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पद्मपुराणे भूरिशोऽवग्रहांश्चक्रुर्मुनयः क्षितिगोचराः। खयानलब्धयश्चैते पान्तु त्वा मगधाधिप ॥९८॥ अथ भेरीनिनादेन शङ्खनिस्वनशोमिना । 'दोषान्ते कोशलानाथो विबुद्धो भास्करो यथा ॥१९॥ ताम्रचूडाः खरं रेणुर्दम्पतीनां वियोजकाः । सारसाश्चक्रवाकाश्च सरसीषु नदीषु च ॥१०॥ भेरीपणववीणाद्यैर्गीतैश्च सुमनोहरैः । व्यावृतश्चैत्यगेहेषु जायते विपुलो जनः ॥१०॥ विघूर्णमाननयनः सकलारुणलोचनः । विमुञ्चते जनो निद्रा प्रियामिव हियान्वितः ॥१०२॥ प्रदीपाः पाण्डुरा जाता शशाङ्कश्च गतप्रमः । विकासं यान्ति पद्मानि कुमुदानि निमीलनम् ॥१.३॥ ध्वस्ता ग्रहादयः सर्वे दिवाकरमरीचिभिः । जिनप्रवचनज्ञस्य वचनैर्वादिनो यथा ॥१०॥ एवं प्रभातसमये संपन्नेऽत्यन्तनिर्मले । कृत्वा प्रत्यङ्गकर्माणि नमस्कृत्यार्चितं जिनम् ।।१०५॥ आरुह्य वासितां भद्रां कुथापटविराजिताम् । शतैरवनिनाथानां सेव्यमानोऽमरत्विषाम् ॥१०६॥ देशे देशे नमस्कुर्वन् मुनीश्चैत्यालयांस्तथा । महेद्रोदयमुर्वीशो ययौ छनोपशोमितः ॥१०७॥ विष्टपानन्दजननीविभूतिस्तस्य भूभृतः । राजन् संवत्सरेणापि शक्यं कथयितुं न सा ।।१०८॥ मुनिरायातमात्रः सन् गुणरत्नपयोनिधिः । श्रोत्रयोर्गोचरं तस्य संप्राप्तस्तत्र मण्डले ॥१०९॥ करेणोरवतीर्यासौ राजामितपरिच्छदः । महाप्रमोदसंपूर्णो विवेशोद्यानमेदिनीम् ॥११०॥
विन्यस्य मक्तिसंपन्नः पादयोः कुसुमाञ्जलिम् । सर्वभूतहिताचार्य शिरसा स नमोऽकरोत् ॥११॥ खड्गधाराके समान कठोर व्रत धारण करते हैं ॥९७॥ जो पृथिवीपर विहार करते थे तथा जिन्हें आकाशमें चलनेकी ऋद्धि प्राप्त हुई थी ऐसे मुनिराज उस समय अनेक प्रकारके नियम धारण करते थे। गौतमस्वामी कहते हैं कि हे मगधेश्वर ! ये सब मुनिराज तुम्हारी रक्षा करें ॥९८॥
___ अथानन्तर प्रातःकाल होनेपर शंखके शब्दसे सुशोभित भेरीके नादसे राजा दशरथ सूर्यके समान जागृत हुए ॥१९॥ स्त्री-पुरुषोंका वियोग करनेवाले मुर्गे तथा सरोवर और नदियों में विद्यमान सारस और चक्रवाक पक्षी जोर-जोरसे शब्द करने लगे ॥१००॥ भेरी, पणव तथा वीणा
आदिके मनोहर गीतोंसे आकर्षित हो बहुत-से मनुष्य जिनमन्दिरोंमें उपस्थित होने लगे ॥१०॥ जिस प्रकार लज्जासे युक्त मनुष्य प्रियाको छोड़ता है इसी प्रकार जिसके नेत्र घूम रहे थे तथा समस्त नेत्र लाल-लाल हो रहे थे ऐसा मनुष्य निद्राको छोड़ रहा था ॥१०२॥ दीपक पाण्डुवर्ण हो गये थे और चन्द्रमा फीका पड़ गया। कमल विकासको प्राप्त हुए और कुमुद निमीलित हो गये ॥१०३।। जिस प्रकार जिनशास्त्रके ज्ञाता मनुष्यसे वादी परास्त हो जाते हैं उसी प्रकार सूर्यको किरणोंसे समस्त ग्रह परास्त हो गये अर्थात् छिप गये ॥१०४॥ इस प्रकार अत्यन्त निर्मल प्रभातकाल होनेपर राजा दशरथने शरीर-सम्बन्धी कार्य कर पूजनीय जिनेद्रभगवान्को नमस्कार किया। तदनन्तर मनोहर झूलसे सुशोभित हस्तिनीपर सवार हो वह मुनिराजकी वन्दनाके लिए चला। देवोंके समान कान्तिको धारण करनेवाले हजार राजा उसकी सेवा कर रहे थे ॥१०५-१०६॥ इस प्रकार छत्रसे सुशोभित राजा दशरथ जगह-जगह मुनियों और जिनत्यालयोंको नमस्कार करता हुआ महेन्द्रोदय नामा उद्यानमें पहुँचा ॥१०७॥ गौतमस्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! उस समय राजा दशरथकी लोकको आनन्दित करनेवाली जो विभूति थी वह एक वर्षमें भी नहीं कही जा सकती है ।।१०८॥ गुणरूपी रत्नोंके सागर मुनिराज जब देशमें पधारे थे तभी उसके कानोंमें यह समाचार आ पहुँचा था ॥१०९।। तदनन्तर हस्तिनीसे उतरकर अपरिमित वैभवके धारक एवं महान् हर्षसे परिपूर्ण राजाने उद्यानकी भूमिमें प्रवेश किया ॥११०॥ तत्पश्चात् भक्तिसे युक्त हो चरणोंमें पुष्पांजलि बिखेरकर उसने सर्वभूत आचार्यको शिरसे नमस्कार किया ॥१११।। १. निशान्ते प्रभाते इत्यर्थः । २. विवृद्धो म.। ३. रराण, रेणतुः, रेणुः-शब्दं चक्रुः । ४. करिणीम् । ५. नमस्करोत् (?) म.।
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