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एकत्रिंशत्तम पर्व पर्याप्तानि न किं तानि दुःखानीत्युदितश्च सः । सूर्य जयसुतं राज्ये निधाय कुलनन्दनम् ॥५१॥ वृत्तान्तश्रवणात्तस्मात्परं निर्वेदमीयुषा । सूर्यजयेन सहितं सत्कर्मोदयचेतसा ॥५२॥ रत्नमाली पुनर्नानादुर्गतित्रस्तमानसः । ययौ शरणमाचार्य सौम्यं तिलकसुन्दरम् ॥५३॥ सूर्यजयस्तपः कृत्वा महाशुक्रमुपागमत् । च्युतोऽनरण्यराजर्षेः सुतो दशरथोऽभवत् ॥५४॥ स्वल्पेन सुकृतेन स्वमुपास्तिप्रमुखैर्भवैः । न्यग्रोधबीजववृद्धिं संप्राप्तोऽसि शुभोदयात् ॥५५॥ नन्दिवर्धनकाले ते नन्दिघोषपिता च यः । सोऽहं ग्रैवेयकाद् भ्रष्टः सर्वभूतहितोऽभवम् ॥५६॥ यो भूतिरुपमन्युश्च तावेतौ तद्वशानुगौ । जनको कनकश्चेति जातौ सुकृतचेतसा ॥५७॥ संसारे न परः कश्चिन्नात्मीयः कश्चिदजसा । सैषा शुभाशुभैर्जन्तोरुद्वर्तपरिवर्तना ॥५८॥ उदाहृतमिदं श्रुत्वा विनीतो वीतसंशयः । अनरण्यसुतो जातः प्रबुद्धः संयमोन्मुखः ॥५९॥ सर्वादरसमेतश्च संपूज्य चरणौ गुरोः । प्रणम्य च विशुद्धामा प्रविवेश सुकोशलम् ॥६॥ एवं च मानसे चक्रे सार्वभूमीश्वरं पदम् । पद्माय सुधिये दत्वा साधवीयां श्रये गतिम् ॥६१॥ धर्मात्मा सुस्थिरो रामस्त्रिसमुद्रां वसुन्धराम् । अनुपालयितुं शक्को भ्रातृमिः परिवारितः ॥६२॥ चिन्तयत्येवमेवास्मिन् राज्यमोहपराङ्मुखे । मुक्त्यर्थाहितचेतस्के श्रीमद्दशरथे नृपे ॥६३॥ तिरोधानं गता क्वापि स्वच्छज्योत्स्नापटा शरत् । चन्द्रास्याहिमभीतेव सरीरुहनिरीक्षणा ॥६॥ प्राप्तः प्रालेयसंपात विच्छायीकृतनीरजः । हेमन्तो जडवातेन व्याकुलीकृतविष्टपः ॥६५॥
रत्नमाली विद्याधर हुआ है ।।५०।। तूने क्या वे दुःख नहीं पाये हैं ?' इस प्रकार देवके कहते ही रत्नमालीका मन नाना दुर्गतियोंसे भयभीत हो गया। इस वृत्तान्तके सुननेसे रत्नमालीका पुत्र सूर्यंजय भी परम वैराग्यको प्राप्त हो गया इसलिए उस पुण्यात्माके साथ ही साथ राजा रत्नमाली, सूर्यंजयके पुत्र कुलनन्दको राज्य देकर तिलकसुन्दरनामा प्रशान्त आचार्यको शरणमें पहुँचा ॥५१-५३।। तदनन्तर सूर्यंजय तपकर महाशुक्र स्वर्गमें गया और वहांसे च्युत हीकर राजर्षि अनरण्यके दशरथ नामका पूत्र हआ॥५४|| सर्वभूतहित मनि कहते हैं कि त थोडे ही पण्यके द्वारा उपास्ति आदि भवोंमें वटबीजकी तरह शुभोदयसे वृद्धिको प्राप्त हुआ है ॥५५॥ तू राजा दशरथ उपास्तिका जीव है और नन्दिवर्धनकी पर्यायमें जो तेरा पिता नन्दिघोष था वह तप कर ग्रेवेयक गया और वहाँसे च्युत होकर मैं सर्वभूतहित हुआ हूँ ॥५६॥ तथा उसके अनुकूल रहनेवाले जो भूति और उपमन्युके जीव थे वे पुण्यके प्रभावसे क्रमशः राजा जनक एवं कनक हुए हैं ।।५७।। वास्तवमें इस संसारमें न तो कोई पर है और न अपना है। शुभाशुभ कर्मोंके कारण जीवका यह जन्म-मरणरूप परिवर्तन होता रहता है ॥५८। इस प्रकार पूर्वभवका वृत्तान्त सुन अनरण्यका पुत्र राजा दशरथ प्रतिबोधको प्राप्त हुआ तथा सब प्रकारका संशय छोड़ विनीत हो संयम धारण करनेके सम्मुख हुआ ॥५९|| सम्पूर्ण आदरके साथ उसने गुरुके चरणोंकी पूजा की, उन्हें प्रणाम किया और तदनन्तर निर्मल हृदय हो नगरमें प्रवेश किया ।।६०। उसने मनमें विचार किया कि यह महामण्डलेश्वरका पद बुद्धिमान् रामके लिए देकर मैं मुनिव्रत धारण करूँ ॥६१॥ धर्मात्मा तथा स्थिर चित्तका धारक राम अपने भाइयोंके साथ जिसके पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिणमें तीन समुद्र हैं ऐसी इस भरत क्षेत्रकी पृथ्वीका पालन करने में समर्थ है ॥६२॥ इस प्रकार राज्यके मोहसे विमुख
और मुक्तिके लिए चित्त धारण करनेवाले राजा दशरथ ऐसा विचार कर रहे थे कि उसी समय निर्मल चांदनी ही जिसका वस्त्र थी, चन्द्रमा ही जिसका मुख था और कमल ही जिसके नेत्र थे ऐसी शरऋतुरूपी स्त्री हिमसे डरकर ही मानो कहीं जा छिपी ॥६३-६४॥ और लगातार हिमके पड़नेसे जिसने कमलोंको कान्तिरहित कर दिया था तथा शीतल वायुसे जिसने समस्त संसारको १. कालेन म. । २. तावन्तौ म.। ३. माधवीया (?) म.। ४. संघातो विच्छायी-म.।
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