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अष्टाविंशतितमं पर्व
ईदृक्पराक्रमादृष्टो नारदः पुरुविस्मयः । तिं न लभते क्वापि रामसंकथया विना ॥१॥ श्रुतश्च तेन वृत्तान्तो रामस्य किल मैथिली । पिता दातुमभीष्टेति प्रकटा सर्व विष्टपे ॥२॥ अचिन्तयच्च पश्यामि कन्यां तामद्य कीदृशीम् । शोभनैर्लक्षणैर्येन रामस्य परिकल्पिता ॥३॥ पद्मगर्भदलं यस्मिन् कृत्वा स्तनतटे रहः । मकान्त्या सदृशं नेदमिति बुद्ध्यावलोकते ॥४॥ समये नारदस्तस्मिन् सीतालोकनलालसः । विशुद्धहृदयः प्रापदारुरोह च तद्गृहम् ॥५॥ ततो दर्पणसंक्रान्तं जटामुकुटभीषणम् । नारदीयं वपुर्वीक्ष्य कन्या त्राससमाकुला ॥६॥ हा मातः कोऽयमति कृत्वा प्रस्खलित स्वनम् । विवेश गर्भभवनं वेपमानशरीरिका ॥७॥ नारदोऽनुपदं तस्या विशन्नतिकुतूहलः । नारीभिरिपालीभिः सावष्टम्भमरुध्यत ॥८॥ यावत्तस्य च तासां च कलहो वर्तते महान् । तावच्छब्देन संप्रापुर्नरा खड्गधनुर्धराः ॥९॥ गृह्यतां गृह्यता कोऽयं कोऽयमित्युद्धतस्वनाः । कुञ्चितोष्टानरान् दृष्ट्वा सशस्त्रान् हन्तुमुद्यतान् ॥१०॥ नारदः परमं बिभ्रद्भयमुस्कटवेपथुः । ऊर्ध्वरोमा खमुत्पत्य विश्रान्तोऽष्टापदाचले ॥११॥ अचिन्तयञ्च हा कष्टं प्राप्तोऽस्मि जननं पुनः । निष्क्रान्तोऽस्मि महादावात पक्षी ज्वालाहतो यथा ॥१२॥
__ अथानन्तर जो इस प्रकारके पराक्रमसे आकर्षित था तथा बहुत भारी आश्चर्यसे युक्त था ऐसा नारद यद्धकी चर्चाके बिना कहीं भी सन्तोषको प्राप्त नहीं होता था ॥१॥ उसने समाचार सुना कि समस्त संसारमें प्रसिद्ध अपनी सीता नामकी पुत्री उसके पिता राजा जनकने रामचन्द्रके लिए देनेकी इच्छा की है ॥२॥ समाचार सुनते ही उसने विचार किया कि उस कन्याको देखू तो सही कि वह शुभ लक्षणोंसे कैसी है जिससे रामचन्द्र के लिए उसका देना निश्चित किया गया है ॥३॥ ऐसा विचारकर नारद उस समय सीताके महलमें पहुँचा जब कि वह एकान्त स्थानमें कमलकी भीतरी कलिकाको अपने स्तनतटके समीप करके इस बुद्धिसे उसे देख रही थी कि यह मेरी कान्तिके समान है या नहीं ॥४॥ जिसे सीताके देखनेकी लालसा थी तथा जिसका हृदय अत्यन्त शुद्ध अर्थात् निर्विकार था ऐसा नारद उस समय सीताके महलमें ऊपर जा चढ़ा ।।५।। तदनन्तर जिसका दर्पण में प्रतिबिम्ब पड़ रहा था और जो जटारूपी मुकुटसे भीषण था ऐसा नारदका शरीर देखकर सीता भयसे व्याकुल हो गयी ॥६॥ हा मातः ! यह यहाँ कौन आ रहा है ? इस प्रकार अर्बोच्चारित शब्द कर वह महलके भीतर घुस गयी। उस समय उसका शरीर कम्पित हो रहा था ।।७।। अत्यन्त कुतूहलसे भरा नारद भी उसीके पीछे महलमें भीतर प्रवेश करने लगा तो द्वारकी रक्षा करनेवाली स्त्रियोंने उसे बलपूर्वक रोक लिया ॥८॥ जबतक नारद तथा उन स्त्रियोंके बीच बड़ा कलह होता है तबतक उनका शब्द सुनकर तलवार और धनुषको धारण करनेवाले पुरुष वहाँ आ पहुँचे ।।९।। वे पुरुष पकड़ो-पकड़ो कौन है ? कौन है ? इस प्रकारका जोरदार शब्द कर रहे थे। जो ओठ चाब रहे थे, शस्त्रोंसे युक्त थे तथा मारने के लिए उद्यत थे ऐसे उन पुरुषोंको देखकर नारद अत्यन्त भयभीत हो उठा। उसके शरीरसे अत्यधिक कँपकँपी छूट रही थी, और रोमांच खड़े हो गये थे। खैर, जिस किसी तरह वह आकाशमें उड़कर कैलास पर्वतपर पहुंचा और वहीं विश्राम करने लगा ।।१०-११॥ वह विचारने लगा कि हाय ! मैं बड़े कष्टमें पड़ गया था। बचकर क्या आया मानो दूसरा जन्म ही मैंने प्राप्त किया है। जिस प्रकार
१. प्रस्खलितं स्वनं म,।
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