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पद्मपुराणे
तनयाद्यैव मे गन्तुमुचितं भवता समम् । कथं त्वाहमपश्यन्ती प्राणान् धारयितुं क्षमा ॥ १७६ ॥ पिता नाथोऽथवा पुत्रः कुलखीणां त्रयी गतिः । पितातिकान्तकालो मे नाथो दीक्षा समुत्सकः ॥ १७७॥ जीवितस्य त्वमेवैकः सांप्रतं मेऽवलम्बनम् । त्वयापि रहिता साहं वद गच्छामि कां गतिम् ॥ १७८ ॥ सोऽवोचदुपलैरम्ब क्षितिरत्यन्तकर्कशा । भवत्या विषमा पद्भ्यां गन्तुं सा शक्यते कथम् ।।१७९।। तस्मादेकक एवाहं विधाय सुखमाश्रयम् । यानेन केनचिन्नेष्ये भवन्तीं त्यजनं कुतः ॥ १८० ॥ यथा स्पृशामि ते मातः पादावेष तथा ध्रुवम् । आगमिष्यामि नेतुं त्वां सुञ्च कार्यविचक्षणे ॥१८१॥ एवमुक्ते विमुक्तः सन् परिसान्ध्य सुभाषितैः । पुनश्च पितरं प्राप्तप्रबोधं प्रणिपत्य सः || १८२ ॥ शेषं मातृजन नवा परिसान्ध्य सुभाषितैः । अविषण्णमहाचेताः सर्वन्यायविचक्षणः ||१८३॥ आतृबन्धुपरिष्वङ्गं कृत्वा संभाषणं तथा । 'सीतायाः सदनं प्राप्तः प्रेमनिर्भरमानसः ॥ १८४ ॥ प्रिये त्वं तिष्ठ चात्रैव गच्छाम्यहं पुरान्तरम् । ततो जगाद साध्वी सा यत्र त्वं तत्र चाप्यहम् ॥ १८५ ।। मन्त्रिणो नृपतीन् सर्वान् परिवर्गं च सादरम् । आपृच्छच्छेकव गेऽपि 'भाषणाला पताकुलः ॥१८६॥ प्रीत्या संवर्धितं भूयः कृतालिङ्गनमादृतम् । मित्रवर्गं सवाष्पाक्षं पुनरुक्तं न्यवर्तयत् ॥ १८७ ॥ स्निग्धेन चक्षुषा पश्यन् प्रधानान्त्राजिवारणान् । निरगच्छत्पितुर्गेहान्मन्दर स्थिरमानसः ॥ १८८॥
रोती हुई, नम्रीभूत पुत्रका आलिंगन कर बोली कि हे पुत्र ! मेरा आज ही तेरे साथ चला जाना उचित है क्योंकि तुझे बिना देखे मैं प्राण धारण करनेके लिए कैसे समर्थ हो सकूँगी ? ।। १७५-१७६।। पिता, पति अथवा पुत्र ये तीन ही कुलवती स्त्रियोंके आधार हैं। इनमें मेरे पिता तो अपना समय पूरा कर चुके हैं और पति दीक्षा लेनेके लिए उत्सुक हैं इस प्रकार इस समय मेरे जीवनका आधार एक तू ही है सो यदि तू भी मुझे छोड़ रहा है तो बता मैं किस दशाको प्राप्त होऊँ ।। १७७-१७८ ।। यह सुन रामने कहा कि हे माता ! पृथ्वी पत्थरोंसे अत्यन्त कठोर है आप इस ऊँची-नीची पृथ्वीपर पैरोंसे किस प्रकार चल सकोगी ? ॥ १७९ ॥ इसलिए मैं अभी अकेला ही जाता हूँ फिर सुखकारी कोई स्थान ठीक कर किसी यानके द्वारा आपको वहाँ ले जाऊँगा अतः आपका छोड़ना कैसे हुआ ? || १८० || हे माता ! मैं आपके चरणोंका स्पर्श कर कहता हूँ कि मैं आपको ले जानेके लिए अवश्य ही आऊँगा । हे कार्यंके समझने में निपुण माता ! इस समय मुझे छोड़ दे || १८१ || रामके ऐसा कहनेपर माताने उन्हें छोड़ दिया और अनेक हितकारी वचन कहकर उन्हें सान्त्वना दी | अब तक पिता दशरथ प्रबोधको प्राप्त हो चुके थे इसलिए रामने पुनः पास जाकर उन्हें प्रणाम किया || १८२|| अपराजिताके सिवाय अन्य माताओंको नमस्कार कर अनेक मधुर वचनोंसे उन्हें सान्त्वना दी, भाई-बन्धुओंका आलिंगन कर उनके साथ मधुर सम्भाषण किया और तदनन्तर जिनका उदार हृदय विषादसे रहित था, तथा जो सर्वं प्रकारके न्यायमें निपुण थे ऐसे राम हृदयको प्रेमसे भरकर सीताके महलमें पहुँचे || १८३-१८४|| राम बोले कि - 'हे प्रिये ! तुम यहीं पर रहो मैं दूसरे नगरको जाता हूँ' । तदनन्तर उस पतिव्रताने एक ही उत्तर दिया कि 'जहाँ आप रहेंगे वहीं मैं भी रहूँगी || १८५ || इसके पश्चात् रामने समस्त मन्त्रियोंसे, राजाओंसे तथा परिवार के अन्य लोगोंसे बड़े आदरके साथ पूछा । नगर में जो बुद्धिमान् मनुष्य थे उनके साथ बड़ी तत्परता से वार्तालाप किया || १८६ | | इस समय प्रीतिवश बहुत-से मित्र इकट्ठे हो गये थे जो बार-बार आलिंगन कर रहे थे, आदरसे भरे हुए थे तथा जिनके नेत्र आँसुओंसे व्याप्त थे । रामने अनेक बार कहकर उन्हें वापस लौटाया || १८७ ॥ तदनन्तर जिनका मन मेरु पर्वतके
१. त्वं म । २. परिसान्त्वा म । ३ गत्वा म., ज्ञात्वा क, ख । ४. जानकीन्यस्तविस्तारिलोचनप्रश्रयान्वितः म., ज., क., ख. एषु पुस्तकेषु इतोऽग्रे 'प्रिये त्वं तिष्ठ' इत्यादिश्लोको नास्त्येव । ५. च्छेषवर्गेऽपि म. । ६. भीषणाल्लाप म । ७. मारतं म ।
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