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पद्मपुराणे स त्वं नाथ जराधीनं मम ज्ञात्वा शरीरकम् । कोपमर्हसि नो कर्तुं धीर धत्स्व प्रसन्नताम् ॥७॥ निशम्य तद्वचो राजा गण्डं कुण्डलमण्डितम् । वामे करतले न्यस्य चिन्तामेवमुपागमत् ॥७२॥ जलबुबुदनिस्सारं कष्टमेतच्छरीरकम् । संध्याप्रकाशसंकाशं यौवनं बहुविभ्रमम् ॥७३॥ सौदामिनीत्वरस्यास्य कृते देहस्य मानवाः । आरम्भन्ते न किं कृत्यं नितान्तं दुःखसाधनम् ॥७॥ अतिमत्ताङ्गनापाङ्गभङ्गतुल्याः प्रतारकाः । भोगिभोगसमाभोगास्तापोपचयकारिणः ॥७५॥ विषयेषु यदायत्तं दुष्प्रापेषु विनाशिषु । दुःखमेतद्विमूढानां सुखत्वेनावभासते ॥७६॥ आपातरमणीयानि सुखानि विषयादयः । किंपाकफलतुल्यानि चित्रं प्रार्थयते जनः ॥७७॥ पुण्यवन्तो महोत्साहाः प्रबोधं परमं गताः । विषवद् विषयान् दृष्ट्वा ये तपस्यन्ति सजनाः ॥७॥ कदा नु विषयांत्यक्त्वा निर्गतः स्नेहचारकात् । आचरिष्यामि जैनेन्द्रं तपो निर्वृतिकारणम् ॥७९॥ सुखेन पालिता क्षोणी भुक्ता भोगा यथोचिताः। विक्रान्ता जनिता पुत्राः किमद्यापि प्रतीक्ष्यते ॥८॥ अन्वयवतमस्माकमिदं यत्सूनवे श्रियम् । दत्वा संवेगिनो धीराः प्रविशन्ति तपोवनम् ॥८१॥ चिन्तयित्वाप्यसावेवं राजा कर्मानुभावतः । भोगेषु शिथिलासक्तिर्गृह एव रतिं ययौ ॥४२॥ यत्प्राप्तव्यं यदा येन यत्र यावद्यतोऽपि वा । तत्प्राप्यते तदा तेन तन तावत्ततो ध्रुवम् ॥८॥
कियत्यपि ततोऽतीते काले मगधसुन्दर । पर्यटन विधिना क्षोणी सङ्घन महता वृतः ॥८४॥ न्तरमें आसंग कैसे हो सकता है ? ७०॥ इसलिए हे नाथ ! मेरे शरीरको जराके आधीन जानकर आप क्रोध करनेके योग्य नहीं हैं। हे धीर ! प्रसन्नताको धारण करो ॥७१॥
कंचुकीके वचन सुनकर राजा कुण्डलसे सुशोभित कपोलको वाम करतलपर रखकर इस प्रकार विचार करने लगे ॥७२।। कि अहो, बड़े कष्टकी बात है कि यह अधम शरीर पानीके बबूलेके समान निःसार है और अनेक विभ्रमों-विलासोंसे भरा यह यौवन सन्ध्याके प्रकाशके समान भंगुर है ।।७३।। बिजलीके समान नष्ट हो जानेवाले इस शरीरके पीछे मनुष्य न जाने अत्यन्त दुःखके कारणभूत क्या-क्या कार्य प्रारम्भ नहीं करते हैं ? ॥७४! ये भोग अत्यन्त मत्त स्त्रीके कटाक्षोंके समान ठगनेवाले हैं, साँपके फनके समान भयंकर हैं और सन्तापकी वृद्धि करनेवाले हैं ||७५॥ कठिनाईसे प्राप्त होने योग्य विनाशी विषयोंमें जो दुःख प्राप्त होता है वह मूर्ख प्राणियोंके लिए सुख जान पड़ता है ॥७६।। ये जो विषयादिक हैं वे प्रारम्भमें ही मनोहर सुखरूप जान पड़ते हैं फिर भी आश्चर्य है कि लोग किम्पाक फलके समान इन सुखोंकी चाह रखते हैं ॥७७॥ जो सज्जन इन विषयोंको विषके समान देखकर तपस्या करते हैं वे पुण्यात्मा महोत्साहवान् तथा परम प्रबोधको प्राप्त हैं ऐसा समझना चाहिए ।।७८।। मैं कब इन विषयोंको छोड़कर तथा स्नेहरूपी कारागृहसे छूटकर मोक्षके कारणभूत जिनेन्द्र-प्रोक्त तपका आचरण करूंगा ॥७९॥ सुखसे पृथिवीका पालन किया, यथायोग्य भोग भोगे, और शूरवीर पुत्र उत्पन्न किये फिर अब किस बातकी प्रतीक्षा की जा रही है ॥८॥
यह हमारा वंशपरम्परागत व्रत है कि हमारे धीर-वीर वंशज विरक्त हो पुत्रके लिए राज्यलक्ष्मी सौंपकर तपोवनमें प्रवेश कर जाते हैं ॥८१॥ राजा दशरथने इस प्रकार विचार भी किया और भोगोंमें आसक्ति कुछ शिथिल भी हुई तो भी कर्मोके प्रभावसे वे घरमें ही प्रीतिको प्राप्त होते रहे अर्थात् गृहत्याग करनेके लिए समर्थ नहीं हो सके ॥८२।। सो ठीक ही है क्योंकि जिस समय जहाँ जिससे जो और जितना कार्य होना होता है उस समय वहां उससे वह और उतना ही कार्य प्राप्त होता है इसमें संशय नहीं है ।।८३॥
अथानन्तर गौतमस्वामी कहते हैं कि हे मगध देशके आभूषण ! कितना ही काल व्यतीत
१. रागकारागृहात । २. आवरिष्यामि म.। ३. प्रतीक्ष्यसे म. ।
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