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सप्तविंशतितमं पर्व
ननाश भयपूर्णा च यथाशं म्लेच्छवाहिनी। विध्वस्तचामरच्छत्रध्वजचापसमाकुला ॥८३॥ निमिषान्तरमात्रेण रामेणाक्लिष्टकर्मणा । म्लेच्छा निराकृताः सर्वे कषाया इव साधुना ॥४॥ आगतो यश्च सैन्येन निष्पारेणोदधिर्यथा । भीतोऽश्वैर्दशभिः सोऽयं म्लेच्छराजो विनिःसृतः ॥५॥ पराङमुखीकृतैः क्लीः किमेभिनिहतैरिति । सौमित्रिणा समं रामः कृती निववृते सुखम् ॥८६॥ अमी भयाकुला म्लेच्छा विहाय विजिगीपुताम् । आश्रित्य सह्यविन्ध्याद्रीन् समयेनावत स्थिरे ॥८७।। कन्दमूलफलाहारास्तत्यजू रौद्र कर्मताम् । राघवाद भयमापन्ना वैनतेयादिवोरगाः ।।८८॥ 'सानुजः सानुजं पद्मो विग्रहे शान्तविग्रहः । विसय जनकं हृष्टं जनकामिमुखोऽगमत् ॥८९॥ प्रजातपरमानन्दा रेमे विस्मितमानसा । रराज पृथिवी सर्वा भूत्या कृतयुगे यथा ॥१०॥ धर्मार्थकामसंसक्तः पुरुषैर्भूषितं जगत् । व्यतीतहिमसंरोधैर्नक्षत्रैरम्बरं यथा ॥११॥ माहात्म्यादमुतो राजन् दुहिता लोकसुन्दरी । जनकेन प्रसन्नेन राघवस्य प्रकल्पिता ॥१२॥
टूटे-फूटे चमर, छत्र, ध्वजा और धनुषोंसे व्याप्त म्लेच्छोंकी वह सेना भयभीत होकर इच्छानुसार नष्ट हो गयी-इधर-उधर भाग गयी ।।८३।।
जिस प्रकार साधु कषायोंको क्षण-भरमें नष्ट कर देते हैं उसी प्रकार क्लेशरहित कार्य करनेवाले रामने निमेष मात्र में ही समस्त म्लेच्छोंको नष्ट कर दिया ।।८४॥
जो म्लेच्छ राजा संमुद्रके समान अपार सेनाके साथ आया था वह भयभीत होकर केवल दस घोड़ोंके साथ बाहर निकला था ।।८५।।
इन विमुख नपुंसकोंको मारनेसे क्या प्रयोजन है ऐसा विचारकर कृतकृत्य राम लक्ष्मणके साथ सुखपूर्वक युद्धसे लौट गये ॥८६॥
भयसे घबड़ाये हुए म्लेच्छ विजयकी इच्छा छोड़ सन्धि कर सह्य और विन्ध्य पर्वतोपर रहने लगे ॥८७॥
जिस प्रकार साँप गरुड़से भयभीत रहते हैं उसी प्रकार म्लेच्छ भी रामसे भयभीत रहने लगे। वे कन्द-मूल, फल आदि खाकर अपना निर्वाह करने लगे तथा उन्होंने सब दुष्टता छोड़ दी ।।८८॥
तदनन्तर युद्ध में जिनका शरीर शान्त रहा था ऐसे सानुज अर्थात् छोटे भाई लक्ष्मणसहित राम, सानुज अर्थात् छोटे भाई कनकसहित हर्षित जनकको छोड़कर जनक अर्थात् पिताके सम्मुख चले गये ।।८९॥
तदनन्तर जिसे परम आनन्द उत्पन्न हुआ था और जिसका मन आश्चर्यसे विस्मित हो रहा था ऐसी समस्त प्रजा आनन्दसे क्रीड़ा करने लगी और समस्त पृथिवी कृतयुगके समान वैभवसे सुशोभित होने लगी ।।९०॥
जिस प्रकार हिमके आवरणसे रहित नक्षत्रोंसे आकाश सुशोभित होता है उसी प्रकार धर्म-अर्थ-काममें आसक्त पुरुषोंसे संसार सुशोभित होता है ॥९॥
गौतमस्वामी श्रेणिकसे कहते हैं कि हे राजन् ! राजा जनकने इसी माहात्म्य से प्रसन्न होकर अपनी लोक-सुन्दरी पुत्री जानकी रामके लिए देना निश्चित की थी ॥१२॥
१. यथावाञ्छम् यथासंम्लेच्छ म. । २. विनिःस्मृतः म.। ३. सलक्ष्मणः । ४. अनुजसहितं कनकसहितमिति यावत् । ५. पनोऽविग्रहः ब. । ६. मिथिलाधिपम् । ७. पित्रभिमुखम् । ८. रोमविस्मित- म. ।
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