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त्रिंशत्तम पर्व
बृहत्केतुस्ततोऽवोचत् किमद्याप्युपगुह्यते । निवेद्यतां कुमारस्य निराशो येन जायते ॥१३॥ ततस्ते कथायाञ्चकुस्तस्मै सर्व यथाविधि । 'चन्द्रयानं पुरस्कृत्य कथमप्युज्झिताक्षराः ॥१४॥ जनको बाल कन्यायाँ इहैवास्माभिराहृतः । याचितश्चातियत्नेन पद्म स्योचे प्रकल्पिताम् ॥१५॥ उक्तप्रत्युक्तमालाभिरस्माभिस्तेन निर्जितैः । धनूरत्नावधिश्चक्रे कृतसंमन्त्रणैः किल ॥१६॥ धनूरत्नलता तस्य रामस्याक्लिष्टकर्मणः । शादलस्य वधार्तस्य मांसपेशी यथापिता ॥१७॥ कन्या स्वयंवरा साध्वी कथा हृदयहारिणो । नवयौवनलावण्यपरिपूरितविग्रहा ॥१८॥ अबालेन्दुमुखा बाला मदनेन समन्विता । चैदेही रामदेवस्य श्रीसमा वनिताभवत् ॥१९॥ न चापे सांप्रतं जाते गदासीरादिसंयुते । अमराधिष्ठिते नापि कन्या त्रैलोक्य सुन्दरी ॥२०॥ अपि द्रष्टुं न ये शक्ये सुपर्णोरगदानवैः । रामलक्ष्मणवीराभ्यामाकृष्टे ते शरासने ॥२१॥ प्रसह्य साधुना हर्तुमशक्या त्रिदशैरपि । किमुतात्यन्तमस्माभिर्निस्सारैर्धनुषी विना ॥२२॥ पूर्वमेव हृता कस्मान्नेति चेन्मन्यते शिशो । यजामाता दशास्यस्य जनकस्य सुहृन्मधुः ॥२३॥ अवगम्य कुमारैवं विनीतः स्वस्थतां भज । शक्नोति न सुरेन्द्रोऽपि विधातुं विधिमन्यथा ॥२४॥
लज्जाको प्राप्त हुआ ॥१२॥ तब बृहत्केतु नामा विद्याधर बोला कि अबतक इस बातको क्यों छिपाया जाता है प्रकट कर देना चाहिए जिससे कि कुमार इस विषयमें निराश हो जावे ॥१३॥
तदनन्तर उन सबने चन्द्रयानको आगे कर लड़खड़ाते अक्षरोंमें सब समाचार भामण्डलसे कह दिया ||१४|| उन्होंने कहा कि हे कुमार ! हम लोग कन्याके पिताको यहां ही ले आये थे और उससे यत्नपूर्वक कन्याकी याचना भी की थी पर उसने कहा था कि मैं उस कन्याको रामके लिए देना संकल्पित कर चुका हूँ ॥१५॥
उत्तर-प्रत्युत्तरसे जब उसने हम सबको पराजित कर दिया तब हमने मन्त्रणा कर धनुषरत्नकी अवधि निश्चित की अर्थात् राम और भामण्डल में-से जो भी धनुष-रत्नको चढ़ा देगा वही कन्याका स्वामी होगा ॥१६।। हम लोगोंने धनुषकी शर्त इसलिए रखी थी कि राम उसे चढ़ा नहीं सकेगा अतः अगत्या तुम्हें ही कन्याकी प्राप्ति होगी परन्तु वह धनुषरत्नरूपी लता पुण्याधिकारी रामके लिए ऐसी हुई जैसे भूखसे पीड़ित सिंहके लिए मांसकी डली अर्पित की गयी हो अर्थात् रामने धनुष चढ़ा दिया जिससे वह साध्वी कन्या स्वयंवरमें रामकी स्त्री हो गयी। वह कन्या अपने वचनोंसे हृदयको हरनेवाली थी, नवयौवनसे उत्पन्न लावण्यसे उसका शरीर भर रहा था, तरुण चन्द्रके समान उसका मुख था, लक्ष्मीको तुलना करनेवाली थी और कामसे सहित थी ॥१७-१९॥
वे सागरावर्त और वज्रावर्त नामा धनुष आजकलके धनुष नहीं थे किन्तु बहुत प्राचीन थे, गदा, हल आदि शस्त्रोंसे सहित थे, देवोंसे अधिष्ठित थे तथा सुपणं और उरग जातिके दैत्योंके कारण उनकी ओर देखना भी सम्भव नहीं था। फिर भी राम-लक्ष्मणने उन्हें चढ़ा दिया और रामने वह त्रिलोकसुन्दरी कन्या प्राप्त कर ली ।।२०-२१।। इस समय वह कन्या देवोंके द्वारा भी जबरदस्ती नहीं हरी जा सकती है फिर जो उन धनुषोंके निकल जानेसे अत्यन्त सारहीन हो गये हैं ऐसे हम लोगोंकी तो बात ही क्या है ॥२२॥ हे कुमार ! यदि यह कहो कि रामके स्वयंवरके पहले ही उसे क्यों नहीं हर लिया तो उसका उत्तर यह है कि रावणका जमाई राजा मधु जनकका मित्र है सो उसके रहते हम कैसे हर सकते थे ? ।।२३।। इसलिए यह सब जानकर हे कुमार ! स्वस्थताको प्राप्त होओ, तुम तो अत्यन्त विनीत हो, जो कार्य जैसा होना होता है उसे इन्द्र भी अन्यथा नहीं कर सकता ॥२४॥ १. चण्डयानं म.। २. दिहैव म.। ३. समपिता म. ।
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