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शुद्धोपयोग अधिकार
[ ४६७ किञ्च अस्य खलु निखिलागमार्थसार्थप्रतिपादनसमर्थस्य नियमशब्दसंसूचित विशुद्धमोक्षमार्गस्य अंचितपंचास्तिकायपरिसनाथस्य संचितपंचाचारप्रपंचस्य षड्द्रव्यविचित्रस्य सप्ततत्त्ववपदार्थगर्भीकृतस्य पंचभावप्रपंचप्रतिपावनपरायणस्य निश्चयप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानप्रायश्चित्तपरमालोचनानियमव्युत्सर्गप्रभृतिसकलपरमार्थक्रियाकांडाडंबरसमृद्धस्य उपयोगत्रयविशालस्य परमेश्वरस्य शास्त्रस्य द्विविधं किल तात्पर्य, सूत्रतात्पर्य शास्त्रतात्पर्य चेति । सूत्रतात्पर्य पद्योपन्यासेन प्रतिसूत्रामेव प्रतिपादितम्, शास्त्रतात्पर्य त्विदमुपदर्शनेन । भागवतं शास्त्रमिदं निर्वाणसुन्दरीसमुद्भवपरमवीतरागात्मकनिर्यावाधनिरन्तरानंगपरमानन्दप्रदं निरतिशय नित्यशुद्धनिरंजननिजकारणपरमारमभावनाकारणं समस्तनयनिचयांचितं पंचमगतिहेतुभूतं पंचेन्द्रियप्रसरजिनगात्रमात्रपरिग्रहेण निमितमिदं
जो नियमसार शास्त्र निश्चित रूप से मंग आगम के अर्थ समूह का प्रतिपादन करने में समर्थ है. 'नियम' शब्द मे विशुद्ध मोशमार्ग को जिसने सम्यक प्रकार से मूचित किया है, जो श्रेल पंचास्तिकाय के वर्णन में पहिन है, जिसमें पंचाचार का विस्तृत वर्णन संग्रहील है । जो छह द्रव्यों के वर्णन ने विचित्र है, जिसमें सात तत्त्व
और नत्र पदार्थ गर्भित है, जो पांच प्रकार के भावों का विस्तार से प्रतिपादित करने में परायण है, जो निश्चय प्रतिक्रमण, निश्चय प्रत्याभ्यान, निश्चय प्रायश्चित्त, परम आलोचना, नियम व्युत्सर्ग आदि समस्त परमार्थ क्रिया कांड के आडम्बर से समृद्धशाली है और जो तीन उपयोगों मे महान् है ऐसे इस परमेश्वर शास्त्र का वास्तव में दो प्रकार का तात्पर्य है-एक सूत्र तात्पर्य दूसरा शास्त्र तात्पर्य ।
सूत्र का तात्पर्य नो पद्य-गाथा के कथन से प्रत्येक मूत्र में ही प्रतिपादित किया गया है और शास्त्र का तात्पर्य निम्न टीका के द्वारा प्रतिपादित किया जाता है । यह नियमसार शास्त्र भागवत् शास्त्र है, जो कि निर्वाण सुन्दरी से उत्पन्न होने वाले परम वीतरागी स्वरूप, अव्याबाध, निरंतर और अनंग-अतीन्द्रिय परमानन्द को देने वाला है, जो निरतिशय, नित्य शुद्ध, निरंजन, निजकारण परमात्मा की भावना का कारण है, जो समस्त नयों के समुदाय से सुशोभित है, जो पंचमगति का कारणभूत है, और जो पंचेन्द्रियों के विस्तार से रहित गात्र-मात्र परिग्रहधारी-दिगम्बर महामुनि के