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एकत्रिंशत्तम पर्व
उवाच श्रेणिको भूपः सबन्धुरनरण्यजः । इमां विभूतिं संप्राप्य चक्रे किं गणनायक ॥१॥ पुरातनं च वृत्तान्तं रामलक्ष्मणयोस्तयोः । तवैव विदितं सर्व तन्नो ब्रूहि महायशः ॥२॥ इति पृष्टो महातेजा जगाद मुनिपुङ्गवः । निरवयं तथा तत्त्वं यथा सर्वज्ञभाषितम् ॥३॥ स्वसंशयमशेषज्ञ राजा दशरथोऽन्यदा। प्रणम्य साधुमप्राक्षीत सर्वभूतहितं हितम् ॥४॥ मया जन्मानि भूरीणि परिप्राप्तानि यानि तु । वेद्मयेकमपि नो तेषां तत्सर्व विदितं त्वया ॥५॥ तान्यहं ज्ञातुमिच्छामि भगवन्नुच्यतामिति । मवत्प्रसादतो मोहं निराकर्तुमहं यजे ॥६॥ श्रोतुं समुद्यतस्यैवं भवान् दशरथस्य तु । सर्वभूतहितः साधुरिदं वचनमब्रवीत् ॥७॥ शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि यन्मां पृच्छसि सन्मते । त्वया पर्यट्य संसारे मतिरासादिता यथा ॥८॥ न त्वयैकेन संसारो भ्रान्तोऽन्यैरपि संसृतः । चिन्वानः कर्मभिः कर्म दुःखसंजननो महान् ॥९॥ अस्मिन् जगत्त्रये राजन् जन्तूनां स्वहितैषिणाम् । स्थितयस्तित्र उद्दिष्टा उत्तमाधममध्यमाः ॥१०॥ 'अभाव्यी च तथा भाव्यी सैद्धी च गतिषूत्तमा । पुनरावृत्तिनिमुक्ता कल्याणी जिनदेशिता ॥११॥ सेयं सिद्धगतिः शुद्धा सनातनसुखावहा । इन्द्रियव्रणरोगातर्मोहेनान्धैर्न दृश्यते ॥१२॥
अथानन्तर राजा श्रेणिकने गौतमस्वामीसे पूछा कि हे गणनायक ! इष्टजनोंसे सहित, राजा अनरण्यके पुत्र राजा दशरथने इस विभूतिको पाकर क्या किया ? ॥१॥ हे महायशके धारक ! राम और लक्ष्मणका पुरातन वृत्तान्त आपको ही विदित है इसलिए वह सब वृत्तान्त मुझसे कहिए ॥२॥ इस प्रकार पूछे गये महातेजस्वी मुनिराजने कहा कि हे राजन् ! इनका जैसा वृत्तान्त सर्वज्ञदेवने कहा है वैसा कहता हूँ तू सुन ।।३।। वे कहने लगे कि किसी समय राजा दशरथने समस्त पदार्थों को जाननेवाले सर्वभूतहित नामक हितकारी मुनिराजको प्रणाम कर उनसे अपना संशय पूछा ॥४॥ उन्होंने कहा कि हे स्वामिन् ! मैंने बहुत-से जन्म धारण किये हैं पर मैं उनमें से एक भी भवको नहीं जानता जब कि आपके द्वारा सब विदित हैं ॥५॥ हे भगवन् ! मैं उन्हें जानना चाहता हूँ सो कहिए। आपके प्रसादसे मोह नष्ट करनेके लिए मैं आपकी पूजा करता हूँ ॥६॥ इस प्रकार भवान्तर सुननेके लिए उद्यत राजा दशरथसे सर्वभूतहित मुनि निम्नांकित वचन कहने लगे ॥७॥
उन्होंने कहा कि हे राजन् ! सुन । हे सद्बुद्धिके धारक ! तुमने जो पूछा है वह सब मैं कहूँगा! तुमने इस संसारमें समन्तात् भ्रमण कर जिस प्रकार सद्बुद्धि प्राप्त की है वह सब मैं निवेदन करूंगा ॥८॥ दुःख देनेवाले इस महान् संसारमें केवल तुमने ही भ्रमण नहीं किया है किन्तु कर्मोंका संचय करनेवाले अन्य लोगोंने भी कर्मोदयसे इसमें भ्रमण किया है ॥९॥ हे राजन् ! इस जगत्त्रयमें अपना हित चाहनेवाले प्राणियोंकी दशाएँ उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारकी वणित की गयी हैं ।।१०। उनमें से अभव्य जीवकी दशा जघन्य है, भव्यकी मध्यम है और सिद्धोंकी उत्तम है। जिनेन्द्रभगवान्ने सिद्धगतिको पुनरागमनसे रहित तथा कल्याणकारिणी बतलाया है ॥११॥ यह सिद्धगति शुद्ध है तथा सनातन सुखको देनेवाली है। इन्द्रियरूपी व्रणरोग
१. दशरथः । २. विहितं म. । ३. समुद्यतस्यैव म. । ४. पूर्वपर्यायान् । ५. संसरणविषयीकृतः। ६. अभव्यस्येयम् अभाव्यी । ७. भव्यस्येयं भावी। ८. सिद्धानामियं सैद्धी।
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