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अष्टाविंशतितमं पर्व ततो 'नदीगिरीन् देशानरण्यानि च भूरिशः । प्रयाति लङ्घयन् सप्तिः मनोवदनिवारणः ॥७९॥ नातिदूरे ततो दृष्टा प्रासादं तुङ्गमज्ज्वलम् । ह्रियमाणः स शाखायां दृढं लग्नो महातरोः ॥८॥ अवतीर्य ततो वृक्षाद् विश्रस्य च सविस्मयः । चरणाभ्यां परिक्रामन् प्रययौ स्तोकसन्तरम् ॥८१॥ ददर्श च महातुङ्गं शालं चामीकरात्मकम् । गोपुरं च सुरत्नेन तोरणेनातिशोभिनम् ॥८२॥ नानाजातीश्च वृक्षाणां लताजालकयोगिनाम् । फलपुष्पसमृद्धानां नानाविहगशोभिनाम् ॥८३।। संध्याभ्रकूटसंकाशान् प्रासादान् मण्डलस्थितान् । सेवा प्रासादराजस्य कुर्वाणानिव तत्पराम् ॥८४॥ ततोऽसौ खड्गमालम्ब्य दक्षिणो दक्षिणेकरे । केसरीवातिनिःशङ्कः प्रविवेश स गापुरम् ॥८५॥ अपश्यच्च परिस्फीताः पुष्पजातीबहुत्विषः । मणिकाञ्चनसोपाना वापीश्च स्फटिकाम्ससः ॥८६॥ रमणांश्च महामोदान् विशालान् कुन्दमण्डपान् । चलत्पल्लवसंघातान् कृतसंगीतषट्पदान् ॥८७॥ ततश्च माधवीत-जालकान्तरयोगिना । विस्फारितप्रसन्नेन चक्षषा चारुकान्तिना ॥८८॥ रत्नवातायनयुक्तं मक्काजालकशोभितैः । शातकौम्भमहास्तम्भसहस्रकृतधारणम् ॥८९॥ नानारूपसमाकीणं मेरुशृङ्गसमप्रभम् । वज्रबद्धमहापीठमद्राक्षीद् भवनं नृपः ॥९॥ अचिन्तयच्च किं वेतद्विमानं पतितं खतः । वासवस्य हृतं किं वा देत्यैः क्रीडागृहं भवेत् ॥९॥
हो रहे थे ऐसे अन्य राजा लोग हाहाकार करके बहुत भारी शोकको धारण करते हुए वापस लौट आये ||७८॥
अथानन्तर मनके समान जिसका कोई निवारण नहीं कर सकता था ऐसा वह घोड़ा अनेक नदी, पहाड़, देश और पर्वतोंको लाँघता हुआ आगे बढ़ता गया ॥७२|| तदनन्तर पास ही में एक ऊँचा उज्ज्वल भवन देखकर राजा जनक एक महावृक्षकी शाखामें मजबूतीसे झूम गये ॥८०।। तदनन्तर वृक्षसे नीचे उतरकर उन्होंने आश्चर्यचकित हो कुछ देर तक विश्राम किया फिर पैरोंसे पैदल चलते हुए कुछ दूर गये ॥८१॥ वहाँ उन्होंने अत्यन्त ऊँचा सुवर्णमय कोट और उत्तमोत्तम रत्नोंसे युक्त तोरणसे समुद्भासित गोपुर देखा ।।८२।। लताओंके समूहसे युक्त, फल और फूलोंसे समृद्ध तथा नाना प्रकारके पक्षियोंसे सुशोभित वृक्षोंकी नाना जातियां देखीं ॥८३।। जिनके शिखर सन्ध्याके बादलोंके समान सुशोभित थे, जो गोलाकारमें स्थित थे तथा जो भवनोंके राजा अर्थात् राजभवनकी बड़ी तत्परतासे सेवा करते हुए के समान जान पड़ते थे ऐसे महलोंको भी उन्होंने देखा ।।८४||
तदनन्तर अतिशय चतुर राजा जनकने दाहिने हाथमें तलवार लेकर सिंहके समान निःशंक हो गोपुरमें प्रवेश किया ॥८५।। वहाँ जाकर उन्होंने जहां-तहाँ फैले हुए रंग-बिरंगे अनेक प्रकारके फूल देखे। जिनको सीढ़ियां मणि और स्वर्णकी बनी हुई थीं तथा जिनमें स्फटिकके समान स्वच्छ जल भरा था ऐसी बावड़ियाँ देखीं ॥८६॥ जिन्हें देखकर आनन्द उत्पन्न होता था, जिनकी बहुत भारी सुगन्धि दूर-दूर तक फैल रही थी, जिनके पल्लवोंके समूह हिल रहे थे, और जहाँ भ्रमर संगीत कर रहे थे ऐसे कुन्द पुष्पोंके विशाल मण्डप भी उन्होंने देखे ||८७|| तदनन्तर राजा जनकने खुले हुए अत्यन्त सुन्दर स्वच्छ नेत्रसे माधवी लताओंकी ऊंची जालीके बीच झांककर एक ऐसा सुन्दर मन्दिर देखा जो मोतियोंकी जालीसे सुशोभित रत्नमय झरोखोंसे युक्त था, जो सुवर्णनिर्मित हजारों बड़े-बड़े खम्भे धारण कर रहा था, नाना प्रकारके रूपसे व्याप्त था, मेरुकी शिखरके समान जिसकी प्रभा थी, और जिसकी महापीठ (भूमिका) वननिबद्धके समान अत्यन्त मजबूत थी ॥८८-९०॥ उसे देखकर वे विचार करने
१. नदीगिरेर्देशान् म. । २. प्रसादं तुङ्गमुच्चलम् म.। ३. कुर्वाणामिव ब. । ४. तत्परम् ब., ज. । ५. वापी चम.। ६. पीत म. । ७. कित्वेतद्विमानं म.। ८. आकाशात् ।
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