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पद्मपुराणे विक्रान्ताय तथा तस्मै विद्याभृच्चन्द्रवर्धनः । अष्टादश ददौ कन्या धियैवाप्रौढिका इति ॥२५०॥ विद्याधरैः समागत्य परमं भयपूरितैः । वृत्तान्ते कथिते तस्मिश्चन्द्रश्चिन्तापरः स्थितः ॥२५॥ वृत्तान्तमिममालोक्य भरतः पुरुविस्मयः । अशोचदेवमात्मानं मनसा संप्रबुद्धवान् ॥२५२॥ कुलमेकं पिताप्येक एतयोर्मम चेदृशम् । प्राप्तमद्भुतमताभ्यां न मया मन्दकर्मणा ॥२५३॥ अथवा किं मनो व्यर्थ परलक्ष्म्याभितप्यसे । पुरा चारूणि कर्माणि न कृतानि ध्रुवं त्वया ॥२५४।। पद्मगर्भदलच्छाया साक्षालक्ष्मीरिवोज्ज्वला । ईदृशी पुरुपुण्यस्य पुंसो भवति भामिनी ॥२५५॥ कलाकलापनिष्णाता विज्ञाना केकया ततः । विज्ञाय तनयाकूतं कर्णे प्रियमभाषत ।।२५६।। भरतस्य मया नाथ शोकवल्लक्षितं मनः । तथा कुरु यथा नायं निवेदं परमृच्छति ॥२५७।। अस्त्यत्र कनको नाम जनकस्यानुजो नृपः। सुप्रभायां ततो जाता सुकन्या लोकसुन्दरी ॥२५८॥ स्वयंवरामिधं भूयः समुद्घोष्य नियोज्यताम् । तथायं यावदायाति नान्यं तं भावनान्तरम् ॥२५९॥ ततः परममित्युक्त्वा वार्ता दशरथेन सा । कर्णगोचरमानीता कनकस्य सुचेतसः ॥२६॥ यदाज्ञापयतीत्युक्त्वा कनकनान्यवासरे । समाहूता नृपाः क्षिप्रं गता ये निलयं निजम् ॥२६॥ ततो यथोचितस्थानस्थितभूनाथमध्यगम् । 'नक्षत्रगणमध्यस्थशर्वरीवरेविभ्रमम् ॥२६२।। उपात्तसुमनोदामा कानकी कनकप्रभा । सुप्रभा भरतं ववे सुभद्रा भरतं यथा ॥२६३।।
खींचकर और फिर उतारकर बलवान् लक्ष्मण रामके समीप ही बड़ी विनयसे आ बैठा ।।२४९।। इस प्रकार शूरवीरता दिखानेवाले लक्ष्मणके लिए चन्द्रवर्धन विद्याधरने अत्यन्त बुद्धिमती अठारह कन्याएँ दी ।।२५०॥ भयसे अतिशय भरे हुए विद्याधरोंने वापस आकर जब यह समाचार कहा तब चन्द्रगति विद्याधर चिन्तामें निमग्न हो गया ॥२५१॥
____अथानन्तर यह वृत्तान्त देखकर जिसे बड़ा आश्चर्य प्राप्त हो रहा था, जिसे मनमें प्रबोध उत्पन्न हुआ था ऐसा भरत अपने आपके विषयमें इस प्रकार शोक करने लगा ।।२५२॥ कि देखो हम दोनोंका एक कुल है, एक पिता हैं। पर इन दोनों अर्थात् राम-लक्ष्मणने ऐसा आश्चर्य प्राप्त किया और पुण्यकी मन्दतासे मैं ऐसा आश्चर्य प्राप्त नहीं कर सका ॥२५३।। अथवा दूसरेकी लक्ष्मीसे मनको व्यर्थ ही क्यों सन्तप्त किया जाये? निश्चित ही तूने पूर्वभवमें अच्छे कार्य नहीं किये ॥२५४।। कमलके भोतरी दलके समान जिसकी कान्ति है ऐसी साक्षात् लक्ष्मीके समान उज्ज्वल स्त्री अत्यधिक पुण्यके धारक पुरुषको हो प्राप्त हो सकती है ।।२५५।।
तदनन्तर कलाओंके समूहमें निष्णात एवं विशिष्ट ज्ञानको धारण करनेवाली केकयाने पुत्रकी चेष्टा जानकर कानमें हृदयवल्लभ राजा दशरथसे कहा कि हे नाथ ! मुझे भरतका मन शोकयुक्त दिखाई देता है। इसलिए ऐसा करो कि जिससे यह वैराग्यको प्राप्त न हो जाये ॥२५६२५७॥ यहां जनकका छोटा भाई कनक है। उसकी सुप्रभा रानीसे उत्पन्न हुई लोक-सुन्दरी नामा कन्या है ।।२५८।। सो स्वयंवर विधिको पुनः घोषणा कर उसे भरतके लिए उसी तरह स्वीकृत कराओ जिस तरह कि वह किसी दूसरी भावनाको प्राप्त नहीं हो सके ॥२५९।। तदनन्तर 'बहुत ठीक है' ऐसा कहकर राजा दशरथने यह बात विचारवान् राजा कनकके कान तक पहुँचायी ॥२६०॥ राजा कनकने भी 'जो आज्ञा' कहकर दूसरे दिन जो राजा अपने घर चले गये थे उन्हें शीघ्र ही बुलाया ॥२६१॥
तदनन्तर जो यथायोग्य स्थानोंपर बैठे हुए राजाओंके मध्य में स्थित था और नक्षत्रोंके समूहके मध्य में स्थित चन्द्रमाके समान सुशोभित हो रहा था ऐसे भरतको पुष्पमाला धारण करनेवाली एवं सुवर्णके समान कान्तिसे संयुक्त, राजा कनककी पुत्री लोकसुन्दरीने उस तरह
१. नक्षत्रं गणमध्यस्थं म.। २. चन्द्रः । ३. कनकस्यापत्यं स्त्री कानकी ।
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