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त्रिशत्तम पर्व
ध्यात्वेति सोदरस्नेहसुसंप्लावितमानसा । मुक्तकण्ठं रुरोदासौ परिदेवनकारिणी ॥६९॥ ततो रामोऽभिरामाङ्गः प्रोवाच मधुराक्षरम् । कस्माद् रोदिषि वैदेहि भ्रातृशोकेन कर्दिता ॥७०॥ मवत्या यद्यसो भ्राता श्वो ज्ञातास्मो न संशयः । अथवान्यः क्वचित् कोऽपि पण्डिते शोचितेन किम् ॥७१॥ कारणं यदतिक्रान्तं मृतमिष्टं च बान्धवम् । हृतं विनिर्गतं नष्टं न शोचन्ति विचक्षणाः ॥७२॥ कातरस्य विषादोऽस्ति दयिते प्राकृतस्य च । न कदाचिद्विषादोऽस्ति विक्रान्तस्य बुधस्य च ॥७३॥ एवं तयोः समालापं दम्पत्योः कुर्वतोः क्षपा । कृपयैव गता शीघ्रं जातमङ्गलनिस्वना ॥७४॥ ततो दशरथः कृत्वा प्रत्यङ्गं वस्तु सादरः । नगरीतो विनिष्क्रान्तः ससुतः साङ्गनाजनः ॥७५।। इतश्चेतश्च विस्तीर्णा पश्यन् खेचरवाहिनीम् । ययौ स विस्मयापन्नः सामन्तशतपूरितः ॥७६।। ईक्षांचक्रे च देवेन्द्रपुरतुल्यं विनिर्मितम् । क्षणाद्विद्याधरैः स्थानं तुङ्गप्राकारगोपुरम् ॥७॥ पताकातोरणैश्चित्रं रत्नश्च कृतमण्डनम् । प्रविवेश तदुद्यानं साधुलोकसमाकुलम् ॥७॥ नत्वा स्तुत्वा च तत्रासो गुरुं गुणगुरुं नृपः । ददशोदयने मानोश्वन्द्रयानस्य दीक्षणम् ।।७९॥ नभश्वरैः समं पूजां कृत्वा सुमहतीं गुरोः । एकपार्श्वे निविष्टोऽसौ सर्वबान्धवसङ्गतः ॥८॥ श्रीप्रभामण्डलोऽप्येकं पार्श्वमाश्रित्य खेचरैः । समस्तैः सहितस्तथी किंचिच्छोकमिवोद्वहन् ॥८॥ खेचरा भूचराश्चैते मुनयश्चान्तिकं स्थिताः । शुश्रुवुर्गुरुतो धर्ममनगारं तथेतरम् ॥८२॥ चरितं निरगाराणां शूराणां शान्तमीहितम् । शिवं सुदुर्लभं सिद्धं सारं क्षुद्रमयावहम् ।।८३॥
ऐसा विचार कर भाईके स्नेहसे जिसका मन व्याप्त हो रहा था ऐसी सीता विलाप करती हुई गला फाड़कर रोने लगी ॥६९।।
__ तदनन्तर सुन्दर शरीरके धारी रामने मधुर अक्षरोंमें कहा कि वैदेहि ! भाईके शोकसे विवश हो क्यों रही हो ॥७०॥ यदि यह तुम्हारा भाई है तो कल मालूम करेंगे इसमें संशय नहीं है और यदि कहीं कोई दूसरा है तो हे पण्डिते ! शोक करनेसे क्या लाभ है ? ॥७१।। क्योंकि जो चतुर जन हैं वे बीते हुए, मरे हुए, हरे हुए, गये हुए अथवा गुमे हुए इष्टजनका शोक नहीं करते हैं ।।७२।। हे वल्लभे ! विषाद उसका किया जाता है जो कातर होता है अथवा बुद्धिहीन होता है। इसके विपरीत जो शूरवीर बुद्धिमान् होता है उसका विषाद नहीं किया जाता ॥७३।। इस प्रकार दम्पतीके वार्तालाप करते-करते रात्रि बीत गयी सो मानो दयासे ही शीघ्र चली गयी और प्रातःकाल सम्बन्धी मंगलमय शब्द होने लगे ॥४॥
तदनन्तर राजा दशरथ अंगसम्बन्धी कार्य कर आदरसहित पुत्रों और स्त्रीजनोंके साथ नगरीसे बाहर निकले ॥७५॥ सैकड़ों सामन्त उनके साथ थे। वे जहाँ-तहाँ फैली हुई विद्याधरोंकी सेनाको देखते हुए आश्चर्यचकित होते जा रहे थे ॥७६॥ उन्होंने क्षण-भरमें ही विद्याधरोंके द्वारा निर्मित ऊंचे कोट और गोपुरोंसे सहित इन्द्रपुरीके समान स्थान देखा ॥७७॥ तदनन्तर उन्होंने पताकाओं और तोरणोंसे चित्रित, रत्नोंसे अलंकृत एवं मुनिजनोंसे व्याप्त उस महेन्द्रोदय नामा उद्यानमें प्रवेश किया ॥७८॥ वहाँ जाकर राजा दशरथने गुणोंसे श्रेष्ठ सर्वभूतहित नामा गुरुको
कर तथा उनकी स्तति कर सर्योदयके समय राजा चन्द्रगतिका दीक्षामहोत्सव देखा ||७९|| उन्होंने विद्याधरोंके साथ गुरुकी बहुत बड़ी पूजा की और उसके बाद वे समस्त भाई-बन्धुओंके साथ एक ओर बैठ गये ॥८०|| कुछ शोकको धारण करता हुआ भामण्डल भी समस्त विद्याधरोंके साथ एक ओर आकर बैठ गया ॥८१॥ विद्याधर और भूमिगोचरी गृहस्थ तथा मुनिराज सभी लोग पास-पास बैठकर गुरुदेवसे मुनि तथा गृहस्थ धर्मका व्याख्यान सुन रहे थे ॥८२।। गुरुदेव कह रहे थे कि मुनियोंका धर्म शूरवीरोंका धर्म है, अत्यन्त शान्त दशारूप है, मंगलरूप है, अत्यन्त
१. पामरस्य । २. शूरस्य ।
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