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पद्मपुराणे को वात्र नृपतेर्दोषः प्रायः पुण्यं पुरा मया । नार्जितं येन संप्राप्ता 'निकारमिदमीदृशम् ॥१४॥ पुण्यवत्य इमाः श्लाघ्या महासौभाग्यसंयुताः । पूतं यासां जिनेन्द्राम्बु प्रीत्या प्रहितमुत्तमम् ॥१५॥ अपमानेन दग्धस्य हृदयस्यास्य मेऽधुना । शरणं मरणं मन्ये तापः शाम्यति नान्यथा ॥१६॥ 'विशाखसंज्ञमाहृय भाण्डागरिकमेककम् । जगाद भद्र नाख्येयं त्वयेदं वस्तु कस्यचित् ॥१७॥ विषणात्यन्तपरमं मम जातं प्रयोजनम् । तदानय द्रुतं भफिर्मयि चेत्तव विद्यते ॥१८॥ गत्वा स यावदन्विष्यश्चिरयत्यतिशङ्कितः । तावत्तल्पगृहं गत्वा सातिष्ठत् स्रस्तगात्रिका ॥१९॥ नृपतिश्चागतो वीक्ष्य प्रियास्तिस्रस्तया विना । समन्विष्यागमत्तस्याः समीपं त्वरितक्रमः ॥२०॥ अपश्यच्च मनश्चौरीमंशुकच्छन्नविग्रहाम् । अनादरेण सत्तल्पे शक्रयष्टिमिव स्थिताम् ॥२१॥ गृहाण तदिदं देवि क्ष्वेडमित्यवदच्च सः । प्रेष्यो दशरथश्चैतं देशं प्राप्याशृणोद् ध्वनिम् ॥२२॥ हा देवि किमिदं मुग्धे प्रारब्धमिति च ब्रुवन् । स निराकरोद् भुजिष्यं तं तत्तल्पे चोपविष्टवान् ॥२३॥ राजानमागतं ज्ञात्वा सहसा सत्रपोस्थिता । क्षितावुपविविक्षन्ती कान्तेनाङ्के निवेशिता ॥२४॥ अवाचि च प्रिये कस्मात् कोपं प्राप्ता त्वमीदृशम् । सर्वतो दयिते येन जीवितेऽप्यसि निस्पृहा ॥२५॥ सर्वतो मरणं दुःखमन्यस्मादुखतः परम् । प्रतिकारस्तु यद्यस्य तदुःखं वद कीदृशम् ॥२६॥ स्वं मे हृदयसर्वस्वं दयिते वद कारणम् । क्षणेनापनयं यस्य करिष्यामि वरानने ॥२७॥ श्रुतं वेल्सि जिनेन्द्राणां सदसद्गतिकारणम् । तथापि मतमीदृक् ते धिक्कोपं ध्वान्तमुत्तमम् ॥२८॥
अथवा इसमें राजाका क्या दोष है ? प्रायःकर मैंने पूर्व भवमें पुण्यका संचय नहीं किया होगा जिससे मैं ऐसे तिरस्कारको प्राप्त हुई हूँ ॥१४॥ ये तीनों पुण्यवती तथा महासौभाग्यसे सम्पन्न हैं जिनके लिए राजाने प्रेमपूर्वक पवित्र एवं उत्तम गन्धोदक भेजा है ॥१५॥ अपमानसे जले हुए मेरे इस हृदयके लिए इस समय मरण ही शरण हो सकता है ऐसा मैं मानती हूँ। अन्य प्रकारसे मेरा सन्ताप शान्त नहीं हो सकता ॥१६॥ यह विचारकर उसने विशाख नामक एक भाण्डारीसे कहा कि हे भद्र ! तुम यह बात किसीसे कहना नहीं ॥१७॥ मुझे विषकी अत्यन्त आवश्यकता आ पड़ी है। इसलिए यदि तेरी मुझमें भक्ति है तो शीघ्र हो ला दे ||१८|| विषके नामसे अत्यन्त शंकित होता हुआ भाण्डारी उसे खोजता हुआ जबतक कुछ विलम्ब करता है तबतक वह शयनगृहमें जाकर तथा शरीरको शिथिल कर पड़ रही ॥१९।। इतने में ही राजा आ गये और उसके बिना तीन प्रियाओंको देखकर खोज करते हुए शीघ्र ही उसके समीप जा पहुँचे ॥२०॥ उन्होंने देखा कि मनको चुरानेवाली सुप्रभा वस्त्रसे शरीर ढंककर शय्यापर अनादरसे इन्द्रधनुषके समान पड़ी है ॥२१॥
इसी समय उस भाण्डारीने आकर कहा कि हे देवि ! यह विष लो। भाण्डारीके इस शब्दको वहाँ जाकर राजाने सुन लिया ॥२२।। सुनते ही राजाने कहा कि हे देवि ! यह क्या है ? मूर्खे ! यह क्या प्रारम्भ कर रखा है ? ऐसा कहते हुए राजाने उस भाण्डारीको वहाँसे दूर हटाया और स्वयं सूप्रभाकी शय्यापर बैठ गये ॥२३॥ राजाको आया जान वह लजाती हुई सहसा उठी और पृथिवीपर बैठना चाहती थी कि उन्होंने उसे गोदमें बैठा लिया ॥२४॥ राजाने कहा कि प्रिये ! तुम इस प्रकारके क्रोधको क्यों प्राप्त हुई हो जिससे कि सबसे अधिक प्रिय अपने जीवनसे भी निःस्पृह हो रही हो ॥२५॥ मरणका दुःख सब दुःखोंसे अधिक दुःख है। सो जिस अन्य दुःखसे दुःखी होकर तुमने मरणको उसका प्रतिकार बनाया है वह दुःख कैसा है यह तो बताओ ।।२६|| हे दयिते! तुम मेरे हृदयकी सर्वस्व हो, अतः हे सुमुखि ! शीघ्र ही वह कारण बताओ जिससे मैं उसका प्रतिकार कर सकूँ ।।२७॥ सुगति और दुर्गतिके कारणोंका निरूपण करनेवाले जिनशास्त्रको
१. तिरस्कारम् । २. विशार- म. । ३. विषम् । ४. सेवकं तं । ५. दूरीभावं । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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