________________
एकत्रिंशत्तम पर्व
७७ इत्युक्तेऽभिदधे तात हृषीकवशवर्तिनः । कामक्रोधादिपूर्णस्य का मुक्तिर्गृहसेविनः ॥१३५।। मुनीनां वत्स केषांचिद्भवेनैकेन जायते । नैव मुक्तिस्ततो धर्म कुरु समन्यवस्थितः ॥१३६॥ इत्युकोऽभिदधे तात यद्यप्येवं तथापि किम् । गृहधर्मण तस्मिन् हि मुक्त्यभावः सुनिश्चितः ॥१३७॥ अपि चानुक्रमान्मुक्तिन ममान्यस्य सोचिता । गरुडः किं पतङ्गानां वेगेन सदृशो भवेत् ।।१३८॥ कार्चिषा परं दाई वजन्तः कुत्सिता नराः' । जिह्वाधमाङ्गकार्याणि कुर्वते.न च निर्वृतिः ॥१३९॥ निक्षिप्यते हि कामाग्नौ मोगसर्पिर्यथा यथा । नितरां वृद्धिमायाति तापकृत्स तथा तथा ॥१४०॥ भुक्त्वा भोगान् दुरुत्पादान् दूरक्षा क्षणभगिनः । नियतं दुर्गतिं याति पापात् परमदुःखदम् ॥१४॥ अनुमन्यस्व मां तात नितान्तं जन्समीरुकम् । करोमि विधिनारण्ये तपोनिवृत्तिकारणम् ।।१४२।। अथ गेहेऽपि लभ्येत श्रेयो जनक नैव॒तम् । त्वमेव कुरुषे कस्मादस्य त्यागं महामते ॥१४३।। तार्यते दुःखतो यस्मात्तपश्चाभ्यनुमोदते । एतत्तातस्य तातत्वं प्रवदन्ति विचक्षणाः ॥१४॥ जीवितं वनितामिष्टं पितरं मातरं धनम् । भ्रातरं च परित्यज्य याति जीवोऽयमेककः ॥१४५॥ सुचिरं देवभोगेऽपि यो न तृप्तो हताशकः । स कथं तृप्तिमागच्छेन्मनुष्यमवभोगकैः ॥१४६॥ पिता तद्वचनं श्रुत्वा दृष्टरोमा प्रमोदतः । जगाद वत्स धन्योऽसि विबुद्धो भव्यकेसरी ॥१४॥
यद्यपि क्षुद्र मनुष्य इसे नहीं कर सकते हैं पर जो उत्तम पुरुष हैं वे तो राज्य पाकर भी करते ही हैं ॥१३४।। पिताके इस प्रकार कहनेपर भरतने कहा कि हे पिताजी ! जो इन्द्रियोंके वशीभूत है तथा काम-क्रोधादिसे परिपूर्ण है ऐसे गृहसेवी मनुष्यकी मुक्ति कैसे हो सकती है ? ॥१३५॥ इसके उत्तरमें पिताने कहा कि हे वत्स ! एक भवमें मुक्ति किन्हीं विरले ही मुनियोंको प्राप्त होती है। अधिकांश मनियोंको मुक्ति नहीं मिलती। इसलिए घरमें रहकर ही धर्म धारण करो ॥१३६॥ पिताके इस प्रकार कहनेपर भरतने कहा कि हे पिताजी! यद्यपि ऐसा है तथापि गृहस्थाश्रमसे क्या प्रयोजन है ? क्योंकि उससे मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होती यह बिलकुल निश्चित है ॥१३७॥ और दूसरी बात यह है कि मेरी मुक्ति अनुक्रमसे नहीं होगी। मैं तो इसी भवसे प्राप्त करूँगा। अनुक्रमसे होनेवाली मुक्ति दूसरे हीके योग्य है। क्या गरुड़ वेगसे अन्य पक्षियोंके समान होता है ? ॥१३८॥ क्षुद्र मनुष्य कामरूपी ज्वालासे परम दाहको प्राप्त होते हुए जिह्वा और स्पर्शन इन्द्रियसम्बन्धी कार्य करते हैं पर उनसे उन्हें सन्तोष प्राप्त नहीं होता ॥१३९॥ कामरूपी अग्निमें ज्योंज्यों भोगरूपी घी डाला जाता है त्यों-त्यों वह अत्यन्त वृद्धिको प्राप्त होती है और सन्तापको उत्पन्न करती है ॥१४०॥ प्रथम तो ये भोग बड़ी कठिनाईसे प्राप्त होते हैं फिर इनकी रक्षा करना कठिन है। ये देखते-देखते क्षण-भरमें नष्ट हो जाते हैं और इनको भोगनेवाला व्यक्ति पापके कारण नियमसे परम दुःख देनेवाली दुर्गतिको प्राप्त होता है ।।१४१॥ हे पिताजी ! मैं संसारसे अत्यन्त भयभीत हो चुका हूँ इसलिए मुझे अनुमति दीजिए। जिससे में वनमें जाकर विधिपूर्वक मोक्षका कारण जो तप है उसे कर सकूँ ।।१४२।। हे पिताजी ! यदि मोक्ष-सम्बन्धी सुख घरमें भी मिल सकता है तो फिर आप ही इसका त्याग क्यों कर रहे हैं ? आप तो महाबुद्धिमान् हैं ॥१४३।। जो पुत्रको दुःखसे तारे और तपकी अनुमोदना करे यही तातका तातपना है ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं ॥१४४॥ यह जीव आयु, स्त्री, मित्रादि इष्टजन, पिता, माता, धन और भाई आदिको छोड़कर अकेला ही जाता है ।।१४५|| जो अभागा चिरकाल तक देवोंके भोग भोगनेपर भी सन्तुष्ट नहीं हो सका वह मनुष्य भवके तुच्छ भोगोंसे किस प्रकार सन्तोष प्राप्त करेगा?॥१४६॥
पिता दशरथ भरतके उक्त वचन सुनकर गद्गद हो गये। हर्षसे उनके शरीरमें रोमांच १. वरा: म.। २. भोगरूपं घृतम् । ३. निर्वाणसंबन्धि ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org