________________
त्रिंशत्तम पर्व तमाचार्य परिप्राप्तः पुरे सर्वारिनामनि । प्रष्टुं किल महाशोको नष्टचित्तस्तुषात्मजः ॥१२२॥ दृष्ट्वा गणेश्वरीमृद्धिं श्रुत्वा च विविधां स्थितिम् । तीव्र संवेगमासाद्य विमुचिर्मुनितां गतः ॥१२३।। पार्वे कमलकान्ताया आर्याया सुसमाहिता । सममूर्यानुकोशापि प्रव्रज्य तपसि स्थिता ॥१२४॥ त्रयोऽपि ते शुमध्यानाः कृत्वा कालमलोलुपाः । लौकान्तिकं गता लोकं नित्यालोकमनाकुलम् ॥१२५।। अतिभूतिप्रभृतयो हिंसावादस्य शंसकाः । द्वेषकाः संयतानां च कुध्याना दुर्गतिं गताः ॥१२६॥ मृगीत्वं सरसा प्राप्ता वलाहकनगोरसि । व्याघ्रमीता च्युता यूथान्मृता दावानलाहता ॥१२॥ जाता मनस्विनीदेव्याः सुता चित्तोत्सवाह्वया । दुःखदानप्रवीणस्य प्रशमात् पापकर्मणः ॥१२८॥ कयानः क्रमशो भूत्वा पारसीकः क्रमेलकः । मृत्वा पिङ्गलनामाभूधूमकेशस्य नन्दनः ॥१२९॥ हंसस्ताराक्षसरसि सोऽतिभूतिः क्रमादभत् । श्येनैर्विलुप्तसर्वाङ्गश्चैत्यस्य पतितोऽन्तके ॥१३०॥ अध्याप्यमानं गुरुणा यशोमित्रं पुनः पुनः । अश्रौषीदहतां स्तोत्रं मुक्तवानथ जीवितम् ।।१३१॥ दशवर्षसहस्रायुः किन्नरोऽभूनगोत्तरे । विदग्धनगरे च्युत्वा जातः कुण्डलमण्डितः ॥१३२॥ अहरत् पिङ्गलः कन्यां तथा कुण्डलमण्डितः। यदवायं पुरावृत्तः संबन्धः परिकीर्तितः ॥१३३॥ योऽसौ विमुचिरित्यासीत् सोऽयं चन्द्रगतिनृपः । अनुकोशा तु जायास्य जाता पुष्पवती पुनः ॥१३॥ कयानोऽयं सुरो हर्ता सरसा हृदयोत्सवा । ऊरी जाता विदेहा तु सोऽतिभूतिः प्रमाह्वयः ।।१३५॥
भ्रमण करते हुए लोगोंसे सुना कि सर्वारिपुर नामा नगरमें एक आचार्य है जिन्होंने अपने अवधिज्ञानसे इस जगत्को प्रकाशित कर रखा है सो वह उनसे पुत्रकी वार्ता पूछनेके उद्देश्यसे उनके पास गया। विमुचि महाशोकसे भरा था और पुत्र तथा पुत्रवधूका पता न लगनेसे अत्यन्त दुःखी था ॥१२१-१२२॥ वह आचार्य महाराजकी तपऋद्धि देखकर तथा संसारकी नाना प्रकारकी स्थिति सुनकर तीव्र वैराग्यको प्राप्त हुआ और उन्हींके पास दीक्षा लेकर मुनि हो गया ॥१२॥ विमुचिकी स्त्री अनुकोशा और कयानकी माता ऊरी इन दोनों ब्राह्मणियोंने भी कमलकान्ता नामक आर्यिकाके पास दीक्षा लेकर तप धारण कर लिया ॥१२४॥ विमुचि, अनुकोशा और ऊरी ये तीनों प्राणी महानिस्पृह, धर्मध्यानसे मरकर निरन्तर प्रकाशसे युक्त तथा आकुलतारहित ब्रह्मलोक नामक स्वर्गमें उत्पन्न हुए ॥१२५।। अतिभूत तथा कयान दोनों ही हिंसा धर्मके समर्थक तथा मुनियोंसे द्वेष रखनेवाले थे। इसलिए खोटे ध्यानसे मरकर दुर्गतिमें गये ॥१२६॥ अतिभूतिकी स्त्री सरसा बलाहक नामक पर्वतकी तलहटीमें मृगी हुई सो व्याघ्रसे भयभीत हो मृगोंके झुण्डसे बिछुड़कर दावानलमें जल मरी ॥१२७॥ तदनन्तर दुःख देने में प्रवीण पापकर्मके शान्त होनेसे मनस्विनी देवीके चित्तोत्सवा हुई ॥१२८॥ और कयान मरकर क्रमसे घोड़ा तथा ऊँट हुआ। फिर मरकर धूम्रकेशका पुत्र पिंगल हुआ ॥१२९।। अतिभूति भवभ्रमण कर क्रमसे ताराक्ष नामक सरोवरके तीरपर हंस हआ सो किसी समय श्येन अर्थात् बाज पक्षियोंने इसका समस्त शरीर नोंच डाला जिससे घायल होकर जिनमन्दिरके समीप पड़ा ॥१३०॥ वहाँ गुरु यशोमित्र नामक शिष्यको बार-बार अर्हन्त भगवान्का स्तोत्र पढ़ा रहे थे उसे सुनकर हंसने प्राण छोड़े ॥१३१।। उसके फलस्वरूप वह नगोत्तर नामक पर्वतपर दश हजार वर्षकी आयुवाला किन्नर देव हुआ और वहाँसे च्युत होकर विदग्धनगरमें राजा कुण्डलमण्डित हुआ ॥१३२।। पूर्वभवके संस्कारसे चित्तोत्सवा कन्याका पिंगलने अपहरण किया और उसके पाससे कुण्डलमण्डित राजाने अपहरण किया। इन सबका जो पूर्वभवका सम्बन्ध था वह पहले कहा जा चुका है ॥१३३।। इनमें जो विमुचि ब्राह्मण था वह चन्द्रगति राजा हुआ, उसकी अनुकोशा नामकी जो स्त्री थी वही पुष्पवती नामकी फिरसे स्त्री हुई ॥१३४।। कयान अपहरण करनेवाला देव हुआ, सरसा चित्तोत्सवा हुई, ऊरी विदेहा और अतिभूति भामण्डल हुआ ॥१३५।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org