्थ साधनकी ही आशा लगी रहती है तथा जिसमें दूसरेकी कुछ भी अपेक्षा नहीं की जाती ऐसे स्त्री स्वभावको धिक्कार हो ॥१९२-१९३|| अहो ! बड़े भाई राम महानुभाव हैं तथा पुरुषोंमें अत्यन्त श्रेष्ठ हैं। इनके समान दुर्लभ हृदय तो मुनिके भी जब कभी ही होता है ॥१९४॥ क्या दुर्जनोंको छोड़कर आज ही दूसरी सृष्टि रच डालूँ या बलपूर्वक लक्ष्मीको भरतसे विमुख कर दूँ ? ॥१९५।। मैं आज विधाताकी बलवती सामर्थ्यको नष्ट करता हूँ और चरणोंमें पड़कर बड़े भाईको लक्ष्मीमें उत्सुक करता हूँ ॥१९६॥ अथवा क्रोधके वशीभूत हो मुझे ऐसा विचार करना उचित नहीं है क्योंकि क्रोध दीक्षा धारण करनेवाले मुनिको भी मोहसे अन्धा बना देता है ।।१९७।। मुझे इस अनुचित विचार करनेसे क्या प्रयोजन है ? क्योंकि बड़े भाई राम तथा पिता ही 'यह कार्य उचित है अथवा अनुचित' यह अच्छी तरह जानते हैं ॥१९८॥ हमें पिताकी उज्ज्वल कीर्ति ही उत्पन्न करनी चाहिए अतः मैं चुपचाप उत्तम कार्य करनेवाले बड़े भाईके ही साथ जाता हूँ॥१९९|| इस प्रकार लक्ष्मण स्वयं ही क्रोध शान्त कर, धनुष लेकर तथा पिता आदि समस्त जनोंसे पूछकर भी रामके पीछे चलने लगा। उस समय लक्ष्मण महाविनयसे सम्पन्न था, मार्गके योग्य उसकी वेषभूषा थी, तथा उसका वक्षःस्थल लक्ष्मीका घर था ॥२००-२०१।। उस समयका दृश्य बड़ा ही करुण था। सीताके साथ राम-लक्ष्मण आगे बढ़े जाते थे और माता-पिता परिवार तथा शेष दो पुत्रोंके साथ धारा-प्रवाह आँसुओंसे मानो वर्षा कर १. चारून् म.। २. सामन्तान् म. । ३. नयनलक्षणम् म. । ४. दुर्जनात् म, । ५. मथ म. । ६. प्रशाम्य म. ।
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