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पद्मपुराणे
मर्यादा न च नामेयं यद्विहायाग्रज क्षमम् । राज्यलक्ष्मीवधूसङ्गं कनीयान् प्राप्यते सुतः ॥१२॥ भरतस्याखिले राज्ये दत्ते स त्वं सलक्ष्मणः । व गच्छेत्परमं तेजो दधानः क्षनगोचरम् ॥१२॥ तदहं वत्स नो वेद्मि किं करोमीति 'पण्डित । अत्यन्तदुःखवेगोरुचिन्तावार्तान्तरस्थितः ॥१२३॥ ततः पद्मो जगादेवं बिभ्रद्विनयमत्तनम् । सद्भावप्रीतिचेतस्कः पादन्यस्तनिरीक्षणः ॥१२४॥ तात रक्षात्मनः सत्यं त्यजास्मत्परिचिन्तनम् । शक्रस्यापि श्रिया किं में त्वय्यकीर्तिमुपागते ॥१५॥ जातेन ननु पुत्रेण तस्कर्तव्यं गृहैषिणा । येन नो पितरौ शोकं कनिष्ठमपि गच्छतः ॥१२६॥ पुनाति त्रायते चायं पितरं येन शोकतः । एतत्पुत्रस्य पुत्रत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ।।१२७॥ सभानुरजनी यावत्कधेयं वर्तते तयोः । तावद्भवं निहन्मीति कठोरीकृतमानसः ।।१२८॥ सौधादवतरन्वेगाल्लोकहाकारनादितः । निरुद्धो भरतः पित्रा स्नेहविक्लवचेतसा ।।१२९।। उपविश्याङ्कमारोप्य परिष्वज्य सचुम्बितन् । इति चाभिदधे भूमौ तिष्ठासुवंशगः पितुः ॥१३०॥ राज्यं पालय वत्स त्वमहं यामि तपोवनम् । स जगी न भजे राज्य प्रानज्यं तु करोम्यहम् ।।१३१ । भज तावत्सुखं पुत्र सारं मनुजजन्मनः । नवेन वयसा कान्तः वृद्धः संप्रवजिष्यसि ॥१३२॥ इत्युक्तेऽमिदधे तात किं मोहयसि मां वृथा । मृत्युः प्रतीक्षते दैव बालं तरुणमेव वा ।। १३३॥ गृहाश्रमे महावत्स श्रयते धर्मसंचयः । अशक्यः कुनरैः कतु कुरुते राज्यसंगतः ।।१३।।
इस संसारमें सर्वत्र फैल जावेगी ।।१२०॥ साथ ही यह मर्यादा भी नहीं है कि समर्थ बड़े पुत्रको छोड़कर छोटे पुत्रको राज्य-लक्ष्मीरूपी स्त्रीका समागम प्राप्त कराया जाये ।।१२१जब भरतके लिए समस्त राज्य दे दिया जायेगा तब क्षत्रिय-सम्बन्धी परम तेजको धारण करनेवाले तुम लक्ष्मणके साथ कहाँ जाओगे? यह मैं नहीं जानता हूँ। तुम पण्डित-निपुण पुरुष हो। अतः बताओ कि इस दुःखपूर्ण बहुत भारी चिन्ताको बातके मध्यमें स्थित रहनेवाला मैं क्या करूँ ? ॥१२२-१२३।।
तदनन्तर उत्तम अभिप्रायके कारण जिनका चित्त अतिशय प्रसन्न था और जो अपनी दृष्टि पैरों पर लगाये हुए थे ऐसे रामने उत्तम विनयको धारण करते हए इस प्रकार कहा कि हे पिताजी! आप अपने सत्य-व्रतकी रक्षा कीजिए और मेरी चिन्ता छोडिए। यदि आप अपकीतिको प्राप्त होते हैं तो मुझे इन्द्रको लक्ष्मीसे भी क्या प्रयोजन है ? ॥१२४-१२५।। निश्चयसे उत्पन्न हुए तथा घरकी इच्छा रखनेवाले पुत्रको वही कार्य करना चाहिए कि जिससे माता-पिता किंचित् भी शोकको प्राप्त न हों ॥१२६।। जो पिताको पवित्र करे अथवा शोकसे उसकी रक्षा करे यही पुत्रका पुत्रपना है, ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं ।।१२७||
इधर जबतक पिता-पुत्रके बीच सभाको अनुरक्त करनेवाली यह कथा चल रही थी तबतक 'मैं संसारको नष्ट करूं' ऐसा दृढ़ निश्चय कर भरत महलसे नीचे उतर पड़ा। यह देख लोग हाहाकार करने लगे। पिताने स्नेहसे दुःखी चित्त होकर उसे रोका। वह पिताका आज्ञाकारी था अतः रुककर सामने पृथिवीपर खड़ा होना चाहता था; परन्तु पिताने उसे गोदमें बैठाकर उसका आलिंगन किया, चुम्बन किया और इस प्रकार कहा कि 'हे पुत्र ! तू राज्यका पालन कर । मैं तपोवनके लिए जा रहा हूँ'। इसके उत्तरमें भरतने कहा कि मैं राज्यको सेवा नहीं करूँगा, मैं तो दीक्षा धारण कर रहा हूँ ॥१२८-१३१॥ यह सुनकर पिताने कहा कि हे पुत्र ! अभी तू नवीन वयसे सुन्दर है अतः मनुष्य-जन्मका सारभूत जो सुख है उसकी उपासना कर। पीछे वृद्ध होनेपर दीक्षा धारण करना ॥१३२॥ पिताके इस प्रकार कहनेपर भरतने कहा कि हे पिताजी ! मुझे व्यर्थ ही क्यों मोहित कर रहे हो। मृत्यु बालक अथवा तरुणकी प्रतीक्षा नहीं करती ॥१३३॥ इसके उत्तरमें पिताने कहा कि हे पुत्र ! गृहस्थाश्रममें भी तो धर्मका संचय सुना जाता है। १. पीडितं म.। २. सद्भावः प्रीति -ब. । ३. भवंति हन्मीति म. (?)। ४. स्थातुमिच्छुः ।
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