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सप्तविंशतितमं प
राघवो रथमारूढो युक्तं चपलवाजिभिः । कवचोद्योतितवपुः हारकुण्डलमण्डितः ॥५६॥ धनुरायमास्थाय शरपाणिर्हरिध्वजः । प्रकीर्ण कोल्वणच्छत्रो धरणीधीरमानसः ॥५७॥ प्रविशन् विपुलं सैन्यं लीलया लोकवत्सलः । सुभटैः पूर्यमाणः सन् भात्यर्क इव रश्मिभिः ॥ ५८ ॥ संरक्ष्यजनकं प्रीतः कनकं च यथाविधि । बलं व्यध्वंसयच्छत्रोरिभवत् कदलीवनम् ॥५९॥ तथैव लक्ष्मणस्तत्र बाणानाकर्णसंहतान् । ववर्ष वायुना नुन्नः सागरे जलदो यथा ॥ ६० ॥ निशितानि च चक्राणि शक्तींश्च कनकानि च । शूले क्रकच निर्घातान्येवमाद्यान्यचिक्षिपत् ॥ ६१ ॥ सौमित्रिभुजनिर्मुक्तैस्तैः पतद्भिरितस्ततः । म्लेच्छ्देहाळे न्यकृत्यन्त द्रुमाः परशुभिर्यथा ॥ ६२ ॥ भटाः शबरसैन्येऽस्मिन् बाणैर्निर्भिन्नवक्षसः । केचिच्छिन्नभुजग्रीवा निपतन्ति सहस्रशः ॥६३॥ ततः पराङ्मुखीभूता लोककण्टकवाहिनी । तथापि लक्ष्मणस्तेषामनुधावति पृष्ठतः ॥६४॥ अनिवार्य समालोक्य तं सौमित्रिं मृगाधिपम् । अपरे म्लेच्छशार्दूलाः समन्तात् क्षोममागताः ॥ ६५॥ बृहद्वादित्रनिर्घोषैः कुर्वाणा भैरवं रवम् । चापासिचक्रबहुलाः कृतसंघातपङ्क्तयः ॥६६॥ रक्तवस्त्रशिरस्त्राणाः केचिद्वर्वरधारिणः । असिधेनुकराः क्रूरा नानावर्णाङ्गधारिणः ॥ ६७॥ केचिद्भिन्नाञ्जनच्छायाः शुकपत्रत्विषोऽपरे । केचित्कर्दमसंकाशाः केचित्ताम्रसमविषः || ६८।। कटिसूत्रमणिप्रायाः पत्रचीवरधारिणः । नानाधातुविलिप्ताङ्गा मञ्जरीकृतशेखराः ॥६९॥
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द्वारा दुःखी प्राणीको आश्वासन दिया जाता है || ५५ || रामचन्द्र चंचल घोड़ोंसे जुते हुए रथंपर सवार थे, उनका शरीर कवचसे प्रकाशमान हो रहा था, हार और कुण्डल उनकी शोभा बढ़ा रहे थे || ५६ || वे एक हाथमें लम्बा धनुष और दूसरे हाथमें बाण लिये हुए थे । उनकी ध्वजामें सिंहका चिह्न था, शिरपर विशाल छत्र फिर रहा था तथा उनका मन पृथिवीके समान धीर था || ५७|| जिनके साथ अनेक सुभट थे ऐसे लोकवत्सल राम, लीलापूर्वक विशाल सेनाके बीच प्रवेश करते हुए ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो किरणोंसे सहित सूर्यं ही हो ॥५८॥ प्रसन्नता से भरे रामने जनक और कनक दोनों भाइयोंकी विधिपूर्वक रक्षा कर शत्रुसेनाको उस तरह नष्ट कर दिया जिस प्रकार कि हाथी केलाके वनको नष्ट कर देता है ||५९|| जिस प्रकार वायुसे प्रेरित मेघ समुद्रपर जल-वर्षा करता है उसी प्रकार लक्ष्मणने शत्रुदलपर कान तक खिंचे हुए बरसाये ॥ ६० ॥ वह अत्यन्त तीक्ष्ण चक्र, शक्ति, कनक, शूल, क्रकच और वज्रदण्ड आदि शस्त्रोंकी खूब वर्षा कर रहा था || ६१ || जिस प्रकार पड़ते हुए कुल्हाड़ोंसे वृक्ष कट जाते हैं उसी प्रकार लक्ष्मणकी भुजासे छूटकर जहाँ-तहाँ पड़ते हुए पूर्वोक्त शस्त्रोंसे म्लेच्छोंके शरीर कट रहे थे ॥ ६२॥ म्लेच्छोंकी इस सेनामें बाणोंसे कितने ही योद्धाओंका वक्षःस्थल छिन्न-भिन्न हो गया था, और हजारों योद्धा भुजा तथा गरदन कट जानेसे नीचे गिर गये थे || ६३ ॥ यद्यपि लोकके शत्रुओंकी वह सेना लक्ष्मणसे पराङ्मुख हो गयी थी तो भी वह उनके पीछे दौड़ता ही गया || ६४ || जिसे कोई रोक नहीं सकता था ऐसे लक्ष्मणरूपी मृगराजको देखकर म्लेच्छरूपी तेन्दुए सब ओरसे क्षोभको प्राप्त हो गये || ६५ || उस समय वे म्लेच्छ बड़े भारी बाजोंके शब्दसे भयंकर शब्द कर रहे थे, धनुष, कृपाण तथा चक्र आदि शस्त्र बहुलतासे लिये थे और झुण्डके-झुण्ड बनाकर पंक्तिरूपमें खड़े थे ||६६ ॥ कितने ही म्लेच्छ लाल वस्त्रका साफा बाँधे हुए थे, कोई छुरी हाथमें लिये थे और नाना रंगके शरीर धारण कर रहे थे || ६७|| कोई मसले हुए अंजनके समान काले थे, कोई सूखे पत्तोंके समान कान्तिवाले थे, कोई कीचड़के समान थे और कोई लाल रंगके थे || ६८|| अधिकतर वे कटिसूत्रमें मणि बाँधे हुए थे, पत्तोंके वस्त्र पहने हुए थे, नाना धातुओंसे उनके शरीर लिप्त थे, फूलकी मंजरियोंसे उन्होंने सेहरा बना रखा था ॥ ६९ ॥
१. शूलं क्रकच म. । २. म्लेच्छदेहानि कृत्यन्ते म. । ३. न्यपत्यन्त । ४. शुष्क म., ज. ।
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