________________
त्रिशत्तमं पर्व बालेन्दुहृतसर्वस्वो विषयात् स निराकृतः। श्रमणाश्रममासाद्य प्राप व्रतमनामिषम् ॥१७॥ धर्म्यध्यानगतः कृत्वा कालं कलुषवर्जितः । जनकस्य विदेहायाः ससहायस्तनुं श्रितः ॥२८॥ अरण्यात् पिङ्गलः प्राप्तो दृष्ट्वा शून्यकुटीरकम् । कोटरानलजीर्णाङ्गदाहदुःखं समाप्तवान् ॥१९॥ 'यद्दर्श दुःखितोऽप्राक्षीन्नेबाम्बुकृतदुर्दिनः । दृष्टा स्यात् पुण्डरीकाक्षी ममेत्युन्मत्तविभ्रभः ॥१०॥ हा कान्त इति कुजंश्च विलापमकरोदिति । प्रभादती सवित्री तां तातं चक्रध्वजं च तम् ॥१०१ विभूतिमतितुङ्गां च बान्धवांश्च सुमानसान् । परित्यज्य मयि प्रीत्या विदेशमलि सङ्गता ॥१०२॥ रूमाहारकुवस्त्रत्वं मदर्थ सेवितं स्वया । मामुत्सृज्य व यातासि सर्वावयवसुन्दरि ॥१०३।। खिन्नोऽसी धरणी दु:खं भ्रान्तवा सगिरिकाननाम् । वियोगवह्निना दग्धः सोकण्ठस्तपसि स्थितः ॥१०४॥ ततो देवत्वमासाद्य चिन्तामेवमुपागमत् । तिर्यग्योतिं किमेता सा कान्ता सम्यक्त्ववर्जिता ॥१०५।। स्वभावार्जवसंपन्ना भूयो वा मानुषी भवेत् । जीवितान्ते जिनं स्मृत्वा किं वा देवत्वमागता ॥१०६॥ इति ध्यायन् विनिश्चित्य स्तब्धदृष्टिः प्रकोपवान् । कासौ शत्रुर्दुरात्मेति ज्ञारवा कुक्षिसमाश्रितम् ॥१०॥
प्रसूतमेककं कृत्वा शान्तः कर्मनियोगतः । बालं मुमोच जोवेहि वदन् विद्यालघूकृतम् ॥१०॥ मण्डित नामका राजा था, मैं बड़ा अधर्मी था इसलिए मैंने उसी नगर में रहनेवाले पिंगल नामक ब्राह्मणकी मनोहर स्त्रीका हरण किया था ।९६॥ मैं राजा अनरण्यके राज्यमें उपद्रव किया करता था इसलिए उसके सेनापति बालचन्द्रने मेरी सर्व सम्पदा छीनकर मुझे देशसे निकाल दिया। अन्तमें मैं भटकता हुआ मुनियोंके आश्रममें पहुंचा और वहां मैंने अनामिष अर्थात् मांसत्यागका व्रत धारण किया ॥९७।। उसके फलस्वरूप धर्मध्यानसे सहित हो तथा कलुषतासे रहित होकर मैंने मरण किया और मरकर राजा जनककी रानी विदेहाके गर्भ में जन्म धारण किया। जिस स्त्रीका मैंने हरण किया था भाग्यकी बात कि वह भी उसी विदेहाके गर्भमें उसी समय आकर उत्पन्न हुई ॥९८॥ पिंगलने जब जंगलसे लौटकर कुटिया सूनी देखी तो उसे इतना तीव्र दुःख हुआ कि मानो उसका शरीर कोटरकी अग्निसे झुलस ही गया हो ॥९९॥ वह उसके बिना पागल-जैसा हो गया, उसके नेत्रोंसे लगातार दुर्दिनकी भाँति आँसुओंकी वर्षा होने लगी तथा दुःखी होकर वह जो भी दिखता था उसीसे पूछता था क्या तुमने मेरी कमललोचना प्रिया देखी है ? ॥१०॥ वह हा कान्ते ! इस प्रकार चिल्लाता हुआ विलाप करने लगा तथा कहने लगा कि तुम मुझमें प्रीति होनेके कारण प्रभावती माता, चक्रध्वज पिता, विशाल विभूति और प्रेमसे भरे भाइयोंको छोड़कर विदेशमें आयी थीं ॥१०१-१०२॥ तुमने मेरे पीछे रूखा-सूखा भोजन और अशोभनीय वस्त्र ग्रहण किये हैं फिर भी हे सर्वावयवसुन्दरि ! मुझे छोड़कर तुम कहाँ चली गयी हो ? ॥१०३।। खेदखिन्न तथा वियोगरूपी अग्निसे जला हुआ पिंगल पहाड़ों और वनोंसे सहित पृथिवीमें दुःखी होकर चिरकाल तक भटकता रहा । अन्तमें तप करने लगा परन्तु उस समय भी उसे स्त्रीको उत्कण्ठा सताती रहती थी ॥१०४॥
तदनन्तर देवपर्यायको पाकर वह इस प्रकार चिन्ता करने लगा कि क्या मेरी वह प्रिया सम्यक्त्वसे रहित होकर तिर्यंचयोनिको प्राप्त हुई है ।।१०५।। अथवा स्वभावसे सरल होनेके कारण पुनः मानुषी हुई या आयुके अन्त समयमें जिनेन्द्रदेवका स्मरण कर देव पर्यायको प्राप्त हुई है ?॥१०६।। ऐसा विचार कर तथा सब निश्चय कर उसने अपनी दृष्टि स्थिर की तथा कुपित होकर यह विचार किया कि इसे अपहरण करनेवाला दुष्ट शत्रु कहाँ है ? कुछ समयके विचारके बाद उसे मालूम हो गया कि वह शत्रु भी इसीके साथ विदेहा रानीकी कुक्षिमें ही विद्यमान है ॥१०७|| रानी विदेहाने बालक और बालिकाको जन्म दिया सो वैरका बदला लेनेके १. यदर्थ म.। २. रामेत्युन्मत्त म.। ३. कूटांश्च म.। ४. स्वमानसान् ब. । ५. -मपि म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
- www.jainelibrary.org