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एकत्रिंशत्तम पर्व इत्युक्ते मुञ्चती वाप्पमवोचज्ज्ञातनिश्चया । कथं नाथ त्वया चेतः कृतं निष्ठुरमीदृशम् ॥१०७॥ वद किं कृतमस्माभियेनासि त्यक्तुमुद्यतः । ननु जीवितमायत्तमस्माकं त्वयि पार्थिव ॥१०॥ अत्यन्तं दुर्धरोद्दिष्टा प्रव्रज्या जिनसत्तमैः । कथमाश्रयितुं बुद्धिस्तामद्य भवता कृता ॥१०९॥ देवेन्द्रसदृश गैरिदं ते लालितं वपुः । कथं वक्ष्यति जीवेश श्रामण्यं विविधं परम् ॥११०॥ एवर दासौ कान्ते सत्त्वस्य को भरः । वाञ्छितं वद कर्तव्यं स्वयं यास्यामि सांप्रतम् ॥१११॥ इत्युक्ता लिखती क्षोणी प्रदेशिन्या नतानना । जगाद नाथ पुत्राय मम राज्यं प्रदीयताम् ॥११२॥ ततो दशरथोऽवोचत्प्रिये कास्मिन्नपनपा । न्यासस्त्वया मयि न्यस्तः सांप्रतं गृह्यतामसौ ॥११३|| एवमस्तु शुचं मञ्च निर्ऋणोऽहं त्वया कृतः। किं वा कदाचिदुक्तं ते मया जनितमन्यथा ॥११॥ पद्मं लक्षणसंयुक्तमाहूय च कृतानतिम् । ऊचे विनयसंपन्नं किंचिद्विगतमानसः ॥११५।। वत्स पूर्व रणे घोरे कलापारगयानया। कृतं केकयया साधु सारथ्यं मम दक्षया ॥११६॥ तदा तुष्टेन पत्नीनां मूभृतां च पुरो मया । मनीषितं प्रतिज्ञातं नीतं न्यासत्वमेतया ॥११७॥ देहि पुत्रस्य मे राज्यमिति तं याचतेऽधुना। किमप्याकृतमापन्ना निरपेक्षा मनस्विनी ॥११८॥ प्रतिज्ञाय तदेदानीं ददाम्यस्यै न चेन्मतम् । प्रव्रज्यां भरतः कुर्यात् संसारालम्बनोज्झितः॥१९॥
इयं च पुत्रशोकेन कुर्यात् प्राणविसर्जनम् । भ्रमेच्च मम लोकेऽस्मिन्नकीर्तिर्वितथोद्भवा ॥१२०॥ हूँ॥१०६|| राजाके इस प्रकार कहनेपर जिसने उसका निश्चय जान लिया था ऐसी केकयी आँसू डालती हुई बोली कि हे नाथ ! आपने ऐसा कठोर चित्त किस कारण किया है ? बताइए, हम लोगोंने ऐसा कौन-सा अपराध किया है कि जिससे आप हम लोगोंको छोड़नेके लिए उद्यत हुए हैं। हे राजन् ! आप तो यह जानते ही हैं कि हमारा जीवन आपके अधीन है ।।१०७-१०८॥ जिनेन्द्रभगवान्के द्वारा कही हुई दीक्षा अत्यन्त कठिन है उसे धारण करनेकी आज आपने बुद्धि क्यों की ? ॥१०९।। हे प्राणवल्लभ ! आपका यह शरीर इन्द्रके समान भोगोंसे पालित हुआ है सो अत्यन्त कठिन नाना प्रकारका मुनिपना कैसे धारण करेगा? ||११०॥
केकयीके इस प्रकार कहनेपर राजा दशरथने कहा कि प्रिये ! समर्थके लिए क्या भार है ? तू तो केवल अपना मनोरथ बता! जो मुझे करना है उसे मैं अब अवश्य ही प्राप्त होऊँगा ॥१११।। पतिके इस प्रकार कहने पर प्रदेशिनीनामा अंगुलिसे पृथिवीको खोदती हुई केकयीने मुख नीचा कर कहा कि हे नाथ ! मेरे पुत्रके लिए राज्य प्रदान कीजिए ॥११२।। तब दशरथने कहा कि हे प्रिये ! इसमें लज्जाकी क्या बात है ? तुमने अपनी धरोहर मेरे पास रख छोड़ी थी सो इस समय जैसा तुम चाहती हो वैसा ही हो। शोक छोड़ो, आज तुमने मुझे ऋणमुक्त कर दिया। क्या कभी मैंने तुम्हारा कहा अन्यथा किया है ? ॥११३-११४।। उसी समय उन्होंने उत्तम लक्षणोंसे युक्त नमस्कार करते हुए विनयी रामको बुलाकर कुछ खिन्न चित्तसे कहा ।।११५॥ कि हे वत्स! कलाकी पारगामिनी इस चतुर केकयीने पहले भयंकर युद्ध में अच्छी तरह मेरे सारथिका काम किया था॥११६।। उस समय सन्तुष्ट होकर मैंने पत्नियों तथा राजाओंके सामने प्रतिज्ञा की थी 'जो यह चाहे सो हूँ । परन्तु उस समय इसने वह वर मेरे पास न्यासरूपमें रख छोड़ा था ॥११७।। अब किसीकी अपेक्षा नहीं रखनेवाली यह तेजस्विनी किसी खास अभिप्रायसे उस वरको इस प्रकार मांग रही है कि 'मेरे पुत्रके लिए राज्य दीजिए' ॥११८॥ उस समय प्रतिज्ञा कर इस समय यदि इसके लिए इसकी इच्छानुरूप वर नहीं देता हूँ तो संसारके आलम्बनसे उन्मुक्त होकर भरत दीक्षा ले लेगा ॥११९|| और यह पुत्रके शोकसे प्राण छोड़ देगी तथा असत्य व्यवहारके कारण उत्पन्न हुई मेरी अपकीर्ति
१. मायात म. । २. चक्ष्यति म. (?)। ३. लिखितं म. ।
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