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त्रिंशत्तमं पर्व
बद पुत्रक किं न्वेतदीदशं भाषितं त्वया । सोऽवोचत्तात वक्तव्यं चरितं शृणु मामकम् ॥४०॥ पूर्वजन्मनि वास्येऽस्मिन् विदग्धे नगरे नृपः । अभूवं परराष्ट्राणां ध्वंसको मण्डितध्वनिः ॥४१॥ सर्वस्यामवनौ ख्यातः सततं विग्रहप्रियः । पालको निजलोकस्य महाविभवसंयुतः ॥४२॥ हृता तत्र मया जाया विप्रस्याशुभकर्मणा । माययाऽपाकृतश्चासौ गतः क्वाप्यतिदुःखितः ॥४३॥ ततोऽनरण्यसेनान्या गमितस्तनुशेषताम् । पर्यटन् धरणी क्वापि प्राप्तोऽस्मि मुनिसंश्रयम् ॥४४॥ यत्र त्रिलोकपूज्यानां सर्वज्ञानां महात्मनाम् । मतं मगवतां प्राप्तमहतां पावनं मया ॥४५।। तत्र बान्धवभूतस्य गुरोः शासनतो मया । अनामिषं व्रतं शुद्धं गृहीतं क्षुद्रशक्तिना ॥४६॥ शासनस्य जिनेन्द्राणामहो माहात्म्यमुत्तमम् । तथापि यन्महापापो नावतीर्णोऽस्मि दुर्गतिम् ॥४७॥ अनन्यशरणरवेन व्रतेन नियमेन च । सममन्येन जीवेन विदेहाकुक्षिमागमत् ॥४८॥ सुखेन च प्रसूता सा कन्यया सहितं 'तुकम् । केनाप्यपहृतश्चायं गृध्रण पिशितं यथा ॥४९॥ नक्षत्रगोचरातीतं तेन नीतोऽस्मि पुष्करम् । असौ नूनं स यस्यासौ हृता जाया मया पुरा ॥५०॥ मारयामीति तेजोक्त्वा भूयः कृत्वानुकम्पनम् । शनैरस्मि विमुक्तः खात् कुण्डलाभ्यामलङकृतम् ॥५१॥ पतन् वीक्ष्य तदा रात्रावुद्याने परमे तया । गृहीत्वा तात दत्तोऽस्मि जायायै करुणावता ॥५२॥ सोऽहं भवत्प्रसादेन तदङ्के वृद्धिमागतः । परं विद्याधरत्वं च कृतदुर्लडितक्रियः ॥५३॥ इत्युत्वा विररामासौ विस्मयं च जनो गतः । हाकारबहुलं शब्दं कुर्वन् कम्पितमस्तकः ॥५४॥
॥३९॥ कि हे पुत्र ! कह, तूने ऐसा कथन किसलिए किया ? इसके उत्तरमें उसने कहा कि हे तात! मेरा कहने योग्य चरित सुनिए ॥४०॥
पूर्वजन्ममें मैं इसी देशके विदग्ध नगरमें दूसरे देशोंको लूटनेवाला, समस्त पृथिवीमें प्रसिद्ध, युद्धका प्रेमी, अपनी प्रजाकी रक्षा करनेवाला तथा महाविभवसे संयुक्त कुण्डलमण्डित नामका राजा था ॥४१-४२।। वहाँ मैंने अशुभ कर्मके उदयसे एक ब्राह्मणकी स्त्री हरी और ब्राह्मणको मायापूर्वक तिरस्कृत किया जिससे वह अत्यन्त दुःखी होकर कहीं चला गया ||४३।। तदनन्तर राजा अनरण्यके सेनापतिने मेरी सब सम्पत्ति हरकर मेरे पास केवल मेरा शरीर ही रहने दिया। अन्त में अन्यन्त दरिद्र हो पृथिवीपर भटकता हुआ मैं कहीं मुनियोंके आश्रममें पहुँचा ॥४४॥ वहाँ मैंने तीनों लोकोंसे पूज्य, सब पदार्थोंको जाननेवाले तथा महान् आत्माके धारक अरहन्त भगवान्का पवित्र धर्म प्राप्त किया ॥४५॥ और समस्त जीवोंके बान्धवभूत श्री गुरुके उपदेशसे निरतिचार मांसत्याग व्रत धारण किया। मैं अत्यन्त क्षुद्र शक्तिका धारक था इसलिए अधिक व्रत धारण नहीं कर सका ।।४६।। अहो ! जिन शासनका बड़ा माहात्म्य है जो मैं महापापी होकर भी दुर्गतिको प्राप्त नहीं हुआ ॥४७॥ श्री जिनधर्मकी शरण होनेसे तथा व्रत और नियमके प्रभावसे मेरा जीव किसी अन्य जीवके साथ राजा जनककी विदेहा रानीके उदरमें पहुंचा ॥४८|| रानी विदेहाने सुखपूर्वक कन्याके साथ एक पुत्र उत्पन्न किया सो जिस प्रकार गीध मांसके टुकड़ेको हर लेता है उसी प्रकार किसीने उस पुत्रको हर लिया ॥४९।। वह व्यक्ति उस बालकको नक्षत्रोंसे भी अधिक ऊंचे आकाशमें ले गया। यथार्थमें व्यक्ति वही था जिसकी स्त्री पहले मैंने हरी थी ॥५०॥ पहले तो उसने कहा कि मैं इसे मारता हूँ परन्तु फिर दया कर उसने कुण्डलोंसे अलंकृत कर धीरेसे आकाशसे छोड़ दिया ॥५१॥ उस समय तुम परम उपवन में विद्यमान थे सो रात्रि में तुमने मुझे ऊपरसे ही पकड़ लिया और दयालु होकर अपनी रानीके लिए सौंपा ॥५२॥ आपके प्रसादसे रानीकी गोद में वद्धि प्राप्त हआ. उत्कृष्ट विद्याओंका धारक हआ और बहत ही लाडप्यारसे मेरा पालन हआ ॥५३॥ यह कहकर भामण्डल चुप हो रहा तथा उपस्थित समस्त लोग १. गमिस्तुषशेषतां म. । २. पुत्रं 'तुक् तोकं चात्मजः प्रजा' इत्यमरः । ३. गगनम् । २-८ For Private & Personal Use Only
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