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पद्मपुराणे
भव्यजीवा यमासाद्य लभन्ते संशयोज्झितम् । सम्यग्दर्शनसंपन्ना गीर्वाणेन्द्रसुखं महत् ॥ ८४ ॥ केचित् केवलमासाद्य लोकालोकप्रकाशनम् । लोकप्राग्भारमारुह्य मजन्ते नैर्वृतं सुखम् ॥८५॥ तिर्यग्नरकदुःखाग्निज्वालाभिः परिपूरितः । संसारो मुच्यते येन तं पन्थानं महोत्तमम् ||८६|| सर्वप्राणिहितोऽवोचन्मन्द्रगर्जितनिस्वनः । प्रह्लादं सर्वचित्तानां जनयन्विदिताखिलः ॥८७॥ संदेहतापविच्छेदि तद्वचोम्बु मुनीन्द्रजम् । कर्णाञ्जलिपुटैः पीतं प्राणिभिः प्रीतमानसैः ॥ ८८ ॥ ततो दशरथोऽपृच्छत् संजाते वचनान्तरे । चन्द्रकीर्तेः खगेन्द्रस्य वैराग्यं नाथ किंकृतम् ||८९|| सीता तत्र विशुद्धाक्षी ज्ञातुमिच्छुः सहोदरम् । शुश्रूषया मनश्चक्रे विनीतात्यन्तनिश्चलम् ||१०| शुद्धात्मा भगवानूचे शृणु राजन् विचित्रताम् । जीवानां निर्मितामेतां कर्मभिः स्वयमर्जितैः ॥९१॥ संसारे सुचिरं भ्रान्त्वा जीवोऽयमतिदुःखितः । कर्मानिलेरितः प्राप्तश्चन्द्रेण द्युतिमण्डलः ||१२| अर्पितः पुष्पवत्यै च स्त्रीचिन्ताकुलतारकः । स्वसारं च समालोक्य गाढा कल्पकमागतः ॥९३॥ जनकः कृत्रिमाश्वेन हृतश्चापस्वयंवरा । जाता विदेहजा चिन्तां परां मामण्डलोऽगमत् ॥ ९४ ॥ अस्मरच्च भवं पूर्व मूच्छितः पुनरश्वसीत् । पृष्टश्चन्द्रेण चावोचदिति पूर्वमवक्रियाम् ||१५|| भरतस्थे विदग्धाख्ये पुरे कुण्डलमण्डितः । अधार्मिकोऽहरत् कान्तां पिङ्गलस्य मनःप्रियाम् ॥ ९६ ॥
दुर्लभ है, सिद्ध है, साररूप है और क्षुद्रजनोंको भय उत्पन्न करनेवाला है || ८३ || इस मुनिधर्मको पाकर सम्यग्दृष्टि भव्यजीव निःसन्देह स्वर्गका महासुख प्राप्त करते हैं ||८४|| और कितने ही eta-अलोकको प्रकाशित करनेवाले केवलज्ञानको प्राप्त कर लोकके अग्रभागपर आरूढ़ हो मोक्षका सुख प्राप्त करते हैं || ८५|| तियंच और नरक गतिके दुःखरूपी अग्निकी ज्वालाओंसे भरा हुआ यह संसार जिससे छूटता है वही मार्ग सर्वोत्तम है || ८६ | ऐसे मार्गका कथन उन मुनिराजने किया था । वे मुनिराज समस्त प्राणियोंका हित करनेवाले थे, गम्भीर गर्जनाके समान स्वरको धारण करनेवाले थे, समस्त जीवोंके चित्तमें आह्लाद उत्पन्न करनेवाले थे तथा समस्त पदार्थोंको जाननेवाले थे ||८७|| जिनके चित्त प्रसन्नतासे भर रहे थे ऐसे समस्त लोगोंने सन्देहरूपी सन्तापको नष्ट करनेवाले मुनिराजके वचनरूपी जलका अपने-अपने कर्णरूपी अंजलिपुटसे खूब पान किया ||८८||
तदनन्तर जब वचनोंमें अन्तराल पड़ा तब राजा दशरथने पूछा कि हे नाथ ! विद्याधरोंके राजा चन्द्रगतिका वैराग्य किस कारण हुआ है ? || ८९ || वहीं पासमें बेठी निर्मल दृष्टिकी धारक सीता अपने भाईको जानना चाहती थी इसलिए श्रवण करनेकी इच्छासे नम्र हो उसने मनको अत्यन्त निश्चल कर लिया ||१०|| तब विशुद्ध आत्माके धारक भगवान् सर्वभूतहित मुनिराज बोले कि हे राजन् ! अपने द्वारा अर्जित कर्मोंके द्वारा निर्मित जीवोंकी इस विचित्रताको सुनो ||११|| कर्मरूपी वायुसे प्रेरित हुआ यह भामण्डलका जीव दीर्घकाल तक संसारमें भ्रमण कर अत्यन्त दुःखी हुआ है । अन्त में जब भामण्डल पैदा हुआ तब वह राजा चन्द्रगतिको प्राप्त हुआ । चन्द्रगतिने पालन-पोषण करनेके लिए अपनी पुष्पवती भार्याको सौंपा। जब यह तरुण होकर स्त्रीविषयक चिन्ताको प्राप्त हुआ तब अपनी बहन सीताका चित्रपट देख अत्यन्त व्यथाको प्राप्त हुआ ||९२-९३|| सीताकी मँगनी करनेके लिए मायामयी अश्वके द्वारा राजा जनकका हरण हुआ अन्तमें सीताका धनुष-स्वयंवर हुआ और उसने स्वयंवरमें राजा दशरथ के पुत्र रामको वर लिया । इस घटना से भामण्डल परम चिन्ताको प्राप्त हुआ || ९४ || अकस्मात् इसे पूर्वं भवका स्मरण हुआ, जिससे यह मूच्छित हो गया । सचेत होनेपर राजा चन्द्रगतिने इसका कारण पूछा तब वह अपने पूर्वं भवकी वार्ता इस प्रकार कहने लगा ||१५|| कि मैं भरत क्षेत्रके विदग्धनामा नगरमें कुण्डल
१. निर्वाणसंबन्धि । २. निर्जित-ज्र । ३. मेकां म । ४. भामण्डलः । ५. गाढव्यथाम् ।
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