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परापुराणे ततः सहृष्टरोमाङ्गो नृपो दशरथः पुनः । प्रमोदं परमं प्राप्तो विषादं च सवाष्पदृक् ॥४२॥ सत्त्वत्यागादिवृत्तीनां क्षत्रियाणामियं स्थितिः । उत्सहन्ते प्रयातुं यद्विहातुमपि जीवितम् ॥४३॥ अथवा क्षयमप्राप्ते जन्तुरायुषि नाश्नुते । मरणं गहनं प्राप्तः परं यद्यपि जायते ॥४४॥ इति चिन्तयतस्तस्य कुमारौ रामलक्ष्मणौ । पितुः पादाब्जयुगलं प्रणम्योपगतौ बहिः ॥४५॥ ततः सर्वास्त्रकुशलौ सर्वशास्त्रविशारदौ । सर्वलक्षणसंपूर्णौ सर्वस्य प्रियदर्शनौ ॥४६॥ चतरङ्गबलोपेतौ पूर्यमाणो विभूतिभिः। संप्रयातौ रथारूदौ दीप्यमानौ स्वतेजसा ॥४७॥ पूर्वमेव तु निर्यातो जनकः सोदरान्वितः । अन्तरं योजने द्वे च परसैन्यस्य तस्य च ॥४८॥ शत्रुशब्दममृष्यन्तो जनकस्य महारथाः । विविशुम्लेंच्छसंघातं मेघवृन्दमिव ग्रहाः ॥४९॥ प्रवृत्तश्च महाभीमः संग्रामो रोमहर्षणः । बृहत्प्रहरणाटोप आर्यम्लेच्छमटाकुलः ॥५०॥ जनकः कनकं दृष्ट्वा परं गहनमागतम् । अचोदयदतिक्रद्धो दुर्वारकरिणां घटाम् ॥५१॥ वर्वरैस्तु महासैन्यैर्भग्नैर्भग्नैः पुनः पुनः । भीमैर्जनकराजोऽपि दिक्षु सर्वासु वेष्टितः ॥५२॥ एतस्मिन्नन्तरे प्राप्तः पद्मः सौमित्रिणा सह । अपारं गहनं सैन्यमपश्यच्चारुलोचनः ॥५३॥ दृष्ट्वा तस्य सितच्छत्रं विशीणां शत्रुवाहिनी । तमसां सन्ततिः स्फीता पौर्णमासीविधुं यथा ॥५४॥ आश्वासितश्च बाणौधैर्जनको ध्वस्तकङ्कटः । तेन जन्तुर्यथा दुःखी धर्मेण जगदायुषा ॥५५॥
तदनन्तर जिनका शरीर रोमांचित हो रहा था ऐसे राजा दशरथ पुनः परम प्रमोद और विषादको प्राप्त हुए। उनके नेत्रोंसे आंसू निकल पड़े ॥४२॥ सत्त्व त्याग आदि करना जिनकी वृत्ति है ऐसे क्षत्रियोंका यही स्वभाव है कि वे युद्ध में प्रस्थान करने के लिए अथवा जीवनका भी त्याग करनेके लिए सदा उत्साहित रहते हैं ।।४३। उन्होंने विचार किया कि जबतक आयु क्षीण नहीं होती है तबतक यह जीव परम कष्टको पाकर भी मरणको प्राप्त नहीं होता ॥४४|| इस प्रकार राजा दशरथ विचार ही करते रहे और राम-लक्ष्मण दोनों कुमार उनके चरण-कमलको नमस्कार कर बाहर चले गये ॥४५॥
तदनन्तर जो सर्व शस्त्र चलानेमें कुशल थे, सर्व शास्त्रोंमें निपुण थे, सर्व लक्षणोंसे परिपूर्ण थे, जिनका दर्शन सबके लिए प्रिय था, जो चतुरंग सेनासे सहित थे, विभूतियोंसे परिपूर्ण थे तथा आत्मतेजसे देदीप्यमान हो रहे थे ऐसे दोनों कुमार रथपर आरूढ़ होकर चले ॥४६-४७॥ राजा जनक अपने भाईके साथ पहले ही निकल पड़ा था। जनक और शत्रुसेनाके बीचमें दो योजनका ही अन्तर रह गया था ॥४८॥ जिस प्रकार सूर्य-चन्द्रमा आदि ग्रह मेघसमूहके बीच में प्रवेश करते हैं उसी प्रकार राजा जनकके महारथी योद्धा शत्रुके शब्दको सहन नहीं करते हुए म्लेच्छसमूहके भीतर प्रविष्ट हो गये ॥४९।। दोनों ही सेनाओंके बीच जिसमें बड़े-बड़े शस्त्रों का विस्तार फैला हुआ था, और जो आर्य तथा म्लेच्छ योद्धाओंसे व्याप्त था, ऐसा रोमहर्षित करनेवाला महाभयंकर युद्ध हुआ ॥५०॥ राजा जनकने देखा कि भाई कनक संकटमें पड़ गया है तब उसने अत्यन्त क्रद्ध होकर दुर हाथियोंकी घटाको प्रेरित कर आगे बढ़ाया ॥५१॥ म्लेच्छोंकी सेना बहुत बड़ी तथा भयंकर थी इसलिए उसने बार-बार भग्न होनेपर भी राजा जनकको सब दिशाओंमें घेर लिया ॥५२॥ इसी बीचमें सुन्दर नेत्रोंको धारण करनेवाले राम लक्ष्मणके साथ वहाँ जा पहुंचे। पहुंचते ही उन्होंने शत्रुकी अपार तथा भयंकर सेना देखी ॥५३॥ रामके सफेद छत्रको देखकर शत्रकी सेना इस प्रकार नष्ट-भ्रष्ट हो गयी जिस प्रकार कि अन्धकारको सन्तति पूर्णिमाके चन्द्रमाको देखकर नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है ।।५४|| बाणोंके समूहसे जिसका कवच टूट गया था ऐसे जनकको रामने उसी तरह आश्वासन दिया-धैर्य बंधाया जिस प्रकार कि जगत्के प्राणस्वरूप धर्मके १. -ममृक्षन्तो म, । २. ध्वस्तकवचः।
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