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व्यवहारचारित्र अधिकार जो पांच आचारों का पूर्ण प्राचरण करें । पंचेन्द्रि हस्तियों के दर्प का दलन करें । जो धीर गुणों से गभोर संघ अधिपती ।
ऐसे श्री आचार्य हमें देव सन्मती ।।७३॥ अत्राचार्यस्वरूपमुक्तम् । जानदर्शनचारित्रतपोवीर्याभिधान: पंचभिः आचारः समगाः । स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राभिधानपंचेन्द्रियमदान्ध संघरदपनिर्दलनदक्षाः । निखिलघोरोपसर्गविजयोपाजितधीरगुणगंभीराः । एवं लक्षणलक्षितास्ते भगवन्तो शाचार्या इति । तथा चोक्त श्रीवादिराजदेवैः
( शार्दूलविक्रीडित ) "पंचाचारपरानकिंचनपत्तीनश्यत्कषायाश्रमान चंचज्ज्ञानबलप्रपंचितमहापंचास्तिकायस्थितीन् स्फाराचंचलयोगचंचुरधियः सूरीनुदंचद्गुणान् अंचामो भवदुःखसंचर्याभदे भक्तिकियाचुचवः ।।"
[गुणगंभीराः] और गुणों से गंभीर [ईदृशाः] ऐसे [ प्राचार्याः ] आचार्य परमेष्ठी [ भवति ] होते हैं।
टोका-यहां आचार्य के स्वरूप को कहा है।
जो ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप आचार और वीर्याचार इन E नाम वाले पांच आचारों से परिपूर्ण हैं, जो स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और श्रोत्र इन , नाम वाली पांच इंद्रियरूपी मदान्ध हाथी के गर्व को चूर करने में कुशल हैं, जो सकल
बोर उपसर्गों के विजय से उपार्जित धीरता आदि गुणों से गंभीर हैं, इन लक्षणों से लक्षित वे आचार्य भगवान् होते हैं ।
श्रीवादिराजदेव ने भी इसी प्रकार कहा है
श्लोकार्य--"पंचाचार में तत्पर, अकिंचन-अपरिग्रह के स्वामी, कपायों के E स्थानों को नष्ट करने वाले, शोभायमान ज्ञान के बल से महान् पंचास्तिकाय की स्थिति , को विस्तृत करने वाले, वृद्धिंगत निश्चलयोग में-ध्यान में कुशल वृद्धिवाले, उत्कर्षता