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नियमसार
शास्त्रनामधेयकथनद्वारेण शास्त्रोपसंहारोपन्यासोयम् । अत्राचार्याः प्रारब्धस्यान्तगमनत्वात् नितरां कृतार्थतां परिप्राप्य निजभावमानिमित्तमशुभवचनार्थं नियमसाराभिधानं श्रुतं परमाध्यात्मशास्त्रशतकुशलेन मया कृतम् । किं कृत्वा, पूर्व ज्ञात्वा अयंचक परमगुरुप्रसादेन बुध्वेति । कम् ? जिनोपदेशं वीतरागसर्वज्ञमुखारविन्द विनिर्गतपरमोपदेशम् । तं पुनः किं विशिष्टम् ? पूर्वापरदोषनिर्मुक्तं पूर्वापरदोषहेतु भूतसकलमोहरागोषाभावावाप्त मुखविनिर्गतत्वान्निर्दोषमिति ।
टीका - शास्त्र के नामकरण के कथन द्वारा यह इस शास्त्र के उपसंहार का कथन है ।
यहां पर आचार्यवर्य श्री कुरंदकुद भगवान प्रारम्भ किये हुए ग्रन्थ के अंत की प्राप्त करने से अतिशय रूप कृतार्थता को प्राप्त होकर कहते हैं कि निज भावना के निमित्त से अशुभ की वंचना के लिये सैंकड़ों परम अध्यात्म शास्त्रों में कशल ऐसे मैंने इस "नियमसार" नामक शास्त्र को रचा है ।
रचा है ।
प्रश्न – क्या करके यह शास्त्र रचा है ?
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उत्तर --- पहले जानकर अतंचक परमगुरु के प्रसाद से समझकर इसको
प्रश्न – किसको जानकर ?
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उत्तर ---- जिनोपदेश को वीतराग सर्वज्ञदेव के मुखारविंद से निकले हुए ऐसे परम उपदेश को जानकर ।
प्रश्न --- पुनः वह उपदेश कैसा है ?
उत्तर— - पूर्वापर दोष में हेतु भूत ऐसे सकल मोह, राग, द्व ेष का अभाव हो जाने से जो आप्त सच्चे देव हैं, उनके मुख कमल से निर्गत होने से जो निर्दोष है इसलिये यह पूर्वापर दोष रहित है ।
[ अब इस शास्त्र का उपसंहार करते हुए टीककार श्री पद्मप्रभमलधारिदेव कहते हैं कि - ]