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एकत्रिंशत्तमं पर्व नाथाज्ञापय किं कृत्यमिति चोक्तेन भभृता । विनीता जगदे संसत् प्रव्रजामीति निश्चितम् ।।८०॥ ततस्तन्मन्त्रिणोऽवोचन गण्यमानाश्च पार्थिवाः। नाथ किं कारणं जातं मतावस्यां तवाधुना ॥८॥ जगादासौ समक्षं मोनन्वेतत्सकलं जगत् । शुष्कं तृणमिवाजलं दह्यते मृत्युवह्निना ॥८२॥ अग्राह्यं यदभव्यानां भव्यानां ग्रहणोचितम् । सुरासुरनमस्कार्य प्रशस्य शिवसौख्यदम् ।।८३॥ त्रिलोके प्रकटं सूक्ष्म विशुद्धमुपमोज्झितम् । श्रुतं तन्मुनितो जैनं श्रुतमद्य मयाचिरात् ।।८४॥ परमं सर्वभागनां सम्यक्त्वमतिनिर्मलम् । गुरुपादप्रसादेन प्राप्तोऽहं वर्त्म निर्वृतेः ॥८५॥ नानाजन्ममहावता मोहरकसमाकुलाम् । कुतर्कग्राहसंपूर्णां महादुःखोर्मिसंतताम् ॥८६॥ मृत्युकल्लोलसंयुक्तां कुदृष्टिजलनिर्भराम् । समाक्रन्दमहारावां विधर्मजववाहिनीम् ।।८७।। भवापगां मम स्मृत्वा नरकाम्भोधिगामिनीम् । पश्यताङ्गानि कम्पन्ते वित्रासेन समन्ततः ।।८८॥ वृथावोचत मा किंचिदात्मानं मोहिता भृशम् । तमसः प्रकटे देशे कुतः स्थान रवी सति ।।८।। अभिषिञ्चत मे पुत्रं प्रथम राज्यपालने । त्वरितं येन निर्विघ्नं प्रविशामि तपोवनम् ॥१०॥॥ इत्युक्ते निश्चितं ज्ञात्वा महाराजस्य मन्त्रिणः । सामन्ताश्च परं शोकं प्राप्ता विनतमस्तकाः ॥११॥ लिखन्तो भूमिमङ्गुल्या वाष्पाकुलनिरीक्षणाः । क्षणेन निष्प्रमीभूतास्तस्थुमौनं समाश्रिताः ॥१२॥ प्राणेशं निश्चितं श्रुत्वा निर्ग्रन्थव्रतसंश्रयम् । एकीभूतं शुचं प्राप्तं सर्वमन्तःपुरं परम् ॥१३॥
नियुक्त कर राजाज्ञाका पालन किया। सामन्त और मन्त्रीगण आकर तथा नमस्कार कर यथास्थान बैठ गये ॥७९|| उन्होंने राजासे कहा कि हे नाथ! आज्ञा दीजिए, क्या कार्य है ? तब राजाने विनयसे भरी सभासे कहा कि मैंने निश्चय किया है कि 'दीक्षा धारण करूं' ॥८॥ तदनन्तर मन्त्रियों तथा गण्यमान-प्रमुख राजाओंने कहा कि हे नाथ ! इस समय आपकी ऐसी बद्धिके उत्पन्न होने में क्या कारण है ? ॥८१|| तब राजाने कहा कि अये! यह समस्त संसार सुखे तणके समान निरन्तर मृत्युरूपी अग्निसे जल रहा है इस बातको आप प्रत्यक्ष देख रहे हैं ।।८२।। आज मैंने अभी-अभी मुनिराजके मुखसे जिनेन्द्रप्रणीत उस शास्त्रका श्रवण किया है कि जिसे अभव्य जीव ग्रहण नहीं कर सकते, जो भव्य जीवोंके ग्रहण करनेके योग्य है, सुर और असुर जिसे नमस्कार करते हैं, जो प्रशस्त है, मोक्षसुखको देनेवाला है, तीन लोकमें प्रकट है, सूक्ष्म है। विशुद्ध है तथा उपमासे रहित है ।।८३-८४|| समस्त भावोंमें सम्यक्त्व भाव हो उत्कृष्ट तथा निर्मल भाव है, यही मुक्तिका मार्ग है। गुरु चरणोंके प्रसादसे आज मैंने उसे प्राप्त किया है ।।८५।। जिसमें नाना जन्मरूपी बडे-बडे भँवर उठ रहे हैं, जो मोहरूपी कीचडसे भरी है, कतकरूपी मगरमच्छोंसे व्याप्त है, महादुःखरूपी तरंगोंसे युक्त है, मृत्युरूपी कल्लोलोंसे सहित है, मिथ्यात्वरूपी जलसे भरी है, जिसमें रुदनरूपी भयंकर शब्द हो रहा है, जो विधर्म अर्थात् मिथ्याधर्मरूपी वेगसे बह रही है तथा नरकरूपी समुद्र के पास जा रही है, ऐसी संसाररूपी नदीका स्मरण कर देखो। भयसे मेरे अंग सब ओरसे कम्पित हो रहे हैं ।।८६-८८|| आप लोग मोहके वशीभूत हो व्यर्थ ही कुछ मत कहिए अर्थात् मुझे रोकिए नहीं क्योंकि प्रकट स्थानमें सूर्यके विद्यमान रहते अन्धकारका निवास कैसे हो सकता है ? |८९|| आप लोग मेरे प्रथम पुत्रका शीघ्र ही राज्याभिषेक कीजिए जिससे मैं निर्विघ्न हो तपोवनमें प्रवेश कर सकूँ ॥२०॥ ऐसा कहनेपर महाराजका दृढ़ निश्चय जानकर मन्त्री तथा सामन्तवग परम शोकको प्राप्त हुए। सभीके मस्तक नीचे हो रहे ॥९१॥ वे अंगुलोसे भूमिको खोदने लगे, उनके नेत्र आसुओंसे व्याप्त हो गये और सभी क्षणभरमें प्रभाहीन हो चुपचाप बैठ रहे ॥९२।। 'प्राणनाथ निश्चितरूपसे निर्ग्रन्थ व्रतको धारण करनेवाले हैं' यह सुनकर
१. शंसत् म. (?) । २. न त्वेतत् म.। ३. मां म.। ४. ज्ञात्वा म.। Jain Education International
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