________________
अष्टाविंशतितमं पर्व ततो विस्रब्धमादाय धनुरुद्वेष्ट्य चांशुकम् । समारोपयदभ्युच्चैर्ध्वनितं विपुलप्रभम् ॥२३६॥ महाजलधरध्वानशङ्किमिः शिखिभिः कृतम् । मुक्तककारवैर्नृत्यं बद्धविस्तीर्णमण्डलैः ॥२३७॥ अलात वक्रसंकाशः संजातो दिवसाधिपः । सुवर्णरजसाच्छन्ना इवासन् व्योमबाहवः ॥२३८॥ साधु साध्विति देवानां बभूव नभसि स्वनः । ननृतुर्व्यन्तराः केचिन्मुञ्चन्तः पुष्पसंहतीः ॥२३९।। ततोऽटनिजटङ्कारवधिरीकृतविष्टपम् । आचकर्ष धनुः पद्मः संप्राप्तं चक्रताविव ॥२४॥ विकलीभूतनिश्शेषहृषीकः सकलो जनः । तदावर्तमिव प्राप्तो भ्राम्यति त्रस्तमानसः ॥२४॥ प्रवातघुर्णिताम्भोजपलाशाधिककान्तिना । चक्षषा स्मरचापेन सीता रामं निरीक्षत ॥२४२॥ रोमाञ्चार्चितसांगा दधती परमस्रजम् । प्रीता रामं डुढौके सा ब्रीडाविनमितानना ॥२४३॥ पार्श्वस्थया तया रेजे स तथा सुन्दरों यथा । यथायमिति दृष्टान्तं यो गदेत् स गतत्रपः ॥२४४॥ अवतारितमौर्वीकं स कृत्वा सायकासनम् । तस्थौ विनयसंपन्नः स्वासने सीतया सह ॥२४५।। सकम्पहृदया सीता रामाननदिदृक्षया । मावं कमपि संप्राप्ता नवसंगमसाध्वसा ॥२४६॥ क्षुब्धाकृपारनिस्वानं सागरावर्त । तावच्च लक्ष्मणोऽधिज्यं कृत्वास्फालयदुनतम् ॥२४७॥ शरे निहितदृष्टिं तं समालोक्य नभश्चराः । वदन्तो देव मा मेति मुमुचुः कुसुमोत्करान् ॥२८॥
आकृष्य कार्मुकं वरं मौर्वीसंरावमूर्जितः । अवतार्य च पद्मस्य पार्श्वे सुविनयस्थितः ॥२४९।। समीप आते ही धनुष अपने असली स्वरूपको उसी तरह प्राप्त हो गया जिस तरह कि गुरुके समीप आते ही विद्यार्थी अत्यन्त सुन्दर सौभाग्यरूपको प्राप्त हो जाता है ॥२३५॥ तदनन्तर रामने वस्त्र ऊपर चढ़ाकर निःशंक हो धनुष उठा लिया और उसे चढ़ाकर विपुल गर्जना की ।।२३६।। मयूर उस गर्जनाको मेघोंकी महागर्जना समझ हर्षसे केकाध्वनि छोड़ने लगे और अपनी पिच्छोंका मण्डल फैलाकर नृत्य करने लगे ॥२३७॥ सूर्य अलातचक्रके समान हो गया और दिशाएँ सुवर्णकी परागसे ही मानो व्याप्त हो गयीं ॥२३८|| आकाशमें 'साधु' 'साधु'--'ठीक-ठीक' इस प्रकार देवोंका शब्द होने लगा और फलोंके समहकी वर्षा करते हए कितने ही व्यन्तर नत्य करने लगे ॥२३९।।
तदनन्तर अटनीकी टंकारसे जिसने समस्त विश्वको बहिरा कर दिया था तथा जो चक्राकारताको मानो व्याप्त हो रहा था ऐसे धनुषको रामने खींचा ॥२४०।। जिनकी समस्त इन्द्रियाँ विकल हो गयी थीं तथा मन भयभीत हो रहा था ऐसे सब लोग भँवरमें पड़े हुएके समान घूमने लगे ॥२४१।। वायुसे हिलते हुए कमलदलसे भी अधिक जिसकी कान्ति थी, तथा जो कामदेवके धनुषके समान जान पड़ता था, ऐसे नेत्रसे सीताने रामको देखा ॥२४२॥ जिसका समस्त शरीर रोमांचोंसे सुशोभित हो रहा था, जो उत्कृष्ट मा धारण कर रही थी, तथा लज्जासे जिसका मुख नीचेकी ओर झुक रहा था ऐसी सीता प्रसन्न हो रामके समीप पहुँची ॥२४३।। पासमें खड़ी सीतासे सुन्दर राम इस तरह सुशोभित हो रहे थे कि उनकी उपमामें 'वे इस तरह सुशोभित थे' ऐसा जो कहता था वह निलंज्ज जान पड़ता था अर्थात् वे अनुपम थे ॥२४४||
तदनन्तर धनुषकी डोरी उतार कर वे विनयवान् राम सीताके साथ अपने आसनपर बैठ गये ॥२४५॥ जो नव समागमके कारण भयभीत हो रही थी तथा जिसके हृदयमें कम्पन उत्पन्न हो रहा था ऐसी सीता रामका मुख देखनेकी इच्छासे किसी अद्भुत भावको प्राप्त हो रही थी ॥२४६।। इतनेमें ही क्षुभित समुद्रके समान जिसका शब्द हो रहा था ऐसे सागरावतं नामक धनुषको लक्ष्मणने प्रत्यंचासहित कर जोरसे उसकी टंकार छोड़ी ॥२४७॥ तदनन्तर बाणपर दृष्टि लगाये हुए लक्ष्मणको देख 'हे देव नहीं, नहीं' ऐसा कहते हुए विद्याधरोंने फूलोंके समूह छोड़े अर्थात् पुष्प वर्षा की ॥२४८|| तदनन्तर जिसको डोरीसे विशाल शब्द हो रहा था ऐसे धनुषको १. दिशाः । २. सुन्दरा म.। ३. बलवान् ।
२-६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org