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पद्मपुराणे कृतसमस्तजनप्रतिमाननाः पुरुगुणस्तवसन्नतमूर्तयः । स्वनिलयेषु महासुखभोगिनी दशरथस्य सुताः सुधियः स्थिताः ॥२७॥ समवगम्य जनाः शुभकर्मणः फलमुदारमशोमनतोऽन्यथा । करत कर्म बुधैरमिनन्दितं मवत येन रवेरधिकप्रभाः ॥२७५।।
इत्याचे रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मचरिते रामलक्ष्मणरत्नमालाभिधानं नामाष्टाविंशतितमं पर्व ॥२८॥
जिन्होंने सब लोगोंका सत्कार किया था तथा अपने विशाल गुणोंके स्तवनसे जिनका शरीर विनम्र हो रहा था अर्थात् लज्जाके भारसे झुक रहा था ऐसे दशरथके बुद्धिमान् पुत्र महासुख भोगते हुए अपने महलोंमें रहने लगे ।।२७४।। गौतमस्वामी कहते हैं कि हे भव्यजनो! 'शुभ कर्मका फल अच्छा होता है और अशुभ कर्मका फल अशुभ होता है' ऐसा जानकर विद्वज्जनोंके द्वारा प्रशंसनीय वह कार्य करो जिससे कि सूर्यसे भी अधिक कान्तिके धारक होओ ॥२७॥
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध रविषेणाचार्य के द्वारा कथित पद्मचरितमें राम-लक्ष्मणको स्वयंवरमें
रत्नमालाकी प्राप्ति होनेका वर्णन करनेवाला अट्ठाईसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥२८॥
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