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अष्टाविंशतितमं पर्व
अर्हन्तस्त्रिजगत्पूज्याश्चक्रिणो हरयो बलाः । उत्पद्यन्ते नरा यस्यां सा कथं निन्दिता मही ॥१५॥ पञ्चकल्याणसंप्राप्तिः पुंसां वदत खेचराः । स्वप्नेऽपि जातु किं दृष्टा भवद्भिः खेचरावनौ ॥१५५॥ इक्ष्वाकुवंशसंभूता गोष्पदीकृतविष्टपाः । अनीक्षितपरच्छत्रा महारत्नसमृद्धयः ॥१५६॥ सुरेन्द्रकीर्तितोदारकीर्तयो गुणसागराः । व्यतीता बहवो भूमौ कृतकृत्या नरोत्तमाः ॥१५७॥ पुत्रोऽनरण्यराजस्य तत्र वंशे महात्मनः । जातः सुमङ्गलाकुक्षौ नृपो दशरथोऽभवत् ॥१५८॥ यो लोकहितमुद्दिश्य विरहेदपि जीवितम् । मूर्ना वहति यस्याज्ञां शेषामिव जनोऽखिलः ॥१५९॥ चतस्रो यस्य संपन्नाः सर्वशोमागुणोज्ज्वलाः । आशा इव महादेव्यः सुभावाः सुप्रसाधिताः ॥१६॥ शतानि वरनारीणां पञ्च यस्य सुचेतसः। वक्त्रनिर्जितचन्द्राणां हरन्ति चरितैर्मनः ॥१६१॥ पद्मो नाम सुतो यस्य पद्मालिङ्गितविग्रहः । दीप्तिनिर्जिततिग्मांशुः कीर्तिनिर्जितशीतगुः ॥१६२॥ स्थैर्यनिर्जितशैलेन्द्रः शोमाजितपुरन्दरः । शौर्येण यो महापद्मं जयेदपि सुविभ्रमः ॥१६३॥ अनुजो लक्ष्मणो यस्य लक्ष्मीनिलयविग्रहः । द्रवन्ति शत्रवो मीता दृष्ट्वा यस्य शरासनम् ॥१६॥ वायसा अपि गच्छन्ति नभसा तेन किं भवेत् । गुणेष्वत्र मनः कृत्यमिन्द्रजालेन' को गुणः ॥१६५॥ ग्रहणं वा भवद्भिः किं यत्र देवाधिपा अपि । क्रियन्ते भूभिसंभूतैर्नमन्तः क्षितिमस्तकाः॥१६६॥ इत्युक्त रहसि स्थित्वा संमन्त्र्य गगनायनाः । ऊचुन वेसि कार्याणि 'जनकैकाग्रमानसाः ॥१६॥
पवित्र करनेवाला भगवान् ऋषभदेवका वंश इनके कर्णगोचर नहीं हुआ ॥१५३।। त्रिजगत्के द्वारा पूजनीय तीर्थंकर चक्रवर्ती, नारायण और बलभद्र-जैसे महापुरुष जिसमें उत्पन्न होते हैं वह भूमि निन्दनीय कैसे हो सकती है ? ॥१५४॥ हे विद्याधरो ! कहो, विद्याधरोंकी भूमिमें पुरुषोंको पंच कल्याणकोंकी प्राप्ति होना क्या कभी आप लोगोंने स्वप्नमें भी देखी है ? ॥१५५।। जिनकी उत्पत्ति इक्ष्वाकु वंशमें हुई थी, जिन्होंने संसारको गोष्पदके समान तुच्छ कर दिखाया, जिन्होंने कभी दूसरेका छत्र नहीं देखा, महारत्नोंकी समृद्धि जिनके पास थी, इन्द्र जिनकी उदार कीर्तिका वर्णन करता था, और जो गुणोंके सागर थे ऐसे अनेक कृतकृत्य राजा पृथिवीपर हो चुके हैं ॥१५६१५७॥ उसी इक्ष्वाकु वंशमें महानुभाव राजा अनरण्यको सुमंगला रानीको कूक्षिसे राजा दशरथ उत्पन्न हुए हैं ।।१५८।। जो लोकहितके लिए अपना जीवन भी छोड़ सकते हैं, समस्त लोग जिनकी आज्ञाको शेषाक्षतके समान शिरसे धारण करते हैं ॥१५९॥ जिसके सर्व प्रकारकी शोभा और गुणोंसे उज्ज्वल, उत्तम अभिप्रायकी धारक तथा उत्तम अलंकारोंसे युक्त चार दिशाओंके समान चार महादेवियाँ हैं ॥१६०॥ यही नहीं, अपने मुखसे चन्द्रमाको जीतनेवाली पांच सौ स्त्रियाँ और भी अपनी चेष्टाओंसे जिसके मनको हरती रहती हैं ॥१६१।। जिसके पद्म ( राम ) नामका ऐसा पूत्र है कि लक्ष्मी जिसके शरीरका आलिंगन करती है, जिसने अपनी दीप्तिसे सूर्यको, कीतिसे चन्द्रमाको, धीरतासे सुमेरुको और शोभासे इन्द्रको जीत लिया है, जो शूरवीरतासे महापद्म नामक चक्रवर्तीको भी जीत सकता है तथा उत्तम विभ्रमको धारण करनेवाला है ॥१६२-१६३॥ जिसका शरीर लक्ष्मीका निवासस्थल है और जिसके धनुषको देखकर शत्रु भयभीत होकर भाग जाते हैं ऐसा लक्ष्मण उस रामका छोटा भाई है ॥१६४॥ विद्याधर आकाशमें चलते हैं यह कहा सो आकाशमें तो कौए भी चलते हैं। इससे उनमें क्या विशेषता हो जाती है ? यहाँ गुणोंमें मन लगाना चाहिए अर्थात् गुणोंका विचार करना चाहिए । इन्द्रजालमें क्या सार है ? ॥१६५।। अथवा आप लोगोंकी तो बात ही क्या है ? जबकि भूमिमें उत्पन्न हुए मनुष्य इन्द्रोंको भी नम्रीभूत कर देते हैं और नमस्कार करते समय उन्हें अपने मस्तक पृथिवीपर रगड़ने पड़ते हैं ।।१६६॥
अथानन्तर जनकके ऐसा कहनेपर विद्याधरोंने एकान्तमें बैठकर पहले सलाह की फिर १. जालेषु म.। २. जानककाग्रमानसः क., ख. ।
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