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नियमसार
(मार्या) इति विपरीतविमुक्तं रत्नत्रयमनुचमं प्रपद्याहम् ।
अपुनर्भवभामिन्यां समुद्भवमनंगरां यामि ॥१०॥ रिणयमं मोक्खउवायो, तस्स फलं हवति परमरिणवारणं । एदेसि तिण्हं पि य, पत्तेयपरूवरणा होइ ॥४॥
नियमो मोक्षोपायस्तस्य फलं भवति परमनिर्वाणम । एतेषां त्रयाणामपि च प्रत्येकप्ररूपणा भवति ॥४।।
निर्वाण प्राप्ति का उपाय नियम कहासः । होता उसोका फल परम निर्वाण सुहाता । दर्शन व जान चरित तीन रत्न अनृपम । प्रत्येक का प्राचार्य यहाँ करते निम्पा ।।४।।
छोड़कर अन्यत्र नहीं पाये जाते हैं । इसमें जो 'मार' शब्द लगाया है वह निर्वाण कारण गे अतिरिक्त जो संसार के कारण मिश्यादर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं उनका निराकरण करने के लिये है । व्यवहार रत्नत्रय के निराकरण के लिये नहीं है क्योंकि
आगे स्वयं भगवान् कुन्दकुन्ददेव व्यवहार रत्नत्रय का प्रमिलाइन कर रहे हैं । यदि व्यवहार रत्नत्रय के निराकरण के लिये 'नियम' के साथ 'सार' शब्द जोड़ते तो वे स्वयं व्यवहार रत्नत्रय को मोक्ष का कारा नहीं मान नकने थे । इसलिये यहां 'विपरीत' शब्द का अर्थ व्यवहार रत्नत्रय न करके मिथ्यादर्शनादि करना चाहिये ।
[ अब टीकाकार श्री मुनिराज निश्चय रत्नत्रय और उसके फल की कामना करते हुये श्लाक कहते हैं- ]
(१०) श्लोकार्थ- इस प्रकार से मैं विपरीत स्वरूप से रहित, अनुपम मर्वश्रेष्ठ रत्नत्रय को प्राप्त करके मुक्ति पी स्त्री से उत्पन्न जो प्रशरोरी ( अतीन्द्रिय-यात्मिक ) सुख को प्राप्त करता हूं।
गाथा ४ अन्वयार्थ- [ नियमः मोक्षोपायः ] पूर्वोक्त रत्नत्रय स्वरूप नियम मोक्ष का उपाय है [ तस्य फलं परम निर्वाणं भवति ] उसका फल परम निर्वाण है [ अपि