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पद्मपुराणे
अनुपमगुणधरमनुपमकायं विनिहतभवभय सकल कुचेष्टम् ।
_कलिमलधनपटविनय नदक्षं प्रणमत जिनवरमतिशय पूतम् ।।११५।। इति गायति दैत्येन्द्रे जिनसिंहासनान्तरात् । निर्ययौ भयमुत्सृज्य जनको नाम शोभनः ।।११६।। ततश्चन्द्रायणोऽवोचदीषच्चलितमानसः । को भवान् विजने देशे वसत्यत्र जिनालये ॥११७॥ उरगाणां पतिः किं स्यात् किं वा विद्याधराधिपः । सखे वद कुतः प्राप्तो भवान् किं संज्ञकोऽपि वा ।।११८॥ मिथिलानगरीतोऽहं प्राप्तो जनकसंज्ञकः । हृतो मायातुरङ्गेण नभश्वरमहीपते ॥११९।। इत्युक्ते जनकेनैतावन्योन्यं प्रीतमानसौ । इच्छाकाराञ्जलिं कृत्वा सुखासीनौ बभूवतुः ॥१२०॥ क्षणं स्थित्वा च वृत्तान्तैरन्योन्यविनिवेदितः । जनितान्योन्यसंमानौ तौ विश्रम्म समीयतुः ॥१२१॥ ततश्चन्द्रायणोऽवोचद्धीमान् कृत्वा कथान्तरम् । पुण्यवानस्मि येन त्वं मिथिलापतिरीक्षितः ॥१२२।। अस्ति ते दहिता राजन् लक्षणरन्विता शुभैः । कर्णगोचरमायाता मम भूरिजनाननात् ।।१२३॥ सा मामण्डलसंज्ञाय मत्पुत्राय प्रदीयताम् । त्वया विहितसंबन्धं मन्ये स्वं परमोदयम् ॥१२॥ सोऽवोचत् सर्वमेतत्स्यात् कृतं विद्याधराधिप । किंतु दाशरथेर्बाला ज्येष्ठस्य परिकल्पिता ॥१२५।। सुहृञ्चन्द्रगतिरूचे सा कस्मात्तस्य कल्पिता । सोऽवोचच्छु यतामस्ति मवतां चेत् कुतूहलम् ॥१२६॥
करने मात्रसे भक्तोंका भय नष्ट हो जाता है ।।११४॥ हे भव्यजन ! तुम उन जिनेन्द्रदेवको प्रणाम करो कि जो अनुपम गुणोंको धारण करनेवाले हैं, जिनका शरीर उपमारहित है, जिन्होंने संसाररूपी समस्त कुचेष्टाओंको नष्ट कर दिया है, जो कलिकालके पापरूपी सघन पटको दूर करने में समर्थ हैं तथा जो अतिशयोंसे पवित्र हैं अथवा अत्यन्त पवित्र हैं ॥११५॥
तदनन्तर दैत्यराजके इस प्रकार गानेपर सुन्दर शरीरको धारण करनेवाला राजा जनक भय छोड़ जिनेन्द्रदेवके सिंहासनके नीचेसे बाहर निकल आया ॥११६।। उसे देख जिसका मन कुछ विचलित हो गया था ऐसा चन्द्रगति बोला कि आप कौन हैं ? जो इस निर्जन स्थानमें जिनालयके बीच रहते हैं ॥११७॥ आप नागकुमार देवोंके स्वामी हैं ? या विद्याधरोंके अधिपति हैं ? अथवा किस नामको धारण करनेवाले हैं ? और यहाँ कहाँसे आये हैं ? हे मित्र ! यह सब मुझसे कहो ॥११८॥ इसके उत्तरमें राजाने कहा कि विद्याधरराज ! मैं मिथिला नगरीसे आया हूँ। जनक मेरा नाम
क मायामयी घोड़ा मुझे हरकर लाया है ॥११९|| जनकके इतना कहनेपर दोनोंके हृदय परस्पर अत्यन्त प्रसन्न हए और दोनों ही एक दूसरेके लिए हाथ जोडकर सखसे बैठ गये |१२०॥ क्षण-भर ठहरकर दोनोंने एक दूसरेके लिए अपना वृत्तान्त सुनाया और परस्पर एक दूसरेका सम्मान किया। इस तरह वे परस्पर विश्वासको प्राप्त हुए ।।१२१|| तदनन्तर बीचमें ही बात काटकर चन्द्रगतिने कहा कि अहो ! मैं बड़ा पुण्यवान् हूँ कि जिसने आप मिथिलाके राजाका दर्शन किया ॥१२२॥
हे राजन ! मैंने अनेक लोगोंके मुखसे सुना है कि आपके शुभ लक्षणोंसे युक्त कन्या है ।।१२३॥ सो वह कन्या मेरे भामण्डल नामक पुत्रके लिए दीजिए। आपके साथ सम्बन्ध स्थापित कर मैं अपने-आपको परम भाग्यशाली समझंगा ॥१२४॥ इसके उत्तरमें राजा जनकने कहा कि हे विद्याधरराज ! यह सब हो सकता था परन्तु वह कन्या राजा दशरथके ज्येष्ठ पुत्र रामके लिए निश्चित की जा चुकी है, अतः विवशता है ॥१२५॥ मित्र चन्द्रगतिने कहा कि वह कन्या रामके लिए किस कारण निश्चित की गयी है ? इसके उत्तरमें जनकने कहा कि यदि आपको कौतूहल है तो सुनिए ॥१२६।। १. नागशोभन: ज.। २. प्रीतिमानसौ ज.। प्रतिमानसौ म.। ३. -जली कृत्वा म.। ४. दशरथसुतस्य रामचन्द्रस्य।
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