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एकोनविंशत्तमं पर्व सर्वभूतहितो नाम सर्वभूतहितो मुनिः । नगरी तां समायासीन्मनःपर्ययवेदकः ॥८५॥ 'सरय्वाश्च तटे कालं श्रान्तं सङ्घमतिष्ठिपत् । पितेव पालयन् न्यस्तकायवाङ्मानसक्रियः ॥८६॥ प्रागभागेषु स्थिताः केचिद् गुहास्वन्ये तपस्विनः । केचिद् विविक्तगेहेषु केचिज्जैनेन्द्रवेश्मसु ॥८७॥ नगानां कोटरेवन्ये यथाशक्तिसमुद्यताः। तपांसि चक्रराचार्यादधिगम्यानुमोदनाम् ॥८॥ आचार्यस्तु विविक्तषी पुर्या उत्तरपश्चिमाम् । तपःसमुचितक्षेत्रं विशालमतिसुन्दरम् ॥८९॥ उद्यानं सुमहावृक्षं सयूथ इव वारणः । प्रविवेशात्मदशमो महेन्द्रोदयकीर्तनम् ॥१०॥ तस्मिन् शिलातले रम्ये विपुले निर्मले समे । पशूनामङ्गनानां च पण्डुकानां च दुर्गमे ॥११॥ द्वेषिलोकविमुक्तेऽसौ सूक्ष्मप्राणिविवर्जिते । दूरावष्टम्भिशाखस्य स्थितो नागतरोरधः ॥१२॥ मार्तण्डमण्डलेच्छायो गभीरः प्रियदर्शनः । वर्षाः क्षपयितुं तस्थौ कर्माणि च महामनाः ॥१३॥ संप्राप्तश्च महाकालः प्रवासिजनभैरवः । प्रस्फुरद्विधुदुग्रोऽष्ट क्रूरधाराधरध्वनिः ॥९॥ तर्जयन्निव लोकस्य कृततापं दिवाकरम् । भयात् पलायितं क्वापि स्थूलधारान्धकारतः ॥१५॥ जातमुर्वीतलं सम्यक कञ्चकेन कृतावृति । वर्द्धन्ते सुमहानद्यो वीचिपातितरोधसः ॥१६॥ जायते प्राप्तकम्पानां चित्तोभ्रान्तिः प्रवासिनाम् । असिधारावतं जैनो जनोऽसक्तं निषेवते ॥९७॥
होनेपर बड़े भारी संघसे आवृत, सर्व प्राणियोंका हित करनेवाले, तथा मनःपर्यय ज्ञानके धारक सर्वभूतहित नामा मुनि, विधिपूर्वक पृथिवीमें विहार करते हुए अयोध्या नगरीमें आये ।।८४-८५।। जिनके मन-वचन-कायकी चेष्टा समीचीन थी और जो पिताकी तरह संघका पालन करते थे ऐसे उन मुनिराजने अपने थके हुए संघको सरयू नदीके किनारे ठहराया ॥८६॥ संघके कितने ही मुनि, आचार्य महाराजकी आज्ञा प्राप्त कर वनके सघन प्रदेशोंमें, कितने ही गुफाओंमें, कितने ही शून्य गृहोंमें, कितने ही जिनमन्दिरोंमें और कितने ही वृक्षोंकी कोटरोंमें ठहरकर यथाशक्ति तपश्चरण करने लगे ॥८७-८८|| तथा आचार्य एकान्त स्थानके अभिलाषी थे इसलिए उन्होंने नगरीकी उत्तर पश्चिम दिशा अर्थात् वायव्य कोणमें जो महेन्द्रोदय नामका उद्यान था उसमें यूथसहित गजराजके समान प्रवेश किया। उस महेन्द्रोदय नामा उद्यानमें तपके योग्य अनेक स्थान थे, तथा वह विशाल, अत्यन्त सुन्दर और अनेक बड़े-बड़े वृक्षोंसे सहित था। आचार्यके साथ अधिक भीड़ नहीं थी। अपने आपको मिलाकर कुल दस ही मुनिराज थे। वह उद्यान पशुओं, स्त्रियों और नपुंसकोंके लिए दुर्गम था, द्वेषी मनुष्योंसे रहित था तथा सूक्ष्म जन्तुओंसे शून्य था। ऐसे उस उद्यानमें जिसकी शाखाएँ दूर-दूर तक फैल रही थीं ऐसे एक नाग वृक्षके नीचे सुन्दर, विशाल, निर्मल एवं समान शिलातलपर विराजमान हुए ॥८९-९२॥ आचार्य महाराज सूर्यबिम्बके समान देदीप्यमान, गम्भीर, प्रिय-दर्शन और उदारहृदय थे तथा कर्मोंका क्षय करनेके लिए वर्षायोग लेकर वहाँ विराजमान हुए थे॥९३।।
तदनन्तर जो विदेशमें जानेवाले मनुष्योंको भय उत्पन्न करनेवाला था, चमकती हुई बिजलीसे उग्र था तथा जिसमें आठों दिशाओंके मेघोंकी कठोर गर्जना हो रही थी ऐसा वर्षाकाल आ पहुँचा। वह वर्षाकाल ऐसा जान पड़ता था मानो लोगोंको सन्ताप पहुंचानेवाले सूर्यको डाँट हो रहा हो और बड़ी मोटी धाराओंके अन्धकारसे भयभीत हो कहीं भाग गया हो ॥९४-९५।। पृथिवीतल ऐसा दिखाई देने लगा मानो उसने अच्छी तरह कंचुक ही धारण कर रखी हो । तरंगोंसे तटोंको गिरानेवाली बड़ी-बड़ी नदियाँ बढ़ने लगीं ॥९६|| और जिन्हें कैंपकंपी छूट रही थी ऐसे प्रवासी मनुष्योंके चित्तमें भ्रान्ति उत्पन्न होने लगी। ऐसे वर्षाकालमें जैनी लोग निरन्तर १. सरयूनद्याः । सरस्यश्च म.। २. प्राग्भावेषु म.। ३. तपःसमुचितं क्षेत्रं म., क.। ४. कीतितं ज. । ५. नपंसकानाम । ६. मण्डलोच्छाया गभीरप्रिय ख.। ७. दुर्गोष्ट म. ।
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