________________
पद्मपुराणे
इमं चन्द्रगतिः श्रुत्वा वृत्तान्तमतिचित्रितम् । लोकधर्मतरुं वन्ध्यं विदित्वा भवबन्धनम् ॥५५॥ "भूतमात्रमतिं त्यक्त्वा सुनिश्चित्यात्मकर्मणाम् । परं प्रबोधमायातः संवेगं च सुदुर्लभम् ॥५६॥ आत्मीयं राज्यमाधाय तत्र पुत्रे यथाविधि । सर्वभूतहितस्यागात् पादमूलं त्वरान्वितः ॥ ५७ ॥ भगवान् स हि सर्वत्र विष्टपे प्रथितात्मकः । गुणरश्मिसमूहेन भव्यानन्दविधायिना ॥ ५८ ॥ महेन्द्रोदयातं तमभ्यर्च्य प्रणिपत्य च । स्तुत्वा च भावतोऽवादीदेवं मूर्धाहिताञ्जलिः ॥५९॥ भगवंस्त्वत्प्रसादेन संप्राप्य जिनदीक्षणम् । तपोविधातुमिच्छामि निर्विण्णो गृहवासतः ॥ ६० ॥ एवमस्त्विति तेनोक्ते तारं भेर्यः " समाहिताः । भामण्डलः परं चक्रे महिमानं च भावतः ॥ ६१ ॥ कलं प्रवरनारीभिर्गीतं वंशस्वनानुगम् । जगर्ज तूर्यसङ्घातः करतालसमन्वितः ॥६२॥ श्रीमान् जनकराजस्य तनयो जयतीति च । इत्युच्चैर्वन्दिनां नादः संजज्ञे प्रतिनादवान् ॥ ६३॥ तेनोद्यानसमुत्थेन नादेन श्रोत्रहारिणा । नक्तं कृतो विनीतायां कृत्तनिद्रोऽखिलो जनः ॥ ६४॥ ऋषिसंबन्धमुध्वानं श्रुखा जैनाः प्रमोदिनः । जाता जना विषैण्णाश्च मिथ्यादर्शनपूरिताः || ६५ ॥ रोमाञ्चार्चितसर्वाङ्गा विस्फुरद्वामलोचना । सीता सिक्तामृतेनेव बुबुधे ध्वनिनामुना ॥ ६६ ॥ अचिन्तयच्च को न्वेष जनको यस्य नन्दनः । जयतीति मुहुर्नादः श्रूयतेऽत्यन्तमुन्नतः ॥ ६७॥ कनकस्याग्रजो राजा ममापि जनकः पिता । जातमात्रश्च मे भ्राता हृतो यः किं न्वसौ भवेत् ॥ ६८ ॥
५८
हाहाकार करते तथा मस्तक हिलाते हुए आश्चर्यको प्राप्त हुए ||२४|| राजा चन्द्रगति यह अत्यन्त आश्चर्यकारी वृत्तान्त सुनकर परम प्रबोध तथा अत्यन्त दुर्लभ संवेगको प्राप्त हुआ । उसने लोकधर्मं अर्थात् स्त्री-सेवनरूपी वृक्षको सुखरूपी फलसे रहित तथा संसारका बन्धन जाना, इन्द्रियोंके विषयोंमें जो बुद्धि लग रही थी उसका परित्याग किया, आत्म-कर्तव्यका ठीक-ठीक निश्चय किया, पुत्र के लिए विधिपूर्वक अपना राज्य दिया और बड़ी शीघ्रता से सर्वभूतहित नामक मुनिराजके चरणमूलमें प्रस्थान किया ।। ५५-५७ ।।
भगवान् सर्वभूतहित भव्य जीवोंको आनन्द देनेवाले गुणरूपी किरणोंके समूह से समस्त संसारमें प्रसिद्ध थे || ५८ || महेन्द्रोदय नामा उद्यानमें स्थित उन सर्वभूतहित मुनिराजकी पूजा कर नमस्कार कर तथा भावपूर्वक स्तुति कर हाथ जोड़ मस्तकसे लगाकर राजा चन्द्रगतिने इस प्रकार कहा कि हे भगवन् ! मैं गृहवाससे विरक्त हो चुका हूँ इसलिए आपके प्रसादसे जिनदीक्षा प्राप्त कर तपश्चरण करना चाहता हूँ ।। ५९-६० ।। ' एवमस्तु' ऐसा कहनेपर भामण्डलने भावपूर्वक परम प्रभावना की । जोर-जोर से भेरियां बजने लगीं, उत्तम स्त्रियोंने बाँसुरीको ध्वनिके साथ मनोहर गीत गाया करतालके साथ-साथ अनेक वादियोंके समूह गर्जना करने लगे । 'राजा जनकका लक्ष्मीशाली पुत्र जयवन्त हो रहा है' बन्दीजनोंका यह जोरदार शब्द प्रतिध्वनि करता हुआ गूंजने लगा ।। ६१ - ६३ ।। उद्यानसे उठे हुए इस श्रोत्रहारी शब्दने रात्रि के समय अयोध्यावासी समस्त लोगोंको निद्रारहित कर दिया || ६४ || ऋषियोंसे सम्बन्ध रखनेवाली इस हर्षंध्वनिको सुनकर जैन लोग परम हर्षको प्राप्त हुए और मिथ्यादृष्टि लोग विषादसे युक्त हो गये || ६५ || उस शब्दको सुनकर सीता भी इस प्रकार जाग उठी मानो अमृत से हो सींची गयी हो, उसके समस्त अंग रोमांचसे व्याप्त हो गये तथा उसका बायाँ नेत्र फड़कने लगा ॥६६॥ वह विचारने लगी कि यह जनक कौन है जिसका कि पुत्र जयवन्त हो रहा है । यह अत्यन्त उन्नत शब्द बार-बार सुनाई दे रहा है || ६७ || राजा जनक कनकका बड़ा भाई और मेरा पिता है । मेरा भाई उत्पन्न होते ही हरा गया था सो यह वही तो नहीं है ? || ६८ ॥
१. वध्यं म । वन्ध्या क । २. भूतमात्रमति म. । ३. यात्यन्त ब. । ४. उच्चैः । ५. नारंभे स. म. । दुन्दुभयः । ६. वंशस्वसानुगं म । ७
विपन्नाश्च म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org