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पद्मपुराणे तं दष्टोष्ठं धनुःपाणिं कवचावृतविग्रहम् । 'दग्धुकाममरिस्थानं क्रोधादाग्नेयविद्यया ॥३८॥ रथाग्रारूढमायान्तं वेगिनं मीषणाकृतिम् । नमस्थं सहसा कश्चिदमरोऽभिदधाविति ॥३९॥ रत्नमालिन् किमारब्धमिदं संरंभमुत्सृज । विबुध्यस्व वदाम्येष वृत्तान्तं तव पूर्वकम् ॥४०॥ इहासीद् भारते वास्ये मांसादोऽधमकर्मकृत् । गान्धार्या भूतिरुवीभृदुपमन्युः पुरोहितः ॥४१॥ साधोः कमलगर्मस्य श्रुत्वा व्याकरणं च सः । नाचरामि पुनः पापमिति व्रतमुपाददे ॥४२॥ पञ्चपल्योपमं स्वर्गे तेनायुः समुपार्जितम् । उपमन्यूपदेशेर्ने भस्मसादावमाहृतम् ॥४३॥ मुञ्चते सुकृतं चासाववस्कन्देन चारिभिः । प्रपत्य हिंसितः साकमुपमन्यु'पुरोधसा ॥४४॥ पुरोहितो गजो जातो युद्धेऽसौ जर्जरीकृतः । संप्राप्य जाप्यमप्राप्तमितरैर्दुःखमाजनैः ॥४५॥ पुनस्तत्रैव गान्धायाँ भूतिपुत्रस्य धीमतः । देव्यां योजनगन्धायां पुत्रोऽभूदरिसूदनः ॥४६॥ दृष्ट्वा कमलगभं च पूर्व जन्म समस्मरत् । प्रव्रज्यासौ ततो मृत्वा शतारेऽहं सुरोऽभवम् ॥४७॥ स त्वं भूतिमृगो जातो मन्दारण्ये दराकृतिः । अकामनिर्जरा तस्य दावदग्धस्य भकुना ॥४८॥ कम्बोजेन सताकारि यत्त्वया कर्म दारुणम् । ''क्लिञ्जाख्येन मृतस्त्वासीच्छर्करानरकं गतः ॥४९॥
'मया स्नेहानुबन्धेन ततस्त्वं संप्रबोधितः । अयमुढत्य जातोऽसि रखमाली खगेश्वरः ॥५०॥ सामन्तोंसे सहित था ॥३७|| जो क्रोधके कारण ओंठ डंस रहा था, जिसके हाथमें धनुष था, जिसका शरीर कवचसे आच्छादित था, जो आग्नेयविद्यासे शत्रुका स्थान जलाना चाहता था, जो रथके अग्रभागपर आरूढ़ था, जो वेगशाली था एवं भयंकर आकारका धारक था। ऐसे उस रत्नमालीको आकाशमें स्थित देख सहसा किसी देवने इस प्रकार कहा ॥३८-३९॥ कि हे रत्नमालिन् ! तूने यह क्या आरम्भ कर रखा है ? क्रोधको छोड़ और स्मरण कर, मैं तेरा पूर्व वृत्तान्त कहता हूँ॥४०॥
___ 'इसी भरत क्षेत्रकी गान्धारीनामा नगरीमें एक भूति नामका राजा था। उपमन्यु उसके पुरोहितका नाम था । राजा और पुरोहित दोनों ही मांसभोजी तथा नोचकार्य करनेवाले थे॥४१॥ एक बार कमलगर्भनामा मुनिका व्याख्यान सुनकर राजा भूतिने व्रत लिया कि अब मैं ऐसे पापका आचरण फिर कभी नहीं करूंगा ॥४२॥ इस व्रतके प्रभावसे उसने इतने पुण्यका संचय किया कि उससे स्वर्गको पाँच पल्य प्रमाण आयुका बन्ध हो सकता था, परन्तु उपमन्यु पुरोहितके उपदेशसे उसका यह सब पुण्य भस्म-भावको प्राप्त हो गया अर्थात् नष्ट हो गया। उसने उस पुण्यभावको छोड़ दिया। उसो समय शत्रुओंने आक्रमण कर पुरोहितके साथ-साथ उसे मार डाला ।।४३-४४॥ पुरोहितका जीव मरकर हाथी हुआ सो युद्धमें घायल हो अन्य दुःखी जीवोंको जिसका मिलना दुर्लभ था ऐसे पंच नमस्कार मन्त्रको पाकर उसी गान्धारीके राजा भूतिके बुद्धिमान् पुत्रकी योजनगन्धा नामा स्त्रीके अरिसूदन नामका पुत्र हुआ ||४५-४६॥ कमलगर्भ मुनिराजके दर्शन कर अरिसदनको पूर्व जन्मका स्मरण हो आया जिससे विरक्त होकर उसने दीक्षा ले ली और मरकर शतार नामक ग्यारहवें स्वर्ग में देव हुआ। इस तरह मैं वही पुरोहितका जीव देव हूँ और तू राजा भूतिका जीव मरकर मन्दारण्यनामा वनमें मृग हुआ सो वहाँ दावानलमें जलकर उसने अकामनिर्जरा की उसके फलस्वरूप वह क्लिज नामका नीच पुरुष हुआ। उस पर्यायमें तूने जो दारुण कार्य किये-तीव्र पाप किये उनके फलस्वरूप तू शर्कराप्रभा नामक दूसरे नरक गया ।।४७-४९|| तदनन्तर स्नेहके संस्कारसे मैंने वहाँ जाकर तुझे सम्बोधा जिसके प्रभावसे निकलकर तू यह १. दग्धुं कामं 'तुं काममनसोरपि' इति मलोपः । दग्धकाम म. । २. जगाद । ३. व्याख्यानम् । ४. उपमन्यूपदेशेन व्रतं त्यक्तम् । ५. उपमन्युः पुरोधसा म. । ६. जय्य म. । ७. शतारस्वर्गे । ८. भूतिनामनृपः। ९. दावदग्धोस्य म., ख.। १०. नीचपुरुषेण । ११. क्लिजाख्ये वने मृतः सन् शर्करानामनरकं प्राप्तः । १२. महा- म. ।
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