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पद्मपुराणे श्रद्धास गहीनानां हिंसादिष्वनिवर्तिनाम् । चतुर्गतिकसंवर्ता गतिरुपतमोरजाः ॥१३॥ अमव्यानां तिः क्लिष्टा विनाशपरिवर्जिता। भव्यानां तु परिज्ञेया गतिनिर्वृतिमाविनी ॥१४॥ धर्मादिद्रव्यपर्यन्तं लोकालोकमशेषतः । पृथिवीप्रभृतीन कायानाश्रिताश्चेतनाभृतः ॥१५॥ जीवराशिरनन्तोऽयं विद्यते नास्य संक्षयः। दृष्टान्तः सिकताकाशचन्द्रादित्यकरादिकः ॥१६॥ 'अनाद्यमन्तनिर्मुक्तं त्रैलोक्यं सचराचरम् । स्वकर्मनिचयोपेतं नानायोनिकृताटनम् ॥१७॥ सिद्धाः सिद्धयन्ति सेत्स्यन्ति कालेऽन्तपरिवर्जिते । जिनदृष्टेन धर्मण नैवान्येन कथंचन ॥१८॥ यः संदेहकलङ्केन निचितः पापकर्मणा । अमावितस्य धर्मेण का तस्य श्रद्दधानता ॥१९॥ कुतः श्रद्धाविमुक्तस्य धर्मो धर्मफलानि च । अत्यन्त दुःखमज्ञानं सम्यक्त्वरहितात्मनाम् ॥२०॥ अत्युग्रकर्मनिर्मोकै वष्टितानां समन्ततः । मिथ्याधर्मानुरक्तानां स्वाहिताद्दूर वर्तिनाम् ॥२१॥ सेनापुरेऽथ दीपिन्या उपास्तिर्नाम भावनः । सा च मिथ्याभिमानेन परिपूर्णा निरर्गलम् ॥२२॥ "अश्रद्दधाना संरंममत्सरक्ष्वेडधारिणी । दुर्भावा सततं साधुनिन्दनासक्तशब्दिका ॥२३॥ प्रयच्छति स्वयं नान्नं यच्छन्तं नानुमन्यते । निवारयति यत्नेन विद्यमानं सुमूर्यपि ॥२४॥
से पीड़ित तथा मोहसे अन्धे मनुष्य इसे नहीं देख सकते हैं ॥१२॥ जो मनुष्य श्रद्धा और संवेगसे रहित हैं तथा हिंसादि पाँच पापोंसे निवृत्त नहीं हैं उनको चतुर्गतिमें भ्रमण करानेवाली गति अर्थात् दशा होती है। उनकी यह गति अत्यन्त उग्र तमोगुण और रजोगुणसे युक्त रहती है ॥१३॥ अभव्य जीवोंकी गति अतिशय दुःखपूर्ण तथा विनाशसे रहित है और भव्य जीवोंकी गति मोक्ष प्राप्त करनेवाली है अर्थात् अभव्य जीव सदा चतुर्गतिमें ही भ्रमण करते हैं और भव्य जीवोंमें किन्हींका निर्वाण भी हो जाता है॥१४॥ जहाँ तक धर्माधर्मादि द्रव्य पाये जाते हैं उसे लोक कहते हैं और बाकी समस्त आकाश अलोक कहलाता है। संसारके समस्त प्राणी पृथिवी आदि षट्कायको धारण करनेवाले हैं ।।१५।। यह जीवराशि अनन्त है। इसका क्षय नहीं होता है। इसके लिए बालूके कण, आकाश अथवा चन्द्रमा, सूर्य आदिकी किरणें दृष्टान्त हैं अर्थात् जिस प्रकार बालूके कणोंका अन्त नहीं है, आकाशका अन्त नहीं है और चन्द्र तथा सूर्य की किरणोंका अन्त नहीं है उसी प्रकार जीवराशिका भी अन्त नहीं है ।।१६|| चर-अचर पदार्थों अर्थात् त्रस-स्थावर जीवोंसे सहित ये तीनों लोक अनादि, अनन्त है, स्वकीय कर्मों के समूहसे सहित हैं तथा नाना योनियोंके जीव इनमें भ्रमण करते रहते हैं ।।१७।। आज तक जितने सिद्ध हुए हैं, जो वर्तमानमें सिद्ध हो रहे हैं और जो अनन्त काल तक सिद्ध होंगे वे जिनेन्द्रदेवके द्वारा देखे हुए धर्मके द्वारा ही होंगे अन्य किसी प्रकारसे नहीं ॥१८॥ जो पापकर्मके कारण संशयरूपी कलंकसे व्याप्त है तथा धर्मकी भावना अर्थात् संस्काररहित है उसके सम्यग्दर्शन कैसे हो सकता है ? ॥१९॥ जो मनुष्य श्रद्धासे रहित है उसके धर्म और धर्मके फल कहाँसे प्राप्त हो सकते हैं ? जिनकी आत्मा सम्यग्दर्शनसे रहित है, जो अत्यन्त उग्र कर्मरूपी काँचलीसे सब ओरसे वेष्टित हैं, जो मिथ्या धर्ममें अनुरक्त हैं और जो आत्महितसे दूर रहते हैं उन प्राणियोंको अत्यन्त दुःख देनेवाला अज्ञान ही प्राप्त होता है ॥२०-२१॥
अथानन्तर हस्तिनापुर नगरमें एक उपास्ति नामका गृहस्थ था। उसकी दीपिनी नामकी स्त्री थी। वह दीपिनी मिथ्या अभिमानसे पूर्ण थी, श्रद्धासे रहित थी, क्रोध तथा मात्सर्यरूपी विषको धारण करनेवाली थी, दुष्ट भावोंसे युक्त थी, उसके शब्द सदा साधुओंकी निन्दा करने में तत्पर रहते थे। वह न कभी स्वयं किसीको आहार देती थी और न देते हुए किसी दूसरेकी
१. अनादिमन्त- म. । २. असंस्कृतस्य धर्मभावनारहितस्येति यावत । ३. विज्ञानं म.। ४. निर्मोके वेष्टितानां म. । ५. दुःखवर्तिनां । ६. गृहस्थः इति । ७. अश्रद्धानात् म.।
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