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पद्मपुराणे
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"हृदये स्थापिताः कृच्छ्रादानीता वक्त्रगोचरम् । ओष्टे प्रणिहिता वर्णा व्यलीयन्तेऽस्य भूरिशः ||४३|| "सत्कारं मुहुः कुर्वन् स्फुरयन्नधरौ मुहुः । हृदयं संस्पृशन् कृच्छ्रादुपनीतेन पाणिना || ४४|| पश्चान्मस्तकभागस्थश्चन्द्रांशु सितमूर्द्धजः । मन्दवाताहत श्वेतचामरोपम कूर्चकः ॥ ४५ ॥ मक्षिकाच्छद नच्छातत्वतिरोहित्वैकसः । धवलभ्रूवलिच्छन्न शोणप्रभनिरीक्षणः ॥ ४६ ॥ अभिलक्ष्य शिराजालसंवेष्टित चलत्तदुः । असं पूरित पुस्तामः कृच्छ्राद्वासोऽपि धारयन् ॥४७॥ हिमाहत इवात्यर्थं कपोलो कम्पयन् श्लथौ । विवक्षया मुहुर्जिहां स्थानानि स्खलितां नयन् ॥४८॥ अन्येकाक्षरनिष्पत्तिं मन्यमानो महोत्सवम् । वर्णान्तराभिसंधानाद् वर्णमन्यं समुच्चरन् ॥ ४९ ॥ संधानवर्जितान् वर्णान् परमश्रमकारिणः । कण्टकानिव कृच्छ्रेण मुमोच परिजर्जरान् ॥ ५० ॥ जराधीनस्य मे नाथ किभागो मुल्यवत्सल । संप्राप्तोऽसि यतः कोपं देव विज्ञातभूषण ॥५१॥ पुरा करिकराकारभुजं कर्कश सुन्नतम् | पीनोत्तुङ्गं महोरस्कमालानसदृशो स्कम् ॥५२॥ आसीन् मम वपुः शैलराजकूटसमाकृति । कर्मणामिति चित्राणां कारणं परमोदयम् ॥ ५३ ॥ अभूतां चूर्णने देव शक्ती हस्तिकपाटयोः । करौ पाणिप्रहारश्च पर्वतस्यापि भेदकः ॥ ५४ ॥ उच्चावचां क्षितिं वेगात् पुराहं परिलङ्घयन् । राजहंस इवावातं नाथ स्थानमभीप्सितम् ॥५५॥ आसीत् दृष्टवष्टम्भस्तादृशो मम पार्थिव । आमन्येऽपि क्षितेरीशं यादृशेन तृणोपमम् ॥ ५६ ॥ पृथिवीपर घुटने और शिरपर अंजलि रखकर किसी तरह बोला || ४२ ॥
उसके हृदयमें जो अक्षर वे मुख तक बड़ी कठिनाईसे आये और जो ओठोंपर रखे गये थे वे बार-बार वहीं के वहीं विलीन हो गये ||४३|| वह बार-बार खकारता था, बार-बार ओठ चलाता था, और बड़ी कठिनाईसे उठाकर पास ले जाये गये हाथसे हृदयका स्पर्श करता था ॥४४॥ उसके मस्तक के पिछले भाग में चन्द्रमा की किरणोंके समान सफेद बाल स्थित थे तथा सफेद चरमके समान उसकी दाढ़ीके बाल मन्द मन्द वासे हिल रहे थे ||४५ || मक्खी के पंख के समान पतली त्वचासे उसकी हड्डियाँ ढँकी हुई थीं, उसके लाल-लाल नेत्र सफेद-सफेद भ्रकुटियों की वलिसे आच्छादित थे ||४६ || उसका चंचल शरीर स्पष्ट दिखाई देनेवाली नसोंके समूह से वेष्टित था, मिट्टी के अधबने खिलौने के समान उसकी आभा थी । वह वस्त्र भी बड़ी कठिनाईसे धारण कर रहा था, हिमसे ताड़ित हुए के समान दोनो शिथिल कपोलोंको कम्पित कर रहा था, बोलनेकी इच्छासे लड़खड़ाती जिल्लाको तालु आदि स्थानोंपर बड़ी कठिनाईसे ले जा रहा था, यदि एक अक्षरका भी उच्चारण कर लेता था तो उसे महान् उत्सव मानता था। कुछ वर्णं बोलना चाहता था पर उसके बदले कुछ दूसरे ही वर्णं बोल जाता था, जिनके बोलनेका विचार ही नहीं था ऐसे बहुत भारी श्रमको करनेवाले टूटे-फूटे वर्णों को वह जीर्ण-शीर्णं काँटेके समान बड़ी कठिनाईसे छोड़ता था अर्थात् उसका उच्चारण
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करता था ॥ ४७-५०॥
हे भृत्यवत्सल, स्वामिन् ! मुझ बुड्ढेका क्या अपराध है ? जिससे कि विज्ञानरूपी आभूषणको धारण करनेवाले हे देव ! आप क्रोधको प्राप्त हुए हो ॥ ५१ ॥ पहले मेरे शरीरकी भुजाएँ हाथी की सूँड़के समान थीं, शरीर अत्यन्त कठोर और ऊँचा था । सीना विशाल था,
ET आलान अर्थात् हाथी बाँधने के खम्भे के समान थीं, मेरा यह शरीर सुमेरुके शिखरके समान आकृतिवाला था, तथा अनेक अद्भुत कार्योंका सशक्त कारण था || ५२ - ५३॥ हे देव ! हमारे हाथ पहले सुदृढ़ किवाड़ोंके चूर्ण करने में समर्थ थे, हमारे पैरकी ठोकर पर्वतके भी टुकड़े कर डालती थी, ऊँची-नीची भूमिको मैं वेगसे लाँघ जाता था, हे स्वामिन्! मैं राजहंस पक्षीके समान मनचाहे स्थानको शीघ्र ही प्राप्त हो जाता था ।।५४-५५ ।। हे राजन् !
ये
मेरी दृष्टिमें इतना
नधरं म । ४. हस्तकपाटयोः म. ।
१. हृदयस्थापिता म. । २. खसङ्कारं ख. ।
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