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एकत्रिंशत्तम पर्व एवमादिमहादोषा कुतीर्थपरिभाविता । कालमेत्याभ्रमद्धीमे निष्पारे मवसागरे ॥२५॥ उपास्तिर्देहि देहीति समभ्यस्याक्षरद्वयम् । पुण्यकर्मानुभावेन पुरेऽन्द्रकपुराहये ॥२६॥ सुतोऽभूद् भेद्रधारिण्योर्भाग्यवान् बहुबान्धवः । धारणो नामतस्तस्य पत्नी नयनसुन्दरी ॥२७॥ देशकालप्रपन्नेभ्य साधुभ्यः शुद्धमावतः । दत्वासौ पारणां सम्यक्काले संत्यज्य विग्रहम् ॥२८॥ विदेहे धातकीखण्डे मेरोरुत्तरतः कुरौ । भुक्त्वा पल्यत्रयं भोगं समारूढस्त्रिविष्टपम् ॥२९॥ च्युतोऽतः पुष्कलावत्यां नगयां नन्दिघोषतः । वसुधायां समुत्पन्नो नामतो नन्दिवर्धनः ॥३०॥ नन्दिघोषोऽन्यदा धर्म श्रुत्वोद्यानं प्रबुद्धवान् । नन्दिवर्धनमाधाय पृथिवीपरिपालने ॥३१॥ यशोधरमुनेः पाश्र्वे प्रवज्य सुमहत्तपः । कृत्वा स्वर्ग समारूढस्तनुं त्यक्त्वा यथाविधि ।।३२ ॥ गृहिधर्मसमासको नमस्कारपरायणः । पूर्वकोटी महाभोगान् भुक्त्वा श्रीनन्दिवर्धनः ॥३३॥ संन्यासेन तनुं त्यक्त्वा प्रयातः पञ्चमं दिवम् । ततश्च्युतो विदेहेऽस्मिन् गिरिराजस्य पश्चिमे ॥३४॥ ख्याते शशिपुरे स्थाने विजयार्द्धनगोतमे । सूर्यजयोऽमवद विद्यल्लतायां रत्नमालिनः ॥३५॥ अन्यदा सिंहनगरं रत्नमाली महाबलः । प्रस्थितो विग्रहं कतु' यत्रासौ वज्रलोचनः ॥३६॥
रथैः प्रमास्वरैर्दिव्यैः पदातिगजवाजिमिः । नानाशस्वकृतध्वान्तैः सामन्तैः सुमहाबलैः ॥३७॥ अनुमोदना करती थी। यदि कोई दानादि सत्कार्यों में प्रवत्त होता था तो उसे वह प्रयत्नपूर्वक मना करती थी। इत्यादि अनेक महादोषोंसे युक्त थी और कुतीर्थकी भावनासे युक्त थी। इस प्रकार समय व्यतीत कर वह भयंकर तथा पाररहित संसार सागरमें भ्रमण करने लगी ।।२२-२५।। इसके विपरीत उपास्ति 'देहि' 'देहि' अर्थात् 'देओ' 'देओ' इन दो अक्षरोंका अच्छी तरह अभ्यास कर-अत्यधिक दान देकर पुण्य कर्मके प्रभावसे अन्द्रकपुरनामा नगरमें मद्रनामा गृहस्थ और उसकी धारिणीनामा स्त्रीके धारण नामका भाग्यशाली एवं अनेक बन्धुजनोंसे युक्त पुत्र हुआ। उसकी नयनसुन्दरी नामकी स्त्री थी ॥२६-२७॥
वह योग्य देश तथा कालमें प्राप्त हुए साधुओंके लिए शुद्धभावसे आहार देता था। जिसके फलस्वरूप अन्तमें समाधिपूर्वक शरीरका त्याग कर धातकीखण्डद्वीप सम्बन्धी विदेह क्षेत्रमें मेरु पर्वतकी उत्तर दिशामें विद्यमान कुरुक्षेत्रमें आर्य हुआ। वहाँ तीन पल्य तक भोग भोगकर स्वर्गमें उत्पन्न हुआ ॥२८-२९॥ वहाँसे च्युत होकर पुष्कलावती नगरीमें राजा नन्दिघोष और वसुधा रानीके नन्दिवर्धन नामका पुत्र हुआ ॥३०॥ एक दिन राजा नन्दिघोष उत्कृष्ट धर्म श्रवण कर प्रबोधको प्राप्त हुआ और नन्दिवर्धनको पृथिवी-पालनका भार सौंप यशोधर मुनिराजके समीप दीक्षा लेकर महातप करने लगा। तथा अन्तमें विधिपूर्वक शरीर त्याग कर स्वर्ग में उत्पन्न हुआ ॥३१-३२॥
इधर नन्दिवर्धन गृहस्थका धर्म धारण करने में लीन एवं पंच-नमस्कार मन्त्रकी आराधना करने में तत्पर था। वह एक करोड़ पूर्व तक महाभोगोंको भोग कर तथा संन्याससे शरीर छोड़कर पंचम स्वर्गमें गया। वहाँसे च्युत होकर इसी विदेह क्षेत्रमें सुमेरु पर्वतके पश्चिमकी ओर विजया पर्वतपर स्थित शशिपुरनामा नगरमें राजा रत्नमाली और रानी विद्युल्लताके सूर्यंजय नामका पुत्र हुआ ।।३३-३५॥ ___अथानन्तर एक समय महाबलवान् राजा रत्नमाली युद्ध करनेके लिए उस सिंहपुर नगरकी ओर चला जहां कि राजा वज्रलोचन रहता था ॥३६।। वह देदीप्यमान सुन्दर रथ, पैदल सेना, हाथी, घोड़े तथा नाना प्रकारके शस्त्रोंसे अन्धकार उत्पन्न करनेवाले अत्यन्त बलवान् १. चन्द्रपुराह्वये म. । २. भद्रनामा पुरुषः, तस्य धारिणी नाम्नी स्त्री तयोः । ३. प्रयत्नेभ्यो म. । ४. स्वर्गम् । ५. पृथुलावत्यां ज.। ६. सुमेरोः ।
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