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अष्टाविंशतितमं पर्व मौनमाचरति स्मित्वा करोति च कथां मुहुः । सहसोत्तिष्ठति व्यर्थ याति भूयो निवर्तते ॥२६॥ ततो ग्रहगृहीतस्य सदृशस्तैर्विचेष्टितैः । ज्ञातं तदातुरत्वस्य कारणं मतिशालिभिः ॥२७॥ जगदुश्चैवमन्योन्यं कन्येयं केन चित्रिता । पटोऽत्र निहितो गेहे स्याद् वा नारदचेष्टितम् ॥२८॥ ततः श्रत्वा कमारं तमाकलं स्वेन कर्मणा । नारदस्तस्य बन्धूनां विस्तब्धो दर्शनं ददौ ॥२९॥ आदरेण च तैः पृष्टः कृतपूजानमस्कृतिः । मुने कथय कन्येयं दृष्टा क भवत्तेदृशी ॥३०॥ महोरगाङ्गना किं स्याद् भवेत् किं वा विमानजा । मर्त्यलोकं समायाता त्वया दृष्टा कथंचन ॥३१॥ 'अवद्वारस्ततोऽवोचद् विनयं परमं वहन् । भूयो भूयः स्वयं गच्छन् विस्मयं कम्पयन् शिरः ॥३२॥ अस्त्यत्र मिथिला नाम पुरो परमसुन्दरी । इन्द्रकेतोः सुतस्तत्र जनको नाम पार्थिवः ॥३३॥ विदेहेति प्रिया तस्य मनोबन्धनकारिणी । गोत्रसर्वस्वभूतेयं सीतेति दुहिता तयोः ॥३४॥ निवेद्यैवमसौ तेभ्यः कुमारं पुनरुक्तवान् । बाल मा याः विषादं त्वं तवेयं सुलभैव हि ॥३५॥ रूपमात्रेण यातोऽसि किमस्या मावमीदशम् । ये तस्या विभ्रमा मद्र कस्तान वर्णयितं क्षमः ॥३६॥ तया चित्तं समाकृष्टं तवेति किमिहागुतम् । धर्मध्याने दृढं बद्धं मुनीनामपि सा हरेत् ॥३७॥ आकारमात्रमतत्तस्या न्यस्तं मया पटे । लावण्यं यत्तु तत्तस्यास्तस्यामेवैतदीदृशम् ॥३८॥
नवयौवनसंभूतकान्तिसागरवीचिषु । सा तिष्ठति तरन्तीव संसक्ता स्तनकुम्भयोः ॥३९॥ मानो उन्हें विषमय ही समझता हो। वह सन्तापसे युक्त होकर बार-बार जलसे सींचे हुए फर्शपर .. लोटता था ॥२५॥ वह मौन बैठा रहता था, कभी हँसकर बार-बार चर्चा करने लगता था, .कभी सहसा उठकर व्यर्थ ही चलने लगता था और फिर लौट आता था ॥२६॥ उसकी समस्त चेष्टाएँ ऐसी हो गयीं मानो उसे भूत लग गया हो। तदनन्तर बुद्धिमान् पुरुषोंने उसकी आतुरताके कारणोंका पता लगाया ॥२७|| वे परस्परमें इस प्रकार कहने लगे कि यह कन्या किसने चित्रित की है ? इस महलमें यह चित्रपट किसने रखा है ? जान पड़ता है कि यह सब नारदकी चेष्टा है ॥२८॥
तदनन्तर जब नारदने सुना कि हमारे कार्यसे भामण्डल कुमार अत्यन्त आकुल हो रहा है तब उसने निःशंक होकर उसके बन्धुओंके लिए दर्शन दिया ॥२९॥ उन सबने बड़े आदरसे नारदकी पूजा कर नमस्कार किया तथा पूछा कि हे मुने! कहो आपने यह ऐसी कन्या कहाँ देखी है ? |३०|| यह कोई नागकुमार देवकी अंगना है या पृथिवीपर आयी हुई किसी कल्पवासी देवकी स्त्री आपने किसी तरह देखी है ? ।।३१।। तदनन्तर परम विनयको धारण करता तथा स्वयं ही आश्चर्यको प्राप्त हो बार-बार शिर हिलाता हुआ नारद कहने लगा ॥३२॥ कि इसी मध्यमलोकमें अत्यन्त मनोहर मिथिला नामकी नगरी है। उसमें इन्द्रकेतका पूत्र जनक नामका राजा रहता है ।।३३।। उसके मनको बाँधनेवाली विदेहा नामको प्रिया है। उन दोनोंकी ही यह सीता नामकी कन्या है । यह कन्या उन दोनोंके गोत्रका मानो सर्वस्व ही है ॥३४॥ भामण्डलके भाई-बन्धुओंसे ऐसा कहकर उसने भामण्डलसे कहा कि हे बालक! तू विषादको प्राप्त मत हो । यह कन्या तुझे सुलभ ही है ॥३५॥ तू इसके रूपमात्रसे ही ऐसी अवस्थाको प्राप्त हो रहा है फिर इसके जो हाव-भाव विभ्रम हैं उनका वर्णन करनेके लिए कौन समर्थ है ? ॥३६॥ उसने तुम्हारा चित्त आकृष्ट कर लिया इसमें आश्चर्य ही क्या है ? वह तो धर्मध्यानमें सुदृढ़ रूपसे निबद्ध मुनियोंके चित्तको भी आकृष्ट कर सकती है ॥३७॥ मैंने चित्रपटमें उसका यह केवल आकारमात्र ही अंकित किया है। उसका जो लावण्य है वह तो उसी में है अन्यत्र सुलभ नहीं है ॥३८|| वह नवयौवनसे उत्पन्न कान्तिरूपी समुद्रकी तरंगोंमें ऐसी जान पड़ती है मानो स्तनरूपी कलशोंके सहारे तैर ही १. नारदः । अवद्धारः म.। २. महत् म.। ३. गच्छद्विस्मयं म. । ४. इन्द्रकेतोः स्तुतः म.। ५. तां म.।
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