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एकोनत्रिंशत्तमं पर्व
प्रसीद देवि कोऽद्यापि कोपस्यावसरस्तव । प्रसादध्वनिपर्यन्तप्रकोपा हि महास्त्रियः ॥ २९ ॥ तयोक्तं नाथ कः कोपस्त्वपि मे दुःखमीदृशम् । समुत्पन्नं न ययाति शान्ति पञ्चतया विना ॥३०॥ देवि तत्कतरद्दुःखमित्युक्तैवमभाषत । शान्त्यम्बुदानमन्यासां मम नेति कुतो वद ||३१|| दृष्टेन केन कार्येण हीनाहं विदिता त्वया । यदवञ्चितपूर्वास्मि वचिता पण्डिताधुना ॥ ३२॥ यावदेवं वदव्येषा तात्रदायाति कञ्चुकी । देवि जैनाम्बु नाथेन तुभ्यं दत्तमिति ब्रुवन् ॥३३॥ अन्नान्तरे प्रियाः प्राप्ता इतरास्तामिदं जगुः । अयि मुग्धे प्रसादस्य स्थाने प्राप्तासि किं रुषा ॥३४॥ पश्यास्माकं जुगुप्साभिर्दासीभिर्जलमाहृतम् । वरिष्ठेन पवित्रेण तव कञ्चुकिनामुना ||३५|| ईदृशी नाम नाथस्य संप्रीतिर्भवतीं प्रति । यतोऽयं जनितो भेदः किमकाण्डे प्रकुप्यसि ॥३६॥ प्रसीद दयितस्यास्य लग्नस्यैव प्रयत्नतः । प्रणयादपराधेऽपि ननु तुष्यन्ति योषितः ॥ ३७ ॥ दयिते क्रियते यावत्कोपो दारुणमानसे । तावत्संसारसौख्यस्य विघ्नं जानीहि शोभने ॥ ३८ ॥ विपादयितुमस्माकमात्मानमुचितं ननु । किंश्वत्र जिनचन्द्राणां वारिणा नः प्रयोजनम् ||३९|| पत्नीभिरपि प्रीतमिति सान्त्वितया तया । चक्रे शान्त्युदकं मूर्ध्नि रोमाञ्चाचितगात्रया ॥४०॥ ततः प्रकुपितोऽवोचद् राजा कञ्चुकिनं तकम् । व्याक्षेपः क्व नु ते जातो वदापसर्दे कचुकिन् ॥४१॥ ततो भयाद्विशेषेण कम्पिताखिलविग्रहः । कञ्चुकी कथमप्यूचे क्षितिजानु शिरोऽञ्जलिः ||१२||
तुम जानती हो फिर भी तुम्हारी ऐसी बुद्धि क्यों हो गयी ? इस प्रगाढ़ अन्धकारस्वरूप क्रोधको धिक्कार हो ||२८|| हे देवि ! प्रसन्न होओ। इस समय भी क्या तुम्हारे क्रोधका कोई अवसर है क्योंकि जो महास्त्रियाँ होती हैं उनका क्रोध प्रसाद शब्द सुनने तक ही रहता है ||२९||
सुप्रभा कहा कि हे नाथ! आपपर मेरा क्या क्रोध हो सकता है ? पर मुझे ऐसा दुःख उत्पन्न हुआ है कि जो मरणके बिना शान्त नहीं हो सकता ||३०|| राजाने पूछा कि हे देवि ! वह कौन-सा दुःख है ? इसके उत्तर में सुप्रभाने कहा कि आपने अन्य रानियोंके लिए तो गन्धोदक भेजा पर मुझे क्यों नहीं भेजा सो कहिए ? ||३१|| आपने ऐसा कौन-सा कार्यं देखा जिससे मुझे हीन समझ लिया है । हे सुविज्ञ ! जिसे पहले कभी धोखा नहीं दिया उसे आज क्यों धोखा दिया गया ? ||३२|| सुप्रभ। जबतक यह सब कह रही थी कि तबतक वृद्ध कंचुकी आकर यह कहने लगा कि हे देवि ! राजाने तुम्हें यह गन्धोदक दिया है ||३३|| इसी बीच में दूसरी रानियाँ आकर उससे कहने लगीं कि अरी भोली ! तू प्रसन्नताके स्थानको प्राप्त है फिर क्या कह रही है ? ||३४|| देख, हम लोगों के लिए तो निन्दनीय दासियाँ गन्धोदक लायी हैं पर तेरे लिए यह श्रेष्ठ एवं पवित्र कंचुकी लाया है ||३५|| तेरे प्रति स्वामीकी ऐसी उत्तम प्रीति है इसीसे यह भेद हुआ है फिर असमय में क्यों कुपित हो रही है ? ||३६|| फिर स्वामी तेरे पीछे बड़े प्रयत्नसे लग रहे हैं । अतः इनपर प्रसन्न हो क्योंकि स्नेहके कारण स्त्रियाँ अपराध होनेपर भी सन्तुष्ट ही रहती हैं ||३७|| हे कठोरहृदये ! जबतक पतिपर क्रोध किया जाता है तबतक हे शोभने ! सांसारिक सुखमें विघ्न ही जानना चाहिए ||३८|| वास्तवमें तो हम लोगोंका मरना उचित था पर हमें तो गन्धोदकसे प्रयोजन था । इसलिए सब अपमान सहन कर लिया ||३९|| इस प्रकार सपत्नियोंने भी जब उसे सान्त्वना दी तब उसका शरीर रोमांचसे सुशोभित हो गया और उसने गन्धोदक मस्तकपर धारण किया ||४०|
तदनन्तर राजाने कुपित होकर उस कंचुकोसे कहा कि हे नीच कंचुकी ! बता तुझे यह विलम्ब कहाँ हुआ ? ||४१ || भयसे जिसका समस्त शरीर विशेषकर काँपने लगा था ऐसा कंचुकी •
१. पञ्चयता म । २. अनवसरे । ३. वारिणां म. (?) । ४. अधम ।
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