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पपपुराणे तथापि धीर नो भङ्गः कदाचित्प्रणयस्य मे । त्वया कृतो विनीतानां भवान् हि शिरसि स्थितः ॥१४८॥ शृणु सारथ्यतुष्टेन मयाजी' जीवसंशये । प्रतिज्ञातं जनन्यास्ते वाञ्छितं नृपसाक्षिकम् ॥१४९॥ ऋणतां तञ्चिरं नीतमद्याहं याचितोऽनया । राज्यं प्रयच्छ पुत्रस्य ममेति बहुमानतः ।।१५०॥ स त्वं निष्कण्टकं तात राज्यं शक्रोपमं कुरु । असत्यसंधा कीर्तिम माभ्रमीनिखिलं जगत् ॥१५॥ इयं च तव शोकेन परमेणामितापिता । माता म्रियेत सौख्येन सततं लालिताङ्गिका ॥१५२ न करोति यतः पातं पित्रोः शोकमहोदधौ। अपत्यत्वमपत्यस्य तद्वदन्ति सुमेधसः ॥१५३॥ ततः पद्मोऽपि तत्पाणी गृहीत्वैवमभाषत । प्रेमनिर्भरया पश्यन् दृष्ट्या मधुरनिस्वनः ।।१५४॥ तातेन भ्रातरुक्तं यत्कोऽन्यस्तद्गदितं क्षमः । नहि सागररत्नानामुपपत्तिः सरसो भवेत् ॥१५॥ वयस्तपोऽधिकारे ते जायतेऽद्यापि नोचितम् । कुरु राज्यं पितुः कीर्तिरुद्यातु शशिनिर्मला ॥१५६॥ इयं च शोकतताङ्गा माता ययाति पञ्चताम् । न तद्युक्तं महामागे नन्दने त्वादृशे सति ॥१५७।। पितुः पालयितं सत्यं त्यजामोऽपि वयं तनुम् । कथं त्वं तु कृतं प्राज्ञः श्रियं न प्रतिपद्यसे ॥१५८॥ नद्यां गिरावरण्ये वा तत्र वासं करोम्यहम् । तत्र कश्चिन्न जानाति कुरु राज्यं यथेप्सितम् ॥१५९॥ भागं सर्व परित्यज्य पन्थानमपि संश्रितः । न करोमि पृथिव्यां ते कांचित्पीडां गुणालयः ॥१६०॥ माश्वसीदीर्घमुष्णं च मुञ्च तावद्भवाद्भयम् । कुरु वाक्यं पितुः क्षोणी रक्ष न्यायपरायणः ॥१६॥
निकल आये। वे बोले कि हे वत्स ! तू धन्य है, सचमुच ही तू प्रतिबोधको प्राप्त हुआ है और तू उत्तम भव्य है ।।१४७।। फिर भी हे धीर ! तूने कभी भी मेरे स्नेहका भंग नहीं किया। तू विनयी मनुष्योंमें सर्वश्रेष्ठ है ॥१४८॥ सुन, एक बार युद्धमें मेरे प्राणोंका संशय उपस्थित हुआ था। उस समय तेरी माताने सारथिका कार्य कर मेरी रक्षा की थी। उससे सन्तुष्ट होकर मैंने अनेक राजाओंके समक्ष प्रतिज्ञा की थी कि 'यह जो कुछ चाहेगी वह दूंगा' ।।१४९।। मेरे ऊपर इसका यह बहुत पुराना ऋण था सो इसने आज मुझसे मांगा है। इसने बड़े सम्मानके साथ कहा है कि मेरे पुत्रके लिए राज्य दीजिए ॥१५०।। इसलिए हे पुत्र ! तू इन्द्र के समान यह निष्कण्टक राज्य कर जिससे असत्य प्रतिज्ञाके कारण मेरी अकीर्ति समस्त संसारमें भ्रमण नहीं करे ॥१५१॥ और जिसका शरीर सुखसे निरन्तर पालित हुआ है ऐसी यह तेरी माता इस महाशोकसे दुःखी होकर प्राण छोड़ देगी ।।१५२।। अपत्य अर्थात् पुत्रका अपत्यपना यही है कि जो माता-पिताको शोकरूपी महासागरमें नहीं गिरने देता है ऐसा विद्वज्जन कहते हैं ॥१५३।।
तदनन्तर प्रेमपूर्ण दृष्टिसे देखते हुए रामने भी उसका हाथ पकड़कर मधुर शब्दोंमें इस प्रकार कहा कि हे भाई ! पिताजीने जो कहा है वह दूसरा कोन कह सकता है ? सो ठोक ही है क्योंकि समुद्रके रत्नोंकी उत्पत्ति सरोवरसे नहीं हो सकती ।।१५४-१५५॥ अभी तेरी अवस्था तप करनेके योग्य नहीं है। इसलिए राज्य कर जिससे पिताकी चन्द्रमाके समान निर्मल कीति फैले ॥१५६॥ जिसका शरीर शोकसे सन्तप्त हो रहा है ऐसी यह तेरी माता तेरे समान भाग्यशाली पत्रके रहते हए यदि मरणको प्राप्त होती है तो यह ठीक नहीं होगा ॥१५७॥ पिताके सत्यकी रक्षा करनेके लिए हम शरीरको भी छोड़ सकते हैं। फिर तू बुद्धिमान् होकर भी लक्ष्मीको क्यों नहीं प्राप्त हो रहा है ? ॥१५८॥ मैं किसी नदीके किनारे, पर्वत अथवा वनमें वहाँ निवास करूँगा जहाँ कोई जान नहीं सकेगा इसलिए तू इच्छानुसार राज्य कर ॥१५९॥ हे गुणोंके आलय ! मैं अपना सब भाग छोड़ मार्गका ही आश्रय ले रहा हूँ। मैं पृथ्वीपर तुझे कुछ भी पीड़ा नहीं पहुँचाऊँगा ॥१६०॥ इसलिए लम्बी और गरम साँस मत ले, संसारका भय छोड़, पिताकी बात
१. युद्धे, मयासी म.। २. प्रापितोऽनया म.। ३. असत्यसंधान- म.। ४. महाभोगे ख. । ५. भोगं म. ।
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