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पद्मपुराणे
म्लेच्छैः किं ग्रहणं क्षुद्वैयदि तेषां पराजये । प्रशंससि परां शक्तिं भूमिगोचरिणो बुध ॥१४॥ म्लेच्छनिर्धाटनात् स्तोत्रं त्वया पद्मस्य कुर्वता । कृता प्रत्युत निन्देयमहो हास्यमिदं परम् ॥१४२॥ शिशोर्विषफले प्रीतिनि:स्वस्य बदरादिपु । ध्वाक्षस्य पादपे शुष्के स्वभावः खलु दुस्त्यजः ॥१४३॥ कुसंबन्धं परित्यज्य क्षितिगोचरिणां मतम् । कुरु विद्याधरेन्द्रेण संबन्धमधुना सह ॥१४॥ क्व महासंपदो देवैः सदृशो व्योमचारिणः । क्व भूमिगोचराः क्षुद्राः सर्वथैवातिदुःखिताः ॥१४५॥ जनकोऽवोचदत्यन्तविपुलः क्षारसागरः । न तत्करोति यद्वाप्यः स्तोकस्वादुपयोभृतः ॥१४६॥ अत्यन्तधनबन्धेन तमसा भूयसापि किम् । अल्पेन तु प्रदीपेन जन्यते लोकचेष्टितम् ॥१४७॥ असंख्या अपि मातङ्गा मदिनः कुर्वते न तत् । केशरी पत्किशोरः संश्चन्द्रनिर्मल केसरः ॥१४८॥ इत्युक्ते कोऽपि नोऽत्यर्थ समं कृतमहारवाः । भूमिचेष्टां समारब्धा निन्दितं गगनायनाः ॥१४९॥ विद्यामाहात्म्यनिर्मुक्ता नित्यं स्वेदसमन्विताः। शौर्यसंपत्परित्यक्ताः शोचनीया धराचराः ॥१५॥ वद तेषां पशूनां च को भेदो जनक त्वया । दृष्टो येन नपां त्यक्त्वा दुर्बुद्धिस्तान् विकत्थसे ॥१५॥ उवाच जनको धीरः हा कष्टं किं श्रतं मया। वसुधाराजरत्नानां निन्दितं पापकर्मणा ॥१५२॥ कथं त्रिभुवनख्यातो वंशो नाभेयसंमवः । कर्णगोचरमेतेषां न प्राप्तो लोकपावनः ॥१५३।।
साधारण मनुष्य हो, तुम्हारी बुद्धि ठीक नहीं है ॥१४०॥ रामने म्लेच्छोंको पकड़ा है इससे क्या हुआ? उनको परास्त तो क्षुद्र मनुष्य भी कर सकते हैं फिर क्यों तुम बुद्धिमान् होकर भूमिगोचरियोंकी परम शक्तिकी प्रशंसा कर रहे हो ॥१४१|| म्लेच्छोंको निकालने मात्रसे ही तुम रामकी स्तुति कर रहे हो सो यह उनकी स्तुति नहीं किन्तु निन्दा है। अहो! यह बड़ी हँसीकी बात है ।।१४२।।
बालकी विषफलमें, दरिद्रकी बैर आदि तुच्छ फलोंमें और कौएकी सूखे वृक्षमें प्रीति होती है। सो कहना पड़ता है कि प्राणीका स्वभाव कठिनाईसे छूटता है ॥१४३॥ इसलिए तुम भूमिगोचरियोंका खोटा सम्बन्ध छोड़कर इस समय विद्याधरोंके राजाके साथ सम्बन्ध करो ॥१४४|| महासम्पत्तिमान् तथा देवोंके समान आकाश में चलनेवाले विद्याधर कहाँ ? और सर्वप्रकारसे अत्यन्त दुःखी क्षुद्र भूमिगोचरी कहाँ ? ||१४५।। ।
तदनन्तर जनकने उत्तर दिया कि अत्यन्त विस्तृत लवणसमुद्र वह काम नहीं करता जो कि थोड़ेसे मधुर जलको धारण करनेवाली वापिकाएँ कर लेती हैं ॥१४६।। अत्यन्त सघन अन्धकार बहुत भारी होता है तो भी उससे क्या प्रयोजन सिद्ध होता है जब कि छोटेसे दीपकके द्वारा लोककी चेष्टा उत्पन्न होती है अर्थात् सब काम सिद्ध होते हैं ॥१४७।। मदको झरानेवाले असंख्य हाथी भी वह काम नहीं कर पाते जो कि चन्द्र बिम्बके समान उज्ज्वल जटाओंको धारण करनेवाला सिंहका एक बच्चा कर लेता है ।।१४८।। ऐसा कहनेपर कितने ही विद्याधर ‘ऐसा नहीं है' इस प्रकार जोरसे एक साथ बड़ा शब्द करते हुए भूमिगोचरियोंकी निन्दा करने लगे ||१४९।। वे कहने लगे कि भूमिगोचरी विद्याके माहात्म्यसे रहित हैं, निरन्तर पसीनासे युक्त रहते हैं, शूरवीरता और सम्पत्तिसे रहित हैं तथा अतिशय शोचनीय हैं ।।१५०॥ अरे जनक ! बता तूने उनमें
और पशुओंमें क्या भेद देखा है ? जिससे दुर्बुद्धि हो तथा लज्जा छोड़कर उनकी इस तरह प्रशंसा किये जा रहा है ? ॥१५१।
तदनन्तर धीरवीर जनकने कहा कि हाय ! बड़े कष्टकी बात है कि मुझ पापीको भूमिगोचरी उत्तमोत्तम राजाओंकी निन्दा सुननी पड़ी ॥१५२।। क्या त्रिजगत्में प्रसिद्ध तथा लोकको १. प्रशशंस म. । २. गोचरिणोर्बुधः म., गोचरिणो बुधः ब. । ३. दरिद्रस्य । निःश्वस्य म. । ४. गोचरिणामतः म.। ५. लवणसागरः । ६. चन्द्रमण्डल- म.। ७. केऽपि नोत्यर्थ (?)। ८.विद्याधराः ।
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