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पद्मपुराणे स्फुटिताधरपादान्ताः पृष्ठन्यस्तपटच्चराः । दन्तवीणाकृतस्वाना रूक्षव्याकुलमूर्धजाः ॥६६॥ तित्तिरच्छदनच्छायक्रोडजङ्घा विभावसोः । सततासेवनात् कुक्षिपूरणाचूनचेतसः ॥६७॥ शरीरच्छायया तुल्याः प्रपक्वत्रपुषत्वचः । दुर्गहिनीवचःशस्वैरत्यन्तं तष्टमानसाः ॥६८॥ काष्टाद्यानयनासक्ता दिवाभास्करतापिताः । कुठारादिधराः स्कन्धौ दधानाः किणकर्कशौ ॥६९॥ शाकाम्लखलकाद्यन्तपरिपूरित कुक्षयः । दुःखं नयन्ति तस्कालं दुष्कुटीषु धनोज्झिताः ॥७॥ वरप्रासादयातास्तु शीतसङ्गमहारिभिः । संवीताङ्गा वरैर्वस्वैधुपामोदानुबन्धिभिः ॥७१॥ षडसं स्वादुसंपन्नं हेमरुक्मादिपात्रगम् । भुञ्जानाः सुरमिस्निग्धमाहारं निजलीलया ॥७२॥ कुडकुमप्रविलिप्ताङ्गा असितागुरुधूपिताः । अक्षीणधन निश्चिन्ता गवाक्षकृतवीक्षणाः ॥७३॥ गीतनृत्यादिसंप्राप्ता विनोदं परमं सदा । माल्यभूषणसंपन्नाः सुभाषितकथोद्यताः ॥७४॥ विनीताभिः कलाज्ञामिः सुरूपामिः समं नराः । क्रीडन्ति वरनारीभिः तदा पुण्यानुभावतः ॥७५।। पुण्येन लभ्यते सौख्यमपुण्येन च दुःखिताः । कर्मणामुचितं लोकः सर्व फलमुपाश्नुते ॥७६॥ तदा दशरथो भीतो भृशं संसारवासतः । निवृत्यालिङ्गनाकाङ्क्षी विरक्तो भोगवस्तुतः ॥७॥ द्वाःस्थमाज्ञापयमिन्यस्तजानुकरं द्रुतम् । भद्राह्वय स्वसामन्तान् मन्त्रिभिः सहितानिति ॥७८॥ नियुज्यात्मसमंद्वारे शासनं तेन तत्कृतम् । आगतास्ते नमस्कृत्य यथास्थानमवस्थिताः॥७९॥
व्याकुल बना दिया था ऐसा हेमन्त काल आ पहुँचा ॥६५॥ जिनके ओठ तथा पैरोंके किनारे फट गये थे, जो पीठपर पुराने चिथड़े धारण किये हुए थे, जिनके दन्त वीणाके समान शब्द कर रहे थे, जिनके मस्तकके बाल रूखे तथा बिखरे हुए थे, निरन्तर अग्निके तापनेरो जिनकी गोद तथा जाँचे तीतरके पंखके समान मटमैली हो गयी थीं, जिनका चित्त पेट भरनेकी चिन्तासे दुःखी रहता था, जो शरीरकी कान्तिसे पके हुए अपुषफलके वल्कलके समान श्यामवर्ण थे, दुष्ट भार्याक वचनरूपी शस्त्रोंसे जिनका हृदय छिल गया था, जो लकड़ी आदिके लाने में लगे रहते थे, जो दिनभर सूर्य के द्वारा तपाये जाते थे, जो कुल्हाड़ी आदि हथियारोंको धारण करते थे तथा जो भट्ट पड़ जानेसे कठोर कन्धोंको धारण करते थे तथा जो शाकभाजी आदिसे पेट भरते थे, ऐसे निर्धन मनुष्य जीर्ण-शीर्ण कुटियोंमें उस हेमन्त कालको बड़े कष्टसे व्यतीत करते थे ॥६६-७०॥ और इनसे विपरीत जो अक्षीण धनके कारण निश्चिन्त थे वे उत्तमोत्तम महलों में रहते थे, शीतके समागमको हरनेवाले तथा धपकी सुगन्धिसे सूवासित उत्कृष्ट वस्त्रोंसे उनके शरीर ढके रहते थे. स्वर्ण तथा चांदी आदिके पात्रमें रखे हए, छह रसके स्वादिष्ट, सुगन्धित तथा स्निग्ध आहारको लीलापूर्वक ग्रहण करते थे, उनके शरीर केशरसे लिप्त तथा कालागुरुकी धूपसे सुवासित रहते थे, उनके नेत्र झरोखोंको ओर झांका करते थे, वे गीत, नृत्य आदि परम विनोदको प्राप्त होते रहते थे, माला तथा आभूषणोंसे युक्त रहते थे, सुभाषितोंके कहने में तत्पर रहते थे और विनीत, कलानिपुण तथा सुन्दर रूपकी धारक उत्तम स्त्रियोंके साथ पुण्योदयसे क्रीड़ा करते थे ॥७१-७५।। आचार्य कहते हैं कि इस संसारमें पुण्यसे सुख प्राप्त होता है और पापसे दुःख मिलता है। प्राणी अपने कर्मोंके अनुरूप ही सब प्रकारका फल प्राप्त करते हैं ॥७६||
तदनन्तर उस समय संसारवाससे अत्यन्त भयभीत राजा दशरथ, मुक्तिरूपी स्त्रीके आलिंगनकी आकांक्षा करते हुए भोगवस्तुओंसे विरक्त हो गये ।।७७|| जिसने पृथिवीपर घुटने और हस्त टेककर नमस्कार किया था ऐसे द्वारपालको उन्होंने तत्काल आज्ञा दी कि हे भद्र ! मन्त्रियोंसे सहित अपने सामन्तोंको बुला लाओ ॥७८|| द्वारपालने द्वारपर अपने ही समान दूसरे पुरुषको १. नष्ट-ख. । २. काष्ठादानयताशक्त्या म. । ३. तत्कालं म.। ४. दुःखिनो भावो दुःखिता। ५. मुक्तिकान्ताश्लेषणाभिलाषी । ६. भोगवस्तुन- ख., ज., ब. ।
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