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त्रिंशत्तमं पर्व
ततः कालो गत क्वापि धनौघडमरो 'नृप । प्रोद्ययौ पुष्कर धौतमण्डलायसमप्रभम् ॥१॥ पद्मोत्पलादिजलजपुष्पमुन्मादकृद् बमौ । साधूनां हृदयं यद्वद् बभूव विमलं जलम् ॥२॥ शरत्कालः परिप्राप्तः प्रकटं कुमुदैर्हसन् । नष्टमिन्द्रधनुर्जाता धरणी पङ्कवर्जिता ॥३॥ विद्युत्संभावनायोग्यास्तूलराशिसमत्विषः । क्षणमात्रमदृश्यन्त धेनलेशा क्वचित्क्वचित् ॥४॥ सन्ध्यालोकललामोष्ठी ज्योत्स्नातिविमलाम्बरा । निशानववधू ति चन्द्रचूडामणिस्तदा ॥५॥ चक्रवाककृतच्छाया मत्तसारसनादिताः । वाप्यः पद्मवनभ्राम्यगाजहंसैविराजिरे ॥६॥ भामण्डलकुमारस्य सीतां चिन्तयतस्तु तत् । ऋतुनार्चितमप्येवं जातमग्निसमं जगत् ॥७॥ अरत्याकर्षिताङ्गोऽसौ परित्यज्यान्यदा त्रपा । पितुः पुरः परं मित्रं वसन्तध्वजमब्रवीत् ॥८॥ दीर्घसूत्रो मवानेवं परकार्येषु शीतलः । 'गणरात्रमिदं दुःखं तस्यां मे गतचेतसः ॥९॥ उद्वेगविपुलावत प्रत्याशाजलधौ मम । निमजेनः सखे कस्माहीयते नावलम्बनम् ॥१०॥ इत्यार्तध्यानयुक्तस्य निशम्य गदितं बुधाः । सर्वे गतप्रभीभूता विषादं परमं ययुः ॥११॥ तान् वीक्ष्य शोकसंतप्तान वारणानिव शुष्यतः। आवर्जितशिराव्रीडां क्षणं भामण्डलोऽगमत् ॥१२॥
अथानन्तर मेघोंके आडम्बरसे युक्त वर्षाकाल कहीं चला गया और आकाश मांजे हुए कृपाणके समान निर्मल प्रभाका धारक हो गया ||१|| कमल उत्पल आदि जलमें उत्पन्न होनेवाले पुष्प कामीजनोंको उन्माद करते हुए सुशोभित होने लगे तथा जल साधुओंके हृदयके समान निर्मल हो गया ॥२॥ कुमुदोंके सफेद पुष्पोंसे प्रकट रूपसे हँसता हुआ शरदकाल आ पहुँचा, इन्द्रधनुष नष्ट हो गया और पृथ्वी कीचड़से रहित हो गयी ॥३॥ जिनमें बिजली चमकनेकी सम्भावना नहीं थी और जो रूईके समूहके समान सफेद कान्तिके धारक थे ऐसे मेघोंके खण्ड कहीं-कहीं दिखाई देने लगे ||४|| सन्ध्याका लाल-लाल प्रकाश जिसका सुन्दर ओंठ था, चाँदनी ही जिसका अत्यन्त उज्ज्वल वस्त्र था और चन्द्रमा ही जिसका चूडामणि था, ऐसी रात्रिरूपी नववधू उस समय अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥५॥ चक्रवाक पक्षी जिनकी शोभा बढ़ा रहे थे, और मदोन्मत्त सारस जहाँ शब्द कर रहे थे ऐसी वापिकाएं कमलवनमें घूमते हुए राजहंसोंसे सुशोभित हो रही थीं ॥६।। इस तरह यह जगत् यद्यपि शरऋतुसे सुशोभित था तो भी सीताकी चिन्ता करनेवाले भामण्डलके लिए अग्निके समान जान पड़ता था ।।७।।
अथानन्तर अरतिसे जिसका शरीर आकर्षित हो रहा था ऐसा भामण्डल एक दिन लज्जा छोड़ पिताके आगे अपने परममित्र वसन्तध्वजसे इस प्रकार बोला कि ।।८॥ आप बड़े दीर्घसूत्री हैं-देरसे काम करनेवाले हैं और दूसरेके कार्य करने में अत्यन्त मन्द हैं । उस सीतामें जिसका चित्त लग रहा है ऐसे मुझे दुःख उठाते हुए अनेक रात्रियां व्यतीत हो गयीं। फिर भी तुझे चिन्ता नहीं है ॥९।। जिसमें उद्वेगरूपी बड़ी-बड़ी भँवरें उठ रही हैं ऐसे आशारूपी समुद्र में मैं डूब रहा हूँ। सो हे मित्र ! मुझे सहारा क्यों नहीं दिया जा रहा है ॥१०॥ इस प्रकार आर्तध्यानसे युक्त भामण्डलके वचन सुनकर सभी विद्वान् हतप्रभ होते हुए परम विषादको प्राप्त हुए ॥११|| तदनन्तर उन सबको शोकसे सन्तप्त तथा हाथियोंके समान सूखते हुए देख भामण्डल शिर नीचा कर क्षणभरके लिए
१. नृपः म.। २, उज्ज्वलकृपाणतुल्यप्रभम् । ३. मेघलेशाः, घनलेश्याः म., ख..ब.। ४. विलम्बेन कार्यकारी । ५. मन्दः । ६. बहूनां रात्रीणां समूहः । ७. गतवेगतः म.। ८. निसर्गतः म. । ९. गतप्रभाभूता: म. ।
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