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अष्टाविंशतितमं पर्व अत्यन्त विषमीभावं पश्य श्रेणिक कर्मणाम् । यतोऽसौ संप्रबुद्धः सन् कन्यया मोहितः पुनः ॥२६॥ विलक्षाः पार्थिवाः सर्वे जग्मुः स्थानं यथाथम् । अस्थुश्च विकथाशक्त्या बन्धुवर्गसमागमे ॥२६५।। यादृक् येन कृतं कर्म भुङ्क्ते तादृक् स तत्फलम् । नझुप्तान कोद्रवान् कश्चिदश्नुते शालिसंपदम् ॥२६६॥ केतुतोरणमालाभिमण्डितायां महाद्युतौ । 'आगुल्फकुसुमापूर्णविशालापणवर्त्मनि ॥२६७॥ सशंखतूर्यनिस्वानपूरिताखिलवेश्मनि । मिथिलायां तयोश्चक्रे विवाहः परमोत्सवः ॥२६॥
दिणेन तथा लोकः सकलो परिपूरितः । सहाप्रलयमायातं देहोति ध्वनितं यथा ॥२६॥ ये विवाहोत्सवं द्रष्टं स्थिता भूपाः सुचेतसः। परमं प्राप्य सन्मानं ययुस्ते स्वं स्वमालयम् ॥२७॥
द्रुतविलम्बितवृत्तम् सकल विष्टपनिर्गतकीर्तयः परमरूपपयोनिधिवर्तिनः । पितृजनार्पितसंमदसंपदः परमरत्नविभूषितविग्रहाः ॥२७॥ विविधयानसमाकुलसैनिका जलनिधिस्वनतूर्यनिनादिताः। विवि शुरभ्युदयेन सुकोशलां दशरथस्य सुता वधुके तथा ॥२७२॥ समवलोकितुमुत्तमविग्रहे पुरि तदा वधुके सकलो जनः । रहितसामिकृतस्वमनःक्रियः श्रयति राजपथं भृशमाकुलः ॥२७३।।
वरा जिस तरह कि उत्तम कान्तिको धारण करनेवाली सुभद्राने पहले भरत चक्रवर्तीको वरा था ॥२६२-२६३।। गौतमस्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! कर्मोकी अत्यन्त विषमता देखो कि प्रबोधको प्राप्त हुआ भरत कन्याके द्वारा पुनः मोहित हो गया ॥२६४॥ सब राजा लोग लज्जित होते हुए यथायोग्य स्थानोंपर चले गये और अपने बन्धुवर्गके बीचमें विकथा करते हुए रहने लगे ॥२६५॥ कितने ही कहने लगे कि जिस जीवने जैसा कार्य किया है वह वैसा ही फल भोगता है। क्योंकि जिसने कोदों बोये हैं वह धान्य प्राप्त नहीं कर सकता ।।२६६।।।
तदनन्तर जो पताका तोरण और मालाओंसे सजायी गयी थी, जो महाकान्तिको धारण कर रही थी, जिसके बाजारके लम्बे-चौड़े मार्ग घुटनों तक फूलोंसे व्याप्त किये गये थे और जिसके समस्त घर शंख एवं तुरहीके मधुर शब्दोंसे भर रहे थे ऐसी मिथिला नगरीमें दोनोंका बड़े उत्सवके साथ विवाह किया गया ।।२६७-२६८॥ उस समय धनसे सब लोक इस तरह भर दिया गया था कि जिससे 'देहि अर्थात् देओ' यह शब्द महाप्रलयको प्राप्त हो गया था अर्थात् बिलकुल ही नष्ट हो गया था ।।२६९|| उत्तम चित्तको धारण करनेवाले जो राजा विवाहोत्सव देखने के लिए रह गये थे वे परम सम्मानको प्राप्त हो अपने-अपने घर गये ॥२७०॥
अथानन्तर जिनकी कीर्ति समस्त संसारमें फैल रही थी, जो परम सौन्दर्यरूपी सागरमें निमग्न थे, जिन्होंने माता-पिताके लिए हर्षरूप सम्पदा समर्पित की थी, जिनके शरीर उत्कृष्ट रत्नोंसे अलंकृत थे, जिनके सैनिक नाना प्रकारकी सवारियोंसे व्यग्र थे, और जिनके आगे समुद्रके समान विशाल शब्द करनेवाली तुरही बज रही थी ऐसे दशरथके पुत्रों तथा बहुओंने बड़े वैभवके साथ अयोध्यामें प्रवेश किया ॥२७१-२७२॥ उस समय उत्तम शरीरको धारण करनेवाली बहुओंको देखनेके लिए समस्त नगरवासी लोग अपना आधा किया कार्य छोड़ बड़ी व्यग्रतासे राजमार्गमें आ गये ॥२७३॥
१. अगुल्फकुसुमापूर्णाविशालापण्यवर्मनि म.। २. धनेन । ३. वध्वौ एव वधके स्वार्थे कः ।
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