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पद्मपुराणे
अन्द्रत
ततो दशरथः श्रुत्वा तं वृत्तान्तमशेषतः । भामण्डलं समाश्लिष्य वाष्पपूर्णनिरीक्षणः ॥१३६॥
तमूर्धानो जातरोमोदगमा भृशम् । आनन्दवाष्पलोलाक्षा सभायामभवञ्जनाः ॥१३७॥ उदगीर्णमाननेनैव प्रीत्या तं वीक्ष्य सोदरम् । मृगीव रुदती स्नेहाधावोतबाहुका ।।१३८॥ हा भ्रातः प्रथम दृष्टो मयाद्यासीतिशब्दिी । तमाश्लिष्य चिरं सोता रुदित्वा धृतिमागता ॥१३९।। संभाषितः स रामेण संभ्रमालिङ्गितश्विरम् । लक्ष्मणेन तथान्येन बन्धुलोकेन सादरम् ।।१४०।। नसस्कृत्य मुनि श्रेष्टं ततः खेचरभचराः । उद्यानात् प्रमदापूर्णा निरीयुः सुविराजिताः ॥१४१॥ भामण्डलेन संमन्त्र्य द्रुतं दशरथो ददौ । लेखं जनकराजस्य नीतं गगनयायिना ।।१२।। प्रेषितं मानुमार्गेण तस्य हंसतं वरम् । यानं विद्याधरैर्वी रैर्भूरिभिः परिवारितम् ।।१४३॥ प्रभामण्डलमादाय ततो भूत्यातिकान्तया । तुष्टो दशरथोऽयोध्यां 'सुत्रामसदृशोऽविशत् ॥१४४॥ अक्षीणसर्वकोशोऽसावुपचारं परं नृपः । प्रीतो भामण्डले चक्रे सर्वलोकसमन्वितः ॥१४५॥ रम्ये सुविपुले तुङ्गे वाप्युद्यान विभूषिते । गृहे दशरथोद्दिष्टे तस्थौ भामण्डलः सुखम् ॥१४६।। दारिद्रयान्मोचितो लोकः परमोत्सवजन्मना । दानेन वान्छिताधिक्यं प्राप्तेन धरणीतले ॥१४॥ गत्वा पवनवेगेन जनको लेखहारिणा । सहसा वर्द्धितो दिष्ट्या पुवागमनजन्मना ।।१४८।। प्रवाच्य चार्पितं लेखं सुदृढप्रत्ययः परम् । प्रमोदं जनकः प्राप रोमाञ्चार्चितविग्रहः ॥१४९॥ भद्र किं किमयं स्वप्नः स्याजाग्रत्प्रत्ययोऽथवा । एहि ढौकस्व ढौकस्व तावत्त्वाद्य परिष्वजे ॥१५०॥
तदनन्तर इस समस्त वृत्तान्तको सुनकर जिनके नेत्र आँसुओंसे भर गये थे ऐसे राजा दशरथने भामण्डलका आलिंगन किया ॥१३६॥ उस समय सभामें जितने लोग बैठे थे सभीके मस्तक आश्चर्यसे चकित रह गये, सभीके शरीरमें बहुत भारी रोमांच निकल आये और सभीके नेत्र आनन्दके आँसुओंसे चंचल हो उठे ॥१३७।। मुखकी आकृति ही जिसे प्रकट कर रही थी ऐसे भाईको बड़े प्रेमसे देखकर सीता स्नेहवश मृगीकी तरह रोती हुई, भुजाएं ऊपर उठा दौड़ी और हे भाई ! मैं तुझे आज पहले ही पहल देख रही हूँ, यह कहकर उससे लिपट गयी और चिरकाल तक रुदन कर धैर्यको प्राप्त हुई ।।१३८-१३९|| राम, लक्ष्मण तथा अन्य बन्धुओंने भी सहसा उठकर भामण्डलका आलिंगन किया तथा आदरसहित उससे वार्तालाप किया ॥१४०॥
तदनन्तर उन श्रेष्ठ मुनिराजको नमस्कार कर सब विद्याधर और भूमिगोचरी मनुष्य उपवनसे बाहर निकले। उस समय वे हर्षसे परिपूर्ण थे तथा अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे ॥१४१|| भामण्डलके साथ सलाह कर राजा दशरथने शीघ्र ही आकाशगामी विद्याधरके हाथ राजा जनकके पास पत्र भेजा ॥१४२॥ भामण्डलका उत्तम विमान आकाश-मार्गसे आ रहा था, हंसोंके द्वारा धारण किया गया था तथा बहुत-से विद्याधर वीर उसे घेरे हुए थे ॥१४३॥ तदनन्तर भामण्डलको लेकर राजा दशरथने इन्द्रके समान बड़ी विभूतिसे अयोध्यामें प्रवेश किया ॥१४४।। अक्षीण कोशके धनी राजा दशरथने भामण्डलके आनेपर प्रसन्न हो सब लोगोंके साथ मिलकर बड़ा उत्सव किया ॥१४५।। भामण्डल राजा दशरथके द्वारा बताये हुए रमणीय, विशाल, ऊँचे तथा वापी और बगीचासे सुशोभित महलमें सुखसे ठहरा ॥१४६॥ उस परमोत्सवके समय राजा दशरथने इतना अधिक दान दिया कि पृथ्वीतलके दरिद्र मनुष्य इच्छासे अधिक धन पाकर दरिद्रतासे मुक्त हो गये ।।१४७।। उधर पवनके समान शीघ्रगामी पत्रवाहक विद्याधरने पुत्रके आगमनका समाचार सुनाकर राजा जनकको सहसा हर्षित कर दिया ॥१४८|| राजा जनक दिये हुए पत्रको बाँचकर तथा उसकी सत्यताका दृढ़ विश्वास कर परम प्रमोदको प्राप्त हुए। उनका सारा शरीर हर्षसे रोमांचित हो गया ।।१४९।। वे उस विद्याधरसे पूछने लगे कि हे भद्र ! क्या यह स्वप्न है ? अथवा
१. इन्द्रतुल्यः । २. सुदृढ़ः प्रत्ययः म. । ३. तावत् + त्वा + अद्य।
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