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पद्मपुराणे
पद्मो लक्ष्मण इत्युच्चैर्गर्जितं बहसे वृथा । अथ विप्रेत्ययः कश्चित्ततोऽस्माद्भज निश्चयम् ॥१६८॥ समयं शृणु भूनाथ वज्रावर्तमिदं धनुः । इदं च सागरावर्तममरैः कृतरक्षणम् ॥ १६९॥ इमे वाणासने कर्तुमधिज्ये यदि तौ क्षौ । अनेनैव तयोः शक्तिं ज्ञास्यामः किं बहूदितैः ॥ १७० ॥ वज्रावर्त समारोप्य पद्मो गृह्णातु कन्यकाम् । अस्माभिः प्रसभं पश्य तामानीताभिहान्यथा ॥१७३॥ ततः परममित्युक्त्वा धनुषी वीक्ष्य दुर्ग्रहे । मनकाद् व्याकुलीभावं जनको मनलागमत् ॥ १७२ ॥ ततः कृत्वा जिनेन्द्राणां पूजां स्तोत्रं तु भावतः । गदासीरादिसंयुक्ते पूजां नीते शरासने ॥ १७३॥ उपादाय च ते शूरा जनकं च नभचराः । मिथिलाभिमुखं जग्मुन्द्रोऽपि रथनूपुरम् ॥१७४॥ ततः कृतमहाशोमं साङ्गलमहाजनम् । विवेश जनको वेश्म पौरलोकावलोकितः ॥ ३७५॥ विधायायुधशालां च समावृत्य नभश्चराः । वहन्तः परमं गर्व नगरस्य बहिःस्थिताः ॥१७६॥ जनकस्तु सखेदाङ्गः कृत्वा किंचित्स भोजनम् । चिन्तयाकुलितो भेजे तल्पमुत्साहवर्जितः ॥ १७७॥ तत्र चोत्तमनारीभिर्विनीताभिः सुविभ्रमम् । चन्द्रांशुचयसंकाशैश्चामरैरभिवीजितः ॥ १७८ ॥ उष्णदीर्घातिनिःश्वासान् विमुञ्चन् विषमानम् । दधत्या विविधं भावममाप्यत विदेहया ॥ १७९॥ का व कामिंस्त्वया दृष्ट्वा नारी यातेन लक्षिता । तद्वियोगकथामेतामवस्थामसि संश्रितः ॥१८०॥
कहा कि हे जनक ! तुम कार्य करना नहीं जानते, तुम्हारा मन सिर्फ एक ही ओर लग रहा है ॥१६७॥ 'राम और लक्ष्मण उत्कृष्ट हैं' इस गर्जनाको तुम व्यर्थ ही धारण कर रहे हो । यदि मेरे इस कहने में कुछ संशय हो तो इससे उसका निश्चय कर लो || १६८ || हे राजन् ! हमारी शतं सुनो। यह वज्रावर्त्तं नामका धनुष है, और यह सागरावर्त्ती नामका धनुष है । देव लोग इन दोनोंकी रक्षा करते हैं ॥ १६९ ॥ यदि राम और लक्ष्मण इन धनुषोंको डोरीसहित करनेमें समर्थ हो जायेंगे तो इससे हम उनकी शक्ति जान लेंगे। अधिक कहने से क्या लाभ है ? || १७०|| राम वज्रावतं धनुषको चढ़ाकर कन्या ग्रहण कर सकते हैं । यदि वे उक्त धनुष नहीं चढ़ा सकेंगे तो आप देखना कि हम लोग उसे यहाँ जबरदस्ती ले आवेंगे ॥ १७१ ॥
तदनन्तर 'ठीक है' ऐसा कहकर जनकने विद्याधरोंको शर्त स्वीकार तो कर ली परन्तु उन दुर्ग्राह्य धनुषों को देखकर चित्तमें वह कुछ आकुलताको प्राप्त हुआ || १७२ ॥ तदनन्तर भावपूर्वक जिनेन्द्र भगवान् की पूजा और स्तुति कर चुकने के बाद गदा, हल आदि शस्त्रोंसे युक्त उन दोनों धनुषों की भी पूजा की गयी || १७३ || वे शूरवीर विद्याधर उन धनुषों तथा राजा जनकको लेकर fafeलाकी ओर चल पड़े और चन्द्रगति विद्याधर भी रथनूपुरकी ओर चल दिया || १७४ ॥ तदनन्तर जिसकी बहुत बड़ी सजावट की गयी थी, और जिसमें महाजन लोग मंगलाचारसे सहित थे, ऐसे अपने भवनमें राजा जनकने प्रवेश किया। प्रवेश करते समय नागरिकजनोंने जनकके अच्छी तरह दर्शन किये थे || १७५।।
बहुत भारी गर्वको धारण करनेवाले विद्याधर नगर के बाहर आयुधशाला बनाकर तथा उसीको घेरकर ठहर गये || १७६ || जिसका शरीर खेद खिन्न था ऐसे जनकने कुछ थोड़ा-सा भोजन किया और इसके बाद वह चिन्तासे व्याकुल हो शय्यापर पड़ रहा । उत्साह तो उसे था ही नहीं ॥ १७७॥ यद्यपि वहाँ विनयसे भरी उत्तम स्त्रियाँ, हाव-भाव दिखाती हुई, चन्द्रमा की किरणोंके समान चमरोंसे उसे हवा कर रही थीं तथापि वह अत्यन्त विषम, उष्ण और लम्बेलम्बे अत्यधिक श्वास छोड़ रहा था । उसकी यह दशा देख विविध प्रकारके भावको धारण करती हुई रानी विदेहाने कहा || १७८ - १७९ ।। कि हे कामिन्! आप कहाँ गये थे और वहाँ ऐसी
- कामिनी आपने देखी है जिसके वियोगसे इस अवस्थाको प्राप्त हुए हो ॥ १८० ॥
१. विरोधः । २. मनकाष्याकुली -म । ३. एतन्नाम्न्या जनकपत्न्या । ४. या तेन लक्षितः म. ।
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