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एकोनत्रिशत्तम पर्व
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ततः सिद्धान्तसंबद्धामशृणोद गुरुतः कथाम् । अनुयोगान्यतीतानां भाविनां च महात्मनाम् ॥११२॥ लोकं द्रव्यानुभावांश्च युगानि च यथाविधि । स्थिति कुलकराणां च वंशांश्च बहुधागतान् ॥११३॥ पदार्थान् सर्वजीवादीन् पुराणानि च सादरम् । श्रुत्वा प्रणम्य संघेशं नगरं पार्थिवोऽविशत् ॥११॥
मन्दाक्रान्ताच्छन्दः
दत्वा स्थानं क्षणमवनिभृन्मन्त्रिणां स क्षितीशां
कृत्वा जैनी गुणगणकथां 'विस्मयेनातिपूर्णः । अन्तगेंहं प्रविशति तदा मञ्जनादिक्रियाश्च
प्रीतश्चक्रे विपुलविभवः स प्रजापत्यभिख्यः ॥११५॥ संपूर्णानां परममहसा चन्द्रकान्ताननानां
चक्षुश्चेतोहरणनिपुर्विभ्रमैर्मण्डितानाम् । श्रीतुल्यानां परमविनयं बिभ्रतीनां प्रियाणां
पद्मालीनां रविरिव रतिं तत्र कुर्वन् स तस्थौ ॥११६॥
इत्याचे रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मचरिते दशरथवैराग्यसर्वभूतहितागमाभिधानं नाम एकोनत्रिंशत्तमं पर्व ॥२९॥
सिद्धान्तसे सम्बन्ध रखनेवाली कथा सुनी, अतीत अनागत महापुरुषोंके चरित सुने, लोक, द्रव्य, युग, कुलकरोंकी स्थिति, अनेक वंश, जीवादिक समस्त पदार्थ और पुराणोंको बड़े आदरसे सुना। तदनन्तर संघके स्वामी. सर्वभूतहित आचार्यको नमस्कार कर राजाने नगरमें वापस प्रवेश किया ॥११२-११४॥
तदनन्तर मन्त्रियों और राजाओंको क्षण भरके लिए स्थान देकर अर्थात् उनके साथ वार्तालाप कर जिनराज सम्बन्धी गुणोंकी कथा कर आश्चर्यसे भरे हुए राजाने अन्तःपुरमें प्रवेश किया। वहाँ विपुल वैभव तथा प्रजापतिकी शोभा धारण करनेवाले राजाने बड़ी प्रसन्नतासे स्नानादि क्रियाएं कीं ॥११५।। तदनन्तर जो उत्कृष्ट कान्तिसे युक्त थीं, चन्द्रमाके समान सुन्दर मुखोंको धारण कर रही थीं, नेत्र और हृदयको हरने में निपुण विभ्रभोंसे सुशोभित थीं, लक्ष्मीके तुल्य थीं और परम विनयको धारण कर रही थीं ऐसी स्त्रियोंको, कमलिनियोंको सूर्यकी भाँति आनन्द उपजाता हुआ वह उसी अन्तःपुरमें ठहर गया ।।११६।।
इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मचरितमें राजा दशरथके चैराग्य और
सर्वभूत आचार्य के आगमनका वर्णन करनेवाला उन्तीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥२९॥
१. विस्मयं च तिपूर्णः म.।
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