Book Title: Niyamsar
Author(s): Kundkundacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6666666 प्रथम संस्करण ११०० वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला पुष्प नं० ७५ श्रीमद् भगवत्कुम्कुन्वाचार्य प्रणीत नियमसार [ श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव कृततात्पर्यवृत्तिसहित ] हिन्दी अनुवाद : पूज्य प्रार्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी प्रकाशक : वि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर (मेरठ) उ० प्र० ३ फरवरी ८५, माघ शुक्ला १३ बो० नि० सं० २५११ EGG&GEGGEGUETTGGGGC संशोधित मूल्य) रु० मुख्य वीर ज्ञानोदय ग्रंथा हरिपुर। ठ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राद्य-उपोद्घात श्री कुदकुद देव के द्वारा विरचित इस नियमसार ग्रन्थ में "मार्ग मोर मार्ग का फल" इन दो विषयों का वर्णन है । मोक्ष का उपाय मार्ग है और निर्वाण उसका फल है । मोक्ष के उपाय को अथवा अन्य के नाम की पार्षकता को बतलाते हुये श्री भाचार्यदेव ने कहा है "णियमेण प ज क तं णियमं गापरसणचरितं ।" विवरीपपरिहत्थं भणियं खतु सारमिदि वर्षणं ॥ । नियम से जो करने योग्य है वह "नियम" है, वह दर्शन, ज्ञान और पारित है । उसमें 'विपरीत-मिप्यारव का परिहार करने के लिये "सार" शब्द लगाया है। कोई लिखते हैं कि "विपरीत का अर्थ मिथ्यात्व नहीं है विकल्प अर्थात भेद रत्नत्रय है। क्योंकि इस ग्रा५ में निर्विकल्परूप निश्चय रत्नत्रय का ही वर्णन है" किन्तु यह बात गलत है । 'यदि श्री कुदकुददेव को विपरीत शब्द से भेद रत्नत्रय का परिहार करना इष्ट होता तो वे स्वयं चार अधिकार तफ इस व्यवहार रत्नत्रय का प्रतिपादन क्यों करते । देखिये, चौथी गाथा में ही उन्होंने कहा है कि "एदेसि तिण्हं पिय पत्तेयपरूपणा होई" । दर्शन मान और चरित्र इन तीनों में से प्रत्येक की प्ररूपणा करते हैं। पुन: सम्यक्त्व का लक्षण करते हुये कहा है "प्राप्त, पागम और सस्त्रों के अंदान मे गम्यस्त्व होता है। अनंता प्राचार्य ने इन तीनों का लक्षण स्वयं बताया है । पहले अधिकार में गाथा १६ नक जीवतत्व का वर्णन, द्वितीय अध्याय में पुदगल, धर्म, अधर्म, मामाश मोर पाल इनका वर्णन किया है। हरे तक व्यवहार मागे शुद्ध जीवतत्व का वर्णन करके नय.बवक्षा दिया। जारिसिया सिद्धप्पा भवल्लिार जोक्तारसा होति । जरमरणजम्ममुरका अगुणाल किया जेण ॥ ४ ॥ असरीरा आच मासा आंदिया णिम्मरना निमुद्धापा । जय लोयगी सिद्धाना गाया सिदी रोपा ॥४८॥ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं सम्वे पापा बबहारणयं पहुन्च मजिदा हु। मध्ये सिडसहापा सुरणया संसिदी जीवा ॥ ४९ ॥ जैसे सिखात्मा है वैसे भव में रहने वाले संसारी जीव है पोर इसी कारण से वे जरा, मरण पोर जन्म से रहित है तथा पाठ गुणों से भसंकृत हैं। . जिसप्रकार के प्रशरोरी, अविनाशी, मतींद्रिय, निर्मल, मिणुदात्मा, मिद्धलोक के ग्रभाग पर स्थित है वैसे ही जीव संसार में हैं ऐसा जानना । पुनः तत्क्षरण ही नविवक्षा को स्पष्ट कर दिया है पूर्वोक्त सभी भाव (स्थिति, मनुभाग, बंध, म्यान धादि) व्यवहारनय का माश्रय करके कहे गये हैं । किन्तु शुद्धनय से संसार में सभी जीव सिद्धस्वभाव वाले हैं। यहां पर पाचायंदेव का अभिप्राय व्यवहारना से प्रसत्य का नहीं है। अन्यथा वे व्यवहार-निश्चय, दर्शन, ज्ञान, चारित्र के द्वारा मामा को शुद-सिद्ध बनाने का उपाय क्यों प्रदशित करते: वे का सकते थे कि "वास्तव में मार्ग का फल निर्वाण है पोर मागं जो मोष्ट का उपाय है वह असत्य है।" क्योंकि मोक्ष का उपाय तो व्यवहारनय के प्राश्रित ही है । किन्तु ऐसा न कह कर व्यवहार का उपदेश दिया है। प्रागे पुन: चतुर्थ अधिकार में पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति का कथन किया है । माचार्य कुदकुददेव ने महाग्रत मार समिति में निश्वयनम को न घटाकर गुरिस्त में भयभ्य घटाया है । पुन: पंचपरमेश्री का समण बताकर मन्तिम गाया में कहा है-- परिसय भाषणाए चवहारणयस्स होदि चारिस । णिज्यणयल्स चरणं एतो उड़द पवरपामि ।।६।। ग पूर्वोत. भावना में (गाया ७५ तक की भावना में) ग्यबहारनय के अभिप्राय से पारित होता है, पर इसके घरगे निम्पयनय के चारित्र को कागा। । इसके मागे पाच अधिकार से लेकर ग्यारह अधिकार तक निश्चय प्रति क्रमाग, निश्चय प्रत्यास्यान, निश्चय पालानना, शुद्ध विनय प्रायश्चित, परमसमाति, परमनि. पोर निरचय परम पावश्यक इन सातों ना वर्णन किया जो कि ध्यान के माश्रित हो है। माग ग्यारहवें पधिकार के अन्त में कहा है सवे पुराणपुरिसा एवं आराममं य काऊण । मपमत्तपठिाणं परिवज्जप फेवली जादा ।।१५।। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 सभी पुराण पुरुष इसी प्रकार से धावश्यक क्रियासों को करके प्रप्रमत्त प्रादि प्रपूर्वकरण, अनिवृतिकरण, सूक्ष्मसांवराय और क्षीणकषाय गुणस्थानों को प्राप्त करके केवली हो गये हैं। इसके प्रागे अन्तिम बारहवे अधिकार में केवली भगवान का यन करके प्रन्स में निर्धारण को प्राप्त सिद्धों का वर्णन किया गया है । 1 इस प्रकार से प्राचार्य महोदय ने अपने कहे अनुसार ग्यारह अधिकार में मार्ग और बारहवें अधिकार में मार्ग के फल को कहा है। उस मार्ग के व्यवहार-निश्चय दो भेद करके चार अधिकार तक व्यवहार रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग की कहकर पुनः धागे ग्यारहवें अधिकार तक निश्वय मोक्षमार्ग को कहा है। इस तरह से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहाररत्नत्रय निश्चयरत्नत्रय के लिए साधन है। निश्वय रत्नत्रय साध्य भी है और मोक्ष के लिए साधन भी है। यहां यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रंथ मुनियों के वाधिका हो वर्णन करता है। इसमें बावकों कोई नहीं हैमति धिकार में अवश्य ही भक्ति करने के लिये श्रावक शब्द को के चरित्र लिया है । इन्हीं कृदकुद प्राचार्य ने चारित्र पाड़ में तथा रयसार में पृथक से श्रावकों के सम्यक्त्व और चारित्र का वर्णन किया है इस तरह से ग्रन्थ के रहस्य को समझ लेने के बाद प्रत्थ के किसी भी प्रकरण से अवयं की संभावना नहीं रहती है । जिन और जिनकल्पी - स्थविरकल्पो मुनि: श्री कुंदकुददेव ने अपने सभ ग्रन्थों में मोक्षमको लिया है। यद्यपि पंचास्तिकाय और प्रवचनसार में सिद्धांत कथन प्रधान है फिर भी इनमें अंतिम अधिकार में मोक्षमार्ग का प्रकरण और मुनियों को चर्या व वन ही लिया है । यह मोना मम्यग्दर्शन, ज्ञान र नात्रि की एकता है। श्रावक ग्यारह प्रतिमा तक भी चारित्र के एकदंतधारी ही कहते हैं तान भी ग-पूर्व का नहीं होता है। मुनि सकलवर के अधिकारी हैं यो कहिले कि मलवारित्र ग्रहण करने पर ही मुनिबंधोधन साधु ादि नाम प्राप्त होते हैं। देव ही ही हैं, दोघा लेते ही उन्हें मन न स परिकर रखने में न उपदेश देते है न ग्राम या नगर में या वसतिका में महामानु कभी कभी नगर में प्राकर प्रहार ग्रहण कर लेते है। किनारे, चोर प्ररण्य भादि एकांत स्थानों पर तपश्चर्या करते हुये ज्ञान प्रगट हो जाता है फिर भी वे निवास करते हैं। वे एकलविहारी ग़लत मौन वा प्रलंबन रखते हुये पर्यंत नदी के शुद्ध प्रात्मतत्व का चिंतन मोर ध्यान करते रहते Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यपि इनको भी छठा-सात ही गुणस्थान रहता है फिर भी इनकी चर्या, इनके परिणाम सामान्य जनों की होटि में नहीं पा सकते हैं । इसीलिये ये साक्षात् जिन हैं । इनका भाररण तीन लोक में सर्वोत्कृष्ट है। ___ इनके समान जिनकी चर्चा हो फिर भी इनसे किंचित न्यून ही हो वे मुनि जिनकरूपी कहलाते हैं । ये भी प्रायः मौन पूर्वक विहार करते हुये चार-घह महीने तक भी ध्यान में खड़े हो जाते हैं, ये भी एकलविहारी होते हैं । उत्तम संहनन घारी महामुनि इस युग में नहीं हो सकते हैं। Ji जो मुनि ज्ञानो उत्कृष्ठ चर्या को पालने में असमर्थ होते हैं ये गुरु के सानिध्य में संघ में रहकर पाहाः बिहार नौहार क्रियाभों में पागम के अनुगल प्रवृत्ति करते हैं । इनमें जो प्रधान याचार्य होते हैं वे शिष्यों का संग्रह करना, उन्हें दीक्षा, शिक्षा, प्रायश्चित प्रादि देकर मोक्षमाम में लगाना, मुनि ब भावकों को धर्मोपदेश देना, तीर्थयात्रा, धर्म प्रभावना पादि कार्यों में प्रवृत्त होना पादि सरगचर्या का अनुसरण करते हैं। ये साधु "स्थविरकल्पी" फहलाते हैं । ये गहां चतुर्थकाल में मोर विदेह क्षेत्रों में भी होते हैं । पंचमकाल में श्री कुचकुददेव ग्रादि से लेकर माज तक के सभी मुनि उत्तम संहनन के अभाव मे स्थविरतक के सभी मुनि उत्तम महनन के प्रभाव से स्थवि... करूपी ही हैं। स्पबहार -निश्चय मोक्षमार्ग : मुनियों के मकल चारित्र के दो भेद हैं-सराग नारित्र पौर वीनराम चारित्र । इन्हें शुभोपयोग-शुद्धोपयोग, ___ प्रपतसंयम उपेक्षासंयम, व्यवहारचारित्र और निश्चय चारित्र भी पड़ते हैं। इनमें में पहले मुनिजन व्यवहार । पारित्र को ग्रहण कर उममें पूर्णतया निष्णात-निष्पन्न होकर निश्चयचारित्र के लिये प्रयत्न करते हैं । व्यवहार चारित्र, प्राचग्ण, किया अथवा प्रवृत्तिरूप है और निश्चय चारित्र, ध्यान, एकायना या निवृत्तिरूप है। साधनसाध्य भाव : न दोनों में आपस में साधन मध्यभाव अथवा कागा कार्य भाव पाया जाता है । जैम अग्नि में बिना घूम वीक निक्ष अथवा फूल के बिना एन नहीं हो सकता है। मे ही बिना पबहारचारित्र के निश्चय पारित नहीं हो सपना है । चारित्रचक्रवर्ती गुममांगुरू प्राचार्य श्रीमतिसागरज पहाराज ने प्राने २६ दिन के उपना के बाद दिन गये अतिम उपदेश में पवनचारित्र से निश्चयचारित्र * जि पुन से फल का उदाहागा निः!! 41 । बा .. निविप समाधि. मरिकल्न समाधि इस प्रकार के दो कदम है। कपड़ी में रहने व ने Phi | धि करे । मुनियों के सिवाय निर्विकल्प समाधि हो ।। ।।। जो विना मुनिपद नही होना 1 भाया ! रो मत, मुनिपद धारण करो। यथार्थ मंयम हुये बिना निविप समाभि नहीं होती है। इसप्रकार गमयसार में प्रो कुदकुदस्वामी ने कहा है। प्रात्मानुभव के बिना सम्यक्त्व होता महीं। व्यवहार सम्म यो उपचार कहा है । यह यथार्थ सम्यबत्व नहीं है, यह साधन है। जिसप्रकार फल के पाने के लिये पु.ल Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुन: दूसरी पाषा की सस्थानिका में कहा है भ्यवहारमोक्षमार्गसाध्यमावेन मिश्वयमोक्षमार्गोपन्यासोऽपाए । “मितरामुपपन्नः।" इसलिये निाचय-व्यवहारमोक्षमार्ग से साध्यसाधन भाव अच्छी तरह से सिद्ध हो गया है। प्रवचनसार ग्रन्थ में तो सृतीय पारिवाधिकार में सर्वप्रथम मुनिदीक्षा लेने की ही विधि बताते हैं । ये कहते हैं ___ "जो मुनि होना चाहता है वह सर्व प्रथम अपने बंधुवर्ग से पूछकर, पंचाचार से सहित प्राचार्य के पास 'पहुंचकर उन्हें प्रणाम कर उनसे दीक्षा की याचना करे। उस दीक्षा में केशलोंच करके नग्न मुद्रा पारी होकर पांच महावत पादि भट्ठाईस मूलगुण धारण करे।" "मागम में मुनि शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी ऐसे दो प्रकार के हैं। उनमें से शुद्धोपयोगी प्रानब से रहित हैं और शुभोपयोगी प्रानर से सहित है। यहाँ शुद्धोपयोगी मुनि १२ गुण स्थानवर्ती लिये गये हैं।'' पुनः गाचा ४६ से लेकर ७२ तक शुभोपयोगो मुनि की चर्या बतलाई है । प्रागे गाथा ७३-७४ में शुद्धोपयोगी का लक्षण किया है : शुभोपयोगी मुनि की चर्या का एक उदाहरगा देखिरी वसणणाएवरेसो, सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसि । चरिया य सरागाणं, जिणिवपूजोबदेसो य ॥४॥ दर्शन शान का उपदेश देना शिष्यों का संग्रह करना, उनका पोपण करना, तथा जिनेंद्रदेव की पूजा का उपदेश देना यह गब सराम चर्या अर्थात शुभोपयोगी मुनियों को प्रवृत्ति है। समयमार में भी मूल गाथा में सर्वप्रथम भेवरूप व्यवहाररत्नत्रय पुनः अभेदरूप निश्चयान्न अन्य धारण करने का उपदेश है। यथा सणणाणचरित्तणि सेविवस्वाणि साहष्णा णिच्छ । ताणि पुण जाण तिष्णिवि अपाणं घेव णिसापको॥१६॥ साथ के द्वारा दान , जान मोर चारित्र ये नित्य ही मेवन करने योग्य है । पुनः इन तीनों निश्चय से मात्मा ही ममझो । प्रगति प्रथम तीनों को एक पृथव धारण करना चाहिये पुन: निश्चयनय से : तोगोंरूप या-म को माराधना मना चाहिये । १ प्रवचनसार अधिकार ३, गाथा १ मे । गाया ४५ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अपने पाहू ग्रन्थों में से चारित्रपाहड़ में भी कम कहा है गाथा २१ वीं में है "सागार घोर निरागार - अनगार के भेद से संयमवरण दो प्रकार का है। उनमें से सागार चारित्र परिग्रह सहित श्रावक के होता है और निरागार चारित्र परिग्रह रहित मुनि के होता है । पुनः दर्शन व्रतमादिक से श्रावकों के ग्यारह भेद किये हैं | मनंतर भागे क्रम कहा है एवं साधम्मं संगमचरणं उदेसियं सयलं । सुद्ध संजमचरणं अधम्मं निश्कलं बोछे ||२७| इसप्रकार श्रायकधर्मरूप संयमचरण का निरूपण किया, अब मागे प्रतिधर्मरूप, सबल शुद्ध घीर मिध्यस संयमचरण का निरूपण करूंगा। इसके बाद मुनिधर्म का स्वरूप कहते हैं पंचेंद्रियों का दमन, पांच महाव्रत इनकी पस्वांस भावनायें पांच समितियां और तीन गुप्तियां यह निरागार संयमचरण चारित्र है । इसका अर्थ यही हुआ कि श्रावकधर्म के बाद मुनिधर्म धारण करने के अनंतर ही निश्चयचारित्र होता है । द्वादशानुप्रेक्षाग्रन्थ में संवर श्रनुप्रेक्षा में कम बताश है सुजोगस्स पवितो संवरणं, कुणदि असुहजोगस्स । सुहजोगस्स गिरोहो, सुद्युवगेण संभवदि ॥ ६३॥ सुढ बजोगेण पुणी धम्मं सुक्कं च होति जीवस्स । 1 शुभयोगको प्रवृत्ति अशुभयोग का वर करती है और शुद्धोपयोग द्वारा शुभयोग का निरोध जाता है। शुद्ध से जीव के भ्रमंध्यान और शुक्लध्यान होते हैं | मूलाबार ने सात अध्याय तक गुप्तगुर सामाचार, पंचाचार, पिश्णुद्धि, प्रावश्यक प्रकरण प्रादि द्वारा व्यवहारचरित्र को बतलाकर नंतर प्रार्थी अधिकार में धनुप्रेक्षा नवमें में पनगार भावना और समा अधिकार में मातम भावना प्रधान कहते है। प्राकृत भने तो अतिरागकी प्रधानता होने से व्यवहार क्रियायें उन्हें कितनी अधिक प्रिय थीं। श्री कुंकुदेव स्वयं भक्ति करते थे। को उपादेयता सिद्ध हो जाती है। एक मुनि बार विहार पादि करते हैं तब तक उन्हें पाश्यक किपायें चि से करना नाहिये । भक्ति में स्वयं श्री कृदकुदेव ने अपने भक्तिय को व्यक्त किया है। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 I इस प्रकार मैंने भक्तिराग से द्वादशांगरूप श्रेष्ठ का स्तवन किया है। जिनवर वृषभदेव, मुझे मीघ्र ही श्रुत का लाभ देवें । मी कुंदकुददेव ने किसी भी ग्रन्थ के अंत में अपना नाम नहीं दिया । ऐसा एकांत नहीं है उन्होंने "वारसणुपेक्खा " ग्रन्थ के अंत में अपना नाम दिया है । यथा १३ एवं मए सुबरा मतीराएण संतबुवा तथा । सिग्यं मे सुबलाहं जिनवरखसहा पयच्छंतु ॥११॥ इस प्रकार श्री कुंकुमुनिनाथ ने निश्चय और व्यवहार का प्रवलंबन लेकर जो कहा है, शुद्ध हृदय होकर जो उसकी भावना करता है वह परम निर्वाण को प्राप्त होता है । गाया ४९ इषि निद्रयववहारं जं भणियं कुं वकुदमुजिणाहे । जो भाव सुद्धमणो सो पावइ परमणिष्वाणं ॥ ९१ ॥ नय व्यवस्था : यह नियमसार मुनियों के चारिका ग्रन्थ है। उस नारित्र में भी वीतराग चारित्र का ही प्रमुख वन है। इसमें चौथे अधिकार में पांच महाव्रत पान समिति मोर तीन गुप्सि, इन तरह विचार को कहा है। महाव्रत और समिति तो व्यवहारचारित्र ही है। हां, गुप्तियों में प्राचार्यदेव ने व्यवहार निश्चय दो भेद कर दिये हैं। व्यवहार गुप्तियां शुभ प्रवृत्ति होते हुए भी प्रणुम से निवृत्ति रूप हैं ये पंचम काल में संभव हैं और प्राचार्य परमेष्ठी के ३६ गुणों में भी हैं । निश्चयगुप्तियां शुभ-शुभ दोनों की निवृतिरूप होने से त्रिगुप्तिगुप्त महामुनियों के ही संभव हैं जो कि माज नहीं हो सकती । मं I I इस ग्रन्थ में व्यवहार निश्चय काय करते हुये दोनों के विषय को कहने वाली दस गाथायें हैं, उनके कुछ उदाहरण देखिये- कट्टा है- प्रकृति स्थिति धाता श्रवशमिक प्रा भी भाव व्यवहारनय से जोव के कई है नियत से या शुद्धनय से संसार में भी जीव सिद्धस्वभाव वाले है गाथा ७६ में कहा है- पांच महाव्रत प्रादि तथा पंच परमेष्ठी को भक्तिमादि भावना से व्यवहारचारित्र होता है धीर अब मैं इसके धागे निश्चयगय के नानि को कहूंगा इस कथन से यह नया स्पष्ट है कि व्यवहार के चारित्र को धारण करते हैं. दाही निश्वय चाश्यि प्राप्त होता है के बिना भी निश्चय कुछ लोग चारित्र मान लेते है उन्हें इस ७६ गाथा पर लक्ष्य देना नाहिये । गाथा १५६ में केवली भगवान् में दोनों नयों को विवक्षा करते हैं श्री कुरंदकुददेव कहते हैं-व्यवहारलय मे केवली भगवान् गर्व जगत् को जानते हैं और से अपनी पात्मा को ही जानते देखते हैं । इस कथन Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ से यह समझा जाता है कि व्यवहारनप मिथ्या नहीं है अन्यथा केवली भगवान के मान में सब कुछ झमक रहा है यह कहना ही मिथ्या हो जायेगा । प्रतः नय वस्तु के एक अन्न को ग्रहण करता है वह अपने विषय को कहने में: समीचीन ही है। निश्चयचारित्र मुनि को हो होता है : इस ग्रन्थ में पारित्र के प्रकरण में हर एक जगह मुनि के लिये ही वीतराग या निश्चयचारित्र का प्रतिपादन है । उसके सूचक मुनि या मुनि के पात्रक संयत श्रमण प्रादि शब्द २२ गापाओं में प्राय हुये है उन । गापात्रों को परिशिष्ट में दिया गया है । जिनमें से कुछ उदाहरण देखिये ___ गाथा ६८ में जो साषु अगुप्तिभाव को छोड़कर त्रिगुप्ति से गुप्त होते हैं वे ही प्रतिक्रमण कहलाते हैं। क्योंकि वे प्रतिक्रमणरूप हो चुके हैं | गाथा १०७ मे जो कम नो कर्म रहित, विभावगुणपर्यायों से भिन्न पात्मा का ध्यान करते हैं उन प्रमण के पालोमना होती है। गाथा १४४ में जो संयत शुभ भाव में प्राचरण करते हैं । अन्धवश हैं इसलिये उनको कियायें पावश्यक लक्षण नहीं है। पुन : १५१ में कहा है-धो धर्म शुश्त ध्यान से | परिणत है वे अंतगरमा हैं । पान से होन घमण बहिरात्मा है । तात्पर्य यही निकलता है कि चौथे प्रषिकार के व्यवहारचारित्र के बाद जो निश्नयप्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, मालोचना, प्रायश्चित्त, समाधि, भक्ति पार । प्रावश्यक नाम से निग्यचय चारित्र के प्रकाश मान शिकार हैं उनमें मान को एकापता, मात्मा के स्वरूप में तन्मयता, शुद्धोपयोग परिणति या मिविकल्प समाधि हो विक्षित है वही वीतराग बारित है। टीकाकार ने स्थल स्थल पर इस विषय को स्पष्ट किया हुअा है। जिन कनामा काव्यों में भक्ति प्रधान है। पौर जो फलश काथ्य निश्चयचारित्र का कथन करते हैं तथा मोर भी जो कुछ विशेष है ऐसे चौबीस कसम काय परिशिष्ट में दे दिये हैं । कुछ उदाहरण देखिये- कलश काव्य ७३ में कहा है-शुद्धनिश्चयनय में मोक्ष पोर । ससार में कुछ अंतर नहीं है । गुद्धता के रमिक तपादिचार के समय ऐगा ही कहते हैं।" उस १२४ में है-यह शुगल ध्यान रूपी दीपक जिन के. मनरूपी मकान में नन रहा है, वही योगी, उसके शुखात्मा स्वयं प्रत्यक्ष हो । जाता है। "यहां यह स्पष्ट है कि श्रेणी में हो मुनिकों को शुद्धात्म का प्रयक्ष अनुभव होता है ।" कला १७० में , रहा है-गरूपी अंधकार का नाम करने वाला महनते . जयशीन है, यह मुनियरों के मन में हो गोबर होता है, पा शुद्ध। विषय मात्र में न रये लोगों ) मयः ही दुलभ है, परमसुन का गमुद्र है । ऐसा यह शुजान निद्रा ।। मे रहित है। इसमें भी पाया है कि शुद्ध पात्मा ने विपणाव में वत्पर गृह नहीं मिल सकता । प्रागे. २४३ ।। 1 में हैं .-मुनिषधागे भो पुप : पोन विमु स्वचा मुनि शेकामुक मार पह जिनेन्द्र देव गे यिनित हो गूनयवरः, मुनि बार हमें गुगायावतीं हैं। इने ही कलम २५९ में कहा है कि "मोह के नष्ट ह जाने पर ये मुनि अंतस्तन्द को देश लेरो।" यह भी वारहये गुणस्थान में संभव है।। ' ' . . . . Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाकार पचप्रभमसधारी देव के कुछ टीका के अंश मो इस विषय में द्रष्टव्य हैं । गाथा १VE की टीका में अंतरात्मा का लक्षण देखिये-"स्वशाभिधानपरमधमणः सर्वोत्कृष्टोतरारमा, पोग्गायाणामभावाद भोणमोहपदवी परिप्राप्य स्पितो महात्मा ।" "स्वक्श" नाम के परम श्रमण सर्वोत्कृष्ट अंतरात्मा हैं, सोसह कषायों के प्रभाव से ये सीएमोह पदवी को-चारहवें गुणस्थान को प्राप्त हुये महात्मा है । यहाँ तो वारहर्षे गुणस्थान के अंतरात्मा को लिया है यह बात स्पष्ट कर दी है। गाथा १५० की टीका में "स्वामध्यानपरायणस्सन् निरवशेषेणान्तमुखः प्रशस्ताप्रशस्त समस्तविकल्प. जालकेषु कदाचिदपि न वर्तते प्रत एव परमतपोधनः साक्षातरात्मेति ।" स्वात्मपान को करने में सत्पर ये संपूर्ण रूप से अंतर्मुख होकर शुभ-अशुभ समस्त विकल्पों में कदानित भी नहीं बदंते हैं इसीलिये वे परम तपोधन सामान अंतरात्मा हैं। गाथा १५१ को टीका में पंक्ति है"इह हि सामादन्तरात्मा भगवान क्षीणकयायः ।" यहां पर निश्चित ही साक्षान अंतरात्मा भगवान कोण काय मुनि हैं। इन सव उदरणों से समझना चाहिये नि. इम नियमसार में निपचय क्रियायें बारहवं गुणस्थानवती मुनि के ध्यान में पटित होती है । उसके पूर्व सातवें से लेकर ग्यारहवें तप भी शुद्धोपयोग में प्रारंभ होने की अपेक्षा घटित होती है। गाथा १३३ को टोका में कहा है कि शाश्वत सामायिकयत ध्यान में ही होता है "पस्तु ...... धर्मशुक्ल ध्यानाम्यां सदाशिवात्मकमात्मानं घ्यायति हि तम्य वलु जिनेश्वरशासननिष्पन्न नित्यं शुद्ध' त्रिगुप्त गुप्तपरमसमाधिलक्षण काश्वतं सामाथिमवतं भवति ।" जो धमध्यान शुक्लध्यान के द्वारा सदा शिव स्वरूप प्रात्मा को निरंतर ध्याते हैं ! उन के ही जिनेश्वर के शासन में प्रसिद्ध नित्य शुद्ध त्रिगुप्ति से गुप्त परम ममाधिनक्षगा शाश्वत मामापिकात होता है। गाथा १२५ की टोका में बिगुप्त का लक्षण किया है "अगस्ताप्रशस्त समस्तकायबा मनसो व्यापारामारात् त्रिगुप्तः ।" शुभ नभ समस्त मन बचन काय के व्यापार का प्रभाव हो जाने में तीन मतिया से गृप्त पदम्या होनी है। 2- निश्तपत्रमा वामी को बनाया :"य: ... ... ... ... ....... निगुप्ति गुप्त निविकल्पपरमसमाधिसक्षणमाभा अगपूर्वमामानं ध्यायति, यस्मात् प्रतिक्रमणमयः परमसंपमी अतएव म निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपो भवति ।" Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 १६* હૈ जो मुनीश्वर त्रिगुप्ति गुप्त परमार से सहित, प्रति पपूर्व मात्मा को ष्याते हैं। जिस हेतु से वे प्रतिक्रमणमय परमसंयमी हैं इसी हेतु से ये निश्चय प्रतिक्रमण स्वरूप हैं । गाया ९१ की टीका में भी परम तपोधन पुनि के ही निश्चय प्रतिक्रमण कहा है- "यः परमपुरुषार्थपरायणः शुद्धरत्नत्रयात्मक आत्मानं भावयति स एव परमतपोधन एव निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युक्तः " जो परम पुरुषार्थ में लगे हुये मुनि शुद्धरन्नत्रयस्वरूप श्रात्मा को भावना करते हैं, वे ही परमतपोधन निश्चयप्रतिक्रमण स्वरूप हैं। गाथा ८२ को टोका में परम संयमी को ही मुमुक्षु कहा है - "जोवकर्म युगलयोर्भेदाभ्यासे सति तस्मिन्नेव च ये मुमुक्षवः सर्वदा संस्थितास्ते ह्यतएव मध्यस्था: सेन कारणेन तेषां परमसंयमिनां वास्तवं चारित्रं भवति ।" जीव कर्म के भेदाभ्यास में जो "मुमुक्षु" हमेशा स्थित है इस हेतु से वे मध्यस्थ हैं. उन परमसंयमी मुनियो के हो वास्तविक चारित्र होता है। इस तरह वीतरागमुति के सातवें, माटवं गुणस्थान से लेकर बारहवें गुग्गस्थान तक जो ध्यानावस्था होती है उसी का नाम निर्विकल्प ध्यान मुद्धात्मतत्व ध्शन और निश्चपनारित्र है । इन उद्धृत प्रकरणों से क्रम विदित हो जाता है । व्यवहारचारित्र के दाद निश्वयचारित्र का क्रम होने से इन दोनों में कारण कार्यभाव और साधनसाध्य भाव प्रच्छी तरह सिद्ध हो रहा है । भक्ति में श्रावक भी अधिकारी हैं : | इस ग्रन्थ में परमभक्ति नाम के दसवें अधिकार में प्राचार्यदेव ने भक्ति करने के लिये "सागो" "समरा" शब्द में दोनों की हो लिया है। गया सम्मणाचरणे, जो मति कुण सावगी समणो । तस दुणिदिती, होबिसि जिलेहि पण्ण ॥ १३४ ॥ जो श्रावती र अपमा सम्यग्दर्शन, ज्ञान को चारित्र में भक्ति करता है उसके निति भ ना है। 1 होती है I 27f& faqa adinfaufey kena alasso ग्रादिचान्ति श्रावक केके Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानरूप चारित्र माज के मुनि को है या नहीं : अदि सबकदि काई जे, पहिरुमणादि करेज सापमयं । सत्तिविहीणो जा जर सादहणं घेच काय ॥१४॥ ' हे भुने ! यदि तुम्हें शक्ति है तो ध्यानमय प्रतिक्रमण मादि करो। और यदि पाक्ति नहीं है तो अडान करना चाहिये । इसमें टोकाकार ने कहा है कि "यदि इस पंचमकाल में तुम्हें उत्तम संहनन नहीं है तो केवल निजपरमात्मतत्व का प्रधान ही करना चाहिये । पुन: कलशकाव्य में कहा है-"पापबहुल इस कलिकाल में मुक्ति नहीं है प्रतः मध्यात्मध्यान से हो सकता है। इस कारण तुम्हें निज मात्मा का श्रद्धान ही करना चाहिये।" करणानुयोग पढ़ने की प्रेरणा : गाथा १७ में प्राचार्यदेव ने नर नारक मादि के संक्षिप्त भेद बताकर यह कह दिया कि "एदेसि वित्यारं लोय विभागेसु गादच्वं । इनका विस्तार लोकविभाग से जान लेना चाहिये। इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि मेसीलो करायोगायोकीन हैं। योगक्ति या परमसमाधिरूपध्यान : गाया १४० में कहा है कि वृषभ से लेकर सभी तीर्थकों ने योगति-निर्विकल्प ध्यान करके ही निर्वाणा मुख प्राप्त किया है अतः तुम लोग भी योगक्ति करो। यहां परमसमाधिरूप ध्यान विवक्षित है। माथा १५८ में कहा है कि "सभी प्राचीन पृष, प्रावश्यक क्रियानों को करके प्रप्रमत्त मादि गुणस्थानी को प्राप्त कर फेवली भगवान् हये हैं । इस कथन से मावश्यक त्रियानों का महन्द प्रगट हो रहा है। महत्वपूर्ण या प्रिय गाथा : इस अन्य में एक गाथा है जिसे प्राचार्यदेव ने अपना पंथों में लो है, वह यह है-- अरसमरूयमगंध अन्वत वेदणागुणमसदं । जाण अलिगमाहणं जीवपगिद्दिव संठाणं ।। हे शि ! ग य को रसरहित, पहित, गंधरहित, व्य करहित, शब्द रहित, अनुमान के द्वारा ग्रहण न करने योग्य, गरदान भी भय का न नहा जा सके ऐसा निदिष्ट मंम्यान पोर चेतनागुण सहित नमझो। यह माननाराबागापाई। व-मारतीमधराम Eबी नियमसार पंस्ति गाय में १२वी है और जापाभूत में : वीं है। इससे मासूम परता है ग्रन्थकार श्रीकृ'दक देव का Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मह गापा प्रत्यधिक प्रिय रही है । मोर इस कथन से यह भी सिद्ध हो जाता है कि प्रन्थकार अपनी प्रिय पाथा, श्लोक भादि को अपने अन्य प्रायों में लेते रहे हैं । यहां नियमसार में प्रत्यास्थान परमसमाधि, और प्रावश्यक प्राधिकार में भी गई गाथायें मूलाचार ग्रन्म में भी ली गई हैं । अध्यात्म से संयम रत्न मिलता है : टीकाकार ने अपने १४७ वे कलश में कहा है--- "मध्यात्मशास्त्ररूपी ममृतसमुद्र से मैंने संयमरलमाला निकालो है।" इससे यह सिद्ध होता है कि प्रध्यात्म अन्धों को पढ़ने से सयम ग्रहण करना अवश्य होता है न कि संयम से रुचि । प्राबकल वो मध्यात्म प्रस्य । कार संयम आध्यात्म के रहस्य को न समझकर शास्त्र को शस्त्र बना लेते हैं मोर। संयम तया संयमी की निंदा करके दर्शन मोहनीय हो बंध लेते हैं । वास्तव में प्रध्याता ग्रन्य से भास्मा में अनंत गक्ति है।" ऐसा ज्ञान मोर भवान हो जाने से उसके फलरूप मोक्ष को प्राप्त करने के लिये चारित्र ग्रहण रूप पुरुषार्थ करना ही चाहिये। मैंने स्वयं यह अनुभव किया है । बाल्यकाल में पद्मनंदिपंचविशतिका के स्वाध्याय से "मात्मा में ममत शक्ति है।" ऐसा निश्चय ही जाने से मैंने शक्ति के अनुसार चारित्र ग्रहण कर उस अनंतशक्ति को प्रगट करने के पुरुषार्थ में अपना कदम उठाया। पद्मप्रभमलधारिदेव का भक्तिराग : टीकाकार ने इस अध्यात्मग्रन्थ में नौकरी की भक्ति, सामान्य में जिनमक्ति, गुरुभक्ति और अपने स्वयं के इष्ट पाचार्यों की भक्ति करते हुए प्रनेक कलशकाय लिखे हैं। उनमें से श्री पदमप्रभु की भक्ति के तीन फाव्य है. नेमिनाथ को भक्ति के तीन काव्य है. और वीरप्रभु को भनि के दो काव्य है। जिन देव की भक्ति के तो अनेक काथ्य हैं। इन पमप्रभमसवारीदेव ने प्रारम में प्राचायों में श्री सिद्धसम, श्री प्रकलय दव, श्री पूज्यपाद पोर श्री वोरनंदि को नमस्कार किया है। प्रव्य के कलश कारों में प्रोकोनि मुनि श्री माधवसेन प्राचार्य, श्री वीरन प्राचार्य को भी बड़े प्राय: it. । इन तीनो में में कौन इसके दोक्षागा ये भोर कौन शिक्षा गुर: यह स्पष्ट नहीं हो पाया है। ग्राज भो सच्चे मुनि हैं : माना जानने वाले दोकानकायों में रही है। उसका पदाहरण टम कलिकाल में भी देखिये - Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोऽपि क्यापि मुनिर्वभूव सुरुतो काले कप्तावप्यालं'। ऐसे ही एको भाति कलो पुणे मुनिपतिः पापाटवीपावकः ॥ टीकाकार ने एक बार में "शाशो" मेरे सिंगे क. स्पेतु झोरे ऐसी प्रार्थना की है मालोचना सततरगयास्मिका या मिमुक्तिमार्गफसदा यमिनामजन'। शुवात्मतस्वनिपतावरणानुल्पा, स्पासंपतस्य मम सा किस कामधेनुः ॥१७२।। इन सुन्दर-सुन्दर चौबीस कलश-काव्यों को मैंने परिशिष्ट में दे दिया है। श्रीकुन्दकुन्द की गाथायें : गाथा ७ की टीका में टोकाकार ने कहा हैतथा चोक्त श्री कुबकुदाघायं देवः - "तेमो-विठ्ठी गाणं इड्डी साणं सहेब ईमारपं । सिहवणपहागवायं माहप्पं अस्स सो अरिहा ।" यह गाथा प्रवचनसार को है। अमृतचंद्रसूरि ने इसको टोका नहीं की है । जय सेनाचार्य ने इसकी टीका को है । इससे यह विदित होता है कि जयसेनाचार्य ने भो भी अधिक गायायें कदकुददेव की मानकर समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाप में लेकर उनकी टीका की है वे पन्य प्राचार्यों को भी कुदकुदकृत मान्म रही हैं । महासेन पंडितदेव कोन है : गाथा १५९ की टीका में टीकाकार ने कहा हैउक्त' च षष्णवतिपाxि विजपोपानितविशालकीतिमिनहारे,नपतिदेवः "यथावर वस्तुमिणोतिः सम्याज्ञानं प्रदोपवन् । तत्स्वार्थव्यवसायात्म कपंचितप्रमितेः पृथक् ।।" प्रागे माथा १६२ की टोना में भी ऐसे ही हैनया घोक्त श्रीमहासेनपरित: - "मानादमिन्नो न चामिनो भिन्नाभिन्नः कथंचन । हानं पूपिरोभूतं सोऽयमात्मेति कीर्तितः ।।" ये ९६ पार पाखंडियों के साथ शास्त्रार्थ में विजयी होने वाले श्री महासेम परिसदेव कौन है ? बंधे ये दोनों श्लोक "स्वरूप संबोधन" के हैं, जो कि श्री प्रकलंकदेव को रचना प्रसिद्ध है। प्रतः इस विषय में अन्वेदक विद्वानों को विचार करना चाहिये । १ कलशकाव्य २४१ २ कलाकाव्य २१५ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० इस विवाद निरसन प्ररंथ में गाथा ३१-३२ ४१ तथा ५३ को टीका में कुछ विवाद हैं। उन उन स्थलों में टीका का अर्थ करके मैंने विशेषार्थ में अन्य शास्त्रों के प्रमाण देकर विवाद का निरसन कर दिया है। श्री कुंदकुंददेव की चर्चा : नियमसार कथित निश्चय प्रतिक्रमण आदि क्रियाये श्री कुंदकुददेव के पूर्णरूप से थीं नया ? उसो को दिखाते हैं - निश्चय प्रतिक्रमण में कहा है बत्ता अगुतिमावं तिगुगुसी हवे जो साहू सो पडिकमणं उच्च पडिकमणमओ हवे जम्हा ॥८६॥ जो साघु प्रगुप्ति भाव को छोड़कर सोनगुप्ति से गुप्त होते हैं ये प्रतिक्रमण करते है क्योंकि वे प्रतिकममय हैं। इसमें टीकाभर ने कहा है कि जो मुनश्वर त्रिगुप्ति से गुप्त निबिकरूप परम नमः धिलक्षण से लक्षित प्रति पूर्व प्रत्मा को ध्याते हैं वे ही निश्चय प्रतिक्रमण स्वरूप है। श्रीकुवकुददेव कदाचित् पातयें गुणस्थान के स्वस्थान अप्रमत्त भाग में अंशात्मक यह ध्यानरूप प्रतिक्रमण करते होंगे फिर भी उनके भो व्यवहार गुप्तियां ही मानी जानी चाहिये कि निश्चय गुप्तियों में तो अवधिज्ञान संभव है। निश्चय प्रत्याख्यान में कहा है मो सयम जपमागय सह असह् वारणं किच्वा । अप्पा जो शायद पच्चक्खाणं हवे तस्स ॥ ९५ ॥ I जो मुनि सकल को और अनागत एवं शुभ-अशुभ को छोड़कर आत्मा का न करते हैं उनके प्रत्याख्यान होता है । इसमें भी टीकाकार ने मंपूर्ण शुभ प्रशुभ द्रव्य-भाव कर्मों के सुंदर को प्रत्याख्यान कहा है। जो कि बारहवें गुणस्थान में घटेगा। श्री कुचकुः ददेव ग्रन्थ रचना करते थे, उपदेश करते थे मतः शुभरूप बाह्यरूप धीर अंतरूप उनके या हो था । निश्चय आलोचना में कहा है गोमकम्मरतियं विहावगुणजह दविरित । अप्पा जो मार्यादि समस्सालोयणं हषि ।। १०७॥ जो कर्म नोकर्म में रहित और विभाव गुण पर्यायों से रहित प्रारमा का ध्यान करते हैं उन श्रमण के मालोचना होती है । यह भी निविकल्प शुद्धोपयोग परिणतिरूप ध्यान में घटेगी। यह मालोचना श्री प्राचार्य देव को. कदाचित हो ध्यान में घटती होगी । निश्चय प्रायश्चित में कहा है सुह असुवणरयणं रामाबीभाववारण किया । अपाणं जो प्रायदि, तस्स हु नियमं हुवे वियमा ॥१२०॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ शुभ दोनों प्रकार के वचन और रागादि भावों को छोड़कर जो भारमा को घ्या यहां भी शुभ वचन रचना को छोड़कर अर्थात् निर्विकल्प ध्यान करना कहा है। शुभमचन रचना श्री कुचकुंददेव के होतो दी पी अन्याय नायी परमसमाधि में कहा है २१ जो सर्वसाय प्रारंभ गरिग्रह से रहित हैं, तीन गुप्तियों में सहित हैं, पूर्ण जितेन्द्रिय है, उन्हीं के स्थायी मामायिक होती है ऐसा केवली भगवान के शासन में कष्टा है। यहां भी तीन गुप्ति से निर्विकरूप ध्यान के ध्याता मुनि लिये गये हैं। श्री कुरंदकुददेव के यह स्थायी सामाजिक गुप्तिरूप से कदाचित ही ध्यान में होती होगी । परमभक्ति में कहा है। भो विरदो सम्बलावज्जे तिगुलो पिहिडिदियो । तस्य सामान ठाई, इदि के सिसासणे ॥१२५॥ यह जो साधु सर्व के प्रभाव में निविकल्प ध्यान में अपनी प्रात्मा को लगाते है वे योगभक्ति से युक्त हैं । इनसे अतिरिक्त इतर साधु के योग कैसे होगा; यहां पर मविकल्पों का प्रभाव होना बोतरा निर्विकल्प ध्यान में ही संभव है । यह ध्यान श्रेणी पारोहण में शुवल ध्यान में ही घटित होता है अतः श्री कुंदकुददेव के योक्ति न होकर मात्र भावना ही माननी चाहिये। स्ववियामा अपाण जो जज साहू | सो जोगमक्ति जुत्तों, इवरस्स य किये हवे जोगो ।।१३८ || घावश्यक में कहा है जो चरवि मंत्रदो खलु भावे सो हवे अण्णवसो । लम्हा नरस दुकम् आवासयलवखणं ण हवे ।। १४४ ॥ जो संयत शुभाव में वर्तन करते हैं धन्यवश हैं। इसलिये उनकी क्रियायें प्रावश्यक लक्षण नहीं हैं। यह पर देवदारुवनामियों से प्रवृत्ति उड़ाई है। जब कि श्री फुटकुदेवस्य एवं शुभ क्रियायें करते ही थे । ये गुणस्थान में प्रवृत्ति करते हुये इन्हें छोड़ सकते थे । मागे कहते हैं— स्वगुणपज्मयानं, चित्त जो कुणइ सो वि अण्णवसो । मोहपारमवगयसमा कहियंति एरियं ॥ १४५ ॥ REFRES Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओ दम्प, गुण और पर्यायों में वित्त लगाते हैं वे प्रन्यवश हैं । भोहोपकार से रहित श्रमणों ने ऐसा कहा है। यहां पर भी प्रव्य गुणपर्यायों के चितन को छुड़ाकर मात्र निर्विकल्प ध्यान की प्रेरणा दी है। मी कुपददेव स्वयं इस मशरण से कथंचित् अन्यषण माने या सबाने हैं । भागे भौर यो समण किया है कि अंतरवाहिरअप्पे मो बट्टा सो हवेह बहिरम्पा । मध्येच मो म बट्टा सो उच्च अंतरंगपा ॥१५०॥ जो अंतर और बाह्य जरूप में रहते हैं ये बहिरात्मा है और जो जरूप में वर्तन नहीं करते हैं वे अंतरात्मा है। यहा टीकाकार ने कहा है कि जो पपने पारमध्यान में तत्पर हुये सप्रकार से अंतर्मुख होकर गुम अशुभ समस्त विकल्प जाल में कभी को नहीं पतंसे हैं वे हो "परमतपोधन" साक्षाद पनगरमा है । यह लक्षण बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि में घटेगा। श्री कुदकुददेव भी साक्षात् बारहवें गगास्थानमाले अत्तरात्मा न होकर छठे सातवें गुणस्थान वामे मध्यम मंतरामा थे। उनके प्रशस्तरूप अतair जन्म दूनही हुये थे। पागे मोर कहते है को धम्ममुक्कझापा म्हि परिणयो सोवि अंतरंगप्पा । माणविहीणो ममणी बहिरापा इपि विजाणोहि ॥१५॥ जो घर्गगुबलध्यान में परिणत हैं, ये पताम! है, ध्यान से रहित बमण बहिररात्मा है। इसकी टोला में कहते हैं-"इह हि समात् मंतरात्मा भगवान् क्षीण कालाप: स्य खलु भगवतः भोणकपायस्य पोटा कपागणामभावात् ...........।" यहां पर साक्षात् अंतरात्मा होणकषायवर्ती भगवान है, उन भगवान् बारहवें गुणस्थानवर्ती महामूमि के अनंतानुबंधी यादि सोलह कपायों का प्रभाव हो चुका है। यह मशरण मो श्री कुददेव ३ टोमाकार श्री पपप्रभमलघारी देव में घटित नहीं हो सकता है। पुन: स्वयं प्रयकार कहते हैं पपणमयं परिकम वयणमयं पन्दवाण जियम छ । आलोपणबयममयं तं सध्वं जाण सरमायं ॥१५॥ वयनमय प्रतिक्रमण, बपनमय प्रत्यास्थान, वानमय नियमप्रायश्चित्त पौर घनमम पालोपना इन सबको तुम स्वाध्याप समझो। कुरकुददेव स्वयं वचनमपी कियायें करते थे। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुन: कहते हैं कवि सम्सदि काबुले पहिरुमणार करेल मामय । सत्तिविहीणो जो जा सररहन चेष कापव्वं ॥१५४।। यदि शक्ति है तो ध्यानमय-निश्चय प्रतिक्रमण प्रादि करना चाहिये और यदि शक्ति नहीं है सो भवान ही करना चाहिये । टीकाकार ने इसमें शक्ति से उसम संहनन लिया है प्रोर शक्तिविहीन से- इस पंचम काल में होन संहनन होने से कहा है । अत: यह उत्तमसंहननरूप शक्ति श्री कुदकुददेव में भी नहीं थी वे स्वयं अपने प्रयान को दो पद रखते हुये भाजकल के पंरपरल के मुनियों को बवान मी प्रेरणा रहे हैं ऐसा समझना चाहिये । श्री कुदकुददेव विशाल संध के प्राचार्य थे। इन्होंने गिरनार पर्वत पर यदेतपटों से विवाद होने पर पाषाण को मूर्ति मो बुलवा दिया था यह बात पनेकप्रमाण से मिद्ध है। गुर्वावनी में कहा है-- पनि गुरुजांतो बलात्कार गणापगीः, पावाणघटिता येन पारिता श्री सरस्वती । ऊर्यतपिरो तेम पाः सारस्वतोऽभवत्, अतस्तस्म मुनीमाय नमः धोपयनंदिने ।। बलात्कारपरण के प्रग्नणी श्रीपपनदि प्राचार्य हुये जिन्होंने प्रगिरि पर पापारनिमित सरस्वती की गति को चुनवा दिया था। उसी से सारस्वतगछ प्रसिहपा है, उन पहनंदी मनिनाथ को नमकार हो । इन कृदाद देवके (-बुदकुद, २- वग, ३-साना - पिसा: :.-- पदा में नाम थे । पोरवपुराण में कहा है फुदकुदगणी येनोजयंतागरिमस्तके । सोऽवलात वादिता साह पापाणरिता केलो। नात्रि वृन्दावन ने भी कहा है-- संघ सहित श्री कुदकुद गुरु पंचमहेत गये गिरनाः। बादपर्यो तहं संसयमति को, साक्षी बदो अंबिकाकार ॥ "सत्यपय निर्णय दिगंबर" कही पुरी तहं प्रगर पुकार । सो गुब्वेव वसो घर मेरे विघन हरण मंगम करतार ।। इन्होंने पपना प्राचार्यपट्ट समास्वामी को दिया है । गुर्वावलों में यह पाट है-मादि यदा-१-श्रीगुप्तिगुप्त, २-भद्रगहु. ३-माघनंदी, ४-जिमचंद्र, ५- ६ ६-मास्वामी यही बात नंदिसंघ की पावलो में भी है-यथा-४-जिनचन्द्र, ५-कुदकुंदाचार्य, ६-उमास्वामी । " प्रादि - - -- - . १-तीर्थकर महावीर मोर उनकी प्रापाबंपरपरा, भाग ५, पृ० २१३, पृ०४४। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी अनुवाद का निमित्त : सन् १९७१ में रवीनकुमार ने मेरी पलागि रेरणा के गोगका सवातिक प्रन्थ पढ़कर सोलापुर परीकालय से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करती । धनंतर मेरे से कई बार पाग्रह किया कि माताजी | माज कल समयसार मादि अध्यात्म ग्रन्प को परकर कुछ लोग एकांत से निश्चयामासी बन रहे हैं। इसलिये माप विद्यापियों को इन अन्यों का स्वाध्याय कराकर नय विवक्षा मच्छी तरह समझा दोषिये । मैंने भी समयानुसार इसे उचित समझकर इन सभी को पहले समयसार का स्वाध्याय कराया । साथ ही प्रालापपति भी पढ़ाई। इसके बाद क्रम में प्रवचनसार पंचास्तिकाय का भी स्वाध्याय पलाया। इन चन्यों के कई वार स्वाध्याय के बाद सन् १९७५ में हस्तिनापुर में नियमसार का स्वाध्याय शुरू किया। उस समय दो तरह की प्रतियां स्वाध्याय में रखी गई । एक प्रसि में तीसरी गाया को पढ़ते समय भयं भसंगत प्रतीत हा । वह गाथा वह है जियमेण य कम त णियमं गाणसणचरित । वियरीपपरिहरस्थं मणिवं खलु सामिविषयणं ।। ३ ।। इसका सरल अर्थ यह है कि-नियम मे जो करने योग्य है वह नियम है. बद्द भान दर्शन पारित्र है, विपरीस का परिहार करने के लिये इस में "सार" शब्द समाया है। अर्थात रत्नत्रयस्वरूप मोल मार्ग नियम" है इसमें विपरीत को दूर करने के लिये "सार" शब्द लगाकर "नियमसार" बना है। इसका प्रर्थ है सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित। वितु एक प्रति में टीका का अर्थ और टिप्पण कुछ अलग ही छपा है । वह यह है । प्रलोकार्य में विपरीत शहित का (विकल्प रहित) मयं किया है । और विपरीत णन्द के टिपणा में कहा है कि विपरीत-विराज । व्यवहाररलत्रयरूप विकल्पो को-पराश्रित भावों को-छोड़कर मात्र निर्विकल्प शानदर्शनचारित्रका ही-शुद्धरत्नत्रय का ही स्वीकार करने हेतु "निया" के साथ "मार" मान्द जोड़ा है।" यह अधं देखकर मैंने विचार किया कि जब स्वयं श्री मदददेव ने इसी नियममार ग्रन्थ में चौथे अध्याय तक व्यवहार रत्नत्रय का वर्णन किया है पुनः उसी व्यवहाररत्नत्रय के परिहार के लिये "सार" शब्द जोड़ा है यह कैसे बनेगा; यह तो पूर्वापर विश्व दोष हो जायेगा। दूसरी बात यह है Fि म्वयं श्रीकुदकुददेव व्यवहाररत्नत्रय फो ग्रहण कर उसी के अनुमार प्रवृत्ति करते थे। वे भी अपने पाहार विहार, ग्रन्प रचना मौर तीर्थ यात्रा पादि कार्यों में मूलाचार के अनुसार ही चर्या करते थे । क्योंकि निपपरत्नत्रय व निग्मय प्रतिक्रमण, प्रत्यायाम, मावश्यक मादि क्रियायें तो ध्यानरूप ही मानी गई है। खो कि फवंचित् उनके घ्यानरूप सप्तमगुएडस्पान में संभव पी । अन्यरधना करना, उपदेश देना मादि कार्य भी तो व्यवहाररलय के अंतर्गत है न कि निश्चयरलत्रम के अंतर्गत । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .-1 .... प्रतः उपयुक्त पर्थ के अनश्यं को देखकर मेरी भावना यह हुई कि इस ग्रन्थ का मापरंपरा के अनुकूल अनुवाद होना अति पावश्यक है । अब मैंने और नि: संवत् २५०२ में मगसिर शुक्ला वितीया के दिन इस ग्रन्थ का अनुवाद कार्य प्रारंभ करके पत्र कृष्णा नवमी "श्रीवृषभजयंती" के पवित्र दिन इस ममुपाद कार्य को पूर्ण किया है। मैंने यह मनुभव किया है कि प्रन्थों के अनुगव के समय अत्यधिक एकापता हो जाती है । मन उसी पर्य के चितन में तम्मय हो जाता है। परिणामों में निर्मलता पासी है। पतिचार प्रादि दोपों का शोधन होता है, राग्य पौर बढ़ते हैं तथा निजात्म भावना न होती है। ___ इस मनुवाद में कहीं कहीं भावार्थ और विशेषार्थ देकर प्रथं स्पष्ट करने में मैंने धवला प्रादि सत्ताईस अन्यों से सहायता ली है और यथास्थान उन ग्रन्थों के टिप्पण भी दे दिये हैं यह मनुवाद प्रध्यात्म ग्रन्थ का सही मयं कराने में सक्षम होगा भौर मार्पपरपरा के अनुयायियों को प्रिय होगा यह मेरा पूर्ण विश्वास है । हस्तिनापुर पौष वदो २ वीर नि० सं० २५११ दि. १०-१२-१९८४ -प्राधिका शानमती Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद में सहायक ग्रन्थ १ धषला, पुस्तक २ परमात्मप्रकाश ४ मात्मानुशासन ५ गोम्मटसार जीवकांड ६ गोम्मटसार कर्मकांड ७ तत्त्वावं राजवातिक पूर्वाध ८ तस्वार्थ राजवासिक उत्तरार्ध ९ समयसार १० प्रवषमसार ११ आसापपद्धति १२ परमान्यात्मतरंगिणी १३ तत्वानुशासन १४ वृहाव्यसंग्रह १५ आप्तपरीक्षा १६ यशस्तिलकचंपू १७ सिद्धांतसारावि (अमृतायोति) १८ मूलाधार १९ अनगारधर्मामृत २० आदिपुराण २१ पउमचरित्र २२ अष्टपार २३ भगवती आराधना २४ लघीयस्त्रय २५ तत्त्वावंसूत्र २६ स्वयंभूस्सोन २७ रयणसार Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ~ प्रस्तावना आचार्य श्री कुन्दकुन्द कुन्वकुन्दाचार्य और उनका प्रभाव : दिगम्बर जैनाभार्थी में कुन्दकुन्द का नाम सर्वोपरि है। मूर्तिले पूर्वाचार्यों के संस्मरणों में कुन्दकुन्द स्वामी का नाम बड़ी श्रद्धा के साथ लिया मिलता है । मङ्गलं भगवान्वीरो मङ्गलं गौतम गणी मङ्गलं कुभ्वकुन्दायों जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ॥ शिलालेखों, ग्रन्थप्रशस्ति लेखों एवं इग मंगल पद्म के द्वारा भगवान् महावीर और उनके प्रधान घर गोनम के बाद कुन्दकुन्द स्वामी को मंगल कहा गया है। इनकी प्रशस्ति में कविवर वृन्दावन का निम्नांकित सामन्त प्रसिद्ध है, जिसमें बतलाया कुन्मान हुआ है, मरे, और न होग सुनी आम के मुखारविन्दतें प्रकाश पासव स्यादवाद जैन चैन इंद कुम्बकुन्द से तास के अभ्यास विकास मेव जश्न होत मूढ सो सखे नहीं कुबुद्धि कुन्दकुन्द से । देत हैं अशीस शीस नाय इन्द चंद जाहि मोह मार खंड भारतंड कुकुन्द से विशुद्धि बुद्धि वृद्धिया प्रसिद्ध ऋद्धि सिद्धिया एननद कुन्दकुन्द मे ।। तत्वका विशद यांन । समयसार आादि ग्रन्थों में उन्होंने परसे भिन्न तथा स्वकीय श्री कुन्दकुन्द स्वामी के इस जयघोषका कारण है उनके द्वारा प्रतिपादित वस्तुतस्यका विशेषतया प्रात्मपर्यायों से प्रति श्रस्मा उन्होंने इन ग्रन्थों में अध्यात्म धारा रूप जिस मन्दाकिनी को अवगाहन कर भवभ्रमण श्रान्त पुरुष शाम्यत जान्ति को प्राप्त का जो वर्णन किया है। वह अन्यत्र दुर्लभ है। प्रवाहित किया है उसके शीतल एवं पावन प्रवाहमें करते हैं । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARH मार्गदर्शक :- आचामा सागरी स २६ कुन्दकुन्दाचार्य का विवेह गमन : - - -- श्री कुन्दकन्दाचार्य के विषय में यह मान्यता प्रचलित है कि वे विदेह क्षेत्र गये थे और सीमंधर स्वामी की दिव्य स्वनि से उन्होंने आत्मतत्त्व वा स्वरूप प्राप्त किया था । यिदेह गमन का सर्वप्रथम उल्लेख करने वाले प्राचार्य देवसेन (वि.सं. दावीं शती) हैं। जैसा कि उनके दर्शनसार से प्रकट है। - - जइ पजमणं दिणाहो सोमंधरसामिदिम्वणारगेण । ण वियोहह तो समणा कह सुमागं पयाणति ॥४३॥ उनमें कहा गया है कि यदि पनन्दिनाथ, सीमन्धर स्वामी द्वारा प्राप्त दिव्यज्ञान से बोध न देते तो श्रमण-मुनिजन सच्चे मार्ग को कैसे जानते ? देवमेन के बाद ईसाकी बान्हवीं शताब्दी के विद्वान जवसेनाचार्य ने भी पंचाम्निनायक टीका के प्रारंभ . में निम्ननिदिन अवारण पुचिका में कन्दकन्द स्वामी के निदेशगमन की चर्चा की है "अथ श्री कुमारनन्दिसिद्धान्तदेवशिष्यैः प्रसिद्धकथान्यायेन पूर्व विदेहं गरवा दोनरागसर्वज्ञ धीमवरस्वामितीर्थकरपरमदेवं दृष्ट्वा तन्मुखकमलविनिर्गत दिव्यषाणो श्रवणावधारितपदार्थासुद्धात्मनत्वादिसारार्थ" गृहीत्या पुनरम्याग: श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य देवः पचनन्छाद्यपराभिवेयरन्तस्तावहिस्तस्वर्गाणमुख्यप्रतिफ्त्यर्थ अथवा शिवकुमारमहाराजादिसंक्षेपाच शिष्यप्रतिबोधनार्य विरचिते पञ्चास्तिकायनाभृतशास्त्र यथाक्रमेणाधिकारशुद्धिपूर्वक तात्पर्यध्याख्यान कथ्यते ।" जो कमारनन्धि सिद्धारूदेव के शिष्य थे, प्रसिद्ध कथा के अनुसार पूर्व विदेह क्षेत्र जाकर बीनाग सर्वज्ञ श्रीस्वामी तीर्थबर परमदेव के दर्शन कर तथा उनके मुखकमल से विनिर्गत दिव्यध्वनिके श्रनग. से अवधारित पदायोसे गद्ध वात्मनस्व धादि सारभूत अर्थ को ग्रहण कर जो पून: वापिस पाये थे तथा पवनन्दी प्रादि जिनके दूसरे नाग थे, एमे श्री कुन्दकन्दाचार्य देव के द्वारा अन्तस्तत्वकी मुख्य रूप से और बहिस्तन्दको गोगारूप से प्रतिपत्ति कराने के लिये अथवा पिवमार महाराज प्रादि संक्षेप रुचिबाले शिष्यों को समझाने के लिये पञ्चास्तिकाय प्रामृत स्त्र मा गया। प्राभूल रांकृत टीकाकार थी तसागर मान अपनी टीका के प्रश्न में भी कन्याद स्वामी के विदेह गम का उल्लेख किया है "श्रीमत्पमनन्दिकुन्दकुन्दाचार्यवऋग्रोवाचायलाचार्यद्धपिच्छाचार्यनामपन्धविराजितन चतुरंगुलाकारागमनदिना पूर्वविदेहपुण्डरी किणीनगरबन्दितश्रीमन्धरापरनामस्वयंप्रभजिनेन तत्प्राप्तश्रु तज्ञानसम्बोधितभारतवर्षभव्यजीवेन श्रीजिनमनमूरिभट्टारकपट्टाभरण मूतेन कनिकालसर्वनेन विरचिते षट्प्रामृत ग्रन्थे '- - --- Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा पद्मनन्दी, कुन्दकन्दाचार्य, वऋग्रोवाचार्य, एलाचार्य और गृधपिच्छा वायं, इन पांचनामों से जो युक्त थे, चार अंगुल ऊपर प्राकाश गमन की ऋद्धि जिन्हें प्राप्त थो, पूर्व विवेह क्षेत्र के पुपरी किरणी नगर में जाकर श्रीमन्धर अपर नाम स्वयंप्रम जिनेन्द्र की जिन्होंने वन्दना की यो, उनसे प्राप्त श्रुतशान के द्वारा जिन्होंने भरत क्षेत्र के भव्य जीवों को संबोधित किया था जो जिनचन्द्र मूरिभट्टारककै पटके प्राभूषण स्वरूप घे तथा कलिकाल के सर्वश थे, ऐसे कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा विरचिता परप्राभूत ग्रन्थ में।" उपयुक्त उल्लेखों से साक्षात् सदंज देव की वाणी सुनने के कारण कुन्दकुन्द स्वामी को अपूर्व महिमा प्रस्थापित की गई है। किन्तु कुन्दकुन्द न्वानी के ग्रन्थों में उनके स्वमुख से कहीं विदेह गमन की चर्चा उपलब्ध नहीं होती । उन्होंने समयप्राभूत के प्रारम्भ में मिद्धों की वन्दनापूर्वक निम्न प्रतिजा की है पंदित मन्त्र सिद्ध ध्रुवमचनमणोवमं गई पत्ते । वोच्छामि ममयपाहुमिणमो सुयकेवग्नी मणियं ।।१।। - -- इसमें कहा गया है कि ने बत्तक दलों के द्वारा भगिन समयप्राभृन को कमा । यदापि "सुरके वलि भगिगय" इस पद को टीका में श्री अमृतचन्द्र स्वाम।। कहा है --नादिनिधनश्रप्रकाशतत्वेन, निखिरापंसाक्षात्कारकेबलिप्रगीतत्वेन, श्रुतकेवलिभिावर मनु भत्रभिरनिहितत्वेन च प्रमाग्गतामुपगतरय ।" पर्थात् अनादिनिधन परमागम बाट वाम द्वारा प्रकाशन होने गे, तथा सब पदाकों के समूह का मक्षात करने वाले केवली भगवान् सर्वशदेव के प्रगान होने से प्रौर स्वयं अनुभव करने वाले श्रत केवलिया ग कहे जाने से जो प्रमाणता को प्राप है। -. - : - . तो भी इस कथन से यह स्पष्ट नहीं होता कि मैंने केवली की वारगी प्रत्यक्ष सुनी है अल: केवली इसके कर्ता हैं। यहां तो मूलका की अपेक्षा केवनी का उल्लेख जान पठता है । जय सेनाचार्य ने भी केवली का साक्षात् कर्ता के रूप में कोई जान्लेख नहीं किया है। उन्होंने 'गुगके वली भएिवं" की टीका इसप्रकार की है .. - 'श्र ते परमागमे के प्रतिभिः सर्वजणित धतकवलिमणित । अथवा भतकेवलिमाणितं गणधरकायत मिति ।' अर्थात् धत- परमागम मे कवन-गवज्ञ भगवान के द्वारा कहा गया । अथवा भूतनेवली-गंगाधर के द्वारा कहा गया। फिर भी देवसेन मादि के उल्लेख सर्वथा निराधार नहीं हो सकते । देवसेन ने,माचार्य परम्परा से जो चर्चाएं चलो पा रही थी उन्हें दर्शनसार में निबद्ध किया है। इससे सिद्ध होता है कि कुम्नकुन्द के विदेहगमन की पर्चा वर्णनसार की रचना के पहले भी प्रचलित रही होगी। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SE कुन्दकुन्दाचार्य के नाम : पञ्चास्तिकाय के टीकाकार जयसेनाचार्य ने कुन्दकुन्द के पान दो प्रादि अपर नामों का उल्लेख किया है। षट्माभृत के टीकाकार श्रुतसागरसूरि ने पद्मनन्दी, कुदकुदाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य और गृप्रपिच्छाचार्य हुन पचिनामो का निर्देश किया है । नन्दिसंघ से संबद्ध विजयनगर के शिलालेख में भी जो लगभग ११८६ ई. का है, रक्त पोधनाम बतलाये गये हैं। दिसघकी पट्टावली में भी उपयुक्त पांच नाम निर्दिष्ट हैं। परंतु अन्य शिलालेखों में पश्मनंदी और कुदकुद प्रथवा कोण्या इट दो नामों का ही उल्लेख मिलता है। कुन्दकन्द का जन्मस्थान : - इन्द्रनंदो प्राचार्य ने पप्रनंदी को कुण्डकुदपुर का बनाया है। इसीलिये भवरणवेलगोला के कितने ही शिलालेखों में उनका कोण्डक द नाम लिखा है।धी पी० वी देसाई ने "जैनिज्म इन साउथ इण्डिया" में लिखा है कि मुष्ट फल रेलवे स्टेशन से दक्षिण की और लगभग ४ मील पर एका कोनवण्डल नाम का स्थान है जो अन्नतपुर जिले के मुटी तालुके में स्थित है । शिलालेख में उसका प्राचीन नाम "कोण्डक दे" मिलता है। यहां के निवासी इसे भाज भी "कोण्डकुदि" कहते हैं । बहुन कुछ में भय है कि कुदकदाचार्य का जन्मस्थान यही हो । कुन्दकुन्द के गुरु : __पंगार गे नि:स्पृह वीतराग साधुपों के माता-पिता के नाम सुरक्षित रखने-लेखबद्ध करने की परम्परा प्रायः नहीं रही है । यही कारण है कि समस्त प्राचार्यों के माता पिता विषयक इतिहास को उपलब्धि प्राय: नहीं है। हो इनके गुरुयों के नाम किसी न किसी रूप में उपलब्ध होते हैं। पंचास्तिकाय को तात्पर्यवृत्ति में जयसेनाचार्य ने कुदकुदस्वामी के गुरु का नाम कुमारनन्दि सिद्धान्तदेव लिखा है और नंदिसघ को पट्टायली में उन्हें जिनचंद्र का शिष्य बतलाया गया है। परंतु कुदकुदाचार्य ने दोधपाहु के अंत में अपने गुम के रूप में भद्रबाहु का स्मरण करते हुए अपने पापको भद्रबाहु का शिष्य बतलाया है । बोधपाहुड की गाथाएं इस प्रकार हैं। सदनिमारो हो भासामुत्तमु जं जिगणे कहियं । मो तह कहियं गाणं सीसेण य भद्दबाहुस्स ॥६॥ बारस अंगरियाणं चउवस पुस्वंग विउल विस्यरणं । सुयणाणि भव्दवाहू गभषगुरु प्रयदओ जयओ ॥६२।। प्रथम गाथा में कहा गया है कि जिनेंद्र भगवान् महावीर ने अर्थरूप से जो बथन किया है वह भाषासूत्रों में मानद विकार को प्राप्त हुमा मर्थात् भनेक प्रकार के शब्दों में ग्रश्चित किया गया है। भद्रराह के शिष्य ने उसे Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसी रूप में जाना है और कथन किया है । द्वितीय गाथा में कहा गया है कि बारह अंगों और चौदह पूर्धा के विपुल बिस्तार के वेसा गमक गुरु भगवान् श्रुतकेवली भद्रबाहु जयवंत हों । .. ये दोनों गाथाएं परस्पर में संबद्ध हैं। पहली गाषा में अपने मापको जिन भत्रबाह का शिष्य कहा है इसरो गाथा में उन्हीं का जयघोष किया है । यहां भद्रबाहु से अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाह ही ग्राह्य मान पड़ते हैं पयोंकि द्वादशा अंग मोर चतुर्दश पूर्वो का विपुल विस्तार उन्हीं से संभव था । इसका समर्थन समय प्राभृत के पूर्वोक्त प्रतिज्ञा वाक्य "वदित सम्वसिद"--में भी होता है। जिसमें उन्होंने कहा है कि मैं अतकवली के द्वारा प्रतिपादित समयमाभूत को वाहूँगा । अषणबेलगोला के अनेक शिलालेखों में यह उल्लेख मिलता है कि अपने शिष्य चन्द्रगुप्त के साथ भद्रबाहु यहां पधारे और वहीं एक गुफा में उनका स्वर्गवास हुप्रा । इस घटना को प्राज ऐतिहासिक तय के रूप में स्वत किया गया है। राब विचारणीय बात यह रहती है कि यदि कुन्दकुन्द को अन्तिम श्रतकवनी भद्रवाह का भाक्षात शिष्य माना जाता है तो ये विक्रम शताब्दी से ३० वर्ष पूर्व ठहरते है और उस समय जत्रि. ग्यारह अंग चौर नाह पूर्वा के जानकार प्राचार्यों की परम्परा विद्यमान थी तब उनके रहते हा 'दक दरवामी की इतनी प्रतिष्ठा कैसे संभव है। नकती है और कैसे उनका अन्वय चल सकता है?स स्थिति में वृन्दान्दकी उनका पराग शिरा हो माना जा सकता है. साक्षात् नहीं । श्र नकेवली भद्रबाह के द्वारा उपदिष्ट नाव उन्हें गुरु परम्परा से प्राप्त रहा होगा. जी के प्राधार पर उन्होने अपने प्रापको भद्रबाह का शिद घोपित किया। बांध पाहिद के संस्कृत टीकाकार श्री श्रुतसागरमूरि ने भी "भद्रयासो सेरण" का अर्थ विपाखाचार्य कर कुन्दकुन्द को उनका परम्परा शिष्य ही स्वीकन निया है । श्रुतसागरमूरि की पत्तियां निम्न प्रकार है भद्रबाहशिष्येण अहं बलिमुग्तिगुप्तापरनामतयेन विशाणाचार्य नाम्ना बशपूर्वप्रारिणामेकादशाचार्याणां माये प्रयमन ज्ञातम् । इन पंनियों द्वारा कहा गया है कि यहां भद्रवाई के शिष्य से विनावाचार्य का ग्रहा है। इन विधानाकार्य के गर्दन बलि और गुपितगुप्त ये दो नाम पौर भी हैं लथा ये दशपूर्व के धारक ग्यारह प्राचार्यों के मध्य प्रयम प्राचाय थे । गवाह अन्तिम श्रुतकेवलो धे जैमा नि तगागर सूरि ने ६२वी गाथा को टीका में कहा है "पञ्चानां पतकेवलिनां मध्येऽन्त्यो भद्रबाह." भर्यात भद्रवाह पांच श्रुतके वलियों में मन्तिम अ त केवली थे। प्रतः उनके द्वारा उपविष्ट तत्व को उनके शिष्य विशाखाचार्य ने जाना । उसी वी परम्परा अपये पलती रही । गमकाम का अर्थ श्रुतसागर सूरि ने उपाध्याय किया है सो विमानाचार्य के लिये यह विशेषण उचित ही है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्द स्वामी का समय : कुन्दकुन्द स्वामी के समा निर्माण पर "मनसार" की प्रस्तावना में हा० ९० एन० उपाध्ये ने, "समन्तभद्र" की प्रस्तावना में स्व. श्री जुगल किशोरजी मुख्त्यार ने, “पंचास्तिकाय" को प्रस्तावना में ढा० ए. चक्रवर्ती ने तथा "दद प्राभूत संग्रह" की प्रस्तावना में श्री पं० लाशचन्दजो शास्त्री ने विस्तार से चर्चा की है। लेख विस्तार के भय से मैं उन सब चर्चानों के अवतरण नहीं देना चाहता । जिज्ञासु पाठकों को तत् तत् प्रन्यों से जानने को प्रेरणा करता हुमा कुकुद स्वामी के समय निर्धारण के विषय में प्रचलित मात्र दो मान्यतामों का उल्लेन कर रहा हूँ । क मान्यता प्रो० हानले द्वारा सम्पादित नन्दिसघ की पट्टायलियों के आधार पर यह है कि कुन्दकुन्द विक्रम को पहली शताब्दी के विद्वान् थे । वि० सं० ४९ में ये प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए, ४४ वर्ष की भावस्था में उन्हें आनायं पर मिला, ५१ वर्ष १० महीने तक दे उग पद पर प्रतिष्ठित रहे और उनकी कुल प्रायू ६५ वर्ष १० माह ६५. दिन की थी। डा० ए० चक्रवर्ती ने पंचास्तिकाय की प्रस्तावना में अपना ही अभिप्राय प्रकट किया है । घोर दुसरी मान्यता यह है कि वे विक्रम को दूमरी शताब्दी के उत्तर प्रथवा तोरो शताब्दी के प्रारम्भ के विद्वान हैं । जिसका समर्थन स्व. श्री नायूगाजी प्रेमी तथा पं. जुगलकिशोरजी गन-यार प्रादि विद्वान करते मांगे हैं। कन्दकन्द के प्रत्य और उनकी महत्ता : दिगम्बर जैन प्रायों में बुदबुदानायं द्वारा रचित ग्रंय घरपना अलग प्रभाव रमते हैं। इनकी वर्णन पाली ही इस प्रकार की है कि पाठक उस से वस्तु स्वरूप का अनुगम बड़ी सरलता से कर लेता है। वर्ग के विस्तार से रहित, नपे-तुले पादों में किसी बात को वाहना इन ग्रन्थो का विशेषता है। कूदकूद की वागी मीधी हृदय पर प्रसर करती है । निम्नांकिा पथ कुदकुद स्वामी के द्वारा रचित निर्विवाद रूप से माने जान है तथा जैन समाज में उनका सर्वोपरि गान है । (१) पचा स्तिकाय (२) समयमार (३) प्रवचनसार (४) नियमसार (५) अष्टपाह। दमरण पाहट, चरित्तपाहुड, मुत्तपाहुह, बोधपा हुड, भावपाड, मोसपाहुड, सीलपहुई और निगपाहत । (६) वारस गुदेवाया पौर निमगहो। इनके मिना-: "रयणगार'' नाम का ग्रंथ भी कुदकुद स्वामी के द्वारा रचित प्रसिद्ध है तु उसके अनेक पाठ भेद देख कर विद्वानां का मत है कि यह कदद के द्वारा रचित नहीं है अथवा इसके अंदर अन्य लोगों की गाथाएं भी सम्मिलित हो गई हैं। भाण्डारकर रिसर्थ इस्टीट्यूट पूना से हमने १८२५ संवत् को लिखित हस्तलिखित प्रति बुलाकर उससे मुद्रित रयणा सार की गाथाओं का मिलान किया तो बहुत मंतर मालूम हुमा । मुद्रित प्रति में बहुत सी गाथाएं छुटी हुई हैं तथा नवीन गाथाएं मुद्रित हैं । उस प्रतिपर रचयिता का नाम नहीं है। उघर सची में भी यह प्रति प्रज्ञात लेखक के नाम से दर्ज है। चर्चा पाने पर पं.परमानंदजी शास्त्री ने बतलाया कि - - - - - Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mand ALLA . हमने ७०-८० प्रतियां देखी हैं रायका यही हान है मुद्रित प्रति में अपभ्रशका एक दोहा भी शामिल हो गया है तथा कुछ इस अभिप्राय की गाथाएं हैं जिनका कुदकुदकी विचारधारा से मेल नहीं खाता । इंद्रनंदि के घुप्तावतार के अनुसार षट्खण्डागम के भाद्य भाग पर कुदकुद स्वामी के द्वारा रचित परिफर्म ग्रंथ का उल्लेख मिलता है। इस ग्रंघ का उल्लेख षट्खण्डागर के विशिष्ट पुरस्कर्ता याचार्य वीरसेन ने अपनी टीका में कई जगह किया है । इससे पता चलता है कि उनके समय तक तो वह उपलब्ध रहा । परंतु प्राजकल उसको उपलब्धि नहीं है। प्रसन्न भण्डारों, खासकर दक्षिण के शास्त्र भण्डारों में इसकी खोज की जानी चाहिये । मूल। चार भी दफ द ग्वामी के द्वारा रचित माना जाने लगा है चपोंकि उसकी अंतिम प्रष्पिकामें "ति मूलाचार विती द्वादशोऽध्यायः । कदकुंदाक्यं प्रणीत मूलाचाराख्य विवृति: । कृनिरिय धसुनन्दिनः श्रमसमयह उलेख पाया जाता है । विशेष परिज्ञान के लिये पुरातन वाक्य सूत्री को प्रस्तावना में स्व० ५० जुगलकिशोरजी मुख्त्यार का संदर्भ पठितम्य है । फन्दकन्द साहित्य में साहित्य सुषमा : कुदबा दाचार्य ने अधिकांश गाथा दशा, जो कि प्राय नाम ग प्रसिद्ध है, प्रयोग विगा है। यहीं मनुष्टप प्रो मजाति का भी प्रयोग किया है। कहीद वापरत-पढ़ने धीच म यदि विभिन्न छंद या जाता है तो उगसे 116 को एक दश : 1.1 नाव स्वामी तो वध अनुष्टुप इंधों का नमुना देखिये 1 ममति परिवज्जामि निम्मत्तिमुदिदी । आसवणं च में आदा अवसेसाईबासरे ॥५॥-भाव प्राभूत एगो मे सम्सदो अण्णा जाणवंसणलस्खणी। सेसा मे बाहिरा भावा सम्वे संजोगलक्खणा ॥५२॥-भाव प्रामृत सुहेण भाविदं गाणं वुहे जावे विणसदि । तम्हा जहावलं जाई अप्पा दुखेहि भावए 11६२॥-मोक्ष प्राभृत विरवी सध्वसावज्जे त्रिगुत्ती पिहिदिविओ। तस्स सामाइगं ठाइ इदि कंवलिसासणे ।।१२।। नो समो सवभूदेसु सावरेसु तसेसु वा । तास सामाइगं ठाइ इदि विलिसासणे ।।१२६॥-नियमसार चेया उपयटी अठं उपज्जइ विणस्सद । पयडी वि चेययदळ उम्पज्जव विणस्सा ॥३१२॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं बंधी उ चुम्हें वि अपणोण्णापच्नया हवे। अपणो पपडीए य संसारो तेण जायए ॥३१३||-समय प्राभूत एक उपजाति का नमूना देखिये-- गिद्धस्स णिण दुराहिएण तुक्खस्स लुमखेण चुराहियेण। गिद्धस्स सुक्खेण हवेवि बंधो जहण्णवज्ले विसमे समे वा ॥-प्रवचनसार प्रलंकारों की पुट भी कुदकुदस्वामी ने यथा स्थान दो है । जैसे, अप्रस्तुत प्रशंसा का एक उदाहरण देखिये. ण मुपद पडि अभन्यो मुवि आयष्णिउण जिणधम्म । उद्ध' पिपिता ण पग्णयाणिविसा होति ॥१३६-भाव प्राभूत थोड़े से हेर-गोर के साथ यह गाथा समय प्राकृत में पाई है । उगमालंकार को घटा देखिये - जह तारयाण चंदो पयराओं मयाउलाण सम्याण। अहिजो तह सम्मत्तो रिसिसाषण वृविहधम्मागं ॥१४२॥ जह फणिराओ रेहा पणमणिमाणिककिरणविप्फुरिओ। तह विमलदसणधरी जिणभत्ती पचयणो जीयो ॥१४॥ मह तारायण सहिये ससहरविवं खमंडले विमले। भाचिय तह बय विमलं जिलिंग दंसणधिसूद्ध' ।।१४४॥ जह सलिलेण ण सिप्पा कर्मालगिपत्त सहावपपहीए। तह मावण ण लिप्पा कसायविसर हि सुपुरिसो ।।१५२।। मात्र प्रामृत रूपकालंकार की बहार देखिये - जिणवर-चरणंबुरुहं मंति जे परमभनिरायेण । ते जम्मवेल्लिमूर्ण खति वरभाषसत्वेण ॥१५॥ ते धीर धीर पुरिसा खमदमखग्गेण विष्फरतेण । दुज्जयपलबलुद्धरकसायमणिज्जिया जेहिं ।।१५४॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ मायावेहिल असेसा मोहमहातस्वरम्मि आरुढ़ा। विसविस फुप्फफुल्लिय नुर्णति मुणि णाणसहि ।।१५६।।-भाव प्रामृत . कहीं पर चूटक पद्धति का भी अनुसरण किया है । यथा, तिहि तिण्णि धरवि णिच् तिपहिलो तह तिएगपरिपरिको। यो दोस विप्पमुको परमापा प्रायए जोई ।।४४॥-मोक्ष प्रभृत अर्थात नीन के द्वारा (तीन मुस्तियों के द्वारा) तीन को (मन वचन व.:य यो) धारण नर, निरंतर तीन से (शल्यत्रय रो) रहित, तीन से (ग्नत्रय मे) सहित और दो दोषों (गग द्वेष) से मुन रहने धारा योगी परमात्मा का ध्यान करना। कन्दकन्द का शिलालेखों तथा उनरवर्ती ग्रन्यों में उल्लेख : पद स्वामी प्रत्यन्त प्रशिद्ध और सर्वमान्य ग्राचार्य थे प्रत: इनका जनन अनेक शिलालेखों में मिलता है तथा इनवेनरबी गूथकारों में बड़ी बद्धा के माथ इनका संस्मरण किया है। जैन गन्द के शाओं भाधार पर छहलखों का यहां मंकलन किया जाना है श्रीमती वर्धमानस्य बद्धमानरय शासने । श्री कोण्डकुन्दनामाभून्मूलसङ्गाग्रणीमणी ।।-80 ये शि०५५८४१२ वन्यो विभु चि न करिह कोण्डकुन्दः कुन्दप्रमाप्रणयिकीतिविभूषिताश: 1 यश्चारुचारणकराम्बुजचन्चरीकपचक्र तस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम मवेशि० ५४/६७ तस्पान्ये भूविदिते बभूव यः पचनन्दिप्रयमाभिधानः । श्रीकोपष्ट कुन्दादिमुनीश्वराज्यस्तत्संथभादगतचारणतः॥-०३०शि० ४०/६० धोपपनन्दीत्यनवधनामा ह्याचार्यशस्वीत्तरकोटकुन्दः । द्वितीयमासीदभिधानमद्यरचरित्रसंजाल पुबारातः ।। -०० मि० ८२, ४३, ४७, ५० 'इत्याद्यनेकसूरिष्वथ सुएदमुपेतेषु दीव्यस्तपस्याशास्त्राधारेषु पुण्यदनि स जगतां कोण्डकुन्दो यतीन्नः । रसोभिरस्पृष्टतमत्वमन्त योऽपि संख्यजयितु यतीशः । रजपद भूमिनन विहाय चचार मन्ये चतुरंगुलं सः ॥१००शि० १०५ L Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीपवंशाकरतः प्रसिद्धारभूपदोवा यतिरस्नमाला । नमो यवन्तम्मणिवन्मुनीन्द्रस्त पुण्डकुन्दोरित वणवणः ० ०शि० १०५ भीमूलसङ्घऽअनि कुन्दकुन्दः सूरिमहाभाखिलतस्वयेसो । सोमन्धरस्वामिपवप्रबन्यो पञ्चायो जनमतप्रदीपः धर्मकीति, हरिवंशपुराण कविश्वनलिनी प्राममिबोधनसुधापूणिम् । बन्छ बन्यमहं वन्दे कुन्दकुन्दाभिषं मुनिम् ॥१० विद्यानन्धि-सुदर्शन १० श्री मूलसङ्ग ऽगनि नन्दिसंघस्तस्मिन् बलात्कारगणो तिरम्यः । तथापि मारम्वतमान गयो स्वाणो अदिह पननन्दो । आचार्यकुन्दकन्दास्यां वक्रीवो महामतिः । एलापार्यो गृपिय इसि नन्नाम पन्चधा सा० १० इन्स०, न० १५२ कवक दर्पनि बन्दे चमुरंगुलचारणम् । कलिकाले कृतं पेन वात्सल्यं सर्वजन्तुषु । सोमसेन पुराण मृष्टः समपसारम्प का रिपदेश्वरः। श्रीमच्छीक दयामयम्तनोतु मनिमेबुराम् ॥अजित बह्म-हनुमचरित्र सन्दिसंघमुरवस्मंदिवाकरो मच्छीमदकर इतिनाम मुनीश्वरो सो। जीयात् स यं घिहितशास्त्रसुधारोन मियाभुजङ्गगरलं जगतः प्रणष्टम् ॥ -मेधावी धर्मसंग्रह प्रावकाचार आसाय थ सदा सहायपसम पश्वा विवेह जवा - दक्षिीत हिल केवलक्षणमिन चोतक्षमध्यक्षतः । स्वामी साध्यपदाधिरधिषणः श्री नन्दिसंघधियो मान्यः सो स्तु शिवाय शान्तमनसा श्री का वाभिधः ॥ --अमरकोतिरि, जिनसहननाम दीका श्रीमूलसर मनि नन्दिसङ्घस्तस्मिन् बलात्कारगर तिरम्ये । तत्रामवत्पूर्वपदांशवेदी श्रोमाघनन्दी मरदेवबन्धः ॥ परे तदीये मुनिमाम्यवृत्ती जिनादिचन्द्रः समभूवतन्द्रः । ततो भवत्पन्ध सुनामधामा श्रीपानंदी मुनिचक्रवर्ती 1-मविसंघपट्टावली Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्दाचार्य की नय व्यवस्था : वस्तु मनमा का अधिगम-जाम, प्रमाण और भय के द्वारा होता है । प्रमाण वह है जो पदार्थ में रहने वाले परस्पर विरोधी दो धर्मों को एक साथ ग्रहण करता है और नय वह है जो पदार्थ में रहने वाले परस्पर विरोधी दो धर्मों में से एक को प्रमुख मोर दूसरे को गौण कर विवक्षानुसार क्रम से ग्रहण करना है। नयों का निरूपण करने वाले प्राचार्यों ने उनका शास्त्रीय और अध्यात्मिक दृष्टि से विवेचन किया है। शास्त्रीय दृष्टि की नव-विवेचना में नय के व्याधिक, पर्यावाधिक तथा उनके नंगमादि सात भेद निरूपित किये गये हैं और प्राध्या-- स्मिक दृष्टि में निश्चय तथा व्यबहार नय का निरूपण है। यहां द्रव्याथिक और पर्यायाचित्र दोनों ही निश्चय में समा जाते हैं और व्यवहार में उपचार कथन रह जाता है। शास्त्रीय दृष्टि में बरत स्वरूप को विवेचना का लक्ष्य रहता है और अध्यात्मिक दृष्टि में जरा नय-विवेतना वा द्वारा प्रात्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने का मभिप्राय रहता है। इन दोनों राष्टियों का अन्तर वतन ते हा बुन्दकुन्द प्रभूत संग्रह को प्रस्तावना में पृ ८२ पर श्रीमान सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचान जी ने निम्नांकिन पंक्तियां बहुत ही महत्वपूर्ण लिखी हैं "भास्त्रीय दृष्टि वस्तु का विलग करके उनको तह नक पहनन की नाटा करती21 उमकी दृष्टि में तिमिन कारण व व्यापार का उत्तना ही रूप है जितना उपादान कारगा के व्यापार का । और परसंयोगजन्य अवस्था भी उतना ही परमार्थ है जितनी स्वाभाविक अवस्था। जैसे शादान चारण के बिना वार्य नहीं होता घसे ही निमित्त कारण के बिना भी कार्य नहीं होता। सः कामं की उत्पत्ति में दोनों का सम व्यापार है । जमे मिट्टी के बिना घट उत्पन्न नहीं होता वैसे ही कुम्हार आदि के बिना भी घट उत्पन्न नहीं होना । ऐसी स्थिति में वास्तविक स्थिति का विश्लेषण करने वालोणास्त्रीय दृष्टि किमो एक के पक्ष में अपना मला कसे दे सकती है? इसी तरह मोक्ष जितना यथार्थ है संसार भी उतना ही यथार्थ है और ससार जितना यथार्थ है उसके कारण कलाप भी उतने ही यथार्थ हैं । संसार दगा न केवल कोद की अशुद्ध दशा का परिणाम है और न केवल पुद्गल की अण्द्ध दशा का परिणाम है। किन्तु जीव मोर पदगल में. मेल से उत्पन्न हई अशुद्ध दशा का परिणाम है। मत: त्य दृष्टि से जितना मत्य जीव का मस्तित्व है और जितना मुत्य पागन का अस्तित्व है उतना ही सत्य जन । दोनों का मेल भोर संयोगज बिकार भी है । वह मान्य की तरह पुरुष में ग्रारोपित नही है किन्त प्रकृति और पुरुप के गंयोगजन्य बन्ध का परिणाम है अतः शास्त्रीय दौर में जीव, अजीव प्रास्त्रव, बन्ध, मंबर, निजरा, पुण्य, पाप मोर मोक्ष सभी यथार्थ और सारभूत हैं । अत: सभी का यथार्थ श्रद्धान सम्पश्यमान है। और कि उसकी दृष्टि में कार्य को उत्पत्ति में निमित्त कारण भी उतना ही प्रावश्यक है जितना कि उपादान कारण, प्रत: प्रात्मप्रतीति में निमित्तभूत देव शास्त्र और गुरु वगैरह का प्रदान भी मम्यग्दर्शन है। उसमें गुणस्थान भी हैं, मार्गणास्थान भी है-सभी हैं । शास्त्रीय दृष्टि का किसी वस्तु-विशप यो साथ कोई पक्षपात नहीं है। वह वस्तु स्वरूप का विश्लेषण किसी के हित अहित को दृष्टि में रखकर नहीं करती। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राध्यात्मिक दृष्टि का विवेचन करते हुए पृष्ठ ८३ पर लिखा है "शास्त्रीय दृष्टि के सिवाय एका दृष्टि प्राध्यामिक भी है । उसके द्वारा प्रात्मतत्व को लक्ष्य में रखकर वस्तु का विचार किया जाता है जो पात्मा के प्राप्रित हो उसे अध्यात्म कहते हैं। जैसे वेदान्ती ब्रह्म को केन्द्र में रखकर जगत के स्वरूप का विचार करते हैं व से ही मध्यात्म दृष्टि प्रात्मा को केन्द्र में रखकर विचार करती है । जैसे देदान्त में ब्रह्म ही परमार्थ सत् है और जगत मिथ्या है, वैसे ही प्रध्यात्म विचारणा में एक मात्र शुद्ध बुद्ध भात्मा हो परमार्थ सत् है और उसकी प्रत्य सब दशाए व्यवहार सत्य हैं। इसी से शास्त्रीन क्षेत्र में जैसे वस्तुतत्व का विवेचन द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयों के इरा किया जाता है वैसे ही अध्यात्म में निश्चय भोर व्यवहार नय के द्वारा अात्मतत्व का विवेचन किया जाता है और निश्वय दृष्टि को परमायं और व्यवहार दृष्टि को अपरमार्थ कहा जाता है। क्योंकि निश्चय दृष्टि प्रात्मा के यथार्थ शुद्ध स्वरूप को दिखनाती है और व्यवहार दृष्टि अशुद्ध अवस्था को दिखलाती है । अध्यात्मी गुमुन शुद्ध प्रारमतत्व को प्राप्त करना नाहना है अतः उसकी प्राप्ति के लिये मब में प्रथम उमे उस दृष्टि को आवश्यकता है जो प्रात्मा के शुद्ध स्वरूप का दर्शन करा सकने में समर्थ है । ऐसी दृष्टि निश्चय दृष्टि है अतः मुमुक्षु के लिये वही दृष्टि भूतार्थ है। जिससे प्रारमा के प्रशुद्ध स्वरूप का दाम होता है. वह व्यवहार दृष्टि उरा के लिये कार्यकारी नहीं है पतः वह अमृतार्थ बही जाती है । इसी से प्राचार्य कुन्दकुन्द ने नमयप्राभूत के प्रारम्भ में "वबहागे भूदत्यो भूदत्यो देसिदो य मुहाना' लिखकर व्यवहार को प्रभूतार्थ गोर शुद्धनाय प्रार्थात् निश्चय को भुनाथं वहा है।" कून्दकुन्द रनामो ने समयसार और नियमप्तार में माध्यामिक दृष्टि से ग्ना-मस्वरूप वा विवेचन किया है अतः इन निश्चय नय और व्यवहार नय ये दो भेद ही दृष्टिगत होते हैं । वस्तुए अभिन्न प्रौर स्वाश्रित-परनिरपेक्ष कालिक स्वभाव को जानने वाला निश्चयनय है और अनेक भेदरूप वस्तु तथा उसके पराश्रित-परसापेक्ष परिणमन को जानने वाला नय व्यबहारनय है । यद्यपि अन्य प्राचार्यों ने निश्चयनय के शुद्धनिश्चयन और पशुद्ध निश्चयनय इस प्रकार दो भेद किये हैं तथा व्यवहार नय-के सद्भूत, असदभून, अनुपचरित पौर उपचरित के भेद से अनेक भेद स्वीकृत किये हैं। परन्तु कुन्द कुन्द स्वामी ने इन भेदों के चक में न पर मात्र दो भेद स्वीकृत किये हैं। अपने गुण पर्यायों से प्रभिन्न प्रात्मा के कालिक घात्मा के स्वभाव को उन्होने निचयनय का विषय माना है मौर कम के निमित्त से होने वाली प्रात्मा की परिणति को व्यवहारनम वा विप वहा है। निश्चयनय प्रात्मा में काम क्रोध, मान, मारा, लोम प्रादि विकारों को स्वीकृत नहीं करता । पूकि वे पुदगने के निमित्त से होते हैं प्रतः उन्हें पृदगम के मानता है । इसी तरह गुणस्थान तथा मार्गरणा प्रादि विकल्प जीव के स्वभाव नहीं हैं अतः निश्चय नम उन्हें स्वीकृत नहीं करता इन सबको मात्मा के कहना व्यवहारनय का विषय है। निश्चयनय स्वभाव को विषय करता है, विभाव को नहीं । जो स्त्र में स्वके निमित्त से सदा रहता है वह स्वभाव है जैसे जीव के शानादि, और जो स्व में पर के निमित्त से होते हैं वे विभाव हैं। जैसे जीव में क्रोधादि। ये विभाव, चू फि प्रात्मा में ही पर के Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना F मित्त से होते हैं इसलिए उन्हें कपंचित् भात्मा के कहने के लिये जयसेन प्राधि पाचार्यों ने निश्चयनय में शुद्ध और भगुर का विकल्प स्वीकृत किया है परन्तु कुन्दकुन्द महाराज विभाय को प्रात्मा का मानना स्वीकृत नहीं रसे, वे उसे व्यवहार का ही विषय मानते हैं । अमृतचंद्र मूरि ने भी इन्हीं का अनुसरण किया है । सम्यग्टुष्टि जीव वस्तु तत्व का परिज्ञान प्राप्त करने के लिये दोनों नयों का प्रानबन लेता है पर श्रद्धा में वह पशुख नयके पालम्बन को हेय समझता है । यही कारण है कि वस्तु स्वरूप का गयाओं परिजान होने पर भगवनय कामालम्बन स्वयं छूट जाता है। कुदकुदस्वामी ने उभयनपों के पालम्बन से वस्तस्वरूप का प्रतिपादन किया है इसलिये वह निर्विवाद रूप से सना हा है। माग नियममा में प्रतिपादित यस्तु तत्व का दिग्दर्शन कराया जाता है। नियमसार नियमसार में १५७ गाभाग और १२ अधिकार है अधिकारों के नाम इस प्रकार है : (१) जोवाधिकार (२) जीवाधिकार (३) व भावाधिकार (४) व्यवहार चारित्राधिकार (५) गरमा प्रतिममरणाधिकार (६) निपचय प्रत्याख्यानानिकार (७) परमानोचनाधिकार (८) शुद्धनिश्चय प्रायश्चिताधिकार (E) परमममाध्यधिकार (१०) परम भक्त्यधिकार (११) निश्चय परमादण्यकाधिकार प्रो. (१२) शुद्धोपयोगाधिकार । (१) जोषाधिकार : नियम का अर्थ लिखने हा कुन्दकन्दाचार्य कहते हैं: - णियमेण यजंकज तग्णियमं जाणवंसगचरित' । विपरीय परिहरत्यं पणिदं खल सामिविषयणं ॥३॥ जो नियम से करने योग्य हों उन्हें नियम कहते हैं। नियम से करने योग्य ज्ञान दर्गन और चारित्र है। विपरीत शान, दर्शन और चारित्र का परिहार करने के लिये नियम शन्द के साथ सारपद का प्रयोग किया है। इस तरह नियमसार का अर्थ सम्यमान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्पारित है। संस्कृत टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारी देव ने भी कहा है "निघमशम्दस्तावत् सम्यग्दर्शनशानचारिप्रेषु वर्तते, नियमसार इस्पनेन शुद्धरत्नत्रयस्वरूपमुक्तम् ।" : -- - - - -- Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - अर्थात् नियम धाब्द सग्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र में प्राता है तथा नियमसार इस शब्द से शुद्धरत्नत्रय का स्वरूप कहा गया है । जिन शासन में मार्ग और मार्ग वा फल पन दो पदार्थों का कथन है। उनमें मार्ग-मोक्ष का उपायसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पचारित्र कहलाता है और निवारण, मार्ग का फल कहलाता है। इन्हीं तीम का वर्णन इस ग्रन्थ में किया गया है । सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन का लक्षण लिखते हुये कहा है माप्त, पागम और तत्वों के प्रधान से सम्यक्त्व सम्यग्दर्शन होता है । जिसके समस्त दोष नष्ट हो गये है तथा जो सकल गुण स्वस्प हैं वह प्राप्त है । क्षुधा तृषा आदि अठारह दोष कहलाते हैं और केवलज्ञान मादि मुग कहे जाते है । प्राप्त भगवान् क्षुधा तृषा प्रादि समस्त दोपों से रहित हैं तथा फेवलज्ञानादि परमविभव-अनन्त गुण रूप ऐपवर्य से सहित है। यह प्राप्त हो परमात्मा कहलाता है। इसमे विपरीत प्रामा परमात्मा नहीं हो सकता। प्रागम और तत्त्व का वर्णन करते हुए लिखा है -- उन प्राप्त भगवाग के मुख में उद्गत -दिव्यध्वनि से प्रकटित तथा पूर्वापर विरोध रूप दोष से रहित जो शुद्ध वचन है वह पागम कहलाता है और अगम के द्वारा कथित जी जीव, गुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और अाकाशा है वे तत्वार्थ हैं । वे तत्वार्य नग्नः गृण और पयायों से सहित हैं। इन तत्वार्यो में दपरावभासी होने से जीव तत्व प्रधान है। उपयोग, यूमा लक्षण है। उपयोग के बागपयोग और दर्शनोपयोग की अपेक्षा दो भेद हैं। ज्ञानोपयोग स्वभाव और विभाव के भेद से दो प्रकार का है। केवलज्ञान स्वभाव ज्ञानोपयोग है और विभाव ज्ञानोपयोग, सम्यग्जान तथा मिध्याज्ञान की प्रगक्षा दो प्रकार का है। विभाव सम्यग्ज्ञानोपयोग के मति श्रुत्त भवधि पोर मनःपर्यय के भेद से चार भेद हैं पौर विभाव मिथ्याज्ञानोपयोग के मुमति, कुश्रुत और कुप्रवधि की पेक्षा तीन भेद हैं। इसी तरह दर्शनोपयोग के भी स्वभाव और विभाव को प्रपंक्षा दो भेद हैं। उनमें केवल दर्शन स्वभाव दर्शनोपयोग है तथा चक्षुदर्शा, प्रचक्षुदर्शन और प्रबधिदर्शन ये तीन वर्णन विभाव दर्शनोपयोग हैं । पर्याय के वर की अपेक्षा मे सहित और परको अपेक्षा में रहित, इस तरह दो भेद हैं। अर्थ पर्याय प्रार व्यंजन पर्याय के भेद से भी पर्याय दो प्रकार की होती है। पर के प्रानय से होने वाली षट्गुणी हानि वृद्धिरूप जो संसारी जीव की परिणति है वह विभाव प्रथं पर्याय है नया सिद्ध परमेष्ठी की जो षड्गुणी हानि वृदिरूप परिगति है वह जीव को स्वभाव अधं पर्याय है। प्रदेशावत्व गुण के विकार रूप जो जीव की परिणति है अर्थात् जिसमें किसी प्रकार की अपेक्षा रक्खी जाती है उसे व्यंजन पर्याय कहते हैं। इसके मी स्वभाव और विभाग की अपेक्षा दो भेद होते हैं। अन्तिम शरीर से किच्चिदून जी सिद्ध परमेष्ठी का साकार है वह जीच की स्वभाव व्यजन पर्याय है पौर कोपाधि से रचित जो भरनारकादि पर्याय हैं वह विभाव व्यन्जन पर्याय है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यबहार नय से प्रात्मा पूदगलकम का व.र्ता और भोक्ताहै तथा प्रशव मिश्चयनयसे कर्म जनित रागादि भावों का कर्ता है । संस्कृत टीकाकार मे नय विवक्षा से कर्तृत्व मोर भोक्तृत्व भाव को स्पष्ट करते हुए कहा है कि निकटवर्ती भनुपचरित मसद्भूत व्यवहार नय की अपेक्षा मात्मा द्रव्य कर्मों का कर्ता है तथा उनके फलस्वरूप र प्राप्त होने वाले सुख-दुःख का भोक्ता है। प्रशुद्ध निश्चयनय की प्रपेक्षा समस्त मोह-राग-दंष रूप भाव कर्मों का कता है तथा उन्हीं का मोक्ता है। गुम्पार प्राद्ध व्यवहार नय की अपेक्षा शरीर रूप नो कमाँ का कर्मा और मोक्ता है तथा उपचरित मसदृभूत व्यवहार नय से घटपादिका बर्ता और मौका है। जहां निश्चयनय और यवहारमय के भेद से नयके दो भेद हो विवक्षित हैं वहां प्रात्मा निाचरनय की अपेक्षा अपने ज्ञानादि गुणों का का भोक्ता होता है और व्यवहार नप से रागादि भाव कमी का । श्री पद्मप्रभमलधागे देव ने कहा है द्वी हि नयो भगवदहपरमेशवरेण प्रोक्तो थ्याथिकः पर्यापारिकश्चेति । द्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्येति प्रध्यापिकः । पर्यायः एव प्रपोजनमस्येति पर्यायाथिकः न दलु एफ नयायत्तोपदेशो प्राह्यः किन्तु तदुपयापत्तोपदेशः । भगवान अहंन्त परमेश्य ने दो नय हे एक द्रव्याथिक और दूसरा पर्यायाथिक । का ही जिसका प्रयोजन है वह दध्याथिकनय है और पर्याप ही जिसका प्रोजन है वह पयायाथिक नय है । एक नय के अधीन उपदेश ग्राह्य नहीं है किन्तु दोनों नचों के अधीन उपदेश ग्राह है। यह उल्लेख पार किया जा चुका है कि नय वस्तु स्वरूप को समझने के साधन है, वक्ता पाय की योग्यता देखत्र. विवक्षानुसार उभयनयों को अपनाता है । यह ठीक है कि उपदेश के समय एक नय मुख्य तथा दूसरा नय गौण होता है परन्तु, मर्वथा उतित नहीं होता। इम परिप्रेक्ष्य में जब घकालिक स्वभाव को ग्रहण करने वाले द्रव्याथिवनय की अपेक्षा वपन होता है। तब जीव द्रव्य गमादिक विभाव परिणति तथा नरनारकादिक सञ्जन पर्यायों मे रहित है यह बात पाती है और नव पर्यायाथिक नाय की अपेक्षा कथन होता है तब जीव इन मबसे सहित है यह बात प्राती है। (२) अजीवाधिकार : पुद्गल, धर्म, अधर्म, प्राकाश और काल ये पांच पजीव पदार्थ है। पुदगल द्रव्य प्रणु पोर स्वान्ध के भेद मे दो प्रकार का होता है । उनमें स्कन्ध के प्रतिस्पून स्यूल, स्यूलसूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म और प्रतिसूक्ष्म के भेद से ६ भेद हैं । पृथिवी, तेल प्रादि, छाया, बानप भादि, चक्षु के सिवाय शेष चार इन्द्रियों के विषय, कार्मण वर्गणा पौर घणकाकन्ध ये असिस्मूल आदि स्कन्धों के उदाहरण हैं । अणु के कारण अणु और कार्यप्रण के भेद से दो भेद हैं । पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इन चार धातुपों की उत्पत्ति का जो कारण है से कारण परमा और Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ स्कन्ध से बिछुड़कर एक प्रदेशात्मक अवस्था को प्राप्त पशुको कार्य परमाणु कहते हैं परमाणु का लक्षण इस प्रकार कहा है वही जिसका आदि है, वही मध्य है, यही अन्त है, जिसका इन्द्रियों के द्वारा पा नहीं होता तथा जिसका दूसरा विभाग नहीं हो सकता उसे परमाणु जानना चाहिये । इस परमाणु में एक रस, एक रूप, एक गन्ध और शीत उष्ण में से कोई एव तथा स्निग्ध धौर रूक्ष में से कोई एक इस प्रकार दो स्पशं पाये जाते हैं। दो या उससे अधिक परमाणुओं के पिण्ड को स्कन्ध कहते है । प्रशु श्रीर स्कन्ध के भेद से पुद्गल द्रव्य के दो भेद हैं। जीव और पूगल के गमन का जो निर्मित है उसे धर्म द्रव्य कहते हैं। जीव और पुद्गल की स्थिति का जो निमित्त है उसे धर्मद्रव्य कहते हैं जोवादि समस्त द्रव्यों के अथाह का जो निमित्त है उसे प्रकाश कहते हैं । समस्त द्रयों को अवस्थों के बदलने में जो सहकारी कारण है वह कालद्रव्य है। यह कालद्रव्य समय और पावली के भेद से दो प्रकार का होता है अथवा तीत, वर्तमान और भावी (भविधर) की अपेक्षा तीन प्रकार का है। संख्यात पायनियों से गुणित सिद्ध राशि का जितना प्रभाग है उतना है। वर्तमान काल समय मात्र है और भावी (भविष्यत्) काल, समस्त जीत्र राशि तथा समस्त पुद्गल द्रव्यों से प्रतन्त गुणा है। धमं प्रथमं प्राकाश और काल इन नारों का परिणमन सदा शुद्ध हो रहता है परन्तु जीव और पुदगल प्रश्य में शुद्ध शुद्ध दोनों प्रकार का परिमन होता है। मूर्त धर्मादाय के संख्यात संख्यातीर प्रदेश होते हैं। धर्म धर्म धार एक जीव द्रव्य से प्रदेश होते है, लोककान के भी संख्यात प्रदेश है परन्तु समस्त प्रकाश के अनन्त प्रदेश है। कालव्य एक प्रदेशी है। उपर्युक्त छह दृष्यों में पुल द्रव्य भूतं है, शेष पांच द्रव्य प्रभूतं हैं। एक जीव स चेतन है शेष पांच द्रव्यप्रचेतन है। पुद्गल का परमाणु भार के जिनमें अंश को घेरता है उसे प्रदेश कहते हैं । शुद्धभावाधिकार : जब तत्वों की है और उपाय इन दो भेदों में विभाजित करते है । तब एजीबादि बाघ तत्व हेय है! और कर्मरूप उपाधि में रहित स्वकीय स्वयं अर्थात् शुद्ध आत्मा उपादेय है। जब तत्वों को य उपादेय तथा शेय दोन भेदों में विभाजित करते है तब जोवादि है, स्वकीय शुद्ध धात्मा उपादेय है और उसका विभास परम है। त्वयं यह कि श्रारमद्रव्य का परिणमम स्वभाव और विभाव के भेद से दो प्रकार का होता है। जो स्व में स्वके निमित्त से होता है वह स्वभाव परिमन कहलाता है जैसे जीव का ज्ञान दर्शन रूप परिणमन । और जो स्व में परके निमित्त से होता है वह विभाव परिणामन कहलाता है जैसे जीव का राग यादिरूप परामन इन दोनों प्रकार के परिणामों में स्वभाव परिणमन उपादेय है पर विभाव परिमन हे है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | . शुद्ध भावाधिकार में मात्मा को इन्हीं विभाव परिणामों से पृथक् सिद्ध करने के लिये कहा गया है कार्य की उत्पत्ति बहिरङ्ग मार मन्तरङ्ग कारणों से होती है अतः सम्परत्व को उत्पत्ति के बहिरङ्ग पौर , मन्तरङ्ग कारणों का कथन करते हुए श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है - सम्मतस्स णिमित निणसुत तस्त जाणया पुरिसा। अन्तरहेक मणिदा बसणमोहम्स खय पपी ॥५३।। प्रर्षात् सम्यग्दर्शन का वाहा निमित्त जिनागम तथा उसके माता पुरुष हैं, और अम्त र निमित्त वर्णन __ मोह कर्म का आप मादिक है ! मन्तर निमित्त के होने पर कार्य नियम से होता है परन्तु बहिरङ्ग निमित्त के होने पर कार्य की उत्पत्ति होने का नियम नहीं है। हो भी पोर नहीं भी हो। इस अधिकार में कम जनित प्रशुद्ध भायों को अनात्मीय रतनाकर स्वाधित शुद्ध भाव को प्रात्मीय बसलाया है। (४) व्यवहार चारित्राषिकार : इस अधिकार में पहिमा, सत्य, संघीयं, बाय, अपरिग्रह इन पांच महायतों का, ईर्या, भाषा, गषणा पादान निकोपरण पीर प्रतिष्ठापन इन पांच समितियों का, मनोप्ति, घचन गुप्ति और काय गुप्ति इन तीन गुप्सियों का तथा परहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांच परमेष्ठियों का स्वरूप बतलाया गया है । हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार और एग्गिह ये पांच पाप थे. पनासे हैं। इनके माध्यम से प्रात्मा में कर्मों का पात्रय होता है प्रतः इनका निरोध करना सम्पफचारित्र है। पांच पापों का पूर्ण त्याग हो जाने पर पांच महावत प्रकट होते हैं उनकी रक्षा के लिये ईयां प्राधि पाच समितियों पोर तीन गुप्तियों का पालन करना प्रायश्यक है । महायतों की रक्षा के लिये प्रवचन-मागम में इन पाठ को माता को उपमा दी गई है इसीलिये इन्हें अष्ट प्रवचन मासृका कहा गया है। व्यवहारनय से यह तेरह प्रकार का चारित्र कहलाता है। इस अधिकार में इसी व्यवहार चारित्र का वर्णन है। (५) परमार्थ प्रतिक्रमणाधिकार : इस प्रषिकार में फर्म और नौकम से भिन्न प्रात्मस्वरूप का वर्णन करते हुए सर्व प्रथम कहा गया है कि "मैं नारको नहीं है, तिर्यप नहीं है, मनुष्य नहीं हूँ. देव नहीं है, गुणस्थान मार्गरणा सभा जीव समास नहीं हूं, न इनका करने राता हूं, न कराने वाला हूँ, भोर न अनुमोदना करने वाला है। बालर प्राधि अवस्था तथा राग Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ देष मोह क्रोध मान माया लोभ प धिकारी भाव भी मेरे नहीं हैं। मैं तो एक ज्ञायक स्वभाव वाला स्वतन्त्र जीव दव्य है।" इस प्रकार भेदाभ्यास करने के जीव मध्यस्थ होता है और मध्यस्थ भाव से चारित्र होता है। उस चारित्र को दृढ़ करने के लिये प्रतिक्रपण होता है । यर्थाथ में प्रतिक्रमण किसके होता है ? इसका कितना स्पष्ट वर्णन कुन्दकुन्द स्वामी ने किया है। देखिये-- ओ बचन रचना को छोड़कर तथा रागादिभावों का निवारण कर आत्मा का ध्यान करता है उसके प्रतिक्रमण होता है और ऐसे परमार्थ प्रतिक्रमण के होने पर ही चारित्र निर्दोष हो सकता है । निश्चय प्रत्याख्यानाधिकार : प्रत्यास्थान का अर्थ त्याम है। यह त्याग विकारी भावों का ही किया जा सकता है स्वभाव का नहीं-ऐसा विचार करता हुआ जो समस्त वचनों के विस्तार को छोड़कर शुभ-अशुभ भावों का निवारण करता है तथा भारमा का ध्यान करता है उसी के प्रत्याख्यान होता है । शुभ-अशुभ भाव, इस जीव के प्रात्मध्यान में बाधक हैं प्रतः प्रत्याख्यान करने झाले पुरुषों को सबसे पहले शुभ-अशुभ भावों को सगम उन्हें दूर करने का प्रयास करना चाहिये। निश्चय प्रत्यास्थान की सिद्धि के लिये प्राचार्य महारात ने इसप्रकार की भावनामों का होना मावश्यक, बतलाया है मैं निममत्व भाव को प्राप्त कर ममत्व भाब | छोरता है। मेरा मालम्बन मेरा प्रात्मा ही है, शेष पालम्बनों को मैं छोड़ता है । इत्यादि । (७) परमालोचनाधिकार : परमालोचना किसके होती है ? श्वका उत्तर देते हा कहते हैं-- जो नोकम और कर्म से रहित तथा बिभाव गुरग और पर्यायों से भिन्न प्रात्मा का ध्यान करता है ऐसे श्रमण-मुनि के ही मालोचना होती है । ' यागम में १. पालोचन २. मानुष्ठन ३. भाविकृतिकरण मोर ४, भाव शुदि के भेद से पालोचमा के पार अंग कहे गये हैं । पुन: इन मंगों के पृथक-पृथक् लक्षण बनाये गये हैं। (८) शुद्धनिश्चयप्रायश्चिचाधिकार : व्यवहार दष्टि से प्रायश्चित्त के अनेक रूप सामने प्राते हैं परन्तु निश्चय नपसे उसका क्या रूप होना चाहिये इसका दिग्दर्शन श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने इस मधिकार में किया है। वे कहते हैं कि प्रत, समिति, शीत और Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ यमरूप परिणाम तथा इन्द्रियदमन का भाव ही वास्तविक प्रायश्चित है। यह प्रायश्चित निरन्तर करते रहना चाहिये। भारतीय गुणों के द्वारा विकारी भावों पर विजय प्राप्त करना सच्चा प्रायश्थित है। इसीलिये कहा है क्षमा से शोध को माईन मे मान को भाव से माया को और संतोष मे लोभ को इसप्रकार थमन चार कषायों को जीतता है । (e) परमसमाधि अधिकार : परिणामों का स्वरूप में सुस्थिर होना परम समाधि है। इसकी प्राप्ति भी आम ध्यान से ही होती है। कहा है जो मुनि समता भाव से रहित है उसके लिये बनवास, प्रतापनयोग, आदि कायक्लेश, नानाप्रकार के उपवास और अध्ययन तथा मौन धादि क्या लाभ पहुंचा सकते हैं? कुछ भी नहीं सामायिक और परमसमाधि को पर्यायवाचक मानते हुये कुन्दकुन्दस्वामी मे १२४-१३३ताओं में स्पष्ट किया है कि स्थायी सामायिक किससे हो सकती है ? परम समाधि का अधिकारी फोन है इस्पादि + (१०) परमभक्ति प्रधिकार: "भजनं भक्तिः " इस व्युत्पत्ति के अनुसार उपासना को भक्ति कहते हैं याना" गुणेश्वरामो भक्ति" पुरुषों के गुणों में धनुराग होना भक्ति है यह भक्ति का सार्थ श्रेष्ठ निवृति है अर्थात् मुक्ति की उपासना है । निवृतिभक्ति, योगभक्ति - शुद्धस्वरूप के ध्यान से सम्पन्न होती है । निवृतिभक्ति किसके होती है ? इसका समाधान कुन्दकुन्द स्वामी के शब्दों में देखिये सम्मताचरणे को मसि कुण्ड सायो समणो । तरस विली होबित्ति जिरोहि पम्प ।। १३४॥ जो बाबक अथवा भ्रमण सम्यग्दर्शन सम्पज्ञान और सभ्यारिती भक्ति करता है उसी के निर्वृति भक्ति होती है जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है । योगभक्ति किसके होती है ? इसका समाधान देखिये जो साधु भवने धाप की रागादि के परिहार में लगाता है धर्षात् रागादि विकारी भावों पर विजय प्राप्त करता है वही योगभक्ति से युक्त होता है। अन्य साधु के योग कैसे हो सकता है ? Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) निश्चयपरमावश्यकाधिकार : शो मन्य के वश में नहीं है वह अवश है तथा अवश का जो कार्य है वह मावश्यक है। अवश-पदा स्वाधीन रहनेषाला श्रमरण ही मोक्ष का पात्र होता है । जो साधु, शुभ या अशुभ भाव में लीन हो वह प्रधश नहीं है किन्तु पन्यवश है, उसका कार्य पावश्यक कसे हो सकता है ? जो परभाव को छोड़कर निर्मन स्वभाव वाले प्रारमा का ध्यान करता है वह पात्मवश-स्ववा-स्वाधीन है इसका कार्य मावश्यक कहलाता है । मावश्यक प्राप्त करने के लिये कुन्दकुन्द स्वामी कितनी महत्वपूर्ण देशना देते हैं, देखिये आवासं जइ इच्छसि अप्प सहावेसु कुदि घिरमा । तेण दु सामगगुणं संपुग्णं होदि जीवस्स ॥१४॥ हे धमए ! यदि प्रावश्यक को इ-छा करता है तो प्रारमस्वभाव में स्थिरता कर, क्योंकि जीव का धामण्य-अमणपम उसी से संपूर्ण होता है । पौर भी कहा है कि जो श्रमण भावश्यक से रहित है वह चारित्र से भ्रष्ट माना जाता है इसलिये पूर्वोक्त विधि से मावश्यक करना चाहिये । मावश्यकसहित श्रमण अन्तरात्मा होता है और प्रावश्यक से रहित घमण बहिरात्मा होता है । समता, बन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय मोर कायोत्सर्ग से BE पावश्यक कहलाते हैं. इनका पार्थ रोति से पालन करनेवाला श्रमाण ही यथार्थ श्रमण है। (१२) शुद्धोपयोगाधिकार : इस अधिकार के प्रारम्भ में ही कुन्दकुन्दस्वामी ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण गाथा मिस्त्री है-- जाणवि पस्सवि सवं वबहारणयेण केवली भगई। केवलणाणी आणधि पस्सदि णियमेय अप्पाणं ॥१५॥ केवलज्ञानी व्यवहारनय से सबको जानते देखते हैं परात निश्चयनय से प्रात्मा को ही जानने देखने । इस कथन का फलितार्थ यह नहीं लगाना चाहिये कि केवली, निश्चयनय से सज नहीं है मात्रमात्मज है, क्योंकि प्रात्मशता में ही सर्वशता गभित है। वास्तव में मारमा किसी भी पदार्थ को सब जानता है जबकि उसका विकल्प प्रात्मा में प्रतिफसित होता है। जिसप्रकार दपंग में प्रतिबिम्बित भरपयादि पवार्थ दर्पणरूप ही होते हैं उसी प्रकार प्रारमा में प्रतिफलित पदार्थों के विकल्प प्रात्मरूप ही होते हैं । परमार्थ से प्रात्मा उम विकल्पों Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से परिपूर्ण प्रात्मा को ही जानता है अत: पात्मन्न कहलाता है। उन विकल्पों के प्रतिफलित होने में लोकालोक के समस्त पदार्थ कारण होते हैं अतः व्यवहारनय से उन सबका भी शरता अर्थात् सर्वज्ञ, द्रष्टा प्रर्थात् सर्वदी कहलाता है। जब जीव का उपयोग-ज्ञानदर्शन स्वभाव, शुभ अशुभ रागादिक विकारी भावों से रहित हो जाता है तब वह शुद्धोपयोग कहा जाता है । परिपूर्ण शुद्धोपयोग यथास्यात चारित्र का भविनाभादी है। यथाख्यातचारित्र से अविनाभावी शुद्धोपयोग के होने पर वह जीव प्रन्समुहूर्त के अन्दर निगम से केवलशानी बन जाता है। एस अधिकार में कुन्दकुन्द स्वामी ने ज्ञान और दर्शन के स्वरूप का सुन्दर विश्लेपणा मिया है । इसी ग्रहोपयोग के फलस्वरूप जीव नाटकमाँ का सर कर प्रध्यानाध, प्रनिन्द्रिय, अनुपम, पुण्य पाप के विकल्प से रहित, पुनरागमन से रहित, नित्य, भचल प्रौर पर के नालम्बन से रहित निर्माण को प्राप्त होता है। कर्म रहित प्रात्मा लोकाग्र तक हो जाता है क्योंकि धर्मास्तिकाय का अभाव होने से उसके प्रागे गमन नहीं हो सकता। मागे नियमसार की संस्कृत टीका ग्रार उसके रचयिता श्री पद्मप्रभमनधारी देव पर प्रकाश डाला जाता है। नियमसार के संस्कृत टीकाकार - श्री पद्मप्रभमलधारी देव नियमसार के संस्कृत टीकाबार भी पद्यप्रसमलधारी दव है। संस्कृत के महान विद्वान थे, गरा पद्य की रचना में सिख सरस्वतीक थे। नियमसार के अधिकारान्त-पुष्पिका-वावयरे में इन्होंने अपने नाम के पूर्व "सुकविजन पयोजमिव", "पंचेन्द्रिय प्रस रवर्वित" और "गात्रमात्र परिग्रह" ये तीन विशेषण लगाये हैं। इन विशेषणों से उनके पाण्डित्य, जितेन्द्रियत्व और निन्यता का स्पष्ट बोध होता है। "मलधारी" विशेषण से शारीरिकनि:म्पहता का भान होता है। श्री पद्मप्रभमलघारी देव, श्री अमृनचन्द्रा वायं विचिन समयमार की प्रात्मख्याति टीका से पूर्ण प्रभावित हैं। जिस प्रकार अमृतचन्द्राचार्य ने समास बहुल एवं प्रसिद्ध नूतन-कुतन शन्दावसि से परिपूर्ण गद्य का प्रयोग किया है तथा कलर काव्यों के द्वारा उस गद्य के प्रतिपाद्य प्रर्य को प्रस्फुटित किया है उसी प्रकार न्हनि भी समासबहुल एवं प्रसिद्ध तूतन-नूसन शब्दावनि से परिपूर्ण गद्य का प्रयोग किया है तथा कलश काव्यों के द्वारा उस गद्य को समलंकृत किया है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. - - ४८ इन्होंने स्वरचित टीका में प्रतिपादित विषय का समर्थन करने के लिए विभिन्न प्राचार्यों के श्लोक भी समुदधृत किये हैं। टोका परीक्षण करने से विदित होता है कि उसमें कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, पूज्यपाप, योगीन्द्रदेव, विद्यानन्द, गुणभद्र, अमृतमन्द्र, सोमदेवपण्डित वादिराज पोर महासेन मादि पाचायों तथा समयसार, प्रव पंचास्तिकाय, उपाश्चकाध्ययन, अमृतीशीति, मार्गप्रकाश, प्रवचनसारव्याख्या, समयसारख्यास्था, पदमनन्दिपंचविमतिका, तत्वानुशासन तथा श्रुबिन्दु नामवः ग्रन्थों का उल्लेख किया है। पदमप्रभमलधारी देव ने यधपि अपनी गुरु पम्परा तथा प्रन्य रचना के समय का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है तथापि नियमसार की स्वरचित तात्पर्यवृत्ति के प्रारम्भ में और पञ्चमाधिकार के अन्त में बोरनन्दि मुनि की वन्दना की है। भद्रास प्रान्त के अन्तर्गत "पटशियपुरम्" ग्राम में एक स्तम्भ पर पश्विनी चालुक्य राजा त्रिभुवनमल्ल सोमेश्वर देव के समय का शक मवत ११.७ का एक भभिलेख है - जबकि मलिक त्रिभुवन मल्ल, भोगदेव चोल्स हेजरा नगर पर राज्य कर रहे थे । उसी में यह लिखा है कि जब गद गमन गरम गर. ५तब पदा प्रभमला देव और उनके गुरु वीरनन्दि सिद्धान्त-चक्रवर्ती विद्यमान थे।" रा अभिलेख से पद्मप्रभमलघारी देव के गृह का ही नहीं किन्तु समय का भी परिज्ञान होता है। तात्पर्य यह है कि वे १२ ईश्योग शताब्दी के विद्वान थे। * गदयरधार्ग देव को अब तक दो सपनाये ही उपलब्ध हैं : (१) नियमसार की तात्पर्य वृत्ति और (२) पाश्वनाथ स्तोत्र ( पपरनाम लक्ष्मीस्तोत्र ) नियमसार की तात्पर्य वृत्ति पाठकों के हाथ में है । पार्श्वनाथ स्तोत्र में यमकालंकार से विभूषित ९ श्लोक हैं । यह माणिकचन्द्र गन्यमाला से प्रकाशिन "सिद्धान्त सारादिसंग्रह" में सटीक प्रकाशित है । यमकालंकार को छटा देखिये "लक्ष्मोमहस्तुल्य सतो सती सती, प्रमुखकालो बिरसो रतो रतो। जरा इजा जन्म हत्ता हता हता, पार्श्व फरखे राम गिरे गिरी गिरौ ।। इम जोन का हिन्दी पनुवाद स्वर्गीय जुगलकिशोरजी मुख्त्यार ने हमसे कराया था। तालयं वृत्ति के विचारणीय स्थल - 1) नियममार को गाथा ३१ और ३२ में वालद्रव्य का वर्णन है । उसमे कालद्रव्य के भूत, भावी और बर्तमान के भेद से तीन भेद किये गये हैं। टीकाकार ने ३१ यो गाथा के उत्तराई में "तीदो संखज्जावलि श्रीडाने मिचन्द्र शास्त्री द्वारा विरचित "तीर्थंकर महावीर और उनकी भाचार्य परम्परा भाग के प्राचार पर"। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - ELLE पसंहाणप्पमापाणं तु" पाट स्वीकृत किया है यहां संठा के स्थान पर "सिद्धाणं'' पाठ प्रधिक संगत जान पड़ता विसका अर्थ होता है प्रतीत- भूतकास संख्यात प्रालियों से गुणित सिखों के प्रमाण हैं। ३२ वी गाथा के पूर्वाध "जीवाधु पुग्गलादोणतगुणा चावि संपदा समया" में "चावि" के स्थान पर सही पाठ"मावि" जान पड़ता है जिसका अर्थ होता है प्रावी-भविष्यवकाल जोव और पुदाल से प्रनन्तगुणा है तथा संपदा-वर्तमानकाल एक समय मात्र है । लोकाकाश के प्रदेशों पर जो कालाणु स्थित है यह परमार्थ-निश्चल काल द्रव्य है । "पाधि" पाय के स्वीकृत करने पर मविष्यत्काल का वर्णन हट जाता है। } ४१ वी गाघा को टीका में बायोपामिक भाव १८ भेदों की गणना में पद्मप्रभमानधारी देव ने पांच उपसब्धियों के नाम कालकरणोपदेशोपशमप्रायोग्यता-भेदाल्लब्धयः पञ्च" पंक्ति द्वारा कालकरण, प्रदेश (देशना) उपशम (क्षयोपशम) और प्रायोग्य. स्वीकृत किये है जबपि. ग्रन्थान्तरों में क्षायोपमिक दान, लाभ, भाग, उपभोग और वीर्य को प्रब्धि माना गया है और करणादि लधियों को सम्पनत्व प्राप्ति में सहायक बनाया गया है। (३) ५३ वीं गाथा में ''रख यगहुदी" शब्द की संस्कृत छाया 'क्षयप्रभृतेः' स्वीकृत कर जिन सू को बाह्य निमित्त तथा उसके ज्ञाता पुरुष को दर्शन माह का क्षय होने से अन्तरङ्ग हेतु कहा है। जबकि जिनसूत्र मोर उसके ज्ञाता बहिरंग हेतु हैं और दर्शन माई का क्षय ग्रादिक अगरङ्ग हेनु है । "खयपहुदी" की संस्कृत छाया "क्षयप्रभृतिः'' है । उसमें विपर्यास होने में टीका में विपर्यास हो गया है। टीकाकर्नी माताजी ने विशेषार्थ में इन स्थलों पर कुछ प्रकाश डाला है। हिन्दी टोका : - बहुत पहले नियमसार गर एक हिन्दी टोका स्वर्गीय व पीतलप्रसादजी ने लिखी थी वह कितने ही स्थलों पर स्खलित पी। अभी हाल श्री पण्डित हिम्मतलाल जेठालाल शाह कृत गुजराती टीका के प्राधार पर पण्डित मगनलालजीकृत हिन्दी टीका सोनगढ़ में प्रकाशित होकर स्वाध्याय में अा रही है। जो टीका पाठकों के हाथ में है वह भी १०५ भायिका रत्न ज्ञानमति माताजी के द्वारा निखित है। स्वाध्याय करने वान महानुभाब इस टीका को विशेषता का स्वय अनुभव करेंगे । - --- प्रायिकारत्म ज्ञानमति माताजी : --- ---- प्रार्मिकारत्न ज्ञानमति माताजी का जन्म भासोज शुक्ला १५ वि० संवत् १६६१ सन् १९३४ ईस्वी को टिकतनगर (उ० प्र०) निवासी धर्मस्नेही श्री छोटेलालजी को धर्मपत्नी मोहिनीदेवी के गर्भ से हुआ था । माताजी ही नहीं, इस परिवार में सब पूर्वभव के सरकारी जीव एकत्रित हुए हैं। श्री मोहिनीदेवी इस समय ''रत्नमति" Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायिका हैं, ज्ञानमतिजी स्वयं ग्रायिका हैं, इनकी छोटी बहिन "अभयमति" प्रायिका हैं, भाई रवीन्द्रकुमार शास्त्री ब्रह्मचर्य प्रत लेकर धर्म प्रचार में रत हैं। कु. माधुरी पोर कु. मालती ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर श्रुताभ्यास में रत हैं। ग्रायिका ज्ञानमनिजी ने वि० सं० २००१ में मनायं देना भूषणगी दिपीक्षा और नि . २०१३ में प्राचार्य वीरसागरजी से प्रायिका दीक्षा ली थी। प्राचार्य महावीरकीतिजी के पास न्याय, म्याकरण, साहित्य और सिद्धान्त का गहन अध्ययन किया। प्राचार्य शिवसागरजी के संघ में रहकर तपस्या की साधना की। तपश्चर्या के प्रभाव से प्रापका क्षयोपशम नित्य प्रति वर्धमान है। इनको विद्वत्ता से प्रभावित होकर प्राचार्य श्री देशभूपराजी महाराज ने प्राचार्य श्री धर्मसागरजी और उपाध्याय श्री विद्यानन्दजी के सान्निध्य में विशाल जनसभूधाय के बीच दिल्ली में न्याय प्रभाकर एवं प्रायिका रत्न को उपाधि से विभूषित किया था। भापका अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग रहता है। इसी कारण अब तक अाप १०८ ग्रन्थों को चना कर की हैं। पाप संस्कृत और हिन्दी कविता लिखने में मिद्धहस्न हैं। नियमसार का यह संस्करण : श्री १०५. ज्ञानमनि मालाजो द्वारा विरचिन हिन्दी टीका के साथ नियमसार का यह सस्करण प्रकाशित हो रहा है। गाथानों के नोच संस्कृत छाया, नदनन्तर माताजी द्वारा 'वरचित हिन्दी पद्यानुवाद, उसके नोचें पदमप्रभमलधागदेव विरचित मस्तत टोका और उसके नीचे माताजी द्वारा विरचित हिन्दो टीका दी गई है। हिन्दी टोका में गाया का प्रत्यार्य, संस्कृत दोका का प्रयं, भावार्थ और पथावश्यक विशेषार्थ दिया गया है । टिप्पणी में गापात्रों के पाठ भेद संगृहीत हैं। परिशिष्ट में नाथानुक्रमणिका 141 पद्यानुक्रमणिका टीका में उद्धृत गाया तथा श्लोकों को अनुक्रमणिका दी गई है। प्रारम्भ में प्रकाशकीय बाग के बाद विस्तृत प्रस्तावना संलग्न है जिम में मूल प्रत्यकर्ता श्री कुन्दकुन्दाचार्य, संस्कृत टीकाकार श्री पद्मप्रभमलघारी देव और हिन्दी टीकाकी श्री आधिकारल ज्ञानमति माताजी का परिचय दिया गया है। साथ ही नियमसार के. प्रतिपाद्य विषय को अधिकारों के क्रम से दिया गया है । संस्कृत टीका संस्कृप्त छाया में गरम्परा में जो प्रशुद्धियां चली माती थी उनका यथाशक्य संशोधन कर दिगा गया है। नियममार में कुन्दकुन्द स्वामी ने निश्चय और व्यवहारनय के अनुसार नियम प्रर्याद सम्यग्दर्शन, मम्परज्ञान और सम्यकचारित्र का वर्णन किया है। कुमकुन्द की समस्त रचनायें अनावश्यक विस्तार से रहित सार स्वरूप है। माताजी ने इस ग्रन्थ को हिन्दी टीका लिखकर स्वाध्याय रसिक पुरुषों का महान् उपकार किया है। प्राशा है इसी प्रकार अापके द्वारा जिनवाणी की सेवा होती रहेगी। सागर विनीत : १५-२-१९८२ पन्नालाल साहित्याचार्य Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार-वंदना (प्रापिका-ज्ञानमती माताजी ) सिद्धि लब्ध्वा जना लोके, श्रयंतो नियमश्रियम् । नियमाख्यं त्रिरत्नं तत् भेदाभेदात्मकं स्तुवे ।।१।। प्रभेदाख्यं त्रिरत्न न भेदरत्नत्रय विना । साधनं व्यवहारं तन्निश्चयं साध्यमेव हि ॥२।। स्वयोग्यं च व्रतं लब्ध्वा, रत्नत्रितयहेतवे । भावयामि सदा चित्ते, भेदाभेदविरत्नकं ॥३॥ पालयन्त्या त्रिशुद्या मे, ह्य पचारमहाव्रतं । भूयानिरतिचारं तत् त्वंते सल्लेखनापि च ।।४।। स्त्रीपर्यायं च विच्छेद्य सुरो भूत्वापि तत्र व । सम्यक्त्ववतमाहात्यात् भूयां धर्मकसक्तश्री: ।।।।। प्राप्नुयाम् च ततश्च्युत्वा, जिनरूपमतुनरं । मोक्षकसाधनं रत्नत्रितयं चोभयात्मकं ।।६।। निश्चयावश्यकं प्राप्य, निश्चयभक्तिमाश्रितः । निर्विकल्पसमाधिस्थ: स्वात्मसिद्धिं लभे त्वरं ।।311 यावन्नताशी मे स्यात् स्थितिः कर्मनिमलनी। परमानंदमात्मानं, तावत्कं. भाक्याम्यहं ।।८।। नयद्वयात्मकं नत्वं, स्वात्मानंदैकनिर्भरं । अनंतदर्शनज्ञानसौख्यवीर्यात्मकं ध्रुवं । एतत्स्वरूपलब्ध्यर्थं धृत्वा वीरं मनोऽबुजे । ग्रन्थं नियमसाराख्यं, वंदे भक्त्या पुन: पुनः ।।१०॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कुन्दकुन्दस्वामिने नमः श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत नियमसार श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव विरचित तात्पर्यवृत्ति सहित --१ जीव अधिकार (मालिनी) स्वयि सति परमात्मन्मादृशान्मोहमुग्धान कथमतनुवशत्वान्बुद्ध केशान्यजेऽहम् । सुगतमगधरं वा वागघीशं शिवं वा जितभवमभिवन्दे भासुरं श्रोजिनं वा ॥१॥ - - - - - -- - - - - - - - -- - (१) इलोकार्थ-हे परमात्मन् ! आपके होते हुए मैं मुझ जैसे ( संसारी) तथा मोह से मुग्ध और कामदेव के वशीभूत हुए ऐसे ब्रह्मा-विष्णु-महेश को कैसे पूज सकता हूं ? अर्थात् नहीं पूज सकता हूं । जिन्होंने भव-संसार अथवा भव-कामदेव को जीत लिया है मैं उनकी वंदना करता हूं। वे चाहे सुगत हों, गिरिधर हों अथवा ब्रह्मा हों, शिव हों अथवा शोभायमान श्री जिनेंद्र भगवान हों । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार (अनुष्टुभ् ) वाचं वाचंयमोन्द्रारणा वक्त्रवारिजवाहनाम् । वन्दे नययायत्तवाध्यसर्वस्वपद्धतिम् ॥२॥ ( शालिनी) सिद्धान्तोद्घोषवं सिद्धसेनं ताजा भट्टपूर्वाकलंकम् । शब्दाब्षोन्दु पूज्यपावं च धन्दे तविधाढय बोरनन्दि व्रतीन्द्रम् ।।३।। -.- - - - - - - - भावार्थ-लोक में भगवान बुद्ध, विष्णु, ब्रह्मा और महादेव ये ४ अत्यधिक प्रसिद्ध हैं । उन्हीं को लक्षित करके प्राचार्य कहते हैं कि जिन्होंने संसार का नाश कर दिया है जो जन्म मरण के दुखों से छूट चुके हैं वे चाहे जिस नाम के धारी हों, मैं उन्हें नमस्कार करता हूं। (२) श्लोकार्थ-वाचंयमीन्द्राणां-मुनियों में प्रधान ऐसे जिनेंद्र भगवान का मुखकमल जिसका वाहन है । अर्थात् जो जिनेंद्र भगवान के मुखकमल से प्रवाहितप्रगट हुई है । तथा जो दोनों नयों के प्राश्रयभूत वाच्य-पदार्थ उनके सर्वस्व-संपूर्ण अर्थ को कहने को पद्धति-शैलीरूप है । ऐसी जिनवाणी को मैं नमस्कार करता है। ( ३ ) श्लोफार्थ-सिद्धांत रूपी श्रेष्ठ लक्ष्मी के पति श्री सिद्धसेन प्राचार्य को तर्क, न्याय, कमल को विकसित करने में सूर्य ऐसे भट्टाकलंक देव को शब्द शास्त्ररूपी समुद्र के वर्धन में चंद्रमा ऐसे पूज्यपाद सूरि को तथा इन विद्याओं से सहित वतियों में प्रधान ऐसे वीरनंदि आचार्य को मैं नमस्कार करता हूँ। भावार्थ- श्री सिद्धसेन दिवाकर के सन्मति तर्क नामक सिद्धांतग्रन्थ श्री अकलंकदेव के प्रमाणसंग्रह न्यायग्रन्य पूज्यपाद स्वामी का जैनेंद्र व्याकरण और वीरनंदि प्राचार्य का प्राचारसार ग्रन्थ प्रसिद्ध है । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीब अधिकार ( मनुष्टुभ् ) अपवर्गाप भव्याना शुद्धये स्वात्मनः पुनः। वक्ष्ये नियमसारस्य वृत्ति तात्पर्यसंज्ञिकाम् ।।४।। कि च ( प्रार्या ) गुणधरगणधररचितं श्रुतघरसन्तानतस्तु सुध्यक्तम् । परमागमार्थसार्थ वक्तुममु के वयं मन्दाः ।।५।। अपि च-- | ( अनुष्टुभ् ) अस्माकं मानसान्युच्चःप्रेरितानि पुनः पुनः । परमागमसारस्य रुच्या मांसलयाऽधुना ॥६॥ - - -- - - - - - - - - -- - () श्लोकार्थ- भन्य जीवों को मोक्ष की प्राप्ति के लिए और पूनः अपनी आत्मा की शुद्धि के लिए मैं नियमसार की तात्पर्य वृत्ति नामक टीका को कहूंगा। ( ५ ) श्लोकार्थ---गुण को धारण करने वाले श्री गणधर देवों से रचित, श्रुतकेवलो आदि श्रुतपारंगत मुनियों की अविच्छिन्न परंपरा से अच्छी तरह से व्यक्त किया गया जो परमागम है उस परमागम के अर्थ-समूह को कहने के लिए हम मंद जन कौन हो सकते हैं । अर्थात् ऐसे परमागम के अर्थ को कहने के लिए हम लोग मंद बुद्धि वाले समर्थ नहीं हो सकते हैं । (६) पलोकार्य-फिर भी इस समय हमारा मन परमागम को पुष्ट रुचि से बार बार अत्यंत प्रेरित हो रहा है । अर्थात् परमागम के प्रति हमारी बढ़ती हुई श्रद्धा विशेष है या वृद्धिगत रुचि विशेष है । उसो से पुनः पुनः प्रेरित होकर ही मैं इस ग्रन्थ की टीका कर रहा हूँ। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -dan. नियमसार ( अनुष्टुभ् ) पञ्चास्तिकायषडद्रव्यामप्ततत्त्वनधार्थकाः । प्रोक्ताः सूत्रकृता पूर्व प्रत्याख्यानादिसस्क्रियाः ।।७।। प्रलमलमतिविस्तरेण । स्वस्ति साक्षादस्म विथरणाय । अथ सूत्रावतार : मिऊरण जिरणं वोरं, प्रतवरणाणदसणसहावं । वोच्छामि रिणयमसारं, केवलिसुदकेवलोभरिणदं ॥१॥ नत्वा जिन वारं अनन्तवरज्ञानदर्शनस्वभावम् । वक्ष्यामि नियमसार केवलिश्चत केलिभणितम् ॥१॥ जो जिन अनंत ज्ञान प्रौ दर्शन स्वभाव युत । करके नमन उन बीर का मैं भक्ति भाव युत ।। जा सकती । तवरलो में जिसको कहा है। उस नियमसार को कहूंगा जो कि महा है ।।१।। - ---. -..-. - -.- -.- - - - - - - (७) श्लोकार्य-सूत्रकार ने इस ग्रन्थ में प्रथम गांच अस्तिकाय, छह द्रव्य, सात तत्व और नव पदार्थ का तथा ( अनंतर ) प्रत्याख्यान आदि सक्रियाओं का वर्णन किया है अर्थात् इस ग्रन्थ में प्रथम हो पांच अस्तिकाय आदि का वर्णन है। अनंतर मुनियों के नियम-रत्नत्रय स्वरूप के अंतर्गत प्रत्याख्यान प्रतिक्रमण ग्रादि क्रियाओं का वर्णन किया गया है । अब श्रीमान् भगवान कुन्दकुन्ददेव के सूत्र का अवतार होता है-- गाथा १ अन्वयार्थ -[ प्रणंतवरज्ञानदर्शनस्वभाव ] अनंतस्वरूप, श्रेष्ठज्ञान और दर्शन स्वभाव वाले [ वीर जिनं नत्वा ] श्री वीर जिनेन्द्र को नमस्कार करके [ फेलिसकेलिमणितं ] 'केवली भगवान् तथा श्रुतकेवली भगवान् के द्वारा कथित ऐसे [ नियमसारं वक्ष्यामि ] नियमसार को मैं कहूगा । ।। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान जीव विकार [x युक्तो प्रथा जिनं नत्वेत्यनेन शास्त्रस्यादावसाधारणं मङ्गलमभिहितम् । नस्येत्यामिश्रनेक जन्माटवीप्रापणहेतून समस्तमोह रागद्वेषादीन् जयतीसि जिनः । छोरो विक्रान्तः, वीरयते शूरयते विक्रामति कर्मारातीन् विजयत इति वीर :- श्रीषद्ध मान-सन्मतिनाथमहति महावीराभिधानः सनायः परमेश्वरो महादेवाधिदेवः पश्चिमतीर्थनाथ: त्रिभुवनसचराचरद्रव्यगुणपर्यायँक समयपरिच्छित्तिसमर्थ सकलविमल केवलज्ञानदर्शनाभ्यां यस्तं प्रणम्य वक्ष्यामि कथयामीत्यर्थः । कम् ? नियमसारम् । नियमशब्दस्तावद् सम्यदर्शनज्ञानचारित्रेषु वर्तते, नियमसार इत्यनेन शुद्धरत्नत्रयस्वरूपमुक्तम् । किविशिष्टम् ? केवलित केवलिभणितम् - केवलिनः सफलप्रत्यक्षज्ञानधराः श्रुतकेवलिनः सकलद्रव्यश्रुतधरास्तेः केवलिभिः श्रुतकेवलिभिश्च भरिणतं सकलभव्य निकुरम्बहितकरं नियमसाराभिधानं परमागमं वक्ष्यामीति विशिष्टेष्टदेवतास्तवनानन्तरं सूत्रकृता पूर्वसूरिणा कुन्दकुन्दाचार्यदेवगुरुणाप्रतिज्ञातम् । इति सर्वपदानां तात्पर्य्यमुक्तम् । टीका- -- श्रथ यहां पर जिन नत्वा' इस पद से शास्त्र को आदि में असाधारण मंगल कहा है । 'नत्वा' इत्यादि रूप प्रत्येक पदों का अर्थ करते हैं अनेक जन्मरूपी वन को प्राप्त कराने में कारणभूत, संपूर्ण मोह, राग, द्वेष श्रादि को जो जीतते हैं वे 'जिन' कहलाते हैं । वीर अर्थात् विक्रमणाली, जो वोरता को प्राप्त हैं, शूरता को प्राप्त हैं, पराक्रम करने वाले हैं कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं वे 'वीर' कहलाते हैं। वे वीर भगवान् - श्रीवद्ध मान, सन्मतिनाथ और मतिमहावीर नामों से सनाथ हैं, परमेश्वर महादेवाधिदेव अंतिम तीर्थश्वर हैं और जो तीन लोक के चर-प्रवर, चेतन - श्रचेतन स्वरूप द्रव्य - गुण- पर्यायों से कथित समय ( द्रव्यसमूह ) को जानने में समर्थ सकल विमल केवलज्ञान तथा केवलदर्शन से युक्त हैं मैं उन वीरप्रभु को नमस्कार करके कहता हूँ। क्या कहता हूँ ? नियमसार को कहता हूँ । यहां पर 'नियम' शब्द सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र के अर्थ में विद्यमान है, अर्थात् 'नियमसार' इस पद से शुद्धरत्नत्रय का स्वरूप कहा गया है । वह कैसा है ? केवली और श्रुतकेवली के द्वारा कथित है । अर्थात् संपूर्णतया प्रत्यक्ष - केवलज्ञान को धारण करने वाले 'केवलो' कहलाते हैं और ग्यारह अंग- चौदह पूर्व रूप संपूर्ण द्रव्यश्रुत को धारण व रने वाले श्रुतकेवली कहलाते हैं । इन केवली भार श्रुतकेवलियों के द्वारा कथित समस्त भव्य जीव समुदाय के लिये हितकर 'नियममार' इस नाम वाले Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ] नियमसार ( मालिनी ) जयति जयति वोरः शुद्धभावास्तमरिः त्रिभुवनजनपूज्यः पूर्णबोधक राज्यः । नत दिविज समाजः प्रास्तजन्मद्र बीज: समवसूलिनिवासः केवलनिवासः ||५|| मग्गो मग्गफलं ति य, दुविहं जिणसासणे समखादं । मग्गो मोषखउवायो, तस्स फलं होइ निव्वाणं ||२|| मार्गो मार्गफलमिति च द्विविधं जिनशासने समाख्यातम् । मार्गो मोक्षोपायः तस्य फलं भवति निर्वाणम् ||२|| मारग व मार्गफल ये दो प्रकार हैं यहाँ । जिनदेव के शासन में ये गरणवर ने है कहा । जो मोक्ष का उपाय है वो मार्ग कहाया । उसका है फल निर्धारण ऋषियों ने बताया || २ || परमागम को मैं कहूंगा । इस प्रकार विशिष्ट इष्ट देवता के स्तवन के अनन्तर सूत्रकार पूर्वाचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव गुरुवर्य ने प्रतिज्ञा की है । इस प्रकार सभी पदों का तात्पर्य अर्थ कहा गया है । | अब श्री टीकाकार पद्मप्रभमलघारिदेव मुनिराज मंगलाचरण गाथा के अर्थ का उपसंहार करते हुए स्वयं वीर भगवान् की स्तुति करते हुये श्लोक कहते हैं ] (८) श्लोकार्थ - जिन्होंने शुद्धभावों के द्वारा कामदेव को समाप्त कर दिया है, त्रिभुवन की जनता से पूज्य हैं, पूर्णज्ञान - केवलज्ञान के एक प्रतीन्द्रिय राज्य को प्राप्त कर लिया है, देवों के समूह नमस्कृत हैं, जिन्होंने जन्मवृक्ष के बीज को नष्ट कर दिया है जो समवशरण में निवास करते हैं और जिनमें केवल लक्ष्मी निवास करती है ऐसे वे वर भगवान् इस जगत् में जयशील होवें । से गाथा २ अन्वयार्थ --- [ जिन शासने ] जिनेन्द्र भगवान के शासन में [ मार्ग मार्गफलं च इति द्विविधं समाख्यातं ] मार्ग और मार्ग का फल इस प्रकार से दो प्रकार का Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार मोक्षमार्गतत्फलस्वरूपनिरूपणोपन्यासोऽयम् । 'सम्यग्दर्शनहानचारित्राणि मोक्षमार्गः, इति वचनात्, भार्गस्तावच्छुद्धरत्नत्रयं, मार्गफलमपुनर्भधपुरन्ध्रिकास्थूलभालस्थललीलालंकारतिलकता । द्विविधं फिलवं परमवीतरागसर्वज्ञशासने चतुर्थज्ञानधारिभिः परिमिः समाख्यातम् । परमनिरपेक्षतया निजपरमात्मतत्त्व सम्यकबद्धानपरिज्ञानानुठानशुद्धरत्नत्रयात्मकमार्गो मोक्षोपायः । तस्य शुद्धरत्नत्रयस्य फलं स्वात्मोपलब्धिरिति । (पृथ्वी ) क्वचिद्यजति कामिनीरतिसमुत्यसोल्यं जनः क्वचिदविणरक्षणे मतिमिमां च चक्रे पुनः । % D A - - - कथन किया गया है [ मोक्षोपायः मार्गः ] मोक्ष का उपाय मार्ग है और [ तस्य फलं निर्वाणं भवति ] उस मार्ग का फल निर्वाण है। टीका-मोक्षमार्ग और उसके फल के स्वरूप निरूपण का यह कथन है । __ 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र इन तीनों की एकता ही मोक्ष का मार्ग है ऐमा 'मूत्रकार का वचन है । यहां शुद्धरत्नत्रय को मार्ग कहा है पीर पुनर्भव से रहित ऐसी मुक्ति रूपी स्त्री के विशाल ललाट प्रदेश में लोला रो रचिन झालंकार स्वरूप तिलकपना हो मोक्षमार्ग का फल है। अर्थात् मुक्ति स्त्री के ललाट के तिलक स्वरूप होना-उसका पति होना-मुक्ति को प्राप्त करना ही मार्ग का फल है । परम वीतराग सर्वज्ञदेव के शासन में चतुर्थ-मनःपर्ययज्ञानधारी पूर्वाचार्यों ने इस प्रकार से दो प्रकार का ही कथन किया है । परम निरपेक्ष रूप से निज परमात्म तत्त्व का सम्यक् श्रद्धान उसी परमात्मतत्त्व का सम्यक् परिज्ञान और उसी परमात्मतत्त्व में सम्यक अनुष्ठानरूप शुद्ध रत्नत्रयात्मक मार्ग मोक्ष का उपाय है और उस शुन्दरत्नत्रय का फल अपने आत्मस्वरूप की उपलब्धि है। [ अब टीकाकार श्री मुनिराज संसारी जीवों की भिन्न-भिन्न रुचि को बतलाते हुये श्लोक द्वारा यह स्पष्ट कर रहे हैं कि जो जिनेन्द्र के मार्ग को प्राप्त करके अपनी आत्मा में रत हो जाता है वही मोक्ष को प्राप्त करता है । ] १. यो उमारवामी प्राचार्य 1 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार क्वचिन्जिनबरस्य मार्गमुपलभ्य यः पण्डितो निजात्मनि रतो मवेतजति मुक्तिमेतां हि सः ।।६।। णियमेण य जं कज्ज, तं णियमं णाणसणचरितं । विवरीयपरिहरत्थं, भणिदं खलु सारमिदि वयणं ॥३॥ नियमेन च यत्कार्य स नियमो ज्ञानदर्शनचारित्रम् । विपरीतपरिहारार्थ भणितं खलु सारमिति बचनम् ॥३॥ जो करने योग्य है नियम से वोहि नियम है। बो ज्ञान दर्श नौ चरिय रूप धरम है। विपरीत के परिहार हेतु सार शब्द है । प्रतएव नियम से ये नियमसार सार्थ है ।।३।। . - - - - - - - - - - -- - - -- (E) श्लोकाथं-यह संसारी जीव कभी तो कामिनी को रति से उत्पन्न सुख को प्राप्त करता है और कभी धन की रक्षा में अपनी बुद्धि को करता है परन्तु जो पंडित बुद्धिमान पुरुष कभी जिनेन्द्र भगवान् के मार्ग को प्राप्त करके अपनी प्रात्मा के स्वरूप में रत हो जाता है तो निश्चित ही इस मुक्ति अवस्था को प्राप्त । कर लेता है। भावार्थ-श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने इस नियमसार ग्रन्थ में मार्ग और मार्ग का फल ऐसी दो बातें बतलाई हैं उसमें मोक्ष की प्राप्ति का उपाय तो मार्ग है और उसका फल निर्माण है संसारी जीव दो ही चीजों को विशेष सुखकारी मानते हैं-एक तो स्त्री को, दूसरे धन को। इसलिये यहां प्राचार्य ने बतलाया है कि कभी यह जीव स्त्री के सुख का अनुभव करता है तो कभी धन की रक्षा में लगा रहता है किन्तु जब वही जीव इन कनक कामिनी से अपने मन को हटाकर रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग में लग जाता है तब नियम से उसके फल रूप निर्वाण को प्राप्त कर लेता है । गाथा ३ अन्वयार्थ- [ नियमेन च यत्कार्य ] जो नियम से करने योग्य है [स नियम: ] वह 'नियम' कहलाता है [ ज्ञानदशंमचारियं ] और वह ज्ञान-दर्शन-चारित्र Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार [t प्रत्र नियमशम्दस्य सारत्वप्रतिपादनद्वारेण स्वभावरत्नत्रयस्वरूपमुक्तम् । यः Rs सहजपरमपारिणामिकभावस्थितः स्वभावानन्तचतुष्टयात्मकः युद्ध ज्ञानचेतनापरिणामः स में नियमः । नियमेन च निश्चयेन यत्कार्य प्रयोजनस्वरूपं ज्ञानदर्शनचारित्रम् । ज्ञानं तावत तेषु त्रिषु परद्रव्यनिरवलंबत्वेन निःशेषतोन्तम खयोगशक्तेः सकाशात निजपरमतत्यपरिज्ञानम् उपादेयं भवति । दर्शनमपि भगवत्परमात्मसुखामिलाषिणो जीवस्य शुद्धान्तस्तत्त्वविलासजन्मभूमिस्थाननिजशुद्धजीवास्तिकायसमुपजनितपरमश्रद्धानमेव भवति । चारित्रमपि निश्चयज्ञानदर्शनात्मककारणपरमात्मनि अविचलस्थितिरेव । अस्य तु नियमशब्दस्य निर्वाणकारणस्य विपरीतपरिहारार्थत्वेन सारमिति भणितं भवति । है | विपरीत परिहारार्थ ] विपरीत का परिहार करने के लिये [ खलु सारं इति वचनं भणितं ] वास्तव में 'सार' ऐसा वचन कहा गया है। टोका-यहां पर नियम शब्द मे 'गार' इस शब्द के प्रतिपादन द्वारा स्वभाव रत्नत्रय का स्वरूप कहा गया है । जो सहज परम पारिणामिक में स्थित. स्वाभाविक अनन्त चतुष्टयात्मक शुद्ध ज्ञान चेतना रूप परिणाम है वह 'नियम है और नियम से अर्थात् निश्चय से जो करने योग्य अर्थात् प्रयोजन स्वरूप है-अवश्य करणीय है वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र है । उन तीनों में प्रथम ही ज्ञान शब्द में गोया अर्थ लेना कि जो जान पर द्रव्य के अवलम्बन के बिना ही संपूर्णतया अंतर्मुख योग शक्ति के निमिन में निज परम तत्त्व को जानने रूप है बह ज्ञान उपादेय होता है अर्थात् परिपूर्णतया ज्ञानोपयोग के अंतर्मुख हो जाने से जो निज परम तत्व का ज्ञान होता है यहां वही ज्ञान उपादेय रूप है । दर्शन भी भगवान् परमात्मा के मुखाभिलाषी जीव को शुद्ध अंतस्तत्त्व के विलाम के जन्मभूमि स्थान रूप-उत्पन्न होने के स्थान प जो निज शुद्ध जीवास्तिकाय उससे उत्पन्न हुग्रा परम श्रद्धान रूप हो है । चारित्र भी निश्चय ज्ञान दर्शन स्वरूप कारण परमात्मा में अविचल स्थिति कप ही है । निर्वाण के लिये कारणभूत इस 'नियम' शब्द में विपरीत के परिहार करने हेतु 'सार' यह शब्द कहा गया है । भावार्थ:-यहां पर 'नियम' शब्द से रत्नत्रय को लिया है जो कि नियम से अर्थात् अवश्य ही करने योग्य हैं और ये प्रात्मा के स्वभाव हैं क्योंकि ये आत्मा को - - Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार (मार्या) इति विपरीतविमुक्तं रत्नत्रयमनुचमं प्रपद्याहम् । अपुनर्भवभामिन्यां समुद्भवमनंगरां यामि ॥१०॥ रिणयमं मोक्खउवायो, तस्स फलं हवति परमरिणवारणं । एदेसि तिण्हं पि य, पत्तेयपरूवरणा होइ ॥४॥ नियमो मोक्षोपायस्तस्य फलं भवति परमनिर्वाणम । एतेषां त्रयाणामपि च प्रत्येकप्ररूपणा भवति ॥४।। निर्वाण प्राप्ति का उपाय नियम कहासः । होता उसोका फल परम निर्वाण सुहाता । दर्शन व जान चरित तीन रत्न अनृपम । प्रत्येक का प्राचार्य यहाँ करते निम्पा ।।४।। छोड़कर अन्यत्र नहीं पाये जाते हैं । इसमें जो 'मार' शब्द लगाया है वह निर्वाण कारण गे अतिरिक्त जो संसार के कारण मिश्यादर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं उनका निराकरण करने के लिये है । व्यवहार रत्नत्रय के निराकरण के लिये नहीं है क्योंकि आगे स्वयं भगवान् कुन्दकुन्ददेव व्यवहार रत्नत्रय का प्रमिलाइन कर रहे हैं । यदि व्यवहार रत्नत्रय के निराकरण के लिये 'नियम' के साथ 'सार' शब्द जोड़ते तो वे स्वयं व्यवहार रत्नत्रय को मोक्ष का कारा नहीं मान नकने थे । इसलिये यहां 'विपरीत' शब्द का अर्थ व्यवहार रत्नत्रय न करके मिथ्यादर्शनादि करना चाहिये । [ अब टीकाकार श्री मुनिराज निश्चय रत्नत्रय और उसके फल की कामना करते हुये श्लाक कहते हैं- ] (१०) श्लोकार्थ- इस प्रकार से मैं विपरीत स्वरूप से रहित, अनुपम मर्वश्रेष्ठ रत्नत्रय को प्राप्त करके मुक्ति पी स्त्री से उत्पन्न जो प्रशरोरी ( अतीन्द्रिय-यात्मिक ) सुख को प्राप्त करता हूं। गाथा ४ अन्वयार्थ- [ नियमः मोक्षोपायः ] पूर्वोक्त रत्नत्रय स्वरूप नियम मोक्ष का उपाय है [ तस्य फलं परम निर्वाणं भवति ] उसका फल परम निर्वाण है [ अपि Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H जीव अधिकार रत्नत्रयस्य मेवकरणलक्षणकथनमिदम् । मोक्षः साक्षावखिलकर्मप्रध्वंसनेना| सावित महानन्वलाभः । पूर्वोक्त निरुपचाररत्नअपपरिया तिस्तस्य महानन्दस्योपायः । ग्रपि वर्षा ज्ञानदर्शनचारित्राणां त्रयाणां प्रत्येकधरूपा भवति । कथम्, हवं ज्ञानमिदं वर्शनमिवं चारित्रमित्यनेन विकल्पेन | दर्शनज्ञानचारित्राणां लक्षणं वक्ष्यमाणसूत्रेषु ज्ञातव्यं भवति । ( मंदाक्रांता ) मोक्षोपायो भवति यमिनां शुद्धरत्रमात्मा ह्यात्माज्ञानं न पुनरपरं दृष्टिरन्याऽपि नैव शीलं तावन्न भवति परं मोक्षुभिः [भोकृमि: ] प्रोक्तमेतद् बुद्ध्वा जन्तुर्न पुनरुदरं याति मातुः स भव्यः ।। ११ ।। एतेषां त्रयाणां प्रत्येक प्ररूपणा भवति ] गुनश्च इन तीनों में से प्रत्येक की होती है। [ ११ टीका- रत्नत्रय में भेद करने वाला और उनके लक्षण को कहने वाला यह प्रकरण है । साक्षात् अखिन्न कर्मों के प्रध्वंस से प्राप्त होने वाला जो महान् आनंद का लाभ है वह मोक्ष है। पूर्वोक्त उपचार रहित रत्नत्रय की परिणति उस महान् प्रानंद स्वरूप मोक्ष का उपाय इसलिये पुनः ज्ञान, दर्शन और चारित्र इन तीनों में से प्रत्येक का प्ररूपण किया जाता है। कैसे किया जाता है ? यह ज्ञान है, यह दर्शन है और यह चारित्र है इस प्रकार से भेद करके वर्णन किया जाता है । इन दर्शन, ज्ञान और चारित्र का लक्षण आगे कहे हुये सूत्रों से-गाथाओं से जानने योग्य है । भावार्थ – 'नियमसार' शब्द से 'रत्नत्रय' को ग्रहण करके अब प्राचार्यवर्य सबसे पहले भेद रत्नत्रय अर्थात् व्यवहार रत्नत्रय का वर्णन करते हुये प्रत्येक का पृथक्-पृथक् लक्षण बतायेंगे | [ अव टीकाकार मुनिराज रत्नत्रय का महत्व प्रगट करते हुये श्लोक कहते हैं- ] ( ११ ) श्लोकार्थ- शुद्ध रत्नत्रय स्वरूप से परिणत अपनी प्रात्मा मुनियों के लिये मोक्ष प्राप्ति का उपाय है क्योंकि आत्मा ही ज्ञान है, किन्तु उससे भिन्न अन्य Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] नियमसार प्रत्तागमतच्चाणं, सहहणादो हवेइ सम्मत्तं । ववगयग्रसेसदोसो, सयलगुणप्पा हवे प्रत्तो ॥५॥ प्राप्तागमतत्त्वानां श्रद्धानाद्भवति सम्यक्त्वम् । व्यपगताशेषदोषः सकलगुणात्मा भवेदाप्तः ।।५।। सत्यार्थ प्राप्त मागम प्रो तत्त्व बताये । बस इनके हि श्रद्धान से सम्ययत्व कहाय ।। संपूर्ण दोष रहिन सकल गुण से युक्त जो। जो मात्मा है प्राप्त बोत राग द्वेष जो ।।५।। व्यवहारसम्यक्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् । आप्तः शंकारहितः । शंका हि सकलमोहरागद्वेषादशः । प्रागमः तन्मुखारविन्दविनिर्गतसमस्तवस्तुविस्तारसमर्थनदक्षः चतुर ....... . . --.-. - कुछ ज्ञान नहीं है, आत्मा ही दर्शन है भिन्न दर्शन भी कुछ नहीं है एवं शोल भी अन्य कुछ नहीं है अर्थात् प्रात्मा ही शोल है । ऐसा मुक्ति दच्छुक--मोक्ष को प्राप्त होने वाले श्री अरिहंत देव ने कहा है या जानकर वह भव्य जीव पुन: माता के गर्भ में नहीं प्राता है। भावार्थ-आस्मा को छोड़कर रत्नत्रय नहीं पाया जाता है इसलिये आत्मा ही रत्नत्रय स्वरूप है। इस ग्रामा से भिन्न अन्य कुछ दर्शन, ज्ञान और चारित्र नहीं है ऐसा समझ कर जो मुनिराज भेद रत्नत्रय के अनन्तर अभेद रत्नत्रय की उपासना करते हैं वे भव्य जीव पुन: जन्म मरण के दुःखों से छूट जाते हैं । इस कलश की गाथा में आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव ने रत्नत्रय का वर्णन करके मैं प्रत्येक का अलगअलग वर्णन करूगा ऐसा कहा है। गाथा ५ अन्वयार्थ-[ प्राप्तागमतत्त्वानां श्रद्धानात् ] प्राप्त, अागम और तत्त्वों के श्रद्धान से [ सम्यक्त्वं भवति ] सम्यवन्ध होता है [ व्यपगताशेषदोषः ] समस्त दोषों से रहित [ सकलगुणात्मा आप्तः भवेत् ] और सकल गुणों से सहित आत्मा आप्त होता है। टीका-यह व्यवहार सम्यक्त्व के स्वरूप का कथन है । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार वचनसंदर्भः । तत्वानि बहिस्तत्त्वान्तस्तत्त्वपरमात्मतत्त्व मेदभिन्नानि अथवा जोवाजीवाबसंवरनिराबन्धमोक्षारणा मेवात्सप्तधा भवन्ति । तेषां सम्पकक्षद्धानं व्यवहारसम्यक्यामिति । ( आर्या ) भवभयभेदिनि भगवति भवतः किं भक्तिरत्र न समस्ति । तहि मवाम्बुधिमध्यग्राहमुखान्तर्गतो भवसि ॥१२॥ शंका रहित को प्राप्त कहते हैं, यहां शंका में मकल मोह, राग, द्वेष यादि को लिया है । उन प्राप्त के मुख कमल मे विनिर्गत ममस्त पदार्थों के विस्तार के ममर्थन में कुशल चतुर वचनों की रचना का प्रागम कहत है। वहिस्तन्व, अंतस्तत्त्व और परमात्मतत्त्व के भेद से तत्त्वों के तीन भेद हैं अथवा जात्र, अजीब, आम्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष के भेद से तत्वां के गात भेद होते हैं । उन प्राप्त, प्रागम और तत्त्वों का सम्यक् श्रद्धान करना व्यवहार मम्यक्त्व हे । विशेषार्थ---यहां तत्त्वों के भेद में बहिस्तन्य में अचेतन तत्त्व को लिया है योर अंतस्तत्व में चेतन तत्व को लिया है तथा परमात्मा त्व को अलग कहा है किन्तु अंतस्तत्वरूप चेतन तत्त्व में परमात्मतत्त्व शामिल हो जाता है अत: मुख्य तन्ब दो ही हैं। [ यहां बहिस्तत्त्व और अंतस्तत्त्वस्वरूप परमात्म तब ऐसे दो भेद भी कोई करने हैं किन्तु अंतस्तत्व को परमात्मतत्त्व का विशेषण कर देने पर तो संसारी जोवों का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो पाता है । अतः तत्त्वों के तीन भेद है ऐमा अर्थ करना ठीक प्रतीत होता है । ] अथवा बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा के भेद से भी तत्त्वों के तीन भेद हो सकते हैं। ! | अब टीकाकार मुनिराज सम्यक्त्व के प्रकरगा में भक्ति के महत्व को बतलाते हुये श्लोक कहत हैं- ] (१२) इलोकार्थ---भव के भय को भेदन करने वाले ऐसे जिनेन्द्र भगवान में क्या आपकी सुखदायक भक्ति यहां नहीं है । तब तो आप भव समुद्र के मध्य में रहने वाले मगर के मुख के अंतर्गत ही हैं ऐसा समझे, अर्थात् यदि ग्राप जिनेन्द्र भगवान् को भक्ति नहीं करते हैं तो आप संमार समुद्र में ही डूब जावेंगे, पार नहीं हो Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] नियमसार छुहतोहमीररोसो, रागो मोहो चिता जरा रुजामिच्च'। सेदं' खेद मदो रइ, विम्हियणिहा जणुव्वेगो ॥६॥ क्षुधा तष्णा भयं रोषो रागो मोहश्चिन्ता जरा रजा मृत्युः । स्वेदः खेदो मदो रतिः विस्मयनिद्रे जन्मोद्वेगौ ॥६।। सुध प्यास भीति रोप राग मोह व चिता। मद खेद पसीना जरा व रोग व निद्रा॥ विस्मय रति उद्वेग जन्म मरण कहाये । ये दोष अठारह सभी के पास बताये ।।६।। अष्टादशदोषस्वरूपाख्यानमेतत् । असातावेदनीयतीव्रमंदक्लेशकरी क्षुधा । असातावेदनीयतीव्रतीतरमंदमंदरपाडया समुपजाता तुषा । इहलोकपरलोकात्राणा सकेंगे । इसकी गाथा में प्राचार्य श्री ने प्राप्त, पागम और तत्व के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है और प्राप्न का लक्षगा किया है अतएव उनकी भक्ति की प्रेरणा दी गई है। गाथा ६ अन्वयार्थ --[ धातृष्णाभयंरोषो रागो मोहः चिता जरा रुजा मृत्युः ] क्षुधा, तृषा, भय, रोष, राग, मोह, चिता, वृद्धावस्था, रोग, मृत्यु [ स्वेदः खेदो मदो रतिः विस्मयनिद्रे जन्मोद्वेगौ ] पसीना, खेद, मद, रति, विस्मय, निद्रा, जन्म और अरति ( ये अठारह दोष ) हैं। टोका---यह अठारह दोषों के स्वरूप का वर्णन है । असानावेदनीय कर्म के निमित्त से तीव्र अथवा मंद क्लेश को करने वाली क्षधा है । असातावेदनीय कर्म की तीन, तीव्रतर अथवा मंद, मंदतर पीड़ा से तृषा उत्पन्न होती है । इहलोक भय, परलोक भय, अरक्षा भय, अगुप्ति भय, मरण भय, -- १. द्वितीय पाद में चार मात्राएं अधिक हैं। २. खेदं सेद (क) पाठान्तर। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार [ १५ मार्गदर्श शुस्तिमाणसाकरिता मोटात् सप्तमा भवति मयम् । क्रोधनस्य पुसस्तीव्रपरिणामो शेषः । रागः प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च, दानशीलोपवास गुरुजनवयावृत्त्यादिसमुद्भवः प्रशस्त माः, स्त्रीराजचौरभक्तविकथालापाकर्णन कौतुहलपरिणामो ह्यप्रशस्तरागः । चातुर्वर्णश्रमणसंघवात्सल्यगतो मोहः प्रशस्त इतरोऽप्रशस्त एव । चिन्तनं धर्मशुक्लरूपं प्रशस्तमितरदप्रशस्तमेव । तिर्यमानवानां वयःकृतदेहविकार एव जरा । वातपित्तश्लेष्मणां षम्यसंजातकलेवरविपीडैव रुजा । साविसनिधनमूर्तेन्द्रियविजातीयनरनारकादिविभावव्यन्जनपर्यायविनाश एव मृत्युरित्युक्तः । अशुभकर्मविपाकजनितशरीरायाससमुपजातप्रतिगंधसम्बन्धवासनावासितवाबिन्दुसंदोहः स्वेदः । अनिष्ट लाभः खेदः । सहजचतुर वेदना भय और आकस्मिक भय के भेद से भय सात प्रकार का है । क्रोध स्वभावो जीव के तीव्र परिणाम को रोप कहते हैं । राग के प्रशस्त और अप्रशस्त ऐसे दो भेद हैं, दान, शोल, उपयास, गुरुजनों को वैयावृत्ति प्रादि में उत्पन्न होने वाला राग प्रशस्त राग है और स्त्री कथा, राज कथा, चौर कथा, भोजन कथा रूप विकथा के करने तथा सुनने का जो कौतुहल रूप परिणाम है वह अप्रशस्त राग है । चार प्रकार के श्रमण संघ में बात्सल्य में होने वाला मोह प्रशस्त भोह है और इससे भिन्न-गृह कुटुम्ब संबंधी मोह अप्रशस्त ही है । धर्म शुक्लरूप चितवन करना प्रशस्त चिंता है और इससे भिन्न आर्तरोदध्यान मंबंधी चितवन अप्रशस्त चिता ही है। तिर्यंच और मनुष्यों के उम्र के निमिन से होने वाले शरीर में विकार ही बुढ़ापा है । बात, पित्त और कफ की विषमता से उत्पन्न हुई शरीर में पीड़ा हो रोग है, आदि और अंतसहित मूर्तिक इंद्रियां नथा विजातीय नर-नारकादि विभाव व्यंजन पर्याय का विनाश ही मृत्यु कहा गया है ! अशुभ कर्म के उदय से होने वाला जो शरीर में श्रम है उससे उत्पन्न होने वाली दुर्गध से संबंधित बासना से वासित जल बिन्दुओं के समूह को पसीना कहते हैं । अनिष्ट के लाभ से होने वाला खेद है। अखिल जनता के कान में अमृत वा भराते हुये के समान सहज चतुर कविता स सहज सुन्दर शरीर, कुल, बल और श्वयं के निमित्त से प्रात्मा में अहंकार को उत्पन्न कराने वाला मद कहलाता है। रुचिकर वस्तुओं में परमप्रीति होना ही रति है । परम समरसीभाव की भावना से रहित जीवों को कहीं पर पूर्व काल में नहीं देखा हुभा ऐसा कुछ अपूर्व देख लेने से विस्मय होता है । केवल शुभ कर्म से देव पर्याय । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार कवित्वनिखिलजनताकर्णामृतस्यंदिसहजशरीर फुलबलश्वय्यरात्माहंकारजननो मदः । मनोज्ञेषु वस्तुष परमा प्रोतिरेव रतिः । परमसमरसीभावभावनापरित्यक्तानां क्वचिदपूर्ववर्शनाद्विस्मयः । केवलेन शुभकर्मणा, केवलेनाशुभकर्मणा, मायया, शुभाशुभमिश्रण --- - - - - में उत्पत्ति का होना, केवल अशुभकर्म से नरक पर्याय में उत्पत्ति का होना, माया से तिर्यंच पर्याय एवं शुभाशुभ के मिश्र से देवपर्याय में उत्पत्ति होना जन्म कहलाता है । दर्शनावरणीय कर्म के उदय से ज्ञान ज्योति का अस्त हो जाना ही निद्रा है। इष्ट वियोग के होने पर घबराहट का होना उद्वेग है । इन महादोषों सं तीनों लोक व्याप्त हो रहे हैं, इन दोनों से रहित वीतराग सर्वज्ञ भगवान् ही है। कहा भी है--"धर्म वही है जहां दया है, तप भी वही है जहां विषयों का निग्रह है, देव वही है जो अठारह दोषों से दिन है इसमें संदेह नहीं है ।" विशेषार्थ--तेरहवे गुणस्थान में साना-असातावेदनीय में से किसी एक की उदय व्युच्छित्ति होती है और चौदहवं गुणस्थान में शेष बची एक वेदनीय की व्युच्छित्ति होती है इसलिये प्रश्न यह होता है कि अन्य गुग स्थानों में जैसे साताअसाता के उदय से इन्द्रिय जन्य सुख तथा दुःख होता है वैस कंबली भगवान् के भी होना चाहिये और तब नो असातावेदनोय के निमित्त से होने वाली ग्यारह परीपह भी अरिहंत भगवान् के मानना चाह्येि कहा भी है--'एकादशजिने' जिनेन्द्र भगवान में ग्यारह परोषह हैं ऐसा सूत्रकार का वचन है । "वेदनीय के उदय का सद्भाव होने से उनके क्षुधा तृषा आदि का प्रसंग है । ऐसा नहीं कहना क्योंकि घातिकर्म के उदय की सहायता का अभाव हो गया है इसलिये इस वेदनीय में क्षुधा आदि बाधा को उत्पन्न करने की सामर्थ्य नहीं रही है ।" जैस विष द्रव्य की मंत्र औषधि अादि के बल से मारण शक्ति नष्ट कर देने के बाद वह मरगा के लिये कारगा नहीं होता है उसी प्रकार से ध्यान अग्नि सं घातिकर्म झपो ईवन को भस्म कर देने के बाद अनंत दर्शन, ज्ञान, शक्ति और मुख के प्रगट हो जाने पर निरन्तर शुभ पुद्गल वर्गणायें पा रही हैं जिससे अरिहंत भगवान् के परमौदारिक शरीर की स्थिति कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष तक बनी रहती है । इसलिये वेदनीय कर्म यद्यपि विद्यमान है तो - - - - - १. तत्त्वार्थवार्तिक, पृ०६१३, अध्याय ६ । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार [ १७ देवनारकतिर्यटः मनुष्यपर्यायेत्पचिर्जन्म । दर्शनावरणीयकर्मोदयेन प्रत्यस्तमितज्ञान। ज्योतिरेव निद्रा । इष्टवियोगेषु विक्लवभाव एवोद्वेगः । एमिमहादोषेप्तिास्त्रयो लोकाः । एतविनिमुक्तो वीतरागसर्वश इति । .. तथा चोक्तम्"सो धम्मो जत्थ दया सो वि तवो विसणियहो जत्थ । दसअठ्ठदोसरहिरो सो देवो पत्थि सन्देहो ॥" भी मोहलोय कर्म की सहायता बिना सामर्थ्य रहित हो गया है अतः वह अपने योग्य क्षुधा, तृणा मादि परीपहों को उत्पन्न करने में असमर्थ है। इसी बात को गोम्मटसार कर्मकांड में भी कहा है "केवली' भगवान् के घातिया कर्म के अभाव में मोहनीय के भेद जो रागद्वेष हैं वे नष्ट हो चुके हैं । जानावरण के नष्ट हो जाने से इंद्रियजन्य क्षायोपशमिक ज्ञान भी नष्ट हो चुका है इसलिये केवली भगवान के साता-प्रमाता जन्य इंद्रिय विषय गुम्ब-दुःख भो लेश मात्र नहीं होते है जिस कारण केवली भगवान् के एक साताबेदनीय का बंध सो भी एक समय की स्थिति वाला ही है, इस कारण वह उदय रूप ही है और इसी कारण असाता का उदय भी साता स्वरूप में ही परिणमन कर जाता है क्योंकि असातावेदनीय सहाय रहित होने से तथा बहुत हीन होने से मिष्ट जल में खारे जल की एक बून्द की तरह कुछ कार्य नहीं कर सकता । इस कारण से केवली के हमेशा सातावेदनीय का ही उदय रहता है इमीलिये असाला के निमित्त से होने वाली क्षुधा, तुषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृण, स्पर्श और मल ये ग्यारह परीषह है वे जिनेन्द्र भगवान के कार्य रूप नहीं होती हैं।" यही कारण है कि अहंत भगवान् कवलाहारी नहीं हैं, वे क्षुधादि अठारह महादोषों से सर्वथा रहित हैं और अनंत चतुष्टय से सहित पूर्णतया मुखी हैं। - ... १. गाद्रा य ायदोसा दियारणा च केवलिम्हि जदा । तेण दुसादा सादज सुह दुक्वं गधि इन्दिय जं॥२७३।। समयट्टिदिगो धो सादस्सुदयप्पिगो जदो तस्स । तेण प्रसादस्मदो सादसत्वेग परिणमदि ।।२७४।। एदेण कारणे दु सादरसेव हु गिरतरो उदयो । सेणासाद गिमित्ता परीसहा जिगावरे णत्यि ।।२७५॥ [ कर्मकाई ] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] नियमसार तथा चोक्तं श्रीविद्यान न्दिस्वामिभिः तथाहि - ( मालिनी ) "अभिमतफल सिद्धेरभ्युपायः सुबोधः स च भवति सुशास्त्रातस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धनं हि कृतमुपकारं साधयो विस्मरति ।। " ( मालिनी ) शतमखशत पूज्यः प्राज्य सद् बोधराज्य: हमरगिरिसुरनाथः प्रास्तदुष्टाधयुधः । पदनतवनमाली भव्यपद्यांशुमाली दिशतु शमनिशं नो मिरानन्दभूमिः ॥ १३ ॥ उसी प्रकार श्री विद्यानंद स्वामि ने भी कहा है श्लोकार्थ - " अभिमत फल की सिद्धि का उपाय सम्यग्ज्ञान है, वह सम्यग्ज्ञान सुशास्त्र से होता है और सुशास्त्र की उत्पत्ति प्राप्त से होती है, इसलिये उनके प्रसाद से ही इप्ट - मोक्ष की सिद्धि होने से वे प्राप्त प्रबुद्ध-ज्ञानी जनों के द्वारा पूज्य होते हैं क्योंकि साधुजन किये हुये उपकार को कभी नहीं भूलते हैं ।" ( १३ ) श्लोकार्थ जो सो इन्द्रों से पूज्य हैं जिन्होंने उत्कृष्ट सद्द्बोध के राज्य - केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया है जो काम रूपी पर्वत को नष्ट करने के लिये इन्द्र तुल्य हैं, दुष्ट प्रष्ट कर्म के समूह को जिन्होंने नष्ट कर दिया है, श्रीकृष्ण जिनके चरणों में नत हैं और जो भव्य जोव रूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिये सूर्य के समान हैं, प्रानंद की भूमि- -स्थान स्वरूप ऐसे नेमिनाथ भगवान हम सभी को सदैव सुख प्रदान करें । इस कलश की गाथा में १८ दोष रहित अरिहंत भगवान् का वर्णन किया गया है अतएव उनके गुणों से ओत प्रोत होकर टीकाकार ने नेमिनाथ भगवान् की स्तुति की है । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार [१६ हिस्सेसदोसरहिनो, केवलणाणाइपरमविभवजुदो। सो परमप्पा उच्चइ, तविवरोप्रो ण परमप्पा ॥७॥ निःशेषदोषरहितः केवलज्ञानादिपरमविभवयुतः । स परमात्मोच्यते तद्विपरोतो न परमात्मा ||७॥ इस कभी दो दिन रही है । कंवल्य ज्ञान प्रादि परम विभवमयी है ।। परमात्मा वो ही कहा जाता है भुवन में । जो इनसे भिन्न वो नहीं परमात्मा जग में ।।७।। तीर्थकरपरमदेवस्वरूपाख्यानमेतत् । आत्मगुणघातकानि घातिकर्माणि ज्ञानदर्शनावरणान्तरायमोहनीयकर्माणि, तेषां निरवशेषेण प्रध्वंसानिःशेषदोषरहितः अथवा पूर्वसूत्रोपानाष्टादशमहादोषनिर्मूलनान्निःशेषदोनिमुक्त इत्युक्तः । सकल विमलकेवलबोधकेवलष्टिपरमवीतरागात्मकानन्दाचनेविभवसमृद्धः । यस्त्येवंविधः त्रिकालनिराव-- - - . . - गाथा ७ ___ अन्वयार्थ -[ निःशेषदोषरहितः ] जो उपर्युक्त संपूर्ण दोषों से रहित और [ केवलज्ञानादिपरमविभवयुतः ] केवल ज्ञान आदि परम वैभव से सहित हैं [ सः ] वह [ परमात्मा उच्यते ] परमात्मा कहलाते हैं । [ तद्विपरीतः ] उससे विपरीत [ परमात्मा न ] परमात्मा नहीं है । टोका-~-यह तीर्थकर पर मदेव के स्वरूप का आख्यान है जो आत्मा के गुणों का घात करने वाले हैं वे घाति कर्म कहलाते हैं, वे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्त राय ये चार हैं । जो इन घातिया कर्मों का परिपूर्णतया प्रध्वंस कर देने से नि:शेष दोष से रहित होते हैं अथवा पूर्व गाथा सूत्र में कहे हुये अठारह महादोषों के जड़मूल से नष्ट हो जाने से अर्हन्त भगवान निःशेष दोष से रहित कहलाते हैं और सकल बिमल केवलज्ञान, केवलदर्शन, परम वीतरागस्वरूप आनन्द प्रादि अनेकों वैभव से समृद्ध होते हैं। जो इस प्रकार त्रिकाल निरावरण नित्य हो है एक आनंद स्वरूप जिसका ऐसे निजकारण परमात्मा की भावना से उत्पन्न कार्य परमात्मा हो चुके हैं वे ही भगवान अहंत परमेश्वर हैं। इन Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . २० ] नियममार रणनित्यानंदैकस्वरूपनिजकारणपरमात्मभावनोत्पन्नकार्यपरमात्मा स एव भगवान् अर्हन परमेश्वरः । अस्य भगवतः परमेश्वरस्य विपरीतगुणात्मकाः सर्वे देवाभिमानदग्धा अपि संसारिण इत्यर्थः । तथा चोक्तं श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवः : भगवान् परमेश्वर के विपरीत गुण वाले सभी देव के अभिमान में दग्ध हुये भी देव संसारी ही हैं यह अर्थ हुआ । विशेषार्थ- यहां यह बात स्पष्ट की है कि घाति कर्म के नाम मे अष्टादश दोष समाप्त होते हैं और केवलज्ञानादि अनन्त गण प्रगट होते हैं । इससे यह बात सिद्ध होती है कि संसार पूर्वक ही मोक्ष होतो है । अनादिकाल से कर्ममल रहितग्रस्पर्शित 'सदाशिव' नाम का कोई परमेश्वर नहीं है । आग परमात्मा के लक्षण में टीकाकार ने कारण परमात्मा की भावना में कार्य परमात्ना होते हैं, शुद्ध निश्चयनय में प्रत्येक जीव को प्रात्मा त्रिकाल में आवरण रहित है, नित्य ही आनन्द रूप है वही कारण परमात्मा है ऐसा समझकर शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव जव निश्चय नय के अवलम्बन से अपनी ऐसी प्रात्मा की भावना करते हुये अपने आप में तन्मय हो जाते हैं तब उनकी आत्मा ही परमात्मा बन जाती है। इसीलिये शुद्ध निश्चयनय के अवलम्बन स्वरूप आत्मा को कारण परमात्मा कहा है । यद्यपि "सब्बे सृद्धा हु सुद्धणया" के अनुसार सभी जोव शुद्ध नय से शुद्ध ही हैं । चाहे वे मुक्ष्म निगोदिया एकोन्द्रिय हों अथवा वे अभव्य हो, चाहं मिथ्यादृष्टि-मिथ्यात्वगुणस्थानवती हों या १४ वें गुणस्थान तक किसी भी गुरास्थान में हों उन सभी की प्रात्मा परमात्म स्वरूप है, किन्तु इतने मात्र में अभव्य या एकेन्द्रिय जीव प्रादि की आत्मा को क्या लाभ है, कुछ भी नहीं है निश्चयनय से सभी में कार्य परमात्मा ही है किन्तु उसमें उन्हें कुछ अानन्द नहीं है अतएव सम्यग्दृष्टि अंतरा:मा ही कारण परमात्मा बनकर कार्य परमात्मा को प्राप्त कर मकते हैं । ऐसो कारण परमात्मत्व से परिणत आत्मावस्था वीतराग निर्विकल्प ध्यानावस्था के समान होती है, यहां यह निष्कर्ष समझना चाहिये । श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव ने भो अरिहन्त का लक्षण करते हुये कहा है Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोन अधिकार [ २१ "तेजो दिट्ठी गाणं इड्ढी सोक्खं तहेव ईसरियं । तिवणपहाणवायं माहप्पं जस्स सो अरिहो ।" तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः ( शार्दूलविक्रीडित ) "कात्यंब स्नपति ये दशदिशो थाम्ना निरुन्धति ये धामोदाममहस्विनां जनममो मुष्णन्ति रूपेण थे। HALEGE गाथार्थ--"'तेज-भामण्डल, दर्शन, ज्ञान, ऋद्धि-समवशरणादि विभूति, सौम्य, ऐश्वर्य और त्रिभुवन में प्रधान वल्लभपना ऐसा माहात्म्य जिनके है वे अरिहन्त भगवान् हैं। भावार्थ - भामण्डल, तीनों जगत् और तीनों कालों की समस्त वस्तु को एक साथ देखने और जानने में समर्थ केवलदर्शन और केवलज्ञान, समवशरण का वैभव, अनन्त सम्य इन्द्रादि भी जिनकी सेवा करें ऐसा ऐश्वर्य और त्रिभुवनाधीश का भी प्राधिपत्य ऐमा माहात्म्य जिनका है वे ही अर्हत भगवान हैं । . उसी प्रकार से अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा है अर्थ- जो अपनी कांति से ही दशों दिशाओं को स्नान करा रहे हैं, जो अत्यन्न उत्कट नेज को धारण करने वाले सूर्य के तेज को अपने तेज से रोक देते हैं, जो अपने रूप से सभी जनों के मन को चुराने वाले हैं, जो अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा भव्यों के कानों में साक्षात् अमृत को झराते हुये सदृश सुख उत्पन्न करते हैं वे एक सहस्र पाठ लक्षण को धारण करने वाले तीर्थेश्वर सूरि बंद्य हैं । भावार्थ- अरिहन्त भगवान के शरीर को कांति से सम्पूर्ण दिशाय स्वच्छ हो जाती हैं, तेज से करोड़ों सूर्यो का तेज छिप जाता है, रूप से सभी जन के मन - - -. -- . -.-. १. प्रवचनसार गाथा E८/१० १६२ । इस गाथा को श्री जयसेनाचार्य ने भी कुन्दकुन्द देव कृत मानकर टीका की है और यहां श्री पद्मप्रभमलधारी देव भी कुन्दकुन्ददेव कृत बाह रहे हैं। २. ममयमार कलण-४० । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २२ ] नियमसार दिव्येन ध्वनिमा मुखं श्रवणयोः साक्षारक्षरतोऽमृतं बंद्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः ।।" ( मालिनी ) जगदिदमजगच्च ज्ञाननीरेहान्तभ्रमरवदवभाति प्रस्फुटं यस्य नित्यम् । तमपि किल यजेहं नेमितीर्थकरेशं जलनिधिमपि दोामुत्तराम्यूलवीचिम् ॥१४॥ - - - - मुग्ध हो जाते हैं और वाणी से सभी के कानों में अमृत झरने जैसा सुख उत्पन्न होता है और उनके शरीर में १००८ लक्षण शोभायमान हैं ऐसे तीर्थकर परम देव जगत में सभी के लिये बंदना करने योग्य हैं, पुज्य एवं महान हैं । [ अब टीकाकार मुनिराज ऐसे अरिहंत भगवान् की स्तुति में अपने को असमर्थ कहते हुये श्लोक द्वारा श्री नेमिनाथ की स्तुति करते हैं । ] (१४) श्लोकार्थ-जिन भगवान के ज्ञान रूपी कमल के अन्तर्गत भ्रमर के समान यह सम्पूर्ण लोक और अलोक नित्य ही स्पष्टरूप से प्रतिभासित हो रहा है निश्चित ही मैं भी उन श्री नेमिनाथ तीर्थंकर की पूजा करता हूं तो मैं अपनो दोनों भुजायों से ऊंची-ऊंची उठती हुई लहरों वाले समुद्र को भी तैरना चाहता हूं। मावार्थ-जिस प्रकार भ्रमर कमल पुष्प के भीतर बैठकर छोटा सा प्रतीत होता है उसी प्रकार भगवान के ज्ञान रूपी कमल में यह सारा लोक और अलोक छोटा सा प्रतीत होता है क्योंकि भगवान् के ज्ञान में यदि अनन्त भी ऐसे लोकालोक प्रा जावें तो भी समा सकते हैं। यदि ऐसे महान् नेमिनाथ की मैं स्तुति या भक्ति करना चाहता हूं तो मैं वास्तव में लहरों से व्याप्त ऐसे विशाल समुद्र को मात्र भुजाओं से तैरना चाहता हूं। अर्थात् मैं ऐसे नेमिनाथ की स्तुति करने में समर्थ नहीं हैं, असमर्थ ही हैं । इस गाथा में ग्रन्थ कार ने आप्त को दोषरहित और केवलज्ञानादि अनन्तगुणों के वैभव से सहित बताया है और इसीलिये केवलज्ञान की महिमा गायी है। ---- - .. ....- .... - Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार [२३ तस्स 'मुहग्गदवयम्, 'पुष्वावरदोसविरहियं सुद्धं । प्रागममिदि परिकहियं, तेण दु कहिया हवंति तच्चत्या ॥८॥ तस्य मुखोद्गतवचनं पूर्वापरदोषविरहितं शुद्धम् । मागममिति परिकथितं तेन तु कचिता मवरित तत्त्वार्याः ॥८॥ इनके मुखारविंद से निकले हुए वचन । जो पूर्व प्रपर दोष रहित शुद्ध हैं वरण ।। मागम ये नाम उसका ऋषियों ने बताया । उसमें कहे गये को तत्वार्थ है गाया ।।८।। परमागमस्वरूपाख्यानमेतत् । तस्य खलु परमेश्वरस्य ववनवनजविनिर्गतचतुरपचनरचनाप्रपंचः पूर्वापरदोषविरहितः, तस्य भगवतो रागाभावात् पापसूपसिंसादिपापक्रियाभावाच्छुद्धः परमागम इति परिकथितः । तेन परमागमामृतेन भव्य श्रवणा गाथा ८ अन्वयायं-[ तस्य मुखोद्गतवचनं ] उन प्राप्त के मुख से निकले हुये जो वचन हैं [ पूर्वापरतोषविरहितं शुद्ध ] जो पूर्वापर दोषों से रहित हैं, शुद्ध हैं [ प्रागर्म इति परिकथितं ] उसे ही 'आगम' इस प्रकार कहा है [ तेन तु कथिताः तत्त्वार्याः ] और उस आगम के द्वारा कहे गये अर्थ तत्त्वार्थ कहलाते हैं । टीका-यह परमागम के स्वरूप का कथन है उन प्राप्त परमेश्वर के मुखारविंद से निकले हुये कुशल वचन की रचना का विस्तार है वह पूर्वापर दोष से रहित है, उन भगवान् के राग का अभाव होने से | पापसूत्र के समान हिंसादि पाप क्रियानों का अभाव होने से जो शुस है वह 'परमागम' इस नाम से कहा जाता है । वह परमागम भव्यों के द्वारा करर्ण रूपी अजुलिपुट से पीने योग्य अमृत है, मुक्ति सुन्दरो के मुख को देखने के लिये दर्पण है, संसार रूपी महासमुद्र के महाभंवर में फंसे हुये सम्पूर्ण भव्य जीवों को हाथ का अवलम्बन देने १. मुहम्गह ( क ) पाठाला। २. पुवापर ( क ) पाठान्ता । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] नियमसार नलिपुटपेयेन मुक्तिसुन्दरोमुखदर्पणन संसरणवारिनिधिमहावर्तनिमग्नसमस्तभव्यजनता. दत्तहस्तावलम्बनेन सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिना प्रक्षणामोक्षप्रासावप्रथमसोपानेन स्मरभोगसमुद्भूताप्रशस्तरागांगारःपच्यमानसमस्तदीनजनतामहापलेशनिर्णाशनसमर्थसजलजलदेन कथिताः खलु सप्ततत्त्वानि नव पदार्थाश्चेति । तथा चोक्तं श्रीसमन्तभद्रस्वामिभिः वाला है, सहज-स्वाभाविक वैराग्य रूपी महल के शिखर का चूड़ामणि रत्न है, अक्षुण्ण-जो कभी नष्ट नहीं होगा ऐसा मोक्ष रूपी उत्तम भवन में पहुंचने के लिये पहली सीढ़ी है और कामभोग से उत्पन्न हुये जो अप्रशस्त राग रूपी अंगारे उनसे झुलसते हुये दीन प्राणियों के महान क्लेश को जड़मूल से नष्ट करने में समर्थ ऐसा सजल मेघ है । इन विशेषणों से विशिष्ट ऐसे इस परमागम के द्वारा निश्चित रूप से सात तत्त्व और नव पदार्थ कहे गये हैं । विशेषार्थ-जिनेन्द्र भगवान के मुखकमल से निकली हुई वाणी को परम आगम कहा है और उस परमागम को अमृत कहा है क्योंकि अमृत के समान यह भव्य जीवों को सन्तुष्ट करने वाला है । इसे दर्पण कहा है क्योंकि इस आगम रूपी दर्पण में मुक्ति का भी अवलोकन हो जाता है । इसे हस्ताबलम्बन कहा है क्योंकि संसार समुद्र में डूबे हुये प्राणियों को सहारा देकर मोक्ष में पहुंचाता है । इसे शिखामणि कहा है क्योंकि वैराग्य महल के शिखर का शेखर है, इसे प्रथम सीढ़ी कहा है क्योंकि इसके बिना मोक्ष महल पर चढ़ नहीं सकते हैं और इसे सजल मेघ कहा है क्योंकि कामभोग या इष्ट बियोग, अनिष्ट संयोग आदि अनेकों मानसिक, शारीरिक और ग्रागंतुक दु:खों से उत्पन्न हुये संताप को क्षणमात्र में शमन करने में समर्थ है ऐसे माहात्म्य से युक्त इस परमागम से सप्त तत्त्व, नव पदार्थ का वर्णन किया जाता है वहीं 'तत्त्वार्थ' है । इस प्रकार प्राप्त, पागम और तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। पागम के लक्षण में श्री समन्तभद्र स्वामी ने भी कहा है Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार [ २५ ( आर्या) "अन्यूनमनतिरिक्तं पायातयं विना च विपरीतात् । निःसन्देहं वेद यदाहस्तज्ज्ञानमामिनः ॥" (हरिणी) ललितललितं शुद्ध निर्वाणकारणकारणं निखिलभविनामेतस्कर्णामृतं जिनसवचः । भवपरिभवारण्यज्वालित्विषां प्रशमे जलं प्रतिदिनमहं वन्दे वन्द्यं सवा जिनयोगिभिः ॥१५॥ गोवा नोकाया, अम्माधम्मा य काल प्रायासं । तच्चत्त्था इदि भरिणदा, पारसागुरणपज्जएहि संजुत्ता ॥६॥ जीवाः पुद्गलकाया धर्माधों घ काल आकाशम् ।। तत्त्वार्था इति मणिताः नानागुणपर्यायः संयुक्ताः ॥६॥ - -.. - - श्लोकार्थ-जो न्यनता रहित, अधिकता रहित, और विपरीतता रहित जैसे का तसा वस्तु के स्वरूप को संदेह रहित जानता है उसे आगम के ज्ञातानों ने सम्यग्ज्ञान कहा है। अर्थात् संशय विपर्यय और अनध्यवसाय, इन दोषों से रहित ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं । यहां न्यूनता और अधिकता से रहित का तात्पर्य अध्याप्तिअतिव्याप्ति दोषों से रहित होना भी है। [ अब टीकाकार मुनिराज जिनवचन की प्रशंसा करते हुये उसको वंदना करते हैं ( १५ ) लोका-जो जिनवचन ललित में ललित-मनोहर में भी मनोहर हैं, शुद्ध-पूर्वा पर बाधा से रहित हैं, निर्वाण का कारण जो भेदाभेद रत्नत्रय उसके लिये कारण हैं, समस्त भव्य जीवों के कानों के लिये अमृत स्वरूप हैं. भव रूपी वन में प्रज्वलित हुई दावानल की ज्वाला को शांत करने के लिये जल के समान हैं और जिनयोगियों के द्वारा सदा ही बन्दनीय हैं ऐसे जिन वचनों की मैं प्रतिदिन बन्दना करता हूं। - - - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ } नियमसार जो जीव पुद्गलकाय, धर्म प्रो अधर्म जो 1 आकाश और काल ये तत्त्वार्थ कहें जो ।। नानागुणों व पर्ययों से युक्त ये रहें । हार हो को हुन्ग नाम से मुनी कहें ।।६।। अत्र षण्णा द्रव्याणां पृथक्पृथक् नामधेयमुक्तम् । स्पर्शनरसनघ्राणचक्ष धोत्रमनोवाकायायुरुच्छ्वासनिःश्वासाभिधानंदशभिः प्राणः जीवति जोविष्यति जीवितपूर्बो वा जीवः संग्रहनयोज्यमुक्तः । निश्चयेन भावप्राणधारणाजोधः । व्यवहारेण द्रव्यप्राणधारणाजीवः । -- - - -- - - - - - - -- - -- - ... - -- - - - - गाथा अन्वयार्थ -[ जोवाः पुद्गलकायाः ] जीव, पुद्गलकाय [ धर्माधमों ] धर्म, अधर्म [ कालः च प्राकाशं ] काल और आकाश ये छहों ही [ नानागुणपर्यायः संघुक्ताः ] विविध गुण पर्यायों से संयुक्त [ तत्वार्थाः इति भणिताः ] "तत्त्वार्थ" इस प्रकार से कहे गये हैं। टोका-- यहां छहों द्रव्य के पृथक्-पृथक् नाम का कथन है स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और श्रोत्र-कर्ण, मन-वचन-काय, प्रायु और श्वासोच्छ्वास इन नाम वाले दश प्राणों से जो जीता है, जीवेगा और पूर्व में जीवित था वह जीव है, यह संग्रह नय का कथन है । निश्चय से भाव प्राणों को धारण करने से जीव है और व्यवहारनय से द्रव्यप्राणों को धारण करने से जीव है। शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय गे केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों का अाधारभूत होने से 'कार्य शुद्ध जीव' है। असद्भूत व्यबहारनय से मति ज्ञान आदि विभावगुणों का आधारभूत होने से 'अशुद्ध जीव है। शुद्ध निश्चयनय से सहजज्ञानादि परम स्वाभाविक गुणों का आधारभूत होने से 'कारण शुद्ध जीव है । यह जीव चेतन है, इसके गुण भी चेतन हैं, यह अमूर्त है, इसके गुण भी अमूर्त हैं, यह शुद्ध है इसके गुण भी शुद्ध हैं, यह अशुद्ध है और इसके गुण भी अशुद्ध हैं, पर्यायें भी इसी प्रकार हैं । जो गलन और पूरण स्वभाव से सहित है वह पुद्गल है, यह श्वेत, पीत आदि वर्गों का आधार है अतः मूर्तिक है, इसके गुण भी मूर्तिक हैं, यह अचेतन है इसके गुण भी अचेतन हैं। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार । २७ शुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानादिशुद्धगुणानामाधारभूतत्वात्कार्यशुद्धजीवः । अशुद्धसद्भूतध्यवहारेण मतिज्ञानादिविभावगुणानामाधारभूतत्वावशुद्धजीवः । शुद्धनिश्चयेन साहजहानादिपरमस्वभावगुणानामाधारभूतत्वात्कारणशुद्धजीवः । अयं चेतनः । अस्य चेतनगुणाः । अयममूर्तः । अस्यामूर्तगुणाः । अयं शुद्धः । अस्य शुद्धगुणाः । अयमशुद्धः । अस्याशुद्धगुणाः। पर्यायश्च । तथा गलनपूरणस्वमावसनाथः पुद्गलः । श्वेताविवर्णाधारो मूर्तः । अस्य हि मूर्तगुणाः । अयमचेतनः । प्रस्थाचेतनगुणाः । स्वभावधिभावगतिक्रियापरिणतानां जीवपुद्गलानां स्वभावविभावगतिहेतुः धर्मः । स्वभावविभावस्थितिक्रियापरिणताना तेषां -. स्वभाव और विभावरूप गति की क्रिया में परिणत हुये जीव और पुद्गलों को स्वभाव-विभावरूप गति क्रिया में जो हेतु है वह धर्म द्रव्य है ।। स्वभाव और विभावरूप स्थिति क्रिया में परिणत हुये उन्हीं जीव और पुद्गलों की स्थिति में जो हेतु है वह अधर्म द्रव्य है । पांचों द्रव्यों को अवकाग दान स्वरूपवाला प्रकाश द्रव्य है। पांचों द्रव्यों में जो वर्तना का हेतु है वह काल द्रव्य है । धर्म-अधर्म-ग्राकाश और काल इन चारों अमूर्तिक द्रव्यों के गुण शुद्ध हैं और इनकी पर्यायें भी उसीप्रकार शुद्ध हैं । _ विशेषार्य-यहां पर छहों द्रव्यों का स्वरूप बताया है। उसमें टीकाकार ने सर्वप्रथम जीव द्रव्य का निरुक्ति पूर्वक अर्थ करते हुये कहा है कि जो निश्चयनय से चैतन्यरूप भावों से तथा व्यवहारनय से इन्द्रिय प्रादि द्रव्यप्राणों से त्रिकाल में जीता है वह जीव है। अनन्तर इसके 'कार्यशुद्ध जीव, अशुद्ध जीव और कारणशुद्ध जीव' ऐसे तीन भेद किये हैं। इनमें से पूर्णतया व्यक्तरूप से शुद्ध ऐसे सिद्ध जीवों को 'कार्यशुद्ध जीव' कहा है । संसारी जीवों को 'अशुद्ध जीव' एवं शुद्ध निश्चयनय से संसारी जीवों में सहजज्ञानादि गुण शक्तिरूप से विद्यमान हैं इस दृष्टि से उनको 'कारण शुद्ध जीव' कहा है। आगे यह बताया है कि जीव चेतन, अमूर्तिक, शुद्ध प्रथवा अशुद्ध है, उसके गुण भी वैसे ही चैतन्य स्वरूप, अमूर्तिक, शुद्ध अथवा अशुद्ध हैं तथा पर्यायें भी उसी Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] नियममार स्थितिहेतुरधर्मः । पंचानामवकाशदानलक्षणमाकाशम् | पंचानां वर्तनाहेतुः कालः । चतुर्णाममूर्तानां शुद्धगुरगाः, पर्यायाश्चैतेषां तथाविधाश्च । (मालिनी) इति जिनपतिमार्गाम्मोधिमध्यस्थरत्नं द्युतिपटलजटालं तद्धि षड्द्रव्यजातम् । हृदि सुनिशितबुद्धिभूषणार्थं विधत्ते स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।१६।। प्रकार शुद्ध जीव को शुद्ध हैं और अशुद्ध जीव की अशुद्ध हैं । ऐमा नहीं हो सकता है कि जीव तो शुद्ध रहे और पर्याय मात्र अशुद्ध रह । यदि जीव द्रव्य शुद्ध है तो उसके गुण और उसकी पर्यायें भी शुद्ध हो रहेगी और यदि पर्याय अशुद्ध होंगी तो द्रव्य और उसके गुण अशुद्ध ही रहेगे । हौं ! शुद्ध निश्चयनय से संसार अवस्था में भी जीव द्रव्य शुद्ध है और उसके गुण तथा उसकी पर्यायें भी उसी न यविवक्षा से शुद्ध हैं। __जिसमें परमाणु मिलते है और पृथक् होते रहते हैं वह पुद्गल है, यह मूर्तिक हो है । जीव द्रव्य कथंचित् शुद्ध निश्चयनय मे अथवा व्यक्तरूप शुद्ध अवस्था में अमूर्तिक है और कर्मबंध मे सहित होने से कथंचित् मुर्तिक भी है। शेष चारों द्रव्य अमूर्तिक ही हैं तथा शुद्ध गुण पर्यायों से सहित हो हैं उनमें अशुद्ध गुण पर्यायें नहीं होती हैं । [ अन टीकाकार श्री मुनिराज छहों द्रव्यों को रत्न की उपमा देकर उससे विभूषित होने का संकेत करते हुये श्लाक कहने हैं । - | (१६) इलोकार्थ – इसप्रकार जिनेन्द्र भगवान के मार्ग रूपी समुद्र के मध्य में स्थित रत्न के समान द्युति-किरणों के समूह से देदीप्यमान जो यह छह द्रव्यों का समूह है, जो भव्य तीक्ष्ण बुद्धि वाले भव्य जीव, भूषण के लिये अपने हृदय में धारण करता है वह मुक्ति श्री रूपी कामिनी का इच्छितवर हो जाता है । भावार्थ-यहां सम्यग्दर्शन के विषयभूत छह द्रव्यों का वर्णन है । आचार्य ने उन्हें ही 'तत्त्वार्थ' शब्द से कहा है। जिनेन्द्र भगवान् का मार्ग तो रत्नत्रय है, उस Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार [ २६ जीवो उवप्रोगमओ, उवमोगो णाणदसणी होइ । णाणुवमोगो दुविहो, सहावरणार विभावणारणं ति ॥१०॥ जीव उपयोगमय: उपयोगो ज्ञानदर्शनं भवति । ज्ञानोपयोगो द्विविधः स्वभावज्ञान विभाषमानमिति ॥१०॥ उपयोगमय लक्षण सहित है जीव जगत में। उपयोग कहा ज्ञान व दर्शन द्विभेद में ।। ज्ञानोपयोग दो प्रकार से हैं बताये । स्वभावशान प्रो विभावज्ञान हैं गाये ।।१।। अत्रोपयोगलक्षणमुक्तम् । आत्मनाचेतत्यानुवर्ती परिणामः स उपयोगः । अयं धर्मः । जोयो धर्मों । अनयोः सम्बन्धः प्रदीपप्रकाशमत् । ज्ञानदर्शनविकल्पेनासो द्विविधः । अत्र ज्ञानोपयोगोऽपि स्वभावविभावमेदाद द्विविधो भवति । इह हि स्वभाषज्ञानम् प्रमूर्तम् अध्याराधम अतीन्द्रियम् अविनश्वरम्, तच्च कार्यकारणरूपेण द्विविधं भवति । रत्नत्रय में मम्यग्दर्शन भी एक रत्न है जो कि प्रधान है और प्राप्त आगम तथा तत्त्वार्थ का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है इसलिये सम्यग्दर्शन के वित्यभून इन छह द्रव्यों को भी यहां र. न कह दिया है । जो इन छह द्रव्यरूपी रन्न या हार बनाकर गले में पहन लेते हैं उनको रत्नों के भूषण से भूषित देखकर मुक्ति लक्ष्मी व रगण कर लेती है अर्थात् जो इन द्रव्यों के अर्थ को समझकर अपनी श्रद्धा का विषय बनाते हैं वे मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं यह अभिप्राय हुआ। गाथा १० अन्वयार्थ-[जीवः उपयोगमयः] जीव उपयोगमय है । [उपयोगः ज्ञानदर्शनं भवति ] उपयोग ज्ञान और दर्शनरूप है [ ज्ञानोपयोगः ] ज्ञानोपयोग [ स्वभावज्ञानं विभावज्ञानं इति द्विविधः] स्वभावज्ञान और विभावज्ञान इसप्रकार से दो प्रकार का है। टोका- यहां गाथा में उपयोग का लक्षण कहा गया है आत्मा के चैतन्य का अनुवर्तन करने वाला परिणाम उपयोग है । यह उपयोग धर्म है और जीव धर्मी है । इन धर्म और धर्मी का सम्बन्ध प्रदीप और प्रकाश के समान है। ज्ञान और दर्शन के भेद से यह उपयोग दो प्रकार का है। यहां पर ज्ञानोपयोग भी Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] नियमसार कार्य तावत् सकलविमलकेवलज्ञानम् । तस्य कारणं परमपारिणामिकमावस्थितत्रिकालनिरुपाधिरूपं सहजनानं स्यात् । केवलं विभावरूपाणि ज्ञानानि त्रीणि कुमतिकुश्रुतविभङ्ग[नाम] भानि भवति । एतेषाम् उपयोगभेदानां ज्ञानानां भेदो वक्ष्यमाणसूत्रयोदयोर्बोद्धव्य इति । ( मालिनी ) अय सफलजिनोक्तज्ञानभेदं प्रबुद्ध्वा [प्रबुध्य] परिहतपरभाषः स्वस्वरूपे स्थितो यः । सपदि विशति पचच्चिच्चमत्कारमात्र स मति परमश्रीकामिनी कामरूपा ॥१७॥ . - -.. - स्वभावज्ञान और विभावज्ञान के भेद से दो प्रकार का है । इनमें स्वभावज्ञान अमूर्तिक, अव्याबाध, अतीन्द्रिय और अविनश्वर है और वह कार्य तथा कारण के भेद से दो प्रकार का होता है । सकल विमल केवलज्ञान कार्य स्वभावज्ञान है, उसका कारण परम पारिणामिकभाव में स्थित त्रिकाल निरुपाधिरूप सहजज्ञान है अर्थात् यह सहजज्ञान कारण स्वभावज्ञान है। केवल विभावरूप ज्ञान तीन हैं, कुमति, कुश्रुत और विभंगावधि ये उनके नाम हैं। इन उपयोग के भेदरूप ज्ञानों के भेद आगे कही गई दो सूत्र गाथाओं से जानना चाहिये । विशेषार्थ--- टीकाकार श्री मुनिराज ने स्वभावज्ञान को केवलज्ञान वहा है पुनः उसके कार्य और कारणरूप से दो भेद कर दिये हैं । व्यक्तरूप केवलज्ञान तो कार्यज्ञान है तथा शक्तिरूप केवलज्ञान कारणज्ञान है । अर्थात् शनिश्चयनय मे परमपारिणामिक भाव के अवलम्बन से अपनी आत्मा के ज्ञान को तीनों कालों में उपाधिरहित, शुद्ध समझना यह सहजज्ञान है यही केवलज्ञान के लिये बीजभूत कारण होने से कारणज्ञान कहा गया है यहां ऐसा समझना चाहिये । [ अब टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारीदेव ज्ञान के फल को बताते हुये श्लोक कहते हैं-] (१७) श्लोकार्थ-जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कथितज्ञान के भेदों को जान करके परभावों का परिहार कर चुके हैं जो पुरुष परभावों से रहित हुये अपने स्वरूप में Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार केवर सहा तं सहाणार ति । सष्णाणिव रवियप्पे, बिहावणाणं हवे दुविहं ॥११॥ सगाणं चउभेयं मदिसुंदधोही तहेव मरणपज्जं । गाणं तिवियप्पं, मदियाई भेदवो चेव ॥१२॥ केवलमिन्द्रियरहितं प्रसहायं तत्स्वभावज्ञानमिति । संज्ञानेतर विकल्पे विभावज्ञानं भवेद् द्विविषम् ॥ ११॥ संज्ञानं चतुर्भेदं मतिश्रुतावधयस्तथैव मनःपर्य्ययम् । श्रज्ञानं त्रिविकल्पं मत्यादेर्भेदतश्चैव ॥१२॥ नीन्द्रिय असहाय है पर से । स्वयं से ।। इन्द्रिय रहित केवल सुनाम है स्वभावज्ञान जो है विभावज्ञान उसके भेद दो कहूँ । संज्ञान श्री अज्ञान से सब जानते रहें ।। ११ ।। [ ३१ स्थित होते हुये चिच्चमत्कार मात्र आत्मा में शीघ्र ही प्रवेश करते हैं वे मुक्ति लक्ष्मी के पति हो जाते हैं । भावार्थ- पहले गाया में प्राचार्य श्री ने छह द्रव्यों का वर्णन करने को कहा था सो यहां जीव द्रव्य के वर्णन में जीव का लक्षण उपयोग है इसके ज्ञान और दर्शन ये दो भेद हैं इत्यादि रूप से ज्ञान का वर्णन किया है। टीकाकार ने कलश में इसी आशय से यह कहा कि जो ज्ञान के भेदों को जानकर परभावों से रहित होते हुये अपने ज्ञान स्वरूप आत्मा में ही लोन हो जाते हैं वे मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं । गाथा ११-१२ अन्वयार्थ - [ केवलम् ] जो ज्ञान केवल [ इंद्रियरहितं ] इन्द्रियों की सहायता से रहित [ असहायं ] असहाय है [ तत्स्वभावज्ञानं इति ] वह स्वभावज्ञान है । [विभावज्ञानं ] विभावज्ञान [ संज्ञा नेतर विकल्पे ] सम्यग्ज्ञान तथा मिथ्याज्ञान के भेदरूप से [ द्विविधं भवेत् ] दो प्रकार का है 1 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ । नियमसार संज्ञान के हैं चार भेद सुरि बतायें । मति श्रुत प्रवधि व मनःपयों से कहाये ।। प्रज्ञान के भी तीन भेद जान लीजिये। मति श्रुत अवधि हि तीन को विपरीत कीजिये ।।१२।। अत्र च ज्ञान मेदलक्षणमुक्तम् । निरुपाधिस्वरूपत्वात केवलम्, निरावरणस्वरूपत्वात् ऋमकरणव्यवधानापोहम्, अप्रतिवस्तुव्यापकत्वात् प्रसहायम्, तत्कार्यस्वभावज्ञानं भवति । कारणज्ञानमपि तादृशं भवति । कुतः, निजपरमात्मस्थितसहजदर्शनसहजचारित्रसहजसुखसहजपरमचिच्छक्तिनिजकारणसमयसारस्वरूपाणि च युगपत् परिच्छेत्तुं समर्थत्वात् तथाविषमेव । इति शुद्धज्ञानस्वरूपभुक्तम् । टीका-यहां पर ज्ञान के भेद और लक्षण को कहा है । उपाधिरहित म्वरूप वाला होने से जो केवल है, आवरण रहित स्वरूप वाला होने से क्रम और इन्द्रियों के व्यवधान-अंतर से रहित, अतीन्द्रिय है, एक-एक वस्तु में व्यापक नहीं होने से असहाय है अर्थात् समस्त वस्तुओं को एक साथ व्याप्त करके जान लेता है इसलिये असहाय है, वह कार्य स्वभावज्ञान होता है। कारण स्वभावज्ञान भी वैसा ही होता है । कैसे १ निजपरमात्मा में स्थित सहजदर्शन, सहजचारित्र, सहजसख, सहजपरमर्चतन्य शक्तिरूप जो निजकारण समयसार के स्वरूप हैं उनको एक साथ जानने में समर्थ होने से वह कारण स्वभावज्ञान, कार्यस्वभावज्ञान के समान ही है इस प्रकार से शुद्धज्ञान का स्वरूप कहा है । अब ये शुद्ध अशुद्ध ज्ञान के स्वरूप और भेद कहे जाते हैं । मतिज्ञान उपलब्धि भावना और उपयोग से तथा अवग्रह, ईहा, प्रवास और धारणा के भेद से अथवा बहु, बहुविध आदि के भेद से अनेकों भेदों से सहित है । श्रुतज्ञान लब्धि और भावना के भेद से दो प्रकार का है। अवधिज्ञान देशाबधि, सर्वावधि और परमावधि के भेद से तीन प्रकार का है और मनःपर्ययज्ञान ऋजुमति तथा विपुलमति के विकल्प से दो प्रकार का है । परमभाव में स्थित सम्यग्दृष्टि के ये चार संज्ञान-सम्यग्ज्ञान होते हैं । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान मिश्याहृष्टि को प्राप्त करके कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और विभंगज्ञान इन भिन्न नामों को प्राप्त हो गये हैं। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार [ ३३ इदानीं शुद्धाशुद्धज्ञानस्वरूपमेदरस्वयमुच्यते । अनेकविकन्पसनाथं मतिज्ञानम् उपलब्धिभावनोपयोगाच्य अवहादिभेदाच्च बहबहुविधादिमेवाद्वा । लब्धिभावनाभेदाछ तज्ञानं द्विविधम् । देशसर्वपरमभेदादव विज्ञानं त्रिविधम् । ऋजुविपुलमतिविकल्पामनःपर्ययज्ञानं च द्विविधम् परमभावस्थितस्य सम्यग्दृष्टेरेतसंज्ञानचतुष्कं भवति । मप्तिश्रुतावधिज्ञानानि मिथ्यादृष्टि परिप्राप्य कुमतिकुश्रुतविभङ्गजानानोति नामान्तराणि प्रपेविरे । अत्र सहजज्ञानं शुद्धान्तस्तत्त्वपरमतत्त्वव्यापकत्वात् स्वरूपप्रत्यक्षम् । केवलज्ञानं सकलप्रत्यक्षम् । 'रूपियवधेः' इति वचनादधिज्ञानं विकलप्रत्यक्षम् । तदनन्तभागव-- - - - - -- - ------- इनमें सहजज्ञान शुद्ध अंतस्तत्त्व-शुद्ध चैतन्यतत्त्वरूप परमतत्त्व में व्यापक होने से स्वरूप प्रत्यक्ष है, केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष है "रूपिववधेः” अवधिज्ञान रूपी पदार्थों को विषय करता है, इस वचन से अवधिज्ञान विकल प्रत्यक्ष है और अवधिज्ञान के अनन्तवें भाग स्वरूप वस्तु के अंश को ग्रहण करने वाला होने से मनःपर्ययज्ञान भी विकल प्रत्यक्ष है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों भी परमार्थ से परोक्ष हैं और व्यवहार से प्रत्यक्ष हैं। विशेष बात यह है कि इन उपर्युक्त ज्ञानों में साक्षात् मोक्ष के लिये मूलभूत, एक निजपरमतत्व में स्थित सहजज्ञान ही है। तथा च पारिणामिक भाव स्वभाव से भव्यजीवका परम स्वभाव होने से इस सहजज्ञान से भिन्न अन्य कुछ उपादेय नहीं है । यह सहजज्ञान कैसा है ? (१) यह सहज चैतन्य का विलास रूप है (२) सहज परम वीतराग सुखामृत स्वरूप है (३) अप्रतिहत-विघ्नबाधा रहित निरावरण परम चैतन्य शक्तिरूपा है । (४) सदा अन्तर्मुख होने से अपने स्वरूप में अविचल स्थिति रूप सहज परम चारित्ररूप है (५) तीनों कालों में अविच्छिन्न रूप होने से सदा सन्निहित परम चैतन्यरूप के श्रद्धानरूप है ऐसे (निश्चयरत्नत्रय रूप से परिणत) सहजज्ञान के द्वारा स्वाभाविक अनन्त चतुष्टय से सनाथ और अनाथ जो मुक्ति सुन्दरी उसके नाथ ऐसी अपनी प्रात्मा की भावना करना चाहिये-अनुभव करना चाहिये । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] नियमसार स्त्वंशग्राहकरवान्मनःपर्ययज्ञानं च विकलप्रत्यक्षम् । मतिश्रुतज्ञानद्वितयमपि परमार्थतः परोक्षं व्यवहारतः प्रत्यक्षं च भवति । कि घ उक्तेषु ज्ञानेषु साक्षान्मोक्षमूलमेकं निजपरमतत्त्वनिष्ठसहजज्ञानमेव । अपि च पारिणामिकभावस्वभावेन भव्यस्य परमस्वभावत्वात् सहजज्ञानादपरमुपादेयं न समस्ति । अनेन सहजचिद्विलासरूपेण सदा सहजपरमवीतरागशर्मामृतेन अप्रतिहतनिरावरणपरमचिच्छक्तिरूपेण सदान्तमुखे स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपसहजपरमचारित्रेण त्रिकालेष्वव्युच्छिन्नतया सदा सन्निहितपरमचिद्रूप --- . 'इसप्रकार संसाररूपी बेल के मूल को काटने के लिये 'हंसियाम्प' इस कथन के द्वारा ब्रह्मस्वरूप प्रात्मा का उपदेश किया है। विशेषार्य-थी भगवान कुन्दकुन्ददेव ने गाथा में केवलज्ञान को स्वभावज्ञान कहा है किन्तु टीकाकार ने उसके दो भेद कर दिये हैं कार्यस्वभावज्ञान, कारणस्वभाबज्ञान । कार्यस्वभावज्ञान तो नकल पदार्थों को प्रत्यक्ष करने वाला केवलज्ञान है और कारणस्वभावज्ञान शक्तिरूप केवलज्ञान है यह अपने स्वरूप को प्रत्यक्ष करने वाला है अर्थात् वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञान से वीतरागो मुनि अपनी शुद्धात्मा का अनुभव करते हैं यह वही कारणज्ञान है । यहां पर उसे ही सहजज्ञान कहा है उस सहजज्ञान के जो पांच विशेषण दिये गये हैं वे सभी शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से हैं, इसीलिये वह केवलज्ञानरूप कार्यस्वभावज्ञान के समान कहा गया है। यह कारण स्वभावज्ञान शद्धोपयोगी मुनियों के ही होना है और बारहव गुणस्थान में अपने पूर्णस्वरूप से प्रगट होता हमा तेरहवें गुणस्थान के कार्य स्वभावज्ञानरूप केवलज्ञान को प्रगट करके कारण शब्द के अर्थ को सार्थक कर देता है। चौथे, पांचवें और छठे गुणस्थान में यह श्रद्धा का विषयमात्र है। आगे विभावज्ञान अर्थात् क्षायोपशमिक ज्ञान के सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान की अपेक्षा दो भेद हैं । सम्यग्ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार भेद हैं और मिथ्याज्ञान के कुमति, कुश्रुत और विभंग की अपेक्षा तीन भेद हैं । अनादिकाल से मिथ्यादृष्टि जीवों के मिथ्यात्व के निमित्त से ये ज्ञान कुज्ञान रूप परिणत हो रहे हैं। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सिद्धान्त की अपेक्षा परोक्षज्ञान हैं और न्याय ग्रन्थों की अपेक्षा Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीच प्रधिकार श्रद्धानेम अनेन स्वभावानंतचतुष्टयेन सनाथम् अनाचमुक्तिसुन्दरीनाथम् पात्मानं मार्ग भावयेत् । इत्यनेनोगभ्यास संसार मूललवित्रण ब्रह्मोपदेशः कृत इति । ( मालिनी ) इति निगवितभेदज्ञानमासाच भव्यः परिहरतु समस्तं घोरसंसारमूलम् । सुकृतमसुकृतं वा दुःखमुच्चः सुखं वा तत उपरि समग्र शाश्वत प्रयाति ॥१८॥ ( अनुष्टुभ् ) परिग्रहाग्रह मुक्त्वा कृत्वोपेक्षां च विद्महे । निव्यंग्रप्रायचिन्मात्रनिग्रहं भावयेद् बुधः ॥१६॥ - - - -- -- - - - -- - - - - - - - -- - व्यवहार में प्रत्यक्ष होने से इन्द्रिय जन्य मतिज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहलाता है अवधि और मनःपर्यय ये एक देश प्रत्यक्षजान हैं। (१८) श्लोकार्थ-इसप्रकार से कहे गये भेदज्ञान को प्राप्त करके भव्यजीव घोर संसार के मूलकारण पुण्य या पाप अथवा सुख और दुःख को अत्यन्त रूप से परिहार करें-छोड़ें, पुनः उसके बाद परिपूर्ण शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेंगे । (१९) श्लोकार्य-बुद्धिमान् पुरुष परिग्रह के आग्रह को छोड़कर और अपने शरोरमात्र परिग्रह में उपेक्षा करके निराकुल चिन्मात्र शरीर वाली अपनी आत्मा की भावना करें। भावार्थ-पूर्व में सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करके शरीरमात्र परिग्रह को ग्रहण करें पुनः वे मुनि शरीर से भी निर्मम होकर निराकुलता स्वरूप चिच्चैतन्य मात्र हो जिसका शरीर है ऐसी अपनी प्रात्मा की भावना करें-ध्यान करें। यहां यह अभिप्राय स्पष्ट है कि परिग्रह से लिप्त हुये श्रावक शरीर से उपेक्षित होकर अशरीरी आत्मा का ध्यान नहीं कर सकते हैं । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - ३६ ] नियमसार ( शार्दू मतियोडिट ! शस्ताशस्तसमस्तरागविलयान्मोहस्य निर्मूलनाद् द्वेषाम्भ:परिपूर्णमान सघटप्रध्वंसनात्पावनम् । ज्ञानज्योतिरनुत्तम निरुपघि प्रव्यक्ति नित्योदितं भेदज्ञानमहीजसत्फलमिदं वन्धं जगन्मंगलम् ॥२०॥ ( मंदाक्रांता) मोक्षे मोक्षे अयति सहजज्ञानमानन्दतानं निर्लाबाचं स्फुटितसहजावस्थमन्तर्मुखं च । लीनं स्वस्मिन्सहजविलसचिचचमत्कारमात्रे स्वस्य ज्योति प्रतिहततमोवृत्ति नित्याभिरामम् ॥२१॥ -. . - - - - - (२०) श्लोकार्थ-प्रशस्त और अप्रशस्त समस्त राग का बिलय हो जाने से, मोह का जड़ मल से नाश हो जाने से तथा द्वेष रूपी जल से परिपूर्ण-भरे हये मन रूपी घट के प्रध्वंस हो जाने से-फट जाने से पवित्र, सर्वश्रेष्ठ, उपाधिरहित, नित्य उदयरूप ऐसी ज्ञान ज्योति प्रगट होती है जो कि भेदज्ञान रूपी वृक्ष का उत्तम फल है, जगत् में मंगलरूप है और वंद्य है-सभी से वंदनीय है। मावार्थ-मोह, राग और द्वेष के निर्मूल विनाश हो जाने से केवलज्ञानरूपी परम ज्योति प्रगट होती है यह कर्मों को उपाधि से रहित जगत् में सर्वोत्तम है, सदैव ही उदयरूप है, कर्मरूपी बादल अब कभी इसे ढक नहीं सकते हैं इस केवल ज्ञान का मूल भेद विज्ञान है इस भेद विज्ञान रूप वृक्ष से यह केवलज्ञान रूप फल उत्पन्न होता है । यह केवलज्ञान जगत् में सभी प्राणियों के लिये मंगल है और पूज्य है अतः सर्वप्रयत्न करके सम्यक्त्व रूपी बीज को संयम रूपी भुमि में बो कर तपरूपी जल से सिंचित करते हुये भेदज्ञान रूपी वृक्ष को बढ़ाना चाहिये तब इस वृक्ष से केवलज्ञान रूप फल को प्राप्त कर सकेंगे यहां यह अभिप्राय हुआ ! (२१) लोकार्थ-पानन्द से तन्मय-ग्रानन्दस्वरूप, अव्याबाध-बाधाओं से रहित ऐसा सहज-स्वाभाविकज्ञान मोक्षे-मोक्ष में जयशील हो रहा है जिसकी सहज Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 햐 जीव अधिकार ( अनुष्टुभ् ) सहजज्ञानसाम्राज्य सर्वस्वं शुद्ध चिन्मयम् । ममात्मानमयं ज्ञात्वा निर्विकल्पो भवाम्यहम् ||२२|| तह दंसरगउवप्रोगो, ससहावेदरवियप्पदो दुविहो । केवल मंदिर हिय, असहायं तं सहावमिवि भणिद ||१३|| तथा वर्शनोपयोगः स्वस्वभावतरविकन्पतो द्विविधः । केवलमिन्द्रियरहितं श्रसहायं तत् स्वभाव इति भणितः ।। १३ ॥ 5: उसही तरह यह दर्शनोपयोग द्विविध है । स्वभाव दरश श्री विभावदर्श कथित है || इन्द्रिय रहित मतीन्द्रिय प्रसहाय जो रहे । उस ही स्वभावदर्श को केवलदरस कहें ।। १३ ॥ [ ३७ दर्शनोपयोगस्वरूपाख्यानमेतत् । यथा ज्ञानोपयोगो बहुविधविकल्पसनाथः दर्शनोपयोगश्च तथा । स्वभावदर्शनोपयोगो विभावदर्शनोपयोगश्च । स्वभावोऽपि स्वाभाविक अवस्था प्रगट हो गई है जो अंतर्मुख- श्रात्मा के अंतरंग में प्रगट है, सहज विलास रूम चिच्चमत्कार मात्र अपनी ग्रात्मा में लीन है- तन्मय है, जिसने अपनी ज्योति से सम्पूर्ण अंधकार अवस्था को नष्ट कर दिया है और जो नित्य ही सुन्दर है ऐसा स्वाभाविक ज्ञान सम्पूर्ण मोक्ष में कर्म रहित अवस्था में जयशील हो रहा है । (२२) श्लोकार्थ - सहज-स्वाभाविक ज्ञानरूपी साम्राज्य ही जिसका सर्वस्व है, ऐसे शुद्ध चैतन्यमय अपने श्रात्मा को जानकर मैं निर्विकल्प होऊँ । गाथा - १३ अन्वयार्थ – [ तथा ] उसीप्रकार [ दर्शनोपयोगः ] दर्शनोपयोग [ स्वस्थ - भावेतर विकल्पतः ] अपने स्वभाव और विभाव के भेद से [ द्विविधः ] दो प्रकार का है । [ केवलं ] जो केवल [ इन्द्रियरहितं ] इन्द्रियों से रहित और [ असहाय ] असहाय है [ तत्स्वभावः इति मस्तिः ] वह स्वभाव दर्शनोपयोग कहा गया है । टीका - यह दर्शनोपयोग के स्वरूप का कथन है । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ ] नियमसार द्विविधः कारणस्वभावः कार्यस्वभावश्चेति । तत्र कारणदृष्टिः सदा पावनरूपस्य प्रौदपिकादिचतुरस्परमा टानामगोचरस्य सहजपरमपारिणामिकभावस्वभावस्य कारणसमयसारस्वरूपस्य निरावरणस्वभावस्य स्वस्वभाव सदामात्रस्य परम चैतन्यसामान्यस्वरूपस्य प्रकृत्रिमपरमस्वस्वरूपाविश्चल स्थितिसनाथशुद्ध चारित्रस्य नित्यशुद्ध निरंजनबोधस्य जैसे ज्ञानोपयोग बहुत प्रकार के भेदों से सहित हैं वैसे ही दर्शनोपयोग भी बहुत प्रकार के भेदों से सहित है । सबसे पहले उसके स्वभाव दर्शनोपयोग और विभावदर्शनोपयोग ऐसे दो भेद हैं । स्वभाव के भो कारणस्वभाव और कार्यस्वभाव ऐसे दो भेद हैं । उसमें कारणदर्शनोपयोग शुद्ध आत्मा के स्वरूप का श्रद्धानमात्र ही है। शुद्ध आत्मा का स्वरूप कैसा है ? ( १ ) सदा पाचनरूप ( २ ) श्रीदयिक आदि चारों जो कि विभाव स्वभाव रूप परभाव हैं उनके अगोचर ( ३ ) सहज परमपारिणामिक भाव स्वरूप (४) कारण समयसार स्वरूप ( ५ ) निरावरण स्वभावरूप ( ६ ) अपने स्वभाव - की सत्तामात्र ( ७ ) परम चैतन्य का सामान्य स्वरूप ( ८ ) अकृत्रिम परम अपने स्वरूप में अविचल स्थिति से सहित शुद्ध चारित्ररूप ( ६ ) नित्यशुद्ध निरञ्जन ज्ञानरूप और (१०) अखिल दुष्ट पाप रूप वीर वैरी की सेना की ध्वजा को विध्वंस करने में कारण स्वरूप ऐसा है । ऐसी श्रात्मा के स्वरूप का श्रद्धान मात्र ही निश्चित रूप से कारणस्वभाव दर्शनोपयोग है । दूसरा कार्यदर्शनोपयोग, दर्शनावरण और ज्ञानावरण प्रमुख घाति कर्मों के क्षय से ही उत्पन्न होता है । यह कार्यदर्शनोपयोग किसके होता है ? जो निश्चित ही क्षायिक जीव हैं, सकल विमलकेवलज्ञान के द्वारा तीनों भुवनों को जानने वाले हैं, अपनी आत्मा से उत्पन्न परम वीतराग सुखरूपी अमृत के समुद्र हैं, यथाख्यात नामक कार्यरूप शुद्धचारित्र स्वरूप हैं, सादि सान्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाव वाले शुद्ध सद्भुत व्यवहारनय स्वरूप हैं, त्रैलोक्य के भव्य जीवों के द्वारा प्रत्यक्ष वंदना के योग्य हैं इन विशेषणों से विशिष्ट जो तीर्थंकर परमदेव हैं उनके केवलज्ञान के समान युगपत् लोकालोक को व्याप्त करने वाला यह दर्शनोपयोग - केवलदर्शन भी प्रकार कार्य और कारण रूप से स्वभाव दर्शनोपयोग को कहा है। पयोग भी उत्तर सूत्र में वर्णित है उसे वहीं पर दिखायेंगे ।. होता है । इस विभाव दर्शनो Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार [ ३६ । निखिलदुरघवीरवरिसेनापजयन्तीविध्वंसकारणस्य तस्य खलु स्वरूपश्रद्धानमात्रमेव । प्रन्या कार्यदृष्टिः वर्शनज्ञानावरणीयप्रमुखघातिकर्मक्षयेरण जातव । अस्य खलु मायिकजीवस्य --- ---- - -- - ---- - - - - - - .... --~-- लिगधा - हां भी गाया में आचार्यवर्य श्री कुन्दकुन्ददेव ने स्वभावदर्शन से केवलदर्शनको ग्रहण किया है किन्तु टीकाकार ने स्वभावदर्शनोपयोग को स्वभावदृष्टि शब्द से कहा है और उसके कार्यदृष्टि तथा कारणदृष्टि ऐसे दो भेद कर दिये हैं । उसमें कार्यदृष्टि तो व्यक्त हुआ केवल दर्शन ही है और कारणदृष्टि से अपने आत्मा के श्रद्धानरूप परिणाम को विवक्षित किया है। तथा इसे निश्चय सम्यक्त्व रूप से घटित किया है । शुद्धनिश्चयनय से जो प्रात्मा का शुद्धस्वरूप है जो कि सम्पूर्ण कर्मोपाधि से रहित सिद्धों के स्वरूप के समान है उस शुद्ध स्वरूप का श्रद्धानमात्र ही कारण दृष्टि है ऐसा स्पष्ट किया है यह कारणा स्वभाव दृष्टि भी शुद्धोपयोगी महामुनियों के ही हो सकेगी। इसी प्रकार से दर्शनोपयोग को सम्यक्त्व रूप से घटित करने का प्रकरण परमात्मप्रकाश में भी देखा जाता है । तद्यथा "सयलपयत्थहं जं गहणु जीवहँ अग्गिमु होइ। . वत्थुविसेस विज्जियउ न णियदंमा जोइ ।।३४॥" अर्थ---जो जीवों के ज्ञान के पहले सकल पदार्थों का वस्तु विशेष से रहित ग्रहण होता है उसे तुम निजदर्शन जानो। टोकाकार श्री ब्रह्मदेव मुनि कहते हैं - जो सम्पूर्ण पदार्थ ग्रहण-अवलोकन जीवों के होता है, जो कि सविकल्प ज्ञान के पूर्व होता है वह अवलोकन यह शुक्ल है' इत्यादि विकल्प से रहित उसे ही तृम निज प्रात्मा का दर्शन-अवलोकन जानों। यहां पर प्रभाकर भट्ट मुनिराज प्रश्न करते हैं कि "आपने निज आत्मा के अबलोकन को दर्शन कहा और यह सत्तावलोकन दर्शन तो मिथ्यादृष्टि जीवों में भी है उन्हें भी मोक्ष हो जावेगी।" इसका परिहार करते हैं कि चक्षु-प्रचक्षु-अवधि और केवल के भेद से दर्शन के चार भेद हैं। इन - --- - - -- १. परमात्म प्रकाश पृ. १५४ स १५ । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] नियमसार सकलविमलकेवलायबोषयुद्धभुवन त्रयस्य स्वात्मोत्थपरमवीतरागसुखसुधासमुद्रस्य यथाख्याताभिधानकार्यशुद्धचारित्रस्य साद्यनिधानामूर्तातोंद्रियस्वभावशुद्धसद्भुतव्यवहारनयास्मकस्य त्रैलोक्यभन्यजनताप्रत्यक्षवंदनायोग्यस्य तीर्थकरपरमदेवस्य केवलज्ञानवदियमपि --.--- चारों में से जो मानस अचक्षु दर्शन है वह आत्मा को ग्रहण करने वाला है और वह दर्शन मिथ्यात्वादि सप्त प्रकृतियों के उपशम-क्षयोपशम अथवा क्षय से जनित तत्वार्थश्रद्धान लक्षण सम्यक्त्व के प्रभाव से 'शुद्धात्म तत्त्व ही उपादेय हैं इसप्रकार के श्रद्धान के अभाव में उन मिथ्यादृष्टि जीवों के नहीं होता है ऐसा भावार्थ है । प्रागे और भी कहते हैं-- "दंसणपुब्बु हवेइ फुड जं जीवहँ विण्णाणु ।। ___ वत्थुविसेसु मुणतु जिय तं मुणि अविचलु णाणु ।।३५॥" अर्थ-जो जीवों का ज्ञान है वह निश्चित ही दर्शन पूर्वक होता है, वह ज्ञान वस्तु के विशेष को जानने वाला है, हे जीव ! उन ज्ञान को तुम अविचल जानो । टीका- जीवों के सामान्यग्राहक निविकल्प सत्तावलोकन दर्शन पूर्वक विज्ञान होता है और वह ज्ञान वस्तु के विशेष को-वर्ग, संस्थान यादि विकल्प पूर्वक वस्तु को जानना है । हे जीव ! तुम उस ज्ञान को अविचल-संशय, विपर्यय और अनध्यबसाय से रहित जानो । यहां पर दर्शन पूर्वक ज्ञान का व्याख्यान किया है । यद्यपि शुद्धात्मभावना के व्याख्यान में वह प्रस्तुत नहीं है फिर भी भगवान् श्री योगिन्द्रदेव ने कहा है । क्यों कहा है ? चक्षु-प्रचक्षु अवधि और केवल के भेद से दर्शनोपयोग चार प्रकार का होता है । इन चारों में दूसरा जो मानसरूप निर्विकल्प अचक्षुदर्शन है वह जिसप्रकार भव्य जीव के दर्शनमोह और चारित्रमोह के उपशम-क्षयोपशम या क्षय का लाभ होने पर शुद्धात्मा की रुचि रूप वीतराग सम्यक्त्व होता है और इसी प्रकार से शुद्धात्मानुभूति की स्थिरता लक्षण वीतराग चारित्र होता है उस काल में वह पूर्वोक्त सत्तावलोकन लक्षण मानस निर्विकल्प दर्शन पूर्वोक्त निश्चय सम्यक्त्व और निश्चयचारित्र के बल से निर्विकल्प निजशुद्धात्मानुभूति ध्यान का सहकारी कारण होता है और वह पूर्वोक्त भव्य जीव के ही, न कि अभव्य जोव के । क्यों ? क्योंकि अभव्य के निश्चय सम्यक्त्व और चारित्र का अभाव है ऐसा भावार्थ हुआ । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार [ ४१ युगपल्लोकालोकव्यापिनो । इति कार्यकारणरूपेण स्वभावदर्शनोपयोगः प्रोक्तः । विभावदर्शनोपयोगयुत्तरसूत्रस्थितस्वात् तव दृश्यत इति । ( इंद्रवज्रा ) हरज्ञप्तिवृत्यात्मक मेकमेव चैतन्यसामान्यनिजात्मतत्वम् । मुक्तिस्पृहाणामयनं तदुच्चैरेसेन मार्गेण विना न मोक्षः ||२३|| निष्कर्ष यह निकला कि यहां पर भी दी दोहक सूत्र की टीका में प्राचार्य ने स्पष्ट रूप से कहा है कि दर्शनोपयोग का जो एक भेद मानस प्रदर्शन है वह आत्म स्वरूप को ग्रहण करने वाला है निजशुद्धात्मानुभूति के ध्यान में वह सहायक कारण होता है। उसी प्रकार यहां पर भी नियमसार की टीका में श्री पद्मप्रभमलधारी देव ने 'दर्शनोपयोग के लक्षण में स्वरूप के श्रद्धानमात्र को ही कारणदृष्टि शब्द से कहा है अर्थात् कारणस्वभाव दर्शन रूप कहा है । [ग्रव टीकाकार श्री मुनिराज श्लोक कहते हैं - ] ( २३ ) श्लोकार्थ - सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र स्वरूप एक ही चैतन्यसामान्य अपना ग्रात्म तत्त्व है । मुक्ति की इच्छा करने वालों के लिये अतिशय रूप से वह मार्ग है क्योंकि इस मार्ग के बिना मोक्ष नहीं है अर्थात् सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग है । प्रभेद रत्नत्रय में भी इन तीनों की ऐकाय परिणति होती है वही चैतन्यसामान्य निजात्म तत्त्व है उस अद्भुत रूप तत्त्व को प्राप्त किये बिना मोक्ष नहीं हो सकती है । १ – कुछ लोग दर्शनोपयोग में सम्यक्त्व के लेने से चौंक उठते हैं और अन्धकार को असत्यमाथी एवं अम कहने का भी यतिसाहस कर बैठते हैं किन्तु उन्हें इन अन्य ग्रंथों का तद्वत् अर्थ देखकर ग्रन्थकारों के प्रति श्रश्रद्धा नहीं करना चाहिये। ये सिद्धान्तग्रन्थ नहीं हैं प्राध्यात्मिक ग्रन्थ हैं। इनकी अपेक्षाओं को समझना चाहिये । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] +41 नियमसार चक्खु श्रचक्खू प्रोही, तिणि वि मरिणदं विभावविट्ठित्ति । पज्जाश्रो दुवियप्पो, सपरावेक्खां य गिरवंक्खी ॥१४॥ चक्षुरचक्षुरयघयस्तिस्त्रोपि मणिता विभावदृष्टय इति । पर्यायो द्विविकल्पः स्वपरापेक्षश्च निरपेक्षः ||१४|| चक्षू प्रचक्षु श्रवधीदर्शन ये तीन है । ये ही विभावदर्शन के भेद तीन हैं । पर्याय के दो भेद है इस ग्रन्थ में गाये । वे तो स्वपर सापेक्ष श्री निरपेक्ष कहायें ||१४|| अशुद्धदृष्टिशुद्धाशुद्धपर्यायसूचनेयम् । मतिज्ञानावरणीय कर्मक्षयोपशमेन यथा मूर्त वस्तु जानाति तथा चक्षुर्दर्शनावरणीय कर्मक्षयोपशमेन मूर्त वस्तु पश्यति च । यथा श्रुतज्ञानावरणीय कर्मक्षयोपशमेन श्रुतद्वारेण द्रव्यश्रुत निगदितमूर्तमूर्तसमस्तं वस्तुजातं गाथा १४ अन्वयार्थ [ चक्षुरचक्षुरवधयः ] चक्षु दर्शन - अचक्षु दर्शन और अवधि दर्शन [ तिस्रः अपि ] ये तीनों भी [ विभावदृष्टयः ] विभाव दर्शन [ इति भणिताः ] कहे गये हैं । [ स्वपरापेक्षः च निरपेक्षः ] स्व-पर की अपेक्षा से सहित और स्वपर की अपेक्षा से रहित-निरपेक्ष [ पर्यायः द्विविधः ] ऐसी पर्यायें दो प्रकार की हैं । टीका - इस गाथा में अशुद्ध दर्शनोपयोग को तथा शुद्ध और अशुद्ध पर्याय की सूचना है । जैसे मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से ( जीव ) मूर्तिक वस्तु को जानता है उसी प्रकार चक्षुदर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से जीव मूर्तिक वस्तु को देखता है । जिस प्रकार से श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से श्रुत के द्वारा द्रव्यश्रुत में कथित मूर्तिक- श्रमूर्तिक समस्त वस्तु समूह को जीव परोक्षरूप से जानता है उसी प्रकार से अचक्षुदर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से जीव स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन चार इन्द्रियों के द्वारा उन-उन इन्द्रिय के योग्य विषयों को देखता है। जिसप्रकार अवधि Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 社 जीव अधिकार { ૪ परोक्षवृत्त्या जानाति तथैवाचक्षुदर्शनावरणीय कर्मक्षयोपशमेन स्पर्शन रसनप्राणोत्रद्वारेण सचोग्यविषयान् पश्यति च । यथा अवधिज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमेन शुद्धपुद्गलपर्यंत मूर्तद्रव्यं जानाति तथावधिदर्शनावरणीय कर्मक्षयोपशमेन समस्तमूर्त पदार्थ पश्यति व । प्रत्रोपयोगव्याख्यानानन्तरं पर्य्यायस्वरूपमुच्यते । परि समन्तात् मेवमेति गच्छतीति पर्याय: । अत्र स्वभावपर्यायः षड्द्रव्यसाधारणः श्रर्थपर्यायः अवाङ मनसगोचरः प्रतिसूक्ष्मः आगमप्रामाण्यादभ्युपगम्योऽपि च षड्ढा निवृद्धिविकल्पयुतः अनंतभागवृद्धिः ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से शुद्ध ( परमाणु प ) पुद्गल पर्यंत मूर्त द्रव्य को जीव जानता है उसीप्रकार अवधिदर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से जीव समस्त मूर्तिक पदार्थों को देखता है । जो 'परि-समंतात्' अर्थात् सब प्राप्त होती है सो पर्याय है । इसप्रकार से है । उसमें पट्टों में साधारण रूप रहने अब यहां पर उपयोग के व्याख्यान के अनन्तर पर्याय के स्वरूप को कहते हैंओर से भेदं एति - गच्छति अर्थात् भेद को यहां पर्याय का व्युत्पत्ति से सिद्ध अर्थ कहा वाली जो अर्थ पर्याय है उसे स्वभावपर्याय कहते हैं वह वचन और मन के अगोचर है, अतिसूक्ष्म है फिर भी ग्रागमप्रमाण से जानने योग्य है और छह प्रकार की हानि तथा छह प्रकार की वृद्धि के भेदों से सहित है। छह वृद्धि के नाम - अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि, अनन्तगुणवृद्धि ये वृद्धि के भेद हैं ऐसे ही हानि के भी छह भेद समझना चाहिये । अर्थात् ग्रनन्तभाग हानि, प्रसंख्यातभाग हानि, संख्यातभाग हानि, संख्यातगुण हानि, प्रसंख्यातगुण हानि, अनन्तगुण हानि । नर-नारक आदि व्यंजन पर्याय को अशुद्ध-विभाव पर्याय कहते हैं । I विशेषार्थ - यहां गाथा में भगवान् श्री कुन्दकुन्ददेव ने तीन प्रकार के क्षयोपशम दर्शन को विभाव दर्शन कहा है । टीकाकार ने मति श्रुत और अवधिज्ञान पुनः गाथा में पर्याय से तुलना करते हुये इन तीनों के लक्षण को स्पष्ट कर दिया है। का वर्णन करते हुये उसके दो भेद करके संक्षेप में उन दोनों के कर दिया है | प्रथम पर्याय तो स्वपर सापेक्ष है और पर्याय का लक्षण को भी सूचित दूसरा भेद स्वपर Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] नियमसार प्रसंख्यातभागवृद्धिः संख्यातभागवृद्धिः संख्यातगुणवृद्धिः असंख्यात गुणवृद्धिः अनन्त । गुणवृद्धिः, तथा हानिश्च नीयते । अशुद्धपर्यायो नरनारकादिव्यंजनपर्याय इति । ( मालिनी अथ सति परमावे शुद्धमात्मानमेकं सहजगुणमणीनामाकरं पूर्णबोधम् । भजति निशितबुद्धियः पुमान् शुष्टिः स भवति परमश्रीकामिनोकामरूपः ।।२४। ( मालिनी ) इति परगुणपर्यायेषु सत्सूचमानां हृदयसरसिजाते राजते कारणात्मा । सपदि समयसारं तं परं ब्रह्मरूपं मज भजसि निजोत्यं भव्यशार्दू लसत्वम् ॥२५।। - .--. निरपेक्ष है । आगे स्वयं ग्रन्यकार पर्याय के स्वभाव और विभाव ऐसे भेद करके उनके उदाहरण बताकर उनका लक्षण स्पष्ट करते हैं । [ अब टीकाकार विभाव पर्यायों में महित जीवों को शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना की प्रेरणा देते हुये तीन श्लोक कहते हैं ( २४ ) इलोकार्य-- जो तीक्ष्ण बुद्धिवाना शुद्ध सम्यग्दृष्टि पुरुष परभावों के होने पर भी सहज गुणरूपी मणियों की खान स्वरूप तथा पूर्ण ज्ञान रूप ऐसी अपनी शुद्धात्मा को भजता है ( आश्रय लेता है ) वह मुक्ति श्री रूपी कामिनी का वल्लभ होता है । विशेषार्थ-ग्रन्थकार ने नाथा में विभाव दर्शनोपयोग के तीन भेद और उनके लक्षण बतलाये हैं पुनः पर्याय का कथन करते हुये अर्थ और व्यञ्जन के भेद से पर्याय के दो भेद किये हैं । इनमें अर्थपर्याय को शुद्ध पर्याय एवं व्यञ्जन पर्याय को अशुद्धपर्याय कहा है। (२५ ) लोकार्य-इसप्रकार पर गुण और पर पर्यायों के होने पर भी उत्तम पुरुषों के हृदय कमल में कारण प्रात्मा विराजमान है । हे भव्योत्तम ! अपने Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार ( पृथ्वी ) क्वचिन्लसति सद्गुणः क्वचिदशुखरूपगुणः पचित्सहजपर्ययैः क्वचिदशुद्धपर्यायकः । सनाथमपि जीवसत्वमनाथं समस्तैरिदं । नमामि परिभावयामि सकलार्थसिद्ध सदा ॥२६॥ में हो उत्पन्न परमब्रह्म रूप उस समयसार को तू शोघ्र भज, जिसे कि तू भज मामा - भावार्थ--यद्यपि प्रात्मा में मतिज्ञान ग्रादि विभावगुण और नर नारकादि विभाव पर्यायें विद्यमान हैं फिर भी आचार्य कहते हैं कि इन विभाव गुण पर्यायों के विद्यमान रहने पर भी उत्तम पुरुषों-अंतरात्मा भव्य जीवों के द्वारा हृदय कमल में वारण आत्मा-बीजरूप परमात्मा विराजमान है । आचार्य सम्बोधन करते हुये प्रेरणा देते हैं कि भव्य सिंह ! अपने से ही उत्पन्न परमब्रह्म स्वरूप और समयसार स्वरूप अपनी शुद्ध प्रात्मा को भजो-अपनी यात्मा का हो ध्यान करो। वास्तव में 'सब्वे मुद्धा हु सुद्धणया' इस कथन के अनुसार सभी जोब शु द्वनय से शुद्ध हो हैं ऐसा समझकर अपनी आत्मा को शुद्ध समझ उसी का ध्यान करो। संसारी जीवों की यात्मा है वही परमात्मा के लिये कारणस्वरूप कारण आत्मा कहलाती है और जव परमात्म अवस्था प्रगट हो जाती है तब वही आत्मा कार्य प्रात्मा कहलाती है। इसलिये देह रूपी देवालय में भगवान् आत्मा विराजमान है तुम उसी का ध्यान करो ऐसा यहां अभिप्राय है। (२६ ) श्लोकार्थ--यह जीव तत्त्व कहीं पर अपने सद्गुणों से शोभायमान हो रहा है और कहीं अशुद्ध गुणों से दिख रहा है। कहीं पर स्वभाव पर्यायों से शोभित हो रहा है और कहीं पर प्रशुद्ध पर्यायों से शोभ रहा है। इन सभी से सहित होने पर भी इन सबसे रहित है ऐसे इस जीव तत्त्व को मैं सदा सकल अर्थ की सिद्धि के लिये नमस्कार करता हूं और उसी तत्त्व की ही भावना करता हूं। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार गरणारयतिरियसुरा, पज्जाया ते विभावमिदि भणिदा। कम्मोपाधिविवज्जियपज्जाया ते सहावमिदि भरिणदा ॥१५॥ नरनारकतियंक्सुराः पर्यायास्ते विभावा इति मणिताः । कर्मोपाधिविजितपर्यायास्ते स्वभावा इति मणिताः ॥१५॥ नर, नारको तिर्यंच देव के जनम धरें। इनका विभाव पर्ययों से सब कथन करें ।। कर्मों की उपाघि से रहित जो हैं हशायें । उनको स्वभाव पर्ययों से साधु बताय ।।१५।। स्वभावविभावपर्यायसंक्षेपोक्तिरियम् । तत्र स्वभावविभावपर्यायाणां मध्ये स्वभावपर्यायस्तावद द्विप्रकारेणोच्यते । कारणशुद्धपर्यायः कार्यशुद्धपर्यायश्चेति । इह हि सहजशुद्धनिश्चयेन अनाधनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखात्मकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपस्वभावानंतचतुष्टयस्वरूपेण सहाश्चितपंचम गाथा १५ अन्वयार्थ--[ नरनारकतियंकसराः पर्यायाः ] नर, नारक, नियंच और देवरूप जो पर्यायें हैं [ ते विभाषा: ] वे विभावपर्याय [ इति भणिताः ] इसप्रकार कही गई हैं। [ कर्मोपाधिविवर्जित पर्यायाः ] कर्मों की उपाधि से रहित जो पर्यायें हैं [ ते स्वभावाः ] वे स्वभाव पर्यायें [ इति भणिताः ] इस प्रकार कही गई हैं। टीका-यह स्वभाव और विभाव पर्यायों का संक्षेप कथन है । उन स्वभाव और बिभाष पर्यायों में से सर्वप्रथम स्वभाव पर्याय को दो प्रकार से कहते हैं-(१) कारण शुद्ध पर्याय (२) कार्य शुद्ध पर्याय । यहां पर सहज शुद्ध निश्चयनय से अनादि अनन्त, अमूर्तिक, अतीन्द्रिय स्वभावरूप, सहजदर्शन, सहज चारित्र, सहजपरमवीतराग सुखात्मक शुद्ध अन्तस्तत्त्व-शुद्ध चैतन्य तत्त्वरूप जो स्वाभाविक अनन्त चतुष्टय स्वरूप है उसके साथ सुशोभित पंचमभाव-पारिगामिक भाव की परिणति ही कारण शुद्ध पर्याय है यह अर्थ हुआ । सादि सांत, अमूतिक, अतीन्द्रिय स्वभाव वाले शुद्ध सद्भुत व्यवहारनय से केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख और केवलशक्ति-वीर्य से युक्त फल रूप जो अनन्त Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार भावपरिणतिरेव कारणशुद्धपर्याय इत्यर्थः । साद्यनिधनामुततींद्वियस्वभावशुद्धसद्द्यूतव्यवहारेण केवलज्ञानकेवलदर्शन केवल सुख केवलशक्तियुक्तफलरूपानंत चतुष्टयेन सार्द्ध परमोत्कृष्टक्षायिक भावस्य शुद्धपरिणतिरेव कार्यशुद्धपर्यायश्च । श्रथवा पूर्वसूत्रोपातसूक्ष्मऋजुसूत्रनयाभिप्रायेण षद्रव्यसाधारणाः सूक्ष्मास्ते हि श्रर्थ पर्यायाः शुद्धा इति बोद्धव्याः । वक्तः समासतः शुद्धपर्याय विकल्पः । | ४७ sarat व्यञ्जनपर्य्याय उच्यते । व्यंज्यते प्रकटोक्रियते श्रनेनेति व्यञ्जनपर्य्यायः । कुतः लोचनगोचरत्यात् पटादिवत् । अथवा सादिनिधनमूर्त विजातीयविभावस्वभावत्वात् दृश्यमानविनाशस्वरूपत्वात् । चतुष्टय हैं उनके साथ रहने वाली परमोत्कृष्ट क्षायिक भाव को शुद्ध परिणति हो कार्य शुद्ध पर्याय है । अथवा पूर्वसूत्र में ग्रहण किये गये सूक्ष्म ऋजु सूत्र नय के अभिप्राय से पट द्रव्यों में साधारण रूप से रहने वालो जो सूक्ष्म अर्थ पर्यायें हैं वे ही शुद्ध पर्यायें हैं ऐसा समझना चाहिये । इसप्रकार से यहां पर संक्षेप में शुद्ध पर्यायों को कहा है। अब व्यञ्जन पर्याय को कहते हैं, 'व्यंज्यते प्रकटीक्रियते श्रनेनेति व्यंजनपर्याय : ' -- जिसके द्वारा व्यक्त होता है प्रकट किया जाता है वह व्यंजन पर्याय है । क्यों ? क्योंकि वह नेत्र के गोचर होती है, वस्त्रादि के समान । अथवा वे पर्यायें सादिसान्त, मूर्तिक विजातीय विभांव रूप हैं तथा दिखने योग्य हैं और विनाश स्वरूप हैं । अब उस व्यञ्जन पर्याय के उदाहरण दिखाते हैं पर्याय धारण करने वाली ऐसी जो स्वरूप के ) ज्ञान बिना पर्याय स्वभाव होने मिश्र परिणाम के द्वारा व्यवहारनय से मनुष्य हो वही मनुष्य पर्याय है । केवल अशुभ कर्म के द्वारा व्यवहारनय से ग्रात्मा नरकगति में पर्यायी आत्मा है उस आत्मा के ( ग्रात्म वाला होने से यह जीव शुभ-अशुभ और गया उसके जो मनुष्य का आकार है उत्पन्न होकर नारकी हो गया उसके वह नारक का आकार ही नारक पर्याय है । तिर्यंच के शरीर में fife शुभ मिश्रित माया परिणाम से व्यवहारनय की उत्पन्न श्रात्मा का जो ग्राकार है वह तिर्यंच पर्याय है। शुभ कर्म के द्वारा प्रपेक्षा केवल Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार व्यंजन पर्यायश्व पर्यावणमात्मबोधमन्तरेच पर्यायस्वभावाच्छुभाशुभमिश्रपरिणामेनात्मा व्यवहारेण नशे जातः तस्य नराकारो नरपर्यायः । केवलेनाशुभकर्मणा यवहारेणात्मा नारको जातः तस्य नारकाकारो नारकपर्यायः । किचिच्छुममिश्रमायापरिणामेन तिर्यक्कायजो व्यवहारेणात्मा तस्याकारस्तिपर्यायः । केवलेन शुभकर्मणा व्यवहारेण भ्रात्मा वेवस्तस्याकारो देवपर्यायश्चेति । अस्य पर्यायस्य प्रपञ्चो ह्यागमान्तरे द्रष्टव्य इति । ४८ ] ( मालिनी ) श्रपि च बहुविभावे सत्ययं शुद्धदृष्टिः सहज परमतत्त्वाभ्यास निष्णातबुद्धिः । सपदि समयसाराज्ञान्यदस्तीति मत्वा सभवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ||२७|| व्यवहारनय से आत्मा देव हो जाता है उस देव के आकार को देव पर्याय कहते हैं । इन पर्यायों का विस्तार अन्य आगम ग्रन्थों में देखना चाहिये | विशेषार्थ - ग्रन्थकार ने गाथा में कर्मोपाधि सहित पर्याय को विभाव पर्याय एवं कर्मोपाधि रहित पर्याय को स्वभाव पर्याय कहा है। टीकाकार ने स्वभाव पर्याय के भी कारण शुद्ध पर्याय और कार्यशुद्धिपर्याय ऐसे दो भेद किये हैं । उसमें सिद्धपर्याय को कार्यशुद्धपर्याय और स्वाभाविक शुद्ध निश्चयनय से सिद्ध के सदृश श्रात्मा का जो शुद्धस्वरूप है उसमें तन्मय रूप जो शुद्धोपयोग की अवस्था है उस समय बाह्य संकल्प विकल्प से रहित जीव की परम पारिणामिक भाव रूप से जो परिणति होती है जहां पर ध्यान - ध्याता और ध्येय का विकल्प ही नहीं रह जाता है उस समय कारण शुद्ध पर्याय कहलाता है । यह पर्याय भी पूर्णतया बारहवें गुणस्थान में हो घटित होवेगी i और बुद्धि पूर्वक संकल्प विकल्प के न होने से सातवें । गुणस्थान की निर्विकल्प अवस्था से भी अंशात्मक रूप से मानी जा सकती है । [' अब टीकाकार विभाव पर्यायों के तत्त्व के अभ्यास-ध्यान की महिमा को बतलाते (२७) श्लोकार्थ - सहज परमतत्त्व के ऐसा भेद विज्ञानी यह शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव बहुत विद्यमान रहने पर सम्यग्दृष्टि के परमहुये श्लोक कहते हैं- ] अभ्यास में प्रवीण है प्रकार के विभावों के बुद्धि जिसकी होने पर भी Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार [ ४६ माणुस्सा दुवियप्पा, कम्ममहो मोगभूमिसंजादा । सत्तविहा रइया, रणादव्वा पुढविभेदेरण ॥१६॥ चउदहभेदा भणिदा, तेरिच्छा सुरगणा चउभेदा। एसि वित्थारं, लोयविभागेसु णादब्धम् ॥१७॥ मानुषा द्विविकल्पाः कर्ममहीभोगभूमिसंजाताः । सप्तविधा नारका ज्ञातव्याः पृथ्वीभेदेन ॥१६॥ चतुर्दशभेदा भणितास्तियंचः सुरगणाश्चतुर्भेदाः । एतेषां विस्तारो लोकविभागेषु ज्ञातव्यः ॥१७॥ जो कर्मभूमिया व भोगभूमिया कहें । मनुजों के ये दो भेद इनमें मुनि इक लहें ।। नीचे की सात भूमियों में नारकी रहें । इन भूमि भेद से ये सात भेद को लहें ।।१६।। तिर्यच के चौदह वाहे हैं भेद आप में । सुरगण के चार भेद भी माने हैं प्राप्त ने 1। जीवों का ये विस्तार तो बहुविध से है कहा। लोकानुयोग ग्रन्थ में है देखिये वहाँ ।।१७।। - - समयसार से भिन्न यह कुछ नहीं है इसप्रकार मान कर वह शीघ्र ही मुक्ति लक्ष्मी का वर हो जाता है। गाथा १६-१७ __अन्वयार्थ-[ कर्ममहोभोगभूमिसंजाताः ] कर्मभूमि में उत्पन्न हुये और भोग भूमि में उत्पन्न हुये [ मानुषाः द्विविकल्पाः] मनुष्य दो प्रकार के होते हैं [ पृथिवी भेदेन ] पृथ्वी के भेद से [ नारकाः ] नारको [ सप्तविधा: ज्ञातव्याः ] सात प्रकार के जानने चाहिये [ लियंचः चतुर्दशभेदाः भरिणताः ] तिर्यंच जीव चौदह भेद सहित कहे गये हैं [ सुरगणाः चतुर्भेदा: ] देवगण चार भेद वाले हैं। [ एतेषां विस्तारः ] इन चारों गतियों के जीवों का विस्तृत वर्णन [ लोकविभागेषु नातव्यः ] लोकविभाग आदि लोकानुयोग के ग्रन्थों से जान लेना चाहिये । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] नियमसार चतुर्गतिस्वरूपनिरूपणाल्यावमेततः । मनोरपत्यानि मनुष्याः । ते द्विविधा: कर्मभूमिजा भोगभूमिजाश्चेलि । तत्र कर्मभूमिजाश्च द्विविधाः प्रार्या म्लेच्छाश्चेति । आर्शः पुण्यक्षेत्रतिनः । म्लेच्छाः पापक्षेत्रवतिनः। भोगभूमिजाश्चार्यनामधेयधरा जघन्य मध्यमोत्तमक्षेत्रवतिनः एकद्वित्रिपन्योपमायुषः । रत्नशर्करावालुकापंकधूमतमोमहातमःप्रभाभिधानसप्तपृथ्वीनां भेदानारकोवाः सप्तधा भवन्ति । प्रथमनरकस्य - -- टोका-यह चतुर्गति के स्वरूप निरूपण का कथन है । ___ मनु की संतान को मनुष्य कहते हैं। वे कर्मभूमिज और भोगभूमिज के भेद मे दो प्रकार के हैं। उनमें भी कर्मभूमिज मनुष्यों के दो भेद हैं-(१) पार्य ( २ ) म्लेच्छ । पुण्य क्षेत्र में जन्म लेने वाले आर्य कहलाते हैं और पाप क्षेत्र में जन्म लेने वाले म्लेच्छ कहलाते हैं । भोगभूमिज मनुष्य 'आर्य' इस नाम को धारण करने वाले होते हैं: ये जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भोगभूमि रूप क्षेत्र में जन्म लेने वाले क्रमशः एक पल्योपम, दो पल्योपम और तीन पल्योपम की आयु वाले होते हैं। रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, नमःप्रभा और महातमःप्रभा इन नाम वाली सप्त पृथिवियों के भेद से नारकी जीव सात प्रकार के होते हैं। प्रथम नरक के नारकी एक सागरोपम की आयु वाले हैं, द्वितीय नरक के नारकी नीन सागर की आयु वाले हैं, तृतीय नरक के नारकी सप्त सागर की आयु वाले, चतुर्थ नरक के नारकी दश सागर की, पंचम नरक के नारकी सत्रह सागर की, षष्ठम नरक के नारको बाईस सागरोपम की एवं सप्तम नरक के नारको तेनीस सागरोपग की आयु को धारण करने वाले होते हैं। ___ अब विस्तार के भय से यहां संक्षेप से कहने में सूक्ष्म एकेन्द्रिय के पर्याप्तक और अपर्याप्तक, बादर एकेन्द्रिय के पर्याप्तक और अपर्याप्तक, द्वीन्द्रिय के पर्याप्तकअपर्याप्तक, त्रीन्द्रिय के पर्याप्तक-अपर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय के पर्याप्तक-अपर्याप्तक, असंज्ञी पंचेन्द्रिय के पर्याप्तक-अपर्याप्तक, संज्ञी पंचेन्द्रिय के पर्याप्तक-अपर्याप्तक इन भेदों से तिर्यंच जीव १४ प्रकार के होते हैं। भवनवासी, व्यंतरवासी, ज्योतिर्वासी, कल्पवासी के भेद से देवों के चार निकाय-भेद होते हैं । अर्थात् यहां पर देवों के निकाय का अर्थ यह है कि इन चार : Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार [ ५१ नारका सागरोपमायुषः । द्वितीयनरकस्य नारकाः त्रिसागरोपमायुषः । तृतीयस्य सप्त । चतुर्थस्य दश । पश्चमस्य सप्तदश । षष्ठस्य द्वाविंशतिः । सप्तमस्य श्रर्याशत् । अथ विस्तारभयात् संक्षेपेणोच्यते, तियंश्चः सूक्ष्मकेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकवादरं केन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तद्वद्रियपर्याप्तकापर्याप्त कीन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्त चतुरिन्द्रियपर्याप्तका भेद वाले देवों में भी अनेकों प्रभेद होते हैं, यह निकाय शब्द समूह अर्थ का वाचक है । और भी भेद "लोकविभाग' नामक इन चार गति वाले जीवों के भेदों परमागम में देखना चाहिये | यहां पर प्रात्मस्वरूप के प्ररूपण में अंतराय का हेतु है इसलिये पूर्वाचार्य सूत्रकार श्री कुन्दकुन्ददेव ने नहीं कहा है । विशेष - जो जिस विषय के प्रतिपादक ग्रन्थ होते हैं उनमें उसी विषय की प्रधानता रहती है अतः उनमें अन्य अनुयोग के विषय गौण हो जाते हैं । इसका अभिप्राय यह नहीं है दि सन्थों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों का पठन-पाठन, मनन-चिंतन ही नहीं करना चाहिये । स्वयं भगवान् कुन्दकुन्ददेव ने ही जब यह स्पष्ट कहा है कि इनके विषय प्रभेदों को 'लोक विभाग' ग्रन्थों से जानना चाहिये। यहां यह नहीं कहा कि इनके विशेष भेद-प्रभेदों को जानने की आवश्यकता ही नहीं है अथवा ये प्रयोजनीभूत विषय हैं, किन्तु अन्य ग्रन्थों से जान लेने को ही कहा है । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि द्वादशांग वारणी रूप अथवा चतुरनुयोग रूप सभी ग्रन्थ पढ़ने चाहिये किसी अनुयोग को भी अप्रयोजनीभूत कहकर उपेक्षा नहीं करना चाहिये, अन्यथा श्रुत की आसादना का दोष लगता है । वास्तव में सभी भगवान् की वाणी रूप द्वादशांग के अंशरूप वर्तमान में सभी ग्रन्थ आत्म हित के लिये ही हैं न कि ति के लिये ऐसा दृढ़ विश्वास रखना चाहिये । आत्मानुशामन में सम्यक्त्व के १० भेद कहे हैं- 'आज्ञा समुद्भव, मार्गसमुद्भव, उपदेश समृद्भव, सूत्र समुद्भव, बोज समुद्भव, संक्षेप समुद्भव, विस्तार १. 'लोकविभाग' नामक यह ग्रन्थ श्री सिंह सूरषि कृत जीवराज ग्रन्थमाला भोलापुर से मुद्रित हो चुका है । इसके पूर्व कोई प्राकृत भाषा में 'लोक विभाग' नामक ग्रंथ भगवान् कुन्दकुन्ददेव के समय में होगा ऐसा अनुमान है । २. आत्मानुशासन ग्लोक ११ से १४ । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] नियमसार पर्याप्तकासंजिपंचेन्द्रिय पर्याप्तकापर्याप्तकसंजिपंचेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकभेदाच्चतुर्दशमेदा भवन्ति । भावनव्यंत रज्योतिःकल्पवासिकभेदाई वाश्चतुणिकायाः । एतेषां चतुर्गतिजीवभेदानां भेदो लोकविभागाभिधानपरमागमे द्रष्टव्यः । इहात्मस्वरूपप्ररूपणान्तरायहेतुरिति पूर्वसूसिमिः सूत्रपुस्रिनुक्त शंत । समुद्भव, अर्थ समुद्भव अबगाढ़ और परमावगाह । दर्शनमोह की उपशांति से, ग्रन्थ श्रवण के बिना केवल वीतराग भगवान् की प्राज्ञा से हो जो तत्त्व श्रद्धान होता है वह 'अाज्ञामम्यक्त्व' है । दर्शनमोह के उपशम से ग्रन्थ श्रवण के बिना ही कल्याणकारी मोक्ष मार्ग का श्रद्धान करना 'मार्ग सम्यक्त्व' है । वेसठ शलाका पुरुषों के पुराण के उपदेश से जो तत्त्वश्रद्धान होता है वह 'उपदेश' सम्यग्दर्शन है । मुनि के चारित्र के आचार सूचक सूत्रों को सुनकर जो तत्व श्रद्धान होता है वह 'सूत्र' सम्यग्दर्शन है । जिन जोवादि पदार्थों का या गणित प्रादि विषयों का पंचसंग्रह, तिलोयपणनि, धवलादि करणातुयोगी ग्रन्थों के किन्हीं बीज पदों में ज्ञान प्राप्त करके जो दर्शन मोहनीय के असाधारण उपशमवश तत्वश्रद्धान होता है वह 'बीज' सम्यग्दर्शन है । जो भव्य जीव तत्त्वार्थ सिद्धान्त सूत्र लक्षण द्रव्यानुयोग के द्वारा जीवादि पदार्थों को संक्षेप से जानकर जो श्रद्धान उत्पन्न होता है 'संक्षेप' सम्यग्दर्शन है। जो भव्य जीव बारह अंगों को सुनकर विशेष तत्त्व श्रद्धानी होता है उसके सम्यक्त्व को विस्तार' सम्यग्दर्शन कहते हैं । अंगबाह्य आगम के पढ़े बिना उनमें प्रतिपादित किसी पदार्थ के निगिन मे जो अर्थश्रद्धान होता है वह 'अर्थ' सम्यग्दर्शन है। अंगों के साथ अंगबाह्य श्रुत का अवगाहन करके जो सम्यक्त्व होता है वह 'अवगाद' सम्यग्दर्शन कहलाता है। अर्थात यह सम्यक्त्व द्वादशांग के ज्ञाता श्रुतकेवली के ही होता है । केवलज्ञान के द्वारा देख गये पदार्थों के विषय में जो रुचि होती है वह यहां 'परमावगाढ़' सम्यग्दर्शन कहलाता है । अर्थात् केबली भगवान का सम्यग्दर्शन परमावगाइ नाम से कहा जाता है । ____ इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग ये सभी ग्रन्थ सम्यक्त्व के लिये कारण बन सकते हैं । कहीं-- कहीं पर करणानुयोग के गणित सूत्रों के मनन से भी सम्यक्त्व प्रगट हो जाता है अर्थात् इन बाह्य निमित्तों से दर्शनमोहनीय का उपशम-क्षयोपशमादि हो जाता है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार [ ५५ सकलमोहरागद्वेषादिभावकर्मणां कर्ता भोक्ता च, अनुपचरितासमूतव्यवहारेण नोकर्मणां कर्ता, उपचरितासभूतव्यवहारेण घटपटशकटादीनां कर्ता इत्यशुद्धजीवस्यरूपमुक्तम् । ( मालिनी ) अपि च सकलरागद्वेषमोहात्मको यः परमगुरुपदाब्जद्वन्द्वसेवाप्रसादात् । सहजसमयसारं निर्विकल्पं हि बुद्ध्या स भवति परमश्रीकामिनीकान्तकान्तः ॥३०॥ उपचार म्प गे प्रवृत्त होता है वह उपचरित है जैसे क्रोधी बालक में अग्नि का उपचार करके कहना कि यह बालक अग्नि है, यहां क्रोधी बालक में मुख्य अभिन्न का प्रभाव है । जो उपचरित नहीं हो किन्तु वास्तविक हो उसे अनुपचरित कहते हैं । जीव निकटवर्ती अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से ज्ञानावरणादि पौद्गलिक द्रव्य कर्मों का कर्ता है । दुरवर्ती अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से शरीर और पर्याप्ति रूप नो कर्मो का कर्ता है और उपचरित से घट पट आदि सर्वथा अपने पृथक् वस्तुओं का कर्ता है। तथा निश्चयनय से यहां अशुद्ध निश्चयनय विवक्षित है उसकी अपेक्षा से यह जीव कमों के उदय से होने वाले राग द्वेष आदि भाव कर्मों का कर्ता है वैसे ही उन सभी के फलों का भोक्ता भी है। एवं शुद्ध निश्चय नय से यह जीव अपने शुद्धज्ञान दर्शन प्रादि भावों का ही कर्ता है और शुद्ध ज्ञान दर्शन सुख प्रादि भावों का ही भोक्ता है ऐसा अभिप्राय है । [अब टीकाकार श्री मुनिराज रागादि से सहित जीव को भी पंचपरम गुरु की भक्ति के प्रसाद ' से उत्तम फल की प्राप्ति का संकेत करते हुये श्लोक कहते हैं-] (३०) श्लोकार्थ-सम्पूर्ण मोह राग द्वेष से सहित है तो भी जो पुरुष परमगुरु के चरणकमल युगल की सेवा के प्रसाद से निश्चित हो निर्विकल्प रूप सहज समयसार को जान करके ( स्थिर होता है ) वह मुक्ति श्री रूपी स्त्री का स्वामी हो जाता है । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] नियमसार (मनुष्टुभ् ) भावकर्मनिरोधेन तव्यकर्मनिरोधनम् । द्रव्यकर्मनिरोधेन संसारस्य निरोधनम् ।।३१।। ( वसंततिलका) संज्ञान भावपरिमुक्तविमुग्धजीवः कुर्वन् शुभाशुभमनेकविध स कर्म । निमुक्तिमार्गमणुमयभिवांछितु नो जानाति तस्य शरणं न समस्ति सांके ॥३२॥ (बसंततिलका) यः कर्मशर्मनिकरं परिहत्य सर्व नि:कर्मशमनिकरामृतमारिपूरे । मजन्तमत्यधिकचिन्मयमेकरूपं स्वं भावमयममु समुपैति भव्यः ॥३३॥ - - - - -- (३१) श्लोकार्थ- भाव कर्म के निरोध से द्रव्य कर्म का निरोध होता है और द्रव्य के निरोध से संसार का निरोध होता है। ----- (३२) श्लोकार्थ-जो सम्यग्ज्ञान से रहित मूढ़ जीव हैं वह अनेक प्रकार के शुभ अशुभ कर्मों को करता हुप्रा मुक्ति के मार्ग को अणुमात्र भी वांछना नहीं जानता है उसको इस संसार में शरण नहीं है। - (३३ ) श्लोकार्थ-जो सम्पूर्ण कर्म से जनित सुख समूह को छोड़ देता है वह भव्यजीव निष्कर्म-कर्म से रहित, सुख समूह रूपी अमृत के सरोवर में मग्न हुये ऐसे अतिशय चैतन्य स्वरूप एक रूप अपने इस अद्वैत भाव को प्राप्त कर लेता है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव मधिकार ( मालिनी) असति सति विभावे तस्य चितारित को नः सततमनुभवामः शुद्धमात्मानमेकम् । हृदयकमलसंस्थं सर्वकर्मप्रमुक्तं न खलु न खलु मुक्ति न्यथास्त्यस्ति तस्मात् ॥३४॥ (मालिनी) भधिनि भवगुणाः स्युः सिद्धजीवेपि नित्यं निजपरमगुरणाः स्युः सिद्धसिद्धाः समस्ताः। व्यवहरणनयोऽयं निश्चयान्नव सिद्धि न च भवति भयो वा निर्णयोऽयं बुधानाम् ।।३।। दव्वत्थिएण जीवा, वदिरित्ता पुत्वमरिणदपज्जाया । पज्जयगयेण जीवा, संजुत्ता होंति दुविहेहिं ॥१६॥ --...-- - - (३४) श्लोकार्थ-विभावभाव हो चाहे न हों हमें उसकी चिंता नहीं है । हम तो हृदय कमल में विराजमान, सम्पूर्ण कर्मों से रहित, शुद्ध ऐसी एक प्रात्मा का हो सतत अनुभव करते हैं क्योंकि इससे भिन्न अन्य प्रकार से निश्चित हो मुक्ति नहीं है, नहीं है । (३५) श्लोकार्थ-संसारी जीव में सांसारिक गुण होते हैं और सिद्ध जीव में भी नित्य ही समस्त सिद्धि में सिद्ध हुये ( परिपूर्ण ) निज स्वाभाविक परमगुण होते हैं। यह व्यवहार नय है-व्यवहार नय का कथन है किन्तु निश्चय नय से न तो सिद्धि-मुक्ति ही है और न संसार ही है यह बुद्धिमान् पुरुषों का निर्णय है । गाथा १६ अन्थयार्थ-[ द्रव्याथिक नयेन ] द्रव्याथिक नय से [जीवाः ] जीव [पूर्वभरिणत पर्यायाद ] पूर्वकथित पर्यायों से रहित हैं [ पर्यायनयेन ] पर्याय नय से [ जीवाः द्वाभ्यां संयुक्ताः भवंति ] जीव उन स्वभाव और विभावरूप दोनों प्रकार की पर्यायों से संयुक्त होते हैं। । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] नियमसार द्रन्यायिकेन जीवा व्यतिरिक्ता पूर्वभणितपर्यायात् । पर्यापन येन जीवाः संयुक्ता भवंति द्वाभ्याम् ॥१६॥ इन पूर्व में कही सभी पर्याय से पृथक् । द्रव्याथिक नय से हैं ओव मानिये सम्यक् ।। पर्यायनय से किंतु सभी जीव को जानो। दोनों प्रकार पर्ययों से युक्त हो मानो ।।१९।। इह हि नययस्य सफलत्वमुक्तम् । द्वौ हि नमो भगवदहत्परमेश्वरेण प्रोक्तो द्रव्याथिकः पर्यायाथिकाचेति । द्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्याथिकः । पर्याय एवार्थ: - - - - - - भावार्थ-टीकाकार ने द्वाभ्यां का अर्थ ऐसा किया है कि इस तरह जीव द्रव्याथिक और पर्यायाधिक दोनों नयों से सहित होते हैं। द्रव्यार्थिक नय से जीव सभी पर्यायों से रहित हैं इसका अभिप्राय यह है कि द्रव्याथिक नय द्रव्य को ही विषय करता है पर्याय को देखता ही नहीं है जैसे इन्द्रियां अपने-अपने विषय को ही ग्रहण करती हैं अन्य के विषय को नहीं ग्रहण कर सकती हैं, चक्षु घने का काम नहीं करती हैं उसी प्रकार से द्रव्याथिक नय द्रव्य को ही देखता है इसलिये इस नय की अपेक्षा से द्रव्य में पर्यायें विद्यमान होते हुये भी गौण हो जाती हैं और पर्यायाथिक नय पर्यायों को ही देखता है द्रव्य को नहीं देखता है। ये दोनों परस्पर सापेक्ष रहते हैं तभी वस्तु का सही बोध होता है और निरपेक्ष हो जाते हैं तभो सही बोध नहीं होने से मिथ्यात्व हो जाता है। टोका-यहां पर निश्चित रूप से दोनों नयों को सफलता को कहा है। , भगवान अर्हन्त परमेश्वर ने निश्चित रूप से दो नय कहे हैं (१) द्रव्याधिक और (२) पर्यायाथिक । द्रव्य ही अर्थ-प्रयोजन है इसका इसलिये यह द्रव्याथिक है और पर्याय ही है अर्थ-प्रयोजन इसका नतः यह पर्यायाथिक है । निश्चित ही एक नय को आश्रय करने वाला उपदेश ग्रहण करने योग्य नहीं है, किन्तु दोनों नयों के प्राश्रित हुमा उपदेश ही ग्राह्य है। ___सत्ताग्राहक-द्रव्य के अस्तित्व को ग्रहण करने वाले ऐसे शुद्ध द्रव्याथिक नय के बल से मुक्त-सिद्ध और अमुक्त-संसारी सभी जीव समूह पूर्वोक्त व्यंजनपर्यायों से ---- -- Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार [ ५६ प्रयोजनमस्येति पर्यायाथिकः । न खलु एकनयायत्तोपदेशो ग्राह्यः, किन्तु तदुभयायत्तोपदेशः । सवाग्राहकशुद्धद्रव्याथिकनयबलेन पूर्वोक्तव्यंजनपर्यायेम्पः सकाशान्मुक्तामुक्तसमस्तजोवराशय: सर्वथा व्यतिरिक्ता एव । कुतः, "सन्वे सुद्धा हु सुद्धगया" इति बचनात् । विभावव्यंजनपर्यायाथिकनयबलेन ते सर्वे जीवास्संयुक्ता भवन्ति । किं च सिद्धानामर्थपर्यायैः सह परिणतिः, न पुनव्यंजनपर्यायः सहपरिणतिरिति । कुतः, सदा निरंजनत्वात् । सिद्धानां सदा निरंजनत्वेसति तहिंद्रध्यापिकपर्यायाथिकनयाभ्याम् द्वाभ्यास सर्वथा भिन्न हो हैं। कैसे भिन्न हैं ? 'सभी जीव शुद्ध नय से शुद्ध ही हैं ऐसा वचन है। विभाव व्यंजन पर्यायाथिक नय के बल से वे सभी जीव पूर्वोक्त व्यंजन पर्यायों से संयुक्त होते हैं । विशेष बात यह है कि सिद्धों की अर्थ पर्यायों के साथ परिणति है, किन्तु व्यंजन पर्यायों के साथ नहीं है। क्यों नहीं है ? क्योंकि वे सदा निरंजन रूप हैं। प्रश्न--सिद्धों के सदा निरंजनरूप होने पर तो सभी जीव द्रव्याथिक और पर्यायाथिक इन दोनों नयों से संयुक्त है इसप्रकार का सूत्रार्थ व्यर्थ है। उत्तर-ऐसा नहीं कहना । निगम-विकल्प, उम निगम में जो होता है वह नंगम है और वह नंगम नय तीन प्रकार का है-भूतनैगमनय, वर्तमान नैगमनय और भावी नंगमनय । यहां भूत नंगमनय की अपेक्षा से भगवान् सिद्धों में भी व्यंजन पर्याय और अशुद्धपना सम्भव है 1 पूर्वकाल में वे भगवान् संसारी थे इस प्रकार का व्यवहार होता है । अधिक कहने से क्या ? सभी जीव दोनों नयों के बल से शुद्ध तथा अशुद्ध दोनों प्रकार के होते हैं यहां ऐसा अर्थ हुआ है । विशेषार्थ-यहां पर टीकाकार ने भूत नंगमनय की अपेक्षा से सिद्धों में व्यंजन पर्याय मानी हैं किन्तु अन्यत्र-पालाप पद्धति अन्य में सिद्धों की सिद्धत्व पर्याय को ही व्यंजन पर्याय कहा है। यथा-'स्त्र भाव द्रव्य व्यांजन पर्याय चरम शरीर से किंचित् न्यून सिद्ध पर्याय है। यहां पर स्वभाव और विभाव पर्यायों का किंचित् स्पष्टीकरण करते हैं-- गुणों के विकार को पर्याय कहते हैं। वे पर्याण दो प्रकार की हैं (१) अर्थ 1. "सत्वे सुद्धा हु सुद्धण्या" द्रव्यसं. गाथा १३ ॥ २. पानाप पद्धति पू. ५॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] नियमसार संयुक्ताः सर्वे जोवा इति सूत्रार्थो व्यर्थः । निगमो विकल्पः, तत्र भयो नंगमः । स च नैगमन पस्तावत् त्रिविधः, नूतनैगमः वर्तमाननैगमः भाविनंगमश्चेति । यत्र नूतनैगमनयापेक्षया भगवतां सिद्धानामपि व्यंजनपर्यायत्वमशुद्धत्वं च संभवति । पूर्वकाले से भगवन्तः संसारिण इति व्यवहारात् । किं बहुना, सर्वे जीवा नयद्रयबलेन शुद्धाशुद्धा इत्यर्थः । पर्याय (२) व्यंजन पर्याय । श्रर्थ पर्याय दो प्रकार की हैं- स्वभाव अर्थ पर्याय और विभाव अर्थ पर्याय | स्वभाव अर्थ पर्याय सभी द्रव्यों में होती है किन्तु विभाव अर्थ पर्याय जीव और गुद्गल इन दो में ही होती है । अगुरुलघु गुण का परिणमन स्वभाव अर्थ पर्यायें हैं। इनके बारह भेद हैं, छह वृद्धिरूप और यह हानि रूप जो कि श्रनन्त भाग वृद्धि आदि हैं । द्वप, पुण्य विभाव अर्थ पर्याय के भी ६ भेद हैं-- 'मिथ्यात्व, कपाय, राग, विभावरूप हैं । पुद्गल में भी स्वभाव एवं 'घणुकादि स्कंधों में वर्णांतरादि और पापरूप जो अध्यवसाय - परिणाम हैं वे पर्याय वही पदगुण हानि वृद्धि रूप हैं परिणमन रूप है | 1 कांजन पर्याय के दो भेद हैं- स्वभाव व्यंजन पर्याय और विभाव व्यंजन पर्याय | स्वभाव और विभाव के भी द्रव्य और गुण की अपेक्षा दो-दो भेद है । जैसेस्वभाव द्रव्य - व्यंजन पर्याय स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय | विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय और विभाव गुण व्यंजन पर्याय । जीव में घटाते हैं - विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय के चार भेद हैं नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवपर्याय रूप । अथवा चौरासी लाख योनि के भेद रूप भी विभावर्याय हैं । विभावगुण व्यंजन पर्याय जीव के मति ज्ञानादि है । ! स्वभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय चरम शरीर से किंचित् न्यून सिद्ध पर्याय है । स्वभाव गुण व्यंजन पर्यायें जीव के अनन्त चतुष्टयादि रूप हैं । यहां पर टीकाकार श्री पद्मप्रभमलघारीदेव ने भूत नंगमनय की अपेक्षा सिद्धों को अशुद्ध, संसारी एवं शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा संसारी जीवों को भी शुद्ध कहा १. पंचास्तिकाय गाथा १६ की टीका || OMIRZ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार तथा चोक्त श्रीमबमृतचन्द्रसूरिमि :-- ( मालिनी) "उभयनविरोधध्वंसिनि स्यात्पांके जिनवचसि रमते ये स्वयं बांतमोहाः। सपदि समयसारं ते पर ज्योतिरुच्च रनवमनयपकासमीक्षनः एव ।।" • - - - - - - - - - - - है। इस प्रकार से सभी जीवों को भी शुद्ध-अशुद्ध उभयरूप सिद्ध कर दिया है । सो अपेक्षाकृत कथन में कोई बाधा नहीं आती है 1 - -- उसी प्रकार से अमृतचन्द्र मुरि ने भी कहा है श्लोकार्य-'"स्वयं बातमोह-जिन्होंने दर्शनमोहनीय का वमन कर दिया है ऐसे जो जीव उभयनय के विरोध को ध्वंस करने वाले और स्यात्पद से चिन्हित ऐसे जिनवचन में प्रीति करते हैं वे जीव शीघ्र ही अनव-नवीनता रहित अनादि स्वरूप और कुनयों के पक्ष से खडित नहीं होने वाले ऐसे समयसार स्वरूप परं ज्योति को अतिशय रूप से देख ही लेते हैं-प्राप्त हो कर लेते हैं।" भावार्थ-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक अथवा निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों का विषय परस्पर विरोधी हो रहता है. किन्तु जो नय परस्पर सापेक्ष रहते हैं वे ही सुनय कहलाते हैं वे ही नय स्यात्पद से चिन्हित रहते हैं और जिनेन्द्र भगवान् के वचन स्वरूप माने जाते हैं। तथा जब वे परस्पर निरपेक्ष रहते हैं तब कुनय कहलाते हैं । यहां यह भी अर्थ है कि जो स्वयं दर्शन मोहनीय से रहित सम्यग्दृष्टि जीव जिनवचन में रत होते हैं वे शीघ्र हो । चारित्र मोहनीय से रहते हुये पूर्वोक्त विशेषणों से सहित समयसार स्वरूप केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं । [ अब टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारीदेव उभयनय के अवलम्बन की सफलता को बतलाते हुये तथा भव्य जीवों को परमत से निवृत्त करते हुये श्लोक कहते हैं । ] १. रामयसार कलश ४॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार ६२ ] तथाहि ( मालिनी ) अप नपयुगयुक्ति लंघयन्तो न संतः परमजिनपदाजद्वन्दुमचद्विरेफाः। मु पनि सारशारं रानुयन्ति क्षितिषु परमतोक्तः किं फलं सज्जनानाम् ॥३६॥ इति सुफविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवजितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपप्रभमल (३६) श्लोकार्थ-जो सत्पुरुष दोनों नयों की युक्ति का उल्लंघन न करके परम जिन भगवान् के चरण कमल युगल के मन भ्रमर हैं वे शीघ्र ही समयसार को निश्चित प्राप्त कर लेते हैं। इस पृथ्वी तल पर परमत के कथन से सज्जनों को क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है। विशेषार्थ-प्रारम्भ में मंगलाचरण के बाद गाथा २ में भगवान श्री कुन्दकुन्ददेव ने यह कहा था कि मार्ग और मार्गफल ये दो बातें ही जिनेन्द्र भगवान् ने बतलाई हैं। यहां पर मोक्ष की प्राप्ति का उपाय तो मार्ग है और उसका फल निर्वाण प्राप्त कर लेना है। इसीलिये 'नियम' शब्द से अवश्य करने योग्य कार्य को लिया है और जो अवश्य करने योग्य है वह रत्नत्रय हो है। इस ग्रन्थ में भेदाभेद रत्नत्रय स्वरूप मार्ग का ही कथन प्रधान और उसमें भी भेद रत्नत्रय में निष्णात जो मुनिराज हैं उनके लिये ही अभेद रत्नत्रय का उपदेश होता है । इस ग्रन्थ में भेद रत्नत्रय का वर्णन संक्षिप्त है और अभेद रत्नत्रय का वर्णन विशेष रूप से वरिणत है क्योंकि स्वयं श्री कुन्दकुन्ददेव ने 'मूलाचार' में मुनियों के २८ मूलगुण आदि रूप भेद रत्नत्रय का विस्तार से वर्णन किया हुआ है। इस प्रथम अधिकार में सर्वप्रथम भेद रत्नत्रय को वणित किया है। उसमें भी व्यवहार सम्यग्दर्शन के विषयभूत सच्चे प्राप्त, आगम और तत्त्वों का वर्णन किया है। प्राप्त और पागम का स्वरूप बताकर तत्त्वों के स्वरूप को बतलाते हुये छह द्रव्यों PR Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव मधिकार । ६३ पारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ जीवाधिकारः प्रथमश्रुतस्कन्धः ।। - - को कहा है । उसमें भी सर्व प्रथम जीव द्रव्य का वर्णन करते हुये जीव के उपयोग लक्षण के १२ भेदों का वर्णन है। पुन: जीवद्रव्य की स्वभाव और विभाव पर्यायों का वर्णन है। इसप्रकार द्रव्याधिक और पर्यायाथिक इन दोनों नयों से जीव का वर्णन किया है । अगले द्वितीय अधिकार में अजीव द्रव्यों का वर्णन करेंगे। इसप्रकार सुकविजन रूपी कमलों के लिये सूर्य समान और पंचेन्द्रिय के प्रसार से रहित ऐसे गात्र-शरीर मात्र परियह के धारी-दिगम्बर मुनिराज श्री पद्मप्रभमलघारीदेव के द्वारा विरचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक व्याख्या में जीवाधिकार नामका प्रथम श्रुतस्कंध पूर्ण हुमा। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Y ! S ***** । २ । जीव अधिकार अथेदानीमजीवाधिकार उच्यते । प्रबंधवियपेरण दु, पोग्गलदव्वं हवेइ दुवियप्पं । बंधा हु छप्पयारा, परमाणू चैव दुवियप्पो ||२०| स्कन्धविकल्पेन तु पुद्गलद्रयं भवति द्विविकरूपम् । स्कन्धाः खलु षट्काराः परमाणुश्चैव द्विविकल्पः ||२०|| पुद्गल दरब के दो विकल्प जान लीजिये । श्ररण भेद श्री स्कंध भेद नाम दीजिये ॥ स्कंध के भी छह प्रकार विश्वरूप हैं। परमाणु के भी दो प्रकार सुक्ष्मरूप हैं ||२०|| KR अब अजीवाधिकार को कहते हैं गाथा - २० | श्रन्वयार्थ – [ अणूस्कंध विकल्पेन तु ] अणु और स्कंध के भेद से [ पुगल द्रव्यं ] पुद्गलद्रव्य [ द्विविधं भवति ] दो प्रकार का होता है [ स्कंधाः खल षट्काराः ] स्कंध निश्चितरूप से छह प्रकार का है [ परमाणुः च एव द्विविकल्प: और परमाणु दो प्रकार का ही है । १. परमाणु (क) पाठान्तर Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार [ ६५ पुद्गल द्रव्य विकल्पोपन्यासोऽथम् । पुछ्गलद्रव्यं तावत् विकल्पहृयसनाथम, स्वभावपुद्गलो विभावपुद् गलश्चेति । तत्र स्वभावपुद्गलः परमाणुः विभावपुद्गलः स्कषः । कार्यपरमाणुः कारणपरमाणुरिति स्वभावपुद्गलो द्विधा भवति । स्कन्धाः षट्काराः स्युः, पृथ्वीजलच्छायाचतुरक्षविषयकमं प्रायोग्याप्रायोग्यभेदाः । तेषां भेदो वक्ष्यमाणसूत्रेषुच्यते विस्तरेणेति । ( अनुष्टुभ् ) गलनादरित्युक्तः पूरणास्कन्धनामभाक् । विनानेन पदार्येण लोकयात्रा न वर्तते ॥ ३७॥ 77 टोका - यह पुद्गलद्रव्य के भेदों का कथन है । सर्व प्रथम पुद्गल द्रव्य दो भेद से सहित है, स्वभाव पुदगल और विभाव पुद्गल । उसमें परमाणु स्वभाव पुद्गल और स्कंध विभाव पुद्गल कहलाता है । स्वभाव पुद्गल के भी दो भेद हैं- कार्य परमाणु और कारण परमाणु । स्कंध छह प्रकार के हैं - पृथ्वी, जल, छाया, चार इन्द्रियों के विषय, कर्म के योग्य स्कंध और कर्म के अयोग्य स्कंध ऐसे छह भेद हैं। इन स्कंधों के भेद श्रागे कहे जाने वाले सूत्रों में विस्तार से कहते हैं । [ टीकाकार श्री मुनिराज इस पुद्गल के कार्य को बतलाते हुये श्लोक कहते हैं - ] ( ३७ ) श्लोकार्थ - स्कंधों के से परमाणु या स्कंधों के मिलने से | स्कध लोक यात्रा नहीं हो सकती है । गलन-भेद से अणु कहलाता है और पूरण नाम पाता है । इस पुद्गल पदार्थ के बिना भावार्थ -- इस पुद्गल पदार्थ के बिना यदि आप संसार यात्रा करना चाहें तो नहीं कर सकते हैं । यह मुद्गल द्रव्य आपको संसार की यात्रा कराने के लिये मोटर, रेल आदि वाहन के समान है इसी में बैठकर अर्थात् इसी का सम्बन्ध करके प्राप पंच परिवर्तन रूप लोकयात्रा कर रहे हैं। कहा भी है- "अजंगमं जंगमनेययंत्र Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] नियमसार अहलथूल थूल, थूलसुहुमं व सुहमथूलं च । सुहमं अइसुहुमं इदि, धरादियं होवि छन्भेयं ॥२१॥ भूपन्वनमावीया, भरिणदा अइथूलथूल मिवि खंधा। यूला इदि विण्णेया, सप्पीजलतेलमादीया ॥२२॥ छायातवमादीया, थूलेदरखंधमिदि वियाणाहि । सुहुमथूलेवि भणिया, खंधा चउरक्सविसया य ॥२३॥ सुहुमा हवंति खंधा, पाओग्गा कम्मवग्गणस्स पुरणो। तविवरीया खंधा, अइसुहुमा इदि परवेति ॥२४॥ अतिस्थूलस्थूलाः स्थूला: स्थूलसूक्ष्माश्च सूक्ष्मस्थूलाच । सूक्ष्मा प्रतिसूक्ष्मा इति धरादयो भवन्ति षड्मेवाः ॥२१॥ भूपर्वताद्या मणिता अतिस्थूलस्थलाः इति स्कन्धाः । स्थूला इति विज्ञेपाः सप्पिलतेलाचाः ।।२।। छायातपाद्याः स्यूलेतरस्काधा इति विजानीहि । सूक्ष्मस्थूला इति भणिताः स्कन्धाश्चतुरक्षविषयाश्च ॥२३॥ सूक्ष्मा मयन्ति स्कन्धाः प्रायोग्याः कर्मवर्गणस्य पुनः । तद्विपरीताः स्कन्धाः अतिसूक्ष्मा इति प्ररूपयन्ति ।।२४॥ अतिस्थूलस्थान और स्थूल जानिये । स्थूलसूक्ष्म और सूक्ष्म स्थूल मानिये ।। सूक्ष्म तथा प्रतिमूक्ष्म इस प्रकार से कहें। ये पृथ्वी प्रादि रूप से यह भेद को लहें ॥२१॥ यथा तथा जीवधुतं शरीरं" जैसे जंगम-चेतन जीव से चलाने योग्य यंत्र अजंगम अचेतन होता है वैसे ही जीव चेतन शरीर रूप अचेतन यंत्र को चलाता है । गाथा-२१ से २४ अन्वयार्थ-[ अतिस्थूलस्थूलाः ] मतिस्थुल स्थूल (स्थूलाः) स्थर स्थूिलसूक्ष्माः च ] स्थूलमूक्ष्म [ सूक्ष्मस्थूलाः च ] सूक्ष्म स्थूस [ सूक्ष्माः ] सूक्ष Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I4 प्रजोय अधिकार भू-पर्वतादि वस्तु प्रतिस्थूल-स्थूल हैं। स्कंघ में सबसे प्रथम के भेदरूप हैं। घी तेल व जल प्रादि जो भितरल वस्तु हैं। स्कंध वे स्थूल नाम जड़ स्वरूप हैं ।।२२।। छाया व मातपादि जो दिखते हैं जगत में। स्थूलसूक्ष्म नाम से स्कंध हैं सच में ॥ स्पर्श रसन घ्राण धोत्र के विषय जिसने । स्कंध वे सूक्षमस्थूल हैं कहा जिनने ।।२३।। जो कम वगंणा के योग्य दिख नहीं सकते। वे सूक्ष्म हैं स्कंध सतत बंधते ही रहते ।। इनसे जो हैं विपरीत वे प्रतिसूक्ष्म कहाये । छह भेद भी ये जहमयी चितशून्य बताये ।।२४।। - - - - - - - - - - .. - -- - और [ प्रतिसूक्ष्माः ] अतिसूक्ष्म [ इति धरादयः षड्भेदाः भवंति ] इस प्रकार से पृथ्वी आदि के छह भेद होते हैं । [भूपर्वताद्याः ] भूमि, पर्वत प्रादि [असिस्थूलस्थूलाः इति स्कंधाः भणिताः] प्रतिस्थल-स्थल स्कंध कहे गये हैं [ सपिजलतलाद्याः ] घी, जल, तेल मादि को [ स्थूलाः इति विज्ञेयाः ] स्थूल स्कंध जानना चाहिये । [छायातपाद्याः ] छाया, आतप आदि [ स्थूलेतरस्कंधाः इति ] स्थूलसूक्ष्म स्कंध हैं ऐसा तुम जानो [च चतुरक्ष विषयाः स्कंधाः ] और चद्ध इन्द्रिय के बिना चार इन्द्रियों के विषयभूत स्कंध [ सक्ष्मस्थलाः इति भणिताः ] सूक्ष्मस्थूल इसप्रकार से कहे गये हैं। [ फर्मवर्गणस्य प्रायोग्याः ] कर्मवर्गणा के योग्य [ स्कंधाः सूक्ष्माः मति ] स्कंध सूक्ष्म होते हैं, [पुनः तद्विपरीताः स्कंधाः ] पुन: उससे विपरीत स्कंध [.प्रति सूधमाः इति प्ररूपयन्ति ] अतिसूक्ष्म इस प्रकार से प्ररूपित किये जाते हैं। . . . Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ६८) मियमसार विभावपुद्गलस्वरूपास्वानमेतत् । प्रतिस्थूलस्यूसा हि ते खलु पुद्गलाः सुमेरुकुम्भिनीप्रमृतयः । घृततलतमाक्षीरजलप्रमृतिसमस्तद्रध्याणि हि स्थूलपुद्गलाश्च । छायाप्तपतमःप्रमृतयः स्थूलसूक्ष्मपुद्गलाः । स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रेन्द्रियारणां विषयाः सूक्ष्मस्थलपुद्गलाः शब्बस्पारसगन्धरः । शुभाशुभपरिणामद्वारेणागच्छतां शुभाशुभकर्मणां योग्याः सूक्ष्मपुद्गलाः । एतेषां विपरीताः सूक्ष्मसूक्ष्मपुद्गलाः कर्मणामप्रायोग्या इत्यर्थः। अयं विभावपुद्गलक्रमः । तथा चोक्त पंचास्तिकायसमये-- "पुढवी जलं च छाया चउरिदियविसयकम्मपाओग्गा । कम्माप्तीदा एवं छम्मेया पोग्गला होति ।।" --- . ----- - -- - टोका-यह विभाव पुद्गल के स्वरूप का कथन है । वे सुमेरु, पथ्वो आदि ( धन पदार्थ ) निश्चित रूप से अति स्थल स्थल पुद्गल हैं । घी तेल, मट्ठा, दूध, जल आदि समस्त द्रव्य (द्रव पदार्थ ) स्थूल पद्गल हैं । छाया, श्रातप, अंधकार आदि स्थूल सूक्ष्म पुद्गल हैं | स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रियों के जो विषय स्पर्श, रस, गंध और शब्द हैं चे सूक्ष्मस्थूल पद्गल हैं। शुभ-अशुभ परिणाम के द्वारा आते हुये शुभ-अशुभ कर्मों के योग्य सूक्ष्म पुद्गल हैं और इनसे विपरीत कर्मों के अयोग्य पुद्गल सूक्ष्म सूक्ष्म पुद्गल हैं यह अर्थ हुआ । यह विभाव पुद्गल का क्रम है । उसी प्रकार से पंचास्ति काय आगम में कहा है--- मायार्थ-"पृथ्वी, जल, छाया, चार इन्द्रियों के विषय, कर्म, के योग्य और कर्मातीत इस प्रकार से पुद्गलों के छह भेद होते हैं" मार्गप्रकाश ग्रन्थ में भी कहा है-- लोकार्य-"स्थूल स्थूला उसके अनन्त र स्थूल, स्थूल सूक्ष्म इसके अनन्तर सूक्ष्म स्थूल उसके बाद सूक्ष्म और उससे परे सूक्ष्म सूक्ष्म ऐसे छह प्रकार के पुद्गल होते हैं।" Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजीमपषिकार Alm 1[RE उक्त च मागंप्रकाशे ( अनुष्टुम् ) "स्थूलस्थूलासानः स्थूलाः स्थलसवमास्तनपारे । सूक्ष्मस्थूलास्ततः सक्षमाः सूक्ष्मसषमास्तार परे ॥" ___ विशेषार्थ-दो अण, तीन अण आदि से लेकर अनन्तानन्त पर्यंत परमाणुगों के मिलने पर सघनरूप बनने को स्कंध कहते हैं । ये स्कंध, भेद और संघात से दोनों तरह से बनते हैं, जैसे घड़े ग्रादि को फोड़ने से भी नो टुकड़े होते है वे स्कंध रूप हो हैं तथा संघात अर्थात् मिलने से तो बनते ही हैं। ऐसे स्कंध के छह भेद माने हैंजिमको अन्य जगह ले जा सकते हैं जिसका छेदन, भेदन हो सकता है वे स्कंध प्रतिस्थल स्थल है में पृथ्वी आदि जिसकी अन्यत्र तो ले जा सकते हैं, किन्तु छेदन भेदन नहीं हो सकता है ऐसे द्रव पदार्थ स्थल कहलाते हैं जैसे-धी, तेल, जल प्रादि । जिनका छेदन-भेदन और अन्यत्र ले जाना आदि कुछ भी नहीं हो सकता है किन्तु अखिों से दिख रहे हैं एसे पूद्गल स्थूल सूक्ष्म हैं जैसे छाया, धूप आदि । जिनको ग्रहण कर सकते परन्तु जिनको देख नहीं सकते हैं ऐसे पुदगल सूक्ष्म स्थूल हैं। वे नेत्र के अतिरिक्त स्पर्शन आदि चार इन्द्रियों के विषय हैं जैसे घ्राण में सुगंध मा रही है, किन्तु दिखाई नहीं देती है । जिनको देख भी नहीं सके और ग्रहण करने का भी अनुभव न हो सके वे मूक्ष्म हैं जैसे कर्म के योग्य पुद्गल-ये प्रतिक्षण प्रात्मा में आ रहे हैं किन्तु इनका कुछ भी अनुभव प्रादि नहीं होता है। मूर्तिक होकर भी जो अत्यंत परोक्ष हों वे प्रति। सूक्ष्म सूक्ष्म हैं जैसे कर्म योग्य पुद्गल से विपरीत सूक्ष्म पुद्गल हैं । __ गोम्मटसार जीवकांड में पुद्गल के अंतिम भेद अतिसूक्ष्म सूक्ष्म के उदाहरण में अन्तर है पुत्री जलं च छाया चरिदिय विसय कम्म परमाणु । छविह भेयं भणियं पोग्गलदव्यं जिणवरेहि ॥६०२।। अर्थ-जिनेन्द्र देव ने पुद्गल द्रव्य के छह भेद कहे हैं-जैसे पृथ्वी, जल, छाया, चार इन्द्रियों के विषय, कर्म और परमाणु । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ] ७० तथा चोक्त ं श्रीमदमृतचन्द्र सूरिभिः नियमसार ( वसंततिलका ) "अस्मिन्ननाविनि महत्यविवेकनाटये वर्णादिमान् नति पुद्गल एव नान्यः । रागाविपुल विकारविदा शुद्धचैतन्यषामयमृतिरयं च जीवः ॥ " इन छह भेदों के क्या नाम हैं बादर बादर चादर वादसुहुमं च सूक्ष्मस्थूलं च । सुहमं च सुमसुमं धरादियं होदि छ भेयं ||६०३॥ अर्थ- बादर बादर, बादर, बादर सूक्ष्म, सूक्ष्म बादर, सूक्ष्म और सूक्ष्म सूक्ष्म इसप्रकार पुद्गल द्रव्य के छह भेद हैं। जिनके उदाहरण उपर्युक्त पृथ्वी आदि हैं । विशेष बात यह है कि यहां नियमसार ग्रन्थ में अंतिम जो भेद सूक्ष्म सूक्ष्म है उसके उदाहरण में कर्म के प्रयोग्य पुद्गल स्कंधों को लिया है और गोमटसार tasis में परमाणु को लिया है । इसका कारण यह है कि प्रकृत ग्रन्थ नियमसार में स्कंध के छह भेद किये हैं इस कारण उसमें परमाणु को ले नहीं सकते हैं क्योंकि यहां परमाणु को अलग लेकर उसके भी दो भेद किये हैं और यहां पर सामान्यतया पुद्गल के ही छह भेद हैं परमाणु को अलग नहीं किया है अतएव वहां पर जीवकांड में उन्हीं छह भेदों के उदाहरण में परमाणु को भी ले लिया ऐसा समझना चाहिये । उसी प्रकार से ( पुद्गल को जानकर उससे अपने आपको पृथक् करने के लिये ) श्रीमान् अमृतचन्द्र सूरि कहते हैं - — श्लोकार्थ – “ इस अनादिकालीन अविवेकरूपी नाट्यशाला में वर्णादिमान् पुद्गल ही नाच रहा है अन्य जीव नहीं नाच रहा है क्योंकि यह जीव रागादिरूप पौद्गलिक विकारों से विरुद्ध - विलक्षण, शुद्ध चैतन्य धातुमय मूर्ति स्वरूप हैं ।” १. समयसार कलश ४४ । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीव अधिकार तया हि ( मालिनी) इति विविधविकल्पे पुद्गले दृश्यमाने न च कुरु रतिभा भव्यशार्दूल तस्मिन् । कुरु रतिमतुला त्वं चिच्चमत्कारमा भवसि हि परमश्रोकामिनीकामरूपः ।।३।। धाउचउक्कस्स पुरषो, जं हेऊ कारणंति तं यो। खंधारणं अवसारणं, रणदिवो कज्जपरमाणु रिमा धातुचतुष्कस्य पुनः यो हेतुः कारणमिति स शेयः । स्कन्धानामवसानो ज्ञातव्यः कार्यपरमाणुः ॥२५॥ भू जल व अग्नि वायु घातु चार के लिये । जो हेतु उसको कारण परमाणु जानिये ।। इसीप्रकार श्री पद्मप्रभमलधारीदेव पद्गल से प्रीति हटाकर प्रात्मा में प्रीति करने के लिये उपदेश देते हुये कहते हैं ] ( ३ ) श्लोकार्थ – इसप्रकार दिखाई देने वाले नाना प्रकार के पुद्गलों में हे भव्योत्तम ! तू रति भाव मतकर । तू निच्चमत्कार मात्र प्रात्मा में अतुल रतिप्रीतिकर जिससे तू परम थी-मुक्ति श्री रूपी स्त्री का वल्लभ होगा। अर्थात् इन दिखने वाले पौद्गलिक पदार्थों से प्रीति हटाकर तू अपनी शुद्ध चैतन्य स्वरूप प्रात्मा में प्रीति कर जिससे संसार भ्रमण से तू छुट जायेगा। गाथा-२५ अन्वयार्थ- [ यः पुनः धातुचतुष्कस्प हेतुः ] जो पुनः धातु चतुष्क-पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु का हेतु-कारण है [ स कारणं इति शेयः ] वह कारण परमाणु -.- - - .--- १. परमाणु ( क ) पाठान्तर । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] नियमसार सम्पूर्ण स्कंधों का जो भी अन्त्य अंश है । यो कार्य प्रणु नाम से अति सूक्ष्म अंश है ॥२५॥ कारणकार्यपरमाणुद्रष्यस्वरूपाख्यानमेतत् । पृथिव्यप्तेजोवायवो घातवश्चत्वारः तेषां यो हेतुः स कारणपरमाणः। स एव जघन्यपरमाणुः स्निग्षरूक्षगुरणानामानन्त्याभावात् समविषमबंधयोरयोग्य इत्यर्थः । स्निग्धरूक्षगुणानामनन्तत्वस्योपरि द्वाम्याम -. -- है ऐसा जानना चाहिये [ स्कंधानां अवसानः ] स्कंधों का अक्सान-अंत को [ कार्यपरमाणुः ] कार्यपरमाणु [ ज्ञातयः } जाना चाहिये ।। टीका---यह कारण परमाणु और कार्य परमाणु रूप द्रव्य के स्वरूप का कथन है-- पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चार 'धातु' शब्द से कहे जाते हैं इनका जो हेतु है वह कारण परमाणु है वही जघन्य परमाण स्निग्ध और रूक्ष गुणों के अनन्त का अभाव होने से अर्थात् स्निग्ध-रूक्ष गुणों का अंत हो जाने से-एक स्निग्ध गुण और एक रूक्ष गुण वाला होने से सम और विषम बंध के अयोग्य है यह अर्थ हुना। अर्थात् जिस परमाण में एक ही गुण रहता है वह जघन्य कहलाता है वह बंध के अयोग्य है, '"न जघन्य गुणानां" जघन्य गुणों वाले परमाणुनों का बन्ध नहीं होता है ऐसा वचन है । स्निग्ध और रुक्ष गुणों के अनन्त के ऊपर दो गुण वाले का चार गुण वाले के साथ जो बंध है वह सम्बन्ध है और तीन गुण वाले परमाणु का पांच गुण वाले के साथ जो बंध है वह विषम बंध है यह उत्कृष्ट परमाणु है । गलित होते हुये पुद्गलों का जो अन्त है-अंतिम अवस्था है उसमें जो स्थित है-जो अंतिम अवस्था को प्राप्त हुआ पुद्गल का हिस्मा है वह कार्य परमाणु है। यहां पर कार्य, कारण तथा जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से अणु के चार भेद हो गये हैं। वह परमाणु द्रव्य अपने स्वरूप में स्थित है और उसमें विभाव का अभाव होने से वह परमस्वभाव वाला है । १. तत्त्वार्थ सूत्र अ.। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीव अधिकार [ ७३ अतुभिः समबन्धः त्रिमिः पंचभिविषमबन्धः । अयमुत्कृष्ट परमाणुः । गलतां पुद्गलसम्पाणाम अन्तोऽवसानस्तस्मिन् स्थितो यः स कार्यपरमाणः। प्रणवश्चतुर्भेदाः कार्यकारणजघन्योत्कृष्ट भेदः । तस्य परमाणवन्यस्य स्वरूपस्थितत्वात् विभावाभावात् परमस्वभाव इति । तथा चोक्तं प्रवचनसारे "णिद्धा वा लुक्खा वा प्रणपरिणामा समा व विसमा वा । समदो दुराधिगा जदि बज्झन्ति हि आदिपरिहोणा ।। णिद्धत्तऐण दुगुणो घदुगुणणिद्धष बन्धमणुभदि । लुक्लेण वा तिगुणिवो अणु बझदि पंचगुणजुत्तो ॥" तथा हि उसी प्रकार प्रवचनसार में भी कहा गया है-- गायार्थ -"'परमाणु के परिणाम स्निग्ध हों या रूक्ष हों, सम अंश वाले हों या विषम अंश वाले जघन्य अर्थात् एक अंश बाले को छोड़कर यदि समान से दो - अधिक अंश बाले हों तो बंधते हैं । स्निग्ध रूप से दो अंश वाला परमाणु चार अंश वाले स्निग्ध परमाणु के साथ बंध का अनुभव करता है-अर्थात् बंध जाता है अथवा मक्ष रूप से तीन अंश वाला परमाणु पांच अंश वाले परमाणु के साथ संयुक्त होता हुअा बंधता है।" विशेषार्थ-स्निग्ध या रूक्ष परमाण यदि जघन्य अंश वाला है अर्थात् एक अंश वाला है तो उसमें बंध नहीं हो सकता है । इसलिये दो अंश से प्रारम्भ करना चाहिये । इधर दो अंश वाला स्निग्ध परमाणु हो और दूसरा चार अंश वाला चाहे स्निग्ध हो चाहे रूक्ष हो बंध जावेगा और अधिक गुण वाला है वह कम गुण वाले को अपने रूप परिणमा लेगा "बंधेऽधिको पारिणामिको च' ऐसे ही तीन गुणवाला परमाणु यदि स्निग्ध है और दूसरा पांच गुण वाला चाहे स्निग्ध हो चाहे रूक्ष, उनमें बंध हो जावेगा। १.प्रवचनसार गाथा १६५-१६६ ॥ २, तत्त्वार्थस्त्र अ० ५। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dire नियममार ( अनुष्टुभ ) स्कन्धेस्तै : पदप्रकारः किं चतुभिरणुभिर्ममः । प्रास्मानमभयं शुद्ध भावमामि मुहुर्मुहुः ॥३६॥ अत्तादि अत्तमज्झं, अत्तत्तं णेव इंदिए गेझं । अविभागी जं दव्वं, परमाणू तं वियागाहि ॥२६॥ आत्माद्यात्ममध्यमात्मान्तं नेवेन्द्रियाह्यम् । अविभागि यद् द्रव्यं परमाणु तद् विजानीहि ।।२६॥ स्वयमेव जो है प्रादि व स्वयमेव मध्य है। स्वयमेव अत आप ही इन्द्रिय अग्राह्य है ।। जिसका विभाग हो न सके उसी द्रव्य को। मासे सदा तुम शास्त्र से समझो ।।२६।। - - [ प्रब टीकाकार श्री मुनिराज इन पुद्गलों को जानकर क्या करना चाहिये इस बात को बतलाते हुये फूलोक कहते हैं-] श्लोकार्थ-उन छह प्रकार के स्कंधों से और चार प्रकार के अणयों से मेरा क्या प्रयोजन है ? मैं तो अक्षय और शुद्ध आत्मा की पुन: पुन: भावना करता हूँ । गाया-२६ अन्वयार्थ-[ आत्मादि ] स्वयं जिसका स्वरूप ही आदि रूप है [ प्रात्ममध्यं ] स्वयं जिसका स्वरूप ही मध्य रूप है [ आत्मान्तं ] स्वयं जिसका स्वरूप ही अंतरूप है [ इंद्रियः ग्राह्य न एव ] जो इन्द्रियों से ग्रहण करने योग्य नहीं है [ यद द्रव्यं ] ऐसा जो द्रव्य [ अविभागि ] विभाग रहित है [ तत् परमाणु विजानीहि ] तुम उसको परमाणु जानो। भावार्थ-जो स्वयं ही आदि, मध्य और अंतरूप है अर्थात् जिसमें प्रादि, मध्य और अंत को व्यवस्था नहीं हो सकती है ऐसा जो इन्द्रियों के अगोचर पुद्गल १. वियागीहि (क) पाटान्तर । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्ग अजीव अधिकार [ ७५ परमाणु विशेषोक्तिरियम् । यथा जीवानां नित्यानित्यनि गोदा दिसिद्धक्षेत्रपर्यन्त स्थितानां सहजपरमपारिणामिकभावविवक्षासमाश्रयेण सहज निश्चयनयेन स्वस्वरूपादप्रच्यवनत्वमुक्तम्, तथा परमाणु द्रव्याणां पञ्चमभावेन परमस्वभावत्वादात्मपरिणतेरात्मवादिः, मध्यो हि आत्मपरिणतेरात्मैव, अंतोपि स्वस्थात्मैव परमाणुः । अतः न चेन्द्रियज्ञानगोचरत्वात् अनिलानलादिभिर विनश्वरवादविभागी हे शिष्य स परमाणुरिति त्वं तं जानीहि । का कोई एक सबसे छोटा टुकड़ा है कि जिसका अब दूसरा विभाग हो ही नहीं सकता है वह परमाणु कहलाता है । टीका - यह परमाणु का विशेष कथन है । जैसे सहज गरम पारिणामिक भाव की विवक्षा का आश्रय लेने वाले ऐसे सहज निश्चयनय की अपेक्षा से नित्य निगोद और इतर निगोद से लेकर सिद्ध क्षेत्र तक रहने वाले जीवों का अपने स्वरूप से प्रच्युत न होना कहा गया है उसी प्रकार से पंचम भाव रूप पारिणामिक भाव की अपेक्षा परमाणु द्रव्यों का परम स्वभाव रूप होने से प्रात्म परिणति की आत्मा ही प्रादि ग्रात्म परिणति की आत्मा ही मध्य है और अपनी आत्मा ही अंत भी है ऐसा परमाणु होता है इसलिये इन्द्रियज्ञान का विषय नहीं होने से वायु, अग्नि आदि से नष्ट न होने से अविभागी है, हे शिष्य ! वह परमाणु है इस प्रकार से तुम जानो । भावार्थ - नित्य निगोद से लेकर सिद्ध जीव पर्यंत सभी जीव सहज शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा मे अपने स्वरूप को नहीं छोड़ते हैं, प्रत्येक जीव में स्वाभाविक अनंत ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुख रूप अनंत चतुष्टय आदि ग्रनन्त गुण विद्यमान हैं । ये जीव संसारी हैं, इनकी आत्मा के गुणों को कर्मों ने घात रखा है। ये सिद्ध जीव है, इन्होंने कर्मों का नाश करके अपने अनंत गुणों को प्रगट कर लिया है । संसारी जीव दुःखी हैं और सिद्ध जीव सुखी हैं यह सब भेद भाव करने वाला व्यवहारनय ही है । यहां पुद्गल के परमाणु की शुद्ध श्रवस्था को बतलाने के लिये उपर्युक्त कथन को दृष्टांत रूप से लिया है। एक परमाणु का अपने स्वरूप से जो परिणमन हो रहा है। वही उसका आदि मध्य और अंत है अन्य कुछ यादि मध्य अंत का विभाग उस Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार ( अनुष्टुभ् ) प्रप्यात्मनि स्थिति बुद्ध्वा पुद्गलस्य जडात्मनः । सिखास्ते कि शिठंति स्वारगे जिवानि !!x.!! एयरसरूवगंधं बोकासं तं हवे सहावगुरणं । विहावगुणमिदि भणिदं, जिणसमये सच पयडत्तं ॥२७॥ एफरसरूपगंधः द्विस्पर्शः स भवेत्स्वभावगुणः । विभावगुण इति भणितो जिनसमये सर्वप्रफटत्वम् ।।२७।। जो एक रस व एक रूप एक गंध हैं। स्पशं दो हैं प्रा में स्वभावगुण वे हैं।। जिनदेव के शासन में कहें सर्वप्रगट जो । स्कन्ध में मुण जो रहें विभाव गुगा है वो ॥२७।। - - - - - - - - - - - परमाणु में नहीं है इसलिये बह अविभागी है तथा पवन अग्नि ग्रादि में वह नष्ट भी नहीं किया जा सकता है ऐसा परमाणु होता है । [ अब टीकाकार मुनिराज परमाणु रूप पुद्गल के और सिद्ध के स्वभाव का बोध कराते हुये श्लोक कहते हैं - ] ( ४० ) इलोकार्थ-जड़ात्मक पुद्गल की स्थिति को उसके स्वरूप में ही जानकर वे मिद्ध भगवान् चिदात्मक अपने स्वरूप में ही क्यों नहीं रहेंगे ? अर्थात रहेंग हो रहेंगे। भावार्थ-जड़ स्वरूप पुद्गल अपने जड़ स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं प्रत्युत अपने जड़ स्वभाव में ही रहते हैं उसी प्रकार से सिद्ध परमेष्ठी भी अपने चैतन्य स्वभाव में ही स्थिर रहते हैं यह अभिप्राय हुआ। गाथा-२७ अन्वयार्थ--[ एकरसरूपगंध: ] जो एक रस, एक वणं, एक गंध बाला है और [ विस्पर्शः ] दो स्पर्श गुण बाला है [ सः ] वह [ स्वभाव गुणः ] स्वभाव गुण वाला है [ सर्व प्रकटस्वं ] जिसमें सब गुण प्रकट हैं वह [ विमाव गुणः ] विभाव गुण वाला है [ इति जिनसमये भणितं ] इस प्रकार जिन शासन में कहा गया है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : प्रजीव अधिकार [७७ __ स्वभावपुद्गलस्वरूपाख्यानमेतत् । तिक्तकटुककषायाम्लमधुराभिषानेषु पंचसु दरसेवेकरसः, श्वेतपोतहरितारणकृष्णवर्णेष्वेकवर्णः, सुगन्धदुर्गन्धयोरेकगंधः, कर्कशमृदुगुरुलघुशीतोष्णस्निग्घरूक्षाभिधानामष्टानामन्त्यचतुःस्पर्शाविरोधस्पर्शनद्वयम्, एते परमागोः स्वभावगुणाः जिनानां मते । विभावगुणात्मको विभावपुद्गलः। प्रस्य दयणकादिस्कन्धरूपस्य विभावगुणाः सकलकरणग्रामग्राह्या इत्यर्थः । तथा चोक्तं पंचास्तिकायसमये 'एयरसवण्णगंधं दोफासं सहकारणमसह । खंतरिदं दव्यं परमाणु तं वियाणाहि ।।" - .-.- - .- ... .-- - -. टीका - यह स्वभाव पुद्गल के स्वरूप का कथन है। चरपरा, कडुवा, कषायला, खट्टा और मीठा इन पांच रसों में से एक रस, सफेद, गीला, हरा, काला और लाल इन पांच वर्गों में से कोई एक वर्ग, सुगंध और दुर्गध में से कोई एक गंध, कठोर, कोमल, भारी, हलका, ठंडा, गरम, चिकना और रूखा इन पाठ म्पों में अंतिम चार में से अविरोधी दो स्पर्श जिनेन्द्र भगवान के मत में इन्हें परमाणु के स्वभाव गुण कहा है। विभाव गुण वाला विभाघ पुद्गल है। इस दूधणुक आदि स्कन्ध रूप विभाव पुद्गल के जो विभाव गुण हैं वे सभी इन्द्रियों के ग्रहण करने योग्य होते हैं ऐसा अर्थ है। पंचास्तिकाय अागम में भी कहा है गाथार्थ -'जो एक रस, एफ वर्ण, एक गंध वाला है, दो स्पर्श घाला है, शब्द का कारण है और स्वयं अशब्द है ऐसा स्कंध से अंतरित जो द्रव्य है, उसे तुम परमाणु जानो । अर्थात् परमाणु शब्द का कारण तो है किन्तु स्वयं शब्दरूप नहीं है क्योंकि 'शब्द' यह पुद्गल को विभाव पर्याय है । “शब्द, बंध, सूक्ष्मता, स्थूलता, १. पंचास्तिकाम गाथा ८१ १२. तत्त्वार्थसत्र म० ५ मूत्र २४ । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] उक्तं च मार्गप्रकाशे - तथा हि नियमसार ( धनुष्टुभ् ) | " वसुधान्त्यचतुःस्पषु चिन्त्यं स्पर्शन वरण गन्धो रसश्चैकः परमाणोः न चेतरे ।। " ( मालिनो ) अथ सति परमाणो रेकवर्णादिभास्वन् निजगुणनिचयेऽस्मिन् नास्ति मे कार्यसिद्धिः । इति निजहृदि मस्वा शुद्धमात्मानमेकम् परमसुखपदार्थो भावयेद्भव्यलोकः ||४१ ॥ संस्थान, भेद, तम छाया आतप और उद्योन ये सब पुद्गल की पर्यायें हैं ऐसा कहा है । मार्गप्रकाश ग्रन्थ में भी कहा है श्लोकार्थ - "आठ प्रकार के स्पर्शो में अंतिम चार स्पर्शो के दो स्पर्श अर्थात् शोत- उष्ण में से कोई एक और स्निग्ध-रुक्ष में से कोई एक ऐसे दो स्पर्श, एक वर्ग, एक गंध और एक रस परमाणु में ये पांच गुण समझना चाहिये शेष अन्य गुण नहीं होते हैं ।" [ अब टीकाकार श्री मुनिराज परमाणु के स्वरूप को समझकर क्या करना चाहिये, इस बात को बताते हुए एक श्लोक कहते हैं- I ( ४१ ) श्लोकार्थ - परमाणु में एक वर्णादि रूप भासमान अपने गुणों का समुदाय होने पर भी उसमें मेरे कार्य की सिद्धि नहीं है। इस प्रकार से अपने हृदय में समझकर परम सुखपद मोक्ष की इच्छुक भव्य जीव प्रपनी शुद्ध एक आत्मा को भावना करें 1 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजीव अधिकार [ ७६ अण्परिणरावेक्खो जो, परिणामो सो सहावपज्जासो' । खंघसरूवेण पुरणो, परिणामो सो विहावपज्जानो ॥२८॥ अन्यनिरपेक्षो यः परिणामः स स्वभावपर्यायः । स्कंधस्वरूपेण पुनः परिणामः स विभावपर्यायः ॥२८॥ जो प्रन्य से निरपेक्ष है परिणाम प्राण का । वह है स्वभाव नाम से पर्याय अणू का ॥ स्कन्धरूप से पुन: जो परिणमन हुआ । । सो विगाव पों से भेद युत हुआ ॥२८॥ पुद्गलपर्यायस्वरूपाख्यानमेतत् । परमाणुपर्यायः पुद्गलस्य शुद्धपर्यायः परमपारिणामिकभावलक्षणा वस्तुगतषट्प्रकारहानिवृद्धिरूपः अतिसक्ष्मः अर्थपर्यायात्मक मादिनिधनोऽपि परद्रष्यनिरपेक्षत्वाच्छुद्धसदभूतध्यवहारनयात्मकः । अथवा हि -- -- -- -- - - - - गाथा-२८ अन्वयार्थ—-[ अन्यनिरपेक्षः ] अन्य की अपेक्षा से रहित [ यः ] जो । [परिणामः ] परिणाम है [ R: ] वह [ स्वभाव पर्यायः ] स्वभाव पर्याय है पुनः ] और [ स्कंध स्वरूपेण ] स्कंध रूप से [ परिणामा ] जो परिणमन है [ सः ] । वह [ विभावपर्याय: ] विभाव पर्याय है। टोका--यह पुद्गल की पर्याय के स्वरूप का कथन है । परमाण पर्याय पुद्गल द्रव्य को शुद्ध पर्याय है जो कि परम पारिणामिक भाव लक्षण वाली है, वस्तु में होने वालो छह प्रकार की हानि वृद्धि रूप है, अति सूक्ष्म है, अर्थ पर्याय स्वरूप है और सादि-मांत होते हुये भी परद्रव्य से निरपेक्ष होने से शुद्ध सद्भुत व्यबहारनय स्वरूप है । अथवा निश्चित रूप से एक समय में भी उत्पाद व्यय धोव्यात्मक होने से सूक्ष्म ऋजु सूत्र नयात्मक है। स्कन्ध पर्याय स्वजातीय बंध के लक्षण से सहित होने से अशुद्ध है। - - - - -- १. पग्जावो ( क ) पाठान्तर । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - - - ८०] नियमसार एकस्मिन् समयेऽप्युत्पावथ्ययध्रौव्यात्मकत्वात् सक्षमऋजुसूत्रनयात्मकः । स्कन्धपर्यायः स्वजातीयबन्धलक्षणलक्षितत्वादशुद्ध इति । ( मालिनी ) परपरिणतिहरे शुद्धपर्यायरूपे सति न च परमाणोः स्कन्धपर्यायशब्दः । भगवति जिननाथे पंचबाणस्य वार्ता न च भवति यथेयं सोऽपि नित्यं तथैव ।।४।। - -- विशेषार्थ-- ''भेदादणुः' इस सूत्र की टीका में भट्टाकलंकदेव ने कहा है कि इस सत्र के पृथक् करने का अभिप्राय यही है कि 'अगु' भेद से ही बनता है। अनादिकाल से शुद्ध अणु कभी भी नहीं था। जैसे कि सिद्ध जीव संसार पूर्वक ही मुक्त हुए हैं अनादिकाल से मुक्त रूप कभी भी नहीं थे । --- - -- | अब टीकाकार परमाणु को पर परिणति से रहित बताते हुए उदाहरण देकर स्पष्ट करते हुए श्लोक कहते हैं- ] ( ४२ ) श्लोकार्थ--परमाण में पर परिणति में दूर शुद्ध पर्याय रूप होने पर उसमें स्कन्ध की पर्यायरूप शब्द नहीं है। जैसे कि जिनेन्द्र भगवान् में कामदेव की वार्ता नहीं है उसी प्रकार से परमाणु भी नित्य है उसमें शब्द रूप पर्याय नहीं है । भावार्थ-यहां टीकाकार अपने कलश में कहते हैं कि जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान में कामदेव की बात भी नहीं है उसी प्रकार से परमाण में शब्द पर्याय नहीं है कि शब्दपर्याय पुद्गल स्कन्ध की ही है। परंमाण नित्य द्रव्य है पर-दूसरे अण अथवा जीव आदि के सम्पर्क से रहित है शुद्धपर्याय वाला है उसमें स्कन्ध की पर्याय असम्भव हैं। १. तत्त्वार्थवातिक भाग २१० ४-९-४ प्र. ५ मूत्र २७ ।। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पजीव अधिकार पोग्गलववं उच्चद, परमाणु रिगच्छएरण इदरेण । पोग्गलदव्वो ति पुणो, ववदेसो होवि खंघस्स ॥२६॥ पुद्गलद्रव्यमुच्यते परमाणुनिश्चयेन इतरेण । पढगलतव्यमिति पनः व्यपदेशो भवति स्कायस्य ।।२६॥ निश्चय से तो परमाणु ही पुदगल दरब कहा । स्कन्ध तो पुदगल दरब व्यवहार से रहा ।। स्कन्ध हैं प्रशुद्ध द्रव्य प्रणू शुद्ध हैं। जो कुछ भी दिख रहा सभी स्कन्ध रूप हैं ।।२६।। पुद्गलद्रव्यव्याख्यानोपसंहारोऽयम् । स्वभावयुद्धपर्यायात्मकस्य परमाणोरेव मलायव्यपदेशः शुद्धनिश्चयेन । इतरेण व्यवहारनयेन विभावपर्यायात्मनां स्कन्ध. मलाना पुद्गलत्वमुपचारतः सिद्ध भवति । - - - - - -- - - -- - - -- गाथा २६ अन्वयार्थ --[ निश्चयेन ] निश्चयनय से [परमाणुः] परमाणु को [ पुद्गल म्यं उच्यते ] पुद्गल द्रव्य कहा जाता है और [ इतरेण ] व्यवहारनय से [ पुनः सन्यस्य ] पुनः स्कंध को [ पुद्गलद्रव्यं इति ध्यपदेशः इतिः ] 'पुद्गल द्रव्य' ऐसा नाम होता है। टोका--यह पुद्गल द्रव्य के व्याख्यान का उपसंहार है । शुद्ध निश्चयनय से स्वभाव से शुद्ध पर्यायस्वरूप परमाण को ही पुद्गल द्रव्य - यह नाम होता है और इतर-व्यवहारनय की अपेक्षा से विभाव पर्याय स्वरूप स्कन्धरूप पुद्गलों में पुद्गलपना उपचार से सिद्ध होता है। - [अब टीकाकार श्री मुनिराज जीव और पुद्गल के विकल्पों से परे निर्विकल्प अवस्थारूप ध्यान की सिद्धि के हेतु प्रेरणा देते हुए तीन श्लोक कहते हैं । ] Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T -२ ] नियमसार (मालिनी ) इति जिनपतिमार्गाद् बुद्धतत्वार्थजातः त्यजतु परमशेषं चेतनाचेतनं च । भजतु परमतत्वं चिचमत्कारमात्रं परविरहितमन्त निर्विकल्पे समाधी ||४३|| ( अनुष्टुभ् ) जीवश्चेतनश्चेति कल्पना । पुद्गलोऽचेतनो सापि प्राथमिकानां स्थान स्यान्निष्यन्नयोगिनाम् ॥ ४४ ॥ ( ४३ ) श्लोकार्थ- - इस प्रकार से जिनेन्द्र भगवान् के मार्ग ( आगम ) से जान लिया है तत्त्वार्थ के समूह को जिसने ऐसे भव्य जीव सम्पूर्ण चेतन और अचेतन रूप परद्रव्य को छोड़ो तथा अन्तरंग निर्विकल्प समाधि में पर से विरहित चिच्चमत्कार मात्र परम तत्त्व का आश्रय देवो । - भावार्थ – ग्रन्थकार ने यह स्पष्ट किया है कि निश्चयनय से परमाणु ही पुद्गल द्रव्य है और व्यवहारनय से स्कन्ध को भी पुद्गल द्रव्य कहा जाता है। यहां टीकाकार का कहना है कि जिनेन्द्र भगवान् के आगम से जीव प्रजीव आदि तत्त्वों को समझकर अपने से भिन्न सभी चेतन श्रचेतन द्रव्यों का सम्पर्क छोड़ो और वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर चिच्चैतन्य स्वरूप अपनी शुद्धात्मा का ध्यान करो । ( ४४ ) श्लोकार्थ - पुद्गल अचेतन है और जीव चेतन है इसप्रकार की जो कल्पना है वह प्राथमिक शिष्यों को होती है किन्तु निष्पन्न योगियों को यह कल्पना नहीं होती है । भावार्थ - चौथे से छठे गुणस्थान तक जीव प्राथमिक शिष्य कहलाते हैं क्योंकि ये सविकल्प अवस्था में हैं और यहीं तक जीव चेतन है, पुद्गल अचेतन है ऐसी कल्पनायें होती हैं प्रागे निर्विकल्प ध्यान में यह विकल्प ही नहीं उठता है प्रतएव निर्वि कल्प ध्यानी योगी निष्पन्न योगी कहलाते हैं क्योंकि वे योग ध्यान के अभ्यास में निष्पन्न ( कुशल ) हो चुके है ग्रतः उनके ध्यान में ये कल्पनायें कैसे हो सकती हैं ? Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L प्रजीव अधिकार ( उपेन्द्रवज्रा) प्रचेतने पुद्गलकायकेऽस्मिन् सचेतने वा परमात्मतत्त्वे । न रोषभावो न च रामभावो भवेदियं शुखदशा यतीनाम् ॥४५॥ ( ४५ ) श्लोकार्थ--पुद्गलकाय रूप इस अचेतन में अथवा परमात्म तत्त्व रूप सचेतन में न द्वेषभाव है न रागभाव है। यह शुद्ध दशा यतियों की होती है । विशेषार्थ--पुद्गलकाय स्प अचेतन में द्वग नहीं होवे और परमात्म तत्त्व रूप चेतन द्रव्य में राग नहीं होवे यह वीतराग शुद्ध दशा यतियों के ही हो सकती है। असंयत सम्यग्दृष्टि या देशव्रती श्रावकों में तो असम्भव हो है, किन्तु छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों को भी परमात्म तत्त्व स्वरूप अरिहंत सिद्ध परमेष्ठियों में अनुराग पाया जाता है। छठे गुणस्थान के योग्य वंदना, स्तुति आदि क्रियानों में वे मुनि प्रवृत्त होते हैं । श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने भी स्वयं प्रवचनसार में मुनियों की सराग चर्या का विधान किया है । यथा साधु अवस्था में यदि अर्हतादि के प्रति भक्ति तथा प्रवचनरत जीवों के प्रति वात्सल्य पाया जाता है तो वह शुभोपयोगी चर्या है । साधु श्रमणों के प्रति वंदन, नमस्कार पूर्वक खड़े होना, पीछे चलना, विनय सहित प्रवृत्ति करना, उनको थकान दूर करना आदि करते हैं तो वह स राग चर्या में निषिद्ध नहीं है, प्रत्युत सम्यग्दर्शन ज्ञान का उपदेश, शिष्यों का संग्रह, उनका पोषण और जिनेन्द्र भगवान की पूजा का उपदेश ये सब सरागी मुनियों की चर्या है । १. मरिहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु । विज दि जाँद सामपणे सा सुहजुत्ता भवे चरिया ॥२४६।। वंदणणमंसगेहि अन्मुट्ठाणाणुगमण पडिवित्ती । समणेसु समावणमोण गिदिदा राय चरियम्हि ।।२४०।। दसणणाणुबदेसो सिस्सग्गहण च पोसण तेसिं । चरिम्हि सरागाणां जिरिंणध पूजोवदेसो य ||२४८।। -प्रवचनसार Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार गमपरिणमित्तं धम्ममधम्म ठिदि जीवपुग्गलारणं च । अवगहणं प्रायासं, जीवादीसव्वदव्वाणं ॥३०॥ गमननिमिचो धर्मोऽधर्म:स्थितेः जीवपुद्गलानां च । अवगाहनस्याकाशं जीवादिसर्वद्रयाणाम् ॥३०॥ जो जीव और पुदगलों के चलने में कारण । वो धर्म द्रव्य भी प्रधम रुकने में कारण ।। जीवादि सर्व द्रव्य को प्रकाश जो देता । प्राकाश द्रव्य है वही सबको समा लेता 11३०।। धर्माधर्माकाशानां संक्षेपोक्तिरियम् । अयं धर्मास्तिकायः स्वयं गतिक्रियारहितः दोधिकोदकवत् । स्वभावगतिक्रियापरिणतस्पायोगिनः पञ्चह्रस्वाक्षरोच्चारणमात्रस्थितस्थ भगवतः सिद्धनामधेययोग्यस्य षट्कापक्रमविमुक्तस्य मुक्तिवामलोचतालोचनगोचरस्य [ अब सूत्रकार धर्म, अधर्म और प्रकाश द्रव्य का वर्णन करते हुए कहते हैं :-] गाथा ३० अन्वयार्थ- [ जीवपुद्गलानां गमननिमिनः ] जीव और पुद्गलों के गमन का निमित्त है [ धर्मः ] धर्मद्रव्य [च ] और [ स्थितेः अधर्मः ] स्थिति का निमित्त अधर्मद्रव्य है, [ जीवादिसर्वव्यारवां ] जीवादि सभी द्रव्यों के [अवगाहनस्य प्राकाशं] अवकाश दान देने का निमित्त आकाश द्रव्य है । टोका--यह धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यों का संक्षिप्त कथन है । यह धर्मास्तिकाय बावड़ी के जल सदृश स्वयं गतिक्रिया से रहित है । स्वाभाविक गतिक्रिया रूप से परिणत जो प्रयोग केवली भगवान् हैं यह धर्म द्रव्य उनकी स्वाभाविक गतिक्रिया में हेतु है । वे प्रयोग केवली भगवान् कैसे हैं ? पांच ह्रस्व अक्षर अ इ उ ऋ लु इनके उच्चारण मात्र काल की जिनको स्थिति है जो 'सिद्ध' इस नाम के योग्य हैं छह प्रकार के अपक्रम से रहित हैं अर्थात् पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण, ऊर्ध्व और अधः ये छह गतियां संसारी Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A . - ....... अजीव प्रधिकार । ८५ त्रिलोकशिखरिशेखरस्य अपहस्तितसमस्तक्लेशावासपञ्चविधसंसारस्य पंचमगतिप्राप्तस्य समावगतिक्रियाहेतुः धर्मः। अपि च षट्कापक्रमयुक्तानां संसारिणां विमावतिक्रियाहेतुश्च । यथोदकं पाठीनानां गमन कारणं तथा तेषां जीवपुद्गलानां गमनकारणं स धर्मः । सोऽयममूर्तः अष्टस्पर्शनविनिमुक्तः वर्णरसपंचकगंधद्वितयविनिमुक्तश्च अगुरुकलघुत्वादिगुणाधारः लोकमात्राकारः प्रखण्डकपदार्थः । सहभुवो गुणाः क्रमयतिनः पर्यायाश्चेति वचनादस्य गतिहेतोधर्मद्रव्यस्य शुद्धगुणाः शुद्धपर्याया भवन्ति । अधर्मद्रष्यस्य -- - - - - - - - - - ----- - - - - - - जीवों की होती हैं इन्हें ही छह अपक्रम कहते हैं वे अयोग केवली इन गतियों से रहित है, जो मुक्ति सुन्दरी के लोचन के गोचर हैं-जिन्हें मुक्ति सुन्दरी देख रही है, जो तीन 1. लोक के शियरी के उन ग-पर्वत के शेखर स्वरूप हैं, जिन्होंने सम्पूर्ण कलश के निवास गृह स्वरूप पांच प्रकार - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप संसार को समाप्त कर दिया है और जो पंचमगति-मोक्षगति के किनारे पहुंच चुके हैं मे अयोगकेवली भगवान की स्वाभाविक गति में वह धर्म द्रव्य कारण होता है और छह अपक्रम से सहिन संसारी जीवों की विभागतिरूप क्रिया में भी यह हेतु होता है । ___जिस प्रकार मछलियों के गमन का कारण जल है उसी प्रकार उन जीव और पुद्गलों के गमन का कारण यह धर्मद्रव्य है । सो यह द्रव्य अमुत्तिक पाठ स्पर्शों से रहित, पांच वर्ण, पांच रस और दो गन्ध से रहित अगुरुलघु ग्रादि गणों का आधारभुत, लोकमात्र प्राकार वाला, अखण्ड एक पदार्य है। 'सहभावी गुण होते हैं और क्रमवर्ती पर्याय होती हैं। इस कथन से इस गति हेतुक धर्मद्रव्य के शुद्ध गुण और शुद्ध पर्यायें होती हैं । अधर्म द्रव्य का स्थिति में हेतु होना यह विशेष गुण है। इस अधर्म द्रव्य के भी धर्मास्तिकाय के हो सभी गुण और पर्यायें होती हैं । अर्थात् धर्म द्रव्य का गति हेतत्व और अधर्म द्रव्य का स्थिति हेतुत्व दोनों द्रव्यों के ये गुण विशेष हैं जो कि दोनों में अन्तर कर देते हैं बाकी सारे गुण और पर्यायें भी समान ही हैं। अाकाश द्रव्य का अवकाश देना लक्षण ही विशेष गुण है शेष जो धर्म और अधर्म के गुण हैं वे इस आकाश में भी सदृश ही हैं । लोकाकाश धर्म, अधर्म ये समान Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६] नियमसार स्थितिहेतुविशेषगुणः । प्रस्येव तस्य धर्मास्तिकायस्य गुणपर्यायाः सर्वे भवन्ति । आकाशस्यावकाशवानलक्षणमेव विशेषगुणः । इतरे धर्माधर्मयोगुणाः स्वस्यापि सदृशा इत्यर्थः । लोकाकाशधर्माधर्माणां समासप्रमाणत्वे सति न ह्यलोकाकाशस्य ह्रस्वत्वमिति । - प्रमाण वाले होने पर भी प्रलोकाकाश को ह्रस्वपना-छोटापना नहीं होता है । विशेषार्थ---यह धर्म द्रव्य स्वयं तो किया हीन निष्क्रिय द्रव्य है 'निष्क्रियाणि च'- धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य एक-एक हैं और निष्क्रिय हैं ऐसा वचन है फिर भी ये धर्म-अधर्म दोनों द्रव्य जीव और पुद्गलों को स्वभाव तथा विभावरूप दोनों प्रकार की ही गमन क्रियायों में और दोनों प्रकार की ही स्थिति क्रियाओं में हेतु होते हैं। ये उदासीन हेतु मात्र में विवक्षित हैं प्रेरक हेतु नहीं है। __ सबसे प्रथम टीकाकार ने अयोगके बली की जो कर्मों से छूटकर लोक के अग्रभाग में जाने रूप गति होती है । उसे धर्मद्रव्य की गति में उदाहरण रूप से लिया है। सिद्धों की वह गति स्वाभाविक मानी गई है । "जीवो उव प्रोगमयो अमृत्ति कत्ता सदेह परिणामो। भोत्ता संसारस्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई ।। २ ।।" गाचार्य- यह जीव है, उपयोगमयी है, अमूत्तिक है, कर्ता है, स्वदेह परिणाम वाला है, भोता है, संसारो है, सिद्ध है और स्वभाव से ही ऊर्ध्वगमन करनेवाला है । अर्थात् इस जीव का स्वभाव उर्वगमन करने का ही है। तभी तो कर्मों से छूटते हुए ऊर्ध्वगमन कर जाता है और लोक के आगे धर्म द्रव्य के न होने से ही वहां पर अग्रभाग में ठहर जाता है 1 "धर्मास्तिकायाभावात्' ऐसा सूत्र है। __ अनन्तर टीकाकार ने इस धर्म द्रव्य के कतिपय प्रमुख-प्रमुख गुणों को भी बता दिया है। आगे अधर्म द्रव्य और आकाश द्रव्य के विशेष लक्षण को बताकर कह दिया है कि बाकी के सभी गुण तीनों द्रव्यों में समान ही हैं। ये धर्म अधर्म दो द्रव्य १. तत्त्वार्थ मूत्र घ. ५ सूत्र । २. द्रव्यसंग्रह । ३. तन्वायसूत्र अ. १० सूत्र | Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीव अधिकार ( मालिनी ) इह गमननिमित्तं यरिस्यतेः कारणं या यदपरमखिलानां स्थानदानप्रवोणम् । तदखिलमवलोक्य द्रव्यरूपेण सम्यक प्रविशतु निजतत्त्वं सर्वदा भव्यलोकः ||४६ ॥ समयावलिभेवेरण दु, दुवियप्पं श्रहव होइ तिवियप्पं । तोदो संखेज्जावलिहद सिद्धाणप्यमाणं तु ॥३१॥ [ ८७ लोकाकाश प्रमाण हैं । ""धर्माधर्मयोः कृत्स्ने" ये द्रव्य लोकाकाश में तिल में तेल की तरह व्याप्त हैं ऐसा समझना चाहिये, इसलिए इन दोनों द्रव्यों का आकार भी लोकाकाश के समान है और प्रदेश भी लोकाकाश प्रमाण असंख्यात हैं । प्राकाश सभी द्रव्यों को जगह देता । इसके लोकाकाश और प्रलोकाकाश ऐसे दो भेद हैं- पुरुषाकार लोकाकाश से परे सब ओर अनन्तानन्त अलोकाकाश ही है । लोकाकाश के बाहर और कोई द्रव्य नहीं है । [ अब टीकाकार श्री मुनिराज इन द्रव्यों को जानकर ग्रात्म द्रव्य में स्थिर होना चाहिए ऐसा कहते हुए एक श्लोक कहते हैं - ] ( ४६ ) श्लोकार्थ - - यहां लोक में ( जी और पुद्गल को } गमन में निमित्त ( धर्म द्रव्य ) है और जो स्थिति में कारण है, जो अपर - अन्य द्रव्य अखिल द्रव्यों को स्थान देने में प्रवीण है इन सभी को द्रव्यरूप से सम्यक् प्रकार अवलोकन करके भव्यजीव सर्वदा अपने श्रात्म तत्त्व में प्रवेश करो । भावार्थ - टीकाकार कहते हैं कि इन द्रव्यों को द्रव्यरूप से जानकर अपने श्रात्म स्वरूप का अवलोकन करो। [ अब सूत्रकार काल द्रव्य का लक्षण कहते हुए तीन गाथा सूत्र कहते हैं - ] १. तत्वार्थ प्र. ५ सूत्र १३ । 1 ! Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ८६ ] नियमसार समयावलिभेदेन तु द्विविकल्पोऽथवा भवति त्रिविकल्पः । प्रतीत: संख्याताव लिहत संस्थान प्रमाणस्तु ।। ३१ ।। व्यवहार काल के समय आवलि ये भेद दो । या भूत वर्तमान भात्रि तीन रूप वो || संसार में अबतक के जो संस्थान धरे है । उनके सदृश अनंत समय भूतकाल है ।। ३१ ।। व्यवहारकालस्वरूपविविध विकल्पकथनमिदम् । एकस्मिन्नभः प्रदेशे यः परमाणुस्तिष्ठति तमन्यः परमाणुमंन्दचलनान्लंघयति स समयो व्यवहारकालः । तादृशैरसंख्यातसमर्थः निमिषः, अथवा नयनपुट घटनायतो निमेषः । निमेषाष्टकः काष्ठा । षोढशभिः काष्ठाभिः कला । द्वात्रिंशत्कलाभिघंटिका । षष्टिनालिकमहोरात्रम् । वितर्मायः । गाथा ३१ अन्वयार्थ --- [ समयावलि मेवेन तु द्विविकल्प: ] समय और श्रावलि के भेद से काल दो प्रकार का है [ अथवा त्रिविकल्पः भवति ] अथवा त्रिभेद वाला - भूत, भविष्यत् वर्तमान भेद वाला होता है । [ अतीतः ] भूतकाल [ संख्यातावलिहतसंस्थान प्रमाणस्तु ] संख्यात प्रावलि से गुणित संस्थान प्रमाण है । टीका - यह व्यवहार के स्वरूप का और उसके अनेकों भेदों का कथन है । एक आकाश के प्रदेश पर जो परमाणु ठहरा हुआ है उसको मन्दगति से अन्य परमाणु उल्लंघन करता है उतना मात्र काल वह 'समय' नाम का व्यवहार काल है ऐसे असंख्यात समयों का एक 'निमिष' होता है अथवा नेत्र के पलक झपकने में जितना काल लगता है वह 'निमिष' है । आठ निमियों को एक 'काष्ठा' होती है, सोलह काष्ठाओं की एक 'कला', बत्तीस कलामों की एक 'घड़ी', साठ 'घड़ी' का एक दिनरात तीस दिन रात का एक मास दो मास की एक ऋतु, तीन ऋतुओं का एक प्रयत और दो अयन का एक संवत्सर होता है । ऐसा प्रावली आदि रूप से व्यवहार काल का क्रम कहा । इसप्रकार से यह व्यवहार काल समय और भावलि के भेद से दो प्रकार का है अथवा प्रतीत, अनागत और वर्तमान के भेद से तीन प्रकार का है । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजीव मधिकार [ <ε fter ar | द्वाभ्याम् मासाभ्याम् ऋतुः । ऋतुभिस्त्रिभिरयनम् । अयनद्वयेन संवत्सरः । इत्यावन्यादिव्यवहार कालक्रमः । इत्थं समयावलिमेदेन द्विधा भवति, प्रतीतानागतवर्तमानमेवात् atarra अतीत सिद्धानां सिद्धपर्यायप्रादूर्भावसमयात् पुरागतो ह्यावन्यादिव्यवहारकालः स कालस्यैषां संसारावस्थायां यानि संस्थानानि गतानि तैः सदृशत्वादनन्तः । प्रनागतकालोप्यनागत सिद्धानामनागतशरीराणि यानि तैः सदृश इत्यामुक्त ेः सकाशादित्यर्थः । : तथा चोक्त' पंचास्तिकायसमये - "समग्र णिमिसो कट्ठा कला य खाली तदो दिवारो । मासोदप्रयणसंघच्छरो चि कालो परायत्तो ।।" - व तीतकाल का विस्तार कहते हैं - अतीत कालीन सिद्धों के सिद्ध पर्याय के उत्पन्न होने के समय से पूर्व बीता हुआ जो आवलि आदि व्यवहारकाल है वह इन सिद्धों के संसार अवस्था में जितने संस्थान - प्राकार शरीर व्यतीत हो चुके हैं उनके सहश होने से 'नंत' प्रमाण हैं । अनागतकाल भी अनागत सिद्धों के जितने अनागत शरीर होवेंगे उनके सदृश होने से उन ग्रनागत सिद्धों के मुक्त होने पर्यन्त जितना अर्थात् अनन्त है । पंचास्तिकाय सिद्धान्त में भी कहा है गाथार्थ - 'समय, निमिष, काष्ठा, कला, घड़ी, उससे आगे दिन-रात, मास, ऋतु, अपन और संवत्सर इसप्रकार का काल पराश्रित काल कहलाता है | प्रर्थात् परमाणु के मन्दगति से गमन आदि और सूर्य के उदय प्रस्तमन आदि की अपेक्षा रखने से यह पराश्रित होता है और यह व्यवहार कहलाता है । १. गोमटसारजीवकांड | 1 विशेषार्थ -- यहां पर आचार्यदेव ने दो गाथानों द्वारा व्यवहार के भूत, भवियत् और वर्तमान ऐसे तीन भेद बतलाकर उनमें कितने समय होते हैं इसका वर्णन किया है जो कि ग्रस्पष्ट है। इसी संबंध में 'नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने भी कहा है ------ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० ] तथा हि नियमसार ( मालिनी ) समय निमिषकाष्ठा सत्कलानाडिकाद्याद् दिवसरजनिमेवाज्जायते काल एषः । ववहारो पुतिविहोतीदो वनगो भविस्सो दु । तदो संखेज्जावलि हद सिद्धाणं पमाणं तु ॥ ५७८ ।। गाथार्थ - व्यवहार काल के तीन भेद हैं- भूत, वर्तमान, भविष्यत् । इनमें से सिद्धराशि का संख्यानावलि के प्रमाण से गुणा करने पर जो प्रमाण हो उतना ही अतीत अर्थात् भूतकाल का प्रमाण है । भावार्थ - छह महिना प्राठ समय में छह सौ आठ जीव मुक्ति प्राप्त करते हैं और सिद्ध राशि जीव राशि के अनन्तवें भाग है । यह सिद्ध राशि कितने काल में हुई इसके लिए त्रैराशिक फलराशि छह महीना व समय और इच्छाराशि सिद्धों के प्रमाण गुणा करके प्रमाण राशि छह सौ आठ का भाग देने पर अतीत काल का प्रमाण संख्यातावलि गुणित सिद्धराशि लब्ध प्राता है । वर्तमान और भविष्यत् काल का प्रमाण बताते हैं से समयो दु वट्टमाणो जीवादी सव्वपुग्गलादो वि । भावी प्रणंत गुणिदो इदि ववहारो हवे कालो ।।५७६ ।। अर्थ - वर्तमान काल का प्रमाण एकसमय है । सम्पूर्ण जीवराशि तथा समस्त पुद्गलराशि से भी अनन्तगुणा भविष्यत् काल का प्रमाण है। इसप्रकार व्यवहार काल के तीन भेद हैं ! [ अब टीकाकार मुनिराज कालद्रव्य को जानकर शुद्ध ग्रात्म तत्त्व के अनुभव करने का उपदेश करते हुए श्लोक कहते हैं । ] ( ४७ ) श्लोकार्थ - समय, निमिष, कला और नाड़ी को श्रादि लेकर दिवस और रात्रि के भेद से यह काल ( व्यवहार काल ) उत्पन्न होता है । मुझे निज निरूपम Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ and प्रजीब अधिकार [६१ न च भवति फलं मे तेन कालेन किचिद् निजनिरुपमतत्त्वं शुद्धमेकं विहाय ।।४७।। जीदा पुगालाहोशंतागुम्मा नादि' संपदा' समया। लोयायासे संति य, परमट्ठो सो हवे कालो ॥३२॥ जीवात् पुद्गलतोनंतगुणाश्चापि संप्रति समयाः । लोकाकाशे संति च परमार्थः स भवेत्कालः ॥३२॥ जो जीव व पुद्गल से भी अनन्त गुण हैं । वे भाविकाल के समय संप्रति का एक है ।। इस लोक गगन में असंख्य काल अगा हैं। उसने प्रमाण वे सभी परमार्थ काल हैं ।।३२।। मुख्यकालस्वरूपाख्यानमेतत् । जीवराशेः पुद्गलराशेः सकाशादनन्तगुणाः । के ते ? समयाः। कालाणवः लोकाकाशप्रदेशेषु पृथक पृथक तिष्ठन्ति, स कालः परमार्थः इति । तत्त्व रूप शुद्ध एक आत्मा को छोड़कर उस काल से किचित् भी फल नहीं है । भावार्थ-टीकाकार का कहना है कि शुद्ध निज प्रात्मतत्त्व के सिवाय मुझे इन कालों में कुछ भी प्रयोजन नहीं है । __ गाथा ३२ अन्वयार्थ--[ सम्पनि ] अब [ जीवात पुद्गलतः च अपि ] जीव और पुदगल से भी [ अनन्तगुणाः समयाः ] अनन्तगुणे समय होते हैं [ लोकाफाशे च संति ] । और लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर जो विद्यमान हैं [मः परमार्थः कालः भवेत् ] वह परमार्थ काल होता है । टोका-मुख्य काल के स्वरूप का यह कथन है । जीव राशि और पुद्गल राशि में अनन्तगुणे समय है और कालाणु लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेशों पर पृथक्-पृथक् ठहरे हुए हैं वह काल ही परमार्थ काल है । १. भावि ( क ) पाठान्तर २, सपदी ( क ) पाठान्तर । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] .. नियमसार तथा चोक्त प्रवचनसारे-- "समम्रो दु अप्पदेसो पदेसमेत्तस्स दरवजादस्स । चदिवददो सो पद पदेसमागासदष्यस्स ॥" अस्यापि समयशब्देन मुख्यकालाणुस्वरूपमुक्तम् । अन्यच्च-- "लोयायासपदेसे एक्केक्के जे ठ्यिा हु एक्केषका । रयणाणं रासी इव ते कालाण असंखदवाणि ॥" उक्त च मार्गप्रकाशे-~.. ----- -- -. . - विशेषार्थ-कालारणु असंख्यात् हैं वे आकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालागु स्थित हैं। इसलिए काल द्रव्य तो असंख्यात हैं विन्तु काल द्रव्य के कालिक समय 'अनन्न' माने गये हैं। 'सोऽनन्तसमयः' ऐसा सूत्रकार श्री उमास्वामि आचार्य का वचन है । यहां पर यह अनन्त भी सम्पूर्ण अनन्तानन्त जीवराशि और उससे अनंतगुणी पुद्गलराशि से भी अनन्तगुणे प्रमाण जो काल है उतने प्रमाण वाला है। जो कालागु हैं वे ही परमार्थ काल हैं अर्थात् उन्हें ही निश्चयकाल द्रव्य कहा गया है । उसीप्रकार से प्रवचनसार में कहा गया है गाथार्थ- *"समय-काल तो अप्रदेशी-एक प्रदेशी है, प्रदेशमात्र पुद्गल परमाणु आकाश द्रव्य के प्रदेश को मंदगति से उल्लंघन कर रहा हो तब वह काल वर्तता है अर्थात् निमित्त रूप से परिणमित होता है।" यहां पर भी 'समय' शब्द से मुख्य कालाणु के स्वप को कहा है। अन्यत्र भी कहा है त्र ४ । २. प्रवचनसार गाथा १३८ । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीव अधिकार [ १३ ( अनुष्टुभ् ) "कालाभावे न भावानां परिणामस्त रात् । न द्रव्यं नापि पर्याय:सर्वाभाव: प्रसज्यते ॥" तथा हि-- ( अनुष्टुम् ) वर्तनाहेतुरेषः स्यात् कुम्भकृच्चक्रमेव तत् । पंचानामस्तिकायाना नान्यथा वर्तना भवेत् ॥४८॥ - - . -- ----- .. - गाथार्थ--'"लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर जो एक-एक कालाण रत्नों की राशि के समान पृथक् पृथक् रूप से स्थित हैं, वे कालाणु असंख्यात द्रव्य हैं । मार्गप्रकाश ग्रन्थ में भी कहा है-- इलोकार्थ---"कालद्रव्य के अभाव में पदार्थों का परिणामन नहीं हो सकता है और परिगमन के बिना न तो द्रव्य ही रह सकता है और न पर्याय ही रह सकती है, इसप्रकार से तो सभी के अभाव का प्रसंग आ जाता है।" अर्थात् काल द्रव्य के अस्तित्व को माने बिना किसी भी वस्तु का परिणमन सम्भव नहीं होगा, पून: परिणमन के बिना द्रव्य और पर्याय का अस्तित्व भी समाप्त हो जावेगा तब तो सर्व शून्य हो जाने से शून्यवाद का सिद्धान्त हो पुष्ट हो जावेगा यह अभिप्राय है । उसीप्रकार से [ टीकाकार श्री मुनिराज काल के अस्तित्व को पुष्ट करते हुए दो श्लोक कहते हैं-] (४८) श्लोकार्थ--यह काल द्रव्य कुम्भकार के चक्र के समान पांचों असितकायों में वर्तना का हेतु है। इसके बिना वर्तना नहीं हो सकती है। भावार्थ-यह काल द्रव्य मभी द्रव्यों को वर्तना में-परिणमन में हेतु है । यदि यह द्रव्य न हो तो किसी भी द्रव्य में परिणमन रूप परिवर्तन नहीं हो सकता है। १. दृश्यसंग्रह गाथा २२१ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] नियमसार ( अनुष्टुभ् ) प्रतीतिगोचराः सर्वे जीवपुद्गलराशयः । धर्माधर्मनभाकालाः सिद्धाः सिद्धान्तपडतेः ॥४६॥ जीवादीदवारणं, परिवट्टरणकारण हवे कालो। धम्मादिचउण्हं णं, सहावगुणपज्जया होति ॥३३॥ जीवाविद्रव्याणां परिवर्तनकारणंभवेत्कालः । धर्मादिचतुर्णा स्वभावगुणपर्याया भवति ॥३३॥ जीवादि सभी द्रव्य में जो वर्तना कही। उसमें निमित्त मुख्य काल हो रहे सही ।। जो धर्म और अधर्म गगन काल द्रव्य हैं । उनमें स्वभाव गुरण तथा पर्याय भेद हैं ॥३३॥ - - - - -- - यद्यपि प्रत्येक द्रव्य स्वभाव से परिणमनशील हैं फिर भी उनके परिणमन में कालद्रव्य सहकारी कारण है । जैसे घड़े को बनाने में चक्र सहकारी कारण है। ( ४६ ) इलोकार्थ- सभी जीव और पुद्गल राशि प्रतीति के गोचर हैं और धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये चार द्रव्य सिद्धान्त पद्धति से सिद्ध हैं। भावार्थ-टीकाकार का ऐसा प्राशय प्रतीत होता है कि जीव और पुद्गल तो प्रतीति के विषय हो हो रहे हैं और धर्गादि चारों द्रव्य सर्वथा अमूर्तिक होने से सिद्धांत-पागम से सिद्ध हैं इन पर भी विश्वास करना चाहिए। गाथा ३३ अन्वयार्य-[ जीयादि द्रव्याणां ] जीव प्रादि द्रव्यों में [ परिवर्तनकारणं] परिवर्तन का कारण [ कालः भवेत् ] काल द्रव्य होता है । [ धर्मादि चतुर ] धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चारों में [ स्वभावगुणपर्यायाः भवंति ] स्वभाष गुण और पर्यायें होती हैं। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीव प्रधिकार [ १५ कालादिशुद्धामूर्ताचेतनद्रव्याणां स्वस्वभावगुणपर्यायाख्यानमेतत् । इह हि मुख्यगलतव्ये जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशानां पर्यायपरिणतिहेतुस्वात् परिवर्तनलिंगमित्युक्तम् । पब धर्माधर्माकाशकालानां स्वजातीयविजातीयबंधसम्बन्धाभावात् विमावगुणपर्यायाः न मयंति, अपि तु स्वभावगुणपर्याया भवन्तोत्यर्थः । ते गुणपर्यायाः पूर्व प्रतिपादिताः, प्रत एकात्र संक्षेषतः सूचिता इति । ( मालिनी) इति विरचितमुच्चै व्यषट्कस्य भास्वद् विवरणमतिरम्यं भव्यकर्णामृतं यत् । तविह जिनमुनीनां दत्तचित्तप्रमोवं भवतु भवविमुक्त्यै सर्वदा भव्यजन्तोः ॥५०॥ - - - --- . .- -.- ..--- - टोका-काल आदि शुद्ध अ मूर्तिक अचेतन द्रव्यों के निज स्वभाव गुण और पर्यायों का यह कथन है। यहां पर मुख्य काल द्रव्य जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश इन पांचों द्रव्यों में पर्यायों के परिणमन का हेतु होने से परिवर्तन लक्षण वाला कहा गया है। ___अब धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यों में स्वजातीय और विजातीय बंध के सम्बन्ध का प्रभाव होने से विभाव गुण पर्याय नहीं होती हैं, अपितु स्वभाब गुण पर्याय होतो हैं, ऐसा अर्थ है । उन गुण और पर्यायों का पहले प्रतिपादन कर दिया है इसलिये यहां पर संक्षेप से सूचित किया है । [ [ अब टोकाकार श्री मुनिराज पट् द्रव्य के जानने के महत्त्व को बतलाते हुए । श्लोक कहते हैं 1 ] (५० ) श्लोकार्थ--इस प्रकार से जो अतिरम्य, भव्य जीवों के कर्णों को । अमृत के समान शोभायमान छह द्रव्यों का विवरण विस्तार से ( मेरे द्वारा ) रचा गया है। वह बिवरण जैन मुनियों के चित्त को प्रमुदित करने वाला है । वह षट् द्रव्य का विवरण सर्वदा भव्य जीव को संसार से मुक्ति के लिए होवे । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] नियमसार एदे छद्दव्वारिण य, कालं मोत्तूरण प्रथिकाय त्ति । गिद्दिट्ठा जिगसमये, काया हु बहुप्पसतं ॥३४॥ एतानि षड्द्रयाणि च कालं मुक्त्वास्तिकाया इति । निर्दिष्टा जिनसमये कायाः खलु बहुप्रदेशत्वम् ॥३४॥ काल द्रब्य छोड़ करके द्रव्य शेष हो। कहलाते प्रस्तिकाय पोर काल अस्ति ही ।। जिनदेव के शासन में पांच काय कहाये 1 क्योंकि ये बहु प्रदेश रूप शास्त्र में गाये ।।३४।। अत्र कालद्रव्यमन्तरेण पूर्वोक्तद्रव्याण्येवपञ्चास्तिकाया भवतीत्युक्तम् । इह हि द्वितीयादिप्रदेशरहितः कालः, 'समओ अप्पदेशो' इति वचनात् । अस्य हि द्रष्यत्वमेव, इतरेषां पंचानां फायत्वमस्त्येव । बहुप्रदेशप्रचयत्वात् कायः । काया इव कायाः। -- - भावार्थ-यह छह द्रव्यों का विवरण भव्य जीवों को मुक्ति प्रदान करे । अभिप्राय यह है कि भव्यजीव इन द्रव्यों के विवरण को समझकर उन पर दृढ़ श्रद्धान करेंगे तभी वे रत्नत्रय से सहित होकर मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे, अन्यथा नहीं । गाथा ३४ अन्वयार्थ— [ कालं मुक्त्वा ] काल द्रव्य को छोड़कर [ एतानि षट् द्रव्याणि च ] ये छहों द्रव्य [ अस्तिकायाः ] अस्तिकाय [ इति जिनसमये निर्दिष्टा ] इसप्रकार | से जिन शासन में कहे गये हैं [ बहुप्रवेशत्वं खलु कायाः] क्योंकि निश्चित रूप से बहुप्रदेशी को 'काय' यह संज्ञा है । टोका-यहां पर काल द्रव्य के बिना पूर्वोक्त द्रव्य ही पंचास्तिकाय होते हैं । ऐसा कहा है । यहां-विश्व में द्वितीय आदि प्रदेशों से रहित काल द्रव्य होता है। "समयकाल अप्रदेशी है' ऐसा वचन है। इस काल को द्रव्यत्व ही है, शेष पांचों द्रव्यों को | १. प्रवचनसार गाथा १३८ । i. hirihimara..MINS! Mars- antic - - Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीव मधिकार नास्तिकायाः । अस्तित्वं नाम सचा। सा किविशिष्टा ? सप्रतिपक्षा, भवान्तरसत्ता महासत्तेति । तत्र समस्तवस्तुविस्तरव्यापिनी महासचा, प्रतिनियतवस्तुन्यापिनी हवान्तरसत्ता । समस्तव्यापकरूपध्यापिनी महासत्ता, प्रतिनियतकरूपव्यापिनी ह्यवान्तरपहा । अनन्तपर्यायव्यापिनी महासत्ता, प्रतिनियतकपर्यायच्यापिनी धवान्तरसत्ता । * कायपना है हो है । बहत प्रदेशों का प्रचय-समूह होने से काय संज्ञा है, यह काय के समान ही काय है। अर्थात् जैगे काय-शरीर बहुत से प्रदेशों के समूह रूप है उसीप्रकार यह इन द्रव्यों में भी बहुत से प्रदेश रहते हैं इसलिए बहुत प्रदेशो होने से पांच द्रव्य अस्तिकाय संज्ञक हैं। अस्तित्व नाम सत्ता का है। वह कैसी है ? वह सत्ता अपने प्रतिपक्ष-असता से सहित है । उसके दो भेद हैं--(१) अवान्तर सत्ता (२) महासत्ता । समस्त वस्तुओं के विस्तार में व्याप्त होकर रहने वालो महासत्ता है और प्रतिनियत वस्तु को व्याप्त करनेवाली अवान्तर सत्ता है। समस्त व्यापक रूप में आपस रहने वालो महासत्ता है और प्रनिनियत एक रूप को व्याप्त करने वालो अवांतर सत्ता है । अनन्त पर्यायों में व्याप्त होनेवाली महा सत्ता है और प्रतिनियत एक पर्याय को व्याप्त करने वाली अवांतर सत्ता है। "अस्ति-है" इसके भाव को अस्तित्व कहते हैं । इस अस्तित्व से और काय से सहित पांच अस्तिकाय हैं। कालद्रव्य में अस्तित्व ही है, किन्तु कायपना नहीं है क्योंकि उसमें काय के समान वहुत प्रदेशों का अभाव है। विशेषार्थ-- यहां पर पंच अस्तिकायों का लक्षण बताकर काल द्रव्य अस्तिकाय क्यों नहीं है इसका स्पष्टीकरण करते हुए सत्ता के लक्षण को सुन्दर ढंग से बताया । है । सत्ता-अस्तित्व-विध मानता-मौजद रहना । यह सत्ता सामान्य की अपेक्षा एक है सम्पूर्ण चेनन-अचेतन आदि पदार्थ लोकाकाश और अलोकाकाश भी सभी इसी के अन्तर्गत हैं । अर्थात् अस्तित्व सामान्य से सभी वस्तुयें सत् रूप हैं इस बात को संग्रहनय विषय करता है। इसी रहस्य को न समझकर कुछ एकान्तवादी लोग इस सत्ता को एक परमब्रह्म रूप से मानने लगे हैं। अस्तु यहां यह बताना है कि यह सत्ता अपने विरोधी असत्ता-नास्तित्व के साथ अविनाभावी है। जैसे यह पुस्तक है तो इसमें स्व द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा अस्तित्व धर्म है और उसी काल में पर द्रव्य चौकी, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] नियमसार अस्तीत्यस्य भावः प्रस्तित्वम् । श्रनेन अस्तित्वेन कायत्वेन सनाथाः पञ्चास्तिकायाः । कालद्रव्यस्यास्तित्वमेव न कार्यत्वं, काया इव बहुप्रवेशाभावादिति । ( श्रार्या ) इति जिन मार्गाम्भोधेरुद्धृता पूर्वसूरिभिः प्रीत्या । षड्द्रव्यरत्नमाला कंठाभरणाय मध्यानाम् ॥ ५१ ॥ पेन आदि की अपेक्षा नास्तित्व धर्म भी विद्यमान है । वस्तु का अस्ति धर्म जितना महत्व रखता है उतना हो महत्व नास्तित्व धर्म भी रखता है, अन्यथा यह जीव अजीव हो जावे | यह महासत्ता मत् सामान्य रूप है, अभिप्राय यह है कि सभी अस्तिरूप से ग्रहण कर लेती है । ग्रवान्तर सत्ता प्रत्येक वस्तु की अलग-अलग है जैसे हमारी, यापकी, पुस्तक की सिद्धों की आदि सबकी अपनी-अपनी सत्ता पृथक् पृथक् है । 1 पांच द्रव्य अस्ति रूप भी हैं श्रीर बहुप्रदेशी होने से कायरूप भी हैं इसलिये अस्तिकाय हैं। भले ही पुद्गल का प्रत्रिभागी परमाणु एक प्रदेशी - अप्रदेशी है फिर भी वह स्कन्ध रूप बनने की शक्ति रखता है इसलिए उपचार से वह भी बहुप्रदेशी कह दिया जाता है अतः वह भी अस्तिकाय है है, किन्तु उपचार से भी बहुप्रदेशी न होने से अस्तिकाय संज्ञक है । वैसे द्रव्यरूप से द्रव्य तो । काल द्रव्य अस्ति रूप से प्रस्ति तो काम नहीं है इसलिए पांच द्रव्य हो छह हैं ही हैं । [ अब टीकाकार श्री मुनिराज षट् द्रव्य रूपी रत्नों से विभूषित होने का उपदेश देते हुए श्लोक कहते हैं । ] ( ५१ ) श्लोकार्थ - इसप्रकार पूर्वाचार्यों ने प्रीति पूर्वक भव्यों के कंठ के भूषण के लिए षड् द्रव्य रूपी रत्नों की माला निकाली है । भावार्थ - जिसप्रकार समुद्र से रत्न निकाले जाते हैं और धनी पुरुष उनकी माला पहन लेते है उसी प्रकार से भगवानकी वाणी रूपी समुद्र से आचार्यों ने छह Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [EE अजीव अधिकार संखज्जासंखेज्जा'तपदेसा हवंति मुत्तस्स । धम्माधम्मस्स पुरणो, जोवस्स असंखदेसा हु ॥३५॥ लोयायासे ताव, इबरस्स अणंतयं हवे देसा । कालस्स रण कायत्तं, एयपदेसो हवे जम्हा ।।३६॥ संख्यातासंख्यातानंतप्रदेशा मवन्ति मूर्तस्य । धर्माधर्मयोः पुनर्जीवस्यासंख्यातप्रदेशाः खलु ॥३५॥ लोकाकाशे तद्ववितरस्यानंता भवन्ति देशाः । कालस्य न कायत्वं एकप्रदेशो भवेद्यस्मात् ।।३६।। संख्यात प्रसंख्यात प्रो अनंत प्रदेशो । पुद्गलदरब हैं उसमें प्ररणु एक प्रदेशी ।। द्रव्यरूपी रत्न निकाले हैं और इन रत्नोंकी माला भव्यों के कण्ठ का आभरण बनती है अर्थात् भव्य जोव ही इन छह द्रव्यों के. मर्म को हृदयंगम करते हैं, अभव्य नहीं करते हैं। गाथा ३५-३६ __ अन्वयार्थ-[ मूर्तस्य ] मूर्तिक पुद्गल द्रव्य के [संख्यातासंख्यातानंतप्रदेशाः] संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश [ भवंति ] होते हैं [ धर्माधर्मयोः ] धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य [ पुनः जीवस्य ] और जीबद्रव्य के [ खलु असंख्यात प्रदेशाः ] निश्चित रूप से असंख्यात प्रदेश हैं। [लोकाकाशे तद्वत् ] लोकाकाश में इन्हीं धर्मादि तीनों के सदृश असंख्यातप्रदेश होते हैं [ इतरस्य अनंता: प्रदेशाः ] अन्य प्रलोकाकाश में अनन्त प्रदेश होते हैं [ कालस्य कायत्वं न ] काल द्रव्य के कायपना नहीं है [ यस्मात् ] इसी हेतु से [एकप्रदेशः भवेत ] एक प्रदेश वाला होता है । १. संखेज्जासंखिज्जा (ब) पाठान्तर । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] इक जीव धर्म भी कहलाते असंख्यात नियमसार भधर्म के प्रदेश जो 1 मापस में सदृश वो २॥३५॥ असंख्य ही प्रदेश लोकाकाश में कहें। ये तो लोकाकाश में अनंत ही रहें ।। ये काल द्रव्य काय नहीं प्रस्तिमात्र हैं। क्योंकि कहा ये एक प्रदेशी हि द्रव्य है || ३६ ॥ पण द्रयाणां प्रदेशलक्षरण संमवप्रकारकथनमिवम् । शुद्धपुद्गलपरमाणुना गृहीतं नभःस्थलमेव प्रदेशः । एवंविधाः पुद्गलद्रव्यस्य प्रदेशाः संख्याता प्रसंख्याता अनन्ताश्च । लोकाकाशधर्माधिकजीवानामसंख्यातप्रदेशा भवन्ति । इतरस्यालोकाकाश टीका - छहों द्रव्यों के प्रदेश के लक्षण और संभव के प्रकार का यह कथन है । शुद्ध पुद्गल परमाणु से गृहीत श्राकाश स्थल को ही प्रदेश कहते हैं अर्थात् एक पुद्गल परमाणु से घिरा हुआ आकाश प्रदेश जितना है उसको हो प्रदेश कहते हैं । पुद्गल द्रव्य में ऐसे प्रदेश संख्यात, असंख्यात और अनन्त होते हैं । लोकाकाश, धर्म, अधर्म और एक जीव द्रव्य के प्रसंख्यात प्रदेश होते हैं । इतर- यलोकाकाश के अनन्त प्रदेश होते हैं और काल द्रव्य में एक प्रदेश होता है इसी कारण से इसमें कायपना नहीं होता है, किन्तु द्रव्य तो है ही है । विशेषार्थ – किस द्रव्य में कितने-कितने प्रदेश होते हैं इस बात को यहां बताया है। वास्तव में यह प्रदेश कल्पना कल्पित नहीं है, किन्तु वास्तविक ही है ऐसा तत्त्वार्थवार्तिक में श्री अकलंक देव ने सिद्ध किया है । तद्यथा - "धर्मादि द्रव्य श्रतीन्द्रिय हैं, परोक्ष हैं अतः उनमें मुख्यरूप से प्रदेश विद्यमान रहने पर भी स्वतः उनका ज्ञान नहीं होता है इसलिए परमाणु के माप से उनका व्यवहार किया जाता है । महंत के द्वारा प्रणीत गणधर के द्वारा अनुस्मृत तथा प्राप्त श्रुत में इन सर्व द्रव्यों के प्रदेशों का वर्णन इस प्रकार आत्मप्रदेश में अनन्तानन्त ज्ञानावरणादि कर्मों के प्रदेश ठहरे हैं। १. तत्त्वार्थया पू. ४५० ग्राचार्य परम्परा से उपलब्ध है - एक-एक एक-एक कर्म प्रदेश में Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप प्रजीव अधिकार [ tot खा: प्रदेशा भवन्ति । कालस्यैकप्रदेशो भवति, अतः कारणादस्य कायत्वं न भवति प्रख्यत्वमस्त्येवेति । ( उपेन्द्रवज्रा ) पदार्थ रत्नाभरणं मुमुक्षोः कृतं मया कंठविभूषणार्थम् । अनेन धीमान् व्यवहारमार्ग बुद्ध्वा पुनर्बोधति शुद्धमार्गम् ।। ५२ ।। " पुग्मलदव्वं मृत्तं मुत्तिविरहिया हवंति सेसाणि । चेदरणभावो जोवो, चेदरणगुरणवज्जिया सेसा ||३७ ॥ सानन्त औदारिक आदि शरीरों के प्रदेश हैं। एक-एक शरीर प्रदेश में प्रनन्तानन्त सोपचयपरमाणु गीले में की तरह गुड़ धूल लगे हुए हैं। इसीप्रकार धर्मादि द्रव्यों स्य प्रदेश जानना चाहिए। श्रागम में जीव के प्रदेशों को चल और अचल दो में बताया है -- सुख-दुःख का अनुभव, पर्याय परिवर्तन या क्रोधादि दशा में जीव देशों की उथल पुथल को चल कहते हैं जीव के मध्य के आठ प्रदेश सदा स्थितल ही रहते हैं । प्रयोगी और सिद्धों के सभी प्रदेश सदा स्थित ही हैं । संसारी के व्यायाम आदि के समय उक्त ग्राठ मध्य प्रदेशों को छोड़कर शेष प्रदेश चल हैं। बाकी जीवों के दोनों प्रकार के होते हैं । अतः ज्ञात होता है कि जीवों के ही प्रदेश हैं, काल्पनिक नहीं हैं । । [ अब टीकाकार श्री मुनिराज छह द्रव्यों के ज्ञान की सफलता को बताते लोक कहते हैं--] ( ५२ ) श्लोकार्थ - मैंने मुमुक्षु जीव के कण्ठ को भूषित करने के लिये पदार्थ रत्नों का श्राभरण ( हार ) बनाया है । इससे बुद्धिमान् लोग व्यवहार मार्ग को करके पुनः शुद्धमार्ग ( निश्चय मार्ग ) को जान लेते हैं । २. मो (क) पाठान्तर । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - १०२ ] नियमसार पुद्गलद्रव्यं मूतं मतिविरहितानि भवन्ति शेषाणि । चैतन्यभावो जीवः चैतन्यगुणजितानि शेषाणि ॥३७॥ पुद्गल दरब मूर्तिक कहा रूपादिमान हैं । और शेष प्रमूर्तिक कहें वर्णादि शून्य हैं ।। बस जीव हैं चैतन्य भाव युक्त जगत में । चैतन्य गुण से शून्य शेष द्रव्य हैं सच में ।।३७।। अजीवद्रव्यव्याख्यानोपसंहारोयम् । तेषु मूलपदार्थेषु पुद्गलस्य मूर्तत्वम् इतरेधाममूर्तत्वम् । जीवस्य चेतनत्वम्, इतरेषामचेतनत्वम् । स्वजातीयविजातीयबन्धनापेक्षया जीवपुगलयोरशुद्धत्वम्, धर्मादीनां चतुणां विशेषगुणापेक्षया शुद्धत्वमेवेति । मा अन्वयार्थ- [ पुद्गलद्रव्यं मूर्त ] पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है [ शेषाणि ] शेष पांच द्रव्य [ मूतिविरहितानि ] मूर्तिक अवस्था से रहित अमूर्तिक हैं [ जीवः चतन्यभावः] जीव चैतन्य स्वभाव वाला है [ शेषाणि ] शेष पांचद्रव्य [चंतन्यगुणजितानि] चैतन्य गुण से वजित हैं । ____टीका-अजीव द्रव्य के व्याख्यान का यह उपसंहार है । उन मूल पदार्थ-छहों द्रव्यों में से पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है, अन्य शेष पांच द्रव्य अमतिक हैं। जीव चेतन गुण वाला है, शेष पांच द्रव्य अचेतन गुण वाले हैं। स्वजातीय और विजातीय बन्धन की अपेक्षा से जीव और पुद्गल में अशुद्धपना है, शेष धर्म, अधर्म, आकाश और काल में विशेषगुण की अपेक्षा से शुद्धपना ही है। विशेषार्थ-जीव और पुद्गल में ही विभाव गुण पर्याय होती हैं अतः ये दो द्रव्य ही अशुद्ध होते हैं, शेष चार द्रव्य कभी भी अशुद्ध नहीं होते हैं। यहां पर स्वभाव की अपेक्षा से जीव को प्रमूर्तिक कहा है किन्तु अन्यत्र ग्रन्थों में कर्मबन्ध की अपेक्षा से संसारी जीव को कथंचित् मर्तिक भी कहा है । यथा Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अजीव अधिकार [ १०३ ( मालिनी) इति ललितपदानामावलि ति नित्य वदनसरसिजाते यस्य भव्योत्तमस्य । ..- - - -.-.-..-.. "'वण्णरसपंच गंधा दो फासा अट्ठ णिच्छया जीवे । णो संति अमुत्ति तदो बवहारा मुत्ति बंधादो ।।" अर्थ- पांच वर्ण, पांच रस, दो गंध और पाठ स्पर्श निश्चयनय से ये जोव ___ में नहीं हैं इसलिये जीव प्रतिक है और व्यवहार नय से कर्म बन्ध होने से जीव मूर्तिक है। ऐसे ही श्री भट्टाकलंक देव ने भी कहा है प्रश्न- 'आत्मा अमूनिक है अतः उमका कर्म पुद्गलों से अभिभव नहीं ___ होना चाहिए। उत्तर-अनादि कर्मबन्धन के निमित्त से उसमें विशेष शक्ति आ जाती है। यद्यपि अनादि पारिणामिक चैनन्यस्वरूप प्रात्मा को नरनारकादि एवं मतिज्ञानादि पर्यायें चेतन हो हैं, फिर भी वह अनादि काण शरीर के कारण मूर्तिक हो रहा है और इसीलिये उस पर्याय सम्बन्धी शक्ति के कारण मूर्तिक कर्मों को ग्रहण करता है । प्रात्मा कर्मबद्ध होने से कथंचित् मूर्तिक है तथा अपने ज्ञानादि स्वभाव को न छोड़ने के कारण प्रमूत्तिक है। जैसे मदिरापेयो की स्मरण शक्ति नष्ट हो जाती है वैसे ही कर्मोदय से प्रात्मा के स्वाभाविक ज्ञानादि गुण अभिभूत हो जाते हैं । ..."कहा भी है--"बंध की अपेक्षा से आत्मा और कर्म में एकत्र होने पर भी लक्षण की अपेक्षा से दोनों में भिन्नता है अतः प्रात्मा एकान्त से अमूत्तिक नहीं है ।" [ अव टोकाकार श्री मुनिराज पद्रव्यों में से समयसार की सिद्धि रूप फल को बताते हुए श्लोक कहते हैं--] १. द्रव्यसंग्रह गाथा ७. अ.१। २. तत्त्वार्थवातिक पृष्ठ ११७॥ ३. "बंधं पडि एयत्तं लक्खणदो होदि तस्स रणागतं । तम्हा अमुनिभावो गोयतो होदि जीवरस' ॥ तत्त्वार्थ वा. ५. ११८॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43... १०४ । नियमसार सपदि समयसारस्तस्य हृत्पुण्डरीके लसति निशितबुद्धः किं पुनश्चित्रमेतत् ।।३।। इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवजितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्य वृत्तौ अजीवाधिकारो द्वितीयः श्रुतस्कंधः। (५३) श्लोकार्य-इसप्रकार ललित पदों को पंक्ति जिस भव्योत्तम के मुख कमल में सदा शोभती है उस तोक्ष्ण बुद्धिवाले पुरुष के हृदय कमल में शीघ्र ही समयसार स्वरूप शुद्ध प्रात्मा प्रकाशित होता है पुनः इसमें आश्चर्य हो क्या है ? भावार्थ-छह द्रव्यों का पठन-पाठन करनेवाले जीव आत्मा के शुद्ध स्वभाव को प्राप्त कर लेते हैं इस में कुछ भी आश्चर्य नहीं है। विशेष--द्वितीय अधिकार में ग्राचार्य महोदय ने गाथा २० से ३७वीं गाथा पर्यन्त अजीव द्रव्य का वर्णन किया है। इसमें सबसे प्रथम पुद्गल के अणु और स्कन्ध से दो भेद कहे हैं पुनः अशु के चार भेद किये हैं और स्कन्ध के छह भेद किये हैं तथा उन्हें उदाहरण देकर स्पष्ट समझाया है । परमाणु का बहुत ही सुन्दर वर्णन करते हुए पुद्गल द्रव्य में भो निश्चय, व्यवहारनयों की अपेक्षा घटित को है। अनन्तर संक्षेप में धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य का वर्णन करके पुनः काल द्रव्य का वर्णन विशदरूप से किया है । स्थल-स्थल पर टीकाकार ने निश्चय-व्यवहार नयों की अपेक्षा को खोलते हुये शुद्धात्म तत्त्व की भावना की ओर ही पाठकों को झुकाया है । टोकाकार ने अजीव तत्त्व को समझाकर उससे पृथक् होने के लिए बारंवार प्रेरणा दी है। तथा जगह २ साहित्य सौष्ठव से विद्वानों के मन को अनुरंजित करते हुए अध्यात्म के अानन्द रस का पान कराया है। आगे शुद्ध अधिकार में केवल शुद्ध प्रात्म तत्त्व की मुख्यता से जीव द्रव्य को कहेंगे। इसप्रकार से सुकविजन रूपी कमलों के लिए सूर्य के समान पंचेंद्रिय विषयों के प्रसार से रहित, गात्र मात्र परिग्रह धारी श्री पद्मप्रभमलधारी देव के द्वारा विरचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में अजीवाधिकार नाम का द्वितीय श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३] शुद्धभाव अधिकार अथेदानी शुद्धभावाधिकार उच्यते । जीवादिबहित्तच्चं, हेयमुवादेयमप्पणो अप्पा । कम्मोपाधिसमुन्भव, गुरणपज्जाएहि वदिरित्तो॥३८॥ जोवादिबहिस्तत्त्वं हेयमुपादेयमात्मनः प्रात्मा । कर्मोपाधिसमुद्भवगुणपर्याययतिरिक्तः ॥३८॥ जीवादि तत्व बाह्य हैं वे हेय बताये । स्वात्मा ही प्रात्मा को उपादेय कहाये ।। कर्मों को उपाधी से हुए जो भी गुण कहैं। पर्यायें भी उन सबसे भिन्न प्रात्म शुद्ध हैं ।।३८॥ अब शुद्धभाव अधिकार को कहते हैं गाथा ३८ अन्वयायं-[ जीवादि बहिस्तत्वं ] जीवादि बाह्यतत्त्व [ हेयं ] छोड़ने योग्य हैं [ कर्मोपाधि समुद्भवंगुणपर्यायः ] कर्मों की उपाधि से उत्पन्न हुये गुण और पर्यायों से [ व्यतिरिक्तः ] रहित [ आत्मा ] प्रात्मा [ आत्मनः उपादेयं ] प्रात्मा को उपादेय है। May" Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : । ::. [३] शुद्धभाव अधिकार ******* -- ************ प्रथेदानी शुद्धभावाधिकार उच्यते । जीवाविबाहित्तच्चं, हेयमुवादेयमप्पणो अप्पा । कम्मोपाधिसमुभव, गुणपज्जाएहि वदिरित्तो॥३८।। जोवादिबहिस्तत्त्वं हेयमुपादेयमात्मनः प्रात्मा । कम्र्मोपाधिसमुद्भवगुणपर्याययतिरिक्तः ॥३८।। जीवादि तस्व बाह्य हैं वे हेय बताये । स्वात्मा ही प्रात्मा को उपादेय कहाये ।। कर्मों को उपाधी से हुए जो भी गुण कहें । पर्यायें भी उन सबसे भिन्न प्रात्म शुद्ध हैं ॥३८।। __ अब शुद्धभाव अधिकार को कहते हैं गाथा ३८ । अन्वयार्य--[ जीयादि बहिस्तत्वं ] जीवादि बाह्यतत्त्व [ हेयं ] छोड़ने योग्य हैं [ फर्मोपाधि समुद्भवंगुणपर्यायैः ] कर्मों की उपाधि से उत्पन्न हुये गुण और पर्यायों से [ व्यतिरिक्तः ] रहित [ भात्मा ] अात्मा [ आत्मनः उपादेयं ] प्रात्मा को उपादेय है । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ शुद्धभाव प्रधिकार ( मालिनी ) जयति समयसारः सर्वतत्वेकसारः सकलविलयङ्करः प्रास्तदुर्बारमारः । दुरितरुकुठारः शुद्धबोधावतारा सुखजलनिधिपूर : क्लेशवा राशिपारः ॥५४॥ [ १०७ गो खलु सहावठारणा, गो माणवमारणभावठारणा वा । गो हरिसभावठारणा, गो जीवस्साहरिस्सठारणा वा ॥ ३६ ॥ दर्शन ही कहेगा न कि क्षायिक भाव रूप ऐसा यहां अभिप्राय है तथा शुद्धोपयोगी महामुनियों की निर्विकल्प ध्यान में परिणत आत्मा ही कारण परमात्मा है । [ अव टीकाकार मुनिराज उस शुद्धात्मा को आशीर्वादात्मक शब्दों से नमस्कार करते हुए श्लोक कहते हैं - ] (५४) श्लोकार्थ – जो सर्व तत्वों में एक सारभूत है, सकल विलय-नष्ट होने योग्य भावों से दूर है, जिसने दुबर काम को नष्ट कर दिया है, जो पाप रूप वृक्ष को काटने के लिए कुठार स्वरूप है, शुद्धज्ञान का अवतार है, सुख समुद्र का तूर है. और जो क्लेश रूपी समुद्र का तट ऐसा समयसार ( शुद्ध ग्रात्मा ) जयशील हो है रहा है। भावार्थ — परम योगीजन श्रपने हृदय में शुद्ध आत्मा का ध्यान करके अपनी कारण परमात्मारूप श्रात्मा को कार्य बना लेते हैं । अर्थात् देहरूपी देवालय में शक्तिरूप कारण परमात्मा विराजमान है वही व्यक्तरूप से कार्य परमात्मा बन जाता है । गाथा ३६ अन्वयार्थ - [ जीवस्थ खलु स्वभावस्थानानि न ] जीव के वास्तव में स्व"भाव स्थान नहीं हैं [ मानापमानभावस्थानानि वा न ] और मान-अपमान भाव के पान भी नहीं हैं [ हर्षभावस्थानानि न ] हर्षभाव के स्थान नहीं हैं [ वा अहर्षस्थानि न ] और अहर्ष-विषाद भाव के स्थान भी नहीं हैं । E Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... १०८] नियमसार न खलु स्वभावस्थानानि न मानापमानभावस्थानानि या। न हर्षभावस्थानानि न जीवस्याहर्षस्थानानि वा ॥३६॥ स्वभाव प्रो विभाव स्थान जीव के नहीं। नहिं मान व अपमान भाव जीब में कहीं। नहिं हर्ष भाव भी कभी होता है जीव के । वैसे हि न विषाद भाव भी हो जीव के ।।३।। निर्विकल्पतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् । त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपस्य शुद्धजीवास्तिकायस्य न खलु विभावस्वमावस्थानानि । प्रशस्ताप्रशस्त समस्तमोहागढषाभावाप्न च मानापमानहेतुभूतकर्मोदयस्थानानि । न खल शुभपरिणतेरभावाच्छुभकर्म, शुभकर्माभावान संसारसुखं, संसारसुखस्या भावान्न हर्षस्थानानि । न चाशुभपरिणतेरभावादशुभकर्म, अशुभकर्माभावान्न दुःखं, दुःखाभावान्न चाहर्षस्थानानि चेति । ___-- - टीका-यह निर्विकल्प तत्त्व के स्वरूप का कथन है । तीनों कालों में उपाधि रहित है स्वरूप जिसका, ऐसे शुद्ध जीवास्तिकाय के निश्चितरूप से निभावरूप स्वभाव स्थान नहीं हैं, उस शुद्ध जीव के प्रशस्त और अप्रशस्त रूप संपूर्ण मोह-राग तथा द्वेष का प्रभाव हो जाने से मान-अपमान में कारणभूत ऐसे कर्मों के उदयरूप स्थान नहीं हैं, वास्तव में शुभ परिणति के अभाव से शुभ कर्म नहीं हैं, शुभ कर्म के अभाव से संसार सुख नहीं है और संसार सुख के अभाव से जीव के हर्षस्थान भी नहीं हैं तथा अशुभ परिणति के प्रभाव से अशुभ कर्म नहीं हैं प्रशुभ कर्म के प्रभाव से दुःख नहीं हैं और दु:ख के अभाव से हर्ष से विपरीत विषाद आदि स्थान नहीं हैं ऐसा समझना चाहिए । विशेषार्थ ---यहां पर भी गाथा में श्री आचार्य देव ने कहा है कि जोव के स्वभाव स्थान नहीं है। अभिप्राय यह है कि यहां पर निर्विकल्प तत्व का वर्णन होने से स्वभाव और विभाव आदि सभी विकल्प दूर किये गये हैं अथवा संसारी जीवों के जो भाव हैं वे संसार अवस्था में जीव के स्वभाव कह दिये जाते हैं उनकी विवक्षा से भी यहां स्वभाव शब्द को लिया जा सकता है जैसे कि टोकाकार ने स्वभाव के पहले Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - [१०१ शुद्धभाव अधिकार ( शार्दूलविक्रीडित } प्रोत्यप्रोतिविमुक्तशास्वतपदे निःशेषतोऽन्तमुखनिर्भेदोक्तिशर्मनिमितविधिबाकृतावात्मनि । चैतन्यामृतपूरपूर्णवपुषि प्रेक्षावतां गोचरे बुद्धि किन करोषि वांछसि सुखं त्वं संसृतेदु:कृतेः ।।५।। को ठिदिबंधारणा, पयडिट्ठाणा पदेसठाणा वा। जो अणुभागट्ठाणा, जीवस्स ण उदयठाणा वा ॥४०॥ विभाव विशेषण लगाकर स्पष्ट किया है। इस प्रकार जीव द्रव्य के शुद्ध निश्चयनय की विवक्षा से कर्मोदय का अभाव होने से स्वभाव-विभाव, मान-अपमान, सुख-दुःख, हर्ष विषादादि भाव नहीं हैं बह निविकल्प चिच्चतन्य स्वरूप मात्र हो है । - [अब टोकाकार भी मुनिराज शाश्वत सुख में रुचि करने के लिये संसार के दुःख से छूटने के लिए प्रेरणा देते हुए श्लोक कहते हैं -- ] (५५) इलोकार्य – जिसका प्रीति अप्रीति से रहित शाश्वत स्थान है जो सर्वप्रकार से अन्तर्मुख होने से भेद रहित निर्विकल्प उत्पन्न हुये सुख से निर्मित आकाश विम्ब के प्राकार वाला है - यात्मिक मुख से निर्मित निराकार है, चैतन्यरूपी अमृत के प्रवाह से पूर्ण भरित ही जिगका गरीर है जो बुद्धिमानों के गोचर है ऐसे आत्म तत्व में तू बुद्धि क्यों नहीं करता है ? प्रत्युत दुष्कृत रूप संसार के सुखों को वांछा करता है । भावार्थ-वास्तव में मात्मा हर्ष विपाद से रहित अविनाशी है आत्मा से उत्पन्न हुए निराकुल सुख से बनी हुई मूर्ति होते हुए भी निराकार है, चैतन्यामृत प्रवाह से लबालब भरी हुई हैं । ऐसी प्रात्मा में तो तू अपनी बुद्धि को नहीं लगाता है और इन सभी विशेषणों से विपरीत पापों के स्थान स्वरूप ऐसे सांसारिक सुखों को चाहता है सो क्या बात है । वास्तव में तुझे सांसारिक सुखों को छोड़कर प्रात्मा में बुद्धि लगानी चाहिए। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] नियमसार न स्थितिबंधस्थानानि प्रकृतिस्थानानि प्रदेशस्थानानि वा । नानुभागस्थानानि जीवस्य नीवयस्थानानि वा ।। ४० ।। इस जीव के स्थितिबंध स्थान नहीं हैं । निश्चय से प्रकृति प्रदेश स्थान नहीं हैं अनुभाग के स्थान नहीं फल भी नहीं हैं । नहि जीव के उदय स्थान कर्म जनित ये ||४०|| अत्र प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रवेशबन्धोदयस्थाननिचयो जोवस्य न समस्तीत्युक्तम् । नित्यनिरुपरागस्वरूपस्य निरंजन निजपरमात्मतत्त्वस्य न खलु जघन्यमध्यमोत्कृष्ट द्रव्य कर्मस्थितिबन्धस्थानानि । ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मणां तत्तद्योग्यपुद्गलद्रव्यस्वाकारः प्रकृतिबन्धः, तस्य स्थानानि न भवन्ति । अशुद्धान्तस्तस्वकर्म पुद्गलयोः परस्परप्रवेशानुप्रवेशः प्रदेशबन्धः अस्य बन्धस्य स्थानानि वा न भवन्ति । शुभाशुभकर्मणां निर्जरासमये सुखदुःखफलप्रदानशक्तियुक्तो ह्यनुभागबन्धः, श्रस्य स्थानानां वा न चावकाशः । न च द्रव्यभावकर्मोदयस्यानानामप्यवकाशोऽस्ति इति । गाथा ४० अन्वयार्थ - [ जीवस्य ] जोत्र के [ स्थितिबंधस्थानानि ] स्थितिबन्ध स्थान [ प्रकृतिस्थानानि प्रदेशस्थानानि वा न ] प्रकृति स्थान और प्रदेश स्थान नहीं है [ अनुभागस्थानानि न ] अनुभाग स्थान नहीं है [ उवयस्थानानि वा न ] और उदयस्थान भी नहीं हैं । टीका - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन बन्ध स्थानों का समूह तथा उदय स्थानों का समूह जीव के नहीं है ऐसा यहां पर कहा है । I नित्य हो निरुपराग स्वरूप निरंजन निजपरमात्मतत्त्व के निश्चित रूप से जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट रूप द्रव्य कर्म के स्थितिबन्ध स्थान नहीं हैं । ज्ञानावरणादि श्राठ प्रकार के कर्मों के उस उस कर्म के योग्य पुद्गलद्रव्य का जो स्वाकार अपना स्वभाव है वह प्रकृतिबन्ध है शुद्ध परमात्मतत्व के ये प्रकृतिबन्ध के स्थान भी नहीं हैं । अशुद्ध चेतनतत्त्व और कर्म पुद्गलों के प्रदेशों का परस्पर में अनुप्रवेश हो Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ११ शुद्धभाव अधिकार तथा चोक्त' श्री अमृतचन्द्रसूरिमिः ( मालिनी ) "न हि विदषति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी स्फुटमुपरि तरन्तोऽप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम् । अनुभवतु तमेव धोतमानं समन्तात् जगदपगतमोहोभूय सम्यक्स्वभावम् ॥" माना प्रदेशबन्ध है, इस बन्ध के स्थान भी शुद्ध जोव में नहीं हैं । शुभ-अशुभ कमों की निर्जरा के समय में सुख-दुःख फल को प्रदान करने की शक्ति से यक्त अनुभागबन्ध होता है, इस अनुभाग के स्थानों का भी शुद्ध जोव में प्रवकाश नहीं है ऐसा समझना । उसीप्रकार अमृत चन्द्र सूरि ने भी कहा है लोकार्थ-"ये बद्ध और स्पष्ट भाव ग्रादि स्पष्ट रीति से ऊपर तरते हुये (मी जहां पर पाकर प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं होते हैं। हे जगत्-हे जगत् के जीवों ! मोह से रहित होकर आप सब अोर प्रकाशमान सम्यक् स्वभाव वाले उसी आत्मा का | हो अनुभव करो।" भावार्थ-जिस शुद्धनय के अवलम्बन से शुद्ध अवस्था में आने के बाद मैं या हूं या कर्मों से स्पर्शित हूं इत्यादि भाव यद्यपि विद्यमान हैं फिर भी वहां बुद्धिसम्य नहीं होते हैं क्योंकि जब उस निर्विकल्प ध्यान में ध्यान-ध्येय का या पंचपरमेष्ठी हो विकल्प नहीं है तब इन भावों को वहां क्या गणना होगी.? ऐसी अवस्था को भारत जो शुद्ध आत्म तत्त्व है | आचार्य कहते हैं हे जगत् के भव्य प्राणियों तुम मोह नरहित होकर उसी शुद्ध आत्म तत्त्व का अनुभव करो। 1 [अब टीकाकार श्री मुनिराज अपनी संपत्ति का भान कराते हुए तथा विप सदृश संसार के दुःखों से छुड़ाते हुए दो श्लोक कहते हैं-] 1. समयसार कलश १ । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : !! ११२ ] तथा हि नियमसार ( अनुष्टुभ् ) नित्यशुद्धचिदानन्दसंपदामाकरं परम् । विपदा मिदमेयोच्चैरपदं चेतये पदम् ॥ ५६ ॥ ( वसन्ततिलका ) सर्वकर्मविषमूहसंभवानि यः मुक्त्वा फलानि निजरूपविलक्षणानि । भुना सहजचिन्मयमात्मतत्वं प्राप्नोति मुक्तिमचिराविति संशयः कः ।। ५७ । (५६) श्लोकार्थ – नित्य, शुद्ध, चिदानन्दमयी संपत्तियों की श्रेष्ठ खान स्वरूप तथा विपत्तियों का अत्यन्त रूप से यही ग्रपद - अस्थान रूप है ऐसे पद का मैं अनुभव करता हूं । भावार्थ -- जो अपना उत्कृष्ट पद है वह चिचैतन्यमयी संपत्तियों का स्थान है और विपत्तियों से सर्वथा दूर है उसीका अनुभव करना चाहिये । (५७) श्लोकार्थ - जो सर्व कर्म रूपी विषवृक्ष से उत्पन्न हुए, निज श्रात्मतत्त्व से विलक्षण फलों को छोड़कर इस समय सहज चिन्मय आत्म तत्व का अनुभव करता है वह शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त करता है । इसमें क्या संशय है । भावार्थ - कर्म तो विषवृक्ष के समान हैं उनसे उत्पन्न हुए फल भी कडुबे ही होंगे इसलिए इन कर्म के उदयरूप सुख-दुःख फलों को छोड़कर श्रात्म तत्त्व का अनुभव करने से ही मुक्ति मिलती है । अभिप्राय यह है कि कर्म के उदय से उत्पन्न हुए सुखदुःख फल छोड़े नहीं जा सकते हैं किन्तु उस समय हर्ष विषाद परिणति को न करते हुए परम समताभाव को धारण करके उन सुख-दुःखों से अपने उपयोग को हटाकर अपने परमानन्द स्वरूप प्रात्म तत्त्व में स्थिर कर लेना ही उनको छोड़ना है और तभी कर्मों की निर्जरा होकर मुक्ति होती है इसमें कुछ भी संशय नहीं है ऐसा इस कलश का अभिप्राय है । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११३. शुद्धभाव पधिकार जो खइयभावठाणा, यो खयउवसमसहावठाणा वा । मोदइयभावठाणा, जो उवसमणे' सहावठाणा वा ॥४१॥ न क्षायिकभावस्थानानि न क्षयोपशमस्वभावस्थानानि धा। मौरयिकभावस्थानानि नोपशमरावस्थामागि वा Fil कर्मों के क्षय से क्षायिक वह भाव भी नहीं। क्योंकि विशुद्ध नय से नहि कर्मबन्ध हो । क्षायोपशमिक भाव व प्रौदयिक भाव भी। उपशम स्वभाव जीव में होते न ये कभी ।।४।। । चतुर्णा विभावस्वभावानां स्वरूपकथनद्वारेण पंचमभावस्वरूपाख्यानमेतत् । मणो क्षये मवः क्षायिकभाषः । कर्मणां क्षयोपशमे भवः क्षायोपशमिकभावः । कर्मणा ... -- - गाथा ४१ अन्यथार्थ –| क्षायिकभावस्थानानि न ] जीव के क्षायिकभाव स्थान नहीं है भयोपशमभावस्थानानि वा न ] क्षयोपशमभाव स्थान भी नहीं है [ प्रौदयिकभाषमानि न ] औदयिकभाव स्थान भी नहीं है [ वा उपशमभावस्थानानि न ] और खमभाव स्थान भी नहीं है । । टोका-चार बिभाव स्वभावों के स्वरूप के कथन द्वारा यह पंचमभाव के म का कथन है। _ कर्मों के क्षय होने पर हा भाव क्षायिकभाव है, कर्मों के क्षयोपशम के पर हुआ भाव क्षायोपशमिक भाव है, कर्मों के उदय के होने पर हुआ भाव प्रौदभाव है, कर्मों के उपशम के होने पर हुग्रा भाव प्रौपशमिकभाव है और संपूर्ण को उपाधि से रहित ऐसा जो परिणाम में हुआ भाव वह पारिणामिकभाव है । पांचों भावों में से प्रथम ही औपशमिकभाव दो प्रकार का है, क्षायिकभाव नौ १. उममगो ( क ) पाठान्तर । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] नियमसार मुरये भव: प्रोवयिकभावः । कर्मणामुपशमे भवःौपश मिकीवः । सकलकर्मोपाधिविनिमुक्तापरिणामेभवःपारिणामिकभावः । एषु पंचसु तायपशमिकभावो द्विविधः, क्षायिकमावश्च नवविधः, क्षायोपशमिकभावोऽष्टादश भेदः, औषयिकभाव एकविंशतिभेदः, पारिणामिकभाषस्त्रिभेदः । अथोपशमिकभावस्य उपशमीम्यक्त्वम् उपशमचारित्रम् च । क्षायिकभावस्य क्षायिकसम्यक्त्वं, यथाख्यातचारित्रं, केवलज्ञानं केवलदर्शनं च, अन्तरायकर्मक्षयसमुपजनितदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि चेत। क्षायोपशमिकभावस्य मतिश्रु तावधिमनःपर्ययज्ञानानि चत्वारि, कुमतिकुश्र तविभंगमेदादज्ञानानि त्रीणि, चारचक्षुरवधिदर्शनभेदादर्शनानि श्रोणि, कालफरणोपदेशोपशमप्रायोग्यताभेदाल्लब्धयः पंच, वेदकसम्यक्त्वं, वेदकचारित्रं, संयमासंयमपरिगतिश्चेति । प्रौदयिकभावस्य नारकतिर्यड मनुष्य देवभेदाद गतयश्चतस्रः, क्रोधमानमायालोभभेदात् कपायाश्चत्वारः, स्त्रीपुनपुसकभेदाल्लिगानि श्रीणि, सामान्यसंग्रहनयापेक्षषा मिथ्यादर्शनमेकम्, अज्ञानं चैकम्, - . . . - - - - - - - - - - - - - - - - -- - - - - - - - - - - - - प्रकार का है, क्षायोपामिकभाव अठारह भेद वाला है, औदयिकभाव के २१ भेद हैं और पारिणामिक भाव के तीन भेद है। औपशमिक भाव के. उपशम सम्यक्त्व और उपशम चारित्र ये दो प्रकार हैं । क्षायिकभाव के क्षायिक सम्यक्त्व, यथाख्यात चारित्र, केवलज्ञान और केवलदर्शन ये चार तथा अन्तराय के क्षय से उत्पन्न होने वाले दान, लाभ, भोग, उपभोग और बीर्य ये पांच ऐसे नद भेद हैं। क्षायोपशमिकभाव के मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय वे चार ज्ञान, कुमति, कुश्रत और विभंग के भेद से तीन अज्ञान, चक्षुदर्शन, प्रचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन के भेद से तीन दर्शन, काललब्धि, करणलब्धि, उपदेशलब्धि, उपशमलब्धि और प्रायोग्यतालब्धि के भेद से पांचलब्धि, वेदक सम्यक्त्व, वेदक चारित्र और संयमासंयम परिणति ये तीन, ऐसे सव मिलाकर अठारह भेद हो गये हैं । औदयिकभाव के नारक, नियंच, मनुष्य और देव ये चार गनि, क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से कषाय चार, स्त्रो, पुरुष और नपुसक के भेद से लिंग तोन, सामान्य संग्रहनय को अपेक्षा से मिथ्यादर्शन एक, अज्ञान एक, असंयम एक, प्रसिद्धत्व एक, शुक्ल, पद्म, पोत, कापोत, नील, कृष्ण के भेद से लेश्या छह, ऐसे सब मिलकर Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धभाव अधिकार [ ११५ मसंयमता चंका, असिद्धत्वं चैकस्, भुक्लपपीतकापोतनोलकृष्णभेदाम्लेश्याः षट् च यन्ति । पारिणामिकस्य जीवत्वपारिणामिका, भव्यत्वपारिणामिकः, अभव्यरवपारिशामिकः इति त्रिभेदाः । अयायं जीवत्वपारिपामिकभावो भव्यामव्यानां सदशः, भन्यसारिणामिकभावो भव्यानामेव भवति, प्रभव्यत्वारिणामिकमावोऽभव्यानामेव मदति । इति पंचभावप्रपंचः। -- .. . .. ... ... ... - - -- -- - -- इक्कीस भेद होते हैं । पारिणामिक भाव के जीवत्व पारिणामिक, भव्यत्व पारिणामिक मोर अभव्यत्व पारिणामिक ऐसे तीन भेद हैं । ___ यह जीवत्व नाम का पारिणामिक भाव भव्य और अभव्य सभी जीवों में समान है, भव्यत्व नाम का पारिणामिक भाव भव्यजीवों में ही होता है और अभव्यत्व नामक पारिणामिकभाव अभव्यों में हो होता है । इसप्रकार से पांचों भावों | का विस्तार हुआ। इन पांचों भावों में से क्षायिकभाव कार्यसमयसार स्वरूप है, वह तीनों लोकों 1 में प्रक्षोभ-हलचल के लिए कारणभूत जो तीर्थकर प्रकृति उसके द्वारा अजित जो सकल विमल केवलज्ञान उससे सनाथ भगवान् तीर्थंकर देव अथवा सिद्ध भगवान् के होता है। औदायिक, प्रौपशमिक और क्षायोपशमिक भाव संसारी जोवों में ही होते हैं, मुक्त जीवों में नहीं होते हैं । ! पूर्वोक्त चारों भाव अावरण सहित होने से मुक्ति के कारण नहीं हैं | तोनों कालों में उपाधि से रहित है स्वरूप जिसका ऐसे निरंजन-निर्दोष, निजपरम पंचम । माव-पारिणामिक भाव की भावना से मुमुक्षुजन पंचमगति को जाते हैं, जावेंगे और विशेषार्थ- यहां पर पांचों भावों में जो क्षायोपशमिक भाव है उसमें श्री टीकाकार ने काललब्धि, करणलब्धि, उपदेशलब्धि, उपशमलब्धि और प्रायोग्यलब्धि है ऐसे पांच भेद किये हैं किन्तु सर्वत्र क्षायोपशमिक भावों में दानादि ५ क्षयोपशम सब्धियां ली गई हैं। जैसे-'श्री वीरसेनाचार्य ने कहा है "लद्धी पंचविहा दाणादि १. धवल पु० ५ पृ. १६२ । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ 1 नियमसार पंचाना भावानां मध्ये क्षायिकभावः कार्यसमयसारस्वरूपः स त्रैलोक्यप्रक्षोभहेतुभूततीर्थकरत्वोपाजितसकलविमलकेवलावबोधसनाथतीर्थनाथस्य भगवतः सिद्धस्य वा भवति । प्रौदयिकोपशामिकक्षायोपमिकभावाः संसारिणामेव भवन्ति, न मुक्तानाम् । - ---- ------- - भेएण" । 'श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्ताचार्य ने कहा है- "खग्रोवसमिय भावो चउणाण तिदसण ति अण्णा । दाणादि पंच बेदग सरागचारिल देसजमं ।। ८१७॥" क्षायोपशर्मिक भाव से चार ज्ञान, तोन दर्शन, तीन अज्ञान, दानादि पांच लब्धि, वेदक सम्यत्व, सराग चारित्र और देशसंयम ये १८ भेद हैं। श्री अकलंक देन ने कहा है कि"लब्धयः पंच क्षायोपशमिक्यः दानलब्धिाभलब्धि गलब्धिरूपभोगलब्धिर्वीर्यलब्धिश्चेति" अर्थात क्षायोपशमिक लब्धि के पांच भेद हैं-दान लब्धि, लाभ लब्धि, भोग लब्धि, उपभोग लब्धि और वीर्यलब्धि । ऐसी ही ये लब्धियां मिथ्यात्व गुणस्थान में तथा एकेन्द्रिय प्रादि जोत्रों में भी मानी गई हैं। गोम्मटसार जीवकांड में सम्यक्त्व के लिए पांच लब्धि कही गई हैं "खय उपसमिय विसोही देसणपाउगकरण लद्धी य । चत्तारि विसामण्णा करणं पुण होदि सम्मत्ते ।।६५१।।" गाथार्थ-क्षायोपमिक, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण ये पांच लब्धियां हैं। इनमें से पहले की चार तो सामान्य हैं, ये भव्य--अभव्य दोनों के संभव हैं, किन्तु करणलब्धि विशेष है यह भव्य के हो हा करती है और इसके होने पर सम्यक्त्व या चारित्र नियम से होता है । यहां दीका में उपर्युक्त लब्धि में विशुद्धि का नाम नहीं है किन्तु काललब्धि का नाम है । टोकाकार ने किस अपेक्षा से इन लब्धियों को लिया है इसका निर्णय केवली-श्रुतकेबली के पादमूल में ही हो सकता है । मागे एक पंक्ति है कि "पूर्वोक्तभावचतुष्टयमावरणसंयुक्तत्वात् न मुक्तिकारणं" इसमें क्षायिकभाव को भी प्रावरण संयुक्त होने से मुक्ति का कारण नहीं कहा है किन्तु १. गोम्मटसार कर्मकांड। २. तत्त्वार्य वा. पृ० १०७ । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धभाव अधिकार [ ११५ तभावचतुष्टय मावरणसंयुक्तत्वात न मुक्तिकारणम् । त्रिकालनिरुपाघिस्वरूपनिरंअनिअपरमपंचममावभावनया पंचमर्गात मुमुक्षवो यान्ति यास्यन्ति गताश्चेति । वह शायिकभाव आवरणों के क्षय से प्रगट होता है और मुक्ति में भी विद्यमान है वहां केवल पारिणामिक शुद्ध स्वभावकी विवक्षा होने के कारण इसे कर्मोपाधि के नाव होने से प्रौपपाधिक रूप ही मान लिया है ऐसी विवक्षा ज्ञान होती है क्योंकि सगाथा ४१ में स्वयं ही श्री भगवान कुन्दकुन्ददेव ने "गो खइयभावठाणा" वाक्य दिया हुआ है। 'कहीं पर इससे विपरीत भी कहा है जैसे "मोक्ष कुर्वति मिश्रौपशमिक क्षायिकाभिधाः । बंधमौदयिको भावो निष्क्रियः पारिणामिक: ।।" । अर्थ-वायोपशामक, औपशमिक और क्षायिकभाव मोक्ष को करने वाले हैं, चोदयिक भाव बंध को करने वाला है और पारिणामिक भाव निष्क्रिय है । अर्थात् लीकाकार श्री जयसेनाचार्य कहते हैं कि "निर्विकल्प शुद्धात्म परिच्छिति" लक्षण सीतराग चारित्र से अविनाभूत प्रभेदनय से वहीं शुद्धात्म शब्द से वाध्य क्षायोपशमिक के भाव श्रु तजान मोक्ष का कारण होता है किन्तु शुद्ध पारिणामिक भाव शुद्ध भावना र अवस्था में ध्येय रूप है, ध्यान रूप नहीं है इत्यादि । पंचास्तिकाय में कहा है-- "उदयेण उपसमेण य खयेण दुहिं मिस्सदेहिं परिणामे । जुत्ता ते जीवगुणा बहुसु य अत्थेसु वित्थिण्णा ।। ५६।।" अर्थ- उदय से, उपशम से, क्षय से और दोनों के मिश्रित-क्षयोपशम से क तथा परिणाम से युक्त ऐसे ये जीव के गुण हैं और उन्हें अनेक प्रकार से विस्तृत वित किया गया है । । उपर्युक्त गाथा को टीका में श्री अमृतचन्द्र देव ने कहा है- "तत्रोपाधिचतुत्वनिबंधनाश्चत्वार: स्वभावनिबंधन एकः" । इन पांच गुणों में उपाधि की चार SEACH १. समयसार गाथा ४१४, टीका जयसेनाचार्यकृत पृ० ५०६ । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ ] नियमसार ! 11 ( भार्या ) श्रचितपंचमगतये पंचममावं स्मरन्ति विद्वान्सः | संचितपंचाचारा: किचनभावप्रपंचपरिहीणाः ||५६ || प्रकार की दशा जिनका कारण है ऐसे चार भाव हैं और स्वभाव जिसका कारण है। ऐसा एक है । इसी गाथा की द्वितीय तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में श्री जयसेनाचार्य ने कहा है कि- "श्रयिक, औपशमिक और क्षायिक ये तीन भाव कर्मजनित हैं, क्षायिकभाव केवलज्ञानादिरूप है यद्यपि यह वास्तविक दृष्टि से शुद्ध बुद्ध एक जीव का स्वभाव है। तथापि कर्मक्षय से उत्पन्न होने की अपेक्षा उपचार से कर्मजनित ही है। शुद्ध पारिरणामिक भाव पुनः साक्षात् कर्मों से निरपेक्ष ही है । यहां व्याख्यान में मिश्रादि तीन मोक्ष के कारण हैं, मोहोदय से सहित श्रदयिक भाव बंध का कारण है और शुद्ध पारिणामिक भाव बंध मोक्ष का कारण है । इसके बाद “तथा चोक्तं" कहकर यह श्लोक दिया है जिसको कि समयसार की टीका में उद्धृत किया है । इस कथन से परस्पर विरोध आदि नहीं समझना चाहिये क्योंकि अपेक्षाकृत कथन है | यहां पर ग्रन्थकार का अभिप्राय जीव के स्वभाव मात्र कथन करने का ही है । अतएव क्षायिकभाव को भी विवक्षित नहीं किया है अतः इसमें बाधा नहीं है । [ अब टीकाकार मुनिराज पंचमभाव के महत्व को बतलाते हुए श्लोक कहते हैं- ] (५८) श्लोकार्थ -- पांच आचारों से सहित और किचनभाव-परिग्रह भाव के प्रपंच से रहित विद्वान् साधु पूज्य पंचमगति को प्राप्त करने के लिए पंचम पारिणामिक भाव का स्मरण करते हैं । भावार्थ- जिन्होंने परिग्रह का त्याग नहीं किया है, गृहस्थ हैं, वे इसका श्रद्धान तो कर सकते हैं लेकिन पंचम भाव का आश्रय लेकर निर्विकल्प ध्यान नहीं कर सकते हैं ऐसा समझना चाहिए । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 शुद्धभाव अधिकार ( मालिनी ) सुकृतमपि समस्त मोगिनां भोगमूलं त्यजतु परमतत्वाभ्यास निष्णातचितः । उभयसमयसारं सारतत्त्वस्वरूपं भजतु भवदिमुक्त्यै कोऽत्र दोषो मुनीशः ।। ५६ ।। (५६) श्लोकार्थ - परमतत्त्व के अभ्यास में निष्णात चित्त वाले मुनीश, योगीजनों के भोगों के मूल ऐसे संपूर्ण पुण्य को भी छोड़ें और भव से मुक्त होने के लिये सार तत्त्व स्वरूप उभय प्रकार के समयसार का आश्रय लेवें इसमें क्या दोष है ? [ tre भावार्थ - निज श्रात्म तत्व के अभ्यास में कुशल साधुओं को उपदेश दिया सेवा है कि आप समस्त पुण्य को भी छोड़ो और कारण समयसार रूप शुद्धोपयोग को आप करके कार्य समयसार रूप शुद्धोपयोग को प्राप्त करके कार्य समयसार रूप शुद्ध परमात्मा को प्राप्त करो। तुम्हारे लिये इसमें कोई दोष नहीं है किन्तु जो अभी परूप क्रिया से निवृत्त नहीं हुए हैं उनके लिए पुण्य क्रिया के छोड़ने का उपदेश नहीं है। " विशेषार्थ - उभय समयसार का अभिप्राय है कारण और कार्य समयसार । लिका स्वरूप समयसार ग्रन्थ में बहुत ही स्पष्ट रूप से कहा है । तथाहि - "" अनंत सादि चतुष्टय लक्षण कार्यसमयसार का उत्पादक होने से निर्विकल्प समाधि परिणाम परिणत कारण समयसार लक्षण रूप भेदज्ञान से ज्ञानमय हो होता है ।" "" केवलज्ञानादि व्यक्तिरूप कार्यसमयसार का साधक निर्विकल्प समाधिजो कारण समयसार है ।' ..... ""भेद रत्नत्रयात्मक व्यवहार मोक्षमार्गे संज्ञक जो व्यवहार कारण समयसार उससे साध्य जो निश्चय कारण समयसार है जो कि विशुद्धज्ञान दर्शन स्वभाव १. समयसार गाथा १२७, टीका पृष्ठ १८४ । २. गाथा ३५५, टीका पृष्ठ ४३६ । १. गाथा ३७३ से ३८२ तक की टीका के अन्तर्गत पृष्ठ ४५६ । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19." १२० ] . .. नियमसार चउगइभवसंभमरणं, जाइजरामरणरोगसोगा' य । कुलजोरिणजीवमग्गणठाणा जोवस्स गो संति ॥४२॥ चतुर्गतिभवसंभ्रमणं जातिजरामरणरोगशोकाश्च । कुल योनिजीवमार्गणस्थानानि जीवस्य नो सन्ति ।।४२॥ - -- --- शुद्धात्म तत्त्व के सम्यक श्रद्धान ज्ञान और अतुचरण रूप अभेद रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधिरूप है और अनन्तकेवलज्ञानादि चतुष्टय की व्यक्तिरूप ऐसे कार्यसमयसार का उत्पादक है। इस व्यवहार कारण समयसार और निश्चय कारण समग्रसार के बिना यह अज्ञानी जीव रोष और तोष करता है।" ऐसे ही जयसेनाचार्य ने स्थल-स्थल पर कंवलज्ञानरूप व्यक्त अवस्था को कार्यसमयसार कहा है और उसके लिए कारण स्वरूप ऐसे निश्चय रत्नत्रय को कारण समयसार कहा है । तथा यहां पर तो जयसेनाचार्य ने उस निश्चय के लिए कारण स्वरूप ऐसे व्यवहार रत्नत्रय को भी व्यवहार कारण समयसार संज्ञा दी है। प्रस्तु, यहां पर नियमसार की टोका में टीकाकार ने भी कारण समयसार और कार्यसमयसार रूप ऐसे सारभूत तत्त्व के स्वरूप का आश्रय लेने का आदेश दिया है। इसका ऐसा भी अभिप्राय समझना चाहिये कि पहले भेदरत्नत्रय होता है, अनन्तर ही अभेद रत्नत्रय प्रगट होता है । भेदरत्नत्रय के बिना अभेद रत्नत्रय हो नहीं सकता है, फिर भी उसको प्राप्त करने के बाद प्रागे शुद्धोपयोग रूप अभेद में पहुंच कर शुद्धात्म को प्रगट करना है। - गाथा ४२ ___ अन्वयार्थ-[ चतुर्गतिभवसंभ्रमणं ] चार गतियों के 'भवों का परिभ्रमण [ जातिजरामरणरोगशोकाश्च ] जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, [ कुलयोनि जीबमार्गणस्थानानि च ] कुल योनि, जीवस्थान और मार्गणास्थान [ जीवस्य नो संति ] जोव के नहीं होते हैं । १. रोयसोका ( क ) पाठान्तर । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. Here शुद्धमाव अधिकार [ १२१ चारों गति के भव में जो हो रहा भ्रमरण । ये रोग शोक वृद्धावस्था जनम मरण ॥ कुल योनि जीव के स्थान मागणाएँ भी। नहि शुद्धनय से होवें ये जीव में कभी ।।४२। - इह हि शुद्धनिश्चयनयेन शुद्धजीवस्य समस्तसंसारविकारसमुदयो न समस्ती स । द्रव्यभावकमस्वीकाराभावाच्चतसृणां नारकतिर्यङ मनुष्यदेवत्वलक्षणानो गतीनां धमणं न भवति । नित्यशुद्धचिदानन्दरूपस्य कारणपरमात्मस्वरूपस्य द्रव्यभाषकर्मउपयोम्यविभावपरिणतेरभावान्न जातिजरामरणरोगशोकाश्च । चतुर्गतिजोवानां कुललिविकल्प इह नास्ति इत्युच्यते । तद्यथा-पृथ्योकायिकजीवानां द्वाविंशतिलक्षकोटिमानि, अप्कायिकजीवानां सप्तलक्षफोटिकुलानि, तेजस्कायिफजीवानां पिलक्षकोटिमानि, घायुकायिकजीवानां सप्तलक्षकोटिकुलानि, वनस्पतिकायिकजीवानाम् अष्टोचरलिहिलक्षकोटिकुलानि, द्वीन्द्रियजीवानां सप्तलक्षकोटिकुलानि. श्रीन्द्रियजीवानाम् प्रष्ट कोटिकुलानि, चतुरिन्द्रियजीवानां नवलक्षकोटिकुलानि, पंचेन्द्रियेषु जलचराणां सार्द्धतलकोटिकुलानि, पाकाशचरजीवानां द्वादशलक्षकोटिकुलानि, चतुष्पदजीवानां सिमकोटिकुलानि, सरीसृपाणां नवलक्षकोटिकुलानि, नारकाणां पंचविंशतिलसकोटि टोका-शुद्धनिश्चयनय से शुद्धजीव के समस्त संसार के विकारों का समूह है ऐसा यहां पर कहा है । । द्रव्यकर्म तथा भावकर्म के स्वीकार करने का अभाव होने से नारक, तिर्यच, पद और देवत्व लक्षणवाली चार प्रकार की गतियों का परिभ्रमण नहीं होता है। स, शुद्ध चिदानन्दमय कारण परमात्मा स्वरूप जीव के द्रव्यकर्म, भात्र कर्म के ग्रहण विभाव परिणति का अभाव होने से जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक नहीं है । पति वाले जीवों के कुल योनि के भेद नहीं हैं ऐसा यहां पर कहा गया है । का स्पष्टीकरण पृथ्वीकायिक जीवों के २२ लाख करोड़ कुल हैं, जलकायिक जीवों के ७ लाख कुल हैं, बनस्पतिकायिक जीवों के २८ लाख करोड़ कुल हैं, द्वीन्द्रिय जीवों के Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] नियमसार कुलानि, मनुष्याणां द्वादशलतकोटिकुलानि, देवानां षड्विंशतिलक्षकोटिकुलानि । सर्वाणि सार्द्ध सप्तन वस्यग्रशतकोटिलमाणि १९७५०००००००००००। पृथ्वीकायिकजीवानां सप्तलक्षयोनिमुखानि, अप्कायिकजीवानां सप्तलक्षयोनिमुखानि, तेजस्कायिकजीवानां सप्तलक्षयोनिमुखानि, वायुकायिकजीवानां सप्तलक्षयोनिमुखानि, नियनिगोदिजीवानां सप्तलक्षयोनिमुखानि, चतुगंतिनिगोदिजीवानां सप्तलक्षयोनिमुखानि, वनस्पतिकायिकजीवानां दशलक्षयोनिमुखानि, द्वौन्द्रियजीवानां द्विलक्षयोनिमुखानि, वीन्द्रियजीवानां द्विलक्षयोनिमुखानि, चतुरिन्द्रियजीवानां द्विलक्षयोनिमुखानि, देवानां चतुर्लक्षयोनिमुखानि, नारकाणां चतुलक्षयोनिमुखानि, तिर्यग्जीवानां चतुर्लक्षयोनिमुखानि, मनुष्याणां चतुर्दशलक्षयोनिमुखानि । ७ लाख करोड़ कुल हैं, त्रीन्द्रिय जीवों के ८ लाख करोड़ कुल हैं, चतुरिन्द्रिय जीवों के ६ लाख करोड़ कुल हैं, पंचेन्द्रिय जीवों में जलचर जीवों के १२|| लाख करोड़ कुल हैं, नभचर जीवों के १२ लाख करोड़ कुल है, चतुष्पद-थलचर जीवों के १० लाख करोड़ कुल हैं, सरीसा-सादिक पेट से चलने वाले जीवों के ६ लाख करोड़ कुन हैं. नारको जीवों के २५ लाख करोड़ कुल हैं, मनुष्यों के १२ लाख करोड़ कुल हैं और देवों के २६ लाख करोड़ कल हैं। सभी मिलाकर एक सौ साढ़े सत्तानवे लाख करोड़ ( १९७५०००,000,0००,००) कुल होते हैं । पृथ्वीकायिक जोवों के ७ लाख योनिमख हैं, जलकायिक जीवों के ७ लाख योनिमुख हैं, अग्निकायिक जीवों के ७ लाख योनिमुख हैं, वायुकायिक जीवों के ७ लाख योनिमुख हैं, नित्यनिगोदी जीवों के ७ लाख योनिमुख हैं, चतुर्गति निगोद के ७ लाख योनिमुख हैं, बनस्पतिकायिक जीवों के दस लाख योनिमुख हैं, द्वीन्द्रिय जीवों के दो लाग्य योनिमुख हैं, श्रीन्द्रिय जोवों के दो लाख योनिमुख हैं, चतुरिन्द्रिय जीवों के दो लाख योनिमुख हैं, देवों के चार लाख योनिमुख हैं, नारकियों के चार लाख योनिमुख हैं, तिथंच जीवों के चार लाख योनिमुख हैं मौर मनुष्यों के चौदह लाख योनिमुख हैं। ( कुल मिलाकर ८४००००० योनियां हैं। ) बादर एकेन्द्रिय और सूक्ष्म एकेन्द्रिय ऐसे एकेन्द्रिय के दो भेद, संज्ञी और असंज्ञो अपेक्षा पंचेंद्रिय के दो भेद, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय ये तीन भेद ऐसे Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धभाव अधिकार [ १२३ स्थूलसूक्ष्मकेन्द्रियसंश्य संज्ञिपंचेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपर्याप्तापर्याप्तकसमाथ चतुर्दशजीवस्थानानि । गोन्द्रियकाययोगवेदकषायज्ञानसंयम दर्शनलेश्या मध्यसत्यवश्वसंश्याहार विकल्पलक्षणानि मार्गणास्थानानि । एतानि सर्वाणि च तस्य भगवतः सरमात्मनः शुद्ध निश्चयनयबलेन न सन्तोति भगवतां सूत्रकृतामभिप्रायः । तथा चोक्तं श्रीभवमृतचंद्रसूरिभिः- ( मालिनी ) " सकलमपि विहायाह्नाय चिच्छक्तिरिक्त स्फुटतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्रम् । हममुपरि चरं चारुविश्वस्य साक्षात् कलयतु परमात्मात्मानमात्मन्यनंतम् ॥" बातों के पर्याप्त अपर्याप्तक भेद होने से जीवस्थान ( जीवसमास ) के चौदह भेद होते हैं । गति, इन्द्रिय, काय, योग वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और प्रहार इन भेद स्वरूप चौदह मार्गणा स्थान होते हैं । -- ये सभी उन भगवान् परमात्मा के शुद्ध निश्चयनय के बल से नहीं हैं ऐसा भगवान् सूत्रकार श्री कुन्दकुन्ददेव का अभिप्राय है । उसीप्रकार श्री अमृतचन्द्रसूरि से भी कहा हैलोकार्थ- " चैतन्यशक्ति से अतिरिक्त सम्पूर्ण भावों को भी शीघ्र ही छोड़कर और चैतन्य शक्ति मात्र अपनी आत्मा को स्पष्टतया श्रवगाहन करके आत्मा साक्षात् विश्व के ऊपर स्फुरायमान होते हुए परम उत्कृष्ट अनन्तरूप आत्मा को अपनी आत्मा में अनुभव करो ।" 91 - भावार्थ - यह आत्मा विश्व के अग्रिम भाग में लोकातिशायी माहात्म्य से कुरासान है अथवा जो थात्मा लोकालोक का परिच्छेदक है क्योंकि चारधातु १. समयसार कलश, ३५ । I Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] तथा हि नियमसार ( अनुष्टुभ् ) "चिच्छक्तिव्याप्त सर्वस्वसारो जीव इयानयम् । अलोऽतिविधाः सर्वे भावाः पौद्गलिका प्रभो ॥ " ( मालिनी ) अनवरत मखण्डज्ञान सद्भावनात्मा व्रजति न च विकल्प संसृतेर्घोररूपस् । अतुलमनघमात्मा निर्विकरूपः समाधिः परपरिणतिदूरं याति चिन्मात्रमेषः ॥ ६० ॥ v ज्ञानार्थवाचक है ऐमी ज्ञानशक्ति मात्र आत्मा की अपनी ग्रात्मा में ही अनुभव करना चाहिये | श्लोकार्थ - " यह जीव चित्शक्ति ज्ञान के अविभागी प्रतिच्छेदों से व्याप्त सर्वस्व सारभूत इतना मात्र ही है, इससे अतिरिक्त सभी भाव पौद्गलिक हैं- - ज्ञान शून्य हैं ।" अर्थात् चैतन्य से अतिरिक्त सभी शरीर आदि पदार्थ पौद्गलिक ही हैं ऐसा अभिप्राय है | [ अब टीकाकार श्री मुनिराज निर्विकल्प समाधि को महिमा बतलाते हुए और श्री वीर प्रभु के गुणों का स्मरण करते हुए दो श्लोक कहते हैं । ] (६०) श्लोकार्थं - सतत रूप से अखण्ड ज्ञान की सद्भावना रूप आत्मा संसार के घोर दुःख रूप विकल्प को प्राप्त नहीं होता है, किन्तु निर्विकल्प समाधि स्वरूप यह ग्रात्मा अतुल, निर्दोष पर परिणति से दूर चिन्मात्र को प्राप्त कर लेता है । भावार्थ- शुद्धनिश्चयनय का अवलम्बन लेकर यह आत्मा अपने को अखण्ड ज्ञान स्वरूप भावित करते हुए संसार के दुःखरूप जन्म, मरण, कुल, योनि श्रादि १. समयसार कलश, ३६ । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धभाव अधिकार [ १२५ ( स्रग्धरा) इत्थं बुद्ध्वोपवेशं जननमृतिहरं यं जरामाशहेतु भक्तिप्रवामरेन्द्र प्रकटमुकुटसद्रत्नमालार्चितांघ्र।। वोरातीर्थाधिनाथाद्दुरितमलकुलध्वांतविध्वंसदक्षं एते संतो भवाब्धेरपरसटममी यांति सच्छोलपोता: ॥६१।। गिद्दडो गिद्द हो, रिणम्ममो,' रिणकलो हिरालंबो। णीरागो णिहोसो, रिणम्मूढो रिणब्भयो अप्पा ॥४३॥ निर्दण्डः निईन्द्रः निर्ममः नि:कलः निरालंबः । नोरागः निर्दोषः निर्मूढः निर्भयः प्रात्मा ।।४३।। विकल्पों को नहीं करता है पुनः निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर निर्दोष चिन्मात्र गदान आत्मा को प्राप्त कर लेता है । (६१) श्लोकार्थ-भक्ति से नमस्कार करते हुए सुरेन्द्र के मुकुटों की उत्कृष्ट सानों की मालानों द्वारा जिनके चरण युगल अचित हैं ऐसे तीर्थ के अधिनायक भगवान बहावार से जन्म, जरा मरण के नाशक उपदेश को प्राप्त कर सम्यकचारित्र रूपी नौका भर बैठे हुए ये संत पुरुष संसार समुद्र के दूसरे तट को प्राप्त कर लेते हैं। । भावार्थ-जो भव्य जीव भगवान महावीर के निश्चय व्यवहाररूप उभय वात्मक उपदेश को प्राप्तकर सम्यकचारित्र को धारण कर लेते हैं वे संसार समुद्र से र हो जाते हैं, यहां अभिप्राय है । गाथा ४३ अन्वयार्थ - [ आत्मा ] आत्मा [ निर्दण्डः ] दण्डरहित-मन, वचन, काय की प्रवृत्ति से रहित [ निईन्द्रः ] द्वन्द्व रहित [ निर्ममः ] ममता रहित [ निः कलः ] और रहित [ निरालम्बः] पालम्बन रहित [ नोरागः ] राग रहित [ निर्दोषः ] व रहित [ निमूहः ] मूढ़ता रहित और [ निर्भयः ] भय रहित है । १. णिम्मम्मो (क) पाठान्सर । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nALL ...- १२६ ] नियमसार यह प्रात्मा निदण्ड है निद्व है निमम । है परसे निरालंब प्रो निष्कल है विगततन ।। नीराम है निदोष है निर्मूढ़ भी निर्भय । व्यवहार नय से सचमुच दिखता उपाधिमय ।।४३।। इह हि शुद्धात्मनः समस्तविभावाभावत्वमुक्तम् । मनोदण्डो वचनदण्डः कायदण्डश्चेत्येतेषां योग्यद्रव्यभावकर्मणामभावाग्निर्दण्डः । निश्चयेन परमपदार्थव्यतिरिक्तसमस्तपदार्थसार्थामावाग्निद्वन्द्वः । प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तमोहरागद्वषाभावान्निर्ममः । निश्चयेनौदारिकवैक्रियिकाहारकर्तजसकार्मणाभिधानपंचशरीरप्रपंचाभावान्नि:कलः । निश्चयेन परमात्मनः परद्रव्यनिरवलम्बत्वानिरालंबः । मिथ्यात्ववेदरागदोषहास्यरत्यरतिशोकमयज गुप्साक्रोधमानमायालोभाभिधानाम्यन्तर चतुर्दशपरिग्रहाभावानीरागः । निश्चयेन निखिलदुरित मलकलंकपंकनिरिणतसमर्थसहजपरमवीतरागसुखसमद्रमध्यानमग्नस्फुटितसहजावस्थात्मसहजज्ञानगात्रपवित्रत्वानिर्दोषः । सहजनिश्चयनयबलेन सहजज्ञान - -. -- टोका--निश्चित रूप से शुद्धात्मा के सम्पूर्ण विभावों का प्रभाव है यहां पर ऐसा कथन है। मनदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड इनके योग्य द्रव्यकर्म और भावकर्म के अभाव से प्रात्मा निर्दण्ड है । निश्चयनब से परम पदार्थ से व्यतिरिक्त सम्पूर्ण पदार्थ समूह के प्रभाव से प्रात्मा निद्व है-द्वत रहित है। प्रशस्त और अप्रशस्त समस्त मोह, राग-द्वेष का अभाव होने से यह प्रात्मा निर्मम है। निश्चयनय से यह औदारिक, वैक्रिय क, प्राहारक, तंजस और कार्मण इन पांच शरीर के प्रपंच के प्रभाव से शरोर रहित निष्कल है 1 निश्चयनय से इस परमात्मा के परद्रव्य का अवलम्बन न होने से निरालम्ब है । मिथ्यात्व, वेद, राग, द्वेष, हास्य, रति, परति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ इन नामवाले चौदह प्रकार अभ्यन्तर परिग्रह का अभाव होने से रागरहित नोराग है । निश्चयनय से समस्त दुरित मल कलंकपंक को धोने में समर्थ ऐसी जो सहज परम वीतराग सुख समुद्र के मध्य में डूबे हुए और प्रगट हुया सहज अवस्थारूप जो सहजज्ञान.शरोर उस ज्ञान शरीर से पवित्र होने से जो आत्मा निदोष है, सहज निश्चयनय के बल से सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजचारित्र और Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - " शुद्धभाव अधिकार [ १२७ वर्शनसहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखाद्यनेकपरमधर्माधारनिजपरमतत्त्वपरिच्छेदपासमत्वानिमूहः, अथवा सानिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारनयबलेन कामत्रिलोकवतिस्थावरजंगमात्मकनिखिलद्रव्यगुणपर्यायकसमयपरिच्छितिसमर्थसकलविमलकेवलज्ञानावस्थत्वानि ढश्च । निखिलदुरितयोरवरिवाहिनीदुःप्रवेशनिजशुद्धान्तसरवमहादुर्गनिलयत्वान्निर्भयः । अयमात्मा ह्यु पादेयः इति । स्या चोक्तममृताशीतो ( मालिनी) 'स्वरनिकरविसर्गव्यंजनाधक्षरर्यद रहितमहितहोनं शाश्वतं मुक्तसंख्थम् । प्ररसतिमिररूपस्पर्शगंधाम्बुवायुक्षितिपवनसखाणुस्थूलदिक्चक्रवालम् ।।" हज परम वीतराग सुख आदि अनेक परम धर्मों का आधारभूत ऐमा जो निज परमतित्व है उसको जानने में ममर्थ होने से जो निर्मूड है, अथवा सादि सान्त अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाव बाले पृद्ध गदभूत व्यवहार नय के बल से तीनों काल और नोनों खीक में रहने वाले स्थावर -जंगमरूप सम्पूर्ग द्रव्य गुण और उनकी पर्यायों को एक समय में जानने में समर्थ ऐसा जो सकल बिमल केवलज्ञान है उस केवलज्ञानरूप से अवस्थित होने से यह प्रान्मा निर्मूढ़ है। सम्पूर्ण पाप रूपी वीर बैरी की सेना के सब दुःप्रवेश-जिसमें प्रवेश करना दुष्कर है ऐसा जो निजशुद्धचैतन्यतत्त्वरूप महाभाई वही प्रावास स्थान होने से यह ग्रात्मा निर्भय है । निश्चित रूप से यह (ऐसी) मा हो उपादेय है। उसी प्रकार अमृताशीनि ग्रन्थ में भी कहा है-- लोकार्थ - "जो स्वर समूह से विसर्ग और व्यंजनादि अक्षरों से रहित है, हित से होन-रहित है, शाश्वत है, संख्या से रहित है, रस रहित है, तिमिर रहित स, स्पर्श, गंध से रहित है, जल-वायु अग्नि और पृथ्वो से रहित है, अणु और जे से रहित है, तथा दिशानों के समूह से भो रहित है ऐसा यह आत्म तत्त्व है।" Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] नियमसार तथा हि--- ( मालिनी) दुरधवनकुठारः प्राप्तदुष्कर्मपारः परपरिणतिदूरः प्रास्तरागाषिपूरः । हतविषिविकारः सत्यशाब्धिनीरः सपदि समयसार: पातु मामस्तमारः ॥६२।। ( मालिनी) जयति परमतत्त्वं तत्त्वनिष्णातपनप्रभमनिहृदयाब्जे संस्थितं निर्विकारम् । हतविविधविकल्पं कल्पनामात्ररम्याद भवभवसुखदुःखान्मुक्तमुक्तं बुधैर्यत् ॥६३॥ - ... . .. . [उसी प्रकार से टोकाकार श्री मुनिराज भी शुद्ध आत्मतत्त्व का वर्णन करते हुए सात श्लोक कहते हैं ] (६२) श्लोकार्थ-जो दुष्ट पापों के वन को काटने में कुठार है, दुष्ट कर्मों के पार को प्राप्त हो चुका है, पर परिणति से दूर है, रागरूपी समुद्र के प्रवाह को जिसने नष्ट कर दिया है, जिसने बिविध विकारों का घात कर दिया है, जो वास्तविक सुख रूपी समुद्र का जल है और जिसने कामदेव को अस्त-समाप्त कर दिया है ऐसा वह समयसार-शुद्ध आत्मा का स्वरूप शीघ्र ही मेरी रक्षा करो । (६३) इलोकार्थ-जो परमतत्त्व, तत्त्व में निष्णात ऐसे पद्मप्रभ मनि के हृदय कमल में विराजमान हैं, निर्विकार हैं, जिसने विविध विकल्पों को नष्ट कर दिया है, जो कल्पना मात्र से रम्य ऐसे भव-भव के सुख-दुःखों से रहित है, जो बुद्धिमानों के द्वारा कहा गया है वह परमतत्त्व जयशील होता है । भावार्थ-यहां टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव मुनिराज शुद्धात्म तत्व का वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि तत्त्व में प्रवीण ऐसे मेरे हृदय कमल में यह परमतत्त्व Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धभाव अधिकार [ १२६ (मालिनी) अनिशमसुलबोधाधीनमात्मानमात्मा सहजगुणमणीनामाकरं तत्त्वसारम् । निजपरिणतिशाम्भोधिमज्जन्तमेनं भजतु भवविमुक्त्यै भव्यताप्रेरितो यः ॥६४।। (द्रुतविलंबित ) भवभोगपराङ मुख हे यते पदमिदं भवहेतुविनाशनम् । भज निजात्मनिमग्नमते पुनस्तव किमध्र ववस्तुनि चिन्तया ॥६५।। (द्रुतविलंबित) समयसारमनाकुलमच्युतं जननमृत्युरुजादिविवज्जितम् । सहजनिर्मलशर्मसुधामयं समरसेन सदा परिपूजये ॥६६॥ --- - - - - -- - विराजमान है । वास्तव में महामुनि हमेशा छरे सातवें गुणस्थान में परिवर्तन करने वाले होते हैं इसलिए वे आत्मतत्त्व के अभ्यास में निपुण ही रहते हैं। ऐसा अभिप्राय है। (६४) श्लोकार्थ-आत्मा अनुल ज्ञान के आधीन है, सहज-स्वाभाविक गुणमी मणियों की खान है, तत्वों का मार है, निजारिणति के सुखसागर में मग्न है । से आत्मा भव्यता से प्रेरित हो वह भब से मुक्त होने के लिए ऐसी आत्मा को भजो । । (६५) श्लोकार्थ-भव भोगों से पराछ मुख हे यतिराज ! भव के कारणों में विनाश करने वाले इस पद को तुम भजी-इस आत्मा के स्थिर पद का तुम आश्रय यो। हे निजात्मतत्त्व में निमग्न बुद्धि वाले साध ! पुनः तुम्हें अध्र व अनित्य वस्तु चिता से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं हैं। (६६) श्लोकार्थ-अनाकुल, अच्युत, जन्म-मृत्यु और रोगादि से रहित, व निर्मल सुख सुधामय, समयसार-शुद्धात्मतत्त्व को मैं सदा समरसभाव से पूजता हूं। -. .-. --. | Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] नियमसार ( इंद्रवज्ञा) इत्थं निजजन निजात्मतत्त्वमुक्त पुरा सूत्रकृता विशुद्धम् । बुद्ध्या च यन्मुक्तिमुपैति भव्यस्तद्भावयाम्युत्तमशर्मणेऽहम् ॥६७।। ( बसंततिलका ) प्राद्यन्तमुक्तमनघं परमात्मतत्त्वं निर्द्वन्द्वमक्षयविशालवरप्रबोधम् । तद्भावनापरिणतो भुवि भव्यलोकः सिद्धि प्रयाति भवसंभवदुःखदूराम् ॥६॥ रिणग्गंथो गोरागो, रिणस्सल्लो सयलदोसरिणम्मुक्को। रिपक्कामो णिक्कोहो, रिणम्माणो रिणम्मदो अप्पा ॥४४॥ निर्ग्रन्थो नीरागो निःशल्यः सकलदोषनिमुक्तः । निःकामो निःोधो निर्मानो निर्मदः प्रात्मा ॥४४।। - - - - - (६७) श्लोकार्थ-इस प्रकार से आत्मज्ञानी मुत्रकार ( श्री कुदबुद देव ) ने विशद-निज आत्मतत्व को पहले कहा है। जिसको जानकर भव्य जीव मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं । सुग्व की प्राप्ति के लिए मैं भी उस आत्मतत्त्व की भावना करता हूँ। (६८) श्लोकार्थ-परमात्मतत्त्व आदि अंत में रहित है, निर्दोष है, निर्द्वन्द्वद्वत अथवा कलह से रहित है. अक्षय विशाल श्रेष्ठ ज्ञानस्वरूप है। इस संसार में उस परमात्मतत्व की भावना से परिणत हुये भव्य जीव, भव से जनित दुःखों से दूर ऐसी सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं । अर्थात् जो इस परमात्मतत्त्व की भावना में परिणततन्मय हो जाते हैं वे संसार के दुखों से छुटकर मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं । गाथा ४४ अन्वयार्थ--[प्रात्मा] यह आत्मा [निम्रन्थः] ग्रंथ-परिग्रह से रहित, [नीरागः] राग रहित, [निःशल्यः] शल्य रहित, [ सकलदोषनिमुक्तः ] संपूर्ण दोषों से रहित, Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शृद्धभाव अधिकार [ १३१ निर्ग्रन्थ मोह ग्रंथि रहित वीतराम है । निःशल्य है संपूर्ण दोष रहित स्वस्थ है ।। निष्काम है निष्कोध है निर्मान है प्रात्मा । पाठों मदों से शून्य पूर्ण शुद्ध चिदात्मा ॥४४।। अत्रापि शुद्धजीवस्वरूपमुक्तम् । बाह्याभ्यन्तरचतुर्विशतिपरिग्रहपरित्यागलक्षणशामिभन्यः । सकलमोहरागद्वेषात्मकचेतनकभिावानीरागः । निदानमायामिथ्याशल्यसाभावाग्निःशल्यः । शुद्धनिश्चयनयेन शुद्धजीवास्तिकायस्य द्रव्यभावनोकाभावात् जलदोषनिर्मुक्तः । शुद्धनिश्चयनयेन निजपरमतत्त्वेऽपि वाञ्छाभाषाग्निःकामः । निश्चयबेन प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तपरद्रव्यपरिणतेरभावान्नि:क्रोधः। निश्चयनयेन सदा परमसरसोभावात्मकत्वान्निर्मानः । निश्चयनयेननिःशेषतोऽन्तर्मुखत्वान्निर्मदः । उक्तप्रकारमुखसहजसिद्धनित्यनिरावरणनिजकारणसमयसारस्वरूपमुपादेयमिति । निकामः] काम-इच्छाओं से रहित, [निःक्रोधः] क्रोध से रहित, [निर्मानः] मान से हित और [निर्मदः] मद से रहित है । टोका-यहां पर भी शुद्ध जीव के स्वरूप को कहा है । बाह्य-अभ्यंतर चौबीस प्रकार के परिग्रहों के परित्याग लक्षण वाला होने मे आत्मा निम्रन्थ है 1 संपूर्ण मोह रागद्वेष स्वरूप चेतनकर्मों-भावकों का अभाव में से आग्मा नीराग है । माया, मिथ्या और निदान इन तीन शल्या का अभाव होने यह आन्मा निःशल्य है । शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा शुद्ध जीवास्तिकाय के द्रव्यकर्म, अकर्म और नोकर्मों का अभाव होने से संपूर्ण दोष से रहित है । शुद्ध निश्चयनय से वसरमतत्व में भी वाञ्छा का अभाव होने से यह आत्मा निष्काम है। निश्चयनय प्रशस्त और अप्रशस्त समस्त परद्रव्य की परिणति का अभाव होने से यह नि:क्रोध निश्चयनय से सदा परमसमरसी भाव स्वरूप होने से यह निर्मान है । निश्चयनय अपेक्षा से संपूर्णतया अंतर्मुख होने से यह आत्मा निर्मद' है । उक्तप्रकार का विशुद्ध रसिद्ध रूप जो नित्य, निराबरण निजकारण समयसार का स्वरूप है बही उपादेय समझना। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १३२ ] निक्मसार तथा चोक्त श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः- [प्रवचनसारे] ( मंदाक्रांता) "इत्युच्छेदात्परपरिणतेः कर्तृकर्मादिभेदभ्रान्तिध्वंसादपि च सुचिराल्लब्धशुद्धात्मतत्त्वः । सञ्चिन्मात्रे महसि विशवे मूच्छितश्चेतनोऽयं स्थास्यत्युद्यत्सहजमहिमा सर्वदा मुक्त एय ॥" तथा हि ( मंदाक्रांता) ज्ञानज्योतिःप्रहतदुरितध्वान्तसंघातकात्मा नित्यानन्दाद्यतुलमहिमा सर्वदा मूर्तिमुक्तः । स्वस्मिन्नुच्चैरविचलतया जातशीलस्य मलं यस्तं वन्दे भवभयहरं मोक्षलक्ष्मीशमीशम् ॥६६॥ उसी प्रकार में श्री अमनचन्द्रमरि ने भी कहा है "श्लोकार्थ-इस प्रकार मे परपरिणति के नष्ट हो जाने से और कर्ता, कर्म आदि भेदों की भ्रांति के भी ध्वम हो जाने से चिरकाल से बड़ी मुश्किल से जिसने आत्म तत्त्व को उपलब्ध किया है ऐसा यह चेतन आत्मा सच्चतन्य मात्र, स्वच्छ तेज में मुच्छित होता हुआ-तन्मय होता हुआ या लीन होता हुआ और उदित हो रही है सहज महिमा जिसकी ऐसा यह सर्वदा मुक्त ही रहेगा ।" उसी प्रकार |अब टीकाकार श्री मुनिराज शुद्ध आत्म तत्त्व की वंदना करते हुए श्लोक कहते हैं (६६) श्लोकार्थ-जिसने ज्ञानज्योति से पापरूपी अंधकार के समूह को समाप्त कर दिया है, जो नित्य आनन्द आदि अतुल महिमा का धारण करने वाला है जो हमेशा स्पर्श, रस, गंध, वर्ण रूप मूर्ति से रहित है, अपने स्वरूप में अत्यन्त रूप से स्थिर होने से उत्कृष्ट शील का मूल है, ऐसे उस भवभय को हरण करने वाले मोक्ष लक्ष्मी के सुख के स्वामी-भोक्ता को मैं नमस्कार करता हूं। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धभाव अधिकार वण्णरसगंधफासा, थोपुसणउसयादिपज्जाया। संठारणा संहरणरणा, सम्वे जीवस्स गो संति ॥४५।। अरसमरूवमगंध, अन्वत्तं चेदणागुणमसइं । जाण अलिंगग्गहरणं, जीवमणिविट्ठसंठारणं ॥४६॥ वर्ण रसगंधस्पर्शाः स्त्रीपुनपुसकादिपर्यायाः । संस्थानानि संहननानि सर्वे जीवस्य नो सन्ति ।।४।। अरसमरूपमगंधमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम् । जानीटलिंगग्रहणं जोवमनिदिष्टसंस्थानम् ॥४६॥ ये वर्ग रस व गंध व स्पर्श जो कहे । स्त्री पुरुष नपुसका जा भेद दिख रहे । संस्थान और संहनन नाना प्रकार के । नहि जीव के हैं निश्चित नयोंकि विकार ये ॥४५।। रस रूप गंध ये स्वभाव जीव के नहीं। यह है अव्यक्त चेतना गुणमय अशब्द ही ।। नहि लिंग व अनुमान से हो जीव का ग्रहण 1 आकार का भी इसके नहि हो सके वथन ।। ४६।। • - - -- - - - -- -- गाथा ४५-४६ अन्वयार्थ-[ वर्णरसगंधस्पर्शाः ] वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, [स्त्रीनपुसकादि(पर्यायाः] स्त्री, पुरुष, नपुसक आदि पर्याय, [ संस्थानानि ] सभी संस्थान और [संहननानि] संहनन [सर्वे ] ये सभी [जीवस्य नो संति] जीव में नहीं हैं । [जीवं] इस जीव को [अरसं] रसरहित, [ अरूपं ] रूपरहित, [ अगंधं ] गंधरहित, [अन्यक्तं] व्यक्तरहित, [चेतनागुणं] चेतना गुण सहित [अशब्दं ] शब्द[रहित [अलिंग ग्रहणं] लिंग-हेतु से नहीं ग्रहण करने योग्य और [अनिर्दिष्ट संस्थानं] जिसका कोई संस्थान-आकार नहीं कहा जा सकता है ऐसा [जानीहि] तुम जानो । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] नियमसार ___ इह हि परमस्वभावस्य कारणपरमात्मस्वरूपस्य समस्तपौद्गलिकविकारजातं न समस्तीत्युक्तम् । निश्चयेन वर्णपंचकं, रसपंचक, गन्धद्वितयं, स्पष्टिकं, स्त्रीनपुसकादिविजातीयविभावव्यंजनपर्यायाः, कुब्जाविसंस्थानानि, बज्रर्षभनाराचादिसंहननानि विद्यन्ते पुद्गलानामेव, न जीवानाम् । संसारावस्थायां संसारिणो जीवस्य स्थावरनामकर्मसंयुक्तस्य कर्मफलचेतना भवति, प्रसनामकर्मसनाथस्य कार्ययुतकर्मफलचेतना भवति । कार्यपरमात्मनः कारणपरमात्मनश्च शुद्धज्ञानचेतना भवति । अत एवं कार्यसमयसारस्य वा कारणसमयसारस्य वा शुद्धज्ञानचेतना सहजफलरूपा भवति । अतः सहजशुद्धज्ञानचेतनात्मानं निजकारणपरमात्मानं संसारावस्थायां मुक्तावस्थायां वा सर्वदैकरूपत्वादुपागभिति हे शिष्य त्वं जानीहि इति । - तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ-- टीका-परम स्वभाव वाले कारण परमात्मा के स्वरूप में संपूर्ण पौद्गलिक विकारों का समूह नहीं है, यहां पर ऐसा कथन है । निश्चयनब से पांच वर्ण, पांच रम, दो गंध, आठ स्पर्श, स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि विजातीय विभाव व्यंजन पर्याय कुब्जक आदि संस्थान, वनवृषभनाराच आदि संहनन पुद्गलों के ही हैं, किन्तु जीवों के नहीं है। संसारावस्था में स्थावरनामकर्म से संयुक्त ऐसे संसारी जीव के कर्मफलचेतना होती है और वसनामकर्म से सहित जीव के कार्ययुत-कर्मचेतना सहित कर्मफलचितना होती है। तथा कार्यपरमात्मा और कारणपरमात्मा के शुद्धज्ञान चेतना होती है । अतएव कार्यसमयसार के अथवा कारण । समयसार के शुद्धज्ञानचेतना सहजफलरूप होती है। इसलिये हे शिष्य ! सहज शुद्ध- । ज्ञानचेतना स्वरूप निजकारणपरमात्मा को तुम संमार अवस्था में अथवा मुक्त अवस्था : में सर्वदा एकरूप होने से उपादयभूत जानो, ऐसा अभिप्राय है । - उसी प्रकार 'एकत्वसप्तति में कहा भी है . १. पद्मनन्दिपंचवि०, एकत्वसन्ततिमधि० श्लोक ७६ । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३५ शुद्धभाव अधिकार ( मंदाक्रांता) "प्रात्मा भित्तस्तदनुगतिमत्कर्म भिन्नं तयोर्या प्रत्यासत्तेर्भवति विकृतिः सापि भिन्ना तथैव । कालक्षेत्रप्रमुखमपि यत्तच्च भिन्नं मतं मे भिन्न भिन्न निजगुणकलालंकृतं सर्वमेतत् ॥" तथा हि-- ( मालिनी ) असति च सति बन्धे शुद्धजीवस्य रूपाद् रहितमखिलमूर्त्तद्रव्यजालं विचित्रम् । इति जिनपतिवाक्यं वक्ति शुद्धं बुधानां भवनविदितमेतद्भव्य जानीहि नित्यम् ॥७०॥ "श्लोकार्थ-आत्मा भिन्न है और उसके पीछे-पीछे चलने वाला कर्म भी भिन्न ही है, आत्मा और कम इन दोनों को अन्यन्त निकटता से होने याली जो विकृति है वह भी उसी प्रकार से भिन्न ही है । तथा काल और क्षेत्र हैं प्रमुख जिसमें वे भी आत्मा से भिन्न हैं । अपने-अपने गुण और कलाओं में गोभित हा ये सभी भिन्न-भिन्न भावार्थ- सभी चेतन, अचेतन आदि द्रव्य अपन-अपन गुण पर्यायों से समलंकृत हैं और एक दूसरे से अत्यंत भिन्न हैं। कर्मद्रब्य पौद्गलिक होने से वे जीव रूप नहीं हैं और जीव चैतन्यस्वरूप होने में पुद्गलम्प नहीं है। ऐसा यह कथन निश्चयनय का आश्रय करने वाला है। उसी प्रकार- [टीकाकार श्री मुनिराज भव्यों को शुद्धजीव के स्वरूप को समझाते हुए उन्लोक कहते हैं (७०) श्लोकार्थ-बंध होवे चाहे न होवे, अखिलमूर्त-पुद्गलद्रव्य का समूह जो कि विचित्र नाना प्रकार का है वह शुद्ध जीव के स्वरूप मे भिन्न है। जिनेंद्र । भगवान के वचन इस प्रकार से कहते हैं कि वह शुद्ध है बुद्धिमानों को भुवन में प्रसिद्ध है इस तत्व को हे भव्य ! तुम हमेशा जानो । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] नियमसार जारिसिया' सिद्धप्पा, भवमल्लिय' जीवतारिसा होंति । जरमररणजम्ममुक्का, गुणालंकिया जेा ॥४७॥ यादृशाः सिद्धात्मानो भवमालीना जीवास्तादृशा भवन्ति । जरामरणजन्ममुक्ता श्रष्टगुणालंकृता येन reli जैसे हैं सभी मिद्ध श्रात्मायें मोक्ष में 1 संसारि जीव वैसे हैं सर्वलोक में 11 जैसे ये जन्मजरामरण रहित सिद्ध हैं । गुण युक्त हैं वैसे हि ये भी हैं ॥४७॥ शुद्धद्रव्याथिकनयाभिप्रायेण संसारिजीवानां मुक्तजोवानां विशेषाभावोपन्यासोयम् । ये केचिद् प्रत्यासन्नभव्यजीवाः ते पूर्वं संसारावस्थायां संसारक्लेशाया सचिताः भावार्थ - भले ही कर्म का बंध होवे तो भी शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध जीव परद्रव्य के संबंध से रहित है । ऐसा समझकर शुद्ध आत्मा का श्रद्धान करना चाहिए । और उसे प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए । गाथा ४७ अन्वयार्थ - [ यादृशाः ] जैसे [ सिद्धात्मानः ] सिद्ध परमात्मा हैं, [ तादृशाः ] वैसे [भवं प्रालीनाः ] भव को प्राप्त हुए [ जीवाः ] संसारी जीव [भवंति ] होते हैं । [ येन ] जिससे वे [ जरामरणजन्ममुक्ताः ] जन्म, जरा और मरण से रहित हैं, तथा [ श्रष्टगुणालंकृताः ] आठ गुणों से अलंकृत हैं । अर्थात् जिस नय से वे सिद्धसदृश हैं उसी नय से वे जन्मादि से रहित और अष्ट गुणों से सहित हैं । - टीका- - शुद्ध द्रव्याथिकनय के अभिप्राय से संसारी जीवों में और मुक्त जीवों में कुछ अंतर नहीं है, यहां यह कथन है । जो कोई अत्यासन्न - अतिनिकट भव्य जीव हैं वे पूर्व में संसार अवस्था में संसार के क्लेश से थके हुए चित्त वाले होते हुए सहज वैराग्य भाव में तत्परता सहित, १. जारिसया ( क ) पाठान्तर २. भवमल्लीय ( क ) पाठान्तर Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धभाव अधिकार सन्तः सहजवराग्यपरायणाः द्रव्यभालिंगधराः परमगुरुप्रसादासादितपरमागमाभ्यासेन सिद्धक्षेत्रं परिप्राप्य निर्व्याबाधसकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलसुखकेबलक्तियुक्ताः सिद्धात्मानः कार्यसमयसाररूपा कार्यशुद्धाः। ते यादृशास्तावृशा एव भविनः शुद्धनिश्चयनयेन । येन कारणेन तादृशास्तेन जरामरणजन्ममुक्ताः सम्यक्त्वाद्यष्टगुणपुष्टितुष्टाश्चेति । ( अनुष्टुभ् ) प्रागेव शुद्धता येषां सुधियां कुधियामपि । नयेन केनचित्तेषां भिवां कामपि वेम्यहम् ॥७१॥ प्रसरीरा अविरणासा, अणिदिया णिम्मला विसद्धप्पा। जह लोयग्गे'सिद्धा, तह जीवा संसिदो गेया ॥४॥ - - - - - - - -- - - - - द्रव्य और भालिग के धारक थे वे, परमगुरु के प्रसाद से प्राप्त हुये परमागम के अभ्यास के बल से मिट्ट क्षेत्र को प्राप्त करके बाधा हित सकल विमल, कंवलज्ञान केवलदर्शन केवलगल और केवलशक्ति से युक्त सिद्ध आत्मा परमात्मा कार्यममयमार रूप कार्य शुद्ध हो चुके हैं, वे जैसे हैं, शुद्ध निश्चयनय से वैसे ही समारो जीव हैं और जिस हेतु से वे मंसारी मुक्त जीवों के सदृश हैं, उसी हेतु मे वे जन्म जग और मरण से रहित हैं तथा सम्यक्त्व आदि आठ गुणों की पुष्टि से तुष्ट हैं, ऐमा अभिप्राय है। [अब टीकाकार श्री मुनिराज भी शुद्धनिश्चयनय के बल से संमार में भी संसारी जीवों को गढ़ कहते हुए श्लोक कहते हैं---] (७१) श्लोकार्थ-जिन मुबुद्धि-सिद्ध परमेष्ठी और कुबुद्धि-संसारी जीवों में भी पहले से ही शुद्धता है। उनमें कुछ भी भेद को मैं किसी नय से जानता हूं । अर्थात् शुद्धनिश्चयनय में सभी मंसारी जीव सिद्धों के सदृश शुद्ध ही हैं ! कभी अशुद्ध हुये ही नहीं हैं। गाथा ४८ अन्वयार्थ- [अशरीराः] शरीर मे रहित, [अविनाशा:] विनाय से रहित, [ अतीन्द्रियाः ] इंद्रियों के ज्ञानादि से रहित-अतींद्रिय, [ निर्मलाः ] कर्ममल रहित, १. लोयगो (क) पाठान्तर Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार प्रशरोरा अविनाशा अतीन्द्रिया निर्मला विशुद्धात्मानः । पथा लोकाने सिद्धास्तथा जीवाः संसृतौ जेयाः ॥४॥ प्रशारीरि नाशशून्य पोर अमल अतीन्द्रिय । होकर विशुद्ध प्रात्मा शुचि दर्शज्ञानमय ।। जैसे त्रिलोकमस्तक पर सिद्ध राजते । वैसे हि जग में प्राणी सब साधु भाषते ॥४८॥ प्रयं च कार्यकारणसमयसारयोविशेषाभावोपन्यासः । निश्चयेन पंचशरीरप्रपंचाभावादशरीराः, निश्चयेन नरनारकाविपर्यायपरित्यागस्वीकाराभावादविनाशाः, युगपत्परमतत्त्वस्थितमहजदर्शनादिकारणशद्धस्वरूपपरिच्छित्तिसमर्थसहजज्ञानज्योतिरपहस्तितसमस्तसंशयस्वरूपत्वादतीन्द्रियाः, मलजनकक्षायोपशमिकादिविभावस्वभावानामभावात्रिमंलाः, द्रव्यभावकर्माभावाद् विशुद्धात्मानः यथैव लोकाग्ने भगवन्तः सिद्धपरमेष्ठिनस्तिष्ठन्ति, तथैव संसृतावपि अभी केनचिन्नपबलेन संसारिजीयाः शुद्धा इति । ---... - - - . . . . . . --- . . . .- . - [विशुद्धात्मानः ] विशद्ध स्वरूप वाले [ यथा लोकाग्रे ] जैसे लोक के अग्रभाग में [सिद्धाः] मिद्ध भगवान् है. [तथा] वैसे ही [संसृतौ] संसार में [जोवाः] जीवों को भयाः] जानना चाहिए। टीका-यह, कार्यसमयमार और कारणसमयमार में अन्तर के अभाव का कथन है। निश्चयनय की अपेक्षा में पांच प्रकार के शरीर के प्रपंच का अभाव होने से जो अशरीरी हैं । निश्चयनय से नरनारक आदि पर्यायों के छोड़ने और ग्रहण करने का अभाव होने से जो अविनाशी हैं । युगपत् परमतत्त्व में स्थित सहजदर्शन आदि रूप जो कारण शद्धस्वरूप हैं उसको जानने में समर्थ सहजज्ञान ज्योति से समस्त संशय के स्वरूप को दूर कर देने वाले होने से जो अतीन्द्रिय हैं, मलको उत्पन्न करने वाले गमे क्षायोपशमिक आदि विभाव स्वभावों के अभाव से जो निर्मल हैं, और द्रव्यकर्म भावकर्म के अभाव से जो विशुद्धात्मा हैं, जैसे वे लोक के अग्रभाग में सिद्ध परमेष्ठी दिराजमान हैं, वैसे ही संसार में भी ये संसारी जीव किसी नय के बल से शुद्ध हैं, यहां यह अभिप्राय है। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धभाव अधिकार [ १३६ ( शार्दूलविक्रीडित) शुद्धाशुद्धविकल्पना भवति सा मिथ्यादृशि प्रत्यहं शुद्ध फारणकार्यतत्त्वयुगलं सम्यग्दृशि प्रत्यहम् । इत्थं यः परमागमार्थमतुलं जानाति सद्दक स्वयं सारासारविचारचारुधिषणा वन्दामहे तं वयम् ॥७२॥ - -.-..विशेषार्थ—मूल गाथा में आचार्य श्री ने यही कहा है कि जैसे लोक के शिखर पर सिद्ध भगवान् विराज रहे हैं वैसे ही संसार में संसारी जीव हैं। टीकाकार ने इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा है कि "केनचिन्नयबलेन" अर्थात् किसी नय की अपेक्षा ये मंसारी जीव गिद्धों के सदशा में न कि व्यक्त गुणपर्यायों की अपेक्षा से । पुनः आगे स्वयं ग्रंथकार श्री कुदकुद ने ४९. वीं गाथा में नयविवक्षा खोल दी है। अब टीकाकार श्री मुनिराज नयां से अतीत अवस्था को प्राप्त हुए निविकल्प ध्यान में परिणत महामुनियों को बंदना करते हुए श्लोक कहते हैं-] (७२) श्लोकार्थ----जो शुद्ध अगुद्ध की कल्पना है वह मिश्याष्टि जीवों में हमेशा हुआ करती है 1 किंतु कार्यतत्त्व और कारणतत्त्व दोनों शुद्ध हैं इस प्रकार की कल्पना हमेशा सम्यग्दृष्टि को होती है। जो सम्यग्दृष्टि जीव इस प्रकार से परमागम के अनुल अर्थ को स्वयं जानता है। सारामार विचार मे सहित मुन्दर बुद्धि वाले हम उसकी वंदना करते हैं । भावार्थ- सिद्ध जीव शुद्ध हैं और संसारी जीव अशद्ध हैं इस प्रकार की कल्पना मिथ्यादृष्टि को ही रहती है उसका अभिप्राय यह है कि जिसने नयों की विवक्षा समझी नहीं है जो निश्चयनय से जीव के शुद्ध स्वरूप को नहीं जानते हैं एकांत से मात्र सिद्धों को शुद्ध और संसारी को अशुद्ध मान रहे हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं । तथा जो निश्चयनय से संसार अवस्था में भी जीव के स्वभाव को तथा सिद्धों के स्वभाव को इन दोनों अवस्थाओं को शुद्ध समझते हैं वे सम्यग्दृष्टि हैं। तथा वे ही शुद्ध निश्चयनय और व्यवहारनय से होने वाली शुद्ध अशुद्ध कल्पनारूप विकल्पों से आगे बढ़कर निर्विकल्परूप ध्यान अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं वे वीतराग सम्यग्दृष्टि होते हैं उन्हें Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० । नियमसार एदे सत्वे भावा, ववहाररणयं पडुच्च भरिणदा हु। सव्वे सिद्धसहावा, सुद्धणया संसिदी' जोवा ॥४६॥ एते सर्वे भावा व्यवहारनयं प्रतीत्य भणिताः खलु । सर्वे सिद्धस्वभावाः शुद्धनयात् संसृतौ जीवाः ।।४६॥ ये सर्व भाव जितने का प्राये पूर्व में । व्यवहार नय से हाते भाषा है मुरि ने ।। मंसार में भी जिनने है जीव सदा ही। व शुद्भनय से मान सब गिद्ध स्वभावी ।।४६ ।। निश्चयव्यवहारनययोरुपादेयत्वप्रद्योतनमेतत । ये पूर्वं न विद्यन्ते इति प्रतिपादितारते सर्व विभावपर्यायाः खलु व्यवहारनयादेशेन विद्यन्ते । संसृतावपि ये विभावभाव ही टीकाकार महामनि ने नगवार किया है। निरठे मानवें गणथान में परिवर्तन करने बाद मनिगज पयप्रभमलवारि देब चनथं या चप गुणस्थानवी मम्बग्दृष्टि का नमस्कार नहीं कर सकते हैं । गाथा ४६ अन्वयार्थ— [एते सर्वे भावाः ] ये मझ नाव [खलु ] निश्चय में व्यवहारनयं प्रतीत्य भरिणताः] व्यवहारनय की अपेक्षा में कह गये हैं. [शुद्धनयात ] किन्तु श.द्वनय मे [ संसृतौ ] संसार में [ सर्वे जीवाः ] मभी जीब [ सिद्धस्वभावा: ] मिद्ध स्वभाव वाले हैं। टीका–निश्चय और व्यवहाग्नय की उपादेयता का यह प्रकाशन है। जो 'पूर्व में विद्यमान नहीं हैं। इस प्रकार में प्रतिपादिन की गई हैं वे सभी विभावपर्याय निश्रितरूप स व्यवहारनय कं. आदेश मे (जीव में विद्यमान हैं । ममार में भी जो जीव चार प्रकार के विभाव भावों में शामिका, क्षानोपशामक, औपना मित्र और औदायिक भात्रों में परिणत होते हा रहते हैं, वे भी मभी जीव शुद्धनय के आदेश से भगवान सिद्धों के शुद्धगुण और शुद्धपर्यायों के समान ही हैं । १. संसदी (क) पाठान्तर Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धभाव अधिकार [ १४१ श्चितुभिः परिणताः सन्तस्तिष्ठन्ति अपि च ते सः भगवतां सिद्धानां शुद्धगुणपर्यायः सदृशाः शुद्ध नयादेशादिति । तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः ( मालिनी) "ध्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदयामिह निहितपदानां हंत हस्तावलम्बः । तदपि परममर्थ चिच्चमत्कारमात्रं परविरहितमन्तः पश्यतो नैष किंचित् ।।" विपथ - यहां पर जिस अपेक्षा से ममासे गरीब के समान का है उमी अपेक्षा मे उन संसारी जीवों के गुणपर्याया को भी मिला है ममान श कहा है। यह बात नहीं है कि द्रव्य न। बैंकालिक गझ हो और पयावं मंगार अवस्था में अगल है आन सिक अवस्था में श-हो । प्रत्युत वाम्नान दान यही है कि जिरा नय ग गमारी नीव का द्रव्य गन्द्र है, उसी नय में मुगपयां भी और जिग व्यवहार. नग म ममागे जीवों की गुणपर्याय अशुद्ध हैं उगी नय में गृगाया के समहाप दब | भी अनद्ध ही है, ऐगा समझना । उसी प्रकार में श्रीअमृतचन्द्रमूरि ने भी कहा है - "श्लोकार्थ— 'यद्यपि व्यवहारनय, प्राथमिक अवग्या में जिन्होंने पैर खा है उनके लिये हरनावलंबन स्वरूप होता है, फिर भी अंतरंग में पर से विरहित चिच्चात्कार मात्र उत्कृष्ट अर्थ-शद्धचिद्रप लक्षण पदार्थ को देखने वालों-अनुभव कन्ने घाला के लिये ग्रह कुछ भी नहीं है।" भावार्थ:- यद्यपि चतुर्थ, पंचम और छठे गुणस्थान में प्रवृन्नि करने वालों के लिये यह व्यवहारनय प्रयोजनीभूत है, फिर भी निविकल्प ध्यान में स्थित होकर शुद्ध आन्मतत्व के अनुभव करने वालों के लिये यह कुछ भी महत्व नहीं रखता है । क्योंकि मीदी की आवश्यकता ऊपर चढ़ने के लिये अवलंबनस्वरूप होनी है किंतु ऊपर पहुंचने १. समयमारकला , 2. . . . .. . .. . Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ १४२ 1 नियमसार तथा हि ( स्वागता) शुद्धनिश्चयनयेन विमुक्ती संसृतावपि च नास्ति विशेषः । एवमेव खलु तत्त्वविचारे शुद्धतत्वरसिकाः प्रवदन्ति ॥७३॥ - - - - - - - - के बाद सीढ़ी की आवश्यकताम्ग अवलंबन स्वयं छूट जाता है। उसी प्रकार से नय प्रमाणातीत निर्विकल्प ध्यान अवस्था को प्राप्त करने के लिये ही यह व्यवहारनय अवलंबनस्वरूप है किंतु उस निर्विकल्प अवस्था में पहुंचने पर वह स्वयं छूट जाता है ऐसा अभिप्राय है। यहां पर कलशकाव्य में जो 'हंत शब्द है, श्रीशुभचंद्राचार्य ने परमाध्यात्मतरंगिणी नामकी इन कलशों की टीका में उस 'हंत' पद का अर्थ 'बाक्यालंकाररूप' ही किया है। उसीप्रकार--[ टीकाकार श्रीमुनिराज 'तत्व के विचार के अवनर में ही शुद्धनय के कथन को अपेक्षित रखना चाहिए' ऐसा कहते हुए श्लोक कहते हैं (७३) श्लोकार्थ-द्ध निश्चयनय से मुक्ति में और संसार में भी अंतर नहीं है इस प्रकार ही निश्चित रूप से तत्त्व के विचार के समय में शुद्धतत्त्व के रसिकजन कहते हैं। भावार्थ- यहां उन लोगों को सोचना चाहिए जो कहते हैं कि द्रव्य कालिक शुद्ध हैं पर्याय ही अशुद्ध हैं । जिस नय से द्रव्य अकालिक शुद्ध है अर्थात् ।। सिद्धों के सदृश है उसी नय से गुण और पर्याय भी नैकालिक शुद्ध हैं क्योंकि गुण पर्यायें कुछ आधेयरूप हों और द्रव्य आधारभूत हों ऐसा तो है नहीं प्रत्युत गुण और पर्यायों के समुदाय का नाम ही द्रव्य है । इसलिये जब व्यक्तरूप में सिद्ध अवस्था में द्रव्य शुद्ध हो जाता है तब उस द्रव्य के सभी गुण और सभी पर्यायें शुद्ध हो जाती हैं । चूंकि गुणपर्यायों की शुद्धता ही द्रव्य की शुद्धता है । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धभाव अधिकार [ १४३ पुवृत्तसयलभावा,' परदव्वं परसहावमिदि हेयं । सगववमुवादेयं, प्रतरतच्चं हवे अप्पा ॥५०॥ पूर्वोक्तसकलभावाः परद्रव्यं परस्वभावा इति हेयाः । स्वकद्रव्यमुपादेयं अन्तस्तत्त्वं भवेदात्मा ॥५०॥ संपूर्ण भाव जितने हैं पूर्व में कहे । पर द्रव्य पर स्वभावी ५४ हेय .. निज द्रव्य सो ही अंत: स्वतत्व जगत में । निज प्रात्मा ही सबको उपादेय सत्य में ।।५।। हेयोपादेयत्यागोपादानलक्षणकथनभिवम् । ये केचिद् विभावगुणपर्यायास्ते पूर्व व्यवहारनयादेशादुपादेयत्वेनोक्ताः शुद्धनिश्चयनयबलेन हेया भवन्ति । कुतः, परस्वभावस्वात्, प्रत एव परद्रव्यं भवति । सकलविभावगुणपर्यायनिर्मु वसं शुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूप स्वद्रव्यमुपादेयम् । अस्य खलु सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखात्म - -- गाथा ५० अन्वयार्थ-[पूर्वोक्तसकलभावाः] पूर्वोक्त सभी भाव [परद्रव्यं परस्वभावाः] परद्रव्यरूप परम्वभाव हैं, [इतिहेयाः] इसलिए हेय हैं, [मंतस्तत्त्वं प्रात्मा] चैतन्यतत्त्वरूप आत्मा [स्वकद्रव्यं उपादेयं भवेत् ] स्वकीयद्रव्य है, इसलिए उपादेय होता है । टोका-यह हेय के त्यागस्वरूप का और उपादेय के ग्रहणस्वरूप का कथन है। ___ जो कोई भी विभावगुण और विभावपर्याय हैं वे पूर्व में व्यवहारनय की अपेक्षा से उपादेयकप में कही गई हैं किंतु वे शुद्धनिश्चयनय के बल से हेय होती हैं । क्यों ? क्योंकि वे परस्वभावरूप हैं और इसीलिए वे परद्रव्य हैं । सकलविभावगुण और १. पुन्चन्तसगदभावा (क) पाठान्तर Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] नियमसार कस्य शुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपस्याधारः सहजपरमपारिणामिकभावलक्षणकारणसमयसार इति । तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्र सूरिभिः ( शार्दूलविक्रीडित ) "सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्तचरितर्मोक्षार्थिभिः सेव्यता शुद्धचिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम् । एते ये तु समुल्लसंति विविधा भावाः पृथग्लक्षणा स्तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि ॥" तथा हि. - - - . .. . . .- .. - - - . - विभावपर्यायों से रहित शुद्धचैतन्यतत्त्वस्वरूप जो स्वद्रव्य है वही उपादेय है । निश्चिन रूप मे सहजज्ञान, सहजबर्शन, सहजचाग्वि, सहजपरमवीतराग सुखात्मक शुद्धचैतन्यतत्त्वस्वरूप इस स्वकीय द्रव्य का आधार सहज परमपरिणामिक भाव लक्षणवाला कारणसमयसार है, ऐसा समझना। उसी प्रकार से श्रीअमृतचन्द्रमरि ने भी कहा है - "श्लोकार्थ-.'जिनकं चिन का चारित्र उदात्त-उत्तम है ऐसे मोक्षार्थीमुमुक्षयोगीजन इस सिद्धांत का सेवन करो-आश्चय लेवो कि "मैं तो सदा ही शुद्ध हैं चिन्मय एक ही परम ज्योतिस्वरूप हू" और ये जो भिन्न-भिन्न लक्षण वाले विविधभाव स्फुरित हो रहे हैं, वे भाव में नहीं हूं क्योंकि यहां पर वे सम्पूर्ण भी भाव मुझसे पर द्रव्यरूप हैं। अर्थात् अपने शुद्ध चैतन्यभाव को ही ग्रहण करके सम्पूर्ण पौद्गलिक परभावों को छोड़ना चाहिए, यहां ऐसा उपदेश है। उसी प्रकार से- अब टीकाकार श्री मुनिराज अपूर्वलाभ के उपाय को बतलाते हुए श्लोक कहते हैं-- १. समयमार कलश, १८५ । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धभाव अधिकार (शालिनी) न ह्यस्माकं शुद्धजीवास्तिकायादन्ये सर्वे पुद्गलद्र ध्यभावाः । इत्थं व्यक्तं वक्ति यस्तत्त्ववेदी सिद्धि सोयं याति तामत्यपूर्वाम् ।।७४।। विवरीयाभिरिणवेसविज्जियसदहणमेव सम्मत्तं । संसयविमोहविन्भमविवज्जियं होदि सण्णाणं ॥५१॥ चलमलिगमगाढतविज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं । अधिगमभावो गाणं, हेयोवादेयतच्चाणं ॥५२॥ सम्मत्तस्स णिमित्तं, जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा। अन्तरहेऊ भरिणदा, दंसरगमोहस्स खयपहुदी ॥५३॥ . -- (७४) श्लोकार्थ-शुद्ध जीवारितकाय से अन्य गभी छुद्गल द्रव्य के भाव निश्चित ही हमारे नहीं हैं। इस प्रकार से जो नत्त्ववेदी स्पष्टनया कहता है वह अनि | अपूर्व सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। भावार्थ--शुद्ध जीब से सभी पौदगलिक भाव भिन्न हैं ऐसा :जो तत्त्ववेदी कहता है वह अपूर्व सिद्धपद को प्राप्त कर लेता है। यहां ऐसा कहने का अर्थ वचन मात्र से कहना नहीं लेना, क्योंकि वचन मात्र से कहने वाले जीव कभी मुक्त नहीं हुए हैं। यहां अभिप्राय यह है कि जो इस प्रकार में अपने शुद्ध आत्मतत्व को पर से पृथक करके अनुभव करता है उसका ध्यान करते हए उसमें तन्मय हो जाता है वही पूर्व में कभी नहीं प्राप्त हुई ऐसी अपूर्व सिद्धि को प्राप्त कर लेता है । गाथा ५१ से ५५ अन्वयार्थ-[ विपरीताभिनिवेशविजितश्रद्धानं एव सम्यक्त्वं ] विपरीत अभिप्राय से रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व है, [संशयविमोहविनमविजितं संज्ञानं भवति] -संशय, विमोह और विभ्रम से रहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] - नियमसार सम्मत्तं सण्णाणं, विज्जदि मोक्खस्स होदि सुण' चरणं । ववहारणिच्छएण दु, तम्हा चरण पवक्खामि ॥५४॥ ववहारगयचरित्त, ववहाररणयस्स होदि तवचररणं । णिच्छयरण्यचारित्त, तवचरणं होदि रिगच्छयदो ॥५॥ विपरीताभिनिवेशविजितश्रद्धानमेव सम्यक्त्वम् । संशयविमोहविभ्रमविजितं भवति संज्ञानम् ॥५१॥ चलमलिनमगाढत्वविज्जितश्रद्धानमेव सम्यक्त्वम् । अधिगमभावो ज्ञान हेयोपादेयतत्वानाम् ।।५२।। सम्यक्त्वस्य निमित्तं जिनसूत्रं तस्य जायकाः पुरुषाः। अन्तर्हेतवो भणिताः दर्शनमोहस्य क्षयप्रभृतेः ॥५३॥ सम्यक्त्वं संज्ञान विद्यते मोक्षस्य भवति शृणुचरणम् । व्यवहारनिश्चयेन तु तस्माच्चरणं प्रवक्ष्यामि ॥५४॥ __ -- [चलमलिनं प्रगाढत्यविवजितश्रद्धानं एव] चन. मलिन. और अगाढ़ दोषों से । गहन थट्टान हो [ सम्यक्त्वं ] सम्पत्र है. [ हेयोपादेयतत्त्वानां ] हेय और उपादेय नन्त्रों का [अधिगमभावः] जानने रूप भाव [ज्ञान] ज्ञान है । । जिनसूत्रं तस्य ज्ञायकाः पुरुषाः सम्यक्त्वस्य निमित्तं ] जिनमूत्र और उनके । जानने वाले पुरुष सम्यक्त्व के लिए बाहर निमित्त हैं। [ दर्शनमोहस्य क्षयप्रभतेः अंतहेतवः भणिताः ] दर्शनमोह का क्षय, क्षयोपशम आदि अंतरंग हेतु कह गये हैं। [ मोक्षस्य ] मोक्ष के लिए सिम्यक्त्वं ज्ञानं विद्यते] सम्यकदर्शन और ज्ञान होता है तथा [ चरणं भवति । चारित्र भी होता है. [ तस्मात तु ] उमलिए मैं [व्यवहारनिश्चयेन] व्यवहार और निश्चय से [चरणं प्रवक्ष्यामि] चारित्र को कहूंगा, [शृणु] हे शिष्य ! तुम मुनो । १. मुणु (क) पाठान्तर .. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४७ शुद्धभाव अधिकार व्यवहारनयचरित्रे व्यवहारनयस्य भवति तपश्चरणम।। निश्चयनयचारित्रे तपश्चरणं भवति निश्चयतः ॥५५॥ विपरीत अभिप्राय से वजित जो निरन्तर । श्रद्धान वही माना सम्यक्त्व शुभंकर ।। संशय विमोह विभ्रम से हीन ज्ञान जो 1 निजपर विवेक कर्ता सम्यक्त्व ज्ञान वो ॥५.१।। चलदोष मलिनदोष प्रो प्रगाढ़ दोष हैं । इनसे रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व श्रेष्ठ हैं ।। जो हेय उपादेय नत्त्व पार्ष में पाये । उनका हि जानना 4 श्रेष्ठ ज्ञान कहाये ।।१२।। जिनसूत्र पी उन मूत्र के ज्ञाता जो पुरुष हैं । सम्यक्त्व की उत्पनि में माने निमित्त हैं ।। दर्शन प्रमोह का कहा क्षय उपशमादि जो । बम अन्तरंग हेतू मम्यक्त्व का है त्रो ।।५.३।। सम्यकत्व ब संज्ञान में हैं मोक्ष के लिये । चारित्र भी है मोक्ष का कारण उसे सुनिये ।। चारित्र वो व्यवहार व निश्चय से द्विविध हैं । इस हेतु मैं उसको कहूंगा जो कि विविध है ।।५४18 व्यवहार नय के चारित में जो तपश्चरण । व्यवहार नय का होता है मुख्य प्राचरण ।। निश्चयनयों के आश्रित चारित्र में चरण । निश्चय से वो कहाना निज का तपश्चरण ।।५।। । --- - - - - [व्यवहारनय चारित्रे] व्यवहारनय के चारित्र में [व्यवहारनयस्य तपश्चरणं] व्यवहारनय का तपश्चरण [भयति ] होता है और [निश्चयनय चारित्रे] निश्चयनय के चारित्र में [ निश्चयतः ] निश्चयनय का [ तपश्चरणं ] तपश्चरण [ भवति ] होता है। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] नियमसार रत्नत्रयस्वरूपाख्यानमेतत् । भेदोपचाररत्नत्रयमपि तावद् विपरीताभिनिवेशविर्वाजतश्रद्धानरूपं भगवतां सिद्धिपरंपराहेतुभूतानां पंचपरमेष्ठिनां चलमलिनागादवितद्धितसमुज्जतिनिश्वमेव । विपरीते हरिहिरण्यगर्भादिप्रणीते पदार्थसार्थे ह्यभिनिवेशाभाव इत्यर्थः । संज्ञानमपि च संशयविमोहविभ्रमविवज्जितमेव । तत्र संशयः तावत् जिनो वा शिवो वा देव इति । विमोहः शाक्यादिप्रोक्ते वस्तुनि निश्चयः । विभ्रमो ज्ञानत्वमेव । पापक्रियानिवृत्तिपरिणामश्चारित्रम् । इति भेदोपचाररत्नत्रयपरिणतिः । तत्र जिनप्रणी तहेयोपादेयत स्वपरिच्छित्तिरेवसम्यग्ज्ञानम् । अस्य सम्यक्त्व - परिणामस्य बाह्यसहकारिकारणं वीतरागसर्वज्ञमुख कमल विनिर्गतसमस्तवस्तुप्रतिपादनसमर्थद्रव्यश्रुतमेव तत्वज्ञानमिति । ये मुमुक्षवः तेप्युपचारतः पदार्थनिर्णयहेतुत्वात् अंतरंगहेतव इत्युक्ताः दर्शनमोहनीय कर्मक्षयप्रभृतेः सकाशादिति । श्रभेदानुपचाररत्नत्रय टीका यह रत्नत्रय के स्वरूप का कथन है । भेदोपचार रत्नत्रय भी सबसे प्रथम विपरीत अभिप्राय से रहित श्रद्धानरूप है और वह सिद्धि के लिए परम्परा में कारणभूत ऐसे भगवान् पंच परमेष्ठियों में मल, मलिन और अगाह दोषों से रहित, उत्पन्न होने वाली जो निश्चल भक्ति है उससे युक्त ही है । अर्थात् विपरीत हरि विष्णु, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा आदि के द्वारा प्रणीत पदार्थों के समूह में आग्रह का अभाव होना ही सम्यक्त्व है, यहां ऐसा अर्थ है । राम्यग्ज्ञान भी संशय विमोह और विभ्रम दोषों से रहित ही है । उनमें में प्रथम, जिनेंद्र भगवान् देव हैं या शिव-परमेश्वर देव हैं ? इस भाव को संशय कहते हैं । शाक्य बुद्ध आदि के द्वारा कथित वस्तु में निश्चय करना विमोह है, विभ्रम अज्ञानरूप ही है, और पाप क्रियाओं से निवृत्तिरूप परिणाम चारित्र है, इसप्रकार से भेदोपचार नत्रय की परिणति है। इसमें जितेंन्द्रदेव द्वारा प्रणीत हैय उपादेय तत्त्वों का जानना ही सम्यग्जान है। इस सम्यक्व परिणाम के लिए बाह्य सहकारी कारण वीतराग सर्वज्ञ के मुख कमल से विनिर्गत समस्त वस्तुओं के प्रतिपादन में समर्थ द्रव्य श्रुतरूप तत्त्वज्ञान ही है और जो मुमुक्षु-मुनि हैं वे भी उपचार से पदार्थों के निर्णय में हेतु होने से अंतरंग हेतु कह गये हैं, क्योंकि वे भी दर्शन मोहनीय के क्षय, उपशम, क्षयोपशम आदि में हेतु होते हैं । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुदभाब अधिकार [ १४६ परिणतेज्जीवस्य टंकोत्कीर्णज्ञायककस्वभावनिजपरमतत्त्वश्रद्धानेन, तत्परिच्छित्तिमात्रांत खपरमबोधेन, तद्पाविचलस्थितिरूपसहजचारिश्रेण अभूतपूर्वः सिद्धपर्यायो भवति । सा परमजिनयोगीश्वरः प्रथम पापक्रियानिवृत्तिरूपव्यवहारनयचारित्रे तिष्ठति, तस्य शिल व्यवहारनयगोचरतपश्चरणं भवति । सहजनिश्चयनयात्मकपरमस्वभावात्मकपरमात्मनि प्रतपनं तपः । स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपं सहजनिश्चयचारित्रम् अनेन तपसा भवतीति । अभेद-अनुपचार रत्नत्रय में परिणत हप जीव के टंकोत्कीर्ण नायक एक समाव निजपरमतत्त्व के श्रद्धान से. उस टंकोत्कीर्ण जायक एक स्वभाव निजपरम त्व को जानने मात्र अंतर्मुख हा परमबोध से और उसी टंकोकीणं एक स्वरूप में विचल स्थिनिरूप सहज चारित्र मे अभूतपूर्व सिद्धपर्याय प्रगट होती है । न जो परम जिनयोगीश्वर पहले पाप क्रियाओं के अभावरूप व्यवहार चारित्र स्थित होते हैं, उनके निश्चितरूप में व्यवहारनय के विषयभूत व्यवहार नपश्चरण होता है, तथा सहजनिश्चयनयात्मक परमम्वभावरूप परमात्मा में प्रतपन करना तप जो अपने स्वरूप में अविचल स्थितिम्रप महानिश्चयचारित्र है वह इस निश्चयनप सिद्ध होता है, ऐसा अर्थ है। । विशेषार्थ-यहां पर तीन गाथाओं में ग्रंथकार ने व्यवहार सम्यक्त्व और के उत्पत्ति के कारण को बतलाया है पुनः दो गाथाओं से निश्चयव्यवहार रत्नत्रय संकेत करते हुए व्यवहार-निश्चय चारित्र को कहने की सूचना दी है । * एक बात यहां ५३ वीं गाया की टीका में महत्त्व को बतलाई है कि सम्यक्त्व अमित्त जिनसूत्र हैं और उनके जानने वाले पुरुष अंतरंग हेतु हैं। इसका मतलब कि सम्यक्त्व का अंतरंग हेतु तो दर्शनमोहनीय आदि कर्मो का क्षय, उपशमका क्षयोपशम है । उस दर्शनमोहनीय के क्षय आदि में ये जिनसूत्र के जायक पुरुष माने गये हैं. इसलिए वे भी अंतरंग हेतू के हेतु होने से उपचार से अंतरंग हेतु दिये गये हैं। आगम में क्षायिकसम्यक्त्व के लिये तो नियम से केवली या श्रुत का पादमूल बनलाया है । यथा--- "दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय होने का प्रारम्भ या अतकेवली के पादमूल में कर्मभूमि का उत्पन्न हुआ मनुष्य ही करता है Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] नियमसार तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ (अनुष्टुभ् ) "दर्शनं निश्चयः पुसि बोधस्तद्बोध इष्यते । स्थितिरत्रव चारित्रमिति योगः शिवाश्रयः ॥" तथा च तथा निष्ठापन सर्वत्र हो सकता है ।" इसलिए यहां पर जिनसूत्र को तो बाहर सहकारी कारण कहा है और उनके जानने वाले श्रुतकेवली आदि महामुनियों को अंतरंग हेतु कह दिया है। अनंतर टीकाकार ने यह स्पष्ट किया है कि व्यवहार रत्नत्रय से निश्चयरत्नत्रय को प्राप्तकर यह भव्यजीव जो कभी नहीं प्राप्त हुई ऐसी अभूतपूर्व सिद्ध अबस्था को प्राप्त कर लेता है। आगे स्वयं ग्रंथकार व्यवहार चारित्र का वर्णन करेंगे, पुनः निश्चयपतिक्रमण आदि रूप में निश्चयचारित्र का वर्णन करेंगे । [ निश्चयचारित्र को महना को बतलाने हुए--- ] एकस्वसप्तति में श्रीपद्मनंदि आचार्य ने भी उसी प्रकार से कहा है । "श्लोकार्थ--आत्मा का निश्चय दर्शन है, आत्मा का बोध वह ज्ञान है, और उसी आत्मा में ही स्थिति होना सो चारित्र है। इसप्रकार का योग शिवपद का। कारण है । अर्थात् अपनी आत्मा का निश्चय होना, ज्ञान होना और उसी में एका स्थिर हो जाना यह निश्चयरत्नत्रय ही साक्षात् मोक्ष का कारण है। और उगीप्रकार-टोकाकार श्री मुनिराज निश्चयरत्नत्रय की महिमा को । बतलाते हुए इस शुद्ध अधिकार को पूर्ण करत है--] १. दसणमोहक्खवणापटुवगो कम्मभूमिजादो हु । मणुसो केवलिमूले गिट्टवी हीदि सम्वत्थ ।।६४६f ... [ गो. कर्म.] . . . Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धभाव अधिकार [ १५१ (मालिनी) जयति सहजबोधस्तादृशी दृष्टि रेषा चरणमपि विशुद्ध तद्विधं चैव नित्यम् । अघकुलमलपंकानीकनिमुक्तमूतिः सहजपरमतत्त्वे संस्थिता चेतना च ॥७५।। इति सूविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरबजितगात्रमात्रपरिग्रह-श्रीपद्मप्रभमलशारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ शुद्धभावाधिकारः तृतीयः श्रुतस्कन्धः ।। - - - - - - -.- -. . -- (७५) श्लोकार्थ—सहज ज्ञान, वैमा ही पहल दर्णन और वैमा ही महज 1. विशुद्धचाबि ये तीनों नित्य ही जयशील होन हैं, और पापम्प मलपंक की पंक्ति स निर्मुक्त मुनि म्बाप, सहजपरमतत्व में संस्थित चेतना भी मदा जयगोल होती है। विशेषार्थ-यहां जीव के शुद्धभावों को बनानाने हा आचार्यत्रर्य श्रीकुदकद। देव ने गाथा ३८ में लेकर ५५ पर्यत में यह अधिकार पूर्ण किया है। सबसे पहले इस अधिकार में ग्रंथकार शुद्धनिश्चय नय से जीव के औपाधिक भाव नहीं हैं इस बात को ४२ गाथा तक कहा है । पुनः जीव को निर्दड स्वभाव आदि कहने हा ४६ गाथा तक जीब के स्वभाव को विशेष स्पष्ट किया है । अनंतर बह वताया है कि ये मंमागे जीव भी सिद्धों के समान पूर्णतया शुद्ध हैं, आगे नयविवक्षा को मपष्ट करते हुए णुनय मे ही मंसारी जीवों को सिद्धसदृश कहना चाहिए ऐसा कहा है 1 पुनः व्यवहार सम्यवन्त्र के लक्षण को उमकी उत्पनि के बहिरंग अंतरंग कारणों को कहते हुए निश्चय व्यवहार रत्नत्रय को कहा है। इस प्रकार इस अधिकार में मुख्यतया जीव को शुद्ध नय से पूर्ण शुद्ध कहा है। इसप्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिए मयं ममान, पंचेन्द्रिय के विस्तार 1 से मात्रमात्र परिग्रहवारी श्रीपद्मप्रभमलधारीदेव के द्वारा विरचित नियमसार को तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में शुद्धभाव अधिकार नामक तृतीय श्रुतस्कंध पूर्ण हुआ । * शुद्धभाव अधिकार समाज के Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] व्यवहारचारित्र अधिकार अथेदानी व्यवहारचारित्राधिकार उच्यते । कुलजोरिण जीवमग्गणठाणाइसु जाणिऊण जीवाणं । तस्सारंभणियत्तण परिणामो होइ पढमवदं ॥५६॥ कुलयोनिजीवमार्गणास्थानादिषु ज्ञात्वा जीवानाम् । तस्यारम्भनिवृत्तिपरिणामो भवति प्रथमतम् ॥५६॥ [चाल छन्द : हे दीनबन्धु............ ] कुल योनि जीव मार्गणा स्थान प्रादि में 1 जीदों को जान करके जैसे कहें उनमें ।। उन जीव के प्रारम्भ से निवृत्ति भाव जो । वो ही प्रथम महाबत है सर्व श्रेष्ठ वो ११५६।। अब इस समय व्यवहारचारित्र का अधिकार कहा जाता है । गाथा ५६ अन्वयार्थ-[कुलयोनिजीवमार्गणास्थानादिषु] कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणास्थान आदि में [जीवानाम् ] जीवों को [ ज्ञात्वा ] जानकर [ तस्य ] उसके [ आरम्भनिवृत्तिपरिणामः ] आरम्भ से निवृत्तिरूप परिणाम वह [ प्रथमवतं ] प्रथमव्रत-पहला महाव्रत [भवति होता है । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारचारित्र अधिकार [ १५३ अहिंसावतस्वरूपाख्यानमेतत् । कुलविकल्पो योनिविकल्पश्च जीवमार्गणामानविकल्पाश्च प्रागेव प्रतिपादिताः । अत्र पुनरुक्तिदोषभयान्न प्रतिपादिताः । तत्रैव तेषां मेवान् बुद्ध्वा तद्रक्षापरिणतिरेव भवत्यहिंसा । तेषां मृतिर्भवतु वा न वा, प्रयत्नपरिणाममन्तरेण सावद्यपरिहारो न भवति । अत एवं प्रयत्नपरे हिंसापरिणतेरभावादहिसावतं भवतीति । तथा चोक्त श्रीसमन्तभद्रस्वामिभिः (शिखरिणी) "अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ । ततस्तत्सिद्धयर्थं परमकरुणो ग्रंथमुभयं भवानेवात्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः ।।" टोका-यह अहिंसावत के रवरूप का कथन है। कुलों के भेद, योनियों के भेद, जीवस्थान के भेद और मार्गणास्थानों के भेद पहले ही प्रतिपादित किये गये हैं 1 यहां पुनरुक्ति दोष के भय से पुनः नहीं प्रतिपादित 3 किये हैं। वहीं पर कहे हुए उनके भेदों को जानकर उनके रक्षा की परिणति ही अहिंसा होती है । उन जीवों का मरण हो अथवा न हो, किंतु प्रयत्न परिणाम के बिना सावद्यदोष का परिहार नहीं होता है। इसीलिए प्रयन्न में तत्पर होने पर हिंसा की परिणति का अभाव होने मे अहिंसाबत होता है । उसी प्रकार से श्री समंतभद्रस्वामी ने कहा है अर्थ-जीवों की अहिंसा परमब्रह्मस्वरूप है, यह वात जगत में विदित है। । : जिस आथम के विधान में अणुमात्र भी आरम्भ है वहां पर वह अहिंसा नहीं है । अतः उस अहिंसा की सिद्धि के लिये हे भगवन् ! परमकारुणिक आपने ही उभय-अंतरंग और बहिरंग परिग्रह का त्याग कर दिया, और आप विकृतवेश तथा उपधि-परिग्रह में रत नहीं हुए।" १. स्वयंभूस्तोत्र, नमिजिनस्तुति । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | १५४ ] तथा हि नियमसार ( मालिनी ) त्रसहृतिपरिणामध्यांतविध्वंस हेतुः सकलभुवनजीव ग्रामसौख्य प्रदो यः 1 स जयति जिनधर्मः स्थावरं केन्द्रियाणां विविधवधविदूरश्चारुशर्म्माब्धिपूरः ॥७६॥ रागेण व दोसेण व, मोहेण व मोसभासपरिणामं । जो पजहदि' साहु सया, विदियवदं होइ तस्सेव ॥५७॥ रागेण वा द्वेषेण वा मोहेन वा मृषाभाषापरिणामं । यः प्रजहाति साधुः सदा द्वितीयव्रतं भवति तस्यैव ॥ ५७॥ उसी प्रकार से [ टीकाकार श्री पद्मप्रभमलवारिदेव श्लोक कहते हैं— 1 (७६) श्लोकार्थ - जा त्रसघात के परिणामरूप अंधकार के विध्वंस का हेतु है, सकभुवन के जीवसमूह को सौख्य प्रदान करने वाला है, जिसमें स्थावर कायिक एकेन्द्रिय जीवों के विविध प्रकार के वध बहुत ही दूर हैं और जो उत्तम सुखरुपी समुद्र का पूर है ऐसा वह जैनधर्म जयशील होता है ॥ ७६ ॥ भावार्थ — जो धर्म त्रम स्थावर की हिंसा से दूर है और सभी जीवों को सुखदायी है तथा उत्तम सुख का सागर है वह आज भी जयवंत हो रहा है । १. पजहहि ( क ) पाठान्तर गाथा ५७ अन्वयार्थ - [ रागेण वा द्वेषेण वा मोहेन वा ] राग से अथवा द्वेष से अथवा मोह से होने वाले [ मृषाभाषा परिणामं ] असत्य भाषा के परिणाम को [ यः साधुः Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारचारित्र अधिकार जो गग मे या द्वेप से वा मोह में कभी । होता असत्य भाषण परिणाम अशुभ ही ।। उसको जो छोड़ते हैं उन साधु के सदा । होता द्वितीयव्रत है जो सत्य नाग का ॥५७।। सत्यवतस्वरूपाख्यानमेतत् । अत्र मृषापरिणामः सत्यप्रतिपक्षः, स च रागेण वा हुषेण वा मोहेन वा जायते । तदा यः साधुः आसन्नभव्यजीवः तं परिणाम परित्यजति तस्य द्वितीयवतं भवति इति । (शालिनी) वक्ति व्यक्त सत्यमुच्चर्जनो यः स्वर्गस्त्रीणां भूरिभोगकभाक् स्यात् । अस्मिन् पूज्य: सर्वदा सर्वसद्धिः सत्यात्सत्यं चान्यदस्ति ब्रतं किम् ।।७७।। प्रजहाति } जो साधु छोड़ता है, [तस्य एव सदा] उमी के सदा [द्वितीयव्रतं भवति] द्वितीय महावत होता है। टीका--यह सत्यव्रत के म्बा का कथन है । यहां पर सत्य से विरुद्ध जो परिणाम है वह मृषा-असत्य परिणाम है। वह परिणाम राग से अथवा द्वेष से अथवा मोह से उत्पन्न होता है । जो आसन्नभव्य जीव साधु उस असत्य परिणाम का त्याग कर देता है, उसके दूसरा महावत होता है । [ अब टीकाकार श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव टीका पूर्ण करते हुए श्लोक कहते हैं-] (७७) श्लोकार्थ-जो पुरुष अन्यन्त स्पष्टरूप सत्य वचन को बोलता है वह स्वर्ग की देवांगनाओं के विपुल भोगों का एक भागी-भोक्ता हो जाता है और इस लोक में हमेशा सर्व सत्पुरुषों के द्वारा पूज्य हो जाता है सचमुच में सत्य से बढ़कर क्या अन्य कोई सत्य-समीचीनद्वत हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है ।।७७।। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] नियमसार गामे वा यरे' वा, हरणे वा पेछिऊण परमत्थं । जो सुर्यादि गहणमावं, तिदियवदं होवि तस्सेव ॥ ५८ ॥ ग्रामे वा नगरे वारण्ये वा प्रेक्षयित्वा परमर्थम् । यो मुंचति ग्रहणभावं तृतीयव्रतं भवति तस्यैव ॥ ५८ ॥ जो ग्राम या नगर में या वन में कहीं भी 1 पर वस्तु द पर शिष्यों को देख करके भी ॥ जो छोड़ते उन सबके ग्रहरण भाव को मुदा । संपदा ॥५८॥ उनका श्रचौर्यबत ये दे स्वात्म तृतीय व स्वरूपाख्यानमेतत । वृत्यावृत्तो ग्रामः तस्मिन् वा चतुभिर्गोपुरैर्भासुरं नगरं तस्मिन् वा मनुष्यसंचारशून्यं वनस्पतिजातबल्ली गुल्मप्रभृतिभिः परिपूर्णभरण्यं तस्मिन् वा परेण वा विसृष्टं निहितं पतितं वा विस्मृतं वा परद्रव्यं दृष्ट्वा स्वीकारपरिणामं यः परित्यजति तस्य हि तृतीयव्रतं भवति । गाथा ५८ अन्वयार्थ - [ ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा ] ग्राम में, अथवा नगर में, अथवा वन में [ यः परं अर्थ प्रेक्षयित्वा ग्रहणभावं मुंचति ] जो माधु पन्धन को देखकर उसके ग्रहण करने के भाव का त्याग कर देता है. [ तस्य एव तृतीयं व्रतं भयति ] उसके ही तीसरा व्रत अचौर्य महाव्रत होता है । टीका — यह तीसरे व्रत के स्वरूप का कथन है । जो चारों तरफ से बाढ़ से वेष्टित हो वह ग्राम कहलाता है, चारों तरफ शून्य वनस्पति वन कहते हैं । से चार गोपुर द्वारों से सुशोभित को नगर कहते हैं. समूह, बेल, और छोटे-छोटे वृक्षों के झुण्ड आदि ऐसे ग्राम में अथवा नगर में अथवा वन में पर के गिरी हुई, अथवा भूली हुई पर वस्तु को देखकर उसके स्वीकार करने के परिणाम का जो त्याग कर देता है, निश्चित ही उसके तीसरा महाव्रत होता है । द्वारा छोड़ी गई, रखी हुई, अथवा १. नगरे ( क ) पाठान्तर मनुष्य के संचार से परिपूर्ण स्थान को Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्र्यवहारचारित्र अधिकार [ १५७ (मार्या) आकर्षति रत्नानां संचयमुच्चरचौर्यमेतदिह । स्वर्गस्त्रीसुखमूलं क्रमेण मुक्त्यंगनायाश्च ॥७॥ दळूण इत्थिरूवं, वांछाभाव रिणयत्तदे [रिणवत्तवें। तासु । मेहुणसण्णविवज्जियपरिणामो अहव तुरीयवदं तुरियवदं] ॥५६ । दृष्ट्वा स्त्रीरूपं वांछाभावं निवर्तते तासु । मैथुनसंज्ञाविवज्जितपरिणामोऽथवा तुरीयनतम् ।।५।। जो स्त्रियों के रूप को नेत्रों में देखकर । वाञ्छा न करते विचित् परिपूर्ण विरतिधर ।। या उनके भाव मैथुन संज्ञा से रहिन जी। त्रैलोक्य पूज्य माना महान चतुर्थ वा ।।६।। चतुर्थव्रतस्वरूपकथनमिदम् । कमनीयकामिनीनां तन्मनोहरांगनिरीक्षणद्वारेण समुपजनितकौतूहलचित्तवांछापरित्यागेन, अथवा पुवेदोदयाभिधाननोकषायतीवोदयेन संजातमथनसंजापरित्यागलक्षणशुभपरिणामेन च ब्रह्मचर्यव्रतं भवति इति । अब टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दलाक के द्वारा तृतीय व्रत का महत्त्व बतलाते हैं | (७८) श्लोकार्थ-वह उत्कृष्ट अचौर्यबत इस लोक में रनों के समूह को आकर्षित करता है और ( परलोक में ) स्वर्ग की देवांगनाओं के मुग्न का मूल है तथा क्रम से मुक्तिरूपी स्त्री के सुख का भी कारण है ।।८।। गाथा ५६ अन्वयार्थ—[स्त्रीरूपं दृष्ट्वा] स्त्रियों के रूप को देखकर [तासु वांछाभावं निवर्तते] उनमें जो बांछा भाव को नहीं करता है, [ अथवा मैथुनसंज्ञाविवजितपरिणामः तुरीयनतम् ] अथवा मैथुन संज्ञा से रहित जो परिणाम है, वह चौथा महावत है। टीका--यह चौथे महावत के स्वरूप का कथन है । मन्दर कामिनियों में उनके मनोहर अंगों के निरीक्षण द्वारा उत्पन्न हाए कुतूहलरूप चित्त की इच्छा के परित्याग से, अथवा पुरुषवेद नामक नो कषाय के तीन Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १५८ 1 नियमसार (मालिनी) नयति तनुशिभूमिः कामिनोना विभूति स्मरसि मनसि कामिस्त्वं तदा मद्वचः किम् । सहज परमतत्त्वं स्वस्वरूपं विहाय व्रजसि विपुलमोहं हेतुना केन चित्रम् ॥७॥ सवेसि गंथाणं, चागो हिरवेक्खभावणापुवं । पंचमवादि' भणिदं, चारित्तभरं वहंतस्स ॥६॥ सर्वेषां ग्रन्थानां त्यागो निरपेक्षभावनापूर्वम् ।। पंचमवतमिति भणितं चारित्रभरं वहतः ॥६०।। जो ग्रन्थ नाम परिग्रह संपूर्ण त्यागते । निरपेक्ष भाव से उन्हें निग्रन्थ मानते ।। चारित्र भार का बहन जो करते उन्हीं को। होता में पांचवाँ व्रत दिग्बस्त्र रूप जो ॥६०।। उदय से उत्पन्न हुई जो मैथुन संज्ञा है, उसके परित्यागलक्षण शुभपरिणाम से ब्रह्मचर्यवत होता है। अब टीकाकार श्री मुनिराज स्त्री मुख की अपेक्षा सहज शुद्ध आत्मस्वरूप की महिमा को बतलाते हुए स्त्रियों के स्मरण को त्याग करने का संकेत कर रहे हैं (७६) श्लोकार्थ-कामिनी स्त्रियों की जो शरीर विभूति, शरीर के आंगोपांग सौन्दर्य आदि हैं, हे कामी पुरुष ! तू यदि उस विभूति-सौन्दर्य आदि का मन में स्मरण करता है तब तो मेरे वचन से तुझे क्या लाभ होगा? अहो ! आश्चर्य हो रहा है कि तु किस हेतु से सहज परम तत्त्व रूप निजस्वरूप को छोड़ करके अत्यधिक मोह को प्राप्त हो रहा है अर्थात् महज तत्त्वरूप जो निज परमात्मा है उसमें जो आनन्द है वह स्त्रियों के मोह में आसक्त हुए जीवों को नहीं मिल सकता है। गाथा ६० अन्वयार्थ-[निरपेक्षभावनापूर्वम् ] किसी प्रकार की अपेक्षा से रहित निरपेक्ष भावना पूर्वक [सर्वेषां ग्रन्थानां त्यागः] संपूर्ण परिग्रहों का त्याग करना, [चारित्रभर १. बदमिति (क) पाठान्तर Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यमहारत्रापित्र धिकार [ १५६ इह हि पंचमवतस्वरूपमुक्तम् । सकलपरिग्रहपरित्यागलक्षणनिजकारणपरमात्मस्वरूपावस्थितानां परमसंयमिनां परमजिनयोगीश्वराणां सदैव निश्चयच्यवहारात्मकचारुचारित्रभरं वहतां, बाहयाभ्यन्तरचतुविशतिपरिग्रहपरित्याग एव परम्परया पंचमगतिहेतुभूतं पंचमवतमिति । तथा चोक्त समयसारे "भझं परिगहो जवि तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज । णादेव अहं जम्हा तम्हा ण परिग्गहो मज्झ ।" तथा हि-- -- - - - - - - - - - - - - - - - - वहतः पंचभवतं इति भरिणतम्] वह चारित्र के भार को वहन करने वाले साधु का पांचवां व्रत कहलाता है। टीका--यहां यह पंचमव्रत का स्वरूप कहा है । संपूर्ण परिग्रह के परित्यागलक्षण निज कार परमात्मा के स्वरूप में जो स्थित हैं, परमसंयमी हैं. परमजिन योगियों के स्वामी हैं, नथा हमेशा ही जो निश्चय और व्यवहार स्वरूप श्रेष्ठ चारित्र के भार को वहन करने वाले हैं ऐसे साधुओं के बाह्य और आभ्यन्तररूप से चौबीस प्रकार के परिग्रह का परित्याग ही परम्परा से पंचमगति के लिए कारणभूत पांचवां व्रत कहलाता है। उसी प्रकार 'समयसार में भी कहा है-- "यदि यह बाह्य परिग्रह मेरा हो जाये तब तो मैं अजीवपने को प्राप्त हो जाऊं 1 जिस हेतु से मैं ज्ञाता ही हूँ उसी हेतु से यह परिग्रह मेरा नहीं है ।" इसी बात को श्री टीकाकार मुनिराज श्लोक द्वारा आत्मस्वरूप में स्थिर होने का उपदेश दे रहे हैं-] . १. गाथा १०८, Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 १६० ] नियमसार ( हरिणी ) भवभीरुत्वाद्भव्यः परिग्रहविग्रहं निरुपमसुखावासप्राप्यं करोतु निजात्मनि । स्थितिर्माविचलां शर्माकारां जगज्जनदुर्लभां न च भवति महच्चित्रं चित्रं सतामसताभिवम् ||८०|| पासुगमग्गेण दिवा, अवलोगंतो जुगप्पमाणं हि । गच्छ पुरदो समणो, इरियासमिदी हवे तस्स ॥ ६१ ॥ प्राकमार्गेर दिवा अवलोकयन् युगप्रमाणं खलु । गच्छति पुरतः श्रमणः ईर्यासमितिर्भवेत्तस्य ॥ ६१ ॥ दिन में जो चलते प्रासुकनिर्जतु मार्ग से । आगे ही देख करके चलकर प्रमाण ने ॥ निजकार्य वग से करते भू पर सदा गमन । ईसिमित है उनके वे भाव से श्रमण ।।६१ || त्यजतु ( ८० ) श्लोकार्थ - भव्यजीव भवभीरु होने से परिग्रह के विशेष आग्रह को या ग्रहण को छोड़ो और निरुपम सुग्य के आवास ( मोक्षपद ) की प्राप्ति के लिए अपनी आत्मा में जगत के जीवों को दुर्लभ, सुखमयी ऐसी अविचल स्थिति को करो । और यह निजात्मा में स्थिति करना सत्पुरुष - माधुओं के लिए कोई महान् आश्चर्य नहीं है किन्तु असत्पुरुष - असाधुजनों के लिए ही यह आश्चर्य की बात है ||८०|| भावार्थ - यहां परिग्रह के त्याग की प्रेरणा दी है और मोक्ष पद की प्राप्ति के लिये आत्मा में अविचल स्थिर होने का आदेश दिया है तथा यह भी बतलाया है कि संपूर्ण परिग्रह को छोड़कर शुद्ध आत्मा में स्थिर होना यह जगत के जीवों के लिए दुर्लभ है । इसके प्राप्त करने में महापुरुषों को तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं है अर्थात् वे सहज ही प्राप्त कर सकते हैं किन्तु अराज्जन पुरुषों को आश्चर्यकारी अवश्य है। अर्थात् वे प्राप्त नहीं कर पाते हैं । गाथा ६१ अन्वयार्थ – [ प्राकमार्गेण दिवा ] जीवजंतु रहित प्रासुकमार्ग में दिवस में [ खलु युगप्रमाणं पुरतः अवलोकयन् ] निश्चित ही चार हाथ प्रमाण आगे देखकर Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारचारित्र अधिकार अत्रैर्यासमितिस्वरूपमुक्तम् । यः परमसंयमी गुरुदेवयात्रादिप्रशस्तप्रयोजनमुद्दिश्येयुगप्रमाणं मार्गम् श्रवलोकयन् स्थावरजंगम प्राणिपरिरक्षार्थं दिषैव गच्छति, तस्य शलु परमश्रमरणस्येर्यासमितिर्भवति । व्यवहारसमितिस्वरूपमुक्तम् । इदानों निश्चयसमितिस्वरूपमुच्यते । श्रभेदानुपचाररत्नत्रयमार्गेण परममणमात्मानं सम्यग् इता परिगतिः समितिः । अथवा निजपरमतस्वनि रतसहजपरमबोधादिपरमधर्माणां संहतिः समितिः | इति निश्चयव्यवहारसमिति मेदं बुद्ध्वा तत्र परमनिश्चयसमितिमुपयातु भव्य इति । [ १६१ [ श्रमणः गच्छति ] जो भ्रमण गमन करता है, तस्य ईर्यासमितिः भवेत् ] उस साधुके ईयसमिति होती है । टीका- यहां पर ईसिमिति का स्वरूप कहा है | जो परमसंयमी साधु गुरुओं की यात्रा और देव तीर्थंकरों को यात्रा आदि प्रशस्त प्रयोजन का उद्देश्य करके चार हाथ प्रमाण मार्ग को देखते हुये स्थावर और श्रमजीवों की रक्षा करने के लिये दिन में ही गमन करते हैं, उन परर्म श्रमण के निश्चित ही समिति होती है । इसप्रकार यह व्यवहारसमिति का स्वरूप कहा गया है । अब निश्चयसमिति का स्वरूप कहते हैं - अभेद और अनुपचार ऐसे त्नत्रय स्वरूप मार्ग से परमधर्मी अपनी आत्मा को सम्यक् प्रकार से प्राप्त करना - आत्म स्वरूप में परिणत होना ही निश्चयसमिति है । अथवा निजपरमतत्त्व में निरत रूप जो सहज परमज्ञान आदि परमधर्म हैं उनका समुदाय-संयोग संगठन होना ही समिति है । I इसप्रकार से निश्चय और व्यवहार समिति के भेद को जानकर भव्यजीव उसमें से परम निश्चयसमिति को प्राप्त करें, यह अर्थ हैं । [ अब टीकाकार श्री मुनिराज चार श्लोकों द्वारा समिति की सुन्दर महिमा को बतलाते हुये उसके श्रेष्ठ फलको बतलाते हैं --] Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] नियमसाय (मंदाक्रान्ता) इत्थं बुद्ध्वा परमसमिति मुक्तिकान्तासखों यो। मुक्त्वा संगं भवभयकर हेमरामात्मकं च । स्थित्वाऽपूर्वे सहजविलसच्चिचमत्कारमात्रे भेदाभावे समयति च यः सर्वदा मुक्त एव ॥ ८१ ॥ (मालिनी) जयति समितिरेषा शोलमूलं मुनीनां असहतिपरिदूरा स्थावराणां हतेर्वा । भवदवपरितापपलेशजीमूतमाला सकलसुकृतसीत्यानीकसन्तोषदायी ।। ८२ ॥ (मालिनी) नियतमिह जनानां जन्म जन्मार्णवेऽस्मिन् समितिविरहितानां कामरोगातुराणाम् । (८१) श्लोकार्थ--इसप्रकार परममिनि को मुक्तिकांता की सखी जान करके जो जीव भव भय के करने वाले कनक और कामिनी रूप परिग्रह को छोड़कर जो अपूर्व सहज विलासरूप चैतन्य चमत्कार मात्र ऐसे-अभेद-अद्वैत में स्थित होकर सम्यग गमन करते हैं वे सर्वदा मृक्त ही हैं ।।८।। (२) श्लोकार्थ---यह समिति जयगील हो रही है जो कि मुनियोंके शीलचरित्र का मल है त्रस जीवों के घान से बहुत दूर है वैसे स्थावर जीवों की हिंसा से। भी दूर है, भव रूपी दावानल के परिताप से उत्पन्न हुए क्लेग के लिए मेघ-माला है। और मकलपुण्यरूपी धान्य की रागिको मंतोष देने वाली है अर्थात् जैसे मेघ की। वर्षा से वन की दावानल-अग्नि बुझ जाती है और धान्यके खेत पूष्ट हो जाते हैं वैसे, ही यह संसार के संताप को बुझाने के लिए और पुण्य का वृद्धिंगत करने के लिए मेघ । के समान है । यहां समिति के उत्तम फल को बताया है ।। ८२।। (८३) श्लोकार्य-इस जन्मरूपी समुद्र-संसार सागर में समिति से रहित । कामरोग से पीड़ित (इच्छाओं से पीड़ित) जीवों का यहां जन्म लेना निश्चित ही है। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारचारित्र अधिकार [ १६३ मुनिप कुरु ततस्त्वं त्वन्मनोगेहमध्ये ह्यपवरकममुध्याश्चारुयोषित्सुमुक्तः ॥ ३ ॥ (आर्या) निश्चयरूपां समिति सूते यदि मुक्तिभाग्भवेन्मोक्षः । बत न च लभतेऽपायात् संसारमार्णवे भ्रमति ॥ ८४ !! पेसुण्णहासकक्कस, पर्राणदप्पप्पसंसियं वयणं । परिचत्ता सपरहिदं, भासासमिदी वदंतस्स ॥ ६२ ॥ पैशून्यहास्यकर्कशपरनिन्दात्मप्रशंसितं वचनम् ।। परित्यक्त्वा स्वपरहितं भाषासमितिर्वदतः ।। ६२ ।। पैशुन्य हास्य कर्कश भाषा अतो कठिन । निज की प्रशंसा पर की निंदा के भी वचन 11 जो न्याग इनका करके निजपर हितकरी । बोले वचन उन्हीं के भाषामिनि खरी ।। ६२ ।। इसलिये हे मुनिएने ! तुम अपने मनरूपी घर के भीतर इस सुन्दर मुक्तिरूपी स्त्री के लिए अपवरक कमरा (नित्रामागृह) बनाओ । अर्थान समिति से रहित जीवों को ही इस संसार में जन्म लेना पड़ता है और जो समिति का पालन करते हैं समझिये उन्होंने अपने विशाल मनम्पी महल में मुक्ति सुन्दरी के रहने के लिए एक कमरा बनवा लिया है। मतलब वे जल्दी ही मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं ।।।३।। (८४) श्लोकार्थ--यदि यह जीव निश्चयरूप समिति को प्रकट करता है तो वह मुक्ति को प्राप्त करने वाला हो जाता है। अरे रे ! खेद है, उस समिति के अपाय-अभाव से वह मोक्ष को नहीं प्राप्त कर सकता है। प्रत्युत संसाररूपी महासमुन्द्र में भ्रमण करता है। अर्थात् निश्चयममिति के बिना मोक्ष नहीं है। और व्यवहार समिति के बिना निश्चयममिति नहीं हो सकती है ऐसा समझ कर व्यवहार चारित्र को धारण कर निश्चय चारित्र को प्राप्त करने का उद्यम करना चाहिए ।1८८।। __ गाथा ६२ अन्वयार्थ-[पशून्य हास्यकर्कश पर्रानंदात्मप्रशंसितं वचनं] पैशून्य, हास्य, कर्कश, पनिंदा और अपनी प्रशंसारूप वचन को [ परित्यक्त्वा ] छोड़ करके [स्वपर Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] नियमसाय अत्र भाषासमितिस्वरूपमुक्तम् । कर्णेजपमुखविनिर्गतं नृपतिकर्णाभ्यर्णगतं चैकपुरुषस्य एककुटुम्बस्य एकग्रामस्य वा महाविपत्कारणं वचः पशून्यम् । क्वचित् कदाचित् किंचित् परजनविकाररूपमवलोक्य त्वाकर्ण्य च हास्याभिधाननोकषायसमुपजनितम् ईषच्छभमिश्रितमप्यशुभकर्मकारणं पुरुषमुखविकारगतं हास्यकर्म । कर्णशष्कुलीविपराम्पर्णगोचरमात्रेण परेषामप्रतिजननं हि कर्कशवचः । परेषां भूताभूतदूषणपुरस्सरवाक्यं परनिन्दा । स्वस्य भूताभूतगुणस्तुतिरात्मप्रशंसा । एतत्सर्वमप्रशस्तवचः परित्यज्य स्वस्य च परस्य च शुभशुद्धपरिणतिकारणं वचो भाषासमितिरिति । तथा चोक्त श्रीगुणभद्रस्वामिभि :-- -- - - - -- - - - - - - - - - - -- -- हितं वदतः भाषासमितिः] स्त्र और पर के हितरूपबचन को बोलने वाले साधुके भाषा समिनि [स्यात्] होती है । टीका-यहां भाषासमिति का स्त्रम्प कहा है 1 चगलखोर के मुख से निकले हाए और राजा के कान तक पहुंचे हये वचन, जो कि एक पुरुष, एक कुटुम्ब अथवा एक ग्राम के लिये महान विपति के कारणभुत हैं वे पैशून्य बचन हैं । कहीं पर कदाचित् किचित् अन्यजनों के विकृतरूप को देखकर या सुनकर हास्य नाम के नो कषाय में उत्पन्न हुआ किचित् शुभ से मिश्रित होते हुये भी अशुभकर्म के लिये कारणभूत पुरुष के मुग्य के विकार को जो प्राप्त हुआ है वह 'हास्य कर्म कहलाता है । जो कानरूपी शष्कली-पूड़ी के छिद्र के पास पहुंचने मात्र से अन्य जनों को अप्रीति उत्पन्न करने वाले हैं वे कर्कश वचन कहलाते हैं। दूसरों के विद्यमान या अविद्यमान दुषण को कहने वाले वचन परनिंदा हैं। अपने विद्यमान अथवा अविद्यमान गुणों की स्तुति करना आत्मप्रशंसा है। इन सभी अप्रशस्त वचनों का त्याग करके अपने और पर के शुभपरिणति और शुद्ध परिणति के लिये कारणभूत वचन बोलना भाषासमिति कहलाती है। ऐसे ही श्री गुणभद्रस्वामी ने भी कहा है-- Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा च- व्यवहार चारित्र अधिकार ( मालिनी ) "समधिगतसमस्ताः सर्वसावद्यद्दूराः शांतसर्वप्रचाराः । स्वहित निहितचित्ताः स्वपरसफलजल्पाः सर्वसंकल्पमुक्ताः raft न विमुक्त भजनं ते विमुक्ताः ॥ " ( अनुष्टुभ् ) परब्रह्मण्यनुष्ठाननिरतानां अन्तरैरप्यलं जल्पैः बहिज्जेत्यैश्च किं पुनः ॥६५॥ मनीषिणाम् । [ १६५ "" सम्यक् प्रकार से सभी वस्तु के स्वरूप को जिन्होंने जान लिया है, जो संपूर्ण पापक्रियाओं से दूर हैं, जिन्होंने अपने हित में अपने मन को लगा रखा है, जिनके सभी प्रचार कार्य शांत हो चुके हैं, जो स्व और पर के लिये फलमहित वचन बोलने वाले हैं, और जो सभी संकल्पों से रहित हो चुके हैं। वे विमुक्त पुरुष निग्रंथ साधु इस लोक में मुक्ति के पात्र कैसे नहीं होंगे ? अर्थात् ऐसे साधुजन मुक्ति के पात्र अवश्य होंगे ।" और उसी प्रकार - [ टीकाकार मुनिराज भाषासमिति में निरत मुनियों की विशेषता को प्रगट करते हुये श्लोक कहते हैं ] ( ८५ ) श्लोकार्थ - - परब्रह्मरूप आत्मा के अनुष्ठान में निरत मनीषी बुद्धिमान साधुओं को अंतरंग के जल्प से भी बम होवो । पुनः बहिर्जरूप की तो बात ही क्या है ? भावार्थ - अपनी आत्मा के स्वरूप को प्राप्त करने के अनुष्ठान में संलग्न हुये साधु जब अंतर्जल्प-मन के विकल्प जालों को भी छोड़ देते हैं तो उनके बहिर्जरूप बाहर मैं लोगों से बोलना चालना आदि पहले ही छूट चुका है । अर्थात् बाह्यजनों से बोलना आदि व्यापार बंद करके अंतरंग के मनके व्यापार को भी रोकना चाहिये, यह अभिप्राय है । १. आत्मानुशासन, श्लोक २२६ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] नियमसार कदकारिदाणुमोदरणरहिद' तह पासुगं पसत्थं च । दिण्णं परेण भत्त, समभुत्तो एसणासमिदी ॥६३॥ कृतकारितानुमोदनरहितं तथा प्रासुकं प्रशस्तं च । दत्तं परेण भक्त संभुक्तिः एषणासमितिः ॥ ६३ ॥ कृत कारितानुमोदन वजित प्रहार जो । प्रामुक प्रशस्त उत्तम पर धर तयार जो ।। पर ने दिया है उसको समभाव से लिये । उनके प्रशन समिति हो कर पात्र में लिये 1। ६३ ॥ अषणासमितिस्वरूपमुक्तम् । तद्यथा-मनोवाक्कायानां प्रत्येकं कृतकारितानुमोदनः कृत्वा नव विकल्पा भवन्ति, न तैः संयुक्तमन्न' नवकोटिविशुद्धमित्युक्तम् ; अतिप्रशस्तं मनोहरं- हरितकायात्मकसूक्ष्मप्राणिसंचारागोचरं प्रासुकामत्यभिहितम् प्रतिग्रहो गाथा ६३ अन्वयार्थ-[कृतकारितानुमोदनरहितं] जो कृत, काग्नि और अनुमोदना से । रहित, [तथा प्रासुकं प्रशस्तं च] तथा प्रामुक और प्रशस्त-आगमानुकूल, [ परेण दत्तंभक्त ] पर के द्वारा दिया गया भोजन है, [ संभुक्तिः एषणा समितिः ] उसको सम्यक् प्रकार से ग्रहण करना एपणामिति है। टीका—ग्रहां एषणासमिति के स्वरूप को कहा है। उसीका स्पष्टीकरण करते हैं-.-मन, वचन, काय में से प्रत्येक को कृत, । कारित, अनुमोदना के साथ करने पर नव भेद हो जाते हैं। उन नब विकल्पों से सहित भोजन नवकोटि से विशुद्ध नहीं है ऐसा ( आगम में ) कहा है। मनोहर भोजन को अतिप्रशस्त कहते हैं, और हरित् कायस्वरूप सूक्ष्म प्राणियों के मंचार मे रहिन भोजन को प्रासुक कहते हैं । पड़गाहन, उच्चस्थान, चरणप्रक्षालन, पूजन, नमस्कार, मन, वचन, काय की शुद्धि और भोजन की शुद्धि इन नाम वाले नवप्रकार के पुण्यों से-नवधाभक्ति पूर्वक | १. रहियं (क) पाठान्तर । ................. .. --.- --- Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार चारित्र अधिकार [ १६७ स्वस्थानपादक्षालनाचनप्रणाम योगशुद्धिभिक्षाशुद्धिनामधेयनंवविधपुष्यैः प्रतिपत्त कृत्वा श्रद्धाशक्त्यलुब्धताभक्तिज्ञानक्याक्षमाऽभिधानसप्तगुणसमाहितेन शुद्ध ेन योग्याचारेणोपासकेन दत्तं भक्त भुजानः तिष्ठति यः परमतपोधनः तस्यैषणासमितिर्भवति । इति व्यवहारसमितिक्रमः । अथ निश्चयतो जीवस्याशनं नास्ति परमार्थतः, षट्कारमशनं व्यवहारतः संसारिणामेव भवति । तथा चोक्त “पोकम्मक*महारो लेप्पाहारो य कवलमाहारो 1 उज्ज मणो वि य कमसो आहारो छव्विहो यो ।" अशुद्धजीवानां विभावधर्मं प्रति व्यवहारनयस्योदाहरणमिदम् । इदानीं निश्चयस्योदाहृतिरुच्यते । तद्यथा- "जस्स प्रणेसणमप्पा तं पि तवो तपडच्छ्रगा समणा । अगं भिक्खमरणेसणमध ते समणा अणाहारा ॥ " आदर करके अद्धा शक्ति अधा, भक्ति, विवेक, दया और क्षमा इन नाम वाले सात गुणों से महित, शुद्ध और योग्य आचार के पालन करने वाले श्रावक के द्वारा दिये गये आहार को ग्रहण करते हुये जो परम तपोधन रहते हैं, उनके एषणासमिति होती है । इस प्रकार से यह व्यवहारसमिति का क्रम है । और निश्चयनय से जीव के वास्तव में अशन ही नहीं है, क्योंकि छह प्रकार का भोजन व्यवहारनयसे भंसारी जीवों को ही होता है । समयसार में कहा भी है ( ? ) - गाथार्थ — "नोकर्म आहार, कर्म आहार, लेप आहार, कवल आहार, ओज आहार और मानसिक आहार, ऐसे क्रम से आहार के छह भेद जानना चाहिये" । aarti के विभावधर्म के प्रति व्यवहारनय का यह उदाहरण है । अब निश्वयनय का उदाहरण देते हैं। वो इस प्रकार है १. यह गाथा समयसार में नहीं है किंतु प्रवचनसार में प्रथम अधिकार की २० वीं गाथा की तात्पर्य वृत्ति टीका में अवतरणरूप से है । T Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ नियमसार तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभिः (मालिनी) "यमनियमनितान्तः शांतबाह्यान्तरात्मा परिणमितसमाधिः सर्वसत्त्वानुकंपी। विहितहितमिताशी फ्लेशजालं समूलं वहति निहतनिद्रो निश्चिताध्यात्मसारः ॥" तथा हि ------ गाथार्थ--"जिसका आत्मा भोजन की इच्छा से रहित है वही तप है और उस तप को प्राप्त करने की इच्छा करने वाले श्रमणों के अन्न आदि की भिक्षाएषणा दोष मे रहित होती है इसलिये वे श्रमण अनाहारी हैं'।' भावार्थ-स्वयं अनशन स्वभाववाला होने में और एपणा दोषों से रहित भिक्षा ग्रहण करने से युक्ताहार लेने वाले मुनि साक्षात् अनाहारी ही हैं। जो साधु समस्त पुद्गलाहार से शून्य आत्मा के स्वभाव को जानने वाले हैं, समस्त भोजन की तृष्णा से रहित हैं। ऐसे साधु अनशन स्वभाव वाले आत्मा को सदा भावना करते रहते हैं और उस आत्मा की सिद्धि के लिये शास्त्र कथिन छयालीस दोष, बत्तीस अंतराय टाल कर आहार ग्रहण करते हैं, वे आहार करते हुए भी अनाहारी हैं, यहां ऐसा अभिप्राय है। उसीप्रकार श्रीगुणभद्रस्वामी ने भी कहा है श्लोकार्थ-"जो अतिशयरूप से यम और नियम मे सहित हैं, बहिरंग और अंतरंग से जिनकी आत्मा शांत है, जो समावि में परिणमन कर रहे हैं, सभी जीवों पर अनुकम्पा धारण करने वाले हैं, जो शास्त्र में कथित, हित और मित आहार को ग्रहण करने वाले हैं, जिन्होंने निद्रा को जीत लिया है और अध्यात्म के सार को निश्चित कर लिया है ऐसे परमसाधु क्लेश समूह को समूल-चूल जला देते हैं । १. प्रवचनसार गाया २२७ । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ শ্রবণা নয়িক [ १६६ ( शालिनी) भुक्त्वा भक्त भक्तहस्ताग्रदत्त घ्यात्वात्मानं पूर्णबोधप्रकाशम् । तपस्वा चैवं सत्तपः सत्तपस्वी प्राप्नोतीद्धां मुक्तिवारांगनां सः ॥८६।। पोत्थइकमंडलाइं, गहरविसग्गेलु पयतपरिणामो। प्रादावरणरिणक्खेवणसमिदी होदि ति रिएट्ठिा ॥६४॥ पुस्तककमण्डलाविग्रहणविसर्गयोः प्रयत्नपरिणामः आदाननिक्षेपणसमितिर्भवतीति निर्दिष्टा ॥४॥ पुस्तक कमंडलू वा संस्नर जो वस्नु हो । उनको उठाने घरने में यत्त भाव हों ।। ममिती सदा उन्हें है पादाननिक्षेपण । जो सावधान मुनि हैं उनको मदा नमन १६४।। - - . -. ..- - - उसीप्रकार से-[टीकाकार श्री मुनिराज एपणाममिति के पालन करने वाले महामुनि के महत्त्व को प्रदर्शित करते हुये श्लोक वाहते हैं-] (८६) श्लोकार्थ-भक्त के हस्तान से दिये हा भुक्त भोजन को खाकर पूर्ण । पान के प्रकाश स्वरूप आत्मा का ध्यान करके और इसीप्रकार से सम्यक् तपश्चरण को - तप करके वह सतपस्वी देदीप्यमान मुक्तिरूपी सुन्दर स्त्री को प्राप्त कर लेता है । । अर्थात् जो महाव्रती साधु विधिवत् श्रावक के द्वारा शुद्ध आहार ग्रहण करके अपनी आत्मा का ध्यान करता है, वही मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी है । गाथा ६४ अन्वयार्थ-[पुस्तककमंडलादिग्रहणविसर्गयोः] पुस्तक, कमंडलु आदि के ग्रहण करने और रखने में [प्रयत्लपरिणामः] जो प्रयत्नरूप परिणाम है, [आदाननिक्षेपणसमितिः इति निर्दिष्टा भवति ] वह आदाननिक्षेपण समिति है इसप्रकार कहा गया है। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] नियमसार अत्रादाननिक्षेपणसमितिस्वरूपमुक्तम् । अपहृतसंयमिनां संयमज्ञानाद्युपकरणग्रहणविसर्गसमयसमुद्भवसमितिप्रकारोक्तिरियम् । उपेक्षासंयमिना न पुस्तककमण्डलु - प्रभृतयः, अतस्ते परमजिनमुनयः एकान्ततो निस्पृहाः, अत एव बाह्योपकरण निर्मुक्ताः । अभ्यन्तरोपकरणं निजपरमतत्त्वप्रकाशदक्षं निरुपाधिस्वरूपसहजज्ञानमन्तरेण न किमप्युपादेयमस्ति । अपहृतसंयमधराणां परमागमार्थस्य पुनः पुनः प्रत्यभिज्ञानकारणं पुस्तकं - -..- - - - -- - - -..-- - - - - - - - -- टीका-यहां आदाननिक्षेपण समिति के स्वरूप को कहा है। अपहृतसंयमी मुनियों के संयम, ज्ञान आदि के उपकरण ग्रहण करते और रखते समय होने वाली ममिति के प्रकार का यह कथन है, क्योंकि उपेक्षासंयमी मुनियों के पुस्तक कमंडलु आदि नहीं हैं, इसलिये बे परम जिनमुनि एकांत से मर्वथा निस्पृह होते हैं अनाव वे वाह्य उपकरण से रहित हैं । अभ्यंतर उपकरण निजपरमतन्त्र के प्रकाशन करने में कुशल गा जो उपाधिरहित लक्षणवाला सहज ज्ञान है उसके बिना उन मुनियों को कुछ भी उपादेय नहीं है । अपहृत संयमधारी मुनियों को परमागम के अर्थ का जो पुनः पुनः अभ्यासरूप जो प्रत्यभिज्ञान है उसमें कारणभूत पुस्तक ज्ञान का उपकरण है, शौच का उपकरण शरीर की विशुद्धि में हेतुभून कमंडलु है और संयम के उपकरण हेतुक पिच्छी है । इनके ग्रहण करने और रखने के समय उत्पन्न हुये प्रयत्न से परिणाम की विशुद्धि ही निश्चितरूपसे आदाननिक्षेपण समिति है इसप्रकार से कहा गया है । विशेषार्थ--संयम के दो भेद हैं, उपेक्षासंयम और अपहृतमयम। "'अपनी शुद्ध आत्मा से भिन्न संपूर्ण बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह का परित्याग कर देना 'उत्सर्ग मार्ग है। इसे ही निश्चयनयं, सर्वपरित्याग, परमोपेक्षा संयम, वीतराग चारित्र और शुद्धोपयोग कहते हैं अर्थात् ये सब पर्यायवाची नाम हैं। जो मुनि इस निश्चयरत्नत्रय में ठहरने को असमर्थ हैं वे शुद्धात्मा के सहकारीभूत कुछ भी प्रामुक आहार ज्ञानोपकरण आदि ग्रहण करते हैं उनका यह अपवाद चारित्र कहलाता है इसे ही व्यवहारनय एकदेशपरित्याग, अपहृत्तसंयम, सरागचारित्र और शुभोपयोग कहते हैं १. प्रवचनसार, तात्पर्य वृत्ति गा० २३० । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारचारित्र अधिकार [ १७१ शानोपकरणमिति यावत्, शौचोपकरणं च कायविशुद्धिहेतुः कमण्डलुः, संयमोपकरणहेतुः पिच्छः । एतेषां ग्रहणविसर्गयोः समयसमुद्भवप्रयत्नपरिणामविशुद्धिरेव हि आदाननिक्षेपणसमितिरिति निविष्टयति । ------ - 1. अर्थात् ये सब पर्यायवाची नाम हैं। इन उत्सर्ग और अगवाद में कथंचित्-परम्पर। सापेक्ष भाव को रखने वाले साधु के ही चारित्र की रक्षा होती है।" - - श्री अक्टकदेव ने भी कहा है "संयम के दो भेद हैं-उपेक्षासंयम और अपहुनसंयम । देश और काल के विधान को जानने वाले, स्याभाविकरूप से शरीर विरक्त और तीन गुप्तियों में सहित साधुके राग और ए रूप मनोवृत्ति का न होना उपंक्षासंयम है। अपहतसंयम के उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य की अपेक्षा तीन भेद हैं । प्रामुक आहार और प्रामुक वमति मात्र बाह्य माधन जिनके पास हैं, तथा जो ज्ञान और चारित्रम्प क्रियाओं में स्वाधीनता से नत्पर हैं से माधु बाह्य जंतुओं के आने पर उनसे अपने को बचाकर मयम पालते हैं सो उत्कृष्ट अपहतसंयम है । मृदु उपकरण से जंतुओं को हटाकर संयम पालना मध्यम है एवं अन्य उपकरणांसे हटाकर जीवरक्षा करना जघन्य अपहृतसंयम हलाता है । इस अपहृतसंयम के लिये आठ प्रकार की शुद्धियों का कथन है । भावशुद्धि, लयशुद्धि, विनयशद्धि, ईयापथशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, प्रतिष्ठापनशुद्धि, शयनासनशुद्धि और साकशुद्धि' ।" इनका विशेष वर्णन तत्वार्थवार्तिक, मूलाचार, अनगारधर्मामृत आदि थों से जान लेना चाहिये । . यहां अभिप्राय इतना ही है कि उपेक्षासंयमी मुनि ध्यान में लीन शुद्धोपयोगी और वे ही वीतराग चारित्रधारी हैं। तथा अपहृतसंयमी मुनि आगमानुकूल पति करते हुये शुभोपयोगी हैं और वे ही सराग चारित्र का पालन करने वाले हैं । 1. तत्वार्थवार्तिक पृ० ५६६, Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] नियमसार ( मालिनी) समितिषु समितीयं राजते सोत्तमानां परमजिनमुनीनां संहतो क्षतिमंत्री । त्वमपि कुरु मनःपकेरहे भव्य नित्यं भवसि हि परमश्रीकामिनीकांतकांतः ॥७॥ पासुगभूमिपदेसे, गूढे रहिए परोपरोहेण । उच्चाराविच्चागो, पइट्ठा'समिदी हवे तस्स ॥६५॥ प्रासुकभूमिप्रदेशे गूढे रहिते परोपरोधेन । उच्चारादित्यागः प्रतिष्ठासमितिर्भवेत्तस्य ॥६५।। निर्जतु भूमि स्थल एकांत गुढ़ हो । नहिं रोक टोक पर का हरितादि शून्य हो ।। मलमूत्र प्रादि का जो वह त्याग करे हैं। दे ही मुनि प्रतिष्ठा ममिति को धरे हैं ।।६५1! - - - - - __ अब टीकाकार मुनिराज इस ममिति के फल को बतलाते हुए श्लोक कहते हैं (८७) श्लोकार्थ-उत्तम परम जिन जिनमुनियों की ममितियों में यह आदाननिक्षेपण समिति शोभित होती है जो कि प्राणियों के समुदाय में क्षमा' और मैत्री स्वरूप है। हे भव्य ! तुम भी अपने मनरूपी पंकज में नित्य ही इसको धारो, निश्चित ही परमश्री-मुक्तिलक्ष्मीरूपी स्त्री के प्रियकांत हो जावोगे ||८७।। गाथा ६५ अन्वयार्थ-[परोपरोधेन रहिते] पर के रोक टोक से रहित [गूढे प्रासुकप्रदेशे] गूढ-मर्यादित-एकांत, जीवजंतु रहित प्रासुक स्थान में [उच्चारावित्यागः] जो मल-मूत्र आदि शरीर के मल का त्याग करते हैं, [तस्य प्रतिष्ठासमितिः भवेत् ] उनके प्रतिष्ठापनसमिति होती है । १. पट्ट (क) पाठान्तर Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा व्यवहारचारित्र श्रधिकार [ १७३ मुनीनां कायमलादित्यागस्यानशुद्धिकथनमिदम् । शुद्धनिश्चयतो जीवस्य देहाभावान चान्नग्रहणपरिणतिः, व्यवहारतो देहः विद्यते, तस्यैव हि देहे सति ह्याहारग्रहणं भवति, आहारग्रहणान्मलमूत्रादयः संभवन्त्येव अत एव संयमिनां मलमूत्रविसर्गस्थानं निर्जन्तुकं परेषामुपरोधेन विरहितम्, तत्र स्थाने शरीरधमं कृत्वा पश्चात्तस्मात्स्थानादुसरेण कतिचित् पदानि गत्वा ह्य्बङ मुखः स्थित्वा चोत्सृज्य कायकर्माणि संसारकारणं परिणामं मनश्च संसृतेनिमित्तं स्वात्मानमव्यग्रो भूत्वा ध्यायति यः परमसंयमी मुहुर्मुहुः कलेवरस्याध्यशुचित्वं वा परिभावयति, तस्य खलु प्रतिष्ठापन समितिरिति । नान्येषां स्वरवृतीनां यतिनामधारिणां काचित् समितिरिति । टीका -मुनियों के शरीर के मलादि त्याग करने के लिए स्थान की शुद्धि का यह कथन है । शुद्ध निञ्चवनय से जीव के शरीर का अभाव होने से भोजन को ग्रहण करने की परिणति नहीं है, किंतु व्यवहारनय से देह है अतः उस जीव के ही शरीर के होने पर निश्चित रूप से आहार ग्रहण होता है, आहार के ग्रहण करने से मल-मूत्रादि होते ही हैं, इसीलिये संयमियों के मल-मूत्र विसर्जन के स्थान को निर्जंतुक और अन्य जनों के रोक-टोक से रहित कहा है, उस स्थान में शरीरधर्म को करके पश्चात् उस स्थान से उत्तर में या आगे कुछ डग जाकर वहां उत्तर दिशा में मुख करके खड़े होकर काय की क्रिया का त्याग करके अर्थात् कायोत्सर्ग करके तथा संसार के कारणभूत परिणाम का और संसार के निमित्तस्वरूप मन का भी त्याग करके निराकुल चित्त होकर जो - परमसंयमी अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं अथवा शरीर की अपवित्रता का पुनः पुनः - विचार करते हैं, उनके निश्चित ही प्रतिष्ठापनसमिति होती है । अन्य यतिनामधारी स्वच्छंद प्रवृत्ति वाले साधुओं में कोई भी समिति नहीं होती है । विशेषार्थ -- साधुओं को मल-मूत्र विसर्जन के कायोत्सर्ग करने में पच्चीम - स्वासोच्छ्वास का विधान है। और देववंदना, स्वाध्याय आदि क्रियाओं में जो कायोत्सर्ग होता है उसमें सत्ताईस श्वासोच्छ्वास होते हैं । | आगे पद्मप्रभमलधारिदेव समिति के प्रकरण की टीका पूर्ण करते हुए - समितियों का महत्त्व और उनके पालन करने का फल बतलाते हुए तीन श्लोकों में अपने उद्गार प्रगट करते हैं— | Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] नियमसार ( मालिनी ) समितिरिह यतीनां मुक्तिसाम्राज्य मूलं जिनमतकुशलानां स्वात्मचिता पराणाम् । मधुसखनिशितास्त्र व्रातसंभिन्नचेतःसहितमुनिगणानां नैव सा गोचरा स्यात् ॥ ८८ ॥ ( हरिणी ) समितिसमिति बुद्ध्वा मुक्त्यंगनाभिमतामिमां भवभवभयध्वांतप्रध्वंसपूर्णशशिप्रभाम् । सुनिय तव सद्दीक्षाकान्तासखीमधुना मुदा जिनमततपः सिद्धं यायाः फलं किमपि ध्रुवम् ॥८॥ ( द्रुतविलंबित ) फलमुत्तमं समिति संहतितः सपदि याति मुनिः परमार्थतः । न च मनोवचसामपि गोचरं किमपि केवलसौख्यसुधामयम् ॥६०॥ (८८) श्लोकार्थ - जिनमत में कुशल और स्वात्मचिन्तन में तत्पर यतियों के लिए यह समिति मुक्तिसाम्राज्य का मूल है। मधुसख कामदेव के तीक्ष्ण शस्त्र समूह मे भिदे हुए हृदय वाले मुनिगणों के वह समिति गोचर ही नहीं होती है। अर्थात् जो मुनि आत्मा के स्वरूप का चिंतन करने वाले हैं उन्हीं की यह समिति उन्हें मोक्ष प्राप्त कराने वाली है किंतु जो सांसारिक विषयसुखों में आसक्त हैं उनके यह समिति ही नहीं होती है पुनः मोक्ष की बात उनसे बहुत दूर है । (८) श्लोकार्थ - हे मुनिपते ! मुक्तिरूपी स्त्री को अभिमत प्रिय, भव भव के भयरूपी अंधकार को ध्वंस करने में पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा चांदनी स्वरूप और तुम्हारी सम्यक् दीक्षारूपी कांता की सखी ऐसी इस सम्यग् प्रवृत्तिरूप समिति को अब हर्ष से जान करके तुम जिनमत के तप से सिद्ध होने वाले ऐसे कोई एक अनुपम अविनश्वर फल को प्राप्त करोगे । (६०) श्लोकार्थ – समिति के समूह से वास्तव में मुनिराज शीघ्र ही उत्तम फल को प्राप्त कर लेते हैं। जो कि मन और वाणी के अगोचर कैवल सौख्य सुधाम Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यबहारचारित्र अधिकार [ १७७ कालुस्समोहसण्णारागद्दोसाइप्रसुहभावाणं । । परिहारो मणुगुत्तो', ववहारणयेण परिकहियं ॥६६॥ कालष्यमोहसंज्ञारागद्वेषाद्यशुभभावानाम ।। परिहारी मनोगुप्तिः व्यवहारनयेन परिकथिता ।।६६॥ कालुप्य मोह संज्ञा पाहार भयादी । बहुविध के भाव जो हैं अशुभ राग द्विषादी ।। इनका कर परिहार मनोगुप्ति वे धर । व्यवहार नय से गुप्ति इसविध मुनि उचरं ॥६६॥ __ व्यवहारमनोगुप्तिस्वरूपाख्यानमेतत् । क्रोधमानमायालोभाभिधानश्चतुभिः रूपायैः क्षुभितं चित्तं कालुष्पम् । मोहो दर्शनचारित्रभेदाद् द्विधा । संज्ञा प्राहारभयमथु ...- . - - - -- - - - - || कोई एक अद्भुत है ।।१०।। अर्थात् ये समितियां माक्षरूपी मवोत्तम फल को देने वाली हैं जो मनि इन समितिरूप से प्रवृत्ति करते हैं वे गीन ही अविनश्वर फल को प्राप्त कर लेते हैं। गाथा ६६ ___ अन्वयार्थ-[ कालुष्यमोहसंज्ञारागद्वेषाद्यशुभभावानाम् ] कलुषता, मोह, । संजा, राग, द्वेष आदि अशुभभावों के [ परिहारः ] परिहार को [ व्यवहारनयेन ] व्यवहारनय से [मनोगुप्तिः कथिता] मनोगुप्ति कहा है । टोका--यह व्यवहार मनोगुप्ति के स्वरूप का कथन है। . क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों से क्षुभित चिन को कलुषता कहते हैं। दर्शनमोह और चारित्रमोह के भेद से मोह दो प्रकार का है । आहार, भय, मैथुन, और परिग्रह के भेद से संज्ञा के चार भेद हैं । प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद में सग दो प्रकार का है । असह्यजनों में अथवा असह्यपदार्थों के समूह में वर का परिणाम वह द्वेष है | इत्यादि अशुभ परिणाम के कारणों का परिहार ही व्यवहारनय के विभिप्राय से मनोगुप्ति कहलाती है। १. मणगुत्ती (वा) पाठालर Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १७६ ] - - - .. -- - - -. -- नियमसार नपरिग्रहाणां भेदाच्चतुर्धा । रागः प्रशस्ताप्रशस्तभेदेन द्विविधः । असह्यजनेषु वापि चासह्यपदार्थसार्थेषु वा वैरस्य परिणामो द्वषः । इत्यायशुभपरिणामप्रत्ययानां परिहार एव व्यवहारनयाभिप्रायेण मनोगुप्तिरिति । ( वसंततिलका) गुप्तिर्भविष्यति सदा परमागमार्थचितासनाथमनसो विजितेन्द्रियस्य । बाह्मान्तरंगपरिषंगविजितस्य श्रीमज्जिनेन्द्रचरणस्मरणान्वितस्य ।।१।। - - - - विशेषार्थ-गुप्नि का क्षण है. मोगागिटाहो गुप्ति:" ख्याति, पुजा आदि की अपेक्षा से रहित सम्यक्प्रकार में मन, वचन और काय के योगों का निग्रह करना गुप्ति है। यद्यपि ये गुप्तियां निवनिरूप हैं फिर भी आचार्यदेव स्वयं आगे निश्चयगुप्नि को गाथा ६६, ७० में कहेंगे । इसलिये यहां पर व्यवहारनय से गुप्ति का वर्णन करने में इस गुप्ति में अशुभभावों को निर्यात ही विवक्षित है क्योंकि गाथा में "असुहभावाण" पद स्पष्ट कह रहा है कि अशुभभावों का परिहार मनोगुप्ति है । टीकाकार ने भी “इत्याद्यशुभपरिणामप्रत्ययानां परिहार एव" वाक्य से जोर देकर कहा है कि इत्यादि अशुभपरिणामों के कारणों का परिहार ही मनोगुप्ति है, अतः यहां पर व्यवहारगुप्ति में 'पुण्यरूप शुभभावों का परिहार अर्थ नहीं लेना चाहिए। (११) श्लोकार्थ-परमागम के अर्थ के चितवन में जिनका मन लगा हुआ है जो विजितेन्द्रिय हैं, जो बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह से रहित हैं और जो श्रीमान् जिनेंद्र भगवान् के चरणों को स्मरण करने में दत्तचित्त हैं ऐसे साधु के सदा मनोगुप्ति होती है ।।९।। भावार्थ-निर्ग्रन्थ जितेन्द्रिय मनि जब तत्त्व चिता में तत्पर होते हैं और जिनेंद्र भगवान् की भक्ति में रत होते हैं तब उनके शुभ परिणामों से मन का शुभ व्यापार भी मनोगुप्ति कहलाता है । %E -------- १. तत्त्वार्थसूत्र, सू. ४, न. ९। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . - व्यवहारिक शिनर [ १७७ थीराजचोरभत्तकहादिवयणस्स पावहेउस्स । परिहारो वयगुत्ती, अलियादिणियत्तिवयणं वा ॥६७॥ स्त्रीराजचौरभक्तकथादिवचनस्य पापहेतोः । परिहारो वागुप्तिरलोकादिनिवृत्तिवचनं वा ॥६७॥ स्त्रीकथा व राजकथा चोर का कथन । भोजनकथा इत्यादि पाप हुनु जो वचन ।। परिहार करें इनका वचन गुप्ति पालने । या झूठ आदि वचनों को भी वे टालते ।। ६७।। इह वारगुप्तिस्वरूपमुक्तम् । प्रतिप्रवृद्धकामः कामुकजनैः स्त्रीणां संयोगविप्रलंभजनितविविधवचनरचना कर्तव्या श्रोतव्या च मैव स्त्रीकथा । राज्ञां युद्धहेतूपन्यासो राजकथाप्रपंचः । चौराणां चौरप्रयोगकथनं चौरकथाविधानम् । अतिप्रवृद्धभोजनप्रीत्या विचित्रमंडकावलीखण्डदधि खंडसिताशनपानप्रशंसा भक्तकथा । आसामपि कथानां परि. हारो वाग्गुप्तिः अलीकनिवृत्तिश्च वाग्गुप्तिा । अन्येषां अप्रशस्तवचसा निवृत्तिरेव वा बागुप्तिः इति । - - - - - - -.---. .. गाथा ६७ अन्वयार्थ-[पापहेतोः] पाप के कारणभूत [स्त्रीराज चौर भक्त कथादिवचनस्य] स्त्री कथा, राज कथा चोर कथा और भोजन कथा इत्यादिम्प वचनों का [परिहारः] त्याग करना [वा अलीकादिनिवृत्तिवचनं] अथवा असत्य आदिके अभाव रूप बचन बोलना [वाग्गुप्तिः] वचनगुप्ति है । __टीका-यहां पर वचनगुप्ति का स्वरूप कहा है। अतिशय बुद्धिगत हो रही है कामवासना जिनकी मे कामीजनों के द्वारा स्त्रियों के संयोग अथवा वियोग से उत्पन्न हुई अनेक प्रकार की कथाओं की जो रचना है उसको चर्चा करना या सुनना वहीं स्त्रीकथा है । राजाओं की युद्ध हेतुक चर्चा राजकथा का प्रपंच है। चोरों के चौर्य कर्म की कथा-चर्चा चोर कथा है। अतिशय वृद्धिगन भोजन की प्रीति से पूड़ी, शबकर, दही-शक्कर, मिश्री इत्यादि भोजन-पान की प्रशंसा करना भोजन कथा है । इन कथाओं के भी करने का त्याग करना बचन गुप्ति है Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] नियमसार तथा चोक्त श्री पूज्यपादस्वामिभिः (अनुष्टुभ् ) "एवं त्यक्त्वा बहिर्वाचं त्यजेदन्तरशेषतः । ए५ शोषः समासेन प्रदीपः परमात्मनः ॥" तथा हि (मंदाक्रांता) त्यक्त्वा वाचं भवभयकरी भव्यजीवा समस्तां ध्यात्वा शुद्ध सहजविलसच्चिच्चमत्कारमेकम् । पश्चान्मुक्ति सहजमहिमानंदसौख्याकरी तां प्राप्नोत्युच्चैः प्रहतदुरितध्वांतसंघातरूपः ।।६२॥ और अगम्य वचनों से निवृत्त होना वचनगप्ति है अथवा अन्य सभी अप्रशम्न वचनों का त्याग ही वचन गप्ति है। उनीप्रकार में श्री पुज्यपादस्वामी ने कहा है श्लोकार्थ---इमप्रकार में बाह्य वचनों को त्याग कर परिपूर्णरूपमे अंतर्जल्प । को भी छोड़े संक्षर से यह योग-समाधि परमात्मा का प्रदीप है अर्थात् अंतर्बाह्य बचनों का त्याग ही मंक्षप से परमात्मतत्त्व को प्रकाशित करने वाले दीपक के ममान है. '।' ___विशेषार्थ-ग्रहां वचन गुप्ति में भी विकथाओं के त्याग करने को और असत्य वचन के त्याग को गुप्ति कहा है। इसलिये यहां पर भी प्रशस्त सत्यवचन के त्याग को नहीं ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि यह भी व्यवहार वचन गुप्ति ही है। । अशुभ बचनों से निवृत्ति मात्र ही यहां पर विवक्षित है। (६२) श्लोकार्थ-भव्यजीव भवभय को करनेवाली ऐमी समस्त वाणी को छोड़कर शुद्ध, एक, सहजप्रकाशमान, चिच्चमत्कार आत्मा का ध्यान करके पापरूपी अंधकार के समूह को नाश करने वाले ऐसे वे साधु सहज महिमा स्वरूप और आनंद की खान उम मुक्ति को अतिशयरूप से प्राप्त कर लेते हैं ।।१२।। १. समाधितंत्र ..... Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारचारित्र अधिकार [ १७६ बंधणछेदणमारणप्राकुचण लह पसारणादीया । कायकिरियारिणयती, रिणहिट्ठा कायगुत्ति त्ति ॥६॥ बंधनछेवनमारणाकुञ्चनानि तथा प्रसारणादीनि । कायक्रियानिवृत्तिः निद्दिष्टा कायगुप्तिरिति ॥६॥ पर जीव का बंधन, व छदन मारना आदि । निजनन को भी मिकोड़ना फेलावना आदि ।। इन काय क्रियाओं का करने अभाव जो । उन साधु को ही निश्चित यह काय गृप्ति हो ।।६।। अत्र कायगुप्तिस्वरूपमुक्तम् । कस्यापि नरस्य तस्यान्तरंगनिमित्तं कर्म, बंधनस्य बहिरंगहेतुः कस्यापि कायव्यापारः । छेदनस्याप्यन्तरंगकारणं कर्मोदयः, बहिरंगकारणं प्रमत्तस्य कायक्रिया। मारणस्याप्यन्तरंगहेतुरांतर्यक्षयः, बहिरंगकारणं कस्यापि - - जितने भी बचन भव परंपरा को बढ़ाने वाले हैं, और अप्रशस्त हैं उन सबको छोड़कर शुद्ध चैतन्य आत्मा का ध्यान करने से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है । गाथा ६८ अन्वयार्थ--[बंधन छेदन मारणा कूचनानि] बंधन, छेदन, मारण, संकोचन [तथा प्रसारणादीनि] उमीप्रकार फैलाना आदि [काय क्रिया निवृत्तिः] कायक्रियाओं का न होना [कायगुप्तिरिति निर्दिष्टा] वह कायगुप्ति इमप्रकार कही गई है । टोका—यहां काय गुप्ति के स्वरूप का कथन है । किसी भी मनुष्य को बंधन में उसका अंतरंग निमित्त कर्म का उदय है और उस बंधन में बहिरंगकारण किसी के काय का व्यापार है। छेदन में भी अंतरंग कारण कर्म का उदय है, बहिरंग कारण प्रमत्तजीव की कायक्रिया है। मारण में भी अंतरंग हेतु अंतरंग के आयुकर्म का क्षय होना है और बहिरंग कारण किसी के भी काय की विकृति है । आकुचन और प्रसारण आदि में कारण संकोच-विस्तारादि निमित्तक समुद्धात है । इन कायक्रियाओं का अभाव होना कायगुप्ति है । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार ... ppie १५० ] काय विकृतिः । आकुंचन प्रसारणादिहेतुः संहरणविसर्पणादिहेतुसमुद्घातः । एतासां steferri निवृत्तिः कायमुप्तिरिति । ( अनुष्टुभ् ) मुक्त्वा कार्याविकारं यः शुद्धात्मानं मुहुर्मुहुः । संभावयति तस्यैव सफलं जन्म संसृती ॥६३॥ जा रायादिरिणयत्ती मरणस्स जाणीहि त मोगुती । अलियादिरिणयति वा, मोगं वा होइ वदिगुती ॥६६॥ या रागादिनिवृत्तिम्मनसो जानीहि तां मनोगुप्तिम् । अलीकादिनिवृत्तिर्वा मौनं वा भवति वाग्गुप्तिः ||६६|| विशेषार्थ - यहां कायगप्ति में भी व्यवहारनय की प्रधानता होने से काय की अशुभ क्रियाओं के त्याग को ही विवक्षित किया है। इसलिये व्यवहारनयकी अपेक्षा से तीनों ही गुप्तियां अशुभयोग से निनिरूप होती हैं समझना चाहिये | आगे आचार्यत्रयं स्वयं संपूर्ण शुभ-अशुभ योग के सिद्ध करते हुये निश्चयनयको अपेक्षा से कह रहे हैं। । [ अब टीकाकार श्लोक द्वारा कायप्ति के फल को बतलाते हैं— ] ऐसा अभिप्राय निग्रह को गुप्ति ( ३ ) श्लोकार्थ - जो साधु काय के विकार को छोड़कर पुनः पुनः शुद्धात्मा की सम्यक्प्रकार से भावना करते हैं. इस संसार में उन्हींका जन्म सफल है ।। ९३॥ अर्थात् यथाजात पद्मासन या खड्गासन मुद्रा से शरीरको स्थिर करता काय की गुप्तिरूप क्रिया है, इससे अतिरिक्त काय को किसी प्रकार की भी प्रवृत्ति काय का विकार है, उसको छोड़कर अपने शुद्ध आत्मतत्त्व का ध्यान करने से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है, यहां पर इसप्रकार से कार्य गुप्ति के फल को सूचित किया है । गाथा ६६ अन्वयार्थ – [ मनसः या रागादिनिवृत्तिः ] मन से जो रागादि परिणामों का अभाव है [तां मनोगुति जानीहि ] तुम उसे मनोगुप्ति जानो, [ अलीकादिनिवृत्तिर्वा ] १ जाणाहि (क) पाठान्तर । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार नारिय अधिकार रागादि भाव से जो मन दूर हटाते । उनके ही निश्चयन में मनगुति बताते || असत्य श्रादि में सदा जो दूर रहे हैं । था मौन को धरें उसे वच गुप्ति कहे हैं ।। ६६ । [ १=१ निश्चयनयेन मनोवाग्गुलिसूचनेयम् । सकलमोहरागढ षाभावादखंडाढुं तपरमविरूपेसम्यगवस्थितिरेव निश्चयमनोगुप्तिः । हे शिष्य त्वं तावदचलितां मनोगुप्तिमिति जानीहि । निखिलानृतभाषापरिहृतिर्वा मौनव्रतं च । मूर्तद्रव्यस्य चेतनाभावाद अमूर्तद्रव्यस्येंद्रियज्ञाना गोचरत्वादुभयत्र वाक्प्रवृत्तिनं भवति । इति निश्चयवाग्गुप्तिस्व रूपमुक्तम् और असत्य वचन आदि का अभाव होना, [ मौनं वा वाग्गुप्तिः भवति ] अथवा मीन रहना वह वचनगुप्ति होती है । टीकर - यह निश्चयनय से मनोगुप्ति और वचनगुप्ति की सूचना है। संपूर्ण मोह राग और द्वेष का अभाव हो जाने मे अखंड अन परम चैतन्य स्वरूप में सम्यक्प्रकार मे अवस्थित होना ही निश्चय मनोप्ति है । हे शिष्य ! तुम उस अचल अवस्था को 'मनोति' इसप्रकार मे जानो । संपूर्ण असत्य भाषा का त्याग होना अथवा मौनव्रत होना मां वचनगुप्ति है । क्योंकि मूर्तिकद्रव्य में चेतना का अभाव होने से और अमूनिक द्रव्य इंद्रियज्ञान के विषय नहीं होने से इन दोनों जगह वचन की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। इसप्रकार से निश्चय वचनगुप्ति का स्वरूप कहा है । विशेषार्थ -- मन में पूर्णतया रागादि परिणामों का न होना ही निश्चय मनोहै जो कि पूर्णरूप से ग्यारहवं-बारहवें गुणस्थान में घटित होती है, उसके पूर्व श्रेणी में बुद्धिपूर्वक रागादि का अभाव होने से वहां पर भी घटित हो जाती है, क्योंकि यह गुप्ति आत्मा में एकाग्र ध्यान की परिणतिरूप है अतः अंशरूप मे - या प्रारंभरूप उसे सातवें गुणस्थान में भी घटित हो सकती है। मौनव्रत को वचनगुप्ति कहते हुये आचार्यश्री का यह अभिप्राय है कि पुद्‌गलद्रव्य जो कि मूर्तिक है वह अचेतन है और द्रव्य अमृर्तिक होने से इंद्रियज्ञान के अगोचर हैं अतः किससे वचनालाप किया य? इसलिये वचनप्रवृत्ति को रोकना निश्चयवाग्गुप्ति है । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] नियमसार (शार्दूलविक्रीडित ) शस्ताशस्तमनोवचस्समुदयं त्यक्त्वात्मनिष्ठापरः शुद्धाशुद्धनयातिरिक्तमनघं चिन्मात्रचिन्तामरिणम् । प्राप्यानंतचतुष्टयात्मकतया साधं स्थितां सर्वदा जीवन्मुक्तिमुपैति योगितिलकः पापाटवीपावकः ॥१४॥ परिमिन' काल तक संपूर्ण योग का निग्रह होना गुप्ति है । उम गुप्ति में असमर्थ हुये साधु की कुगन-शुभ कार्यों में जो प्रवृत्ति है वह समिति कहलाती है। "इसलिये मनो गृप्ति में संपूर्ण मन संबंधी परिम्पंद का निषेध है"। ऐसे बचनगुप्ति में भी 'मौन को वचनगुप्ति' कहने पर उसमें संपूर्ण बचनों का अभाव हो जाता है। अतः यहां पर निश्चय गुप्नि में मन-वचन के परिम्पंदन का निषेध समझना चाहिये । [ अब टोकावार इन दोनों निश्चयगुप्तियों के फल को बतलाने हये श्लोक कहते हैं-] (६४) श्लोकार्थ—पापरूपी बन के लिये अग्निस्वरूप में योगितिलक प्रशस्त और अप्रणस्त मन-वचन के समूह को छोड़ करके आत्मस्वरूप में लीन हये, शुद्ध और अशुद्ध नयों में रहित, निर्दोष, चिन्मात्र चिंतामणि को प्राप्त करके अनंतचतुष्टयात्मकरूप के साथ सदा रहने वाली ऐसी जीवन्मुक्त अहंत अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं ।।९।। भावार्थ-निश्चय रत्नत्रय मे परिणत हुए महामुनि प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के मन वचन के व्यापारों को छोड़कर नयातीत अवस्था को प्राप्त ऐसे शुद्धात्मतत्त्व में लीन होकर अहंत हो जाते हैं। यहां पर निश्चयगुप्ति में प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के मन बचन के व्यापार को छुड़ाया गया है। १. तत्त्वार्थ वातिक पृ. ५९४ । २. तत्त्वार्थ, पृ. ५६५ । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारचारित्र अधिकार [ १८३ कायकिरियाणियत्ती, काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ती । हिंसाइणियत्ती वा, सरीरगुत्ति ति णिहिट्ठा ।।७०॥ कायक्रियानिवत्तिः कायोत्सर्गः शरीरके गप्तिः । हिसादिनिवृत्तिर्वा शरीराप्तिरिति निदिष्टा ॥७०।। सब काय को क्रिया का परिहार जो करें । कायोत्सर्ग करके काय गुप्ति वे धरें ।। अथवा जो हिंमा आदि क्रियाओं में दूर हैं। निश्चय में काय गुप्ती पाले वे शूर हैं ।।७०।। निश्चयशरीरगुप्तिस्वरूपाख्यानमेतत् । सर्वेषां जनानां फायेषु बह्वयः किया विद्यन्ते, तासां निवृत्ति: कायोत्सर्गः स एव गुप्तिर्भवति । पंचस्थावराणां प्रसानां च हिसानिवृत्तिः कायगप्तिर्वा । परमसंयमधरः परमजिनयोगीश्वरः यः स्वकीयं वपुः स्वस्य वपुषा विवेश तस्यापरिस्पंदमूतिरेव निश्चयकायमुग्लिरिति । तथा चोक्त तत्त्वानुशासने गाथा ७० अन्वयार्थ-[ 'कायक्रियानिवृत्तिः कायोत्सर्गः शरीरके गुप्तिः ] वाय की । क्रियाओं के अभावरूप कायोत्सर्ग करना कायगुप्ति है, [ वा हिंसादिनिवृत्तिः शरीर गुप्तिः इति निर्दिष्टा ] अथवा हिमादि पापों का अभाव होना भी कायगुप्ति है ऐसे कहा गया है। टोका-यह निश्चयकायगुप्ति के स्वरूप का कथन है ।। सभी जनों के कायों में बहतसी क्रियायें होती हैं उन कायसंबंधी क्रियाओं का अभाव होना कायोत्सर्ग हैं, वही कायगुप्ति होती है । अथवा पांच स्थावर और भक बस ऐसे षदकायिक जीवों की हिंसा का न करना कायगुप्ति है। जो परम संयमधारी परम जिनयोगीश्वर महामुनि अपने चैतन्यमय शरीर में अपने चैतन्यमय शरीर से प्रवेश कर चुके हैं, उनकी परिस्पन्दन रहित निश्चलमूर्ति ही निश्चयकाय गुप्ति है। । इसीप्रकार तत्त्वानुशामन ग्रन्थ में भी कहा है १.ये ६९वीं और ७० वीं गाथा मूना० में ११८७, ११८५ नंबर की हैं। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ] तथा हि नियमसार ( अनुष्टुभ् ) "उत्सृज्य कायकर्माणि भावं च भवकारणम् । स्वात्मावस्थानमव्यग्रं कायोत्सर्गः स उच्यते ॥" ( अनुष्टुभ् ) अपरिस्पन्दरूपस्य परिस्पन्दात्मिका तभुः । व्यवहाराद्भवेन्मेऽस्त्यजामि विकृति तनोः ॥६५॥ घणघाइकम्मर हिया, केवलणाणाइपरमगुणसहिया । चोत्तिसप्रदिसयजुत्ता, धरिहता एरिसा होंति ॥७१॥ घनघातिकर्मरहिताः सहिताः । चतुस्त्रिशदतिशययुक्ता अर्हन्त ईदृशा भवन्ति ॥ ७१ ॥ अर्थ- काय की क्रियाओं को और भय के कारणस्वरूप भावों को छोड़ करके जो व्याकुलता रहित अपनी आत्मा में स्थित रहता है, वह कायोत्सर्ग कहलाता है।" उसी प्रकार - | श्री टीकाकार निश्चयकायगुप्ति को प्राप्त करने का उपदेश देते हुए श्लोक कहते हैं— ] (६५) श्लोकार्थ - अपरिस्पंदनस्वरूप आत्मा का शरीर परिस्पंदस्वरूप है वह शरीर व्यवहारतय से मेरा है अतः में शरीर के विकार का त्याग करता हूँ । अर्थात् आत्मा अविचलस्वरूपी है, यह परिस्पंदनरूप शरीर व्यवहारनय से ही मेरा है निश्चयrय से मेरा नहीं है, इसीलिए मैं इस शरीर की क्रियाओं को छोड़ रहा हूं शरीर की क्रियाओं को छोड़कर शरीर से निर्मम होकर आत्मा के स्वरूप में स्थिर हो जाना ही निश्चयकायगुप्ति है ॥ ९५ ॥ गाथा ७१ श्रन्वयार्थ – [ घनघातिकर्मरहिताः ] निविड़ ऐसे चार घातिया कर्मों से रहित, [ केवलज्ञानादिपरमगुणसहिताः ] केवलज्ञान आदि परम गुणों से सहित Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यवहारचारित्र अधिकार [ १८५ घन घातिकर्म पात के सर्वज हो गये । कैवल्य ज्ञान बादि परम गुण सहित भये ।। चौंतीस अतिशयों से युक्त देव हमारे । ऐसे श्री अरिहंत हमें भाव ग उवार ।।७१।। भगवतोऽर्हत्परमेश्वरस्प स्वरूपाख्यानमेतत् । आत्मगुणधातकानि घातिकर्माणि धनरूपाणि सान्द्रीभूतात्मकानि ज्ञानदर्शनावरणान्तरायमोहनीयानि तैविरहितास्तथोक्ताः । प्रागुक्तघातिचतुष्कप्रध्वंसनासादितत्रैलोक्यप्रक्षोभहेतुभूतसकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलशक्तिकेवलसुखसहिताश्च । निःस्वेदनिर्मलादिचतुस्त्रिशदतिशयगुणनिलयाः ईदृशा । भवन्ति भगवन्तोऽर्हन्त इति । जयति विदितगात्रः स्मेरनी रेजनेनः सुकृतनिलयगोत्रः पण्डिताम्भोजमित्रः । [ चतुस्त्रिशदतिशययुक्ता ईदृशा अहंतः भवंति ] और चानीग अतिशयों से युक्त मे - अहंत भगवान् होते हैं। टीका--भगवान् अहंत परमेश्वर के रवरूप का यह कथन हैं 1 आत्मा के गुणों के घात करने वाले कर्म घानिकर्म कहलाते हैं, गाद मान्द्री| भूत-निविड़ को घनरूप कहते है, ऐसे ये ज्ञानावरण, दर्शनावराण, अंतराय और मोहनीय ये चार कर्म हैं, अर्हत भगवान इनसे रहित होते हैं। इन उपर्युक्त चार घातिया को के प्रध्वंस कर देने से प्राप्त, ऐसे तीनों लोकों में प्रक्षोभ-आश्चर्य के कारणभूत जो सकल विमल केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलवीर्य और केवलमुख इन चार अनन्त चतुष्टयों से सहित हैं । और जो पसीना रहित, मलरहित आदि चौंतीस अतिशय गुणों के निवासगृह हैं ऐसे भगवान् अहंत परमेष्ठी होते हैं। [अब टीकाकार अर्हन्त के गुणों को लवमात्र वर्णन करते हुए पांच श्लोकों 1 के द्वारा श्री पद्मप्रभ भगवान् की स्तुति करते हैं-] (8) श्लोकार्थ-जिनका शरीर प्रसिद्धि को प्राप्त-परमौदारिक है, खिले हये कमल के समान जिनके नेत्र हैं, जिनका गोत्र-तीर्थकर पद अथवा गोत्र पुण्य का _ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ] नियमसार मुनिजनकपः भागाहियमिशः सकलहितचरित्रः श्रीसुसीमासुपुत्रः ॥१६॥ (मालिनी) स्मरकरिमृगराजः पुण्यकंजाहिराजः सकलगुणसमाजः सर्वकल्पावनीजः । स जयति जिनराजः प्रास्तदुःकर्मबीजः पवनुतसुरराजस्त्यक्तसंसारभूजः ॥७॥ (मालिनी) जितरतिपतिचापः सर्वविद्याप्रदीपः परिणतसुखरूपः पापकीनाशरूपः । हतभवपरितापः श्रीपदानम्रपः स जयति जितकोपः प्रह्वविद्वत्कलापः ॥९॥ निवासगृह है, जो पंडितरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य के समान हैं, जो मुनिजनरूपी वन-उद्यान के लिए चैत्रमास-बसंतऋतु के समान हैं, जो कर्मरूपी सेना के लिए सत्र हैं और जिनका चारित्र सभी जीवों का हित करने वाला है, में श्री मसीमा के मुपुत्र-पद्मप्रभ भगवान् जयशील होते हैं ।।६।। (६७) श्लोकार्थ—जो कामदेवरूपी हाथी के मद को नष्ट करने के लिए सिंह हैं, जो पुण्यरूपी कमल को विकसित करने के लिए दिवाकर हैं, जो सकलगुणों के समुदायरूप हैं, जो संपूर्ण कल्पित-इच्छित वस्तुओं को प्रदान करने के लिए कल्पवृक्ष हैं, जो दुष्टकर्मों के बीज नष्ट कर चुके हैं, जिनके चरणों में सुरेन्द्र नमन करते हैं और जिन्होंने संसाररूपी वृक्ष का ( आश्रय ) त्याग कर दिया है ऐमे श्री पद्मप्रभ जिनराज जयशील हो रहे हैं ।।१७।। (६८) श्लोकार्थ--जिन्होंने कामदेव के धनुष को जीत लिया है, जो संपूर्ण विद्याओं के प्रदीप-प्रकाशक हैं, जो सुखस्वरूप से परिणत हो रहे हैं, जो पाप को नाश करने के लिए यमराज स्वरूप हैं, संसार के संताप को जिन्होंने नष्ट कर दिया है, Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५७ व्यवहारचारित्र अधिकार (मालिनी) जयति विवितमोक्षः पद्मपवायत्मक्षः प्रजितरितकक्षः प्रास्तकंदर्पपक्ष: पदयुगनतयक्षः तत्त्वविज्ञानदक्षः कृतबुधजनशिक्षः प्रोक्तनि णदीक्षः ॥१६॥ (मालिनी ) मवननगसुरेशः कान्तकायप्रदेशः पविनतयमीशः प्रास्तकीनाशपाशः दुरघवनहुताशः कोतिसंपूरिताशः जयति जगदधीश: चारुपद्मप्रभेश: ॥१००। जिनके श्रीचरणों में राजागण नमस्कार करते हैं, जिन्होंने क्रोध को जीत लिया है और जिनके निकट विद्वानों का ममह नन हो रहा है पोमे वे श्री पद्मप्रभ भगवान् जयवंत हो रहे हैं ।।१८।। (BE) श्लोकार्थ-जिन्हान मोक्ष को जान लिया-प्राप्त कर लिया है, जिनके नेत्र कमलदल के समान बिस्तृत हैं, जिन्हान दुरितकक्ष-पापसमूह को जीत लिया है, जिन्होंने कामदेव के पक्ष को समाप्त कर दिया है, जिनके चरणयुगल में यक्षदेव नमन करते हैं, जो तत्त्वों के विज्ञान में दक्ष हैं, जिन्होंने विद्वान् जनों को शिक्षा दी है और जिन्होंने निर्वाणदीक्षा के स्वरूप को कहा है ऐसे थीजिनपद्मप्रभ भगवान् जयशील होते हैं ।।९९॥ (१००) श्लोकार्थ—जो कामदेवरूपी पर्वत के लिए सुरेन्द्र हैं अर्थात् जैरा इंद्र वज्र से पर्वत को फोड़ डालता है वैसे ही भगवान् कामदेव के मद को चूर चूर करने वाले हैं, जिनके शरीर के प्रदेश अतीय सुन्दर हैं, जिनके चरणों में संयमधारी मुनिवर विनत रहते हैं, जिन्होंने यमराज के जाल को समाप्त कर दिया है, जो दुष्ट पापरूपी धन को भस्म करने के लिए अग्निस्वरूप हैं, जिन्होंने अपनी कीर्ति रो संपूर्ण दिशाओं को व्याप्त कर दिया है, जो भुवन के अधीश हैं ऐसे सुन्दर पद्मप्रभस्वामी जयशील होते हैं, अथवा ऐसे सुन्दर पद्मप्रभमुनिराज के स्वामी श्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्र जयवंत हो रहे हैं ।।१०।। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] नियमसार कम्मबंधा, प्रट्टमहागुणसमण्णिया' परमा । लोयग्गfoal रिपच्चा, सिद्धा ते एरिसा होंति ॥ ७२ ॥ | नष्टाद्धकर्मरन्थ अष्टमहागुणसमन्विताः परमाः । - लोकानस्थिता नित्या: सिद्धास्ते ईदृशा भवन्ति ॥७२॥ जिनो समस्त अष्ट कर्मबंध नाशिया 1 दर अष्ट महागुण समेत मुक्ति पा लिया || जो नित्य हैं त्रिलोक्य शिखर पर विराजते । ऐसे वे सिद्ध उनको नम्र कर्म नाशते ॥ ७२ ॥ के विशेषार्थ - यहां पर टीकाकार श्रीपद्मप्रभ मुनिराज ने अरिहंत भगवान् लक्षण के अनन्तर बहुत ही मधुर शब्दों में पांच इलोकों द्वारा श्री पद्मप्रभ भगवान् की स्तुति की है। इसमें अनेकों गुणों के वर्णन के साथ-साथ मुनिराज ने 'पदांतवर्ण यमक' अलंकार के द्वारा प्रत्येक श्लोक में साहित्य रस को भर दिया है। प्रथम श्लोक में प्रत्येक पद के अंत में 'त्र' शब्द का प्रयोग है, द्वितीय श्लोक में सभी पदों के अंत में 'ज' शब्द का प्रयोग है, तृतीय श्लोक में सर्वत्र पदों में 'प' शब्द का प्रयोग है, चतुर्थ श्लोक के प्रत्येक पद में 'क्ष' शब्द प्रयुक्त हुआ है एवं पांचवें श्लोक के प्रत्येक पद के अन्त में 'श' शब्द का प्रयोग हुआ है। इसप्रकार की रचना से टीकाकार की सर्वतो मुखी प्रतिभा का अवलोकन होता है । गाया ७२ अन्वयार्थ – [ नष्टाष्टकर्मबन्धाः ] आठ कर्मों के बन्ध को जिन्होंने नष्ट कर दिया है, [ अष्टमहागुणसमन्विताः ] जो आठ महागुणों से समन्वित हैं, [ परमाः ] परम हैं - सर्वश्रेष्ठ हैं, [ लोकाप्रस्थिता: ] लोक के अग्रभाग में विराजमान हैं, और [ नित्या: ] नित्य हैं [ ईदृशास्ते सिद्धाः भवंति ] ऐसे वे सिद्ध भगवान् होते हैं । १. समशिया ( क ) पाठान्तर Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यवहारचारित्र अधिकार [ १८६ भगवतां सिद्धिपरंपराहेतुभूतानां सिद्धपरमेष्ठिना स्वरूपमत्रोक्तम् । निरवशेषेखान्तर्मुखाकारध्यानध्येयविकल्पविरहितनिश्चयपरमशुक्लध्यानबलेन नष्टाष्टकर्म बंधाः । (सायिकसम्यक्त्वाद्यष्टगणपुष्टितुष्टाश्च । त्रितत्त्वस्वरूपेषु विशिष्टगुणाधारत्वात् परमाः । त्रिभुवनशिखरात्परतो गतिहेतोरभावात् लोकापस्थिताः । व्यवहारतोऽभूतपूर्वपर्यायप्रच्यपनामावाग्नित्याः । ईदृशास्ते भगवन्तः सिद्धपरमेष्ठिन इति । (मालिनी) व्यवहरणनयेन ज्ञानपुंजः स सिद्धः त्रिभुवनशिखरापनावचूडामणिः स्यात् । सहजपरमचिच्चिन्तामणौ नित्यशुद्धे निवसति निजरूपे निश्चयेनैव देवः ।।१०१।। टोका-सिद्धि की प्राप्ति के लिए परम्परा से कारणभूत मे भगवान सिद्ध परमेष्ठी के स्वरूप का यहां कथन किया है । __ परिपूर्णरूप से अन्तम खाकार ध्यान और व्यय के विकल्प मे हिन जो निश्चय परम शुक्लध्यान है उस ध्यान के बल से आटक माँ कं वन्य समूह को जिन्होंने नष्ट कर दिया है । जो क्षायिक सम्यक्त्व, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन. अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व और अव्यावाधत्व इन आठगुणों की पुष्टि मे संतुष्ट हैं । तीन तत्त्व के स्वरूपों में विशिष्ट गुणों के आधारभूत होने से जो परम हैं अर्थात् बहिस्तत्व अन्तस्तत्व और परमात्म तत्त्व इन तीन तत्त्वों में से अनन्तगुणों के आधारभूत होने से श्रेष्ठ परमात्मतत्त्व स्वरूप हैं। तीनलोक के गिम्बर से ऊपर गति हेतुक धर्मास्तिकाय का अभाव होने मे लोक के अग्रभाग (तन्वातत्रलय में विराजमान हैं। व्यवहारनय से अभूतपूर्व सिद्धपर्याय से प्रच्युत न होने से जो निन्य हैं-अविनाशी हैं । ऐसे वे भगवान् सिद्धपरमेष्ठी होते हैं । [अब टीकाकार श्रीपद्मप्रभ मुनिराज उभयनय की अपेक्षा सिद्धों के निवास स्थान को स्पष्ट करते हुए एक श्लोक कहते हैं, पुनः दो शनोको द्वारा उनके विशेष गुणों के रमरणपूर्वक उन्हें नमस्कार करते हैं--] (१०१) इलोकार्थ-व्यवहारनय से ज्ञान के पुजस्वरूप वे सिद्ध भगवान् त्रिभुवन शिखर की शिखा के चूड़ामणिस्वरूप हैं, निश्चयनय से वे ही देव सहजपरम Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. ] नियमसार ( स्रग्धरा) नोत्थास्तान् सर्वदोषान् त्रिभुवनशिखरे ये स्विता वेहमुक्ताः तान् सर्वान् सिद्धिसिद्धपं निरुपमविशवज्ञामहाशक्तियुक्तान् । सिवान नष्टाष्टकर्मप्रकृतिसमुक्यान् नित्यशुद्धाननन्तान् अव्याबाधानमामि त्रिभुवनतिलकान सिद्धसोमन्तिनीशान् ॥१०॥ (अनुष्टुभ् ) स्वस्वरूपस्थितान् शुद्धान् प्राप्ताष्टगुणसंपदः । नष्टाष्टकर्मसंदोहान् सिद्धान् वंदे पुनः पुनः ॥१०३॥ पंचाचारसमग्गा, पंचिदियदंतिवप्पणिद्दलणा । धोरा गुणगंभीरा, पायरिया एरिसा होति ॥७३॥ पंचाचारसमग्राः पंचेन्द्रियदंतिदप्पंनिर्दलनाः । धीरा गुणगंभीरा आचार्या ईदृशा भयन्ति ॥७३॥ चैतन्य चिन्तामणिरूप नित्यशुद्ध अपने स्वरूप में ही निवास करते हैं । (१०२) श्लोकार्थ-जो उन संपूर्ण दोषों को समाप्त करके लोक के शिखर पर स्थित हैं और शरीर से मुक्त हैं, उन निरुपम, विशद ज्ञान, दर्शन, शक्ति से युक्त, आठों कर्मप्रकृतियों के ममुदाय को नष्ट करने वाले, नित्यशुद्ध, अन्तरहित अथवा गणनारहित अनन्त, बाधाजन्य इंद्रियसख से रहित-अव्याचाधसुखस्वरूप, त्रिभुवन के तिलक और मुक्तिकांता के पति, ऐसे संपूर्ण सिद्धों को मैं सिद्धपद की सिद्धि के लिए नमस्कार करता हूं। (१०३) श्लोकार्थ-अपने स्वरूप में स्थित, शुद्ध अष्टगुणों की संपत्ति को प्राप्त, अष्टकर्मसमूह को नष्ट करने वाले ऐसे सिद्धों को मैं पुनः पुनः वंदन करता हूं। गाथा ७३ अन्वयार्थ— [ पंचाचारसमग्राः ] पंचाचारों से परिपूर्ण [ पंचेन्द्रियरंतिदर्पनिर्दलनाः ] पांच इन्द्रियरूपी हाथी के मद को दलन करने वाले, [ धीराः ] धीर Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारचारित्र अधिकार जो पांच आचारों का पूर्ण प्राचरण करें । पंचेन्द्रि हस्तियों के दर्प का दलन करें । जो धीर गुणों से गभोर संघ अधिपती । ऐसे श्री आचार्य हमें देव सन्मती ।।७३॥ अत्राचार्यस्वरूपमुक्तम् । जानदर्शनचारित्रतपोवीर्याभिधान: पंचभिः आचारः समगाः । स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राभिधानपंचेन्द्रियमदान्ध संघरदपनिर्दलनदक्षाः । निखिलघोरोपसर्गविजयोपाजितधीरगुणगंभीराः । एवं लक्षणलक्षितास्ते भगवन्तो शाचार्या इति । तथा चोक्त श्रीवादिराजदेवैः ( शार्दूलविक्रीडित ) "पंचाचारपरानकिंचनपत्तीनश्यत्कषायाश्रमान चंचज्ज्ञानबलप्रपंचितमहापंचास्तिकायस्थितीन् स्फाराचंचलयोगचंचुरधियः सूरीनुदंचद्गुणान् अंचामो भवदुःखसंचर्याभदे भक्तिकियाचुचवः ।।" [गुणगंभीराः] और गुणों से गंभीर [ईदृशाः] ऐसे [ प्राचार्याः ] आचार्य परमेष्ठी [ भवति ] होते हैं। टोका-यहां आचार्य के स्वरूप को कहा है। जो ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप आचार और वीर्याचार इन E नाम वाले पांच आचारों से परिपूर्ण हैं, जो स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और श्रोत्र इन , नाम वाली पांच इंद्रियरूपी मदान्ध हाथी के गर्व को चूर करने में कुशल हैं, जो सकल बोर उपसर्गों के विजय से उपार्जित धीरता आदि गुणों से गंभीर हैं, इन लक्षणों से लक्षित वे आचार्य भगवान् होते हैं । श्रीवादिराजदेव ने भी इसी प्रकार कहा है श्लोकार्य--"पंचाचार में तत्पर, अकिंचन-अपरिग्रह के स्वामी, कपायों के E स्थानों को नष्ट करने वाले, शोभायमान ज्ञान के बल से महान् पंचास्तिकाय की स्थिति , को विस्तृत करने वाले, वृद्धिंगत निश्चलयोग में-ध्यान में कुशल वृद्धिवाले, उत्कर्षता Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ 1 नियमसार तथा हि-- सकलकरणग्रामालबाद्विमुक्तमनाकुलं स्वहितनिरतं शुद्धं निर्वाणकारणकारणम् । शमवमयमावासं मंत्रीदयावममंदिरं निरुपममिदं वद्य श्रीचन्दकोतिमुनेमनः ।।१०४॥ रयणतयसंजुत्ता, जिणकहियपयत्थदेसया सूरा । णिक्कंखभावसहिया, उवज्झाया एरिसा होति ।।७४॥ रत्नत्रयसंयुक्ताः जिनकथितपदार्थदेशकाः शूराः । निःकांक्षभावसहिताः उपाध्याया ईदृशा भवन्ति ॥७४।। - - - - को प्राप्त हए गुणों से सहित ऐसे आचार्यों को भनिक्रिया में निपुण हम भवदुःखों के समह को भेदन करने के लिए अचित करते हैं । उसीप्रकार से-[श्री टीकाकार मूरि के गुणों में विशिष्ट ऐसे श्रीचन्द्रकीति मुनि की वंदना करते हुए श्लोक कहते हैं-] (१०४) श्लोकार्थ-समस्त इंद्रिय समुदाय के आलंबन से रहित, अनाकुल, स्वहित में निरत, शुद्ध, निर्वाण के कारण-भेदाभेदरत्नत्रय का कारण, कपायों का शमन, इंद्रियों का दमन, यम-त्याग का निवास स्थान मैत्री, दया और दम का घर ऐसा यह श्रीचन्द्रकीर्तिमुनिराज का उपमारहित मन वंदनीय है। भावार्थ--यहां पर टीकाकार ने गुरुदेव श्रीचन्द्रकीति मूरि के निर्मलमन की वंदना की है। इससे स्पष्ट होता है कि ये मनिराज इनके दीक्षागुरु हों या शिक्षा गुरु हो, गुरु अवश्य होंगे। गाथा ७४ अन्वयार्थ-[ रत्नत्रयसंयुक्ताः ] रत्नत्रय से संयुक्त, [ जिनकथित पदार्थदेशकाः ] जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे गये पदार्थों के उपदेश करने वाले, [शुराः] Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ व्यवहारचारित्र अधिकार जो तीन रत्न से समेत नानवेष है । जिन राजकथित तत्वका दें सट्टादेश हैं ।। निष्कांक्षभावयुग्म में ही दूर मुनि है। मे बे उपाध्याय सुविद्या के धनी हैं ।।3।। अध्यापकाभिधानपरमगुरुस्वरूपाख्यानमेतद् । अविचलिताखंडाद्वंतपरमचिद्रूपश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानशुद्धनिश्चयस्वभावरत्नत्रयसंयुक्ताः । जिनेंद्रवदनारविंदविनिर्गतजीवादिसमस्तपदार्थसार्थोपदेशशूराः । निखिलपरिग्रहपरित्यागलक्षणनिरंजननिजपरमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नपरमवीतरागसुखामृतपानोन्मुखास्तत एव निष्कांक्षाभावनासनाथाः। एवंभूतलक्षणलक्षितास्ते जैनानामुपाध्याया इति । (अनुष्ट्र) रत्नत्रयमयान् शुद्धान भव्यांभोजदिवाकरान् । उपदेष्ट नुपाध्यायान नित्यं वंदे पुनः पुनः ।।१०।। -- - - --- शर. [ नि:कांक्षभावसहिताः ] निःकांक्षितभाव से महिन, | ईदशा उपाध्याया भवंति] मे उपाध्याय होते हैं। कोका- अध्यापक नामक परमगुरु के स्त्रमा का यह वथन है । अविलित, अखंड, अद्वैत, परम चैतन्यस्त्रम्प का श्रद्धान. ज्ञान और अनुष्यानरूप शूद्धनिश्चयस्वभाव रत्नत्रय से जो साहित हैं। जिनेन्द्र भगवान् के मुख कमल से निकले हए जो जीवादिपदार्थों के समूह, उसके उपदेश में जो शूर हैं। संपूर्ण परिग्रह के परित्यागलक्षण निरंजन निज परमात्मतत्त्व की भावना में उत्पन्न हुआ जो परम वीतरागसुखरूप अमृत: उसका पान करने वाले हैं और इसीलिये निष्कांक्ष भावना से सहित हैं। जो इन उपर्युक्त लक्षणों से लक्षित होते हैं वे जैनों के उपाध्यायः परमेष्ठी होते हैं। [अब टीकाकार उपाध्याय परमेष्ठी की बंदना करते हुए श्लोक कहते हैं-] (१०५) श्लोकार्थ--जो रत्नत्रयमय हैं, शुद्ध हैं. भव्यजनरूपी कमलों के लिये दिबाकर हैं, उपदेश देने वाले हैं ऐसे उपाध्याय गुरुवों को मैं नित्य ही पुनः पुनः चंदन करता हूं। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] नियमसार वावारविप्पमुक्का, 'चउन्विहाराहणासयारत्ता। णिग्गंया रिणम्मोहा, साहू दे एरिसा होति ॥७॥ च्यापारविप्रमुक्ताः चतुर्विधाराधनासदारक्ताः । निर्ग्रन्था निर्माहाः साधषः एतादृशा भवन्ति ॥७॥ जो साधु सकल बाह्य के व्यापार से रहित । जो चार विध आराधना में लीन रहें नित ।। निग्रंथ व निमंहि यथा जातरूपधर । ऐसे सभी साधू को नम शीश झुकाकर ॥१७५।। निरन्तराखंडितपरमतपश्चरणनिरतसर्वसाधुस्वरूपाख्यानमेतत् । ये महान्तः परमसंयमिनः त्रिकालनिरावरणनिरंजनपरमपंचमभावभावनापरिणताः अत एव समस्तबाह्यव्यापारविप्रमुक्ताः । ज्ञानदर्शनचारित्रपरमतपश्चरणाभिधानचतुर्विधाराधनासदानु- - - -- -- -- - गाथा ७५ अन्वयार्थ - [ व्यापारविप्रमुक्ताः ] च्यापार-बाह्यव्यापार से रहित हैं. [ चतुविधाराधनासदारक्तः ] चारप्रकार की आराधनाओं में हमेशा लंग हये हैं, [निर्मथाः निर्मोहाः] निग्रंथ और निर्मोह हैं [एतादृशाः साधवः भवंति] ऐसे माधुगण । होते हैं। टोका--निरंतर अवंडित परम तपश्चरण में निरत सर्व साधु के स्वरूप का यह कथन है। __ जो महान परमसंयमी त्रिकाल निगवरण निरंजन परम पारिणामिकभाव को , भावना से परिणत हैं. इसलिये समस्त बाह्यव्यापार-बाह्यक्रियाओं से रहित है । ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना, चारित्राराधना और परम तपश्चरणआराधना नामकी चार आराधनाओं में सदा अनुरक्त हैं, बाह्य और अभ्यन्तर समस्त परिग्रह के आग्रह से १. चोविहार (क) पाठान्तर । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार चारित्र अधिकार [ १६५ रक्ताः । बाह्याभ्यन्तरसभस्तपरिग्रहाग्रहविनिर्मुक्तत्वान्निर्ग्रन्थाः । सदा निरंजननिजकारणसमयसारस्वरूपसम्यक् श्रद्धानपरिज्ञाताचरण प्रतिपक्षमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राभावान्निमहाः च । इत्थंभूतपरमनिर्वारणसीमंतिनी चारुसीमंतसीमा शोभामसृणघसृणरजः पु'जपिंजftaari कावलोकनकौतूहलबुद्धयोऽपि ते सर्वेपि साधवः इति । विनिर्मुक्त होने से जो निर्ग्रन्थ है । और सदा निरंजन निजकारण समयसार के स्वरूप का सम्यकश्रद्धान, परिजान और आचरण, उसके विरोधी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के अभाव हो जाने से जो निर्मोह मोहकर्मरहित हैं । इसप्रकार के परम मोक्षरूपी स्त्री की सुन्दर मांग की शोभारूप स्निग्ध केशर के रजकणों से भुवर्णसदृश पीले रंग वाले अलंकार के अवलोकन में कुतूहल बुद्धि वाले होते हुए भी वे सभी साधु कहलाते हैं । विशेषार्थ पंचम भावरूप पारिणामिकभाव की भावना में आत्मा का स्वरूप त्रिकाल निराकरण निरंजन है अर्थात् शुद्धनिश्चयनय से जीव द्रव्य त्रिकाल में भी आवरण से रहित होने से निरंजन है, शुद्ध है इस दृष्टि से विकाल निरावरण का अर्थ लेना चाहिए। साधुजन शुद्ध निश्चयनय से आत्मा के स्वरूप को सदा ही आवरण रहित भाते हैं और लौकिक क्रियाओं से शून्य होने में सकल व्यापार से विमुक्त रहते हैं चार आराधनाओं में लीन रहते हैं। दश प्रकार के बाह्य परिग्रह और चौदह प्रकार के अभ्यन्तर परिग्रह से रहित निर्ग्रन्थ हैं। यद्यपि यहां ये निर्ग्रन्थ अवस्था बारहवें गुणस्थान में घटित होती है फिर भी जो छठे सातवें गुणस्थान के योग्य उभय परिग्रह से रहित होने से यहां पर भी निग्रंथ कहलाते हैं अथवा भावी नैगमनय की अपेक्षा सभी दिगम्बर साधु निग्रंथ कहलाते हैं। निरंजन निजकारणसमयसार शब्द से - शुद्धश्चियनय से भी आत्मा का स्वभाव निरंजन है ऐसा निश्चय करके जो भेदरल के बल से अभेदरत्नत्रयस्वरूप निश्चयरत्नत्रयस्वरूप परिणत अवस्था है उसीका नाम कारणममयसार है क्योंकि वही कारण, कार्यसमयसार - अनंतचनुष्टय की व्यक्तिरूप से परिणत होता है । निष्कर्ष यह निकला कि जो शुद्ध आत्मतत्व की भावना से सहित, बाह्यप्रपंचों से रहित, चार आराधनाओं की आराधना करने वाले हैं, निग्रंथ हैं निर्मोही हैं । वे, जिसकी सुन्दर केशर से मांग भरी हुई है ऐसी निर्वाणसुन्दरी का अवलोकन करने वाले हैं, फिर भी वे साधु हैं। यहां विरोधाभास भी है, जो स्त्री के रूप Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६] नियमसार (पार्या) भविनां भवसुखधिमुखं त्यक्त सर्वाभिषंगसंबंधात् । मंच विमंक्ष्व निजात्मनि वंद्यं नस्तन्मनः साघोः ॥१०६॥ एरिसयभावणाए, ववहारणयस्स होदि चारित्तं । पिच्छयणयस्स चरणं, एत्तो उड्ढं पवक्खामि ॥७६।। ईदग्भावनायां व्यवहारनयस्य भवति चारित्रम् । निश्चयनयस्य चरणं एतदूर्ध्व प्रवक्ष्यामि ॥७६।। इस विध से जो तेरह प्रकार चरित है सही । श्री पंचगुरू भक्ति की भी भावना कहीं ।। व्यवहार नय से होता चारित्र है ग्रही । आगे कहूँगा चारित जो निश्चयनय से हो ।।७६।। का अवलोकन करते हैं वे साधु नहीं कहे जा सकते है, किन्तु फिर भी ये साधु कहलाते हैं 1 मतलब मञकर्म रहित जो मुक्त अवस्था है उसकी प्राप्ति की तरफ जिनका उपयोग लगा हुआ है । ऐसे वे साधु परमेष्टी होते हैं । [अन्न टीकाकार मुनिराज साधुपरमेष्ठी की वंदना करते हुए एक श्लोक कहते हैं-] (१०६) श्लोकार्थ-जो संसारी जीवों के संसार के मुख से विमुख है और सर्व संग के सम्बन्ध से रहित है वह साधु का मन हम सभी के लिए बंदनीय है। हे साधी ! आप उस मन को शीघ्र ही अपनी आत्मा में निमग्न करो ।।१०६।। गाथा ७६ अन्वयार्थ-[ ईग्भावनायां ] ऐसी पूर्वोक्त भावना के होने पर [ व्यवहारनयस्य ] व्यवहारनय का [चारित्रं भवति चारित्र होता है । [एतदुच] इसके आगे [निश्चयनयस्य ] निश्चयनय के [चारित्रं] चारित्र को [प्रवक्ष्यामि] कहूंगा। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारचारिय अधिकार [ १६७ व्यवहारचारित्राधिकारन्याख्यानोपसंहारनिश्चयचारित्रसूचनोपन्यासोऽयम् । । इत्यंभूतायां प्रगुक्तपंचमहावतपंचसमितिनिश्चयव्यवहारत्रिगुप्तिपंचपरमेष्ठिध्यानसंयुक्तायाम् अतिप्रशस्तशुभभाबनायां व्यवहारनयाभिप्रायेण परमचारित्रं भवति, वक्ष्यमाणपंचमाधिकारे परमपंचमभावनिरतपंचमगतिहेतु भूतशुद्धनिश्चयनयात्मपरमचारित्रं द्रष्ट व्यं भवतीति । तथा चोक्त मार्गप्रकाशे • (वंशस्थ ) "कुसूलगर्भस्थितबीजमोदरं भवेद्विना येन सुदृष्टिबोधनम् । तदेव देवासुरमानवस्तुतं नमामि जैन चरणं पुनः पुनः ।।" - - - .. .---. टीका-यह व्यवहार चारित्राधिकार के व्याख्यान का उपसंहार और निश्चगचारित्र को सूचना का कथन है । इसप्रकार से पूर्व में कथित पांचमहाव्रत, पांचसमिति, निश्चय-व्यवहाररूप नीनगुप्ति तथा पांचपरमेष्ठी के ध्यान से संयुक्त अतिप्रशस्त शुभ भावना के होने पर व्यबहारनय के अभिप्राय से परम चारित्र होता है । अब आगे कहे जाने वाले पांचवें अधिकार में परम पंचमभाव-पारिणामिक भाव में लीन और पंचमगति के लिये कारणभूत ऐसे शुद्धनिश्चयनयस्वरूप परम चारित्र को देखना चाहिए, ऐसा कथन है । इसीप्रकार मार्गप्रकाश में कहा है श्लोकार्थ-"जिसके बिना-जिस चारित्र के बिना सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान ये दोनों कोठार में रखे हुये बीज के सदृश है, सर-असर और मनृप्यों के द्वारा स्तुति को प्राप्त और जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कथित उसी चारित्र को मैं पुनः पुनः नमस्कार करता हूं।" भावार्थ-चारित्र के बिना सम्यक्त्व और ज्ञान गोदाम के बीज के समान हैं। चारित्र के द्वारा वे अंकुरित होकर मुक्तिरूपी फलरूप से फलित हो जाते हैं अर्थात् चारित्र से सहित हुये ये दर्शनज्ञान मुक्ति को प्राप्त करा देते हैं । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ ] नियमसार तथा हि ( आर्या ) शीलमपवर्गयोषिदनंगसुखस्यापि मूलमाचार्याः । प्राहुर्व्यवहारात्मकवृत्तमपि तस्य परंपरा हेतुः ।।१०७॥ इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवाजतगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ व्यवहारचारित्राधिकारः चतुर्थः श्रुतस्कन्धः ॥ उसीप्रकार से- [ टीकाकार श्री पद्मप्रभमुनिराज व्यवहारचारित्र की सफलता को मुनिन करना नोक कहते हैं- ] (१०७) श्लोकार्थ--आचार्यत्रयं, शील-निश्चयचारित्र को मनिग्मणी के अतीन्द्रिय मुम्ब का भी मल कारण कहत हैं, और व्यवहारात्मक चारित्र भी उसत्रा परंपराकारण है। अनि व्यवहारचाग्नि निश्चयचारित्र के लिये कारण है और निश्च यचारित्र माक्षात् मोक्ष का कारण है, इसलिये व्यवहारचारित्र मोक्ष के लिये परम्पराकारण है। इसप्रकार विजनरूपी कमलों के लिए सूर्य, पंचेन्द्रियों के विस्तार से रहित, शरीरमात्र परिग्रह के धारी श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव के द्वारा विरचित नियमसार की तात्पर्यबृनि नामकी व्याख्या-टीका में व्यवहार चारित्राधिकार नामक चौथा श्रुतस्कंध पूर्ण हुआ। ॐ व्यवहारचारित्र अधिकार ममाप्त के Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L . . 5:525 332523 - KADASA - [५] परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार ( वंशस्थ ) नमोऽस्तु ते संयमबोधमूर्तये | स्मरेभकुम्भस्थल मेदनाय थे। विनेयपंकजविकासभानवे विराजते माधवसेनसूरये ॥१०॥ अथ सकलव्यावहारिकचारित्रतत्फलप्राप्तिप्रतिपक्षशुद्धनिश्चयनयात्मकपरमचारित्रप्रतिपादनपरायणपरमार्थप्रतिक्रमणाधिकारः कथ्यते । तत्रादौ तावत् पंचरत्नस्वरूपमुच्यते । तद्यथा - - - [पंचम अधिकार के प्रारम्भ में टीकाकार श्रीपद्मप्रभमुनिराज श्रीमाधवमेनाचार्य को नमस्कार करते हुए एक श्लोक कहते हैं--] (१०८) श्लोकार्थ—संयम और ज्ञान की मूर्तिस्वरूप, कामदेवरूपी हाथी के गण्डस्थल को विदारण करने वाले, और शिष्यरूपी कमलों को विकसित करने के लिये भास्करस्वरूप, शोभायमान जो माधवसेनमूरि हैं उन्हें मेरा नमोऽस्तु होवे ।। १०८।। अब सकलव्यवहारचारित्र और फल की प्राप्ति के प्रतिपक्षभूत शुद्धनिश्चयनयात्मक परमचारित्र के प्रतिपादन में परायण ऐमे परमार्थ प्रतिक्रमण के अधिकार को कहते हैं । उसमें सबसे प्रथम 'पंचरत्न' के स्वरूप को कहते हैं । वह इसप्रकार हैं Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ] नियमसार अथ पंचरत्नावतार: । णाहं णारयभावो, तिरिथत्यो मणुवदेवपज्जाश्रो । कत्ता रग हि कारइदा, प्रणुमंता व कत्तीणं ॥७७॥ नाहं मग्गठाणो, साहं 'गुणठाण जीवठारणो ण । कत्ता स हि कारइदा, प्रणुमंता पेव कती ॥७८॥ पाहं बालो बुढो, ण चैव तरुणो रग कारणं तेंसि । कत्ता रग हि कारइदा, श्रणुमंता णेव कत्तीणं ॥ ७६ ॥ णाहं रागो दोसो, ण चैव मोहो र कारणं तेसि । कत्ता ण हि कारइदा, श्रणुमंता व कत्तीणं ॥ ८०॥ णाहं कोहो माणो ण चैव माया ण होमि लोहो हं । कत्ता ण हि कारइदा, प्रणुमंता णेव कतीरा ॥ ८१ ॥ नाहं नारकभावस्तिर्यङ मानुषदेवपर्यायः । कर्ता न हि कारयिता अनुमंता नैव कर्तृणाम् ॥७७॥ अव पांचनों का अवतार होता है गाथा ७७ से ८ १ - अन्वयार्थ – [ श्रहं ] मैं [ नारकभावः तिर्यङ मानुषदेवपर्यायः न ] नारक पर्याय, नियंत्रपर्याय, मनुष्यपर्याय अथवा देवपर्यायरूप नहीं हूं, [ कर्ता न हि कारयिता ] मैं उनका कर्ता नहीं हूं, कराने वाला नहीं हूं और [ कर्तृणां अनुमंता न एव ] करने वालों का अनुमोदन करने वाला भी नहीं हूं । J I [ अहं मार्गेणास्थानानि न ] मैं मार्गणास्थानरूप नहीं हूं, [ अहं गुणस्थानानि वा जीवस्थानानि न ] मैं गुणस्थानरूप अथवा जीवसमासरूप नहीं हूं, [ कर्ता न हि कारयिता कर्तृणां अनुमंता न एवं ] मैं उनका करने वाला कराने वाला और करते हुए की अनुमोदना करने वाला भी नहीं हूं । J १. गुणठाण तहेव जीवठाणाणि (क) पाठान्तर | Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. + M , [ २०१ परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार नाहं मार्गरणास्थानानि नाहं गुणत्यासावि जोधस्थानन बा। कर्ता न हि कारयिता अनुमंता नंव कर्तृणाम् ॥८॥ नाहं बालो वृद्धो न चैव तरुणो न कारणं तेषाम । कर्ता न हि कारयिता अनुमंता नैव कर्तृणाम् ॥७॥ नाहं रागो द्वषो न चव मोहो न कारणं तेषाम् । कर्ता न हि कारयिता अनुमंता नंव कर्तृणाम् ।।८०॥ नाहं क्रोधो मानो न चंय माया न भवामि लोभोऽहम् । कर्ता न हि कारयिता अनुमंता नेव कर्तृणाम् ।।८।। शंभु छंद मैं नहीं नारकी नहि तियक् नहिं मनुज नही है देव वाभा । नहिं इन पर्यायों का कर्ता नहिं इन्हें कंगने वाला भी ।। नहिं इनके करने वालों का अनुमोदन करने वाला हूं। मैं तो निश्चय से चिन्मूरत निजतनु मे भिन्न निगला हूं ॥७७।। मैं गति आदिक मार्गणा नहीं, नहिं गुणस्थान परिणामी हूं। नहिं चौदह जीवसमासरूप स्थानों का अनुगामी हं ।। मैं नहि इन मवका कर्ता हूं और नहीं कराने वाला हूं। नहि अनुमोदन कर्ता इनका मैं निजरस पीने वाला हूं 11७८।। --. -.-.- ... - [ अहं बालः वृद्धः न ] मैं बालक नहीं हूं, वृद्ध नहीं हूं, [ तरुणः एव च न ] और तरुण भी नहीं हूं [ न तेषां कारणं ] उनका कारण भी नहीं हूं। [ कर्ता नहि कारपिता कर्तृणां अनुमंता न एव ] मैं उनका करने वाला नहीं हूं, कराने वाला भी नहीं है और करते हुए की अनुमोदना करने वाला भी नहीं हूं। [अहं रागः द्वेषः न ] मैं रागरूप नहीं हूं, द्वे परूप नहीं हूं [ न च मोहः एक ] और मोहरूप भी नहीं हूं, [ न तेषां कारणं ] उनका कारण भी नहीं हूं। [कर्ता नहि कारयिता कर्तृणां अनुमंता न एष] उनका करने वाला, कराने वाला और 3 करते हुये की अनुमोदना करने वाला मैं नहीं हूं । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ] नियमसार मैं बालक नहि मैं वृद्ध नहीं मैं नहीं तक हूं इस जग में। नह इनका कारण हो सकता यह सब पुदगल के रूप बने । नहि इन पर्यायों का कर्ता, नहि कभी कराने वाला हूं । नहि इनका अनुमोदन कर्ता में सबसे भिन्न निराला हूं ॥७६॥ में राग नहीं में द्वेष नहीं में मोह नहीं निश्चयनय से । मैं इनका कारण भी नहीं हूं वे होते हैं कर्मोदय से मैं नहि इनका कर्ता सच में नहि कभी कराने वाला हूं । नहि इनका अनुमोदन कर्ता, सुख मांति सुधारस वाला हूं ||८०|| में क्रोध नहीं मैं मान नहीं मैं नहि माया में लोभ नहीं । नहि इनका कर्ता नहीं कराने वाला नहीं अनुमोदक ही ।। ये सब कमदिय से होते और कर्म नही मेरे कुछ भी । में निश्चयन से पूर्ण शुद्ध नहि चहु ६१॥ अन शुद्धात्मनः सकलकर्तृत्वाभावं दर्शयति । बह्वारंभपरिग्रहाभावादहं तावनारकपर्यायो न भवामि । संसारिणो जीवस्य बह्वारंभपरिग्रहत्वं व्यवहारतो भवति अत एव तस्य नारका कहेतुभूत निखिलमोहरागद्वेषा विद्यन्ते न च मम शुद्धनिश्चयबलेन शुद्धजीवास्तिकायस्य । तिर्यक्पर्यायप्रायोग्यमायामिधाशुभकर्माभावात्सदा तिर्यक् [ अहं क्रोधः मानः न ] मैं क्रोधरूप नहीं हूं मानरूप नहीं हूं, [ श्रहं माया च एव लोभः न भवामि ] मैं मायारूप नहीं हूं और मैं लोभरूप भी नहीं हूं, [ कर्ता न हि इनका करने वाला, कराने वाला और करते हुए कारपिता कर्तृणां श्रनुमंतान एव ] को अनुमोदना देने वाला भी नहीं हूँ । टीका- यहां शुद्ध आत्मा के संपूर्ण कर्तृत्व का अभाव दिखलाते हैं । बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह के अभाव से नारकपर्यायरूप नहीं होता हूं | संसारी जीव के व्यवहारनय से बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह होता है, अतएव उस संसारी जीव के नरक आयु के लिए कारणभूत संपूर्ण मोह, राग और द्वेष विद्यमान हैं, किन्तु शुद्धनिश्चय में शुद्धजीवास्तिकायस्वरूप मेरे में वे नहीं हैं । तिर्यंचपर्याय के योग्य माया से मिश्रित अशुभकर्म के अभाव से मैं सदा तिर्यचपर्याय के कर्तृत्व से Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार [ २०३ पर्यायकर्तृत्वविहीनोऽहम् । मनुष्यनामकर्मप्रायोग्य द्रव्यभावकर्माभावान्न मे मनुष्यपर्यायः शुद्धनिश्चयतो समस्तीति । निश्चयेन देवनामधेयाधारदेवपर्याययोग्यसुरससुगन्धस्वभावात्मकमुद्गलद्रव्यसम्बन्धाभावान में देवपर्यायः इति । चतुर्दशभेदभिन्नानि मार्गणास्थानानि तथाविधभेदविभिन्नानि जीवस्थानानि गुणस्थानानि वा शुद्धनिश्चयनयतः परमभावस्वभावस्य न विद्यन्ते । मनुष्यतिर्यकपर्यायफायवयःकृतविकारसमुपजनितबालयौवनस्थविरवृद्धावस्थाद्यनेकस्थूलकृशविविधभेदाः शुद्धनिश्चयनयाभिप्रायेण न मे सन्ति । सत्तावबोधपरमचंतन्यसुखानुभूतिनिरतविशिष्टात्मतत्त्वग्राहकशुद्ध द्रव्याथिकनयबलेन मे सकलमोहरागद्वषा न विद्यन्ते । सहनिश्चयनयतः सदा निरावरणात्मकस्य शुद्धावबोधरूपस्य सहजचिच्छक्तिमयस्य सहजक्स्फूर्तिपरिपूर्णमूर्तः स्वरूपाविचलस्थितिरूपसहजयथा रहित है । मनुप्यनामकर्म के योग्य द्रव्यकर्म और भाव कम के अभाव से शुद्धनिश्चयनय मे मेरे मनुष्यपर्याय नहीं है । निश्चयनय से देवनाम के लिए आधारभूत ऐसी देवपर्याय के योग्य मुरस और सुगन्धित म्वभाव वाले पुद्गलद्रव्य के सम्बन्ध का अभाव होने में में देवपर्याय नहीं है। चौदह भद सहित मागंणास्थान और उमीप्रकार-चौदह भेद सहित जोग समाम अथवा चौदह भेद महिन गुणस्थान शुद्धनिश्च यनय में परमभाव स्वभाव वाले ऐसे मुझ में नहीं हैं। मनुष्य और तिर्यचगाय के शरीर में उम्र के निमित्त से किये गये विकार रूप से उत्पन्न हुई बाल अवस्था, यौवन अवस्था, स्थविर अवस्था और वृद्धावस्था आदि तथा अनेक स्थूल और कृश से होने वाले विविध भेद, शुद्धनिश्चयनय के अभिप्राय से मुझमें नहीं है। सना, ज्ञान, परमचैतन्य और मुम्न की अनुभूति में लीन, विशिष्ट आन्मनत्व को ग्रहण करने वाला जो शुद्ध द्रव्याथिकानय है उस नय के बल से मेरे में सकल मोह, राग और द्वेष नहीं हैं । महज निश्चयनय से मदा निगवरणरूप, शुद्धनानम्वरूप, महजचैतन्यशक्तिमय, सहजदर्शन के स्फुरायमान से परिपूर्ण मूर्तिस्वरूप और स्वरूप में अविचल स्थिति Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] नियमसार ख्यातचारिश्रत्य न मे निखिलसंप्रतिक्लेशहेतवः क्रोधमानमायालोभाः स्युः । अथामीषा विविधविकल्पाकुलानां विभावपर्यायाणां निश्चयतो नाहं कर्ता, न कारयिता वा भवामि, न चानुमंता वा कर्तृणां पुद्गलकर्मणामिति । नाहं नारकपर्यायं कुर्वे, सहजचिद्विलासास्मकमारमानमेव संचितये । नाहं तिर्यपर्यायं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचितये । नाहं मनुष्यपर्यायं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचितये । नाहं देवपर्यायं फुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचितये । लाहं चतुर्दशमार्गणास्थानभेदं कुर्वे, सहचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचितये । नाहं मिथ्यादृष्टधादिगुणस्थानभेदं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचितये । नाहमकेन्द्रियादिजीवस्थानभेदं कुर्वे, सहज----- - - - रूप सहज यथाख्यात चारिप्रवाले ऐसे मेरे में मकान संमार के क्लेश के कारणभून ऐसे क्रोध, मान, माया और लोभ नहीं हैं । अब इन विविधविकल्पों-भेदों से व्याप्त सभी विभाव पर्यायों का निश्चयनय में में करने वाला नहीं हूं, कराने वाला नहीं हैं और करने वाले पुद्गल कर्मों का मैं अनुमोदन करने वाला भी नहीं हूं। मैं नरकपर्याय को नहीं करता है, महज चैतन्य के विलासरूप अपनी आत्मा का ही मैं सम्यक्प्रकार से अनुभव करता हूँ। मैं निर्यचपर्याय को नहीं करता हूं, सहज चैतन्य के विलासरूप आत्मा का ही में सम्यकप्रकार से चितवन करता हूं। में मनुष्य पर्याय को नहीं करता हूं, सहज चैतन्य के विलासस्वरूप आत्मा का ही में सम्यकचितवन करता हूं । देवपर्याय को मैं नहीं करता हूं, महज चैतन्य के विलासस्वरूप ऐसी आत्मा का ही में सम्यक्प्रकार से चितवन करता हूँ ।। । मैं चौदह मार्गणास्थान के भेदों को नहीं करता हूं, सहज़ चैतन्य के विलानस्वरूप आत्मा का ही मैं सम्यक्प्रकार से चिनबन करता हूं। मैं मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान के भेदों को करने वाला नहीं हूं, महज चैतन्य के बिलासस्वरूप आत्मा का ही सम्यकप्रकार से अनुभव करता हूं। मैं एकेन्द्रिय आदि चौदह जीवसमास के भेदों को करने वाला नहीं हं, महज चैतन्य के बिलामम्वरूप आत्मा का ही सम्यकप्रकार से अनुभव करता हूं। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थ- प्रतिक्रमण अधिकार [ २०५ विद्विसासात्मकमात्मानमेव संचितये । नाहं शरीरगतबालाद्यवस्थानभेदं कुर्य, सहजचिद्विखासात्मकमात्मानमेव संचितये । नाहं रागादिभेदभावकर्मभेदं कुर्वे, सहजचिद्विलासास्मकमात्मानमेव संचितये । नाहं भावकम्मत्मिकषायचतुष्कं कुर्वे, सहचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचितये । इति पंचरत्नांचितोपन्यासप्रपंचनसकलविभावपर्यायसंन्यासविधानमुक्तं भवतीति । - -. - -. . -- - - - - -- में शरीर में होने वाली बाल्य आदि अवस्थाओं के भदों को नहीं करता हूं सहज चैतन्य के विलासस्वरूप आत्मा का ही सम्यक् अनुभव करता हूँ। मैं रागादि भावस्वरूप भावकर्मों के भेदों को नहीं करता हूं, सहज चतन्य के विलासस्वरूप आत्मा का हो सभ्यप्रकार से चितबन करता हूं। में मात्रकमस्वरूप चार कषायों को नहीं (करता है, सहज चैतन्य के विलासस्वरूप अपनी आत्मा का ही सम्पप्रकार मे चितवन करता है । । जस यहां कर्ता के विषय में घटित किया है एम ही वारीयता और : अनमोदनकर्ता के सम्बन्ध में भी घटित कर लेना चाहिए । ) ___ इमप्रकार में पंचरत्न से गोभिन कशन के विस्तार से संपूर्ण विभावापायों के मन्यास-त्याग के विधान का कथन किया गया है । भावार्थ-यहां आचार्यों का कहना है कि यद्यपि ममारी जीवों के मंसार अवस्था में नरनारकादि पर्याय तथा गुणस्थानादि परिणाम और गगादि विभाब भाव विद्यमान हैं फिर भी शुद्धनिश्चयनय से ये कुछ भी जीव में नहीं है इसलिए यह चितवन करना चाहिए कि शुद्धनिश्चयनय से मैं इन नरनारकादि पर्यायों का विभाव भाव आदि का न कर्ता हूं. न कराने वाला हूं और न ही अनुमति देने वाला हुँ । में नो केवल चिञ्चतन्यस्वरूप अपनी शुद्ध आत्मा का ही अनुभव करने वाला हूं। इसप्रकार की भावना भाते-भाते ही एक दिन ऐसा आयेगा कि उस आत्मस्वरूप में पूर्णतन्मयता हो जावेगी और नभी मोहनीय कर्म का नाश होकर आत्मा में जान सूर्य का प्रकाश प्रगट हो जावेगा । इसलिए जब तक आत्मस्वरूप में पूर्णस्थिरता नहीं आती है तब तक यह । भावना भाते ही रहना चाहिए । [अब टीकाकार श्रीमनिराज इन पांचगन्नों का मूल्यांकन कराने हा प्रलोक कहते हैं-] Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार ( बसंततिलका) भव्यः समस्तविषयाग्रहमुक्तचिन्तः स्वद्रव्यपर्ययगुणात्मनि दत्तचित्तः । मुफ्त्या विभावमखिलं निजभावभिन्न प्राप्नोति मुक्तिचिरादिति पंचरत्नात् ॥१०९।। एरिसभेदभासे, मज्झत्थो होदि तेण चारित्तं । तं दढकरणारणमित्तं, पडिक्कमणादी' पवक्खामि ॥२॥ ईदग्भेदाभ्यासे मध्यस्थो भवति तेन चारित्रम् । तदृढीकरणनिमित्तं प्रतिक्रमणादि प्रवक्ष्यामि ।।२।। इस विध म पर भद का जब, अभ्यास जीव कर पाता है। मध्यस्थ मानव पूर्णतया, निज समरम अनभव पाता है। सस जो चारित होता है वह वीतराग कहलाता है। उसका करने हेतु प्रतित्रमणादि कह। यह जाता है ।।८।। ... - (१०६) श्लोकार्थ-जो समस्त विषयों के आग्रह की चिन्ता से मुक्त हैं, द्रव्य गुणपर्यायात्मक अपने आन्मस्वरूप में जिन्होंने चिन को लगाया है, वे भव्य जीव अपने स्वभाव से भिन्न सम्पूर्ण विभावों को छोड़करके इन पंचरत्नों के निमिन से शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। . भावार्थ-टीकाकार श्री मुनिराज ने भेदविज्ञान की भावनास्वरूप पूर्वोक्त पांच गाथाओं को पंचरत्न की संज्ञा दी है । क्योंकि इन पांच गाथा कथित भेदविज्ञान के द्वारा ही मुनिराज संपूर्ण विषय कषायों की चिन्ता से छूट सकते हैं और अपनी आत्मा में अपने आपको स्थिर कर सकते हैं । इसलिये जो भव्य इन पंचरत्न को ग्रहण करते हैं वे तीन लोक के माम्राज्य को हस्तगत कर लेने हैं । गाथा १२ अन्वयार्थ-[ ईदग्भेदाभ्यासे ] इसप्रकार के भेद का अभ्यास हो जाने पर [मध्यस्थो भवति] जीव मध्यस्थ होता है, [तेन चारित्रं] इसलिए चारित्र होता है । १. पडिक्कमणादि (क) पाठान्तर H Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थ-प्रतिक्रमपा अधिकार [ २०७ अत्र भेदविज्ञानात् क्रमेण निश्चयचारित्रं भवतीत्युक्तम् । पूर्वोक्तपंचरत्नांचिवार्थपरिज्ञानेन पंचमगतिप्राप्तिहेतुभूते जीवकर्मपुद्गलयोर्भेदरम्यासे सति, तस्मिन्नेव च में मुमुक्षवः सर्वदा संस्थितास्से शत एव मध्यस्थाः तेन कारणेन तेषां परमसंयमिनां वास्तवं चारित्रं भवति । तस्य चारित्राविचलस्थितिहेतोः प्रतिक्रमणादिनिश्चयक्रिया | निगद्यते । अतोतदोषपरिहारार्थ यत्प्रायश्चित्तं क्रियते तत्प्रतिक्रमणम् । प्राविशन्वेन । प्रत्याख्यानादीनां संभवरलात इति । । तदृढीकरणनिमित्तं ] उस चारित्र को दढ़ करने में निमिनभूत [ प्रतिक्रमणादि ] प्रतिक्रमण आदि को [प्रवक्ष्यामि ] मैं कहूंगा ।। टीका-यहां भेदविज्ञान से क्रम से निश्चयचारित्र होता है ोमा कहा है। पूर्वोक्त पंचरन से मुगोभित पदार्थों के ज्ञान में पंचमातम्प सिद्धति के लिए कारणभूत ऐसा जीव और कर्मपुद्गल में भेद का अभ्यास हो जाने पर, उसी-भेद के अभ्यास में ही जो ममक्ष-महामनि हमेशा स्थित रहते हैं वे इसी हेतु से मतन भेदाभ्यास से मध्यस्थ होते हैं, और इगकारण से उन पर समयमी मुनियों के निश्चयचारित्र होता है। उस चारित्र में अविचलम्थिति के लिए प्रतिक्रमण आदि निश्चयक्रियाओं को कहते हैं । अतीतकाल के दोपों का परिहार करने के लिये जो प्रायश्चिस किया जाता है वह प्रतिक्रमण है । आदि शब्द से प्रत्याख्यान आलोचना आदि भी होते | है ऐसा कहा गया है। । विशेषार्थ-पूर्वोक्तः पंचरत्नस्वाप पांच गाथाओं के मनन से जीव और पौद्गलिक कर्मों का भेद मालम होता है । उस भेदविज्ञान के दृढ़तर अभ्यास से महा मुनि संपूर्ण संकल्प, विकल्प से रहित वीतराग अबस्था को प्राप्त होकर अपने आत्म + स्वरूप के ध्यान में तन्मय हो जाते हैं उस समय उन मुनियों के 'रत्नत्रय की एकाग्न . परिणतिरूप निश्चय चारित्र होता है। उस अवस्था में ही निश्चय प्रतिक्रमण आदि १ कियायें घटित होती हैं। इसलिये निश्चयचारित्र में निश्चल स्थिर होने के लिये ही आचार्यदेव इन निश्चय क्रियाओं को बताते हैं । आदि शब्द से जो यहां प्रत्याख्यान आदि की सूचना की है उसको स्वयं श्री भगवान् कुदकुददेव के आगे छठे-सातवें आदि अधिकारों में निश्चय प्रत्याख्यान, निश्चयआलोचना आदि का वर्णन किया है । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ] नियमसार तथा चोक्तं श्रीमद्दमृतचन्द्रसूरिभिः तथा हि -- ( अनुष्टुभ् ) भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । अस्वाभावतो बचा बढ़ा ये किल केचन ॥१३१॥ ( मालिनी ! इति सति मुनिनाथस्योच्चकै भेदभावे स्वयमयमुपयोगाद्राजते मुक्तमोहः । शमजलनिधिपूरक्षालितांहः कलंक: स खलु समयसारस्यास्य मेदः क एषः ||११० ॥ इस भेदविज्ञान के विषय में श्रीमान् अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा हैश्लोकार्थ — 'निश्चित रूप से जो कोई भी सिद्ध हुए हैं वे सब भेदविज्ञान से ही मित्र हुये हैं, और निश्चितरूप से जो कोई भी बंधे हुये हैं वे सभी जीव भेदविज्ञान के अभाव में ही बंधे हुए हैं ।' उसीप्रकार - [ टीकाकार श्री मुनिराज भेदविज्ञान की महिमा के विषय में आस्चर्य प्रगट करते हुए श्लोक कहते हैं--] ( १९१०) श्लोकार्थ - इसप्रकार से मुनिनाथ को उत्कृष्टरूप से भेदविज्ञान के हो जाने पर स्वयं यह ( भेदविज्ञान ) उपयोग से मोहरहित होता हुआ शोभायमान होता है, शमसमुद्र के प्रवाह से धो डाला है पापरूपी कलंक को जिसने, ऐसा जो भेद है वह निश्चित ही इस समयसार का कोई एक भेद है । अर्थात् वह भेदविज्ञान समयसार का कोई एक अद्भुत चमत्कारी भेद है । भावार्थ — जिससमय महामुनि भेदविज्ञान के द्वारा आत्मा और शरीर की भिन्नता का अनुभव करते हैं उमसमय उनके उपयोग में मोहभाव नहीं रहता है, यद्यपि मोहनीय कर्म का बंध और उदय दशवें गुणस्थान तक तथा सत्व ग्यारहवें गुणस्थान तक १. समयसार कलश १३१ । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार [ २०६ मोत्तूणवयणरयणं, रामदो भाववारणं किच्चा। अप्पारणं जो झायवि, तस्स दु होदि त्ति पडिकमरणं ॥३॥ मुक्त्वा वचनरचनां रागादिभाववारणं कृत्वा । प्रात्मानं यो ध्यायति तस्य तु भवतीति प्रतिकमणम् ।।३।। जो प्रतिक्रमण का पाठ वचन रचनामय उसको सज करके । रागादि भाव को छोड़ सर्वविध निर्विकल्प मन बन कर ।। निज आत्मा को नित ध्यारी है अतिशय एकाग्रचिन करके । यह प्रतिक्रमण निश्चयसंज्ञक उनके होता है निश्चय से ।।८३।। दैनं दैनं मुमुक्षुजनसंस्तूयमानवाङमयप्रतिक्रमणनामधेयसमस्तपापक्षयहेतुभूत. सूत्रसमुदयनिरासोयम् । यो हि परमतपश्चरणकारणसहजवैराग्यसुधासिन्धुनाथस्य विद्यमान है फिर भी उपयोग में मोह के न रहने में वह भेदज्ञान कपायों की उपशमनारूप सागर के जल प्रवाह से पायरूपी पंक को धोकर स्वच्छ हो जाता है । यह भेद विज्ञानरूप परिणाम-समयसार का ही कोई एक अद्भुत प्रकार है । मा समझना । गाया ८३ ___ अन्वयार्थ-[ वचनरचनां मुक्त्वा ] वचनरचनाम्प प्रतिक्रमण को छोड़कर, [ रागादिभावधारणं कृत्वा ] रागादि भावों का निवारण कर के [ यः ] जो साधु [आत्मानं ध्यायति ] आत्मा को ध्याता है [तस्य तु] उसके [प्रतिक्रमरणं भवति इति] प्रतिक्रमण होता है। टीका-प्रतिदिन मुमुक्षु जनों के द्वारा उच्चारण किये जाने वाला जो वचन। मय प्रतिक्रमण इस नाम वाला है जो संपूर्ण पापों के क्षय करने में कारणभूत सूत्रों का १. समुदाय है, उसका यह निरास है अर्थात् उस वचनरचनारूप प्रतिक्रमण का यहां पर । निराकरण किया गया है। जो परमतपश्चरण के कारणभूत सहज वैराग्यरूपी अमृत समुद्र के लिए पूर्णिमासी के पूर्ण चन्द्रमा हैं और जो अप्रशस्त वचनों की रचना से पर्वत: भक्त होते १. रागादि (क) पाठान्तर Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ] नियनसार राकानिशीथिनीनाथः अप्रशस्तवचनरचनापरिमुक्तोऽपि प्रतिक्रमणसूत्रविषयवचनरचनां मुक्त्वा संसारलतामूलकंदानां निखिलमोहरागद्वेषभावानां निवारणं कृत्वाऽखण्डानंदमयं - . - - - हए भी प्रतिक्रमण सूत्र की विषम-विविध वचनरचना को छोड़कर संसार लता के मूलकंदभूत संपूर्ण मोह, राग, दोष भावों का निवारण करके अखंड आनंदमय निजकारण परमात्मा का ध्यान करते हैं, उनके जो कि परमतत्त्व का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान के सन्मुख हुये हैं ऐसे साधु के निश्चितरूप मे संपूर्ण वचन के विषयभन व्यापारों से रहित निश्चय प्रतिक्रमण होता है। विशेषार्थवीतराग निविकल्प समाधिरूप अवस्था से परिणत हुये शुद्धोपयोगी महासाधुओं के पूर्णतया अंतर्जल्प भी रुक जाते हैं, उस समय संपूर्ण बचन का व्यापार समाप्त हो जाता है. ऐसे निश्चय रत्नत्रय से परिणत एकाग्र अवस्था में निश्चयप्रतिक्रमण घटित होना है। अपने बना में लगे हा अतीन काल के दोषों को दूर करना प्रतिक्रमण कहलाता है। इसमें प्रतिक्रमण के दण्डक सूत्रों का उच्चारण करते हुए भावपूर्वक 'मिच्छा मे दुवकर्ड' मग दुाकृत मिथ्या होवे ऐसा बार बार कहते हुए होता है। इन प्रतिक्रमण के सात' भेद हैं—देव सिक, रात्रिक, ऐपिथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उनमार्थ । दिवम में लगे हुए दोपों को दूर करने के लिये सायंकाल में प्रतिक्रमण करना देवमिक है । रात्रि में लगे हुए दोषों को दूर करने के लिये गांव के अंत में प्रतिक्रमण करना गत्रिक है । आहार को जाते समय या देववंदना, गुरुवंदना आदि के लिये अथवा मल मूत्रादि विसर्जन के लिये जाते-आते समय जो जीद बाधा हुई हो उसमे निवृत्त होने के लिये प्रतिक्रमण करना ऐर्यापथिक है । पंद्रह दिन में किया गया पाभिवा. चार महिनों में किया गया चातुर्मासिक और आषाढ़ मुद्री । पणिमा को किया गया प्रतिक्रमण सांवत्सरिक कहलाता है तथा सल्लेम्वना ग्रहण करने के बाद अंतकाल में जो संपूर्ण दोषों का विशोधन किया जाता है वह उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है । इनमें रो दैबसिक, रात्रिक और ऐपिथिक ये तीन प्रतिक्रमण तो साधु को प्रतिदिन ही करने पड़ते हैं । प्रमाद आदि के निमित्त से हुये दोषों की शुद्धि प्रतिक्रमण १. मूलाचार पृ० ३१७ 1 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २११ परमार्थ- प्रतिक्रमण अधिकार निजकारण परमात्मानं ध्यायति, तस्य खलु परमतत्वश्रद्धानावबोधानुष्ठानाभिमुखस्य सकल वाग्विषयव्यापारविरहितनिश्चयप्रतिक्रमणं भवतीति । से होती है 1 और यदि प्रतिक्रमण न करें तो उस आवश्यक क्रिया की विराधना से ये दोषों की शुद्धि के लिये गुरुदेव से प्रायश्चित्त लेना होता है । जो साधु शुद्धोपयोग में तो पहुंच नहीं हैं और इस द्रव्य भावरूप प्रतिक्रमण को भी छोड़ देते हैं वे तो महान् दोषी होते हैं । इसी बात को श्री अमृतचन्द्रसूरि कहा है— यत्र' प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधाकुतः स्यात् । तत्कि प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नोऽधः, किं नोर्ध्वमुर्ध्वमधिरोहति निःप्रमादः || १८९ ।। अर्थ - हे भाई! जहां प्रतिक्रमण को ही पि कहा है वहां अप्रतिक्रमण अमृत कैसे हो सकता है ? इसलिये यह जीव नीचे-नीचे गिरता हुआ प्रमादी क्यों होता है? निष्प्रसादी होकर ऊपर-ऊपर क्यों नहीं चढ़ना है अर्थात् जहां प्रतिक्रमण को ही कुंभ कह दिया है ऐसे शुद्धोपयोग में स्थिर होतेम्प अवस्था में ही द्रव्यप्रतिक्रमण छूटकर निश्चयप्रतिक्रमणम्य अवस्था हो जाती है उसके पूर्व छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों को यह दंडक सूत्रों के उच्चारणरूप प्रतिक्रमण करना ही चाहिए । श्रावक के तो व्यवहार प्रतिक्रमण भी नहीं है अतः निश्चय प्रतिक्रमण की बात तो बहुत ही दूर है। श्रावक की पट् आवश्यक क्रियायें निम्नलिखित हैं-देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान । इनमें भी 'दाणं पूजा मुक्वो सावयधम्मो ण सावया तेण विणा श्रावक धर्म में दान और पूजा मुख्य है इन दो क्रियाओं के बिना श्रावक धर्म नहीं हो सकता है ऐसा श्री कुंदकुंद भगवान का उपदेश है । १. समयसार कलश १८६ पृ. ३६२ । २. आज जो क्रियाकलाप श्रादि में मुद्रित हो चुके हैं ऐसे वे देवसिक 'रात्रिक' पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण सूत्र श्री गौतमस्वामी रचित हैं ऐसा टीकाकार श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने कहा है । ३. रयणसार श्री कुदेकु ददेवकृत । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ] नियमसार तथा चोक्त श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः ( मालिनी) "अलमलमतिजल्पै विकल्परनल्परमिह परमाथश्चत्यतां नित्यमेकः । स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फूतिमात्रा न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति ।" तथा हि ( आर्या ) अतितीव्रमोहसंभवपूर्वाजितं [ कर्म ] तत्प्रतिक्रम्य । आत्मनि सद्बोधात्मनि नित्यं वर्तेऽहमात्मना तस्मिन् ॥१११।। संपूर्ण विकल्पों से रहित होने पर ही ये निश्चय क्रियाय होती हैं ऐसा संकेन करते हुए श्री अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा है-- श्लोकार्थ- 'बहुत कुछ कहने से तथा बहुत कुछ दुर्विकल्प-आर्न रोद्र ध्यान रूप अशुभ विकल्पों से बम होवे. बस होवे, यहां इतना ही कहना बस है कि इस एक परमार्थस्वरूप का ही नित्य अनुभव करो। अपने आत्मा के रस के विस्तार में पूर्ण लबालब भरा हुआ जो ज्ञान उसके स्फुरायमान होने मात्र जो समयसार है, निश्चितरूप से उससे बढ़कर अन्य कुछ भी नहीं है ।' उमीप्रकार से [ टीकाकार श्रीमुनिराज निश्चयप्रतिक्रमण में अपने आपको । सन्मुस्व करते हुए श्लोक कहते हैं-] (१११) श्लोकार्थ-अनितीन मोह के उत्पन्न होने से जो पूर्व में उपाजित । कर्म, उनका प्रतिक्रमण करके मैं सद्बोधस्वरूप एसी उस आत्मा में अपनी आत्मा के द्वारा नित्य ही रहता हूं। अर्थात् मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले जो मोह राग द्वेष आदि परिणाम हैं इन परिणामों के निमित्त से हो प्रतिक्षण कर्म आते रहते हैं । १. समयसारकलश, २४४ ! Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१३ परमार्थ-प्रतित्रामण अधिकार आराहणाई वट्टइ, मोत्तूण विराहरण विसेसेण । सो पडिकमरणं उच्चइ, पडिकमणमनो हवे जम्हा ॥४॥ आराधनायां वर्तते मुक्त्वा विराधनं विशेषेण । स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात् ॥८४।। जो साधु विशेष रूप से सब व्रत की विराधना तजने हैं । निज आराधन वा चउ आराधन में नित वर्तन करते हैं ।। वे ही प्रतिक्रमण कहाते हैं क्योंकि वे प्रतिक्रमणमय है। वे निश्चम प्रतिक्रमणकर्ता, मुनि अाभध्यान में तन्मय हैं ।।१४।। अत्रात्माराधनायां वर्तमानस्य जन्तोरेव प्रतिक्रमणस्वरूपमुक्तम् । यस्तु परम। तत्त्वज्ञानी जीवः निरंतराभिमुखतया शत्रुटचत्परिणामसंतत्या साक्षात् स्वभावस्थिता। वात्माराधनायां वर्तते अयं निरपराधः । विगतात्माराधन: सापराधः, अत एव - - , इसलिये इन रागद्वेषादि भावों से उपाजित किये गये कार्यों को पत्रिका द्वारा दुः करके मैं मेरे शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा में ही निवास करता हूं, यही निश्चयप्रतिक्रमण । होता है। गाथा ८४ अन्वयार्थ-[ विशेषेण ] विशेषरूप से [ विराधनं मक्त्वा ] बिराधना को .. छोड़कर [ आराधनायां वर्तते ] जो आराधना में वर्तन करता है, [ सः प्रतिक्रमणं ] ___ वह जीव प्रतिक्रमण कहलाता है, [ यस्मात् ] क्योंकि वह [ प्रतिक्रमणमयं भवेत् ] प्रतिक्रमणमय हो जाता है। टोका-यहां आत्मा की आराधना में वर्तन करते हुए जीत्र को ही प्रतिक्रमणस्वरूप कहा है। जो परमतत्त्वज्ञानी जीव निरंतर अपनी तरफ उपयुक्त होने से अविच्छिन्न परिणाम संतति के द्वारा साक्षात् स्वभाव में स्थित होने रूप आत्मा की आराधना में वर्तन करते हैं वे निरपराधी हैं । जो आत्मा की आराधना से रहित हैं वे सापराधी हैं, इसीलिये 'संपूर्णरूप से विराधना को छोड़कर" ऐसा गाथा में कहा है। 'विगत'-निकल Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 i I I २१४ ] नियमसार निरवशेषेण विराधमं मुक्त्वा । विगतो राधो यस्य परिणामस्य स विराधनः । यस्मा निश्चयप्रतिक्रमणमयः स जीवस्तत एव प्रतिक्रमणस्वरूपमुच्यते । तथा चोक्त समयसारे "संसिद्धिरासिद्धं साधियमाराधियं च एवट्ठ अवगयराधो जो खलु चेया सो होइ अवराधो ॥" उक्त हि समयसारख्याख्यायां च- (लिनी ) "अनवरत मनतैर्बध्यते सापराधः स्पृशति निरपराधी बंधनं नैव जातु । गई है, 'राथ' आराधना जिरा परिणाम में वह परिणाम विराधना कहलाता है । जिस हेतु से ( विराधना रहित होने से ) वह जीव निश्चय प्रतिक्रमणमय है उसी हेतु से यह प्रतिक्रमणस्वरूप कहा जाता है । भावार्थ-यहां आचार्यदेव ने व्रतों में विराधना से रहित और विध आराधना से सहित साधु को ही प्रतिक्रमणमय स्वभाव कह दिया है क्योंकि वह साधु हो प्रतिक्रमणरूप से परिगत होने से प्रतिक्रमणमय हो रहा है । भगवान श्री कुरंदकुद ने समयसार में भी उसीप्रकार कहा है गाथार्थ - "संसिद्धि, राध, सिद्ध, साबित और आराधित ये सब एकार्थवाची शब्द हैं, निश्चित ही जो आत्मा राध-आराधना संसिद्धि आदि से अपगत-रहित है वह आत्मा अपराध- अपराधी है ।" श्री अमृतचन्द्रसूरि ने समयमार की व्याख्या अत्मख्याति नाम टीका में भी कहा है श्लोकार्थ - - " अपराध सहित आत्मा निरंतर ही अनंत पुद्गल परमाणुरूप कर्मों से बँधता है, और अपराधरहित आत्मा कदाचित् भी बंधन को स्पर्श नहीं १. गाथा ३०४ | Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा हि परमार्थ - प्रतिक्रमण अधिकार नियतमयमशुद्धं स्वं भजन्सापराधो भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेबी || " ( मालिनी ) अपगतपरमात्मध्यानसंभावनात्मा नियतमिह भवार्तः सापराधः स्मृतः सः । अनवरत भखंडाद्वं तचिद्भावयुक्तो भवति निरपराधः कर्मसंन्यासदक्षः ।। ११२ ॥ मोसूण प्रणायारं, प्रायारे जो दु कुरणदि थिरभावं । सो पडिकमणं उच्चइ, पडिकमरणमश्री हवे जम्हा ॥८५॥ [ २१५ करता है। यह जीव नियम से अपने को अशुद्ध भजता हुआ अर्थात् अपने को अशुद्ध अनुभव करता हुआ सापराध- अपरावसहित है, और सम्यक्प्रकार से शुद्ध आत्मा का :: सेवन करने वाला - अनुभव करने वाला निरपराधी है' ।" उसीप्रकार से [ टीकाकार मुनिराज भी अपराध-निरपराध का स्वरूप स्पष्ट करते हुए श्लोक कहते हैं— (११२) श्लोकार्थ - जो जीव परमात्मा के ध्यान की सम्यक्भावना में रहित हैं, यहां पर नियम से वे भव से पीड़ित हुए सापराधी माने गये हैं। जो जीव सदा ही अखंड, अद्वैत चैतन्यभाव से युक्त हैं वे कर्म के त्याग में कुशल होने से निरपराधी होते हैं । गाया ८५ अन्वयार्थ – [ यः तु श्रनाचारं मुक्त्वा ] जो साधु अनाचार को छोड़कर [ आधारे स्थिरभावं करोति ] आचार में स्थिरभाव को करता है, [ सः ] वह - साधु १. समयसार कलश, १८७ । 1 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ नियमसार मुक्त्वानाचारमाचारे यस्तु करोति स्थिरभावम । स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात् ॥५॥ जो बन के सर्व अनाचारों को बुद्धीपूर्वक तजते हैं । निजभावों को स्थिर करके, निजमातम अनुभव करते हैं ।। वे ही प्रतिक्रमण कहे जाते, क्योंकि प्रतिक्रमणरूप हैं । जो परमसमाधि में स्थित, निज में ही एकरूप हैं वे ।।८५॥ अत्र निश्चयचरणात्मकस्य परमोपेक्षासंयमधरस्य निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपं च भवतीत्युक्तम् । नियतं परमोपेक्षासंयमिनः शुद्धात्माराधनाव्यतिरिक्तः सर्वोप्यऽनाचारः, अत एव सर्वमनाचार मुक्त्वा हाचारे सहजचिद्विलासलक्षणनिरंजने निजपरमात्मतत्त्वभावनास्वरूपे यः सहजवैराग्यभावनापरिणतः स्थिरभावं करोति, स परमतपोधन एवं प्रतिक्रमणस्वरूप इत्युच्यते, यस्मात् परमसमरसीभावनापरिणतः सहजनिश्चयप्रतिक्रमणमयो भवतीति । -.- - -- - -- [प्रतिक्रमणं उच्यते] प्रतिक्रमण कहलाता है, [ यस्मात् ] क्योंकि वह [प्रतिक्रमणमयो भवति] प्रतिक्रमणमय होता है । टीका-यहां निश्चय चारित्रस्वरूप परमापक्षासंबमधारी मनियों के निश्चय प्रतिक्रमण का स्वरूप होता है, ऐसा कहा है । निश्चितरूप से परमोपेक्षामंयमी साधु के शुद्धात्मा की आराधना से अतिरिक्त । सब कुछ अनाचार है, इसीलिए सभी अनाचार को छोड़कर सहज चैतन्य के विलास लक्षण वाले निरंजनरूप, निज परमात्मतत्त्व की भावनास्वरूप आचार में जो-साधु महजवैराग्यभावना से तन्मयरूप हुआ स्थिरभाव को करता है, वह परमतपोधन ही प्रतिक्रमणस्वरूप है इसप्रकार कहा जाता है । क्योंकि वह साधु परमसमरसी भावना से परिणत हुआ सहज निश्चय प्रतिक्रमण मय होता है । [अय टीकाकार श्री मुनिगज आत्मस्वरूप में स्थिर होने की प्रेरणा देते हुए दो श्लोक कहते हैं-] Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक परमार्थ - प्रतिक्रमण अधिकार ( मालिनी ) अथ निजपरमानन्दैक पीयूषसान्द्रं स्फुरितसहजबोधात्मानमात्मानमात्मा । निजशममयवाभिनिर्भरानंद भक्त्या स्नपयतु बहुभिः किं लौकिकालापाः ।। ११३।। [ २१७ ( स्रुधरा ) मुक्त्वानाचारमुच्चैर्जन नमृतिकरं सर्वदोषप्रसंग स्थित्वात्मन्यात्मनात्मा निरुपम सहजानंदज्ञप्तिशक्ती । बाह्याचारप्रमुक्तः शमजलनिधिवाबिन्दुसंदोहपूतः सोयं पुण्यः पुराणः क्षपितमलकलिर्भात लोकोधसाक्षी ।। ११४ ॥ ( ११३ ) श्लोकार्थ - - आत्मा निजपरमानंदम्ग एक अद्वितीय अमृत से सान्द्रआर्द्र- भीगे हुए वा पूर्ण भरित और सकुरायमान सहजबोधस्वरूप आत्मा को अपने परिणामों के उपपमरूप जल से अतिशय आनंद और भक्तिपूर्वक स्नान कराओ, से लौकिक वचन समूहों से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है । बहुत भावार्थ - - परिणामों में जो कायों की मंदना या उपगमता है वही एक प्रकार का निर्मल जल है, उस जल से अपनी आत्मा को स्नान कराने से वह पवित्र हो जाती है, इसलिए साधुओं को प्रेरणा देते हुए आचार्य कहते हैं कि बहुत वाह्य वचनों के आडम्बर से लोगों को प्रसन्न करने से कुछ भी निज कार्य सिद्ध नहीं होगा । स ( ११४) श्लोकार्थ -- जो आत्मा जन्म-मरण के करने वाले, सर्व दोषों के प्रसंगरूप ऐसे अनाचार को अत्यन्त रूप से छोड़कर, उपमारहित सहज आनन्द-मुख, सहज दर्शन, सहज ज्ञान और सहज वीर्यस्वरूप अपनी आत्मा में अपनी आत्मा के द्वारा स्थित होकर, बाह्य आचार से रहित होता हुआ, अमसमुद्र के जलबिंदुओं के समूह से पवित्र हो जाता है, सो वह - पुण्यरूप, पुराण महापुरुष आत्मा, नष्ट कर दिया है मलरूपी क्लेश को जिसने ऐसा, और लोक को उत्कृष्टरूप से साक्षात् करने वाला होता हुमा शोभायमान होता है । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . नियमसार उम्मग्गं परिचत्ता, जिरणमग्गे जो दु कुणदि थिरभाव । सो पडिफमणं उच्चइ, पडिकमणमो हवे जम्हा ॥८६॥ उन्मार्ग परित्यज्य जिनमार्ग यस्तु करोति स्थिरभावम् । म प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात् ।।६।। रत्नत्रय में विपरीत गर्व, मारग को जो तज करके । जिममारग में ही प्रहरी, स्थिर परिगामों को करते ।। वे ही प्रतिक्रमगा कहे जाने, क्योंकि प्रतित्रामगा स्वरूप हुए । ब निश्चयप्रतिकारगण धारी. निज में परिणत निजम्प हुए ।।६।। अत्र उन्मार्गपरित्यागः सर्वज्ञवीतरागमार्गस्वीकारश्चोक्तः । यस्तु शंकाकांक्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवमलकलंकपंकनिर्मुक्तः शुद्धनिश्चयसदृष्टिः बुद्धावि - - भावार्थ-जो संसार की परंपरा के कारणभूत अनाचार है उनको छोड़कर जो साधु अनंत चतुष्टय स्वरूप अपनी शुद आत्मा में स्थिर हो जाते हैं, निविकल्प समाधि के द्वारा अपनी आत्मा में ही लीन हो जाते हैं। उस समय उनके बाह्य आवश्यक आदि सारी क्रियाय भी हट जानी हैं पुनः अन्य अनर्गल क्रियाओं की बात तो बहुत ही दूर है, तब कषायों के पूर्ण उपशम तथा क्षयरूपी जल से आत्मा के कर्ममल धुल जाते हैं और आत्मा पूर्णतया पवित्र होकर नीक को प्रत्यक्ष देखने-जानने वाला हो जाता है। যাথা ও अन्वयार्थ-[यः तु] जो साधु [उन्मार्ग परित्यज्य] उन्मार्ग को छोड़ करके [ जिनमार्ग स्थिरभावं करोति ] जिनेंद्र भगवान के मार्ग में स्थिरभाव करता है, [ सः प्रतिक्रमणं उच्यते ] वह साधु प्रतिक्रमण कहलाता है [ यस्मात् प्रतिक्रमणमयो भवेत् ] क्योंकि वह प्रतिक्रमणमय होता है। टीका-यहां पर उन्मार्ग के परित्याग और सर्वज्ञ वीतराग देव के मार्ग के स्वीकार करने को कहा है। जो शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि प्रशंसा और अन्य दृष्टि संस्तव इन पांच अतिचार कप मलकलंक पंक से रहित शृद्ध निश्चय सम्यग्दृष्टि साधु बुद्ध, Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थ प्रतिक्रमण अधिकार | २१९ म्यादर्शनज्ञानचारित्रात्मक मार्गाभासमुन्मार्ग परित्यज्य व्यवहारेण महादेवाधिसरसर्वशवीतरागमार्गे पंचमहावतपंचसमितित्रिगुप्तिपंचेन्द्रियनिरोधषडावश्यकातिमूलगुणात्मके स्थिरपरिणामं करोति, शुद्धनिश्चयनयेन सहजबोधादिशुद्ध सहजपरमचित्सामान्यविशेषभासिनि निजपरमात्मद्रव्ये स्थिरभावशुद्धचारित्रति, स मुनिनिश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युच्यते, यस्मानिश्चयप्रतिक्रमणं परमतत एव स तपोधन: सका शुद्ध इति । । तथा चोक्त प्रवचनसारव्याख्यायाम (मादू नविना डिन ; "इत्येवं चरणं पुराणपुरुषंजुष्टं विशिष्टादरे रुत्सर्गादपाः दलबल विर बह्वीः पृय भूमिकाः । -- -... . ..-. . . आदि प्रणीन मिथ्यादर्शन मिथ्याजान और गिश्याचारित्रात्मक मार्गाभामम्प का परित्याग करके व्यवहारनय की अपेक्षा से पांच महावत, पांच समिति, प्राप्ति, पांच इन्द्रिगों का निरोध और पटायरक क्रिया आदि अट्ठाईस मलगुणमहादेवाधिदेव, परमेश्वर, सर्वज, बोल गग के मार्ग में स्थिरभाव करता है, और चयनय की अपेक्षा मे सहज ज्ञान-दर्शन आदि शुद्ध गुणों से अलंकृत, सहजपरम के सामान्य-विशेष प्रतिभासरूप में निज परमाभ द्रब्य में शुद्धचारित्रमय पाव को करता है, वह मुनि निश्चय प्रतिक्रमणम्वरूप है ऐसा कहा जाता है । वह परमतत्त्व को प्राप्त हुआ निश्चय प्रनिक्रम ग है और इस निश्चय प्रतिक्रमण वह तपोधन मदा शुद्ध है। । उसी प्रकार प्रवचनसार की व्याख्या में भी कहा है "इसप्रकार से विशेष आदर बाल पुराण पुरुषों द्वाग सेवित, उन्मर्ग और बाद द्वारा अनेक पृथक्-पृथक् भूमिकाओं में विचरण करने वाले यति चारित्र को करके क्रमशः अतूल निवृत्ति करके सामान्य-विशेषरूप चैतन्य जिसका प्रकाश है निज द्रव्य में सत्र प्रकार से स्थिति करो' ।' १. अमृतनन्द्राचार्य कृत तत्त्वदीपिका नामक टीका, गाथा २३१ की टीका में श्लोक १५ । 7:.. . Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! २२० ] आक्रम्य क्रमतो निवृत्तिमतुलां कृत्वा यतिः सर्वतश्चित्सामान्यविशेषभासिनि निजद्रव्ये करोतु स्थितिम् ॥ " तथा हि- नियमसार ( मालिनी ) विषयसुखविरक्ताः शुद्धतवानुरक्ताः तपसि निरतचित्ताः शास्त्रसंघातमत्ताः । गुणमणिगणयुक्ताः सर्वसंकल्पभुक्ताः कथममृतवधूटीवल्लभा न स्युरेते ।। ११५ ।। तू प्रवचनसार ग्रन्थ में २०० गाथाओं ६६१ गाथाओं तक चरणानुयोग भावार्थ - भगवान् श्री देव ने तक ज्ञान आर ज्ञेय तत्त्व का वर्णन करके २०१ चुलिका नाम से मुनियों के चारित्र का वर्णन किया है। उसमें शुद्धोपयोग और शुभो - पयोग अथवा वीतराग चारित्र सराग चारित्र या उपेक्षासंयम अपहृतसंयम अथवा उत्सर्ग चारित्र और अपवाद चारित्र इन दो प्रकार के नाम वाले चारित्र का वर्णन किया है। तथा निश्चय और व्यवहार चारित्र में परस्पर में मंत्री को बतलाते हुए इनको सापेक्षरूप से धारण करने का स्पष्ट आदेश दिया है उसी उभय चारित्र के प्रकरण के उपसंहार में उस श्लोक के द्वारा साधुओं को प्रेरित करते हुए कहा है कि आप लोग प्रारम्भ में उभयचारित्र में बार बार विचरण करते हुए आगे केवल निवृत्तिरूप निश्चयचारित्रमय निज आत्मा में तन्मय हो जावो । | उसी प्रकार मे - [ अब टीकाकार मुनिराज निश्चय प्रतिक्रमण के उत्तम फल की ओर लक्ष्य दिलाते हुए लोक कहते हैं- 1 ( ११५ ) श्लोकार्थ - जो विषय सुखों से विरक्त हैं, जो शुद्ध तत्त्व में अनुरक्त हैं. तपश्चरण में जिनका मन लीन है, जो शास्त्रों के समूह में मत्त आनन्दित' हैं, गुण मणियों के समूह से युक्त हैं, और सर्व संकल्पों से मुक्त हैं ऐसे परमतपोधन अमृतबधूटीमुक्तिबधू के बल्लभ- प्रियतम क्यों नहीं होंगे ? अर्थात् मुक्ति स्त्री के पति अवश्य होंगे । १. मदी - मद धातु हृर्ष में भी है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा परमार्थ प्रतिगण अधिकार मोत्तूरण सल्लभावं रिएम्सल्ले जो दु साहु परिणमदि । सो पडिकमणं उच्चइ, पडिकमरणमश्र हवे जम्हा ||८७ || मुक्त्वा शल्यभावं निःशल्ये यस्तु साधुः परिणमति : प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात् ॥ ८७ ॥ | जो माया मिथ्या औ निदान, रात्र शन्यभाव को तंग करके । चिन्मय चिंतामणि निजस्वरूप निःशल्यभाव में परिणामते ।। ही प्रतिक्रमण कहे जाते, क्योंकि वे प्रतिक्रमगामय हैं । साधू शुद्ध आत्मध्याती निज में ही निर्विकल्प है ||३|| [ २२१ इह हि निःशल्यभावपरिणतमहातपोधन एव निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युक्तः । स्त्रियतो निःशल्यस्वरूपस्य परमात्मनस्तावद् व्यवहारनयबलेन कर्मपंकयुक्तत्वात् विज्ञानमायामिथ्या शल्यत्रयं विद्यत इत्युपचारत: । अत एव शत्यत्रयं परित्यज्य परमनिः त्यस्वरूपे तिष्ठति यो हि परमयोगी स निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युच्यते यस्मात् स्वरूपगतवास्तवप्रतिक्रमणमस्त्येवेति । गाथा ८७ अन्वयार्थ --- [ यः तु साधुः शल्यभावं त्यक्त्वा ] जो साधु ल्यभाव का त्याग करके [निःशल्ये परिणमति ] निःशल्य भाव में परिणमन करता है | सः प्रतिक्रमणं चिच्यते ] वह प्रतिक्रमण कहा जाता है [ यस्मात् | क्योंकि [ प्रतिक्रमणमयो भवेत् ] वह प्रतिक्रमणमय होता है । टीका — निःस्यभाव से परिणत महातपोधन ही निश्चय प्रतिक्रमणस्वरूप ऐसा यहां पर कहा है । निश्यनय से आत्मा निःशल्यस्वरूप परमात्मा है, फिर भी व्यवहार के दिल से कर्मपंक से युक्त होने से उस आत्मा के निदान, माया और मिथ्या ये तीन शल्य विद्यमान हैं, ऐसा उपचार से कहा है । अतएव तीनों शल्यों का त्याग करके जो परमयोगी परम निःस्वरूप में स्थित होते हैं, वे निश्चयप्रतिक्रमण स्वरूप हैं, ऐसा कहा जाता है, क्योंकि स्वरूप को प्राप्त होना ही वास्तविक प्रतिक्रमण है । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] नियामगार --- ( अनुष्टुभ ) शल्यत्रयं परित्यज्य निःशल्ये परमात्मनि । स्थित्वा विद्वान्मदा शुद्धमात्मानं भावयेत्स्फुटम् ।।११६।। --- कषायकलिरंजितं त्यजतु चित्तमुच्चर्भवान् भवभ्रमणकारणं स्मरशराग्निदग्धं मुहः । स्वभावनियतं सुखं विधिवशादनासादितं भजत्वमलिनं यते प्रबलसंमृते तितः ॥११७।। ----------------- - - [अब टीकाकार मुनिराज शल्यहिन शुद्ध आत्मा की भावना से प्रेरित कर । हाए दो श्लोक कहते हैं-] - - - - - - । {११६) श्लोकार्थ-नानी शल्यों का परित्याग करके, शल्य रहित परमा में स्थित होकर विद्वान् साधु सदा रपाटन मे शुद्ध आत्मा की भावना कर । अर्या | शुद्ध निश्चयनय से शल्यादि विकल्पों से रहित जो शुद्ध है उसमें तन्मय होक | अनुभव करे। {११७) श्लोकार्थ-जो भत्र भ्रमण का कारण है, पुनः पुनः कामदेव वाणों की अग्नि से दग्ध है और कषाय की कलि-मल से रंगा हुआ है ऐसे चित्त | आप अत्यन्तरूप से छोड़ो, जो विधि-कर्म के वश से अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है ऐ । स्वभाव से नियत म्वाभाविक मृग्व है, वह अमलिन-निर्मल है। हे यति ! तुम प्रय संसार के भय से उस सुख का आश्रय लेबो । भावार्थ-आचार्य का कहना है कि अशुभ भावों से मलिन हुये चित्त । शुभ भावों से निर्मल करके स्वभाव में निश्चित रहने वाले ऐसे सहज परम सुख अनुभव करो। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थ प्रतिक्रमण अधिकार [ २२३ बत्ता अगुत्तिभावं' तिगुत्तिगुत्तो हवेइ जो साहू । सो पडिकमरणं उच्चइ, पडिकमरणमनो हवे जम्हा ॥५॥ त्यक्त्वा ह्यगृप्तिभावं त्रिगुप्तिगुप्तो भवेद्यः साधुः । स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात ।।८।। मन वचन काय की क्रियारूप, जो भाव अगुप्नी को त जकर | तीनों गुप्ती से गुप्त हुए, संपूर्ण विकल्पों को तबर।। वे ही प्रतिमा कहाते हैं, क्योंकि प्रतिक माम् है । शृद्धोपयोग में रत माघ स्वयमेव साध्या हो वे ।।८।। त्रिगुप्तिगुप्तलक्षणपरमतपोधनस्य निश्चयचारित्राख्यानमेतत् । यः परमतपइसरःसरसिरहाकरचंडचंडरश्मिरस्यासन्नभव्यो मुनीश्वरः बाहाप्रपंचरूपम् अगुप्ति गाथा ८८ अन्वयार्थ- [यः साधुः] जो माधु [ हि अगुप्तिभावं त्यक्त्वा । निश्चिताए अगुप्तिभाब का त्याग करके [ त्रिगुप्तिगुप्तः भवेत् ] नीन गुन्नियों मे गुप्त-सहितअरक्षित होते हैं, [सः प्रतिक्रमणं उच्यते] व-साधु प्रतिक्रमण कहलाते हैं. [ यस्मात ] बोंकि [प्रतिक्रमणमयः भवेत् ] वे प्रतिक्रमणमय हो जाते हैं । टीका-तीन गुप्नियों से गुप्न लक्षण वाले परमनपोधन के निश्चयचारित्र का यह कथन है । ह जो परम नपश्चरण वो ही हुआ सरोवर जो कि कमलों का आकार-ग्वान स्वरूप है उसके लिये प्रचंड किरण वाले सूर्य के समान, ऐसे अन्यासन्न भव्य-अतिनिकट भव्य मुनीश्वर बाह्यप्रपंचरूप अगुप्तिभाव-गुन्तिरहित अवस्था को छोड़कर त्रिगुप्ति से गुप्त निर्विकल्प परमसमाधि लक्षण से महित अनिअपूर्व-जिसका पूर्व में कभी नहीं प्राप्त किया है ऐसी आत्मा का ध्यान करते हैं, वे जिस हेतु में प्रतिक्रमणमयी परमसंयमी हैं उसी हेतु से ही वे निश्चय प्रतिक्रमणस्वरूप होते हैं । १. हि गुत्ति भावं (क) पाठान्तर । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . ' २२४ ] नियासार भावं त्यक्त्वा त्रिगुप्तिगुप्तनिविकल्पपरमसमाधिलक्षणलक्षितम् अत्यपूर्वमात्मानं ध्यायति, यस्मात् प्रतिक्रमणमयः परमसंयमी अत एव स च निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपो भवतीति । भावार्थ- यहां पर उत्कृष्ट तपश्चरण को सरोवर के कमलों की उपमा दी है और अति निकट भव्य मुनिराज को मूर्य बनाया है । जैसे सूर्य की प्रचंड किरणें कमलों को प्रफुल्लिन कर देती हैं वैसे ही वे मुनिराज तपश्चरण को विकमित करते हैं अथवा उन-उग्र तपश्चरणरूपी किरणों से अपनी आत्मारूपी कमलों को बिना देते हैं । वे मनिराज तीन गुप्तियों से अपने आपको पूर्ण सुरक्षित करके निर्विकल्प ध्यान में लीन हो जाते हैं, तभी अपूर्व-अपूर्व परिणामों से अपूर्वकरण गुणस्थान को प्राप्त होते हुए अपूर्व आत्मा के स्वरूप का अनुभव करते हैं वे ही तपोधन वीतरागचारित्र के साथ अविनाभावी से निश्चयरत्नत्रय से परिणत हुए निश्चयप्रतिक्रमण स्वम्प हो जाते हैं । वहा भी है-''जो' कर्म अज्ञानी जीव लक्षकोटि भवों मे ग्बपाना है वह कर्म तीन गुप्तियों से गुग्न हुआ क्षपकश्रेणी वाला ज्ञानी उच्छ्वास मात्र में क्षपित कर देता है।" यहां पर त्रिगुप्ति से सहित साधु को ही ज्ञानी कहा है. यह त्रिगुप्तावस्था वीतराग निविकल्प ध्यान में ही संभव है ।। कोटिजन्म तपनपं ज्ञान विन कर्म झरे जे । ज्ञानी के छिन मांहि त्रिगुनि त सहज टर ते ।। यहां पर जो त्रिगुप्ति त' शब्द है वह भी ऐसे ध्यानपरिणत माधु को ही मूचित करता है। जब जो मुनि त्रिगुप्ति से परिणत नहीं हैं उन साधारण-छठे गुणस्थानवर्ती मुनि को भी यहां पर 'ज्ञानी' शब्द से नहीं लिया है फिर असंयत और देशसंग्रत श्रावकों की बात तो बहुत ही दूर है। गुप्ति के उदाहरण के लिये देखिये राजा श्रेणिक ने जैन मुनियों की परीक्षा के लिये गुलरीति से राजमन्दिर में एक गड्ढे में हुड्डी, चर्म आदि भरवा दिये और रानी से कहा कि आप इस पवित्र १. जं अपणाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सास मत्तेण ।।२३८॥ [ प्रवचनसार ] २. अंशिकचरित, श्री शुभचन्द्र वि०, मर्ग ६, १० से । मा Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थप्रतिक्रमण अधिकार [ २२५ स्थान पर मुनियों को आहार देना । रानी चलना ने राजा के अभिप्राय को जान लिया . और धर्म का अपमान न होने पाये इस भाव से आहारार्थ आये हुये मुनियों को नमस्कार करके कहा--हे मनोगुप्ति आदि त्रिगुप्तिपालका पुरुषोत्तम मुनिराजों ! आप आहारार्थ राजमन्दिर में निाटं। इतना गनने की तीनों मनिराज दो उंगलियों को उठाकर वापस चले गये । अनंतर गुणसागर मनिराज अवधिज्ञानी थे वे त्रिगुप्ति के धारक थे आ गये, वे भोजनालय तक गये किंतु अवधिज्ञान के बल से उन्हें शीव ही अपवित्रता का ज्ञान हो गया और वे मौन छोड़कर स्पष्ट बात कहकर विना आहार किये वन में चले गये। अनन्तर राजा श्रेणिक ने प्रारम्भ में यापम गये मुनियों के पास जाकर विनम्र हो दो उंगली दिखाने के बारे में पूछा। प्रथम धर्मघोग मनिराज वोले गजन् ! मैं एक समय कौशांबी नगरी के मंत्री गाडवेग के घर पर आहार कर रहा था उनकी । पत्नी के हाथ में अकस्मात् एक ववल नीचे गिर गया, उम समय मरी दृष्टि नीने गई, गरुड़दत्ता के पैर का अंगूठा देग्यकार मरे मन में अचानक मेरी पत्नी लक्ष्मीमनी के अंगूठे की याद आगई । उस समय गे आज नक मेरे मनोगुनि की सिद्धि नहीं हुई है । अनन्तर द्वितीय मनि जिनपाल में प्रश्न करने पर उन्होंने कहा कि-भुमि तिलक के राजा बसुपाल की बमुकांना कन्या के लिये चंदप्रद्योतन का बम्पाल के साथ युद्ध हो रहा था । वनुपाल धर्मात्मा था उसके हारने का प्रसंग देखकर एक मनुष्य ने | कहा कि दर्शनार्थ आये हुये राजा को आप अभयदान दे दीजिये, परन्तु मैंने अपना १ कर्तव्य न समझ मौन रखा किंतु उस समय वनरक्षिका देवी ने दिव्य वाणी से अभयदान सूचक आशीर्वाद दे दिया। राजा ने तथा सवने मेरा आशीर्वाद ही समझा । कालांतर । मैं इसका स्पष्टीकरण भी हो गया फिर भी उसी कारण से मुझे आज तक बचनगन्ति की सिद्धि नहीं हुई है। पुनः मणिमाली मुनिराज से प्रश्न करने पर उन्होंन कहा कि मैं उग्रतपस्वी सिद्धांत का ज्ञाता पृथ्वी पर अकेला विहार करता हुआ उज्जयिनी के श्मशान में मुर्दे के आसन से ध्यान में लीन था। एक मंत्रवादी वैताली विद्या की सिद्धि के लिये मुझे मृतक समझ मस्तक पर एक चूल्हा रखकर मृत कपाल में खीर पकाने लगा। अग्नि की ज्वाला से यद्यपि मैं नरकादि दुःखों को स्मरण करने लगा, तथा आत्मा को शरीर Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DireATEHEK::.. २२६ ] नियमसार ( हरिणी) अथ तनुमनोवाचा त्यक्त्वा सदा विकृति मुनिः सहजपरमां गुप्ति संझानपुजमयीमिमाम् । भजतु परमां भव्यः शुद्धात्मभावनया समं भवति विशदं शीलं तस्य त्रिगुप्तिमयस्य तत् ॥११८।। से भिन्न चितवन करने लगा किंतु मेरा मस्तक हिलने से वह ग्वीर गिर गई और अग्नि शांत हो गई । किंतु मंत्रवादी डरकर भाग गया। प्रातः गांव से जिनदत्त सेठ आकर मुझे ले गये और तुकारी के यहां से लाक्षामूल तेल लाकर अनेकों औषधियों से मेरा उपचार किया । तबसे मुझे अभी तक कायगुप्ति की सिद्धि नहीं हुई है । "जो मनि विगुप्ति के पालक होते हैं वे नियम से अवधिज्ञानी होते हैं। तीनों में से यदि एक भी गप्ति नहीं है तो अवधि मन 'पर्यय और केवलज्ञान इनमें से एक ज्ञान भी प्रगट नहीं हो सकता है।" [ अब टीकाकार मुनिराज गप्ति कं महत्त्व को बतलाते हुए श्लोक वाहते हैं-] (११८) श्लोकार्थ-मन, वचन और कार की विकृति को सदा छोड़कर भव्य मुनिराज राम्यग्ज्ञान की पुजमयी इस सहज परम गप्ति को शुद्धात्मा की भावना से सहित उत्कृष्टरूप से भजो-संवन करो, क्योंकि त्रिगुप्तिमय उन साधु के ही बाई पवित्र शील होता है। भावार्थ-जो मनिराज पूर्णतया मन, वचन, काय के व्यापारों का निरोध कर देते हैं और शुद्ध आत्मतत्त्व में अपने उपयोग को स्थिर कर लेते हैं वे ही विशद शील अर्थात निश्चय चारित्र को प्राप्त कर लेते हैं । अनंतर त्रिगुप्ति के प्रसाद से घातिया कर्मों का नाश करके अठारह हजार शील के भेदों को पूर्ण करके .............- - -... -. ' aka". ... ... .nezniti . ... . . . Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थ - प्रतिक्रमण अधिकार मोत्तू प्ररुद्द, झारणं जो झादि धम्मसुक्कं वा । सो पडिकमणं उच्चड, जिणवरसिद्दिसुत्तेसु ॥६६॥ मुक्त्वार्तरौद्रं ध्यानं यो ध्यायति धर्मशुक्लं वा । स प्रतिक्रमणमुच्यते जिनवर निर्दिष्टसूत्रेषु ॥८॥ जो चार प्रकार आर्तध्यानों, श्री रौद्रध्यान को नज करके । चारों व धर्मध्यान करते, या शुक्लध्यान धरने रुचि मे ॥ जिनवर के भाषित सूत्रों में, वे ही प्रतिक्रमण कहते हैं। प्रतिक्रमणरूप से परिगत हो, मुनि प्रतिक्रमण बन जाते हैं ||२६|| सीलेसि संपत्ती रुिद्ध णिस्स आगवो जावो । कम्मर विपक्को रायजोगो केवली होई ॥३५॥ [ २२७ I अर्थ- जो अठारह हजार शील के भेदों के स्वामी हो चक है, जिनके कर्मों के आने आस्रव सर्वथा बंद हो गया है, तथा सत्त्व और उदय अवस्था को प्राप्त कर्मरूप रज की सर्वथा निर्जरा होने से उस कर्म से सर्वथा मुक्त होने के सन्मुख हैं, वे योग रहित केवली चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली कहलाते हैं । अभिप्राय यह हुआ कि त्रिप्ति के बिना ध्यान की सिद्धि असंभव है और ध्यान की सिद्धि के बिना कर्मों का नाश करना असंभव है तथा कर्मों के नाश हुए बिना सिद्धपद को प्राप्त करना जो कि शुद्ध निश्चयनय से आत्मा का ही स्वरूप है ऐसे आत्मा के शुद्धस्वरूप को प्राप्त करना असंभव ही है । गाथा ८६ अम्वयार्थ—-[यः] जो [ आर्लरौद्र मुक्त्वा ] आर्तध्यान और रौद्रध्यान को छोड़करके [ धर्मशुक्लं वा ध्यायति ] धर्मध्यान और शुक्लध्यान को ध्याता है [ सः ] यह साधु [ जिनवर निर्दिष्टसूत्रेषु ] जिनेंद्रदेव द्वारा कथित सूत्रों में [ प्रतिक्रमणं उच्यते ] प्रतिक्रमण कहा जाता है । १. गोम्मटसार जीवकांड | । किस Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार ध्यान विकल्पस्वरूपाख्यानमेतत् । स्वदेशत्यागात् द्रव्यनाशात् मित्रजन विदेश गमनात् कमनीयकामिनीवियोगात् अनिष्टसंयोगाद्वा समुपजातमार्तध्यानम्, चौरजार शाश्रवजनवधबंधनसनिबद्धहाद्व षजनितरौद्रध्यानं च एतद्वितयम् अपरिमितस्वर्गापवर्ग सुखप्रतिपक्षं संसारदुःखमूलत्वानिरवशेषेण त्यक्त्वा, स्वर्गापवर्गनिः सोमसुखमूल स्वात्मा श्रितनिश्चयपरमधर्मध्यानम्, ध्यानध्येयविविधविकल्प विरहितान्तर्मु खाकारसकलकरणग्रामातीतनिर्भेदपरमकलासनाथनिश्चयशुक्लध्यानं च ध्यात्वा यः परमभावभावना परिणतः भय्यवरपु 'डरीकः निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपं भवति, परमजिनेन्द्रवदनार वित्तः विनिर्गतद्रव्यश्रुतेषु विदितमिति । ध्यानेषु च चतुर्षु हेयमाद्यं ध्यानद्वितयं, त्रित तावदुपादेयं सर्वदोपादेयं च चतुर्थमिति । तथा चोक्तम् २२८ ] ध्यान के भेदों के स्वरूप का यह कथन है । अपने देश के त्याग में, अव्य के नाश से, मित्रजनों के विदेश चले जाने से सुन्दर स्त्रियों के वियोग में अथवा अनिष्ट के संयोग से उत्पन होने वाला आध्या है, और चोर, जार, शत्रुजनों के मारने, बांधने से सम्बन्धित महान् द्वंप भाव से उत्पन्न होने वाला रौद्रध्यान है, ये दोनों ध्यान अपरिमित स्वर्ग- मोक्ष मुख के विरोधी है क्योंकि ये संसार के दुःखों के मूलकारणभूत हैं इसलिये इन दोनों ध्यानों को संपूर्णतया छोड़ करके, स्वर्ग और मोक्ष के असीम सुख का मूल ऐसा जो अपनी आत्मा के आश्रि निश्चयपरम धर्मध्यान है और ध्यान ध्येय के विविध विकल्पों से रहित, अंतर्मुखाकार संपूर्ण इन्द्रिय समूह से अनील भेद रहित - अनंत स्वरूप परमकलाओं से सहित ऐसा निश्चय शुक्लध्यान है, इन दोनों ध्यानों को ध्याकर जो परमभावरूप पारिणामिकमा की भावना में परिणत हैं ऐसे भव्यवरजनों में भी उत्तम साधु निश्चय प्रतिक्रमण स्वरूप होते हैं, परमजिनेंद्रदेव के मुखकमल से निकले हुए द्रव्यश्रुतों में यह कथन किया गया है। टीका Plea - यहां चार ध्यानों में आदि के दो ध्यान हेय हैं, तीसरा ध्यान प्रारम्भ में उपादेय है और चौथा ध्यान सदा उपादेय है । कहा भी है Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थ - प्रतिक्रमण अधिकार ( अनुष्टुभ् ) "निष्क्रिय करणातीतं ध्यानध्येयविवजितम् । अन्तर्मुखं तु यद्धधानं तच्छुक्लं योगिनो विदुः ॥" [ २२६ " श्लोकार्थ - जो ध्यान क्रिया रहित होने में निष्क्रिय है- अचल है, इन्द्रियों जतीत परे है, ध्यान ध्येय के विकल्प से रहित है और अंतर्मुख है उस ध्यान की योगोजन शुक्लध्यान कहते हैं । " विशेषार्थ - इस संहनन वालों के एकाग्रता निरोध को ध्यान कहते हैं. यह उत्कृष्टता अंतर्मुहर्त तक हो सकता है। अर्थात् गमन, भोजन, शयन, अध्ययन आदि विविध क्रियाओं में भटवाने वाली चिनवृत्ति का एक क्रिया में रोक देना निरोध कहलाता है | द्रव्यपरमाणु या भावपरमाणु या आत्मा आदि किसी अन्य अर्थ में चित्तवृत्ति को केंद्रित करना ध्यान है । इस ध्यान के चार छेद हैं- आनं रौद्र, धर्म और शुक्ल । ऋत-दुःख-पीड़ा में उत्पन्न हुआ ध्यान आर्तध्यान है, उसके भी बारविष, कंटक, शत्रु आदि अप्रिय वस्तुओं के मिल जाने पर ये मुझसे कैसे दूर हो इस प्रकार की सब चिन्ता आर्तध्यान है अर्थात् स्मृति को दूसरे पदार्थ की और न जाने देकर बार-बार उसीमें लगाये रखना, ऐसा यह अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है । इष्ट वस्तु के वियोग होने पर पुनः उसकी प्राप्ति के लिये चिंता करना इष्ट वियोग ध्यान है । शरीर में रोग से वेदना होने पर आकुल होकर बार बार चिंतन करना वेदनाजन्य आर्तध्यान है । प्रीतिविशेष आदि से आगामी भव में कायक्लेश के बदले विषय मुखों की चाह करना निदान आर्तव्यान है । १. तत्वार्थ वा. प्र. ६, सू. २७ से Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायक २३० ] नियमसार मद्र क्रूर परिणामों से हुआ ध्यान रौद्रध्यान है, इसके भी चार भेद हैंहिंसा में आनन्द मानना हिंसानंदी, असत्य में आनन्द मानना मृषानंदी, चोरी में आगे मानना चौर्यानंदी और परिग्रह के संग्रह में आनन्द मानना परिग्रहानंदो ऐसे ध्यान हैं । धर्मयुक्त ध्यान धर्म्यध्यान है, इसके भी चार भेद हैं- सर्वज्ञप्रणीत आ को प्रमाण मानकर 'यह ऐसा ही है जिनेन्द्रदेव अन्यथावादी नहीं होते हैं इस निश्चय करना आज्ञाविचय धर्म्यध्यान है । सर्वज्ञ के मार्ग से त्रिमुख जीव सन्मार्ग से दूर होकर उन्मार्ग में भटक रहे कैसे ये सुपथगामी बनें ? उसप्रकार का चितन अपायवित्रय है । कर्मों के फलों का विचार करना विपाकविचन है । और लोक के स्वभाव, संस्थान द्वीप, नदी आदि के स्वरूप का विचार क संस्थान विचय है । जब तक इन विषयों में चिंतन धारा चलती है तब तक ये ज्ञान रूप हैं, जब उनमें चिंतन धारा एकाग्रचितानिरोधरूप से केन्द्रित हो जाती है तभी ये घ्या कहलाते हैं । निर्मल गुणरूप आत्मपरिणति में शुक्लध्यान होता है उसके भी चार भेद पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रिया निवृत्ति । इनमें से आदि के आर्तरोदध्यान संसार के ही कारण हैं। अंत के दो शुक्लध्यान मोक्ष के हेतु हैं' । आर्तध्यान छठे गुणस्थान तक हो सकता है परन्तु छठे निदान नहीं होता है । रौद्रध्यान पांचवें तक हो सकता है। धर्म्यध्यान चौथे से सा गुणस्थान तक है और प्रथम शुक्लध्यान आठवें से ग्यारहवें तक है, द्वितीय बारहवें है, ये दोनों शुक्लध्यान द्वादशांगपाठी 'श्रुतकेवली को ही होते हैं । अन्तिम दोनों शुक् ध्यान केवली के होते हैं । १. "परे मोक्षहेतु" ॥२६॥ तत्वा । २. 'शुक्ले चाग्रे पूर्वविदः ||३७|| तत्वा. Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थ- प्रतिक्रमण अधिकार ( वसन्ततिलका ) ध्यानावलीमपि च शुद्धनयो न वक्ति व्यक्तं सदाशिवमये परमात्मतत्त्वे । सास्तीत्युवाच सततं व्यवहारमार्गस्वस्थं जिनेन्द्र तदही महदिन्द्रजालम् ।।११६ ।। [ २३१ गृहोपयोग में मुख्यरूप से शुक्लध्यान विवक्षित है। परमान्नप्रकाश में कहा । भी है — "दिव्य जोओ" द्वितीयशुक्लध्यानाभिधानो वीतराग निर्विकल्पसमा समाधिरूपो दिव्ययोगः कथंभूतः ? मोक्खदो मोक्षप्रदायकः द्वितीय शुक्लध्यान नामका वीतराग fafaeeraa दिव्यगोक्ष का प्रदायक है । [अब टीकाकार श्रीमुनिराज निश्चय व्यवहारनय में ध्यान को बनाने हुए दो लोक कहते है- ] ( ११६ ) श्लोकार्थ - व्यक्तम्प से सदाशिवमय अनादिनिधन शिवस्वरूप परमात्मतन्त्र के होने पर शुद्धनय ध्यान समूह को भी नहीं कहता है । 'वह ध्यानावली है - ध्यान समूह हैं इसप्रकार से हमेशा व्यवहार मार्ग कहता है । है 'जनेंद्र ! आपका यह तत्त्व, अहो ! महा इंद्रजाल स्वरूप है । भावार्थ — शुद्धनिश्चयनय से सभी संमारी जीवराणि सदा यही है किसी को कर्मलेप है ही नहीं, पुनः आत्मा के सदाशिवरूप सिद्ध हो जाने पर जब कर्म का सम्बन्ध ही नहीं है तब कर्मबन्ध के हेतु अथवा कर्मनाश के हेतुभूत ध्यान भी कैसे उदित होंगे ? इसलिए शुद्धनय ध्यान को उसके भेद प्रभेदों को मानता ही नहीं है । जो कुछ यह संसार- मोक्ष की या ध्यान आदि की व्यवस्था है उसको कहने वाला व्यवहारमार्गी, व्यवहारनय ही है । आचार्य कहते हैं कि हे भगवन् ! आपका यह तत्त्व महान इंद्रजालरूप आश्चर्यकारी है। इसका अर्थ यह नहीं है कि यह इंद्रजाल के समान मिथ्या है किंतु जैसे इंद्रजाल के खेल को समझना अत्यन्त कठिन है वैसे ही आपके इन नयचक्रों को समझना भी अत्यन्त गहन है । इसी बात को श्री अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा है Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ] नियमसार "इति विविध भंगगहने सुदुस्तरे मार्गमूढदृष्टीनाम् । गुरवो भवंति शरणं प्रबुद्धनयचक्रसञ्चारा:' ॥५८।। अर्थ-इसप्रकार विविध भेदों से गहन मृदुस्तर जिनशासन में मार्ग से मूढ़ हुए जीवों को नयचक्र के संचार को जानने वाले गुरु महाराज ही शरण होते हैं । इसमें जो 'सदाशिव' शब्द आया है अन्य सम्प्रदायों में एक वैशेषिक संप्रदाय वाले हैं। जो ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानते हैं उनके यहां कहा है- “सदैव मुक्त सदैवेश्वरः पूर्वस्याः कोटे मुक्तात्मानमिवाभावात्" इत्यागमान्महेश्वरस्य सर्वदा कर्मणामभावप्रसिद्ध :-"वह ईश्वर सदा ही मुक्त है, सदा ही ऐश्वर्य मे युक्त है क्योंकि जिस प्रकार मुक्तात्माओं के पूर्व-गली बंधकोटि रहती है उसप्रकार ईश्वर के नहीं है। इस आगम से महेश्वर के सदा ही कगों का अभाव सिद्ध है । "शाश्वत्कर्ममलरम्पृष्टः परमात्माऽनुपायसिद्धत्वात्" भगवान् परमात्मा सदा कर्ममलों से अस्पृष्ट हैं, क्योंकि अनुगायसिद्ध हैं—उपायपूर्वक तपस्या आदि करके मुक्त नहीं हुये हैं। इस वैशेषिक की मान्यता पर आचार्य श्री विद्यानंद महोदय कहते हैं नाम्पृष्टः कर्मभिः शश्वद्विश्वदृश्वास्ति कश्चन । तस्थानुपायसिद्धस्य सर्वथानुपपत्तितः ॥९॥ अर्थ-कोई सर्वज्ञ हमेशा कर्मों से अस्पृष्ट नहीं है, क्योंकि वह प्रमाण से अनुपायसिद्ध प्रतिपन्न नहीं होता है। यहां पर जैनाचार्य इन लोगों का खण्डन करके भी जो परमात्मा को स्वयं सदाशिव कह रहे हैं उसमें केवल शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से कथन है कि शुद्ध निश्चयनय औपाधिक अवस्था को मानता ही नहीं है, वस्तु के वास्तविक स्वरूप को ही कहता है । १. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय । २. [योगाद, भाष्य, १-२४ ] आप्त परीक्षा पृ. ३०-३१, ३२ । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थ प्रतिक्रमण अधिकार ( वसंततिलका ) परमात्मतत्त्वं मुक्त विकल्पनिकरैरखिलैः समन्तात् नास्त्येष सर्वनयजातगत प्रपंचो ध्यानावली कथय सा कथमत्र जाता ।। १२० ।। सबोध मंडनमिदं मिच्छत्तपहुदिभावा, पुष्यं जोवेरण भाविया सुइरं । सम्मत्तपहुविभावा, प्रभाविया होंति जीवेण ॥६०॥ मिथ्यात्वप्रभृतिभावा: पूर्व जीवेन भाविताः सुचिरम् । सम्यक्त्वप्रभृतिभावाः प्रभाविता भवन्ति जीवेन ॥ ६० ॥ मिथ्यात्व असंयत आदि भाव, जो भव के बीज बनाये हैं। गहने अनादि से लेकर के अब न कि जीवने भाये हैं | सम्यक्त्व विरति शुभ-श भाव मुक्ति के बीज बनाये हैं । उन भावों को अब तक भी तो, दोनों ने नहि भागे हैं | [ २३३ ( १२० ) श्लोकार्थ - सम्यग्ज्ञान का मंडन - आभूषणस्वरूप यह परमात्मतत्व संपूर्ण विकल्प के समूहों से सब तरफ से मुक्त है। यह समस्त नथों के समूह से होने बाला विस्तार इस परमात्मतत्त्व में नहीं है, न आप ही कहिये वह ध्यानसमूह यहां कैसे हो सकता है ? भावार्थ --- जब अनादि निधन परमात्मतत्त्व स्वयं सिद्धस्वरूप है तब साधन स्वरूप ध्यान के भेदों की उसे क्या आवश्यकता है ? यद्यपि व्यवहार नय से सयोग केवली और अयोग केवली के भी ध्यान माने हैं। क्योंकि उनके कर्मनाशरूप कार्य को देखकर कारण का अस्तित्व माना गया है, किन्तु वहां पर भी ध्यान उपचार से ही है । गाथा ६० अन्वयार्थ - [जीवेन ] जीव ने [ पूर्वं सुचिरं ] पूर्व में चिरकाल तक [मिथ्यास्वप्रसृतिभावाः भाविताः] मिथ्यात्व आदि भाव भावित किये हैं, ( किन्तु ) [ सम्यप्रमृति भावाः ] सभ्यक्त्व आदि भाव [ जीवेन ] जीव ने [ अभाविताः भवंति ] भावित नहीं किये हैं । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ad... - २३४ ] नियमसार आसनानासन्नभव्यजीवपूर्वापरपरिणामस्वरूपोपन्यासोऽयम् । मिथ्यात्वावतकषाययोगपरिणामास्सामान्य प्रत्ययाः, तेषां विकल्पास्त्रयोदश भवन्ति मिच्छाविट्ठीमागी | जाव सजोगिस्स चरमत' इति वचनात, मिथ्याष्टिगुणस्थानादिसयोगिगुणस्थानचरम• समयपर्यतस्थिता इत्यर्थः । अनासन्नभव्यजीवेन निरंजननिजपरमात्मतत्त्वश्रद्धानविफलेन पूर्व सुचिर। भाविताः खलु सामान्यप्रत्ययाः, तेन स्वरूपविकलेन बहिरात्मजीवेनानासादितपरमनैष्कर्म्यचरित्रेण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि न भावितानि भवन्तीति । अस्य मिथ्यादृष्टेविपरीतगुणनिचयसंपन्नोऽत्यासनमध्यजीवः । अस्य सम्यग्ज्ञानभावना कथमिति चेत् टीका-आसन्न भन्य और अनासन्न भव्य जीव के पूर्वापर परिणामों के | म्वका का यह कथन है । मिथ्याव, अवन, कपाय और योग ये परिणाम मामान्यप्रत्यय-सामान्य कर्म | बंब के कण बाहलाते है. उनके तेरह भेद होते हैं, "मिथ्यादष्टि आदि से लेकर सयोग कवी पयंत होते हैं" मा परमागम का वचन है, अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से ] लेकर मयोग केवली गुणस्थान के चरमममय पर्यंत स्थित हैं, यह अर्थ हुआ। निरंजन निज परमात्मनन्य के श्रद्धान से रहित हुयं दूरवर्ती भव्य जीव ने | पूर्व में चिन्काल तक निश्चित रूप में सामान्यप्रत्ययों की भावना को है । जिसने परम् । नकम-निश्चल चारित्र को प्राप्त नहीं किया है ऐसे स्वरूप के ज्ञान मे रहित उम। बहिरात्मा जीव ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को भावित नहीं किया। है । और इस मिथ्यादृष्टि जीव से विपरीत गुण समूहों से संपन्न हुआ जीव अत्यासन्नअतिनिकट भव्यजीव है। इस अतिनिकट नव्यजीव के सम्यग्ज्ञान की भावना किसप्रकार से होती है ? पमा प्रदान करने पर १. सामण्यापच्च या ग्वन चउरो भण्णंति बंधकनारी । मिच्छत्तं अबिरमण कसायजोगा य बोद्धव्वा ।।१०९।। तेसि पुणो वि य इमा भणिदो भेदो दु तेरस विएप्पो। "मिच्छादिट्ठी यादी जाव सजोगिस्स चरमंतं" ॥११०।। (समयसार) - .- -.- : Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३५ परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार तथा चोक्त श्रीगुणभद्रस्वामिभि: ( अनुष्टुभ् ) "भावयामि भवावर्तेभावनाः प्रागभाविताः । भावये भाविता नेति भवाभावाय भावनाः ॥" तथा हि उसीप्रकार धी गुणभद्रस्वामी ने कहा है-- "श्लोकार्थ-भव के आवन में पहले नहीं भायी हुई रोमी गावना को मैं भाता है। और जिन की भावना की है उनको नहीं भाता हूं, क्योंविः इसप्रकार की भावनायें भव का अभाव करने वाली हैं' ।' भावार्थ--पुनः पुनः जिनका चिन में चितवन किया जाता है उन्हें भावना कहते हैं पुर्व में जिनको नहीं भाया है ऐसी सम्यग्दर्शन आदि भावनायें हैं, और जिनको पहले से भाया है ऐसी मिथ्यादर्शन आदि भावनायें हैं । इस संसार भबर में फंसकर मैंने जिन सम्यग्दर्शन आदि भावनाओं का चिनवन नहीं किया है उनका अब चितवन करता हैं और जिन मिथ्यादर्शन आदि भावनाओं का बार बार चितवन कर चुका है उनको अब छोड़ता हूं : पूर्व भावित भावनाओं को छोड़कर अपूर्व भावनाओं को भाता हूं क्योंकि इस प्रकार की भावनायें संसार के नाश का कारण होती हैं । उसीप्रकार [टीकाकार श्री मुनिराज अपूर्व अद्वैत एक ज्ञानभावना को भाने के लिये प्रेरित करते हुए श्लोक कहते हैं-] १. आत्मानुशासन इलो० २३८ । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] नियममार ( मालिनी ) अथ भवजलराशौ मग्नजीवेन पूर्व किमपि यचनमात्रं नि ते: कारणं यत् । तदपि भवभवेषु श्रूयते वाह्यते वा न च न च बत कष्टं सर्वदा ज्ञानमेकम् ।।१२।। (१२१) श्लोकार्थ-इस संसार समुद्र में डुबे हुये जीव ने पूर्व में निर्वाण के कारण रूप ऐसे कुछ भी जो वचनमात्र है उन वचनमात्र को भव भय में सुना है अथवा धारण भी किया है, किन्तु बड़े दुःग्य की बात है कि मर्वदा एक ज्ञानस्वरूप को । नही सुना है और न धारण ही किया है । भावार्थ- अर्थात् जिनवचन मात्र को भावों से रहित होकर इरा जीव ने सूना भी होगा और कुछ न कुछ अंग में धारण भी किया होगा किंतु मोक्ष के लिये साक्षात कारण से अभेद रत्नत्रय म्बमा एक अनाप ज्ञान को नहीं प्राप्त किया है। समयसार में कहा भी है "हि नस्य भेदनानरय मध्ये गानकवभेदनयेन वीनगगचारित्रं वीतरागसम्यक्त्वं च लभ्यते इति सम्यग्ज्ञानादव बंधनिराधसिद्धिः' ।" । उम भेदज्ञान में ठंडई के समान अभेदनय से बीनरागचारित्र और वीतराग- : सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है, इसलिये राम्यग्ज्ञान से ही बंध के निरोध की सिद्धि हो । जाती है । अर्थात् जहां पर ज्ञानमात्र में बंध का अभाव होता है ऐसा कहा है वहां पर । उस ज्ञान के साथ वीतरागचारित्र और वीतरागसम्यक्त्व अविनाभावी हैं, मतलब वह निश्चयरत्नत्रयरूप अवस्था विशेष का ज्ञान है । यहां पर थी पद्मप्रभमल धारिदेव महामुनि को भी वही ज्ञान विवक्षित है। १. गाथा ७२, टीका जग्रसेनाचार्यकृत पृ० ११७ । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म परमार्थ - प्रतिक्रमण अधिकार गिरवसे सेरग । मिच्छादनापचरितं च सम्मत्तणाणचरणं, जो भावइ सो पडिक्कमरणं ॥ ६१ ॥ मिथ्यादर्शनज्ञानचरित्रं त्यक्त्वा निरवशेषेण । सम्यक्त्वज्ञानच रणं यो भावयति स प्रतिक्रमणम् ||१|| मिथ्यादर्शन मिथ्यात्वज्ञान, मिथ्याचरित्र भय के कारण । इनको संपूर्णतया तजकर, जो करने अशुभ भाव वारण || जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित को निशदिन माने रहते हैं । ही प्रतिक्रमण कहते हैं, क्योंकि वे निज में रहते हैं ।। ६९ ।। [ २३७ श्रत्र सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां निरवशेषस्वीकारेण मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राणां नरवशेषत्यागेन च परममुमुक्षोनिश्चयप्रतिक्रमणं भवति इत्युक्तम् । भगवदर्हत्परमेश्वरमार्ग प्रतिकूल मार्गाभास मार्गश्रद्धानं मिथ्यादर्शनं तत्रैवावस्तुनि वस्तुबुद्धिमिथ्याज्ञानं, सन्मार्गाचरणं मिथ्याचारित्रं च एतत्त्रितयमपि निरवशेषं त्यक्त्वा, अथवा स्वात्मश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानरूपविमुखत्वमेव मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रात्मक रत्नत्रयम् एतदपि त्यक्त्वा । , गाथा ६१ अन्वयार्थ -- [ मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रं ] मिथ्यादर्शन. मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को [ निरवशेषेण ] संपूर्ण रूप मे [ त्यक्त्वा ] छोड़कर [ सम्यक्त्वज्ञानचरणं ] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को [ यः ] जो साधु [ भावयति ] भावित करता है, [सः प्रतिक्रमणं ] वह साधु प्रतिक्रमणरूप है | टीका — सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र को संपूर्णतया स्वीकार करने से और मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्र को परिपूर्णरूपतया त्याग करने से परम मुमुक्षु - महामुनि के निश्चयप्रतिक्रमण होता है, यहां पर ऐसा कथन किया है । भगवान् अर्हत परमेश्वर के मार्ग के प्रतिकूल जो मार्गाभास है उसमें मार्ग से श्रद्धान करना मिथ्यादर्शन है, उसी अवस्तु में वस्तु की वृद्धि होना मिथ्याज्ञान है, और उनके कथित मार्ग का आचरण करना मिथ्याचारित्र है, इन तीनों का संपूर्णरूप से त्याग करके अथवा अपने आत्मस्वरूप का श्रद्धान उसी का परिजान और उसी में अनुष्टानस्थिरता रूप से चारित्र ऐसे निश्चयरत्नत्रय मे विमुख होना ही मिथ्यादर्शन, ! Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार २३८ ] त्रिकालनिरावरण नित्यानंदेकलक्षण निरंजन निजपरमपारिणामिकभावात्मक कारणपरमात्मा ह्यात्मा, तत्स्वरूप श्रद्धानपरिज्ञानाचरणस्वरूपं हि निश्चयरत्नत्रयम्, एवं भगवत्परमात्मसुखाभिलाषी यः परमपुरुषार्थपरायणः शुद्धरत्नत्रयात्मकम् श्रात्मानं भावयति स परमतपोधन एव निश्चय प्रतिक्रमणस्वरूप इत्युक्तः । ( वसंततिलका } त्यक्त्वा विभावमखिलं व्यवहारमार्गरत्नत्रयं च मतिमान्निजतत्त्ववेदी । शुद्धात्मनियतं निजबोधमेकं श्रद्धानमन्यदपरं चरण प्रपेदे ।।१२२ ॥ मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप रत्नत्रय है, इनकी भी छोड़कर, त्रिकाल में निरावरण नित्य ही एक स्वरूप निरंजन निज परमपारिणामिक भावात्मक जो कारण परमात्मा है, यह आत्मा ही है। उसके स्वरूप का श्रद्धान, परिजान और उसी में आचरणस्वरूप ऐसा जो निश्चयरत्नत्रय है। इसप्रकार जो भगवान् परमात्मा के सुख के अभिलापी महामुनि परमपुरुषार्थ- मोक्ष पुरुषार्थ में तत्पर हुए उस शुद्ध रत्नत्रयस्वरूप आत्मा की भावना करते हैं वे परम तपोधन ही निश्चयप्रतिक्रमण स्वरूप हैं ऐसा कहा है । [ अब टीकाकार श्री मुनिराज निश्चयरत्नत्रय में प्रेरित करते हुए श्लोक कहते हैं— ] ( १२२ ) श्लोकार्थ- संपूर्ण विभावभावों को और व्यवहारमार्ग के रत्नत्रय को छोड़कर जो निजतत्त्व का अनुभव करने वाला बुद्धिमान - साधु शुद्धात्मतत्त्व में नियत - निश्चित ऐसा जो एक निजबोध है, अन्यरूप-निश्चय श्रज्ञान है और अपरनिश्चयरूप जो चारित्र है उनको प्राप्त कर लेता है । - विशेषार्थ - यहां पर विभावभावों को छोड़ने का उपदेश दिया है वैसे ही। व्यवहाररत्नत्रय को भी छोड़ने का कथन है, क्योंकि उसको छोड़े बिना निश्चयरत्नत्रय की प्राप्ति नहीं हो सकती है। किंतु इस पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है। कि व्यवहाररत्नत्रय छोड़ा नहीं जाता है किंतु निर्विकल्पध्यान की अवस्था में निश्चय Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज परमार्थ प्रतिक्रमण अधिकार उत्तमप्रट्ठे श्रावा तम्हि ठिदा हरणदि मुणिवरा कम्मं । तम्हा दु शाणमेव हि उत्तमप्रट्ठस्स पडिकमणं ॥६२॥ उत्तमार्थ आत्मा तस्मिन् स्थिता घ्नन्ति मुनिवराः कर्म । तस्मात्तु ध्यानमेव हि उत्तमार्थस्य प्रतिक्रमणम् ॥६२॥ उत्तमपदार्थ यह आत्मा ही जो उसमें स्थिर बसते हैं त्रे मुनिवर उत्तमार्थ प्रतिक्रम करके कर्मों को हनते हैं || इसलिये ध्यान ही वास्तव में, बस उत्तमार्थ प्रतिक्रमण कहा । जो निर्विकल्प ध्यानी साधू, उनते ही परमानंद नहीं ।।२।। | २३ε रत्नत्रय के होने पर वह स्वयं ही छूट जाता है वहां पर बुद्धिपूर्वक छोड़ना या ग्रहण करना नहीं होता है । सोही समयमार में टीकाकार श्री जयसेनाचार्य ने कहा है "निर्विकल्पसमाधिकाले तस्य स्वयमेव प्रस्तावो नास्ति । नित्रिकल्प समाधि के समय व्रत और अव्रत का स्वयं ही प्रकरण नहीं रहता है । और भी कहा है कि "निविकल्पसमा निश्चये स्थित्वा व्यवहारस्त्याज्यः किंतु तस्यां त्रिगुप्तात्रस्थायां व्यवहारः स्वयमेव नास्तीति तात्पर्यार्थः । निर्विकल्प समाधिरूप निश्चयरत्नत्रय में स्थित होने पर व्यवहार त्याग करने योग्य है, किंतु उस तीन गुप्ति से महिन अवस्था में व्यवहार स्वयं ही नहीं है ऐसा महां तात्पर्य है । इसलिये जैसे मिध्यात्व अविरति आदि को छोड़ा जाता है, वैसे ही व्यवहार रत्नत्रय को छोड़ने का प्रसंग नहीं आता है किंतु उत्कृष्ट ध्यान में लीन होने पर स्वयं ही व्यवहाररत्नत्रय छूट जाता है। ऐसा समझना । गाथा ६२ अन्वयार्थ--[उत्तमार्थः] उत्तम अर्थ - पदार्थ [आत्मा] आत्मा है, [तस्मिन् स्थिताः मुनिवराः ] उस उत्तमार्थ में स्थित हुए मुनिवर [ कर्म घ्नंति ] कर्म का घात १. गाथा १५४ टीका पृ. २१६ । २. गाथा २७६, २७७ की टीका में पृ. ३५७ । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I २४० ] नियमसार अत्र निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणस्वरूपमुक्तम् । इह हि जिनेश्वरमार्गे मुनीनां सल्लेखनासमये हि द्विचत्वारिंशद्भिराचार्यदेत्तोसमार्थप्रतिक्रमणाभिधानेन देहत्यागी धर्मो व्यवहारेण, निश्चयेन नवार्थेषूत्तमार्थो ह्यात्मा तस्मिन् सच्चिदानंदमयकारणसमयसारस्वरूपे तिष्ठन्ति ये तपोधनास्ते नित्यमरणभीरव:, अत एव कर्मविनाशं कुर्वन्ति । तस्मादध्यात्मभाषयोक्त मेदकरणध्यानध्येय विकरूपविरहितनिरवशेषेणान्तर्मुखाकारसकले - न्द्रियागोचरनिश्चय परमशुक्लध्यानमेव निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणमित्यवबोद्धव्यम् । कि च, निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमखं स्वात्माश्रयनिश्चयधर्म्य शुक्लध्यानमयत्वाद मृतकुम्भस्वरूपं भवति, व्यवहारोत्तमार्थप्रतिक्रमणं व्यवहारधर्मध्यानमयत्वाद्विषकुम्भस्यरूपं भवति । तथाचोक्तं समयसारे कर देते हैं, [ तस्मात् तु ] इसलिए [ ध्यानं एवं ] ध्यान ही [हि ] निश्चितरूप से [उत्तमार्थस्य ] उत्तमार्थ का [ प्रतिक्रमणं ] प्रतिक्रमण है । टीका- यहां पर निश्चय उत्तमार्थ प्रतिक्रमण के स्वरूप को कहा है। यहां पर श्री जिनेश्वर के मार्ग में मनियों की सल्लेखना के समय में निश्चितरूप से व्यास आचार्यो के द्वारा उनमार्थ प्रतिक्रमण इस नाम से दिया जाने से देहत्यागरूप धर्म व्यवहार में होता है । अर्थात् सल्लेखना के समय आचार्य मृनि को. उनमार्थं प्रतिक्रमण सुनाकर चत्विव आहार का त्याग कराते हैं यह व्यवहार उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है । और निश्चयनय से नव अर्थ- नव पदार्थों में उत्तम पदार्थ आत्मा ही है जो तपोवन सच्चिदानंदमय कारण समयसार रूप उस आत्मा में स्थित होते हैं वे नित्य ही मरण मे भीम हैं, इसीलिए वे कर्म का विनाश करते हैं । अतः अध्यात्मभाषा से कहे गये जो भेद को करने वाले ध्यान और ध्येय के विकल्प हैं उनसे रहित, निरक शेष रूप से अंतर्मुखाकार, संपूर्ण इंद्रियों से अगोचर निश्चय परम शुक्लध्यान ही निश्चय उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है ऐसा समझना चाहिए । दूसरी बात यह है कि यह निश्चय उत्तमार्थ प्रतिक्रमण अपने आत्मा आश्रयभूत निश्चय धर्मध्यान, शुक्लध्यानमय होने से अमृत कुंभस्वरूप होता है, व्यवहार उत्तमार्थ प्रतिक्रमण व्यवहार धर्मध्यानमय होने से विषकु भस्वरूप होता है । समयसार में कहा है Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थ- प्रतिक्रमण अधिकार "पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य । जिंदा गरहा सोही अट्ठविहो होइ विसकुम्भो ॥" तथा चोक्त समयसारख्याख्यायाम्- ( वसन्ततिलका ) "वष्ट प्रतिकन एव दिये प्रमो तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात् । गाथार्थ -- "प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्दा और शुद्धि ये आठ प्रकार के विषकुम्भ हैं ।" उसी प्रकार से समयसार की व्याख्या में भी कहा है श्लोकार्थ जहां पर प्रतिक्रमण ही विपरूप कहा है, वहां अप्रतिक्रमण ही अमृत कैसे हो सकेगा ? तो फिर जन-साधु नीचे-नीचे गिरते हुए प्रमाद क्यों करते हैं ? क्यों नहीं प्रमाद रहित होकर ऊपर-ऊपर चढ़ते हैं ? [ २४१ विशेषार्थ - यहां गाथा में श्री कुंदकुंद देव ने निश्चयरूप उनमार्थ प्रतिक्रमण को शुद्धोपयोगी महामुनियों में घटित किया है। अतः व्यवहार उत्तमार्थ के लक्षण को आचार शास्त्रों से समझ लेना भी जरूरी है। ऐर्यापथिक आदि सात प्रकार के प्रतिक्रमणों में यह उत्तमार्य प्रतिक्रमण अंतिम कहलाता है । अनगार धर्मामृत में इसका लक्षण ऐसा है- “’उत्तमार्थो निःशेषदोषालोचनपूर्वकाङ्गविसर्गसमर्धा यावज्जीवं चतुविधाहारपरित्यागः " निःशेष दोषों की आलोचनापूर्वक शरीर के त्याग में समर्थ ऐसा जो जीवनपर्यंत के लिये चार प्रकार के आहार का परित्याग करना वह उत्तमार्थं प्रतिक्रमण है । इस प्रतिक्रमण को करने वाले मुनियों की सल्लेखना के प्रसंग में यहां पर टीकाकार ने १. समयसार गाथा ३०६ । ३. अनगार धर्मामृत पृ. ५७८ । २. समयसार कलश, १८६ । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ] नियममार तल्कि प्रमाचति जनः प्रपतन्नधोऽध: कि नोर्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमावः ॥" --.. -. .---- .... -- - -- - - ----- ब्यालीस आचार्यों के काम उत्तमा प्रतिमा बगाने का निमार बतलाया है। अन्यत्र आचार ग्रंथों में इसी प्रसंग में ४८ निर्यापकों का विधान है। वह इस प्रकार हैसल्लेखना ग्रहण करने वाले आचार्य अपने संघ को छोड़कर पर संघ में जाकर अन्य आचार्य की शरण लेते हैं वे सल्लेखना कराने में कुशल आचार्य निर्यापकाचार्य कहलाते हैं। ___ "वह क्षपक निर्यापकाचार्य पर अपना सम्पूर्ण भार सौंपकर संस्तर पर आरोहण करता है और विधिवत् मल्लेखना को प्रारम्भ करता है। स्थिर बुद्धि वाले, धर्मप्रेमी, पापभीरु आदि अनेक गुणों से सम्पन्न और प्रत्याख्यान के ज्ञाता ऐसे परिचारक क्षपक की शुश्रूषा के योग्य माने गये हैं ऐसे निर्यापक यति अड़तालीस होते हैं । ये ४८ निर्यापक यति क्या-क्या उपकार करते हैं उसे बताते हैं निर्यापकाचार्य क्षपक की शरीर सेवा के लिये चार परिचारक मुनि नियुक्त करते हैं, चार मुनि धर्मकथा सुनाते हैं, चार मुनि क्षपक के आहार की व्यवस्था करते हैं, चार मुनि क्षपक के योग्य आहार के पेय पदार्थों की व्यवस्था करते हैं, चार मनि निष्प्रमादी हुये आहार की वस्तुओं की देखभाल करते हैं, चार मुनि क्षपक के मल- . मूत्रादि विसर्जन, बसतिका, उपकरण, संस्तर आदि को स्वच्छ करते हैं, चार मनि क्षपक की बसतिका के दरवाजे पर प्रयत्नपूर्वक रक्षा करते हैं अर्थात् असंयत आदि अयोग्यजनों को भीतर आने से रोकते हैं, चार मुनि उपदेश मंडप के द्वारों के रक्षण करने का भार लेते हैं, निद्राविजयी चार मुनि क्षपक के पास रात्रि में जागरण का कार्य करते हैं, चार मुनि जहां संघ ठहरा है । उसके आसपास के शुभाशुभ वातावरण, का निरीक्षण करते हैं, चार मुनि आये हुये दर्शनार्थी जनों को सभा में उपदेश सुनाते। हैं, चार मुनि धर्मकथा कहने वाले मुनियों की सभा की रक्षा का भार लेते हैं। ऐसे ये ४८ मुनि क्षपक की सल्लेखना में पूर्ण सहायता करते हैं । १. मूलाराधना पृ. ८४५ से ८६४ तक। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार [ २४३ 'आचार्य कहते हैं कि यदि भरतादि क्षेत्र में कदाचित् उत्कृष्ट रूप से इतने निर्यापक यति संभव न हों तो क्रम से ४४ भी हो सकते हैं अथवा देश काल के अनुसार | उपयुक्त गुणों से युक्त ४० भी होते हैं ऐसे चार-चार कम करते हुए, अंतिम चार निर्यापक तो अवश्य होना चाहिए । कदाचित् चार मुनि इन निर्यापक गुणों से युक्त नहीं मिल सके तो दो तो अवश्य होना चाहिए । क्योंकि एक निर्यापक का विधान आगम में नहीं है, बल्कि एक निर्यापक से असमाधि आदि अनेक हानि होने की संभावना हो सकती है ।" इसप्रकार से मूलाराधना में वर्णन है, विशेष जिज्ञासुओं को वहां से देख लेना चाहिए। इसप्रकार जो व्यवहार उनमार्थ प्रतिक्रमण में समर्थ मे पूर्ण निष्णात महामुनि हैं उन्हीं के निश्चय उत्तमार्थ प्रतिक्रमण होना है। यहां पर टीकाकार ने तो निश्चयपरम शुक्लध्यान को ही निश्चय उनमार्थ प्रतिक्रमण कहा है जो कि आज पंचमकाल में है ही नहीं क्योंकि शुक्लध्यान उत्तम मंहनन बारी के श्रेणी में ही होता है ऐसा आगम का कथन है। ऐसे निविकल्प वर्मध्यान और शुक्लध्यानमय प्रतिक्रमण को टीकाकार ने अमृतकुम कहा है और उसमे अतिरिक्त व्यवहार उत्नमार्थ प्रतिक्रमण को विपकुभ कहा है। तथा उद्धरण में समयमार की गाथा दी है। इस समयसार गाथा की टीका में श्री अमृतचन्द्रसरि और श्री जयमेनाचार्य के अभिप्राय को भी देखिये--- ___ "प्रश्न-'शुद्धात्मा की उपासना में बया लाभ है जबकि प्रतिक्रमण आदि से ही यह जीव निरपराधी हो जाता है क्योंकि व्यवहाराचार सूत्र में भी कहा है कि अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिंदा, अगीं और अशुद्धि ऐसे आठ प्रकार के लगे हुए दोषों का प्रायश्चित्त न करना सो विषकुभ है और इनसे विपरीत प्रतिक्रमणादि हैं उनसे लगे हुए दोषों का प्रायश्चित्त करना बह अमृतकुभ है ऐसा व्यवहारनय वाले का तर्क है । १. प्रष्टचत्वारिंशत्संख्या । रिणज्जवगा निर्यापकायतयः । मूलाराधना पृ. ८४८ । २. अमृतचन्द्रसूरिकृत टीका का सार, पृ. ३८६, ३६० । ३. अपडिकमणं .......... .....२ गाथाय । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] नियममार उत्तर---यहां निश्चयनय के प्रकरण में आचार्य कहते हैं कि ''प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा आदि ये आठ विषकुभ हैं इनसे विपरीत अप्रतिक्रमण आदि आठ अमृतकुभ हैं।" टीका में जो अज्ञानी जनों में साधारण अप्रतिक्रमण आदि हैं वे शुद्धात्मा की सिद्धि के अभाव स्वभाव वाले होने से स्वयं ही अपराध रूप हैं अतः विषकुभ ही हैं उनके विचार करने का यहां क्या प्रयोजन है ? किन्तु द्रव्य प्रतिक्रमण आदि हैं वे मंपूर्ण दोषों को दूर करने वाले होने से अमृतकुभ होते हुए भी प्रतिक्रमण, अप्रतिक्रमण के विकल्प से परे ऐसे वीतराग निर्विकल्प ध्यानी मुनियों के लिये विषकूभ हैं न कि छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों के लिए।......इसलिये ऐसा नहीं समझना कि ये आगम प्रतिक्रमण आदि को त्याग करने के लिये कह रहे हैं, किंतु ध्यानरूप कोई एक शुद्धात्म सिद्धि लक्षण दुष्कर अवस्था को प्राप्त कराना चाहते हैं ऐसा यहाँ अभिप्राय है। श्री जयसेनाचार्य कृत टीका में ___किये हा दोनों का निराकरण करना प्रतिक्रमण है, सम्यक्त्वादि गुणों में प्रेरणा प्रतिसरण है, मिथ्यान्न रागादि दोषां का निवारण परिहार है. पंचनमस्कारादिमंत्र, प्रतिमा आदि बाह्य द्रव्यों के अवलम्बन से चित्त का स्थिर करना धारणा है। बाह्य विषय कषायों की इच्छा में रहते हुए चिन को मोड़ना निवृत्ति है, आत्मसाक्षी से दोष प्रगटता निंदा है. गुरु की साक्षी से दोष प्रगट करना गहीं है और दोषों के लगने पर प्रायश्चित्त लेकर विशुद्धि करना शुद्धि है । ये आठ प्रकार का शुभोपयोग यद्यपि मिश्यात्व विषय कषायादि की परिणति रूप अशुभोपयोग की अपेक्षा से सविकल्प , रूप सराग चारित्र की अवस्था में अमृतकुभ है फिर भी ये रागद्वेषादि विभाव' परिणामों से शून्य निर्विकल्प शुद्धोपयोग लक्षण जो तृतीय भूमि है उसकी अपेक्षा से वीतराग चारित्र में स्थित महामुनियों के लिए विषकभ ही है ।" सारांश यह है कि यह व्यवहार प्रतिक्रमण निश्चयप्रतिक्रमण के लिए साधक है, सविकल्प अवस्था में | करना ही पड़ेगा और निर्विकल्प अवस्था में स्वयं छूट जावेगा । १. पडिकमणं पडिसरणं.............. ।। ३०६ ॥। समयसार अपटिकमणं..........................।। ३०७ ।।। २. जयमेनाचार्य कृत टीका पृ. ३८६, ३६० । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ラ・ तथा हि परमार्थप्रतिक्रमण अधिकार ( मंदाक्रांता ) आत्मध्यानादपरमखिलं घोरसंसारमूलं ध्यानध्येय प्रमुखसु तपःकल्पनामात्ररम्यम् । बुध्वा घीमान् सहजपरमानन्दपीयूष पूरे निर्मज्जन्तं सहजपरमात्मानमेकं प्रपेदे ।। १२३ ॥ झारगणिलोणो साहू, परिचागं कुरणइ सम्बंदीसारणं । तम्हा झारणमेव हि सव्वविचारस्स पडिकमणं ॥ ६३ ॥ ध्याननिलीनः साधुः परित्यागं करोति सर्वदोषाणाम् । तस्मातु ध्यानमेव हि सर्वातिचारस्य प्रतिक्रमणम् ॥६३॥ उसी प्रकार [टीकाकार श्री मुनिराज आत्मध्यान की प्रेरणा देते कहते हैं: - 1 [ २४५ ( १२३ ) श्लोकार्थ - आत्मा के ध्यान से भिन्न अन्य सभी कल घोर संसार का मूलकारण हैं और ध्यान ध्येय भेद हैं प्रमुख जिसमें ऐसा जो सम्यक् न है वह भी कल्पना मात्र से सुन्दर है ऐसा समझकर बुद्धिमान् साधु सहज परमानन्दरूपी अमृत के पूर में डुबकी लगाते हुए ऐसे एक सहज परमात्मा की प्राप्त कर लेते हैं । भावार्थ- तपश्चरण के बारह भेदों में ध्यान तप अंतिम है वह निर्विकल्प रूप-एकाग्र स्थिति रूप होता है। यदि ध्याता में ध्यान और ध्येय के विकल्प विद्यमान हैं तो वह ध्यानरूप तप ध्यान नाम को प्राप्त तो हो रहा है किन्तु वास्तविक कार्य की सिद्धि नहीं कर पाता है इसलिये इसे कल्पना मात्र से ही सुन्दर कह दिया है। बास्तव में बीतराग निर्विकल्प समाधिरूप शुक्लध्यान से ही कर्मों का नाश होकर सहज परमात्मारूप अर्हत अवस्था प्रगट होती है अन्यथा नहीं, यहां यह अभिप्राय है । गाथा ६३ 'अन्वयार्थ – [ ध्याननिलीनः ] ध्यान में अतिशयरूप से लीन हुए [ साधु: ] साधु [सर्वदोषाणा ] संपूर्ण दोषों का [ परित्यागं ] परित्याग [ करोति ] कर देते हैं F Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ] नियमसार जब ध्यानमग्न साधु होते, गुणरूप स्वयं परिणमते हैं । वे हो तो वीतराग होकर, संपूर्ण दोष को तजते हैं ।। इसलिये ध्यान ही वास्तव में सर्वातिचार प्रतिक्रमण कहा । यह निश्चय ध्यान शुक्ल संज्ञक जिन पाया उनने कर्म दहा ॥६३॥ अत्र ध्यानमेकमुपादेयमित्युक्तम् । कश्चित् परमजिनयोगीश्वरः साधुः अस्यासन्नभव्यजीवः अध्यात्मभासयोक्त स्वात्माश्रितनिश्चयधर्म्यध्याननिलीनः निर्भेदरूपेण स्थितः, अथवा कलक्रियाकांडाईबरव्यवहारनयात्मक भेदक रणध्यानध्येयविकल्पनिर्मुक्त निखिलकरणग्रामागोचरपरमतत्त्वशुद्धान्तस्तत्त्वविषय मेद कल्पनानिरपेक्ष निश्चयशुक्लध्यानस्वरूपे तिष्ठति च स च निरवशेषेणान्तर्मुखतया प्रशस्ता प्रशस्त समस्तमोहरागढ षाणां परित्यागं करोति तस्मात् स्वात्माश्रितनिश्चयधम्र्म्य शुक्लध्यानद्वितयमेव सर्वातिचा राण प्रतिक्रमणमिति । [तस्मात् तु ] इसलिये [ ध्यानं एव ] ध्यान ही [हि ] निश्चित रूप से [सर्वाति चारस्य ]] सर्वातिचार का [ प्रतिक्रमणं ] प्रतिक्रमण है । टीका - एक ध्यान ही उपादेय है ऐसा यहां पर कहा है । कोई परमजिन योगीश्वर माधु जो कि अतिनिकट भव्य जीव हैं वे अध्यात्मभाषा से कथित अपने आत्मा के आश्रित निश्चय धर्मध्यान में निश्चित रूप से लीन हुए अभेदरूप से स्थित होते हैं अथवा संपूर्ण क्रियाकांड के आडम्बर रूप व्यवहारनयात्मक और भेद के करने वाले जो ध्यान ध्येय के विकल्प हैं उनसे रहित सकल इन्द्रियों के समूह के अगोचर, परमतत्त्वरूप शुद्धचैतन्यतत्त्व विषयक भेद कल्पना से निरपेक्ष जो निश्चय शुक्लध्यान का स्वरूप है उसमें स्थित होते हैं, वे साधु निरवशेषरूप से अंतर्मु होने से प्रशस्त और अप्रशस्त रूप समस्त मोह, राग-द्वेष को परित्याग कर देते हैं। इसलिये अपने आत्मा के आश्रित निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान में दोनों ध्यान ही संपूर्ण अतिचारों के लिए प्रतिक्रमण हैं ऐसा अर्थ हुआ है । विशेषार्थ - यहां पर सर्वातिचार प्रतिक्रमण के विषय में निश्चय प्रतिक्रमण को कहते हुए उसे निश्चयधर्मध्यान और शुक्लध्यान की संज्ञा दी है । व्यवहा Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थ - प्रतिक्रमण अधिकार (अनुष्टुभ् ) शुक्लध्यानप्रबीपोऽयं यस्य चित्तालये बभौ 1 स योगी तस्य शुद्धात्मा प्रत्यक्षो भवति स्वयम् ॥ १२४॥ | पडिकमरगणामधेये, सुत्त जह वष्णिदं पडिक्कमणं । तह णच्चा जो भावइ, तस्स तदा होथि पडिकमणं ॥ ६४ ॥ प्रतिक्रमणनामध्ये सूत्रे यथा वरिणतं प्रतिक्रमणम् । तथा ज्ञात्वा यो भावयति तस्य तदा भवति प्रतिक्रमणम् ॥ ६४ ॥ [ २४७ सर्वातिचार प्रतिक्रमण का लक्षण सर्वातिचारा दीक्षाग्रहणात्प्रभृति सन्यासग्रहणकाल यावत्कृता दोषाः " दीक्षाग्रहण काल से लेकर कपर्यंत जितने दोष हुए हैं वे सर्वातिचार हैं उनका शोधन भी अंतसमय में ही होता है यह प्रतिक्रमण उत्तमार्थ में ही सम्मिलित होता है । व्यवहार प्रतिक्रमण के बल से जब निश्चय प्रतिक्रमण रूप ध्यान का अवलम्बन ले लेता है तब साधु कर्मों का भी नाश करके केवलज्ञान रूप ज्योति को प्रगट कर लेता है ऐसा अभिप्राय है । 189 [ अब टीकाकार श्री मुनिराज शुक्लध्यान के महत्व को बतलाते हुए श्लोक [ कहते हैं ] ( १२४) श्लोकार्थ – यह शुक्लध्यानरूपी प्रदीप जिसके मनरूपी गृह में सुशोभित हो रहा है वह योगी है उसके स्वयं शुद्ध आत्मा प्रत्यक्ष हो जाता है । भावार्थ- शुक्लध्यान के बल से ही आत्मा में शुद्ध परमात्मा प्रगट हो जाता है अन्यथा नहीं ऐसा अभिप्राय है । गाथा ६४ अन्वयार्थ - [ प्रतिक्रमणनामधेये सूत्रे ] प्रतिक्रमण नाम वाले सूत्र में [ यथा प्रतिक्रमणं वर्णितं ] जिसप्रकार से प्रतिक्रमण का वर्णन किया है [ तथा ज्ञात्वा ] उमी १. अनगार धर्मामृत पृ. ५७६ । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] नियमसार प्रतिक्रमण नाम के सूत्रों में, जैसा वणित है प्रतिक्रमण । इस युग में श्री गौतम स्वामी, द्वारा विरचित वह प्रतिक्रमण ॥ उनको वैसे ही जान पुन: जो उसको भाते रहते हैं । उनके ही प्रतिक्रमण होता, जो उभय प्रतिक्रम करते हैं ।।१४।। अत्र व्यवहारप्रतिक्रमणस्य सफलत्वमुक्तम् । यथा हि निर्यापकाचार्यः समस्तागमसारासारविचारचारुचातुर्यगुणकदम्बकैः प्रतिक्रमणाभिधानसूत्रे द्रव्यश्रुतरूपे व्यावर्णितमतिविस्तरेण प्रतिक्कमणं, तथा जात्या जिननीतिमलंघयन् चारुचरित्रमूर्तिः सकलसंयमभावनां करोति, तस्य महामुनेर्बाह्यप्रपंचविमुखस्य पंचेन्द्रियप्रसरबजितगात्रमात्रपरिग्रहरू परमगुरुचरणस्मरशासविता तामा लतिका शयनीति ! - - प्रकार से जानकर [ यः भावयति ] जो साधु उसको भाता है [ तस्य तदा प्रतिक्रम भवति ] उस साधु के उस काल में प्रतिक्रमण होता है । टोका-यहां पर व्यवहार प्रतिक्रमण की सफलता को कहा है। __ संपूर्ण आगमज्ञान से सारासार विचार में श्रेष्ठ चतुरता आदि गुण समूह के धारक ऐसे निर्यापकाचार्यों के द्वारा द्रव्यश्चत रूप प्रतिक्रमण नामक सूत्रों में प्रतिक्रम का जैसे अतिविस्तार से वर्णन किया गया है बसे ही उसको जानकर जिनेन्द्रभगबार की नीति का उलंघन न करते हुए उत्तम चारित्र को मूर्तिस्वरूप ऐसे मुनि राज सकर संयम की भावना को करते हैं, बाह्यप्रपंचों से विमुख पंचेन्द्रिय के विस्तार से राय देहमात्र परिग्रह को धारण करने वाले और परमगुरु के चरणों के स्मरण में अनुर चित्तवाले ऐसे उन महामुनि के उसकाल में प्रतिक्रमण होता है ऐसा समझना।। विशेषार्थ-यहां पर प्रतिक्रमणदण्डक के उच्चारण में जो निर्यापकाचार्य वर्णन है उसके विषय में सल्लेखना कराने वाले निर्यापकों के अतिरिक्त अन्य। निर्यापक कहलाते हैं ऐसा प्रवचनसार में कहा है-- "लिंगरगहणे तेसिं गुरुत्ति पव्वज्जदायगो होदि । छेदेसूबट्ठवगा सेस्सा णिज्जावगा समणा ॥२१०॥" १. प्रवचनमार पृ. ५०७ । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थ- प्रतिक्रमण अधिकार [ २४६ गाथार्थ - लिंग ग्रहण - दीक्षाग्रहण के समय जो दीक्षादायक हैं वह उनके दीक्षा गुरु हैं और छेदद्वय में उपस्थापक हैं वे श्रमण निर्यापक हैं । प्रवज्यादायक के समान ही अन्य भी निर्यापक संज्ञक गुरु हैं। दीक्षादायक गुरु दीक्षागुरु हैं, शेष श्रमण निर्यापक हैं वे शिक्षा गुरु हैं । एक देशव्रत में या सर्वदेश व्रत में छेद होने पर प्रायश्चित्त देकर संवरण करते हैं वे निर्यापक शिक्षागुरु हैं और श्रुत हैं । वर्तमान में जो देवसिक, पाक्षिक प्रतिक्रमण के मूत्र हैं वे श्री गौतमगणधर द्वारा रचित हैं ऐसा कथन श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने किया । दूसरी बात यह है कि "जो पाक्षिक प्रतिक्रमण है तथा चातुर्मासिक और संवत्सरिक और उत्तमार्थं प्रतिक्रमण हैं उनमें बहुत से पाठ ऐसे हैं जो आचार्य और सर्व शिष्यगण मिलकर करते हैं । कुछ पाठ ऐसे हैं जो केवल शिष्यवर्ग ही पड़ते हैं और बहुत से दण्डव पाठ वे हैं जिन्हें केवल आचार्य ही पढ़ते हैं शेष सभी मुनि आदि शिष्यगण ध्यान मुद्रा से बैठे हुए श्रवण करते हैं यहां पर ऐसी विवक्षा है । " यहां पर जो "जिननीति अलंघन्" ऐसा पाठ है उसका अर्थ यह है कि जितेंद्रदेव का वर्तमान के साधुओं के लिए समय-समय पर प्रतिक्रमण करने का जो आदेश है उसे पालन करना ही चाहिए। यथा -- " " आजकल के साधु दुःषम काल के निमित्त से वक्र और जड़ स्वभाव वाले हैं, स्वयं भी किये हुये व्रतों के अतिचारों का स्मरण नहीं रख पाते हैं और चंचलचित्त होने से प्रायः बार-बार अपराध करते हैं । इसलिये ईर्यापथ दैवसिक आदि प्रसंगों में दोष होवं या न होवें किन्तु उन साधुओं को सर्वातिचार की विशुद्धि के लिये सभी प्रतिक्रमण दण्डकों का उच्चारण करना ही चाहिए | उनमें से जिस किसी में भी वित्त स्थिर हो जाता है तो संपूर्ण दोषों का विशोधन हो जाता है । कहा भी है- "" आदि जिनेन्द्र और अंतिम जिनेन्द्र के समय ( शासन ) के शिष्यों को यथासमय प्रतिक्रमण करना ही चाहिए चाहे दोप होवें या न होवें किन्तु मध्यम २२ तीर्थंकरों के शिष्यों के लिये अपराध होने पर ही प्रतिक्रमण का आदेश है । " १. अनगार धर्मामृत पृ. ५८२, ५८३ । २. सप्रतिक्रमणो धर्मो जिनयोरादिमान्त्ययोः । श्रपराधे प्रतिक्रांतिर्मध्यमाना जिनेविनाम् || अनगार धर्मामृत पृ. ५८३ ।। 2 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५.७ ] नियमसार ( इन्द्रवज्रा ) निर्माणकाचार्यनिरुक्तियुक्तामुक्ति सदाकर्ण्य च यस्य चित्तम् । समस्तचारित्रनिकेतनं स्यात् तस्मै नमः संयमधारिणोऽस्मै ।। १२५ ।। ( वसंततिलका ) यस्य प्रतिक्रमणमेव सवा मुमुक्षोनस्त्यप्रतिक्रमणमध्यणुमात्रमुच्चः । तस्मै नमः सकलसंयम भूषणाय श्रीवोरनन्दिमुनिनामधराय नित्यम् ।। १२६ ।। [ टीकाकार मुनिराज संयमी मुनि और श्री वीरनंदि मुनि को नमस्कार करते हुए दो श्लोकों द्वारा इस प्रतिक्रमण अधिकार को पूर्ण करते हुए कहते हैं | (१२५) श्लोकार्थ - निर्यापक आचायों की निरुक्ति-व्याख्या सहित ( प्रतिक्रमण आदि संबंधी ) कथन को सदा सुनकर जिनका हृदय समस्त चारित्र का निवासगृह हो चुका है ऐसे उन संयमधारी मुनि को मेरा नमस्कार होवे । (१२६) श्लोकार्थ – जिन मुमुक्षु के सदा प्रतिक्रमण ही है और अणुमात्र भी अतिक्रमण नहीं है । अतिशय रूप से सकलसंयम ही है भूषण जिनका ऐसे उन श्री वीरनंदि नाम के मुनिराज को नित्य ही मेरा नमस्कार होवे । भावार्थ — यहां पर टीकाकार श्री मुनिराज ने संयम के स्थान स्वरूप ऐसे श्री* वीरनंदि मुनिराज को नमस्कार किया है । ये इनके शिक्षा गुरु आदि कोई गुरु अवश्य ही होंगे ऐसा प्रतीत होता है । इसप्रकार से यहां इस अधिकार में निश्चय प्रतिक्रमण के स्वरूप का वर्णन करते हुए अंतिम गाथा में श्री आचार्य देव ने व्यवहार प्रतिक्रमण को भी करने का आदेश स्पष्ट किया है । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवजितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमल - पारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ निश्चयप्रतिक्रमणाधिकारः पंचमः भूतस्कन्धः ॥ --- . -. ... -- - इस प्रकार सुकविजन रूपी कमलों के लिए सूर्यस्वरूप पंचेन्द्रिय के प्रसार से रहित गात्र मात्र परिग्रहधारी श्री पद्मप्रभमलधारी देव के द्वारा विरचित नियमसार को तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में निश्चयप्रतिक्रमण अधिकार नामक पंचम श्रुतस्कन्ध पूर्ण हुआ। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ ] निश्चय - प्रत्याख्यान अधिकार अथेदानीं सकलप्रव्रज्यासाम्राज्यविजयवं जयन्ती पृथुलदंडमंडनायमानसकलकर्मनिर्जरा हेतुभूतनिः श्रयनिश्र णीभूत मुक्तिभामिनीप्रथम दर्शनोपायनीभूतनिश्चयप्रत्याख्याना fधकारः कथ्यते । तद्यथा अत्र सूत्रावतारः । मोत्तूरण सयलजप्पमरणागय सुहमसुहवारणं किच्चा । अप्पाणं जो झार्यादि, पञ्चक्खाणं हवे तस्स ॥६५॥ अब निश्चय प्रत्याख्यान अधिकार को कहते हैं—जो कि सफल प्रव्रज्या दीक्षा रूपी साम्राज्य की विजय पताका के विशाल दण्ड को विभूषित करने वाले के समान है, सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा में हेतुभूत है, मोक्षमहल पर चढ़ने के लिए स के समान है, और मुक्तिसुन्दरी से प्रथम मिलन में भेंट रूप है, ऐसा यह नि प्रत्याख्यान है । उसी को कहते हैं- यहां पर गाथा सूत्र का अवतार होता है 1. गाथा ६५ अन्वयार्थ – [ यः ] जो माधु [ सकलजल्पं ] सम्पूर्ण जल्प को [ मु छोड़कर [ श्रनागत शुभाशुभ निवारणं कृत्वा ] अनागत शुभ-अशुभ का निवा Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय प्रत्याख्यान अधिकार मुक्त्वा सकल जल्पमनागतशुभाशुभनिवारणं कृत्वा । आत्मानं यो ध्यायति प्रत्याख्यानं भवेत्तस्य ॥६५॥ गेलाउंद जो मुनि अंतर्बाह्य सकल जल्प को राजके । भावी शुभ वा अशुभ, भाव निवारण करके ॥ परम ध्यान में लीन, आत्मा की ध्याते हैं । निश्चय प्रत्याख्यान उनके मुनि गाते हैं ||६|| [ : ५.३ निश्चयनय प्रत्याख्यानस्वरूपाख्यानमेतत् । श्रत्र व्यवहारनयादेशात् मुनयो wear देनं देनं पुनर्योग्यकालपर्यन्तं प्रत्याविष्टान्नपानखाद्य लेह्यरुचयः, एतद् व्यवहारप्रत्याख्यानस्वरूपम् । निश्चयनयतः प्रशस्ताप्रशस्त समस्तवचनरचना प्रपंच परिहारेण शुद्धज्ञानभावना सेवाप्रसादादभिनव शुभाशुभ द्रव्य भावकर्मणां संवरः प्रत्याख्यानम् । यः सवान्तर्मुखपरिणत्या परमकलाधारमत्यपूर्वमात्मानं ध्यायति तस्य नित्यं प्रत्याख्यानं भवतीति । करके [आत्मानं ध्यायति ] अपनी आत्मा का ध्यान करता है. [ तस्य ] उस साधु के [ प्रत्याख्यानं ] प्रत्याख्यान [ भवेत् ] होता है । टीका - निश्चय के प्रत्याख्यान के स्वरूप का यह कथन है । यहां पर व्यवहारनय के कथन से मुनिगण प्रतिदिन भोजन करके पुनः योग्य कालपर्यन्त अन्नपान, खाद्य और लेह्य की विाले ऐसे चार प्रकार के आहार का त्याग कर देते हैं, यह व्यवहार प्रत्याख्यान का स्वरूप है । निश्चयनय से प्रशस्तअप्रशस्त रूप संपूर्ण वचन व्यापार के विस्तार को छोड़करके शुद्धज्ञान भावना की सेवा के प्रसाद से नवीन शुभ-अशुभरूप द्रव्यकर्म और भावकर्मो का संबर होना बह प्रत्याख्यान ( निश्चय प्रत्याख्यान ) है । जो सदा अन्तर्मुख परिणति से परमकला के आधारभूत ऐसे अतिशय अपूर्व आत्मा का ध्यान करता है उस साधु के नित्य ही प्रत्याख्यान होता है । ऐसे ही समयसार में कहा है । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ] नियममार - - - - तथा चोक्त समयसारे "सन्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परेत्ति गाणं । तम्हा पच्चक्खाणं गाणं णियमा मुरण्यव्यं ॥" तथा समयसारख्याख्यायां च (प्रार्या) "प्रत्याच्याय भविष्यत्कर्म समस्तं निरस्तसंमोहः । । आत्मनि चतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥" - .... - - - --- "गाथार्थ'—जिस हेतु से सभी भावों को अपने में भिन्न सभी पदार्थों को 'ये पर हैं। इस प्रकार से जानकर त्याग करना है, उसी हेतु से 'पर है' ऐसा जानना ही प्रत्याभ्यान होता है ऐसा नियम से जानना चाहिये ।" इसी प्रकार समयसार टीका में भी कहा है "श्लोकार्थ-भविष्य के सपम्न कमी का प्रत्याख्यान करके जिसका मोहराग द्वेप नष्ट हो चका है ऐसा मैं निकम-सम्पूर्ण कर्मों से रहित चैतन्य स्वरूप अपनी आत्मा में अपनी आत्मा के द्वारा नित्य ही बनता हूं-रहता हूं।" भावार्थ- आचार्य श्री ने निश्चयप्रत्याख्यान का वर्णन किया है। टीकाकार ने पहले व्यवहारप्रत्याख्यान का स्वरूप बतला दिया है। साधु आहार के अनन्तर तत्क्षण वहीं पर सिद्धभक्तिपूर्वक अगले दिन आहार ग्रहण करने तक चतुराहार का त्याग कर देते हैं पुनः गुरु के पास आकर गोचार प्रतिक्रमण करके सिद्धभक्ति और योगिभक्ति पूर्वक गुरु से प्रत्याख्यान ग्रहण करते हैं अर्थात् गुरु उन्हें अगले दिन आहार ग्रहण करने तक चतुराहार का त्याग दे देते हैं। यह मूलाचार के अनुसार प्रत्याख्या है। निश्चयप्रत्याख्यान उस अवस्था में होता है जब साधु के समस्त शुभ अशुभम अन्तर्जल्प और बहिर्जल्प समाप्त हो जाते हैं, अन्तर्मुख परिणति ऐसी हो जाती है कि १. गाथा ३४ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार [ २५५ तथा हि (मंदाक्रांता) सम्यग्दृष्टिस्त्यजति सकलं कर्मनोकर्मजातं प्रत्याख्यानं भवति नियतं तस्य संज्ञानमूर्तः । सच्चारित्राण्यघकुलहराण्यस्य तानि स्युरुच्च स्तं वंदेहं भवपरिभवक्लेशनाशाय नित्यम् ।।१२७।। केवलणाणसहावो, केवलदंसरगसहाव सुहमइयो। केवलसत्तिसहावो, सो हं इदि चितए गाणी ॥६६॥ बाहर का कुछ भी भान नहीं रहता है अर्थात् आमा का उपयोग अपने स्वरूप में तन्मय हो जाता है ऐसी शुद्धोपयोग की अवस्था विशेएमा वीतराग निर्विकल्प ममाधिरूप ध्यान में ही यह प्रत्याख्यान घटित होता । उमीप्रकार से-- [टीकाकार श्री मुनिराज प्रन्या यान स्वरूप मुनिराज की वंदना करते हुए इनांक कहते हैं--] (१२७) श्लोकार्थ--जो सम्यग्दृष्टि मंपूर्ण कर्म और नोकर्म के समूह को छोड़ देता है, उस सम्यग्ज्ञान की मतिस्वरूप साधु के 'नश्चित ही प्रत्याख्यान होता है आंः उसके ही पापसमुह को नष्ट करने वाले ऐसे मम्यकनारित्र भी अतिशयम्प से होते हैं, ऐसे उन रत्नत्रय स्वम्प मुनिराज को मैं भव के परिभव निरस्कार स्वरूप क्लेग का नाश करने के लिये नित्य ही वंदन करता है । भावार्थ-यहां पर सम्यग्दृष्टि शब्द से बीताग चारित्र के साथ अविनाभावी वीतराग सम्यक्त्व से सहित निश्चय सम्यग्दष्टि को ग्रहण किया गया है, क्योंकि उसी के ही सामायिक आदि से यथाख्यात पर्यन्त सभी चारित्र हो सकते हैं ऐसे मुनिराज ही अपने तथा हमारे भव के पराभव से होने वाले दुःग्वों को नाश करने में समर्थ होते हैं, इसीलिए यहां उनको नमस्कार किया है। गाथा ६६ अन्वयार्थ-[केवलज्ञान स्वभावः] केवलज्ञान म्बभाव वाला, [ केवलदर्शन स्वभावः ] केवलदर्शन स्वभाव वाला, [ सुखमयः ] मुग्यस्वरूप और [ केवल शक्ति Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियममार केवलज्ञानस्वभावः केवलदर्शनस्वभावः सुखमयः । केवलशक्तिस्वभावः सोहमिति चितयेत् जानी ।।६६॥ वाबलशान स्वभाव, केवलदर्श स्वभाबी । केवल सौख्य स्वभाव, केवलशक्तिः स्वभावी ।। जो इन बारस्वरूप, सो ही मैं हूं इसदिध । चितन करते नित्य, सो ज्ञानी मुनि निश्चित ।।१६।। अनन्त चतुष्टयात्मकनिजात्मध्यानोपदेशोपन्यासोयम् । समस्तबाह्यप्रपंचवासनाविनिर्मुक्तस्य निरवशेषेणान्तर्मुखस्य परमतत्त्वज्ञानिनो जीवस्य शिक्षा प्रोक्ता । कथंकारम ? सानिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारेण, शुद्धस्पर्शरसगंधवर्णानामाधारभूतशुद्धपुद्गलपरमाणुवत्केवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलसुखकेवलशक्तियुक्तपरमात्मा यः सोहमिति भावना कर्तव्या ज्ञानिनेति, निश्चयेन सहजज्ञानस्वरूपोहम, सहजदर्शनस्वरूपोहम्, सहजचारित्रस्वरूपोहम्, सहजचिच्छक्तिस्वरूपोहम्, इति भावना कर्तव्या चेति - - - - - - स्वभावः ] केवल वीर्य म्यभाब बाला, [सः अहं] वह मैं ही हूं [इति ज्ञानी | इमप्रकार। से ज्ञानी साधुः [चितयेत् ] चितवन करे । टीका-अनन्त चतुष्टय स्वरूप अपनी आत्मा के ध्यान के उपदेश का यह कथन है। समस्त बाह्य प्रपंच की वासना से रहित, संपूर्णतया अन्तर्मुख हुए परमतत्त्व ज्ञानी जीव को शिक्षा दी गई है। किसप्रकार से ? सादि-अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाव वाले शुद्ध सद्भुत व्यवहारनय की अपेक्षा में शुद्ध स्पर्श, रस, गंध और वर्ण है। आधारभूत शुद्ध पुद्गल परमाणु के सदृश 'केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख और केवल वीर्य से युक्त जो परमात्मा है, वह मैं ही हूं' ज्ञानी को इस प्रकार से भावना करनी चाहिये, यहां यह अर्थ है और निश्चयनय से मैं सहजज्ञान स्वरूप हूं, मैं सहज दर्शन स्वरूप हूं, मैं सहज चारित्रस्वरूप हूं, तथा मैं चतन्य शक्तिस्वरूप हूं, ऐसी भावना करना चाहिए, ऐसा समझना। * अनाय ( पुराने संम्बरण में आद्य के स्थान पर 'गनाद्य' शब्द है) Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय प्रत्याख्यान अधिकार तथा चोक्तमेकत्वसध्यतौ तथा हि ( अनुष्टुभ् ) "केवलज्ञानसौख्यस्वभावं तत्परं महः । तत्र ज्ञातेन किं ज्ञातं दृष्टे दृष्टं श्रुते श्रुतम् ( मालिनी ) जयति स परमात्मा केवलज्ञानमूर्तिः सकल विमलष्टष्टि: शाश्वतानंदरूपः । सहजपरमचिच्छक्त्यात्मकः शाश्वतोयं निखिलमुनिजनानां चित्तकेजहंसः ॥ १२८ ॥ [ २५७ इसी प्रकार एकत्व सप्तति में भी कहा है- "श्लोकार्थ- 'वह परमतेज केवलज्ञान, केवलदर्शन और केवलमोस्य स्वभावी है । उसके जान लेने पर क्या नहीं जाना गया ? उसके देख लेने पर क्या नहीं देखा गया ? और उसके सुन लेने पर क्या नहीं सुना गया है ?" उसीप्रकार से – [ टीकाकार श्री मुनिराज उसी परमतत्त्व की भावना करते हुए श्लोक कहते हैं - ] - ( १२८ ) श्लोकार्थ सकल मुनिजनों के मन सरोज का हंस स्वरूप ऐसा जो यह शाश्वत, केवलज्ञान की मूर्तिरूप, सकल त्रिमल दर्शनरूप, शाश्वत आनन्द- सौख्यरूप और सहज परमचैतन्य वीर्यरूप परमात्मा है वह जयशील होता है । भावार्थ – स्वाभाविक अनन्तचतुष्टय से युक्त परमात्मा निश्चयनय से अथवा शक्तिरूप से मुनियों के हृदयकमल में विराजमान हैं वो ही कारण परमात्मा है क्योंकि शुद्धोपयोगी साधु ही ऐसी शुद्ध आत्मा का ध्यान करते हुए उसमें तन्मय हो जाते हैं, ऐसे कारण परमात्मा को यहां पर टीकाकार ने जयवन्त कहा है । १. पद्मनंदिपंचवि० के एकस्वसप्तति अ. में श्लो. २० । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] नियममार रिणयभावं गवि मुच्चइ', परभावं व गेण्हए केई । जाणदि पस्सवि सव्वं, सो हं इदि चितए णाणी ॥६॥ निजभावं नापि भुचति परभावं नैव गृह्णाति कमपि । जानाति पश्यति सर्व सोहमिति चितयेड् ज्ञानी ॥१७॥ ज्ञानादि निज भाव, जो मुनि कभी न तजते। किम ही भो परभाव, को जो ग्रहण न करते 11 निजपर झंय म्वरूप, सबको देख जाने । सा हो मैं हूं नित्य, ज्ञानी इसविध माने ||६|| प्रत्र परमभावनाभिमुखस्य शानिन, शिक्षण गुण । प्रस्तु कारणपरमात्मा सकलदुरितवीरवैरिसेनाविजयवंजयन्तीलुटाकं त्रिकालनिराबरणनिरंजननिजपरमभावं क्वचिदपि नापि मुंचति, पंचविघसंसारप्रवृद्धिकारणं विभावपुद्गलद्रव्यसंयोगसंजातं रागादिपरभाव नव गृह्णाति, निश्चयेन निजनिरावरणपरमबोधेन निरंजनसहजज्ञानसहज• - -. - - - -- - - - - गाथा १७ अन्वयार्थ--[निजभावं] जो निजभाव को [न अपि मुचति ] नहीं छोड़ता है और [कम् अपि परभावं] किसी भी परभाव को [ न एव गृह्णाति ] ग्रहण नहीं करता है, (मात्र) [सर्व] सब को [जानाति पश्यति ] जानता देखता है, [सः अहं] बह मैं हूं [इति] इसप्रकार से [ज्ञानी चितयेत् ] ज्ञानी चितवन करे । टीका-यहां पर परभावना के अभिमुम्ब हुए ऐसे ज्ञानी को शिक्षण दिया है । जो कारणपरमात्मा, सम्पूर्ण पापरूपी बीर बैरी की सेना की विजयपताका के लूटने वाले तीनों कालों में निरावरण निरञ्जन निज परमभाव को कहीं पर भीकिसी अवस्था में भी नहीं छोड़ता है, और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप ऐसे पांच प्रकार के संसार की प्रकृष्ट वृद्धि के लिए कारणभूत, विभाव पुद्गल द्रव्य के मंयोग से उत्पन्न हुए ऐसे रागादि परभावों को ग्रहण नहीं करता है, और निश्चयनय से अपने निरावरण परमज्ञान के द्वारा, निरंजन रूप, सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजशील १. मुचइ (क) पाठान्तर Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय प्रत्याख्या परिकार [ve दृष्टिसहज शीलादिस्वभावधर्माणामाधाराधेयविकल्पनिर्मुक्तमपि सदामुक्त' सहजमुक्तिभामिनीसंभोग संभयपरतानिलयं कारणपरमात्मानं जानाति, तथाविषसहजावलोकेन पश्यति च स च कारणसमयसारोहमिति भावना सदा कर्तव्या सम्यग्ज्ञानिभिरिति । तथा चोक्त श्री पूज्यपादस्वामिभिः ( अनुष्टुम् ) "ग्राह्यं न गृह्णाति गृहीतं नापि मुचति । जानाति सर्वथा सर्व तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ।।” तथा हि ( वसंततिलका ) आत्मानमात्मनि निजात्मगुणाढयमात्मा जानाति पश्यति च पंचम भावमेकम् । तत्याज नैव सहजं परभावमन्यं गृह्णाति नैव खलु पौद्गलिकं विकारम् ॥ १२६॥ आदि स्वभाव धर्मो के आधार-आय सम्बन्धी विकल्पों से निर्मुक होते हुए भी सदा युक्त, सहज मुक्तिरूपी सुन्दरी के संयोग से उत्पन्न हुए सौख्य के स्थानभूत ऐसे ऐसे कारणपरमात्मा को जानता है और उसीप्रकार के सहजदर्शन के द्वारा देखता है, वह कारणसमयसार मैं हूं, सम्यग्ज्ञानियों को सदा ऐसी भावना करनी चाहिए । प्रकार से श्री पूज्यपादस्वामी ने भी कहा है " श्लोकार्थ - जो अग्राह्य नहीं ग्रहण करने योग्य को तो ग्रहण नहीं करता है और ग्रहण किये हुए अपने स्वाभाविक स्वभाव को नहीं छोड़ता है तथा सबको सभी प्रकार से जानता है वह स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा जानने योग्य मैं हूँ ।" उसीप्रकार से - [ टीकाकार भी विभावभाव को छोड़कर स्वभाव में स्थिर होने के लिए प्रेरणा देते हुए चार श्लोक कहते हैं ] ( १२६) श्लोकार्थ- - आत्मा अपने आत्मगुणों से समृद्ध पंचमभावरूप- परम पारिणामिक भाव स्वरूप ऐसी एक आत्मा को अपनी आत्मा में जानता है और देखता है, उस सहज, पंचमभाव स्वरूप आत्मा को आत्मा ने छोड़ा ही नहीं है, तथा निश्चित रूप से जो पौद्गलिक विकाररूप अन्य परभाव हैं उनको ग्रहण ही नहीं करता है, Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] नियमगार ( शार्दूलविक्रीडित) मत्स्वान्तं मयि लग्नमेतदनिशं चिन्मात्रचितामणावन्यद्रव्यकृताग्रहोद्भवमिमं मुफ्त्वाधुना विग्रहम् । तच्चित्रं न विशुद्धपूर्णसहजज्ञानात्मने शर्मणे देवानाममृताशनोद्भवचि ज्ञात्वा किमन्याशने ॥१३०।। (शार्दूलविक्रीडित) निर्द्वन्तु निरुपद्रवं निरुपम नित्यं निजात्मोद्भवं तान्यद्रव्यविभावनोद्भवमिदं शर्मामतं निर्मलम् । पीत्वा यः सुकृतात्मकः सुकृतमप्येतद्विहायाधुना प्राप्नोति स्फुटमद्वितीयमतुलं चिन्माचिंतामणिम् ।।१३१॥ - -. .. .... - - - - - अर्थान शुद्ध निश्चयनय से आत्मा कालिक शुद्ध है पुनः स्वभाव को छोड़ने और परभाव को ग्रहण करने की कुछ बान ही नहीं उठती है। निश्चयनय के अवलम्बन से ऐसे निज के स्वभाव को समझकर उसी को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। (१३०) श्लोकार्थ—यह मेरा मन अन्य द्रव्य के आग्रह करने से या अन्य द्रव्य को आ-समंतात् सब तरफ से ग्रहण करने से उत्पन्न हुए इस शरीर को या विग्रह । गग-द्वेषादि कलह को छोड़कर इमसमय विशुद्धपूर्ण, सहज ज्ञानस्वरूप सुख के लिये .. चिन्मात्र चिन्तामणि स्वरूप ऐसे मुझ में हमेशा लीन हो गया है, इसमें कुछ भी आश्चर्य : नहीं है, क्योंकि अमृत भोजन में उत्पन्न स्वाद को जानकरके देवों को अन्य भोजन से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् नहीं है । ___ भावार्थ-एक बार अमृत का आस्वाद आ जाने पर कौन ऐसा है कि जो अन्य खारा जल पीना चाहेगा? उसीप्रकार से एक बार जिनको अपने ही घट में विराजमान भगवान् आत्मा के अनुभव का आनन्द आ चुका है वह साधु च्या पर , संकल्प विकल्पों में या ऐसे निकृष्ट शरीर में आनन्द मानेगा? नहीं मानेगा, वह तो अपने स्वरूप में ही तन्मय होकर कर्मों का नाश करके रहेगा । (१३१) श्लोकार्थ-द्वन्द्व रहित, उपद्रव रहित, उपमा रहित, नित्य अपनी आत्मा मे उत्पन्न होने वाले, और अन्य द्रव्य को विभावना-विकल्प से उत्पन्न न होने Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निपपात किम ( आर्या ) को नाम यक्ति विद्वान् मम च परद्रव्यमेतदेव स्यात् । निजमहिमानं जानन् गुरुचररणसमच्चनासमुद्भूतम् ॥ १३२ ॥ [ २६१ वाले निर्मल सुखरूपी अमृत को पीकरके जो सुकुतात्मा गुण्यात्मा इससमय इस मुकुन पुष्य को भी छोड़कर प्रगटरूप से अद्वितीय और अतुल ऐसे चिन्मात्र चिंतामणि को प्राप्त कर लेता है । भावार्थ -- लोक में चिनामणि रत्न चितित वस्तु को देने वाला होता है वैसे ही यह चिन्मात्र चिन्तामणि रत्नस्वरूप आत्मा अपने इस देह रूपी देवालय में विराज'मान है, जो उसको प्राप्त करते हैं उनको सम्पूर्ण अलौकिक अचिन्त्य ऐसे अनन्तगुण रूप फल मिल जाते हैं, पुनः चितित की तो बात ही क्या है ? वे पुण्यात्मा पुण्य की राशिस्वरूप हैं फिर भी पुण्य को छोड़कर ऐगे फल को प्राप्त करत है अर्थात् पुण्य पापी सभी कर्मों के निरोध से हो पूर्णतया कमों की निर्जग होकर मोक्ष होता है, यह पुण्य का छूटना वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप निश्चयध्यान में ही होता है उसके पूर्व नहीं । ( १३२ ) श्लोकार्थ - गुरु के चरणों की सम्यक्प्रकार अर्चना से उत्पन्न हुई ऐसी निजमहिमा को जानते हुए कौन विद्वान ऐसा कहता है कि यह परद्रव्य मेरा ही है ? अर्थात् कोई भी विद्वान् ऐसा नहीं कहना है, अज्ञानी ही कहते हैं । भावार्थ - वास्तव में गुरुदेव के चरणकमलों की उपासना से ही अपने आत्मनहीं लेते हैं वे शास्त्र के जाते हैं । गुरुपरम्परागत प्रयत्नों का अभ्यास सीखने स्वरूप का सही बोध होता है, जो गुरुचरणों का आश्रय सच्चे मर्म को न समझकर एकान्त मे निश्चयाभासी वन अर्थ को समझने के लिये और आत्मतत्त्व को प्राप्त करने के के लिये गुरुओं का आश्रय लेना चाहिये | और तो क्या ? तीर्थकर भी पूर्वभवों में गुरु के पादमूल में दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों आदि का अध्ययन कर तथा गुरुमों के पादमूल में ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते हैं। गुरुओं के पादमूल के अतिरिक्त तीर्थंकर प्रकृति का बंध और क्षायिक सम्यक्व हो नहीं सकते हैं ऐसा नियम है । गुरुओं के आश्रम की अचिन्त्य महिमा है । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I २६२ ] 1 नियममाय पयडिट्टिदिश्रणुभाग पदेसबंधेहिं वज्जिदो अप्पा | सोहं इदि चितिज्जो, तत्थेव य कुरादि थिरभावं ॥ ६८ ॥ आत्मा । प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रदेशबंध विवजित सोहमिति चितयन् तच च करोति स्थिरभावम् ॥६८॥ उन बंधों से शून्य, सोही मैं हूं नित्य उसमें ही थिर भाव, प्रकृति स्थिति अनुभाग, और प्रदेश कहाये । श्रात्मा शुद्ध कहा ये 11 ऐसा चिन्तन करते ने साधू निन धरते ||८|| अत्र बन्धनिर्मुक्तमात्मानं भावयेदिति भव्यस्य शिक्षणमुक्तम् । शुभाशुभमनोवाक्कायकर्मभिः प्रकृतिप्रदेशबंधौ स्याताम् चतुभिः कषायैः स्थित्यनुभागबन्धौ स्तः, एभिश्चतुभिर्बन्धनिर्मुक्तः सदानिरुपाधिस्वरूपो ह्यात्मा सोहमिति सम्यग्ज्ञानिना निरन्तरं भावना कर्तव्येति । गाथा ६८ ग्रन्वयार्थ – [ प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रवेशबंध : विवर्जितः ] प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध इन बंधों से रहित. [ आत्मा ] जो आत्मा है, [ सः महं] वह मैं हूँ. [ इति चितयन् ] ऐसा चितवन करते हुए ज्ञानी [ तत्र एव च ] उसी आत्मा में [ स्थिरभावं ] स्थिर भाव को [ करोति ] करता है । टीका-संघ से निर्मुक्त आत्मा की भावना करना चाहिये, इसप्रकार भव्य को यहां शिक्षा दी है 1 शुभ तथा अशुभ मन, वचन और काय सम्बन्धी क्रियाओं से प्रकृतिबंध और प्रदेदान्त्र होते हैं तथा चार कषायों से स्थितिबंध और अनुभागबन्ध होते हैं, इसप्रकार के बंधों से रहित सदा उपाधिरहित स्वरूपवाला ही जो आत्मा है वह मैं हूं इसप्रकार से सम्यग्ज्ञानी को निरन्तर भावना करनी चाहिए । [ अब टीकाकार चिच्चमत्कार मात्र में बुद्धि लगाने का उपदेश देते हुए कहते है ] Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय - प्रत्याख्यान अधिकार ( मंदाक्रांता ) प्रेक्षावद्भिः सहजपरमानन्दचिद्रूपमेकं संग्राह्य तैनिरुपममिदं मुक्तिसाम्राज्यमूलम् । तस्मादुच्चैस्त्वमपि च सखे मद्वचः सारमस्मिन् श्रुत्वा शीघ्र ं कुरु तव मतिं चिचमत्कारमात्रे ।। १३३ ।। ममत्त परिवज्जामि, सिम्ममत्तिमुट्ठदो । श्रालंबणं च मे श्रादा, श्रवसेसं च वोसरे ॥ ६६ ॥ ममत्वं परिवर्जयामि निर्ममत्वमुपस्थितः । आलम्बनं च मे आत्मा अवशेषं च विसृजामि ॥६॥ मैं ममत्व का त्याग करता है सब पर सुस्थित होता है, निर्ममत्व में रुचि मेरा ग्रात्मा एक, मेथ श्रान्तम्वन तजता हूं सब शेष जो दुख के सावन हैं ||६|| L [ २६३ ( १३३ ) श्लोकार्थ - बुद्धिमानजनों को मुक्ति साम्राज्य के मूलकारण, निरुपम, सह्जपरमानन्दमय चैतन्यस्वरूप यह एक आत्मा ही सम्यक्प्रकार ग्रहण करने योग्य है, इसलिये हे मित्र ! तुम भी सारभूत ऐसे मेरे वचनों को मुनकरके अतिशय मे चिच्चमत्कार मात्र इस आत्मा में शीघ्र ही अपनी बुद्धि लगायो । भावार्थ - यह आत्मा चिच्चमत्कार मात्र है इसके ध्यान करने से अलौकिक तीनों लोकों को और तीनों कालों को एक साथ जानने वाला परम चमत्कारिक दिव्यज्योतिरूप केवलज्ञान प्रगट हो जाता है । गाय ६६ अन्वयार्थ – [ ममत्व परिवर्जयामि ] में ममत्व को छोड़ता हूं, और [ निर्ममत्वं उपस्थितः ] निर्ममत्व में स्थित होता हूं, [ आत्मा च मे आलम्बनं ] आत्मा ही मेरा लम्बन है, [ अवशेषं च 'व्युत्सृजामि ] अवशेष सभी को मैं छोड़ता हूं । १. मुद्रित प्रतियों में विसृजामि है। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म २६४ ] नियमसार - अत्र सफल विभावसंन्यासविधिः प्रोक्तः । कमनीयकामिनीकांचनप्रभृतिसमस्तपरद्रव्यपुरणपर्यायेषु ममकारं संत्यजामि । परमोपेक्षालक्षणलक्षिते निर्ममकारात्मनि प्रात्मनि स्थित्वा ह्यात्मानमवलम्ब्य च संसृतिपुरंध्रिकासंभोगसंभवसुखदुःखाद्यनेकविभावपरिणति परिहरामि । तथा चोक्त श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः-- (शिखरिणी) "निषिद्धे सर्वस्मिन सुकृतरिते कर्मणि किल प्रवृत्ते नष्कर्थे न खलु मुनयः संत्यशरणाः । तदा ज्ञाने ज्ञान प्रतिचरितमेषां हि शरणं स्वयं विदंत्येते परमममृतं तत्र निरताः ॥" - - - - - टीका-यहां पर सम्पूर्ण विभाव के त्याग की विधि का कथन है । सुन्दर कामिनी, कांचन मृवर्ण आदि सम्पूर्ण परद्रव्य और उनकी गणपर्यायों में मैं ममकार ! भाव को छोड़ता हूं । परमोपेक्षा लक्षण से लक्षित निर्ममकार स्वरूप आत्मा में स्थिर | होकर और निश्चितरूप से आत्मा का ही अवलम्बन लेकर संसाररूपी स्त्री के संभोग से उत्पन्न हुए मुख दुःखादि रूप अनेक विभाव परिणति का मैं त्याग करता है । उसी प्रकार से अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा है "इलोकार्य—'निश्चितरूप से पुण्य और पापरूप सम्पूर्ण कर्मों के निषिद्ध हो । जाने पर-छूट जाने पर तथा निष्कर्मरूप बाह्य क्रियाओं से शून्य अवस्था के हो जाने पर वास्तव में मुनिराज अशरणरूप नहीं हैं। उस काल में ज्ञान में आचरण-परिणमन ।। करता हुआ ज्ञान ही उन मुनियों के लिये शरण है, वे उस ज्ञान में लीन होते हुए स्वयं । परम अमृत का अनुभव करते हैं।" भावार्थ-वीतरागी मुनि जब शुद्धोपयोग रूप ध्यान में लीन हो जाते हैं तब | उनके पुण्य और पाप की क्रियाओं का सम्पूर्ण व्यापार रुक जाता है, उस निर्विकल्प। १. समयसार क. १०४ । LIr .. . . . .. .. . . ... . Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार [ २६५ तथा हि (मालिनी) अथ नियतमनोवाक्कायनेन्द्रिको भववनधिसमुत्थं मोहयावःसमूहम् । कनकयुवतिवांच्छामप्यहं सर्वशक्त्या प्रबलतरविशुद्धध्यानमय्या त्यजामि ।।१३४।। ... - .... -... - - अवस्था में वे योगी एकाकी होते हुए भी अशरणरूप नहीं हैं किन ज्ञानस्वरूप में परिणत आत्मा ही उनके लिए शरणभूत है । उस वीतराग निर्विकल्प व्यान के पूर्व निष्कर्मण निश्चल अवस्था नहीं होती है और न ही पुण्यका आवश्यक क्रियाएं ही छूटती हैं। उमीप्रकार से [टीकाकार मुनिराज मन इन्द्रिय आदि पर नियन्त्रण करने का अगदेश देते हुए कहते हैं--] (१३४) श्लोकार्थ-मन, वचन, काय सम्बन्धी और मम्पूर्ण पांचों इन्द्रिय सम्बन्धी इच्छाओं का जिसने नियन्त्रण कर दिया है एसा मैं अब भव समुद्र में उत्पन्न हए ऐसे मोह रूप मत्स्य' के समूह को तथा कनन और कामिनी की वाञ्छा को भी प्रबलतर विशुद्ध ध्यानमयी सर्वशक्ति से छोड़ता हूं। भावार्थ-सम्पूर्ण इच्छाओं के निरोध से ही मोह के निमित्त से होने वाली पर वस्तु की चाह रूप विभाव भावनाएं छोड़ी जा राकनी हैं अन्यथा एक पर एक इच्छाएं तो होती ही जाती हैं। यहां पर टीकाकार ने ऐसा संकेत किया है कि इन वांछाओं के त्याग करने में सर्वशक्ति लगा देनी चाहिए, क्योंकि तप और त्याग दान शक्ति के अनुसार कहे गये हैं किंतु विभाव भावों को छोड़ने में सारी शक्ति लगा देनी चाहिए अर्थान् अत्यधिक पुरुषार्थ करके वांछाओं का दमन करना चाहिए । १. यादो वैशारिगो भव इति-यादस्-मत्स्य । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] .. नियमसार आदा खु मज्झ गाणे, आदा मे दंसणे चरिते य । श्रादा पच्चक्खाणे, आदा मे संवरे जोगे ॥१००॥ श्रात्मा खलु मम ज्ञाने आत्मा मे दर्शने चरित्रे च । आत्मा प्रत्याख्याने आत्मा मे संवरे योगे ॥ १०० ॥ निश्चित मेरे ज्ञान में मेरा ही आत्मा । मेरे दर्शन और चारित, में भी आत्मा || त्याग सुप्रत्याख्यान में है मेरा आत्मा 1 मेरेसवर योग में भी मेरा आत्मा ॥१००॥ अत्र सर्वत्रात्मोपादेय इत्युक्तः । अनाद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसहजसौख्यात्मा ह्यात्मा । स खलु सहजशुद्धज्ञानचेतनापरिणतस्य मम सम्यग्ज्ञाने च सच प्रांचितपरमपंचमगतिप्राप्ति हेतु भूतपंचम भावभावनापरिणतस्य मम सहजसम्यग्दर्शन विषये च, साक्षानिर्वाणप्राप्त्युपायस्वस्वरूपाविचल स्थितिरूपसहजपरम चारित्रपरिणतेम सहजचारित्रेऽपि स परमात्मा सदा संनिहितश्च स चात्मा सदासनस्थः शुभाशुभपुण्यपापमुख गाथा १०० अन्वयार्थ -- [ खलु मम ज्ञाने आत्मा ] निश्चित रूप से मेरे ज्ञान ने आत्मा है, [ में दर्शने चरित्रे व आत्मा | मेरे दर्शन और चारित्र में आत्मा है, [ प्रत्याख्याने आत्मा ] प्रत्याख्यान में आत्मा है और [ मे संधरे योगे आत्मा ] मेरे संवर तथा योग में आत्मा है । टीका - सर्वत्र आत्मा ही उपादेय है ऐसा यहां पर कथन है । अनादि अन अमूर्तिक अतीन्द्रिय स्वभाव वाली शुद्ध सहज सौख्यस्वरूप ही आत्मा है । वास्तव वह आत्मा सहज शुद्ध ज्ञान चेतना से | परिणत हुए ऐसे मेरे सम्यग्ज्ञान में है और पूज जो परम पंचम गति सिद्धगति उसकी प्राप्ति के लिए कारणभूत पंचम भाव रूप भावना परिणत हुए ऐसे मेरे सहज सम्यग्दर्शन के विषय में वही आत्मा है । साक्षात् निर्वाण प्राप्ति के लिये उपायभूत अपने स्वरूप में अविचल स्थितिरूप सहज परम चारित्र ! परिणति से परिणत हुए ऐसे मेरे सहज चारित्र में भी वह परमात्मा सदैव सन्निहित अर्थात् विद्यमान है । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार [ २६७ - दुःखानां षण्णां सकलसंन्यासात्मकनिश्चयप्रत्याख्याने च मम भेदविज्ञानिनः परद्रव्य। पराङ मुखस्य पंचेन्द्रियप्रसरबजितगात्रमात्रपरिग्रहस्य, मम सहजवैराग्यप्रासादशिखरE शिखामणेः स्वरूपगुप्तस्य पापाटवीपावकस्य शुभाशुभसंवरयोश्च, अशुभोपयोगपराङ - - मुखस्य शुभोपयोगेऽप्युदासीनपरस्य साक्षाच्छुद्धोपयोगाभिमुखस्य मम परमागममकरंदनिष्यन्दिमुखपमप्रभस्य शुद्धोपयोगेपि च स परमात्मा सनातनस्वभावत्वात्तिष्ठति । - - - - - - - . .... भेद विज्ञानी, परद्रब्य में पराड मुख और पञ्चेन्द्रियों के व्यापार से रहित शरीर मात्र परिग्रहधारी ऐसे मेरं निम्रन्थ मनि के शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप और सुख-दुःख । इन छहों के सम्पूर्णतया त्याग रूप ऐसे निश्चय प्रत्याख्यान में वह आत्मा सदा आसन्न स्थित है-पास में विद्यमान है। सहज वैराग्यमी महल के शिखर ना शिलामणि स्वरूप अपने स्वरूप में गुप्त लीन हार, पापरूपी वन को जलाने के लिये पावक-अग्नि। सदृश ऐसे मेरे शुभ और अशुभ कर्म के सबर में वह परमात्मा ही है। अशुभयोग से पराङ मव हा, शुभोपयोग में भो उदासीन रूप और साक्षात् शुद्धोपयोग के अभिमग्ब होते हार नथा परमागमरूपी मकरन्द-पुपरस झर रहा है जिसके मुख से ऐमे मुझ पद्मप्रभ मनिराज के शुद्धोपयोग में भी वही परमात्मा मनातन स्वभाव वाला होने से विराजमान है। विशेषार्थ-यहां पर टीकाकार ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए अपनी । निर्ग्रन्थ रूप महामुनि अवस्था का बे मालुम बहुत ही सुन्दर परिचय दे दिया है। उन्होंने यह स्पष्ट कह दिया है कि मैं भेद विज्ञानी हूं, पंचेन्द्रियों के विषय व्यापार से रहित है, गात्र मात्र परिग्रह धारी-नग्न दिगम्बर मूनि हूं, तथा वैराग्यरूपी महल के शिखर का शिखामणि हं। आगे यहां तक कह दिया है कि अशुभोपयोग से सर्वथा रहित हैं, शुभोपयोग में भी उदासीन हं तथा शुद्धोपयोग के सन्मुख हैं क्योंकि दो-तीन घन्टे लगातार बैठकर ग्रंथ लिखने वाले उन मुनिराज को बीच-बीच में ही छठे से सातवां गुणस्थान होता था, परिवर्तन चलता ही रहता था, कारण छठे और सातवें गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं है । दो-तीन घन्टे तक वे छठे में रह नहीं सकते थे तथा चौथे पांचवें गुणस्थान में उनके जाने का सवाल ही नहीं है ऐसे अध्यात्म। योगी ग्रंथ रचना के समय कोई एक अपूर्व ही आत्मा का आनन्द ले रहे होंगे। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियममार २६८ ] तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ (अनुष्टुभ् ) "तदेकं परमं ज्ञानं तदेकं शुचि वर्शनम् । चारित्रं न जलेकं स्यान तदेकं निर्मलं तपः ॥ नमस्यं च तदेवकं तदेवकं च मंगलम् । उत्तमं च तदेवकं तदेव शरणं सताम् ।। (अनुष्टुभ ) आचारश्च तदेवकं तदैवावश्यकक्रिया। स्वाध्यायस्तु तदेवैकमप्रमत्तस्य योगिनः ।।" -- -.- - - - - .. .. - --- पुनः वे स्वयं कह रहे हैं कि परमागमरूपी मकरन्द का झरना मेरे मुख से झर रहा है, ओहो ! सचमुच में उनके मुखरूपी कमल से परम सुगन्धि से युक्त यह नियमसार को टीका रूप अमृतमयी रस का झरना झरा है जो कि प्रत्येक भव्य जीवों की आत्मा को सुरभित और अजरामर करने वाला है, परमतृप्तिदायी है । धन्य हैं ये । टीकाकार मुनिराज जिन्होंने श्री कुन्दकुन्द देव की गाथा रूपी मूर्य की किरणों के सदश इस टीका रूपी किरणों के आलोक से भव्य जीवों के हृदयभुवन को आलोकित कर दिया है। उसी प्रकार से एकत्व सप्तति में भी कहा है "श्लोकार्थ—'वही एक-चतन्य ज्योति ही परमज्ञान है, बही एक पवित्र निमन्न दर्शन है, वही एक चारित्र है और वही एक निर्मल तप है। ___ श्लोकार्थ-सत्पुरुष-साधु पुरुषों के लिये वही एक नमस्कार करने योग्य है। वही एक मंगलरूप है, वही एक उत्तम है और वही एक शरणभूत है । श्लोकार्थ-अप्रमत्त योगी के लिये वही एक आचार है, वही आवश्यक क्रिया है और वही एक स्वाध्याय है । १. पदमनंदिपंचविशतिका के एकत्वसप्तनि अ. में श्लोक ३६, ४०, ४१ । LA Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार [ २६६ तथा हि-- (मालिनी) मम सहजसुदृष्टौ शुद्धबोधे चरित्रे सुकृतदुरितकर्मद्वन्दसंन्यासकाले । भवति स परमात्मा संवरे शुद्धयोगे न च न च भुवि कोप्यन्योस्ति मुक्त्य पदार्थः ।।१३५।। (पृथ्वी) क्वजिलगति निर्मल बधान बिलानिमतं क्वचित्पुनरनिर्मलं गहनमेवमज्ञस्य यत् । तदेव निजबोधदीपनिहताघभूछायक सता हृदयपद्मसानि च संस्थितं निश्चलम् ।।१३६॥ उसीप्रकार मे-[टीकाकार मुनिराज उसी शुद्धात्म तत्त्व की विशेपना को दिखलाते हा दो श्लोक कहते हैं (१३५) श्लोकार्थ—मेरे सहज शुद्धदर्शन में, शुद्धज्ञान में, चारित्र में. पुण्य[पापरूपी कर्मद्वय के त्याग रूप-प्रत्याख्यान के समय में, संवर में और शुद्धयांग शद्धध्यान स्प शूद्धोपयोग में वह परमान्मा ही है, क्योंकि मुक्ति की प्राप्ति के लिये इस मंमार में अन्य कोई भी पदार्थ नहीं है-नहीं है। भावार्थ-दीतराग निविकल्प गमाधिरूप ध्यान में लीन होने पर यह आत्मा ही कारण परमात्मा रूप से स्थित है, वही परमात्मा दर्शन, ज्ञान, चारित्र, प्रत्याख्यान, संबर और ध्यान रूप है । क्योंकि वही उस समय निश्चय रत्नत्रय की एकाग्रय परिणति में परिणत हो रहा है । उस निश्चयरूप एकाग्र अवस्था में ही ये निश्चय वर्मनादि घटित होते हैं, अन्यत्र नहीं, इसीलिए इस आत्मा को छोड़कर अन्य किसी भी अनुष्ठान में मोक्ष की प्राप्ति असंभव है । (१३६) श्लोकार्थ-जो क्वचित्-कहीं पर-किसी अवस्था में निर्मल शोभित हो रहा है-दिग्वाई दे रहा है, कहीं पर निर्मलानिर्मल-उभय से मिश्रित रूप दिग्वाई रहा है, कहीं पर अनिर्मल-मलिन ही दिखाई दे रहा है, ऐसा जो यह आत्मा है वह Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] नियममार एगो य मरदि जीवो, एगो य जीवदि सयं । एगस्स जावि मरणं, एगो सिज्मदि पीरयो ॥१०॥ एकश्च म्रियते जीवः एकश्च जीवति स्वयम् । एकस्य जायते मरणं एकः सिध्यति नीरजाः ॥१०१।। इस जग में यह जीब, एकाकी मरता है । स्वयं प्रकेला पाप, पुनः जनम धरता है ।। स्वयं अकेले को हो, होता जनम मरण नित । स्वयं कमरज टोन, होता सिद्धबधू प्रिय ।।१०१.11 • - - - - - - - - . अज्ञानी लोगों के लिये समझने में गहन ही है-अत्यन्त कठिन है । अपने ज्ञान रूपी दीपक मे जिसने पापरूपी अंधकार को नष्ट कर दिया है, ऐसा वही आत्मा सज्जन पुरुषमाधुओं के हृदय कमरमपी महन में निश्चलम्प मे विराजमान है । भावार्थ- यह आत्मा मिद्धावस्था में पूर्णतया निर्मल हो चका है, अर्हन्त । अवस्था में चार अघातिया कर्मों के शेष रहने से कथचित् असिद्धत्व अवस्था की अपेक्षा से अनिर्मल भी होने से निर्मलानिमल है अथवा वीतरागी मुनि के शुद्धोपयोग रूप ध्यान में-उपयोग में निर्मल होने से भी निर्मलानिर्मल है अथवा चतुर्थ गुणस्थान से लेकर छ। गुणस्थान तक सराग अबग्था होते हुए पुण्य जीव कहलाने से और अंश-अंशरूप । अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याम्यान आदि कपायों का अभाब होने से निर्मल भी है अतः उनकी आत्मा भी निर्मलानिमल है । और पहले गुणस्थान से लेकर तृतीय गुणस्थान तक पाप जीव होने से अनिर्मल ही है । अथवा शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से मंसारी जीव भी शुद्ध ही है अत: इन नय की अपेक्षा में सभी जीव राशि निर्मल हैं, व्यवहारनय की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि आत्म से लेकर संयन आदि आत्मा निर्मलानिर्मल है और शेष संसारी जीव अनिर्मल हैं। गाथा १०१ ___ अन्वयार्थ- [जीवः एकः च म्रियते] जीव अकेला ही मरता है, [स्वयं च एक जीवति] और स्वयं अकेला ही जन्मता है, [एकस्य मरणं जायते] अकेले के ही म। होता है [एकः नीरजाः सिध्यति ] अकेला ही रज-कर्म धूलि रहित सिद्ध होता है। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय प्रत्याख्यान अधिकार [ २७१ इह हि संसारावस्थायां मुक्तौ च निःसहायो जीव इत्युक्तः । नित्यमरणे तद्भवहरणे च सहायमन्तरेण व्यवहारतश्चक एवं मिते लादिरुनि तिथिजातीय विभावरम्यंजननरनारका दिपर्यायोत्पत्तौ चासन्नगतानुपचरितासद्भूतव्यवहारनयादेशेन स्वयमेवोजीवत्येव । सर्वैर्बंधुभिः परिरक्ष्यमाणस्यापि महाबलपराक्रमस्यैकस्य जीवस्याप्राथितमपि स्वायमेव जायते मरणम्, एक एव परमगुरुप्रसादासादितस्वात्माश्रयनिश्चय शुक्लध्यानबलेन स्वात्मानं ध्यात्वा नीरजाः सन् सद्यो निर्वाति । तथा चोक्तम् ( अनुष्टुभ् ) "स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते । स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्रिमुच्यते ।। " उक्त च श्री सोमदेव पंडित देव: टीका - संसार अवस्था में और मुक्ति में यह जीव असहाय है ऐसा वहां पर कहा है। जो प्रतिसमय आयु के निषेक उदय में आकर सड़ रहे हैं उसे नित्य मरण कहते हैं तथा उस भव की आयु के समाप्त होने को तद्भव मरण कहते हैं । इस नित्य मरण और तद्भव मरण में यह जीव व्यवहारनय से सहान के बिना अकेला ही मरता है, सादिसान्त मूर्तिक विजातीय विभाव व्यंजन पर्याय रूप नर नारकादि पर्यायों की उत्पत्ति के समय निकटवर्ती अनुपचारित असद्द्भुत व्हारय के कथन से स्वयं ही यह जीव जन्म लेता है। सभी बंधुवर्गों के द्वारा रक्षित किया जाने पर भी महावल और पराक्रम वाले इस जीव के नहीं चाहते हुए भी स्वयं ही मरण हो जाता है, और एक ही यह जीव परमगुरु के प्रसाद से प्राप्त हुए ऐसे आत्मा के आश्रित निश्चय शुक्लध्यान के बल से अपनी आत्मा का ध्यान करके रज-ज्ञानावरण दर्शनावरण रूप कर्म रज से रहित होता हुआ शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त कर देता है। कहा भी है श्लोकार्थ - आत्मा स्वयं ही कर्म को करता है, स्वयं ही उसके फल को (भोगता है, स्वयं ही संसार में भ्रमण करता है और स्वयं ही उस संसार से मुक्त भी हो जाता है। ऐसे ही आचार्य श्री सोमदेव पंडिनदेव ने भी कहा है- Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २७२ ] तथा हि . नियमसार ( वसन्ततिलका ) " एकस्त्वमाविशसि जन्मनि संक्षये च भोक्तु स्वयं स्वकृतकर्मफलानुबन्धम् । अन्यो न जातु सुखदुःखविचौ सहायः स्वाजीवनाय मिलितं विटपेटकं ते ॥" ( मंदाक्रांता ) एको याति प्रबलदुरघाज्जन्म मृत्युं च जीवः कर्मद्वन्द्वोद्भवफलभयं चारुसौख्यं च दुःखम् । भूयो भुंक्त स्वसुखविमुखः सन् सवा तीव्रमोहादेकं तत्त्वं किमपि गुरुतः प्राप्य तिष्ठत्यमुष्मिन् ॥ १३७ ॥ श्लोकार्थ - हे जीव ! तू अकेला - असहाय ही अपने द्वारा किये हुए पुण्य-पा रूप कर्मों के सुख और दुःख रूप फलों का सम्बन्ध भोगने के लिये स्वयं जन्म गर्भवास में और मरण में प्रवेश करता है । दूसरा कोई कभी भी तेरे सुखदुःख रूप कर्मफल के पुत्र कलत्रादि भोगने में अथवा तुझं सुखी या दुखी करने में सहायक नहीं है । तेरे ये समूह अपनी जीवन रक्षा के लिये विटपेटक - शत्रुसमूहसदृश आकर तु मिल गये हैं । ही उसीप्रकार से [ श्री टीकाकार मुनिराज ने भी जीव कं एकाकीपन दिखलाते हुए कहा है--] ( १३७ ) श्लोकार्थ --- यह जीव अकेला ही प्रवल दुष्कृत में जन्म और को प्राप्त करता है, तथा अकेला ही सदा तीव्र मोह के निमित्त से सूख से विमु सौख्य ! होता हुआ कर्मद्वन्द्व - पुण्य पापरूप दो प्रकार के कर्मोदय के फल रूप सुन्दर दुःख को पुनः पुनः भोगता है और अकेला ही गुरुदेव के प्रसाद में कोई एक अ तत्त्व-स्वात्मतत्त्व को प्राप्त करके उसीमें स्थित हो जाता है । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : निश्चय प्रत्याख्यान अधिकार एको मे सासदो अप्पा, गाणदंसरगलक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खरमा ।। १०२ ।। कथन है । एको मे शाश्वत आत्मा ज्ञानदर्शन लक्षरणः । शेषा मे बाह्या भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ॥ १०२ ॥ मेरा आत्मा शुद्ध, शाश्वत एक अकेला | दर्शन ज्ञान स्वरूप, नहि उसमें कुछ भेला ॥ सभी पर भात्र, मुरुमं वाक्य बताये । वे सब जड़ संयोग, ने उत्पन्न कहाये ।।१०२ ॥ [ २७३ एकत्व भावनापरिणतस्य सम्यग्ज्ञानिनो लक्षणकथनमिदम् । अखिलसंसृतिनंदनतमूलालवालांभः पूरपरिपूर्णप्रणालिका वत्संस्थितकलेवरसम्भवहेतुभूत द्रव्य भावकर्माभावावेकः, स एव निखिलक्रियाकांडाडंबर विविधविकल्पकोलाहल निर्मु क्तसहजशुद्धज्ञानचेतनामतीन्द्रियं भुजानः सन् शाश्वतो भूत्वा ममोपादेयरूपेण तिष्ठति यस्त्रिकालनिरुपाधि गाथा १०२ अन्वयार्थ - [ मे आत्मा एकः शाश्वतः ] मंग आत्मा एकाकी है, नाश्वत है, -- [ ज्ञानदर्शन लक्षण: ] ज्ञान और दर्शनस्वरूप है [शेषा: ] शष [ संयोगलक्षणाः] संयोग से उत्पन्न होनेरूप लक्षण वाले [ सर्वे भावाः ] सभी भाव-पदार्थ [ मे बाह्याः ] मेरे से बाह्य हैं। टीका - एकत्व भावना से परिणत हुए सम्यग्जाती के स्वरूप का यह सकल संसार नंदनवन के वृक्षों की जड़ के आसपास की क्यारियों के सिंचन हेतु जल के पूर से भरी हुई नाली के समान प्राप्त हुए शरीर के उत्पन्न करने में कारणभूत ऐसे जो द्रव्यकर्म और भावकर्म हैं उनके अभाव से ( मेरा आत्मा एक है। और वही सम्पूर्ण क्रियाकांड के आडम्बररूप विविध विकल्पों के कोलाहल से रहित सहजशुद्धज्ञानचेतना को अतीन्द्रियरूप में अनुभव करता हुआ शाश्वत अविनाशीरूप होकर मेरे लिये उपादेयरूप से विद्यमान है, जो कि तीनों कालों में उपाधिरहित Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] नियममार स्वभावत्वात् निराधरणज्ञानदर्शनलक्षणलक्षितः कारणपरमात्मा, ये शुभाशुभकर्मसंयोग संभवाः शेषा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहाः स्वस्वरूपाबाह्यास्ते सः, इति मम निश्चयः । ( मालिनी) अथ मम परमात्मा शाश्वतः कश्चिदेकः सहजपरमचिच्चिन्तामणिनित्यशुद्धः निरवधिनिजदिव्यज्ञानहाभ्यां समुद्धः [ समृद्धः] किमिह बहुविकल्पमें फलं बाह्यभावः ॥१३॥ - -- - - - स्ट पास होने से आपरा रहित से ज्ञान और दर्शनम्प लक्षण से लक्षित कारण परमात्मा है । शेप जो शुभ-अशुभ कर्म के मुंयोग से उत्पन्न होने वाले बाह्य बा। अभ्यन्तररूप परिग्रह हैं, वे सभी मेरे अपने स्वरूप से बहिभूत हैं, ऐसा मे निश्चय है। विशेषार्थ—निश्चयनय में इस जीव में शरीर के लिए कारणभूत ऐसे नवा कम, नावकर्म नहीं है इसलिय बह आन्मा एक-असहाय-अवेला तथा सदा ही सहा माझज्ञान चतना का अनुभव कर रहा है. इसलिये शाश्वत है। वैसे ही शुद्धनिश्चम इस जीव को न कभी कर्मोपाधि हई थी, न है. न होगी इसीलिये वह पूर्णज्ञानदय म्बम्प है । से मेरी आत्मा के वर्तमान में जो भी भाव दीख रहे हैं ब सत्र व्यवहारला से कर्मापाधिजन्य होने से मुक्त से भिन्न ही हैं । [टीकाकार मुनिराज इसी बात को कलश काव्य से दिग्वाने हैं-] . (१३८) लोकार्थ- मेरा परमात्मा शाश्वत है, कोई एक अदभुत है, सह परम चैतन्य चिंतामणिरूप है. नित्य ही शुद्ध है और अनन्त निजदिव्य ज्ञानवर्मन ममद्ध है, इस अवस्था में पुन बहुत से भेदम्प इन बाह्य भावों में मुझे क्या फल है। अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं हैं। भावार्थ-- शुद्ध निश्चयनय के अवलम्बन से चिंतामणि स्वरूप आत्मा मम लेने के बाद मुझे बाह्य पदार्थों से कुछ भी नहीं होगा। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार [ २७५. जं किंचि में दुच्चरितं, सव्वं तिविहेण बोसरे । सामाइयं तु तिविहं, करेमि सव्वं रिणरायारं ॥१०३॥ यत्किचिन्मे दुश्चरित्रं सर्व त्रिविधेन विसृजामि । सामायिकं तु त्रिविधं करोमि सर्व निराकारम् ॥१०३॥ दुश्चरित्र मय दोष, जो कुछ होता मुझसे । तजता हूं उन सवं, को मैं मनवचतन मे ।। सामायिक अय भेद, कहीं आप में जो भी । कारता हूं मैं शुद्ध, निराकार सबको हो ।।१०।। आत्मगतोषानमुक्त्युपायकथनमिदम् । भेदविज्ञानिनोऽपि मम परमतपोधनस्य पूर्वसंचितकर्मोदयबलाच्चारित्रमोहोवये सति यत्किचिदपि दुश्चरित्रं भवति चेतत् सर्व मनोवास्कायसंशुद्धचा संत्यजामि । सामायिकशब्देन तावच्चारित्रमुक्तं सामायिकछेदोपस्थापनपरिहार विशुद्धधभिधानमेदात्रिविधम् । अथवा जधन्यरत्नत्रयमुत्कृष्टं करोमि, -.. - . .. .- --.. -- गाथा १०३ ___ अन्वयार्थ- [स्किचित् मे चरित्रं] जो किचित् भी मंग दृश्चरित्र है [ सर्व विविधनव्युत्सृजामि'] उन सभी को मैं मन बचन और काय में छोड़ना है [तु त्रिविधं सामायिकं] और त्रिविध सामायिक चारित्र को | सर्व निराकारं करोमि ] सभी को निराकार करता हूं। टोका-आत्मान दोपों से निमुक्त होने के उपाय का यह कथन है। मैं परमतपोधन भेदविज्ञानी हं फिर भी मेरे पूर्वसंचित कर्मोदय के बल म चारित्रमोह का उदय होने पर जो कुछ भी दुश्चरित्र-चारित्र में दोष यदि हो जाता है, तो मैं उस सभी । दुश्चरित्र का मन, वचन, काय की सम्यक् शुद्धिपूर्वक त्याग करता हूं। यहां पर सामायिक शब्द से चारित्र को कहा है, ऐसे सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि इन नाम वाले तीन भेद से यह चारित्र तीन प्रकार है अथवा मैं जघन्य रत्नत्रय १. अन्यत्र विसृजामि पाठ है। किंतु ऐसा ही ठीक प्रतीत होता है । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AX " -- . . २७६ नियमसार नवपदार्थपरद्रव्यश्रद्धानपरिज्ञानाचरणस्वरूपं रत्नत्रयं साकारं, तत् स्वस्वरूपश्रद्धान-- परिज्ञानानुष्ठानरूपस्वभावरलत्रयस्वीकारेण निराकारं शुद्धं करोमि इत्यर्थः । किच भेवोपचारचारित्रम् अभेदोपचारं करोमि, अभेदोपचारम् अभेदातुपचारं करोमि इति त्रिविधं सामायिकमुत्तरोत्तरस्वीकारेण सहजपरमतत्त्वाविचलस्थितिरूपसहजनिश्चयः चारित्रं, निराकारतत्त्वनिरतत्वान्निराकारचारित्रमिति । LIE-- - 2 को उत्कृष्ट करता हूं, नवपदार्थ मप जो परद्रव्य है उनका श्रद्धान परिज्ञान और आचरण म्प जो भाकार रत्नत्रय है वह व्यवहार रत्नत्रय है, उसको अपने स्वरूप के श्रद्धानज्ञान तथा अनुष्ठानरूप स्वभाव रत्नत्रय की स्वीकृति पूर्वक निराकार-शुद्ध करता हूं अर्थात व्यवहार रत्नत्रय के बल से निश्चयरत्नत्रय को प्राप्त करता है। और इमरी नरह से-भेदोपचार चारित्र को अभेदोपचार रूप करता हूं और अभेदोपचार चारित्र का अभेदानुपचार चारित्रम्प करता हूँ, इस तरह तीन प्रकार गामायिक को उन्नरोनर स्वीकार पूर्वक सहजपरमतत्त्व में अविचल स्थितिरूप नहई । निश्चयचारित्र होता है, यही निराकार चारित्र कहलाता है क्योंकि वह निगकार नता में निरन है। विशेषार्थ-यहां पर निश्चय रन्नत्रय को निराकार गामायिक माग कहा है। वास्तव में वीतराग नित्रि कला समाधि की अवस्था में सम्पूर्ण बाह्य विकल्पों का अभाव | हो जाने से आत्मा निर्विकल्प-निराकार हो जाता है, उस अवस्था में उसी आत्म ताई में तल्लीन होने से यह चारित्र भी निराकार मंजक हो जाता है। टीकाकार ने * "विविध सामायिक उत्तरोत्तर स्वीकारण' इस पद मे क्रम को स्पष्ट कर दिया। अर्थात भेदोपचार नामवाले व्यवहाररत्नत्रय मे अभेदोपचाररूप निश्वयरला प्रारम्भ होता है पुनः उस अभंद उपचार से अभेदअनुपचार रूप निश्चयरत्नत्रय परिणः हो जाती है । ये क्रम में पूर्व-पूर्व के आगे-आगे के लिये बनते हैं। ऐस ही अन्यत्र भापाकारों ने कहा है१भेदोपचारका चारित्रव्यवहार महावतादि पालन है, अभेदोपचार - -- --- - - १. अ. झीनलप्रसाद कृत हिंदी में पृ. २३० । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय--प्रत्याख्यान अधिकार [ २७७ तथा चोक्त प्रवचनसारव्याख्यायाम् । (वसंततिलका) "द्रव्यानुसारि चरणं चरणानुसारि द्रव्यं मियो द्वयमिदं ननु सव्यपेक्षम् । . तस्मान्मुमुक्षुरधिरोहतु मोक्षमार्ग . द्रव्यं प्रतीत्य यदि वा चरणं प्रतीत्य ।।" तथा हि चारित्र शुद्धात्मा की भावना स्वरूप है और अभेद अनुपचार चारित्र स्वभाव में निश्चल अवस्थारूप स्थितिमयी है । पंचमहाव्रत आदि भेदोपचार चारित्र हैं, जो कि छ, गुणस्थानवर्ती मुनि के होता है । स्वस्थान अप्रमन वालं गातम गुणम्यानबर्ती के अभापचार चारित्र होता है, और सानिगय अप्रमननामक सप्तम गुणम्यान में लेकर बान्हव तक अभेदानुपचार चारित्र होता है. ऐसा समझना । उसीप्रकार में प्रवचनमार की व्यान्या में भी कहा है "श्लोकार्थ—'चरण-चारित्र. द्रव्य का-आत्मतत्व का अनुसरण करने वाला होता है और द्रव्य, चरण का अनुगरण व रनेवाला होता है। ये दोनों परस्पर एक. दूसरे की अपेक्षा को रखने वाले हैं. इसलिये मुमुक्ष-साधु द्रव्य का आश्रय लेकर अथवा चरण का आश्रय लेकर मोक्षमार्ग में आगेहण करो।" भावार्थ-आन्मद्रव्य को मिल करनेवाला चारित्र है और चारित्र के अनुसार प्राप्त होने वाला आत्मद्रव्य है । जहां आत्मद्रव्य है वहीं पर चारित्र होता है, आत्मद्रव्य के अवलम्बन के बिना चारित्र नहीं होता है, इसीलिये आचार्यश्री ने कह दिया है कि चाहे द्रव्य का अबलम्बन लेवो चाहे चारित्र का, दोनों ही मोक्ष के कारण हैं । उसीप्रकार--[टीकाकार मुनिराज यतियों को संयम में सावधान रहने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं---] १. प्रद. को श्री अमृत चन्द्रमूरि कृत टीका का १२ वा श्लोक । १ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] नियममार ( अनुष्टुम् ) चित्तत्त्व भावनासक्तमयी यतयो श्रमम् यतते यातनाशीलयमनाशनकारणम् ॥ १३६ ॥ सम्मं मे सव्वभूदेसु, वेरं मज्झं ग केावि । श्रीसाए वोसरिता गं समाहि पडिवज्जए ||१०४ ॥ साम्यं मे सर्वभूतेषु वरं मह्यं न केनचित् । आशाम् उत्सृज्य नूनं समाधिः प्रतिपद्यते ॥ १०४ ॥ सब जीवों प्रति नित्य, समता भाव हमारा । नहीं किसी के साथ, सब प्राणा को आज भाव विशुद्ध समाधि वैर विरोध हमारा ॥ निश्चिन में बजता हूं । उसे प्राप्त करता हूं ॥ १०४ ॥ ( १३६) श्लोकार्थ - चैतन्यतत्त्व की भावना में जिनकी मति असक्त है ऐसे तिगण, यातना कष्ट देने के स्वभाव वाले यमराज के नाम में कारणभूत ऐसे यमसंग्रम में प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्त होते हैं । भावार्थ-व्यवहारसंयम के बिना निश्चयसंयम की सिद्धि असंभव है, अनएव आत्मतत्व की सिद्धि के इच्छुक मुमुक्षुजन पहले सम्यक्त्व सहित व्यवहारसंयम को निरतिचार पालते हैं पुनः उसी के बल से निश्चयचारित्ररूप ध्यान के द्वारा यमराज इस अपरनाम वाले आयुकर्म को भी समाप्त कर मृत्युंजयी भगवान बन जाते हैं । ¦ गाथा १०४ अन्वयार्थ - [ मे सर्वभूतेषु साम्यं] मेरा सभी जीवों में केनचित् बैरं न ] मेरा किसी के साथ वैरभाव नहीं है, [ नूनं ] [ आशां उत्सृज्य ] आशा को छोड़कर [ समाधिः प्रतिपद्यते करता हूं । समभाव है, [ मह्यं निश्चित रूप से मैं, ] समाधि को प्राप्त Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय प्रत्याख्यान अधिकार इहन्तर्मुखस्य परमतपोधनस्य भावशुद्धिरुक्ता । विमुक्तसकलेन्द्रियव्यापारस्य प्रेम मेदविज्ञानिष्वज्ञानिषु च समता मित्रामित्रपरिश्रमावान ने केनचिज्जनेन सह परं सहजवेराग्यपरिणतेः न मे काव्याशा विद्यते; परमसमरसीभावसनाथपरमसमाधि पद्य ऽहमिति । तथा चोक्त श्रीयोगीन्द्रदेवंः [ २७६ ( वसंततिलका) "मुक्त्वालसत्वमधिसत्त्व व लोपपन्नः स्मृत्वा परांच समतां कुलदेवतां त्वम् । संज्ञानचक्रमिदमंग गृहाण तूमज्ञानमन्त्रि मोहरिपुपमद । " टोका - अन्तर्मुखहुए लपोवन की भाव शुद्धि का यहां पर अपन है । रामरन इन्द्रियों के व्यापार रहित ऐसे मुझे भेदविज्ञानी अर अज्ञानी सभी जनों में समताभाव है, मित्र और शत्रुरूप परिणति का अभाव होने से मरा किसी प्राणी के साथ वैर नहीं है, सहज वैराग्य भाव से परिणत होने से मुझे कुछ भी आशा नहीं है मैं परम समरसी भाव से सहित ऐसी परम समाधि को प्राप्त होना है । इसीप्रकार से श्री योगेन्द्र देव ने भी कहा है- " श्लोकार्थ - 'हे वत्स ! तुम आलस्य को छोड़कर सहजसत्व और पराक्रम से सहित होते हुए, उत्कृष्ट ऐसी 'समता' रूपी कुलदेवता का स्मरण करके, अज्ञानरूपी मंत्री से सहित ऐसे मोहराजा रूप शत्रु का उपमर्दन करने वाले इस सम्यग्ज्ञान रूपी चत्र को शीघ्र ही ग्रहण करो ।" i भावार्थ- सम्यग्ज्ञान रूपी चक्ररत्न से मोहराजा को भार करके तीन लोक का आधिपत्यरूप साम्राज्य पद प्राप्त किया जाता है। जो मुनिराज निष्प्रमादी होकर - समता देवी की उपासना करते हैं ये देवी के प्रसार से सम्यग्ज्ञानरूपी नकरत्न को प्राप्त कर लेते हैं. यह अभिप्राय हैं । १. अमृताशीनि इलोक २१ १ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ] नियमसार सभा हि ( वसंततिलका) मुक्तांगनालिमपुनर्भहसौरपानं दुर्भावनातिमिरसंहतिचन्द्रकीतिम् । संभावयामि समतामहमुच्चकैस्तां या संमता भवति संयमिनामजस्रम् ।।१४०॥ MAL ___ (हरिणी) जयति समता नित्यं या योगिनामपि दुर्लभा निजमुखसुखाम्भोधिप्रस्फारपूर्णशशिप्रभा । परममिना प्रवज्यास्त्रीमनःप्रियमैत्रिका मुनिवरगरणस्योच्चैः सालंकिया जगतामपि ।।१४१।। उसीप्रकार से-[ टीकाकार मुनिगज समता के माहात्म्य को स्पष्ट करते हुए दो श्लोक कहते हैं- ] (१४०) श्लोकार्थ-मुक्तिरूपी स्त्री के प्रति भ्रमर सदृश, निर्वाण सौख्य के लिए मलकारण, दुर्भावनापी अंधकार समूह के लिये चन्द्रमा की चांदनी स्वरूप मी उस समता को मैं अतिशय रूप से सम्यक् प्रकार भावना करता हूं, जो कि संयमी माधुओं को हमेशा ही सम्मत अर्थात् मान्य है । भावार्थ-जीवन, मरण, शत्रु, मित्र, सुख, दुःख और लाभ, अलाभ में रागढष का अभाव होना, हर्प विषाद परिणति नहीं करना, मध्यस्थ भावना से स्थित रहना ममता है। इस समता के बिना दुर्भावों का विनाश नहीं हो सकता है पुनः मंकम्प-विकल्पों के होते रहने मे निर्विकल्प ध्यान की मिद्धि असंभव है अतः हमेशा साम्प्रभाव का अवलम्बन लेना चाहिए। . . (१४१) इलोकार्थ—जो योगियों को भी दुर्लभ है, अपने अभिमुख होने से उत्पन्न हए सूख समुद्र की अतिणय वृद्धि के लिये पूर्णिमा का चन्द्रमा की चांदनीरूप है, परम संयमियों की दीक्षारूपी स्त्री की प्रिय सहेली है तथा मुनि समूह के लिये और जगत के लिए भी अतिशयरूप से अलंकार स्वरूप है, वह समता नित्य ही जयशील हो रही है। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय-प्रत्याख्यान आधकार [ २८१ रिएक्कसायस्स दंतस्स' सरस्स ववसायिरगो। संसारभयभीदस्स पच्चक्खाणं सुहं हवे ॥१०॥ निःकषायस्य दान्तस्य शूरस्य व्यवसायिनः । संसारभयभीतस्य प्रत्याख्यानं सुखं भवेत् ॥१०५।। निष्कषाय और शूर, इन्द्रिय दमन करे हैं। निहित का व्यवसाय, हो जो नित्य करे हैं ।। भव दुःख से भयभीत, ध्यान लीन जो हो । निश्चय प्रत्याख्यान, उनको सुख से होवे ।।१०५।। निश्चयप्रत्याख्यानयोग्यजीवस्वरूपाख्यानमेतत । सकलकषायकलंकपकविमुक्तस्य निखिलेन्द्रियव्यापारविजयोपाजितपरमदान्तरूपस्य अखिलपरीषहमहाभटविजयोपाजितनिजशूरगुणस्य निश्चयपरमतपश्चरणनिरतशुद्धभावस्य संसारदुःखभीतस्य व्यवहारेण - -- .. ....... --- - - -- - - -- भावार्थ--इस समभाव के बिना अंत: मुख प्रगट नहीं हो सकता है, तथा इसके बिना मुनिराज सुशोभित नहीं होते हैं इसलिये जैसे यह मुनिवरों का भूषण है वैसे ही जगत् का भी भूषण है । वीतरागता के बिना जगत में भान्ति का लेश नहीं हा सवाना है। गाथा १०५ अन्वयार्थ-[निःकषायस्य] ऋपाय रहित, [ दान्तस्य ] इन्द्रियों का दमन करने वाले, [शूरस्थ व्यवसायिनः] शूरवीर, उद्यमशील और [ संसार भय भीतस्य ] ससार से डरने वाले ऐसे साधु के [सुखं प्रत्यायानं] मुखमय प्रत्याख्यान, [ भवेत् ] होता है । i टोका-निश्चय प्रत्याख्यान के योग्य ऐसे जीव के स्वरूप का यह कथन है । सम्पूर्ण कषाय कलंक रूपी पंक से विमुक्त, संपूर्ण इन्द्रियों के व्यापार के विजय से उपाजित की है परम दमनशीलता जिन्होंने, अखिल परीपह रूपी महायोद्धाओं के विजय से प्रगट किया है अपना शूर गुण जिन्होंने निश्चय परम तपश्चरण में लीन १. दांतस्स (क) पाठान्तर Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i नियमसार चतुराहारविवर्जनप्रत्याख्यानम् । किं च पुनः व्यवहारप्रत्याख्यानं कुदृष्टेरपि पुरुषस्य चारित्रमोहोदय हेतु मृतद्रव्यभावकर्मक्षयोपशमेन क्वचित् कदाचित्संभवति । अत एव निश्चय प्रत्याख्यानं हितम् अत्यासन्नभव्य जीवानाम्; यतः स्वर्णनामधेयधरस्य पाषाणस्योपादेयत्वं न तथांधपाषाणस्येति । ततः संसारशरीरभोगनिवेंगता निश्चय प्रत्याख्यानस्य कारणं, पुनर्भादिकाले संभाविनां निखिलमोहरागढ पादिविविधविभावानां परिहारः परमार्थप्रत्याख्यानम्, अथवानागतकालोद्भयविविधान्तर्जल्पपरित्यागः शुद्धनिश्चय प्रत्यायानम् इति । २८२ ] होने से उत्पन्न हुए शुद्धभाव से सहित तथा संसार के दुःखों से भयभीत हुए ऐसे मुनिराज के व्यवहारथ से चतुराहार त्याग रूप प्रत्याख्यान होता है । किन्तु यह व्यवहार प्रत्यास्थान मिध्यादृष्टि पुरुषों के भी चारित्रमोह के उदय में कारणभुत द्रव्य और भावकर्म के क्षयोपशम से क्वचित् कदाचित् संभव है, इसलिये अति निकट भव्य जीवों के लिए निश्चय प्रत्याख्यान ही हितरूप है, क्योंकि स्वर्ण नामको घरते वाला ऐसा स्वर्णपापाण ही उपादेयभुत है न कि उसीप्रकार से पापाण | अतः संसार शरीर और भोगों से निर्देगता - विरक्तता निश्चय प्रत्याख्यान का कारण है, और पुनः भविष्यकाल में होने वाले सम्पूर्ण मोह-राग-द्वेष आदि विविध विभावों का त्याग होना परमार्थप्रत्याख्यान है, अथवा भविष्यकाल में होने वाले विविध अन्तर्जल्पों का परित्याग शुद्ध निश्चय प्रत्याख्यान है 1 विशेषार्थ - यहां ऐसा बताया है कि व्यवहार प्रत्याख्यात मिथ्यादृष्टि के भी हो सकता है इसलिये निश्चय प्रत्याख्यान सर्वथा हितरूप है। इसमें ऐसा भी समझ लेना है कि व्यवहार प्रत्याख्यान के बिना आज तक निश्चय प्रत्याव्यान न हुआ है और न होगा ही, हां, इतना अवश्य है कि व्यवहार को साधन और निश्वय को साध्य समझना चाहिए। यहां पर वैसे चार प्रकार का प्रत्याख्यान बनाया गया है । प्रथम व्यवहार प्रत्याख्यान है जिसमें सम्यक्त्व और मिथ्यात्व की कोई विवक्षा नहीं है, मात्र, चतुराहार त्यागरूप है। दूसरा संसार शरीर और भोगों के त्यागरूप जो कि निश्वय प्रत्याख्यान का कारण है । तीसरा भविष्य में समस्त विभावों के त्यागरूप हैं जो कि परमार्थ प्रत्याख्यान नाम वाला है, यह सातवें से प्रारम्भ हो जाता है और चांपा Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय प्रत्याख्यान अधिकार ( हरिणी ) जयति सततं प्रत्याख्यानं जिनेन्द्रमतोद्भवं परमयं मिनामेतनिर्धाणसौख्यकरं परम् । सहजसमता देवीसत्कर्णभूषणमुच्चकैः मुनि शृणुते दीक्षाकान्तातियौवनकारणम् ॥ १४२ ॥ एवं भेदभासं, जो कुव्वइ जीवकम्मरणो णिच्चं । पच्चक्खाणं सक्कवि, धरिदु सो संजदो रिणयमा ॥ १०६ ॥ | एवं भेदाभ्यासं यः करोति जीवकर्मणोः नित्यम् । प्रत्याख्यानं शक्तो धतु स संयतो नियमात् ॥११०६॥ [ २८३ भविष्यकालीन समस्त अन्तर्जल्पों से भी शून्य निर्विकल्परूप हैं जो कि शुद्ध निश्चय प्रत्याख्यान कहलाता है। यह श्रेणी में ही संभव है । [ अब टीकाकार प्रत्याख्यान की विशेषता प्रगट करते हुए कहते हैं- 1 ( १४२ ) श्लोकार्थ -- जिनेन्द्र भगवान के मत में होने वाला प्रत्याख्यान सदैव जयशील हो रहा है । यह परम संयमियों के लिये निर्वाण सौख्य को करने वाला है, उत्कृष्ट है, और अतिशयरूप से सहज समता देवी के सुन्दर कानों का आभूषण है । हे मुनिने ! गुतो यह आपकी दीक्षारूपी प्रिय पत्नी के अतिशयरूप यौवन का कारण है । भावार्थ-यौवन से सहित स्त्री अपने पति को जितना सुख प्राप्त कराती है उतना बाला स्त्रीया वृद्धा स्त्री से नहीं होता है, इसीलिये टीकाकार ने प्रलोभन रूप शब्दों में कहा है कि है मुनिराज ! यह प्रत्याख्यान तुम्हारी दीक्षा के जीवन में अत्यधिक हितकर होने से अत्यधिक सुखदायी है । गाथा १०६ अन्वयार्थ – [ एवं यः ] इसप्रकार से जो साधु, [ नित्यं ] नित्य ही, [ जीवकर्मणोः भेदाभ्यासं ] जीव और कर्म के भेद का अभ्यास, [ करोति ] करता है, [ सः Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ] मार्गदर्शक :- आचाय नियमसार इस विध से जो नित्य, जीव और करते भेदाभ्यास, भिन्न ग्रहें निज वे संगत गुरुदेव, बाह्य स्थाग के बल से । निश्चय प्रत्याख्यान निश्चित ही कर सकते ||१०६ ॥ कर्मों में । मन में ।। निश्चयप्रत्याख्यानाध्यायोपसंहारोपन्यासोयम् । यः श्रीमदन्मुखारविव विनिर्गतपरमागमार्थविचारक्षमः, अशुद्धान्तस्तत्त्वकर्मपुङ्गलयोरनादिबन्धन संबन्धयोर्भेद मेदाभ्यासबलेन करोति स परमसंयमी निश्चय व्यवहारप्रत्याख्यानं स्वीकरोतीति । (स्वाना) भाविकालभवभावनिवृत्तः सोहमित्यनुदिनं मुनिनाथः । भावयेदखिलसौदनिधानं स्वस्वरूपममलं मलमुक्त्यै ॥। १४३ || संयतः ] वह संगमी, [ नियमात् ] नियम [ प्रत्याख्यानं धतुं शक्तः ] प्रत्याख्यान को धारण करने में समर्थ होता है । टीका – निश्रय प्रत्याख्यान अध्याय के उपसंहार का यह कथन है । जो श्रीमान् अरहन्तदेव के मुख कमल से विनिर्गत ऐसे परमागम के विचार में समर्थ हैं । अनादिकाल के बंधन से सम्बन्धित ऐसे अशुद्ध चैतन्य तत्त्व और कर्म पुद्गल में भेदा भ्यास के बल से भेद को करता है, वह परमसंयमी निश्चय और व्यवहार इन दोनों प्रत्याख्यानों को स्वीकार करता है, ऐसा समझना । [ अब टीकाकार मुनिराज इस प्रत्याख्यान प्रकरण को समाप्त करते हुए नौ श्लोकों से इसकी महिमा को स्पष्ट करते हैं- 1 ( १४३ ) श्लोकार्थ - जो भविष्यकाल में भव को करने वाले ऐसे भावों से रहित हो चुके हैं 'सो ही मैं हूं मुनियों के नाथ ऐसे महामुनि मल से मुक्त होने के लिये समस्त सौख्य का निधान और अमल - निर्दोष ऐसे अपने स्वरूप की प्रतिदि भावना करें | Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार [२८५ (स्वागता) घोरसंसृतिमहार्णवभास्वधानपात्रमिदमाह जिनेंद्रः । तत्त्वतः परमतत्त्वमजन भावयाम्यहमतो जितमोहः ॥१४४।। ( मंदाक्रांता) प्रत्याख्यानं भवति सततं शुद्धचारित्रमूर्तेः भ्रान्तिध्वंसात्सहजपरमानन्दचिनिष्ठबुद्धेः । नास्त्यन्येषामपरसमये योगिनामास्पदानां भूयो भूयो भवति भविनां संसृतिररूपा ॥१४५।। भावार्थ-जो संमार में भ्रमण कगने वाले ऐसे भावों से पूर्ण प्रत्याख्यान | स्वरूप हो चके हैं ऐसे पूर्ण शुद्ध सिद्ध भगवान हैं । शुद्धनिश्चयनय से 'वही मैं हूं' अर्थात् मैं भी समस्त विभाव भावों मे रहित ही हूं ऐसी भावना के द्वारा नित्य ही अपने स्वरूप का चितवन करना चाहिए । (१४४) श्लोकार्थ-घार मंगाररूपी महाममुद्र में यह देदीप्यमान जलयानजहाज है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है, अता व भोह को जीन लिया है जिसने ऐसा मैं परमार्थ से दम परमतत्व को नित्य ही भाता हूं। (१४५) इलोकार्थ-भ्रान्ति के नष्ट हो जाने से महज परमानन्दमय चैतन्य मनालीन है बुद्धि जिनकी, तथा जो शुद्ध चारित्र की मर्तिस्वरूप ऐसे साधु के सतत ही प्रत्याभ्यान होता है, किंतु अपर समय-अन्य सम्प्रदाय में स्थान रखने वाले ऐसे अन्य योगियों के वह नहीं होता है प्रत्युत उन संसारी जीवों के पुनः पुन: घोर संसार ही । होता है। भावार्थ--'अन्य प्रति में पाठ भेद होने से अन्य भाषाकार ने उसका अर्थ भी ___वमा ही किया है । जैसे-"चिन्निष्ठ बुद्ध" की जगह 'चिन्नष्ट बुद्धः' है जिसने... चैतन्य शक्ति के द्वारा विकल्परूप बुद्धि को नष्ट कर दिया है । आगे 'योगिनामास्पदानां' . .. . ... . . १. म. शीतलप्रसाद कृत हिंदी सहित मुद्रित प्रति"""""" . - - .. Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] नियमसार (शिखरिणी) महानंदानंदो जगति विदितः शाश्वतमयः स सिद्धात्मन्युचनियतवसतिनिर्मलगुणें । अमी विद्वान्सोपि स्मरनिशितशस्त्ररभिहताः कथं कांक्षत्येनं बत कलिहतास्ते जडधियः ।।१४६॥ (मंदात्रांता) प्रत्यारूपानाद्भवति यमिषु प्रस्फुटं शुद्धशुद्धं सच्चारित्रं दुरघतरुसांद्राटवीवह्निरूपम् । तन्वं शीघ्र कुरु तव मतो भव्यशार्दूल नित्यं यत्किभूतं सहजसुखदं शीलमूलं पुनोनाम् ॥१४७।। - --- --- की जगह 'योगिनामाम्यदान' पार होने में उसका अर्थ- "अन्य आगम में लीन अन्य योगियों का मुख दान (उपयोग) इस ओर नहीं हो सकता है, सा अर्थ देखा जाता है। (१४६) श्लोकार्थ-- जो महान आनन्द स भी अधिक आनन्दम्प ऐसा महान आनन्द आनन्दम्वरूप जगत में प्रसिद्ध है, शाश्वतमय है, वह अनिश यरूप में निर्मल । गुणों से सहित सिद्धात्माओं में निश्चितम्प से निवास करता है, किन्तु ये विद्वान लोग । भी जो कामदेव के तीक्ष्ण शस्त्रों से घायल हैं, ऐसे इस परमतत्व की वाञ्छा कैसे | करते हैं ? अहो ! बड़ा आश्चर्य है, कि वे जड़ बुद्धि जीव पाप से नष्ट हो रहे हैं। भावार्थ-जो परमतत्त्व मुक्त जीवों के पास है, संसारी प्राणी सम्पूर्ण विभाव विकल्पों से रहित उन्हीं सिद्धों में तन्मय-एक रूप होकर उसे प्राप्त कर सकत हैं कित जो विपय वासना में लिप्त हैं उनके लिये चाहने पर भी वह तन्त्र दुर्लभ है, नहीं मिलता है । इन्द्रिय और अतोन्द्रिय सुग्न एक साथ असंभव है । विषय सुख भी मिल और परमार्थ मुख भी ऐसा कभी किसीने न देखा है और न सुना ही है । साधुजना जब पूर्ण ब्रह्मचर्य के अवलम्बन से अंत: शुद्ध करते हैं उन्हें अंशात्मक आत्मा का आनंद आता है, वह आनन्द भोगी गृहस्थी को स्वप्न में भी दुर्लभ है । (१४७) श्लोकार्थ--जो सम्यक्चारित्र संयमियों में प्रगटरूप है शुद्ध में भी शुद्ध अत्यन्त शुद्ध है, और दुष्ट पाप कर्मरूपी वृक्षों से सघन ऐसे वन को जलाने के Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८७ निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार (मालिनी) जयति सहजतत्त्वं तत्त्वनिष्णातबुद्धः हृदयसरसिजाताभ्यन्तरे संस्थितं यत् । तदपि सहजतेजः प्रास्तमोहान्धकार स्वरसविसरभास्वबोधविस्फूर्तिमात्रम् ॥१४८।। ( पृथ्वी) अखंडितमनारतं सकलदोषदूरं परं भवांबुनिधिमग्नजीवततियानपात्रोपमम् । अथ प्रथलदुर्गवर्गदवह्निकोलालकं नमामि सततं पुनः सहजमेव तत्त्वं मुदा ॥१४६॥ लिए अग्नि के मदश है बह चारित्र प्रत्याख्यान से ही होता है, अतः हे भव्योतम ! । तृम शीघ्र ही अपनी वृद्धि में उस तत्व को नितति धारण करों । जो कि कैसा है ? ' सहजमुम्ब को देने वाला ऐमा मुनियों के शील-चारित्र का मूल है । भावार्थ - प्रत्याख्यान अर्थात त्याग, इसके बिना सम्यक्चारित्र ही असम्भव है अतएव यह त्याग ही मुनियों के सम्पूर्ण चारित्र वृक्ष की जड़ स्वरूप है । एसा समझना। (१४८) श्लोकार्थ-महजतन्व जयशील हो रहा है जो कि तत्त्व में निष्णात बुद्धि वाले ऐसे महामुनि के हृदयकमल के मध्य में विराजमान है । अस्त कर दिया है मोहरूपी अंधकार को जिसने ऐसा वह सहज तेज ( स्वाभाविक ज्योति ) अपने रसअनुभव के विरतार मे देदीप्यमान ज्ञान का स्फुण मात्र-प्रकाश मात्र है । (१४६) श्लोकार्य-जो अम्वण्डित-अखण्ड एक, अनारत-अविछिन्न, सकल दोषों से दूर, उत्कृष्ट, संसार समुद्र में डूबे हुए जीव समूह के लिये जहाज स्वरूप, प्रबल दुर्ग-संकट समूहरूपी दावानल को बुझाने के लिये जल के सदृश है, ऐसे उस सहज तत्त्व को ही मैं हर्ष से पुनरपि सतत नमस्कार करता हूं। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '' २८८] नियमसार ( पृथ्वी ) जिनप्रभुमुखारविन्दविदितं स्वरूपस्थितं मुनीश्वर मनोगृहान्तरसु रत्नदीपत्र भम् नमस्यमिह योगिभिविजित दृष्टिमोहादिभिः नमामि सुखमन्दिरं सहजतस्वमुच्चैरदः ।। १५० ।। (पृथ्वी) 1 प्रनष्ट प्रहृतपुण्यकर्मजं प्रधूतमदनादिकं प्रत्रलबोधसौधालयम् । प्रणामकृततत्त्ववित् प्रकरणप्रणाशात्मकं प्रवृद्धगुणमंदिरं प्रहृतमोहरात्रि नुमः ।। १५१ ।। ( १५० ) श्लोकार्थ - - जो जिनप्रभु के मुखकमल से विश्रुत है, स्वरूप में स्थित है - अपने आपमें ही विराजमान है, मुनीश्वरों के मनरूपी महल के भीतर रखे हुए सुन्दर रत्नदीप के समान है, दर्शनमोह को जीतने वाले योगियों के द्वारा इस जगत में नमस्कार करने योग्य है ऐसे मुख के मन्दिर उस सहजतत्त्व को मैं अतिशयरूप से नमस्कार करता हूं । ( १५१ ) श्लोकार्थ - जिसने प्रकर्षण से समूह को नष्ट कर दिया है, जिसने पुण्य कर्म के समूह को भी प्रकर्षरूप से मार दिया है, जिसने कामदेव आदि को प्रकर्षरूप से समाप्त कर दिया है, जो प्रबल अर्थात् प्रकृष्ट बलशाली ज्ञान- केवलज्ञान का निवास गृह है, जिसको तत्त्ववेत्ता प्रणाम करते हैं। जो प्रकृष्टरूप से करण - इन्द्रियों का नाम करने वाला है अथवा जो प्रकरण करने योग्य कार्य के नाश स्वरूप कृतकृत्य है, जो प्रकृष्ट रूप से वृद्धिगत गुणों के रहने के लिये स्थान स्वरूप है और जिसने प्रकर्ष रूप से मोहरात्रि को नष्ट कर दिया है ऐसे उस सहज परमतत्त्व को हम नमस्कार करते हैं । भावार्थ - यहां काव्य के प्रकाण्ड विद्वान पद्मप्रभमलधारी मुनिराज ने प्रत्येक पद के प्रारम्भ में 'प्र' शब्द का प्रयोग किया है जो कि आठ बार आया हूँ जिससे शब्द में ही नहीं बल्कि अर्थ में भी लालित्य आ गया है । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार [२९६ विशेषार्थ---साधु देववंदना, गुरुवंदना करके शरीर की शुद्धि करके आहार के मए जाते हैं । श्रावक के द्वारा पड़गाहन होने पर वे उनके घर में प्रवेश करते हैं, पश्चात् नवधाभक्ति होने के बाद वे सिद्धभक्तिपूर्वक प्रत्याख्यान की निष्ठापना करते हैं और चतुरंगुल पाद के अंतराल से खड़े होकर आहार करते हैं। यथा--'सभी प्रतिज्ञा पूर्ण हो चुकने पर सिद्ध भक्तिपूर्वक पूर्व दिन के ग्रहण किये हुए प्रत्याख्यान का त्याग इ. करके......खड़े होकर आहार करते हैं अर्थात् कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि गुरु के पास से प्रत्याख्यान त्याग करके आहारार्थ जावें सो गलत है क्योंकि मार्ग में प्रत्याख्यान बिना रहना उचित नहीं है, इसी बात को यहां स्पष्ट किया है। जैसे वहां प्रत्याख्यान का निष्ठापन कर आहार ग्रहण करें वैसे ही वहीं पर बीघ्र ही भोजन के अनन्तर लघु सिद्धभक्तिपूर्वक प्रत्याख्यान ग्रहण कर लेवें, पुनः आकर गुरु के पास लघु सिद्धयोगि . भक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान लेब । यदि वहां ग्रहण नहीं करे और मार्ग में जाते हुए अकस्मान् विसी कारण मे मरण हो जावे तो अप्रत्याग्यान हो जावेगा। यहां इस अधिकार में व्यवहार प्रत्याख्यान करने वाले ऐसे महामुनियों के निम्नय प्रत्याख्यान का वर्णन है, और यह निश्चय रत्नत्रय में ही घटित होता है । व्यवहार प्रत्याख्यान जिनके है उनके निश्चय है और नहीं भी है, किंतु जिनके निश्चय प्रत्याख्यान है उनके व्यवहार प्रत्याख्यान अवश्य हो चुका है, क्योंकि व्यवहार के बिना निश्चय नहीं हो सकता है । इस अधिकार को पढ़कर नित्य ही निश्चय प्रत्याख्यानरूप [ शुद्ध आत्मा की भावना करनी चाहिये । १. वर्णी पूर्णप्रतिज्ञोऽथ सिद्ध भक्ति विधाय तत् । प्रत्याख्यान विनिष्ठाय प्रेरितो भक्तदातृभिः ।।११६॥ प्राचारसार पृ. १३४ ] हयं त्याज्यं साधुनः निष्ठाप्यमित्यर्थः किं तत् ? प्रत्याख्यानादिक मुपोषित बा । क्व ? अशनादौ भोजनारंभे । कया सिद्ध भक्त्या । ....सिख भक्त्या प्रतिष्ठाप्यं साधुनाः.... [ अनगार धर्मामृत पृ. ६४६] २. प्रत्याख्यानं विना देवात् क्षीणायुः स्याद्विराधकः । । तदल्पकालमप्यरुपमप्यर्थ पृथु चंडवत् ।।३०।। [प्रन धर्मामृत पृ. ६५०] Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] नियमसार इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवजितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभम धारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पयवृत्ती निश्चयपत्याख्यानाधिकारः पच्छ श्रुतस्कन्धः ॥ ------...-. .. .....-..-....इसप्रकार से सुकवि समूहरूपी कमल के लिये सूर्य के समान, पंचेन्द्रियों व्यापार से रहित, गात्र मात्र परिग्रहधारी-परम निर्ग्रन्थ तपोधन श्री पद्मप्रभमलबार देव विरचित नियमसार की तात्पर्यवृति नामक टीका में निश्चय प्रत्याख्यान अधिकार, नामका छठा श्रुतस्कन्ध पूर्ण हुआ। RE FLU Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ । [७] 纪的学等等安安安安这 13238222888 परम-मालोचना अधिकार . आलोचनाधिकार उच्यतेगोकम्मकम्मरहियं, विहावगुणपज्जएहिं वदिरित्तं । अप्पारणं जो झायदि, समणस्सालोयणं होदि ॥१०७॥ नोकर्मकर्मरहितं विभावगुणपर्यययतिरिक्तम् । आत्मानं यो ध्यावति श्रमणस्यालोचना भवति ॥१०७॥ सग्विणीछंद कर्म नोवार्भ से हीन जो शृद्ध है। गुगण व पर्याय वैभाव से रिक्त है ।। जो उमी आतमा को सदा ध्यावते । वे श्रमगा ही तो पालोचना पावते ॥१०७।। - - - अब आलोचना अधिकार को कहते हैं गाथा १०७ अन्वयार्थ-[नोकर्मकर्मरहितं] नोकर्म और द्रव्यकर्म से रहित [ विभावगुणपर्ययः व्यतिरिक्त ] विभावगुण पर्यायों से रहित [ आत्मानं ] आत्मा का [ यः व्यापति ] जो ध्यान करता है [तस्य] उस [श्रमणस्य] श्रमण के [मालोचना भवति] आलोचना होती है। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] नियमसार निश्चयालोचनास्वरूपाण्यानमेतत् । औदारिकर्वक्रियिकाहारकर्तजसकार्मणानि शरीराणि हि नोकर्माणि ज्ञानदर्शनावरणांतराय मोहनीयवेदनीयायुर्नामगोत्राभिधानानि हि द्रव्यफर्माणि । कर्मोपाधिनिरपेक्षसत्ताग्राहकशुद्धनिश्चयद्रव्याथिकनयापेक्षया हि एभिनॊकर्मभिर्दथ्यकर्मभिश्च निर्मुक्तम् । मतिज्ञानादयो विभावगुणा नरनारकाविव्यंजनपर्यायाश्चैव विभावपर्यायाः । सहभुवो गुणाः क्रमभाविनः पर्यायाश्च, एभिः समस्तः व्यतिरिक्त, स्वभावगुणपर्यायः संयुक्त त्रिकालनिरावरगनिरंजनपरमात्मानं त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिना यः परमश्रमणो नित्यमनुष्ठानसमये वचनरचनाप्रपंचपराङ मुखः सन् ध्यायति, तस्य भावश्रमणस्य सततं निश्चयालोचना भवतीति । तथा चोक्त दीमा तननानिधि - (आय) "मोहविलासविज़ भितमिदमुदयत्कर्म सकलमालोच्य । आत्मनि चतन्यात्मनि निष्कमणि नित्यमात्मना वर्ते ॥" टोका-यह निश्चय आलोचना के स्वरूप का कथन है । औदारिक, वैक्रियक, आहारक, ते जम और कामंग ये पांचों शरीर ही नोकर्म हैं, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय, मोहनीय, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र नाम ' वाले ये आठ द्रव्य कर्म हैं। कर्मों को उपाधि से निरपेक्ष गत्तामात्र ग्राहक जो शुद्ध, निश्चय द्रव्याथिकनय है उसकी अपेक्षा से जीव इन नोकर्म और द्रव्यकों से निमुक्त है। मतिज्ञान आदि विभावगुण हैं और नर नारकादि व्यंजन पर्याय विभाव पर्याय है, क्योंकि सहभावी गुण होते हैं और क्रमभावी पर्यायें होती हैं, इन समस्त विभावगुणपर्यायों से रहित तथा स्वभाव गुण और स्वभाव पर्यायों में सहित, त्रिकाल निराकरण निरंजनरूप ऐसी परमात्मा का जो परमश्रमण-महामुनि नित्य ही अनुष्ठान के समय में वचन रचना के प्रपंच से पराङ मुख होते हुए ध्यान करते हैं, उन भावथमण के सतत निश्चय आलोचना होती है । उसीप्रकार श्री अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा हैश्लोकार्थ--'मोह के विलास से विस्तार को प्राप्त और उदय में आता हु १. समयसार कलश, २२७ । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम- अालोचना अधिकार [ २९३ उक्त चोपासकाध्ययने (आर्या ) "आलोच्य सर्वमेनः कृतकारितमनुमतं च नियाजम् । आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निःशेषम् ॥" तथा हि पालोच्यालोच्य नित्यं सुकृतमसुकृतं घोरसंसारमूलं शुद्धात्मानं निरुपधिगुणं चात्मनवावलम्बे । --- . - -. . - - जो यह मकल कर्ष है उसकी आलोचना करके कर्मों से शुन्य और चैतन्य स्वरूप ऐसी अपनी आत्मा में मैं नित्य ही अपनी आत्मा के द्वारा 'निवास करता हूं। भावार्थ-भुतकालीन दोषों के त्याग को प्रतिक्रमण, भविष्यकालीन दोषों के त्याग को प्रत्याख्यान और वर्तमानकालीन दोषों के त्याग को आलोचना कहते हैं तथा संपूर्ण दोषों की उत्पत्ति का मूलकारण द्रव्यकर्म है इसलिये यहां उन्हीं उदय में आते हए द्रव्यकों की आलोचना की गई है। 'उपागकाध्ययन में भी कहा है श्लोकार्थ- "कृत, कारित, अनुमोदना से हुये ऐसे सम्पूर्ण पापों की निष्कपटवनि से आलोचना करके मरणकालपर्यंत संपूर्ण महानतों को आरोपित कर-ग्रहण करे ।" भावार्थ-जब कोई भी श्रावक सल्लेखना हेतु गुरु के पास जाता है तब वह संपूर्ण दोषों की आलोचना करके शेष जीवन तक के लिये गुरुदेव से महाव्रत लेकर मुनि हो जाता है। उसीप्रकार से [ श्री टीकाकार मुनिराज आलोचना का फल बतलाते हुए लोक कहत हैं-] (१५२) श्लोकार्थ-घोर संसार के लिये मूल ऐसे मृत और दाक्रत की । नित्य ही बार-बार आलोचना करके उपाधि रहित गुणों से युक्त ऐसी अपनी शुद्ध आत्मा १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार स्वामी समंतभद्र विरचित श्लोक १२५ । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . HT: ---- २९४ ] नियमसार पश्चादुच्चः प्रकृतिमखिला द्रव्यकर्मस्वरूपां नोत्या नाशं सहजविलसद्बोधलक्ष्मी व्रजामि ।।१५२।। पालोयणमालुछण, वियडीकरणं च भावशुद्धी य । चरविमिह परिकहियं, पालोयणलक्खणं समए ॥१०॥ आलोचनमालु छनमविकृतिकरणं च भावशुद्धिश्च । चतुयिमिह परिकथितं आलोचनलक्षणं समये ॥१०॥ ----. का अपनी आत्मा के द्वारा ही मैं अवलम्बन लेता हूं। अनन्तर द्रब्यकर्म म्वरूप ममा प्रकृतियों को अत्यन्तरूप से नाग करके सहज विलासरूप ऐसी बोध-केवलज्ञान लक्ष्मी को प्राप्त करता हूं । भावार्थ-जो पुण्य-पाप इन दोनों की आलोचना हो रही है वह अवस्था शुद्धोपयोगी परमवीतरागी मुनियों को होती है कि जहां पर-दशवें गुणस्थान में मोहनी कर्म का जड़मल से नाश कर पुनः शीघ्र ही बारहवें गुणस्थान के अन्त में शेष घातिक कमों का नाश कर देते हैं और तत्क्षण ही केवलनान को प्राप्त कर लेते हैं। छठे गुम्। स्थान तक मुनियों के केबल पापकर्मों की आलोचना होती है पुग्य को नहीं । तथा यह जो पुण्य को भी घोर संसार का मल कहा है वह सामान्य कथन है किन्तु विशेष कर में सम्यक्त्व सहित पुण्य परंपरा से मोक्ष का कारण है और सम्यक्व रहित पुण्य कदाचित् सम्यक्त्व आदि में कारण है । कदाचित् वापस सुग्य भोग के अनन्तर पाप निवृत्ति कराकर संसार में भ्रमाता ही रहता है । अत: सर्वथा एकांत नहीं समझाई क्योंकि ''पुण्णफला अरिहंता' ऐसा श्री कुदकुद देव का ही कथन है । गाथा १०८ अन्वयार्थ— [ आलोचनं ] आलोचना [पालुञ्छनं] आलु छन [ अविपूर्ण करणं ] अविकृतिकरण [ च ] और [ भावशुद्धिः च ] भावशुद्धि ये [ चतुः । १. प्रवचनसार गाथा-४५, अधिकार-१ । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम-आनोचना अधिकार [ २६५ नाम मालोचना और आलुछना । और अविकृतिकरण भावशुद्धी भरणा ॥ ये चतुर्विध कहे श्रेष्ठ जिनशास्त्र में। सर्व पालोचना के ही लक्षण हैं ये ॥१०८।। आलोचनालक्षणभेदकथनमेतत् । भगवदर्हन्मुखारविन्वविनिगंतसकलजनता- पतिसुभगसुन्दरानन्दनिष्यन्धनक्षरात्मकदिव्यध्वनिरिमानकुशलचतर्थज्ञानधरगौतममह - विमुखकमलविनिर्गतचतुरसंदर्भगर्भीकृतराद्धांतादिसमस्तशास्त्रार्थसार्थसारसर्वस्वीभूतशुद्धनिश्चयपरमालोचनायाश्चस्वारो विकल्पा भवन्ति । ते वक्ष्यमाणसूत्रचतुष्टये निगद्यन्त - इति । ( इन्द्र वना) आलोचनाभेदममु विदित्वा मुक्त्यंगनासंगमहेतुभूतम् । स्वात्मस्थिति याति हि भव्यजीवः तस्मै नमः स्वात्मनि निष्ठित्ताय ।।१५३॥ आलोचनलक्षणं ] चार प्रकार आलोचना का लक्षण [ इह समये ] यहां आगम में [परिकथितं ] कहा है। टीका-आलोचना के स्वरूप के भेदी का यह कथन है । भगवान अहंतदेव के मुखकमल मे निकली हुई, संपूर्ण जनता के कर्ण के लिये मनोहर और सुन्दर आनन्द को झराने वाली ऐसी जो अनक्षरात्मक दिव्यध्वनि है उसके जानने में कुशल चतुर्थ-मनःपर्यय ज्ञानधारी श्री गौतमगणधर महर्षि के मुख सरोज से निकले हुये चतुर वचनों की रचना से गभित ऐसे जो सिद्धांत आदि सकल शास्त्र हैं उन शास्त्रों के अर्थ समुदाय के सार में भी सर्वस्वरूप यह शुद्ध निश्चय परम आलोचना है उसके चार भेद होते हैं । वे चारों भेद आगे कही गई गाथाओं से कहे जाते हैं। [टीकाकार श्री मुनिराज आलोचना से परिणत मुनि श्रद्धावनत नमस्कार करते हुए तथा निश्चय आलोचना में अपनी प्रगाढ़ रुचि प्रदर्शित करते हुए कहते हैं-] (१५३) श्लोकार्थ-मुक्ति सुन्दरी के संगम के कारणभूत ऐसे इन आलोचना के भेदों को जानकर भन्य जीव निश्चितरूप में अपनी आत्मा में ही स्थिति को प्राप्त AH Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 २९६ ] नियममार जो परसदि पप्पारणं समभावे संठवित्तु परिणामं । आलोयर मिवि जारणह, परमजिणंदस्स उवएसं ॥१०६ ॥ पः स्यात् समने संस्थाप्य परिणामम् । आलोचनमिति जानीहि परमजिनेन्द्रस्योपदेशम् ॥१०६॥ जो स्वपरिणाम को साम्य में थापके । स्वात्म में शुद्ध आत्मा को प्रवलोकते ।। उन मुनि के हि आलोचना जानिये | ये हि उपदेश अर्हत का मानिये ||१०|| इहालोचना स्वीकारमात्रेण परमसमताभावनोक्ता । यः सहजवैराग्यसुधासिंधुनाथडंडीरपिंडपरिपांडुरमंडन मंडली प्रवृद्धिहेतुभूत राकानिशीथिनीनाथः सदान्तर्मु खाकार कहा है । होते हैं । उन अपनी आत्मा में निष्ठित विराजमान साधु को मेरा नमस्कार होवे | भावार्थ - इससे मुनिराज की साधुओं के गुणों में अनुरागरूप विशेष भक्ति प्रगट हो रही है क्योंकि जो जिस गुण का इच्छुक होता है वह उस गुण उपासना अवश्य करता है । युक्त की गाथा १०६ अन्ययार्थ – [ यः ] जो [ सभभावे परिणामं संस्थाप्य ] समताभाव में अपने परिणाम को संस्थापित करके [आत्मानं पश्यति ] अपनी आत्मा का अवलोकन करता है [ थालोचनं ] वह आलोचना है [ इति ] ऐसे [ परमजिनेन्द्रस्य उपदेशं ] परमजिनेन्द्र के उपदेश को [ जानीहि ] तुम जानो । टीका - यहां पर आलोचना के स्वीकार मात्र मे परमसमताभावना को जो सहज वैराग्यरूपी अमृतसमुद्र के फेन समूह की शोभामंडली को प्रकर्षरूप से बढ़ाने के लिये पूर्णिमा की अर्धरात्रि के पूर्णचन्द्र हैं अर्थात् स्वाभाविक वैराग्य की उज्ज्वलता को द्विगुणित किये हुये हैं ऐसे महामुनि सदा अंतर्मुखाकार - अभ्यन्तर में Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम-पालोचना अधिकार [ २६७ मस्यपूर्व निरंजननिजबोधनिलयं कारणपरमात्मानं निरवशेषेणान्तर्मुखस्वस्वभावनिरतसहजावलोकनेन निरन्तरं पश्यति । किं कृत्वा ? पूर्व निजपरिणाम समतावलंबनं कृत्वा परमसंयमोभूत्वा तिष्ठति । तदेवालोचनास्वरूपमिति हे शिष्य त्वं जानीहि परमजिननाथस्योपदेशात् इत्यालोचनाविकल्पेषु प्रथमविकल्पोऽयमिति । (सम्धरा) आत्मा ह्यात्मानमात्मन्यविचलनिलयं चास्मना पश्यतीत्थं यो मुक्तिश्रीविलासानतनुसुखमयान् स्तोककालेन याति । सोऽयं बंद्यः सुरेशर्यमधरततिभिः खेचरभू चरी तं वंदे सर्ववंद्य सकलगुणनिधि तद्गुणापेक्षयाहम् ॥१५४।। उपयोग सहित, अनिगम, अपूर्व निरंजन निजज्ञान के निवासगृहरूप ऐसे कारण परमात्मा को निरवशेषरूप अंतर्मुख से अपने स्वभाव में लीन सहज अवलोकन-दर्शन के द्वारा निरन्तर देखते हैं। क्या करके ? पूर्व में अपने परिणाम को समता में अवलंबित करके परमसंयमी होकर स्थित होते हैं, वहीं-आत्मावलोकन आलोचना का स्वरूप है ऐसा हे शिष्य ! तुम परम जिननाथ के उपदेश से जानो। इसप्रकार से आलोचना के भेदों में यह पहला भेद है। [अब टीकाकार मुनिराज आलोचना के गुणों का बखान करते हा छह श्लोक कहते हैं (१५४) श्लोकार्थ—इसप्रकार से जो आत्मा अपनी आत्मा में अपनी आत्मा के द्वारा ही अविचलस्थानरूप ऐसी आत्मा को देखता है वह अनङ्गमुखमय (अतीन्द्रियसुखमय) मुक्ति नश्मी के विलास को अल्पसमय में प्राप्त कर लेता है सो यह आत्मा । सुरेन्द्रों मे, नंयमधारी मुनियों के समूह से, विद्याधरों से, भूमिगोचरियों से वंद्य है ऐसे । सभी से वंद्य संपूर्ण गुणों के निधान उस आत्मा की मैं उन गुणों की अपेक्षा होने से वंदना करता हूं। भावार्थ-अपनी आत्मा में अपने द्वारा ही षट्कारकी लगाने से जो साधु अपने आप में ही स्थिर हो जाता है वह लोक में सभी के द्वारा वंदनीय हो जाता है Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ; २६८ ] स्पष्टः नियमसार ( मंदाक्रांता ) परमयमिनां चित्तपंकेजमध्ये आत्मा ज्ञानज्योतिः प्रहतदुरितध्वान्तपुजः पुराणः । सोऽतिक्रान्तो भवति भविनां वाङ मनोमार्गमस्मि - भारातीये परमपुरुषे को विधि को निषेधः ।। १५५ ।। एवमनेन पचन व्यवहारालोचनाप्रपंचमुपहसति किल परमजिनयोगीश्वरः । तथा मोक्षसुख को भी प्राप्त कर लेता है। इसलिये श्री पद्मप्रभमलधारी देव ने यहां पर उन निश्चयरत्नत्रय से परिणत आत्मा को नमस्कार किया है । ( १५५ ) श्लोकार्थ - परमसंयमियों के हृदय सरोज के मध्य में यह आत्मा स्पष्ट है जो कि ज्ञानज्योति से पापरूपी अंधकार के पुंज को नष्ट कर चुका है तथा पुराण - प्राचीन है । वह आत्मा मंसारी जीवों के वचन और मन के अगोचर है एसे इस आरातीय - प्राचीन परमपुरुष में क्या तो विधि है और क्या निषेध हैं ? भावार्थ- परमोपेक्षासंयमी योगी वीतराग निर्विकल्प ध्यान में जिस आत्मा का ध्यान करते हैं वह संसारी जीवों द्वारा न तो वचन से कही जा सकती है और न वे उसका अनुभव ही कर सकते हैं । वास्तव में ऐसी महान अवस्था को प्राप्त करते हुए महापुरुषों के लिये क्या ग्रहण करना शेष हैं और क्या छोड़ना शेष रहा है ? अर्थात् ग्रहण करने और छोड़ने के विकल्पों से दूर वे विकरुपातीत अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं। हां, इतना अवश्य है कि प्रारम्भिक अवस्था में उन्होंने परिग्रहादि को विभाव भावों को भी छोड़ा है और महाव्रतादिरूप व्यवहार चारित्र को ग्रहण किया है अन्यथा यह अवस्था प्राप्त होना असंभव थी । इस प्रकार से परम जिनयोगीश्वर इस पद्य के द्वारा व्यवहार आलोचना के विस्तार का उपहास कर रहे हैं । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागदशक- 4 [२६९ परम-आलोचना अधिकार (पृथ्वी ) जयस्यनचिन्मयं सहजतत्वमुच्चरिदं विमुक्तसकलेन्द्रियप्रकरजातकोलाहलम् । नयानयनिकायदूरमपि योगिनां गोचरं सदा शिवमयं परं परमदूरमज्ञानिनाम् ।।१५६॥ ( मंदाक्रांता) शुद्धात्मानं निजसुखसुधावाधिमज्जन्समेनं बुद्ध्वा भव्यः परमगुरुतः शाश्वतं शं प्रयाति । तस्मादुच्चेरहमपि सदा भावयाम्यत्यपूर्व भेदाभावे किमपि सहज सिद्धि भूसौख्यशुद्धम् ।।१५७।। ( बसननिलका) निर्मुक्तसंगनिकरं परमात्मतत्त्वं निर्माहरूपमनघं परभावमुक्तम् । संभावयाम्यहमिदं प्रणमामि नित्यं निर्वाणयोषिवतनूद्भवसंमदाय ॥१५८।। (१५६) श्लोकार्थ-निर्दोष चैतन्यमय यह सहजतत्त्व अतिशयरूप से जयशील हो रहा है जो कि सकल इन्द्रियसमूह से उत्पन्न हुए कोलाहल से रहित है। नय और कुनय के समूहों से दूर होते हुए भी योगियों के गोचर है। सदा शिवमय है, उत्कृष्ट है और जो अज्ञानियों के लिये बहुत ही दूर है। (१५७) श्लोकार्थ-जो शुद्धात्मा अपने मुखरूपी अमृत के समुद्र में डुबकी लगा रही हैं ऐसी इस आत्मा को भव्यजीव परमगुरु के प्रसाद से जानकर शाश्वत सुग्व को प्राप्त कर लेते हैं। इसलिये मैं भी अतिअपूर्व उम आत्मा की अतिशयरूप से सदा भावना करता हूं जो कि सिद्धि से उत्पन्न हुए मुग्वरूप शुद्ध है, भेद के अभाव में कोई एक अद्भुत है सहज-स्वभावरूप है । . (१५८) श्लोकार्थ-संपूर्ण परिग्रह से रहित, निर्मोहरूप, निर्दोष, परभावों श्री मुक्त ऐसे इस परमात्मतत्त्व को मैं निर्वाणमुन्दरी से उत्पन्न होने वाले अनंगसुख के अवये नित्य ही सम्यक्प्रकार से अनुभव करता हूं और नमस्कार करता हूं। * - Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] नियमसार (बसंततिलका) त्यक्त्या विभावमखिलं निजभावभिन्न चिन्मात्रमेकममलं परिभावयामि । संसारसागरसमुत्तरणाय नित्यं निर्मुक्तिमार्गमपि नौम्यविभेदमुक्तम् ।।१५६।। कम्ममहीरुहमलच्छेदसमत्यो सकीयपरिणामो। साहीणो समभावो, प्रालुछणमिदि समुद्दिट्ट ।।११०॥ कर्ममहीरहमूलच्छेदसमर्थः स्वकीयपरिणामः । स्वाधीनः समभावः आलुञ्छनमिति समुद्दिष्टम् ।।११०।। कामं मूल को छेदने में यह।। शुद्ध निज का जो परिणाम सगरथ वही ।। यो है परिणाम ग्वाधीन मम भाव मात्र 1 उसको कहते हैं ग्रालुछना जिन अभय ।। ? १०।। परमभावस्वरूपाख्यानमेतत् । भव्यस्य पारिणामिकभावस्वभावेन परमस्वभा। औयिकादिचतुर्णां विभावस्वभावानामगोचरः स पंचमभावः । प्रत एवोदयोदोरणक्षद -.-.--. (१५६) श्लोकार्थ-अपने भाव से भिन्न ऐस सकल विभाव को छोड़करः | निर्दोष एक चिन्मात्र की भावना करता हूं । संसार सागर से पार होने के लिये अभी। रूप में कथित ऐसे मोक्ष मार्ग को भी मैं नित्य ही नमस्कार करता हूं। गाथा ११० ___ अन्वयार्थ—[कर्ममहोरहमूलच्छेदसमर्थः] जो कमपी वृक्ष की जड़ को छ । में समर्थ है [स्वाधीनः] अपने आधीन है और [ समभावः ] ममभावरूप है ऐसा [ स्वकीय परिणामः ] अपनी आत्मा का परिणाम है वह [ आलु छनं ] आलु छन [इति निर्दिष्टं] ऐसा कहा है। टोका-परमभाव के स्वरूप का यह कथन है । भव्य जीव का पारिणामिक भावस्वभाव से जो परमस्वभाव है वह पंचम औदयिक, क्षायोपशमिक, क्षायिका और औपशमिक इन चार विभावस्वभावों के अगो. Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम आलोचना अधिकार [ ३०१ : क्षयोपशमविविधविकारविवर्जितः । अतः कारणादस्यैकस्य परमत्त्वम् इतरेषां चतुर्णां विभावानामपरमत्वम् । निखिलकर्म विषवृक्षमूलनिर्मूलनसमर्थ: त्रिकालनिरावरणनिजकारणपरमात्मस्वरूप श्रद्धान प्रतिपक्षतीश्रमिथ्यात्यकर्मोदयबलेन कुदृष्टेरयं परमभावः सदा निश्चयतो विद्यमानोष्यविद्यमान एव । नित्यनिगोद क्षेत्रज्ञानामपि शुद्धनिश्चयनयेन स परमभावः अभव्यत्वपारिणामिक इत्यनेनाभिधानेन न संभवति । यथा मेरोरधोभागस्थित सुवर्णराशेरपि सुवर्णत्वं श्रभव्यानामपि तथा परमस्वभावत्वं वस्तुनिष्ठं न विहारयोग्यम् । सुदृशामत्यासन्न भव्यजीवानां सफलीभूतोऽयं परमभावः सदा निरंजनवात, यतः सकलकर्मविषमविषद् पृथुमूलनिमूं लनसमर्थत्वात् निश्चयपरमालोचनाविकरूपसंभवालु दनाभिधानम् अनेन परमपंचम भावेन अत्यासन्नभव्यजीवस्य सिध्यतीति । है । इसीलिये वह कर्मो के उदय उदीरणा, क्षय, क्षयोपशमरूप विविध विकारों में वर्जिन है । उस कारण एक भाव ही परमय है अन्य चार भाव अपरूप हैं | संपूर्ण कर्मी विपक्ष के मूल को निर्मूलन करने में समर्थ, त्रिकाल निरावरण निजकारण परमात्मा के स्वरूप का जो श्रद्धान है उससे विपरीत जो मिथ्यात्व कर्म है उसके तीव्र उदय के निमित्त मे मिथ्यादृष्टि जीव के यह परमभाव निश्चयन मे सदा विद्यमान होते हुए भी अविद्यमान ही है । नित्यनिगोद क्षेत्र के जीवों में भी शुद्ध निश्चयनय से वह परमभाव 'अभव्यत्वपारिणामिक' इस नाम से संभव नहीं है । जैसे मेरु के नीचे भाग में रहने वाली सुवर्णराशि को भी सुवर्णपना है उसीप्रकार से अभव्यों के भी परमस्वभावपना है किन्तु वह वस्तु में स्थित है व्यवहार के योग्य नहीं है । सम्यग्दृष्टि जो अत्यासन्न भव्य जीव हैं उनमें सदा निरंजनरूप होने से बह परमभाव सफलीभूत है क्योंकि वह सकल कर्मरूपी विषम विषवृक्ष की विशाल जड़ को उखाड़ने में समर्थ है । इस पर पंचमभाव के द्वारा अत्यासन्न जीव के यह निश्चय परमआलोचना के भेद में होने वाली आलुञ्छन नामकी आलोचना सिद्ध होती है । विशेषार्थ - यद्यपि क्षायिकभाव कर्मों के क्षय से होता है और वह सिद्धों में भी क्षायिक सम्यवत्व, ज्ञान, दर्शन आदि से विद्यमान है फिर भी यहां उसे विभाव भाव Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ] नियमसार । मंदाक्रांता) एको भावा स जयति सदा पंचमः शुद्धशुद्धः कारातिस्फुटितसहजावस्थया संस्थितो यः । मुलं मुक्त निखिलयमिनामात्मनिष्ठापराणा मेकाकारः स्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराण: ॥१६०। में सम्मिलित कर दिया है इसका मूल कारण यही है कि यह भी 'कर्मी के क्षय' इस उपाधि से विवक्षित है । यहां तो शुद्ध निश्चयनय से कर्मो की उपाधि आत्मा में त्रिकाल में भी नहीं है अतः परमपारिणामिकमात्र ही विवक्षित है । इस निश्चयनय के अबलंबन से शुद्ध आन्मा में तन्मय होने वाली आत्मा ही कारण परमात्मा कहलाती है । दुसरी बात यह है कि पहा नित्यनिगोद जीवों को भी शुद्धनिश्चय नय से परम पारिणामिकभाव वाला कहा है। उसमें अभव्यत्व नामक पारिणामिक हो तो भी उसकी यहां विवक्षा नहीं है, परन्तु मी नय विवक्षा से उन्हें शुद्ध कह देने से भी बे बेचारे शुद्ध नहीं हो सकते, न उनको कुछ आनन्द ही आ सकता है वे वेचारे अत्यन्त-. दयनीय दुरवस्था में पड़े हुए हैं। इसलिये शुद्धनिश्चयनय से अपने को शुद्ध समझकर हम लोगों को कृतार्थ नहीं हो जाना चाहिये, प्रत्युत उस शुद्ध अवस्था को प्रगट करने में अतीव पुरुषार्थ शील होना चाहिए । [अब टीकाकार मुनिराज पंचमभाब की महिमा बतलाते हुये दो श्लोक कहते हैं (१६०) श्लोकार्थ—जो कर्मदात्र ने रहित प्रगट सहज अवस्था से विद्यमान है आत्मा के स्वरूप में लीन हए ऐसे सभी संयमियों के लिये मुक्ति का मूल कारण है, एक स्वरूप है, अपने रस-अनुभव के विस्तार से परिपूर्ण भरा हुआ होने से पुण्यरूप अर्थात् पवित्र है और जो पुराण-सनातन है वह शुद्ध में भी शुद्ध परिपूर्ण शुद्ध है ऐसा एक पंचमभाव सदा जयशील हो रहा है । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम-पालोचना अधिकार [ ३०३ (मंदाक्रांना) प्रासंसारादखिलजनतातीव्रमोहोदयात्सा मत्ता नित्यं स्मरक्शगता स्वात्मकार्यप्रमुग्धा । ज्ञानज्योतिर्धवलितककुभमंडलं शुद्धभावं मोहाभावात्स्फुटितसहजावस्थमेषा प्रयाति ॥१६१।। कम्मादो अप्पारणं, भिण्णं भावेइ विमलगुणरिणलयं । पज्यमलावणार, वियडीकालं ति विष्णेयं ॥१११। कर्मणः प्रात्मानं भिन्नं भावयति विमलगुणनिलयम् । मध्यस्थभावनायामविकृतिकरणमिति विनेयम् ॥१११॥ - - -- - - - - - - - - - - - (१६१) श्लोकार्थ--अनादिकालीन संसार मे यह अखिल जनसमूह तीनमोह के उदय रो मत्त है, नित्य ही काम के वशीभून हैं और अपनी आत्मा के कार्य में अत्यधिक मूढ़ है । यह जनसमूह मोह के अभाव में प्रगटित सहजावस्थारूप, ज्ञानज्योति से सर्व दिशाओं को धवलित करने वाले ऐसे शुद्धभाव को प्राप्त कर लेता है । भावार्थ-संसारी जीव अनादिकाल मे गोह के उदय से अपने स्वभाव से पराङ मुख हुये हैं और विषयों में लगे हुए हैं । कहा भी है अनादिविद्यादोषोत्थ-चतुःसंज्ञाज्वरानुराः । शश्वत्त्वज्ञानविमुखाः सागारा: विषयोन्मुखाः ।।सागार धर्मामृत।। अनादिकालीन अविद्या के दोष से उत्पन्न ह्ये चार संज्ञारूपी ज्वर से पीड़ित के हो रहे हैं ऐसे सागार-गृहस्थ सदैव अपने आत्मज्ञान से विमुख हैं और विषयों में तत्पर । हो रहे हैं ऐसी स्थिति में मोह के अभाव से जब ज्ञानज्योति प्रगट होती है तब वही सहज शुद्ध अवस्था का अनुभव कराती है । गाथा १११ ___ अन्वयार्थ-[कर्मणः भिन्नं] कर्म से भिन्न और [विमलगुणनिलयं] विमल गुणों का निवासगृहरूप [आत्मानं] आत्मा को [भावयति] जो भाता है [ मध्यस्थ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ] नियमसार कर्म से भित आतमा को जो भावते । उसको निर्मल गुणों का निलय जानते ।। लीन होते सदा भाव मध्यस्थ में हो अविकृतिकरण जानिये तब उन्हें ।। १११ ॥ इह हि शुद्धोपयोगिनो जीवस्य परिणतिविशेषः प्रोक्तः । यः पापाटीमा द्रव्यभावनो कर्मभ्यः सकाशाद भिन्नमात्मानं सहजगुण [-निलयं माध्यस्थ्यभावन भावयति तस्याविकृतिकरण-] अभिधानपरमालोचनायाः स्वरूपमस्त्येवेति । ( मंदाक्रांता ) आत्मा भिन्नो भवति सततं द्रव्यनोकर्मराशेशमदमगुणाम्भोजिनी राजहंसः । रन्तः शुद्धः मोहाभावादपरमखिलं नैव गृह्णाति सोऽयं नित्यानंदाद्यनुपम गुणश्चिच्चमत्कारमूर्तिः ॥ १६२ ॥ भावनायां] उस मध्यस्थ- वीतराग भावना में [ अविकृतिकरणं ] अविकृतिकरण है [ इति विज्ञेयं ] ऐसा जानना चाहिये । टीका--यहां पर शुद्धोपयोगी जीव की परिणति विशेष को कहा है। जो पाप वन को जलाने में अग्नि सदृश हुआ द्रव्यकर्म, भावकर्म और नो के संपर्क से भिन्न तथा सहजगुणों के स्थानस्वरूप ऐसी आत्मा को वीतराग भावना है भाता है उसके अविकृतिकरण नामकी परमआलोचना का स्वरूप होता ही है। [ अब टीकाकार मुनिराज शुद्धोपयोग के सन्मुख करने वाली भावना भाते हुये नौ श्लोक कहते हैं- 1 (१६२) श्लोकार्थं - आत्मा सदैव द्रव्यकर्म और नोकर्म समूह से भिन्तु अन्तरङ्ग में शुद्ध हैं, शम दम गुणरूपी कमलिनी का राजहंस है अर्थात् कषायों का क Li १. कुछ पाठ छूटा हुआ प्रतीत है अतः उसे जोड़कर अर्थ किया है । . Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम - आलोचना अधिकार ( मंदाक्रांता ) ܬ प्रक्षणार्थमगि राशौ नित्यं विशदविशदे क्षालितांहः कलंकः । शुद्धात्मा यः प्रहतकररणग्रामकोलाहलात्मा ज्ञानज्योतिः प्रतिहततमोवृत्तिरुच्चैश्चकास्ति ॥ १६३॥ ( वसंततिलका) संसारघोर सहजादिभिरेक रौद्रदुःखादिभिः प्रतिदिनं परितप्यमाने । [ ३०५ और इन्द्रियों का दमन ये दो गुण प्रमुख हैं ये ही कमलिनी के सदृश हैं इसमें केलि करने वाला यह आत्मा राजहंस के समान है, नित्यानंद आदि अनुपम गुण स्वरूप और चिचमत्कार की मूर्तिस्वरूप सो यह आत्मा मोह के अभाव से अन्य संपूर्ण विभावों को नहीं ग्रहण करता है । भावार्थ — जिसप्रकार राजहंस कमलों में केलि करता है उसीप्रकार आत्मा रूपी राजहंस वान्तभाव और जितेन्द्रियतारूपी गुणों में रमना है । वीरप्रभु का शासन शमदम शासन कहलाता है ये दो गुण ही संपूर्ण गुणों की शोभा को बढ़ाने वाले हैं इनके बिना अन्य गुण फीके हैं । इन गुणों को प्रमुख कर के अनन्तगुण पुंज आत्मा चैतन्यमयी चमत्कारी मूर्ति स्वरूप है। विश्व में अलौकिक चमत्कार को प्रगट करने वाली है । ( १६३ ) श्लोकार्थ - जो अक्षय, अन्तर में गुण मणियों के समूहरूप है, जिसने "अत्यन्त स्वच्छ ऐसे शुद्धभावरूपी अमृत के समुद्र में अपने पापरूपी कलंक को धो डाला है जिसने इन्द्रिय ग्रामों के कोलाहल को समाप्त कर लिया है तथा जिसने ज्ञानज्योति से - अंधकार दया को प्रकर्षरूप से नष्ट कर दिया है ऐसी शुद्धात्मा अतिशयरूप से प्रकाशमान हो रहीं है । ( १६४ ) श्लोकार्थ -- संसार के घोर साहजिक इत्यादि भयंकर दुःखादिकों से प्रतिदिन संतप्त होते हुए इस जगत् में ये मुनिनाथ समता के प्रसाद से शमभावरूप अमृतमयी हिमसमूह प्राप्त कर लेते हैं । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार लोके शमामृतमयोमिह तो हिमानी यायावयं मुनिपतिः समताप्रसादात् ॥१६४।। ( बसंततिलका ) मुक्तः कदापि न हि याति विभावकायं तद्धेतुभूतसुकृतासुकृतप्रणाशात । तस्मादहं सुकृतदुष्कृतकर्मजालं मुक्त्वा मुमुक्षुपथमेकमिह व्रजामि ।।१६५।। - - - - -- - - - -- - .. - --- - भावार्थ-संसार में साहजिक, मानसिक, शारीरिक और आगंतुक ऐने चार प्रकार के दुःख माने गये हैं जो बहुत ही भयंकर हैं। इनसे लोक संतप्त हो रहा है, अभिप्राय यह है कि इस लोक में रहने वाले संसारी प्राणी संतप्त हो रहे हैं से ही तप्तायमान हुए संसार में समतादेवी की उपासना के प्रसाद से मुनिराज ही शमभाव रूप बर्फ के समूह को प्राप्त करके शीतलता का अनुभव करते हैं अन्य नहीं 'परमेको मुनिः सुखी' गुणभद्र स्वामी का भी कहना है-इस संसार में एक महामुनि ही मुखी हैं अर्थात् मुनिराज रागद्वेष को दूर करके परमसमता भाव को धारण कर सकते हैं और उन्हें ही वीतरागता से जो मुख उत्पन्न होता है वह परम शांतिदायी है। (१६५) श्लोकार्थ--मुक्तजीव कभी भी विभावभाव के समूह को प्राप्त नहीं होते हैं क्योंकि उनके उस विभाव के कारणभूत से शुभ और अशुभ संपूर्ण कर्मों का अत्यन्त नाश हो गया है। इसलिए मैं शुभ और अशुभ ऐसे सभी कर्मों को छोड़कर इस एक मुमुक्ष के मार्ग को प्राप्त करता हूं 1 भावार्य-यहां पर 'मुमुक्षु' पद से वीतराग महामुनि के मार्ग को प्राप्त करने की बात है क्योंकि वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित साधु ही पुण्य पाप ऐसे सभी कर्मों का संवर करते हैं वे ही मुमुक्षु कहलाते हैं । ---- -in-a rint 1 - - Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम-आलोचना श्रधिकार ( अनुष्टुभ ) प्रपद्य ेऽहं सदाशुद्धमात्मानं बोधविग्रहम् । भयमूर्तिमिमां त्यक्त्वा पुद्गलस्कंधबंधुराम् ।।१६६।। ( अनुष्टुभ् ) अनादिममसंसाररोयस्यागदमुत्तमम् । शुभाशुभ विनिर्मुक्तशुद्धचैतन्यभावना ।। १६७ ।। ( मालिनी ) अथ विविधविकल्पं पंचसंसारमूलं शुभमशुभसुकर्म प्रस्फुटं तद्विदित्वा । भमरणविमुक्तं पंचमुक्तिप्रदं यं तमहमभिनमामि प्रत्यहं भावयामि ॥। १६८ ।। (१६६) श्लोकार्थ मैं ज्ञानशरीरी और सदाकाल से शुद्ध ऐसी [ ३०७ मे सुन्दर इस भवमूर्ति देह को छोड़कर आत्मा को प्राप्त करता हूं । भावार्थ- सुन्दर सुन्दर गुद्गल वर्गणाओं में बने हुये इस शरीर को नहीं छोड़ा जा सकता है किन्तु इससे ममता को छोड़कर ज्ञानमय शुद्ध निश्चयनय से त्रिकाल शुद्ध ऐसी आत्मा का आश्रय लेने से यह जोव शरीर से छूटकर अशरीरी सिद्ध हो जाता है । ( १६७ ) श्लोकार्थ - शुभ - अशुभ भावों से रहित शुद्ध चैतन्य की भावना मेरे अनादि कालीन संसार रोग की उत्तम औषधि है । अर्थात् शुद्धात्मा की भावना से ही संसार के जन्म-मरण रोग का नाश हो सकता है अन्य से नहीं । हां ! इस औषधि के निर्माण के लिये जो भेद रत्नत्रय है वह ग्रहण करना ही होगा अन्यथा यह औषधि मिलना असंभव है । ( १६८ ) श्लोकार्थ - द्रव्य क्षेत्र - काल-भव और भाव ऐसे पांच प्रकार के संसार का मूल कारण अनेक भेदरूप जो शुभ-अशुभ कर्म हैं इस बात को स्पष्ट रूप से जानकर जन्म और मरण से रहित पंचम गतिरूप मुक्ति को प्रदान करने वाला जो शुद्धात्मा है उसको मैं नमस्कार करता हूं और प्रतिदिन उसको भावना करता हूँ । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ] नियमसार { मालिनी) अथ सुललितवाचां सत्यवाचामपीत्थं न विषयमिदमात्मज्योतिराद्यन्तशून्यम् । तदपि गुरुवचोभिः प्राप्य यः शुद्धदृष्टि हा भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ॥१६६।। (मालिनी) जयति सहजतेजःप्रास्तरागान्धकारो मनसि मुनिवराणां गोचरः शुद्धशुद्धः । विषयसुखरतानां दुर्लभः सर्वदायं परमसुखसमुद्रः शुद्धबोधोऽस्तनिद्रः ।।१७०।। - . -- (१६६) श्लोकार्थ—इसप्रकार यह आत्मज्योति आदि और अंत मे अन्य है । सल लिन वचनों के तथा सत्य वचनों के भी गोचर नहीं है फिर भी गुरु वचनों से उसे प्राप्त कर के जो शुद्ध सम्यग्दृष्टि होता है वह परमधी कामिनी अर्थात् मुक्तिरूपी सुन्दरी । का वल्लभ हो जाता है । भावार्थ—यह आत्म तस्त्र बचनों से नहीं कहा जा सकता है अनुभव का विषय है फिर भी गुरुओं के वचनों के बिना इसे प्राप्त भी नहीं किया जा सकता है यह अकाट्य नियम है, जितने भी जीव मोक्ष गये हैं उन्होंने गुरुओं के वचनों का अवलम्बन अवश्य लिया है। यहां तक कि सम्यक्त्व की उत्पत्ति में देशनालब्धि भी एक लब्धि मानी है जो कि गुरु के उपदेशरूप है । निसर्गज सम्पर्शन जिसको हआ है उसे भी पूर्व में कभी गुरूपदेश रूप देशनालब्धि अवश्य प्राप्त हो चुकी है। (१७०) श्लोकार्थ- जिसने सहज स्वाभाविक तेज से गागरूपी अंधकार को अत्यन्तरूप से समाप्त कर दिया है, जो मुनिवरों के मन में वास करता है, शुद्ध में भी शुद्ध अर्थात् परिपूर्ण शुद्ध है, विषय सुख में आसक्त हुये जीवों को सदैव दुर्लभ है परम सुख का समुद्र है और जिसने निद्रा को समाप्त कर दिया है ऐसा शुद्धज्ञानस्वरूप आत्मा जयशील हो रहा है । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम-पालोचना अधिकार [ ३०६ मदमाणमायलोहविवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति । परिकहियं भव्वाणं, लोयालोयप्पदरिसीहि ॥११२॥ मदमानमायालोभविजितभावस्तु भावशुद्धिरिति । परिकथितो भव्यानां लोकालोकप्रवशिभिः ॥११२।। मान मद छम प्रो लोभ से गत रहे । भाव वो भव्य का भाव शुद्धी रहे ।। लोक आलोक को जो प्रकट देखते । वे कहें निश्चयालोचना से इरो ॥११२॥ भावशुद्धधभिधानपरमालोचनास्वरूपप्रतिपादनद्वारेण शुद्धनिश्चयालोचनाधिरोपसंहारोपन्यासोऽयम् । तीव्रचारित्रमोहोदयबलेन पुवेदाभिधाननोकषायविलासो --- --... भावार्थ--शुद्धनिश्चयनय से शुद्धज्ञानमय आत्मा का ध्यान वीतरागी मुनि से करते हैं । वास्तव में छठे गुणस्थानवर्ती मुनि उसकी भावना करते हैं, किन्तु जो दषय सुखों में रत हैं ऐसे गृहस्थों के लिये इस शुद्धात्मा का ध्यान कठिन है। जो पत्र सहित तथा विषयासक्त होकर भी शुद्धात्मा के ध्यान की बात करते हैं वे अनर्गल अशाप करते हैं। उन्हें पहले पंचपरमेष्ठी के अवलम्बनरूप ध्यान का अभ्यास ही पस्कर है और वहीं उनके लिये शक्य भी है। शुद्धोपयोग की प्राप्ति के लिये सर्व ग्रह का त्याग परमावश्यक है। गाथा ११२ .. अन्वयार्थ- [ मदमानमायालोभवियजितभावः तु ] मद-मदन, मान, माया और लोभ से रहित ही [भावशुद्धिः] भावशुद्धि है [इति ] ऐमा [लोकालोक प्रशिभिः] और अलोक को देखने वाले जिनेन्द्र देव ने [भव्यानां] भब्यों को [परिकथितं] टीका-भावशृद्धि नामक परमआलोचना के स्वरूप प्रतिपादन द्वारा शुद्ध वयालोचना के अधिकार के उपसंहार का यह कथन है । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० नियो । मदः, अत्र मदशब्देन मदनः कामपरिणाम इत्यर्थः । चतुरसंदर्भगर्भीकृतवैदर्भकवित्वेन आदेयनामकर्मोदये सति सकलजनपूज्यतया, मातृपितृसम्बन्धकुलजातिविशुद्धघा वा शतसहस्रकोटिभटाभिधानप्रधानब्रह्मचर्यवतोपाजितनिरुपमबलेन च, दानादिशुभकापाजितसंपवृद्धिविलासेन, अथवा बुद्धितपोवैकुणौषधरसबलाक्षीदिभिः सप्तभिर्वा कमनीयकामिनीलोचनानन्देन वपुर्लावण्यरसविसरेण वा आत्माहंकारो मानः । गुप्तपापतों माया । युक्तस्थले धनव्ययाभावो लोभः; निश्चयेन निखिलपरिग्रहपरित्यागलक्षणनिरंजननिजपरमात्मतस्वपरिग्रहात् अन्यत् परमाणमात्रद्रव्यस्वीकारो लोभः । एभिश्चभिः भावः परिमुक्तः शुद्धभाव एव भावशुद्धिरिति भव्यप्राणिनां लोकालोकप्रदशिभिः परमवीतरागसुखामृतपानपरितृप्त गद्भिरहद्भिरभिहित इति । नीव चारित्रमोह के उदय के बल से पुरुषवेद नामक नो कपाय का विलास मद कहलाता है। यहां पर 'मद' इस शब्द से मदन अर्थात् कामरूप परिणाम को लिया है । चतुर बचनों की रचना मे गभित बैदर्भ कवित्व से आदेयनामकर्म का उदयम होने पर सभी जनों से पूज्य होने पर अथवा माता और पिना संबंधी जाति एवं कुता विशुद्धि से तथा ( व्रतों में ) प्रधान ब्रह्मचर्य वन से उपाजित लाखों कोटिभट समा उपमा रहित बल के होने से दानादि शुभकर्म से उपाजित संपत्ति के वृद्धि के विलास में अथवा बुद्धि, तप, विकिया, औषधि, रस, वन और अक्षीण इन नामवाली सास ऋद्धियों से अथवा कमनीय कामिनियों के नेत्रों को आनंदित करने वाले ऐसे शरीर में लावण्य रस के विस्तार से अपने में अहंकार होना मान कहलाता है । गुप्तपाप से मायईहोती है । योग्यस्थान में धन का व्यय न करना लोभ कहलाता है तथा निश्चयनय हो समस्त परिग्रह के त्यागस्वरूप निरंजन निजपरमात्मतत्व के परिग्रह से अतिरिक्त अन्य परमाण मात्र द्रव्य को स्वीकार करना लोभ है । इन चार प्रकार के भावों से रहिक शुद्धभाव ही भावशुद्धि है। इस प्रकार में लोक-अलोक को देखने वाले, परमवीतरा सुखामृत के पान से परितप्त भगवान् अर्हतदेव ने भव्य जीवों के लिये कहा है। । [अब टीकाकार श्री मुनिराज निश्चय आलोचना के प्रति अपनी विशेष करिव्यक्त करते हुए नव श्लोकों द्वारा उसके महत्व को दिखलाते हैं।] . .krvan -.. ...... . Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L - [ ३११ परम-पालोचना अधिकार ( मालिनी) अथ जिनपतिमार्गालोचनाभेदजालं परिहतपरभावो भव्यलोकः समन्तात् । तदखिलमवलोक्य स्वस्वरूपं च बुद्ध्वा स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ॥१७१॥ (बसंततिलका) आलोचना सततशुद्धनयात्मिका या निर्मुक्तमार्गफलदा यमिनामजस्रम् । शुद्धात्मतत्त्वनियताचरणानुरूपा स्यात्संयतस्य मम सा किल कामधेनुः ।।१७२॥ (१७१) श्लोकार्थ-भव्य जीव जिनेन्द्र देव के शासन में कहे हुए आलोचना के भेदों को संपूर्ण रूप से अवलोकित कर तथा अपने स्वरूप को जानकर सब ओर से परभावों को छोड़ देते हैं वे मुक्तिवल्लभा के प्रियवल्लभ हो जाते हैं। (१७२) श्लोकार्थ-जो आलोचना सतत शुद्धनबम्वरूप है, संयमीजनों को सदा ही मोक्षमार्ग के फल को देने वाली है, शुद्धात्मनत्व में निश्चित आचरणरूप है वह मुझ (पद्मप्रभ) संयत के लिये निश्चितरूप से कामधेनुरूप होवे । भावार्थ---यहां टीकाकार श्री पद्मप्रभमलबारीदेव प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि यह निश्चय आलोचना मुझं कामधेनु के समान इच्छित फन्नदायी होवे । जैसे कामधेनु विद्यारूप एक गाय होती है वह जब चाहो नब इच्छानमार मधुर दूध देती ही रहती है चाहे जितना भी आप ले सकते हैं उसीप्रकार में निश्चयनयरूप आलोचना जब इच्छित मोक्ष फल को भी जब चाहो तब दे देती है तो और किसी लौकिक फल की तो बात ही क्या है ? वे तो मिल ही जाते हैं। अथवा तद्भवमोक्षगामी के लिये यह आलोचना लौकिक फल के सर्वथा अभाव से ही उत्पन्न होती है और अलौकिक । फल को ही देने वाली है। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ] नियमसार ( शालिनी ) शुद्धं तत्वं बुद्धलोकत्रयं मद् बुद्ध्वा बुद्ध्वा निविकल्पं मुमुक्षुः । सिद्धयर्थं शुद्धशीलं चारत्वा सिद्धि यायात् सिद्धिसीमन्तिनीशः ॥ १७३ ॥ ( स्रग्धरा ) सानन्दं तत्त्वमज्जज्जिनमुनिहृदयाम्भोज किंजल्कमध्ये निर्व्याबाधं विशुद्ध स्मरशरगहनानीकदावाग्निरूपम् । शुद्धज्ञानप्रदीपप्रतयमिमनोगेघोरान्धकारं तद्वन्द्वे साधुवन्द्य जननजलनिधौ लंघने यातपात्रम् ।। १७४ ।। ( हरिणी ) अभिनवमिदं पापं यायाः समग्रधियोऽपि ये विदधति परं ब्रूमः किं ते तपस्थित एव हि । ( १७३ ) श्लोकार्थ-मुमुक्षुजीत्र तीन लोक को जानने वाले निर्विकल्प ऐसे शुद्धतत्त्व को पुनः पुनः जानकर उसकी सिद्धि के लिये शुद्धशील चारित्र का आव करके सिद्धि कांता के स्वामी होते हुए सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं । ( १७४) श्लोकार्थ — तत्त्व में निमग्न होते हुए ऐसे जिनमुनि के हृदय कम की केसर में जो आनन्द सहित विद्यमान है, बाधारहित है, विशुद्ध है, कामदेव के बा की गहन सेना को भस्मसात् करने के लिए दावानल अग्निरूप है और जिसने शुद्ध रूप दीपक के द्वारा संयमियों के मनोमंदिर के घोर अंधकार को समाप्त कर दिया है तथा जो साधुओं से वंदनीय है, संसार सागर को पार करने के लिये जहाज के सदृ है ऐसे उस तत्त्व को मैं वंदन करता हूँ । भावार्थ - यह शुद्धात्मतत्त्व जो तत्वज्ञानी मुनिराज हैं उनके हृदय में विराज मान है और उपर्युक्त विशेषणों से विशिष्ट हुआ भव्यजीवों को समार के दुःखों छुड़ा देता है 1 ( १७५ ) श्लोकार्थ -- हम पूछते हैं कि जो परिपूर्ण जानकार होते हुए भी 'इस नवीन पाप को करो' ऐसा अन्य को कहते हैं क्या वे तपस्वी हैं ? अहो | आ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम-प्रालोचना अधिकार हृदि विलसितं शुद्ध ज्ञानं च पिंडमनुत्तमं पदसिदो ज्ञात्वा सूपोऽपि आदि बराबलम् ॥१६७५॥ ( हरिणी ) जयति सहजं तत्त्वं तत्त्वेषु मित्यमनाकुलं सततसुलभं भास्वत्सम्यग्दृशां समतालयम् । परमकलया सार्धं वृद्धं प्रवृद्धगुणैनिजे: स्फुटितसहजावस्थं लीनं महिम्नि निजेऽनिशम् ॥१७६॥ ( हरिणी ) सहजपरमं तत्त्वं तत्त्वेषु सप्तसु निर्मलं सकलविमलज्ञानावासं निरावरणं शिवम् । [ ३१३ . की बात है कि हृदय में शोभायमान, शुद्ध, ज्ञानस्वरूप, पिंडमय और सर्वोत्तम इस पद को जानकर पुनरपि सरागता को प्राप्त हो जाते हैं । भावार्थ - निर्विकल्प तत्त्व की भावना से परिणत हुये साधु कमवि के लिये कारणभूत ऐसी क्रियाओं को करने का उपदेश नहीं देते हैं । यदि छठे गुणस्थान में आकर देते हैं तो वे सरागी कहलाते हैं। यहां टीकाकार आश्चर्यपूर्ण शब्दों में या खेद पूर्ण शब्दों में कहते हैं कि एक बार वीतरागता को प्राप्त करने के बाद पुनरपि सराग • अवस्था को क्यों प्राप्त होते हैं । वास्तव में अंतर्मुहूर्त से अधिक निर्विकल्प ध्यान की स्थिति होती नहीं है इसलिये जानते हुये भी मुनिजन छठे गुणस्थान में आकर संघ संरक्षण, पोषण आदि शुभोपयोग में प्रवृत्त होते हैं, किंतु महामुनियों के लिये यह उत्सर्गमार्ग नहीं है । ( १७६) श्लोकार्थ – तत्वों में जो सहजनस्व है वह नित्य ही अनाकुल है, सतत सुलभ है, प्रकाशशील है, सम्यग्दृष्टियों के लिये समता का निकेतन है, परमकला से सहित है अपने प्रवृद्धमान गुणों के साथ-साथ वृद्धिंगत है, प्रगटित सहज अवस्थारूप है और निरंतर अपनी महिमा में लीन है ऐसा यह तत्त्व जयशील हो रहा है । ( १७७ ) श्लोकार्थ - जो सहज परमतत्त्व सात तत्त्वों में निर्मल हैं, सकल बिमलज्ञान - केवलज्ञान का निवासगृह है, आवरण रहित है, शिव-कल्याणरूप है, अति Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न ३१४ ] नियमसार विशदविशवं नित्यं बाह्यप्रपंचपराङ मुखं किमपि मनसा वाचां दूरं मुनेरपि तन्नुमः ।।१७७।। (द्रुतविलंबित) जयति शांतरसामृतवारिधिप्रतिदिनोदयचारुहिमद्युतिः अतुलबोधदिवाकरदीधितिप्रहतमोहतमस्समितिजिनः ।।१७।। (द्रुतविलवित) विजितजन्मजरामृतिसंचयः प्रहतदारुणरागकदम्बकः । अधमहातिमिरव्रजभानुमान् जयति यः परमात्मपदस्थितः ।।१७६।। स्पष्ट है, नित्य है, बाह्य प्रपंचों से पराङ मुख है तथा कोई एक अद्भुत है, मुनि में मन और वचनों से दूर है ऐसे इस तत्त्व को हम नमस्कार करते हैं । ।। भावार्थ--यहां पर इस नत्र को मुनि के भी मन तथा वचन से दूर । दिया है, अभिप्राय यह है कि शुक्लध्यानम्प वीतराग निर्विकल्प समाधि की अवस्था वीतरागी मुनियों के अनुभव का ही विषय है । इस परमतत्त्व के प्राप्त होते ही के ज्ञान प्रगट हो जाता है । यह अवस्था बारहवें गुणस्थान की है ऐसा समझना।। (१७८) श्लोकार्थ-शांत रस रूपी अमृत समुद्र को प्रतिदिन द्धिगत का हुये ऐसे सुन्दर चन्द्रमारूप तथा अतुलज्ञानरूपी सूर्य की किरणों से मोहध्वांत के को प्रकृष्टरूप से नष्ट करने वाले ऐसे जिनभगवान् जयशील होते हैं । (१७६) श्लोकार्थ-जिन्होंने जन्म, जरा और मरण समूह को जीत कि है, जिन्होंने दारुण राग के समुदाय को प्रकर्षरूप से नष्ट कर दिया है, जो पापा महातिमिर समूह को समाप्त करने के लिये सूर्य हैं जो ऐसे परमात्मपद में स्थित है। सदा जयवंत हो रहे हैं । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम-आलोचना अधिकार [ ३१५ । इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवजितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलपरिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्ती परमालोचनाधिकारः सप्तमः तस्कन्धः ॥ । विशेषार्थ-इस आलोचना के अधिकार में आचार्यदेव ने शुद्धनय के आश्रित सी निश्चय आलोचना का ही विस्तार से वर्णन किया है। वास्तव में जो साधु विवहार चर्या में पूर्ण निष्णात हैं वे निष्पन्न योगी ही इस निश्चय आलोचना को प्राप्त कर सकते हैं, फिर भी सामान्य साधुओं को भी इसकी भावना सदैव करते रहना जाहिए और व्यबहार आलोचना में पूर्णतया निर्दोषता लानी चाहिये । जो श्रावक या -अवती सम्यग्दृष्टि हैं उनका कर्तव्य है कि इस आलोचना को प्राप्त कराने वाले ऐसे यवहारचारित्र में मचि रखते हुए उसको पूर्ण कराने में कारणभूत ऐसे साधुओं का समागम करना चाहिये और अपने पद के योग्य क्रियाओं में पूर्ण सावधानी रखते हुए अपने दोषों की भी आलोचना करते रहना चाहिये । । इसप्रकार से सुकविजनरूपी कगलों के लिये सूर्य के समान पंचेन्द्रिय के विस्तार से वजित गरीर मात्र परिग्रहधारी ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारीदव द्वारा विरचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में परमआलोचना अधिकाररूप सातवां अतस्कंध पूर्ण हुआ। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [] शुद्ध निश्चय - प्रायश्चित्त अधिकार अथाखिलद्रव्यभावनो कर्मसंन्यासहेतुभूतशुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकारः कथ्यते । वदसमिदि सोलसंजमपरिणामो करणरिणग्गहो भावो । " सो हवदि पायछितं अरणवरयं चैव कायन्वो ॥ ११३ ॥ व्रतसमितिशील संयमपरिणामः करणनिग्रहों भावः । स भवति प्रायश्चित्तम् अनवरतं चैव कर्तव्यः ॥११३॥ नरेन्द्रछंद व्रत समिती श्री शील सुसंयम के परिणाम अमल जो । पांचों इन्द्रिय के निग्रह के भाव विराग विमल जो ।। वो ही प्रायश्चित्त कहाते करें दोष का शोधन | ऐसा प्रायश्चित्त नित करिये जो हो कर्म विमोचन ।। ११३ || अब अखिल द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म के सम्यक्प्रकार से त्याग में कारणभूत ऐसे शुद्धनिश्चय प्रायश्चित्त के अधिकार को कहते हैं- गाथा ११३ अन्वयार्थ – [ व्रत समिति शील संयम परिणामः ] व्रत समिति, शील और संयमरूप परिणाम तथा [ करण निग्रहः भावः ] इन्द्रियों के निग्रह रूप भाव, [ सः प्रायश्चितः भवति ] वह प्रायश्चित्त होता है, [ अनवरतं च एव कर्त्तव्यः ] तथा उसे हमेशा हो करना चाहिये । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 शुद्धनिश्चय - प्रायश्चित्त अधिकार [ ३१७ " निश्चयप्रायश्चित्तस्वरूपाख्यानमेतत् । पंचमहाव्रतपंचसमितिशील सकलेन्द्रिय मनकायसंयम परिणामः पंचेन्द्रियनिरोधश्च स खलु परिणतिविशेषः प्राया प्राचुर्येण निविकारं चित्तं प्रायश्चित्तम्, अनवरतं चान्तर्मुखाकारपरमसमाधियुक्तेन परमजिनयोगीश्वरेण पापाटवी पावकेन पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्र मात्रपरिग्रहेण सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिना परमागममकरंदे निष्यन्दि मुखपद्मप्रभेण कर्तव्य इति । ( मंदाक्रांता ) प्रायश्चित्तं भवति सततं स्वात्मचिता मुनीनां मुक्ति यांति स्वसुखरतयस्तेन निद्धूतपापाः । टीका - निश्वय प्रायश्चित्त के स्वरूप का यह कथन है | मन, जो पंच महाव्रत, मंत्र समिति, गीत और सम्पूर्ण इन्द्रिय तथा वचन - काय के संगमनरूप संयम परिणाम है और जो पंचेन्द्रियों का निरोध है, निश्चितरूप से वह परिणति विशेष प्रायश्चित्त है अर्थात् प्रायः - प्रचुरता से निर्विकाररूप चित्त प्रायश्चित्त कहलाता है । हमेशा अन्तर्मुख परिणतिरूप परम समाधि से युक्त, परम जिन योगीश्वर, पापरूप वन के लिए अग्नि के सदृश, पंचेन्द्रियों के व्यापार से वर्जित, गात्रमात्र परिग्रहवारी, सहज बैरारूप महल के शिखर की शिखामणि स्वरूप, परमागमरूप मकरन्द-पुंसरस जिनके मुख मे झरता है ऐसे मुझ पद्मप्रभ मुनि के द्वारा वह प्रायश्चित्त करना चाहिए । भावार्थ - यह स्वयं टीकाकार ने अपने आपको प्रायश्चित्त क्रिया में प्रेरित किया है तथा बहुत ही सुन्दर विशेषणों से अपनी चर्या को ध्वनित कर दिया है, यह अहंकार नहीं है किन्तु उनका अपना गौरव है वे स्वयं एक निर्ग्रन्थ मुनिराज थे, उनकी प्रवृत्ति यदि ऐसी नहीं होती तो वे अपनी असत्य प्रशंसा नहीं लिखते । वास्तव में वे इन निश्चय क्रियाओं में कभी-कभी परिणत होते हुए अपनी शुभ प्रवृत्ति से प्रवर्तन करने वाले सच्चे साधु थे । उनमें गर्व की बात नहीं है प्रत्युत इन पंक्तियों से उनका गौरव ही व्यक्त होता है । [ टीकाकार मुनिराज प्रायश्रित का लक्षण स्पष्ट करते हुए श्लोक कहते हैं - ] ( १८० ) श्लोकार्थ -- गुनियों को जो सतत अपने आत्मस्वरूप का चितवन होता है वही प्रायश्चित्त है, क्योंकि स्वसुख में रति करने वाले मुनिराज उसके द्वारा 7 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना 1!" ३१८ ] नियमसार श्रन्या चिंता यदि च यमिनां ते विमूढाः स्मरार्त्ताः पापा: पापं विदधति मुहुः कि पुनश्चित्रमेतत् ॥ १८० ॥ पापों का क्षालन करके मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं और यदि मुनियों के अन्य चिता होती है तो वे मूढ़ कामदेव से पीड़ित हुए पापी पुनः पाप को संचित करते हैं, इसमें आश्चर्य हो क्या है ? भावार्थ -- अन्यत्र भी आचार्यों ने कहा है कि- "उत्तमा स्वात्मचिता स्यात् मोहचिता च मध्यमा । अत्रमा कामचिता स्यात् परचिता धमाधमा || " अर्थ- स्वात्मचिता उत्तम है, मोहचिता मध्यम है और काम आदि इन्द्रिय विषयों की चिता अधम है तथा परचिता अयम से भी अधम है । यहां पर टीकाकार ने स्वात्मचिता को ही प्रमुख कहा है क्योंकि वही उत्तम है और मोक्ष को प्राप्त कराने वाली है उसके अतिरिक्त अन्य चितायें कदाचित् आत्मतत्त्व की सिद्धि में साधक भी हैं कदाचित् बाधक भी हैं। चितवन आज्ञाविवय आदि चार प्रकार के या दश प्रकार के शुक्ल ध्यान के लिये सहायक सामग्री होने से मोक्ष का कारण माना गया है । पंच परमेष्ठी के गुणों का धर्म ध्यानों का चितवन "परे 'मोक्षहेतु ।" ऐसा सूत्रकार का कहना है, जबकि यह धर्म ध्यान पर के अवलम्बन रूप ही है । यहां पर जिस चिन्ता से योगी को पापी विमूढ़ आदि कहा है वे चिंताएं साधु पद के विरुद्ध विषय कषायरूप अथवा आर्तरौद्र ध्यानरूप हैं वे तो सर्वथा त्याज्य ही हैं । १. तत्त्वार्थ सूत्र नवम श्वः । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार [ ३१६ कोहाविसगम्भावक्खयपहुविभावणाए रिणग्गहणं । पायच्छित्तं भरिणदं, णियगुराँचता य रिपच्छ्यवो ॥११४!! क्रोधादिस्वकीयभावक्षयप्रभृतिभावनायो निग्रहणम् । प्रायश्चित्तं भणितं निमगुचिता च निश्चयतः ॥११॥ कोशदिक जो भाव स्वयं के वे विभाव कहलाते । उनके क्षय करने आदी में जो तत्र हो जाते ।। नया निजातम के अनंत गुण का चिंतन जो करते । उनक ही निश्चय प्रायश्चित्त कहा गया निश्चय मे ॥११४।। । इह हि सकलकर्मनिमूलनसमर्थनिश्चयप्रायश्चित्तमुक्तम् । क्रोधादिनिखिलमोह पविभावस्वभावक्षयकारणनिजकारणपरमात्मस्वभावभावनायां सत्यां निसर्गवृत्त्या विसमभिहितम्, अथवा परमात्मागुणात्मकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपसहजज्ञानाविसहजअनिता प्रायश्चित्तं भवतीति । . - . - . --... . गाथा ११४ अन्वयार्थ--[ क्रोधादि स्वकीय भाव क्षय प्रभृति भावनायां ] क्रोध आदि कीय भावों के क्षयादि की भावना में [ निर्ग्रहणं ] रहना, [ निजगुण चिन्ता च ] र अपने गुणों का चितवन करना, [निश्चयतः] निश्चय से [ प्रायश्चितं भणितं ] चित्त कहा गया है। । टीका-सम्पूर्ण कर्मों के निर्मलन करने में समर्थ निश्चय प्रायश्चित्त का हो पर कथन है। क्रोधादि सम्पूर्ण मोह राग द्वेष रूप विभाव स्वभाव के क्षय करने में कारणत ऐसे निजकारण परमात्मा की भावना के होने पर नैसर्गिक वृत्ति से प्रायश्चित्त गया है, अथवा परमात्मा के गुणरूप, शुद्ध चैतन्य सत्त्व स्वरूप के सहज ज्ञान दर्शन दि सहज गुणों का चितवन करना प्रायश्चित्त होता है। । [अब टीकाकार मुनिराज इसी बात को स्पष्ट करते हुये श्लोक कहते हैं-] Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ] नियमसार ( शालिनी ) प्रायश्चित्तंह्य क्तमुच्चैर्मुनीनां कामक्रोधाद्यन्यभावक्षये च किं च स्वस्य ज्ञानसंभावना वा सन्तो जानन्त्येतदात्मप्रवादे ।।१८१॥ कोहं खमया मारणं, समद्दवेणज्जवेण मायं च । संतोसेण य लोहं, जयदि खुए चहुविहकसाए ॥११५॥ क्रोधं क्षमया मानं स्वमार्दवेन आर्जवेन मायां च । संतोषेण च लोभं जयति वलु चतुविधकषायान् ।।११५ ।। (१८१) श्लोकार्थ - मुनियों के काम कोवादि अन्य-परभावों के क्षय के होने में जो भात्र है अथवा अपने ज्ञान की जो नम्यक भावना है उसे अतिशय रूप से प्रायश्चित्त कहा गया है, सत्पुरुष आत्मप्रवाद पूर्व में ऐसा जानते हैं । भावार्थ – आत्मप्रवाद नामक सातवें पूर्व में प्रायश्चित का वर्णन पूर्णनया किया है । साधुजन उसी के आधार से प्रायश्चित का वर्णन करते हैं । व्रतादि में जो अतिचार या अनाचार आदि दोष होते हैं उससे आत्मा में मलीनता आती है, इसलिये उन किये हुये दोषों की शुद्धि के लिए उन दोषों को दूर करने के लिए गुरु से जो दण्ड ग्रहण किया जाता है जो कि आत्मा को पवित्र बनाने वाला है उसी का नाम प्रायश्चित है। यहां पर क्रोधादि विभाव परिणामों से आत्मा मलिन हो रही है उनके दूर करने में कारणभूत ऐसे निज गुणों का चितवन ही उत्तम प्रायश्चित्त माना है क्योंकि यही भाव आत्मा को पूर्णतया शुद्ध करने वाला है । गाथा ११५ अन्वयार्थ - [ क्रोधं क्षमया ] क्रोध को क्षमा से, [ मानं स्वमार्दवेन ] मान को निजमार्दव से, [ मायां च आर्जवेन ] माया को आर्जव से [ च ] और [ लोभ १. जिगदि खु चत्तारि विकहाए ( क ) पाठान्तर Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार समा भाव त ोध जीतते, भर जीत मृदुता से । प्रार्जब से माया व लोभ को जीत संतोषहि से ।। निश्चय स चारों कषाय को जीत लिया जो मुनिवर । उनके ही निश्चय प्रायश्चित होता कर्म भरम हर ।।११५।। चतुष्कषायविजयोपायस्वरूपाख्यानमेतत् । जघन्यमध्यमोत्तमभेदारक्षमास्तिस्रो भवन्ति । अकारणादप्रियवादिनो मिथ्यादृष्टेरकारणेन मां वासयितुमुद्योगो विद्यते, अयमपगतो मत्पुण्येनेति प्रथमा क्षमा । अकारणेन संत्रासकरस्य ताडनवधादिपरिणामोऽस्ति, अयं चापगतो मत्सुकृतेनेति द्वितीया क्षमा । वधे सत्यमूर्तस्य परमब्रह्मरूपिणो ममापकारहानिरिति [ममकाहानिरिति] परमसमरसीभावस्थितिमत्तमा क्षमा । प्राभिः क्षमाभिः क्रोधकषायं जित्वा, मानकषायं माई वेन च, मायाकषायं चार्जवेण, परमतत्त्वलाभसन्तोषेण लोभकषायं चेति । तथा चोक्त श्री गुणभद्रस्वामिभिः ---- - - .. ... .. संतोषेण] लोभ को सन्तोष से, [ चतुविधकषायात् ] इनप्रकार चनुविध कपायों को, खिलु जयति ] साधु निश्चितरूप से जीतते हैं । टीका-चार कषायों के विजय करने के उपाय के स्वरूप का यह कथन है । जघन्य, मध्यम और उत्तम के भेद से क्षमा तीन प्रकार की होती हैं । बिना कारण अप्रिय वचन बोलने वाले मिथ्यादष्टि को अकारण ही मुझे त्रास देने का जो उद्योग है वह मेरे पुण्य से दूर हो गया ऐसा विचार करना पहली जघन्य क्षमा है । बिना कारण त्रास देने वाले का जो ताड़न करने, वध आदि करने का भाव है वह मेरे पुण्य से दूर हुआ ऐसा विचार करना दूसरी-मध्यम क्षमा है । वध होने पर अमूर्तिक परमब्रह्मस्वरूप ऐसे मेरी क्या हानि हुई ? अर्थात् कुछ भी नहीं इसप्रकार विचार कर परम समरसोभाब से स्थित रहना यह तीसरी उत्तम क्षमा है । इन क्षमारूप भावों से श्रोथ कपाय को जीतकर, मार्दव से मान कषाय को जीतकर, आर्जव से माया कषाय को जीतकर तथा परमतत्त्व के लाभ के द्वारा संतोष भाव से लोभ कषाय को जीतकर साधु चारों कषायों पर विजय करते हैं । उसीप्रकार से श्री गुणभद्रस्वामी ने भी कहा है Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . T A . .. * Hd नियमसार ( वसन्ततिलका ) "चित्तस्थमप्यनवबुद्धच हरेण जाडघात् ध्या बहिः किमपि दग्धमनंगबुद्धथा । घोरामवाप स हि तेन कृतामवस्था क्रोधोदयाद्भवति कस्य न कार्यहानिः ।।" ( वसंततिलका) "चक्रं विहाय निजदक्षिणबाहुसंस्थं यत्प्रावजन्ननु तदैव स तेन मुच्येत् । - - - - "श्लोकार्थ-'महादव ने अपने चित्त में स्थिन भी कामदेव को नहीं जाना। जड़ता से कट होकर बाहर में कामदेव को बुद्धि में विमी को जला दिया, किन्तु र कामश्व में की गई घोर-दुरवस्था को वह प्राप्त हुआ था गो ठीक है-क्रोध के उदय । किस के कार्य ही हानि नहीं होनी है ?" भावार्थ-जब महादेव तपस्या कर रहे थे तब पार्वती उन्हें प्रसन्न करने लिये कामदेव के माथ वहां पहुंची और नृत्यादि में उन्हें प्रसन्न करने का प्रयन्त कर लगी, इधर कामदेव ने भी वसन्त ऋतु का निर्माण कर उन पर पुष्प वाण छोड़नः । प्रारम्भ किया । तब महादेव ने क्रुद्ध होकर तीसरे नेत्र ग अग्नि को प्रगट करके कार दव को जला दिया ऐसी कथा प्रसिद्ध है। इसी अभिप्राय से आचार्य ने कहा है कि सच्चा कामदेव तो उनके हृदय स्थित था जिसे उन्होंने जाना ही नहीं। इसीलिये पार्वती के साथ उनका विवाह जाने पर उनकी दुरवस्था हुई । यह सब अनर्थ एक क्रोध का कारण हुआ । "श्लोकार्थ-अपने दाहिनी भुजा पर स्थित ऐसे चक्र को छोड़कर बाहुन ने दीक्षा ले ली, वे उस तप से उसी समय मुक्त हो जाते किन्तु वे बाहुबलि चिरका तक क्लेश को प्राप्त हुए सो ठीक है-किचित् भी मान महान् हानि को करता है । १. प्रात्मानुशासन श्लोक० २१६ २. कुमारसम्भवम् ( कालिदास कवि कृत) ३. आत्मानु. श्लोक २१७ । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२३ शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार क्लेशं तमाप किल बाहुबली चिराय मानो मनागपि हति महतीं करोति ॥" भावार्थ-भरत चक्रवर्ती जब छहों खण्डों को जीतकर वापिस अयोध्या आये सब उनका चक्ररत्न नगरी के बाहर द्वार पर ही रुक गया। कारण विदित करने पर मालूम हुआ कि आपयः भाई आपके वश में नहीं हैं, तब अन्य भाई के दीक्षित होने के बाद बाहुबलि ने युद्ध का प्रसंग आया । मंत्रियों द्वारा निर्धारित जन्न युद्ध. दृष्टि युद्ध और मल्ल युद्ध में भग्त हार गये और बाह बलि बिजयी हुए तत्र भरत ने क्रुद्ध होकर बकरन चला दिया, यह नवरत्न बालबलि की प्रदक्षिणा देकर उनके हाथ पर स्थित हो गया। इस घटना से बाहव लि न बिरक्त ही दीक्षा लेकर एक वर्ग का योग ले लिया । इस प्रनिगा योग के समाप्त होने पर भरत चक्रवर्ती ने आकर उनकी पूजा को और तब उन्हें के ना जान उत्पन्न हो गया। इसके' पुर्व उनके हृदय में थोड़ी मी ऐमी चिन्ता रही कि मेरे द्वाग भरत श्वर्ती को मयालेण हुआ है. इसीलिये उन्हें केवलज्ञान प्राप्त नहीं हुआ और भरत क्रवर्ती के द्वारा पूजित होने पर तन्काल उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया नथा अजनसेन स्वामी ने तो कहा है कि इन्हें ध्यानावस्था में मनःपर्ययनान आदि अनेकों दियां उत्पन्न हो गई थी, जिसमें बहन से विद्याधर आदि अपना कष्ट निवारण किया करते थे । मो मार्शलगी छठे सातवें गुणस्थान हुए बिना ऋद्धियों का होना तथा मनः प्रयज्ञान का होना असम्भव है । न तथा प उमरिन में ऐसा कहा है कि "मैं भरत की भूमि में स्थित हं ऐसी ही सी कषाय के विद्यमान रहने से उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। १. संक्लिटो भरताधीशः सोऽस्मत्त इति यत्किल । हृद्यस्य हार्द तेनासीत् तत्पूजापेक्षि केवलम् ॥१८६।। १२. मादि पु. दि. भाग पर्व ३६, श्लोक १४४ से १४ तक देखिये । । ३. पउमरिउ, ५, १३, १६ । UP"LAAEE. . .tk Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..-." . ३२१] नियमसार ( अनुष्टुभ् ) "भेयं मायामहागान्मिथ्याघनतमोमयात् । यस्मिन् लीना न लक्ष्यन्ते क्रोधादिविषमाहयः ।।" - - - - - .- .--- याहुबलि का हृदय मान कपाय से कलुपित रहा, ऐसा उल्लेख भावप्राभूत में पाया जाता है 'देहादिचिनसंगो माणकमायेण कल सिओ धीर । अन्नावणंण जादा बाहुबलि किनियं कालं ॥४४।। अर्थ-हे धीर ! देखो, श्री वृषभदेव के पुत्र बाहुबलि देहादि परिग्रह को छोड़कर निर्गन्य मुनि वन गये, तो भी मान कपाय मे कलुषित चित्त हुए आतापन बोग से कितने काल तक स्थित रहे तो भी सिद्धि नहीं पाई । "श्लोकार्थ—'मिथ्यात्वरूपी घनघोर अन्धकारमय इस मायारूपी महान गड्ढे से डरना चाहिए, कि जिसमें लीन हुए-रहते हुए क्रोध आदि विषम सर्प लक्षित नहीं होते हैं-दिखते नहीं है।" भावार्थ-जैसे विशाल गड्ढे में घोर अंधकार रहता है और सर्प आदि जंतु निवास करते हैं तथा उस में गिरने से मृत्यु ही सम्भव है वैसे ही यह माया कपाय विशाल गड्ढे के समान है इसमें मिथ्यात्वरूप अन्धकार व्याप्त है तथा इसमें क्रोध आदि सर्प बैठे हुए हैं अर्थान् मायाचारी से क्रोधादि कषायें भी होती हैं, मिथ्यात्व भी आ जाता है इसलिये मायाचार से दूर रहना चाहिये । १. भावप्रामृत पृ १५४ । २. प्रात्मानु. श्लो. २२१ । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्त अधिकार ( हरिणी ) "वनचरभयाद्धावन् देवाल्लताकुलवालधिः किल जडतया लोलो वालव्रजेऽविचलं स्थितः । बत स चमरस्तेन प्राणैरपि प्रवियोजितः परिणततृषां प्रायेणैवंविधा हि विपत्तयः ।। " तथा हि ( आर्या ) क्षमया क्रोधकषायं मानकषायं च माई वेनैव । मायामाजवलाभाल्लोभकषायं च शौचतो जयतु ।। १६२ ।। उक्किट्ठो जो बोहो, गाणं तस्सेव श्रप्पणी चित्तं । जो धरइ सुणी रिगच्चं, पायच्छित्तं हवे तस्स ॥ ११६ ॥ [ ३२५ " श्लोकार्थ - ' वनचर - भील या सिंह आदि जन्तु के भय से दौड़ती हुई चमरी गाय, जिसकी पूछ बेल में उलझ गई है वह अपने बालों में लोलुप होती हुई मूढबुद्धि से नहीं अविचल स्थित हो गई । हाय ! खेद है कि वह चमरी गाय उस लोभ से प्राणों से मारी गई । ठीक ही है तृष्णा से परिणत हुए जीवों को प्राय: करके ऐसी ही विपत्तियां प्राप्त होती हैं ।" उसी प्रकार से - [ श्री मुनिराज कपाय विजय की प्रेरणा देते हुए कहते हैं - ] ( १८२ ) श्लोकार्थ - क्षमा से क्रोध को, मार्दव से ही मान को, आर्जव के लाभ से माया को और शौच से संतोष से लोभ को जीतो । गाथा ११६ अन्वयार्थ -- [ तस्य एष आत्मनः ] उसी आत्मा का [ यः उत्कृष्टः बोध: ] जो उत्कृष्ट बोध है, [ज्ञानं ] ज्ञान है, [ चित्तं ] चित्त है, उसको [ यः मुनिः नित्यं १. आत्मानु. श्लो. २२३ । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य को मार नियममार उस्कृष्टो यो बोधो ज्ञानं तस्यैवात्मनश्चित्तम | यो धरति मुनिनित्यं प्रायश्चित्तं भवेत्तस्य ।।११६॥ जो उत्कृष्ट बोध प्रात्मा का जान नाम में जग में । बो हो चित्त कहा है उस ही आत्मा का सचमुच में ।। जो मनि उसी ज्ञान को निज में नित धारण करते हैं । उनके हो प्रायश्चित होता सवाल दाप हरते वे ।। ११६ ।। अत्र शुद्धज्ञानस्वीकारवतः प्रायश्चित्तमित्युक्तम । उत्कृष्टो यो विशिष्टधर्मः हि परमबोधः इत्यर्थः । बोधो ज्ञानं चित्तमित्यनर्थान्तरम । अत एव तस्यैव परममि। जीवस्य प्रायः प्रकरण चित्तं । यः परमसंयमी नित्यं तादृशं चित्तं धत्ते. तस्य खबर निश्च यप्रायश्चित्तं भवतीति । ( शालिनी ) यः शुद्धात्मज्ञानसंभावनात्मा प्रायश्चित्तात्र चास्त्येव तस्य । घरति ] जो मुनि निन्य ही धारण करते हैं, [ तस्य ] उनके, [ प्रायश्चित्तं भवेत् । प्रायश्चित होता है । टीका-शुद्ध ज्ञान को स्वीकार करने वाले के प्रायश्चित्त होता है, यहां ऐसा कहा है। उत्कृष्ट जो विशिष्ट धर्म है वही परमवोध बहलाता है। बोत्र ज्ञान और चित्त ये पर्यायवाची शब्द हैं। इसीलिये उस परमधर्मी जीव का ही प्राव:-प्रकला चित्त-ज्ञान प्रायश्चित्त कहलाता है । जो परमसंयमी मुनि नित्य ही उसप्रकार के प्रकर्षमा चित्त-ज्ञान को धारण करते हैं, उनके निश्चितम्प से निश्चय प्रायश्चित होता है। [अब टीकाकार मुनिराज ऐसे परममुनि को नमस्कार करते हुए कहते हैं (१८३) श्लोकार्थ-~-जो इस लोक में शुद्ध आत्मज्ञान की सम्यकभावना परिणत हैं उन्हीं के प्रायश्चित्त होता है 1 जिन्होंने पाप समूह को धो डाला है ऐसे उन Mon Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धनिश्चय-प्रायश्चिन अधिकार निद्धताहःसंहति तं मुनीन्द्र वन्दे नित्यं तद्गुणप्राप्तयेऽहम् ॥१८३।। कि बहुणा भरिगएण दु, वरतवचरणं महेसिणं सव्वं । पायच्छितं जागह, अणेयकम्माण खयहेऊ ।। ११७ ॥ कि बहना भणितेन तु वरतपश्चरणं महर्षीणां सर्वम । प्रायश्चित्तं जानीह्यनेककर्मणां क्षयहेतुः ॥ ११७ ।। इस प्रकरण में बहुत अधिना कहने से क्या : मनन् भो । महपियों का श्रार तपश्चरणादि सभी कुछ भी जा ।। उनम प्रायश्चित वही है. निश्चय में गन्धानी । कि गर्व कर्मा का क्षय में संतु वही है माना ।।११।। इह हि परमतपश्चरणनिरतपरमजिनयोगीश्वराणां निश्चयप्रायश्चित्तम्, एवं मस्ताचरणानां परमाचरणमित्युक्तम् । बहुभिरसत्प्रलापरलमलम् । पुनः सर्व निश्चयव्यव-- . . . . .. .. .-. - - .. . - - - - सौन्द्रों को निन्य ही उनके गुणों की प्राप्ति के लिये मैं वंदन करता हूं। गाथा ११७ अन्वयार्थ - [ बहुना भणितेन तु कि ] बहुत कहने में नया, [ महर्षिणां सर्व सपश्चरणं ] मषियों के सभी थेप्ट तपश्चरण को, [ प्रायश्चित्त जानीहि ] मश्चित्त जानो, [ अनेककर्मणां ] जो कि अनेक कर्मों के, [ क्षयहेतु: ] भय का टीका--परम तपश्चरण में लीन हुए जिन योगीश्वरों के निश्चय प्रायश्चित्त ा है, जो कि समस्त आचरणों में परम आचरण है, ऐमा यहां पर कहा है । । बहुन मे असत् प्रलापों रो वम होवें. बस होवें । परम जिन योगियों के अनादि र से बंधे हुए द्रव्यकर्म और भावकों का सम्पूर्ण विनाश करने में कारणभूत, सभी Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ] नियममार हारात्मकपरमतपश्चरणात्मक परमजिनयोगिनामासंसारप्रतिबद्धद्रव्यभावकर्मणां निरक शेषेण विनाशकारणं शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्तमिति हे शिष्य त्वं जानीहि । (दुतविलम्बित) अनशनादितपश्चरणात्मकं सहजशुद्धचिदात्मविदामिदम । सहजबोधकलापरिगोचरं सहजतत्त्वमघक्षयकारणम् ।।१४।। ( शालिनी ) प्रायश्चित्तं ह्य त्तमानामिदं स्यात् स्वद्रव्येऽस्मिन् चिन्तनं घHशुक्लम् । कर्मवातध्वान्तसबोधतेजो लीनं स्वस्मिन्निविकारे महिम्नि ॥१५॥ - - - -.. - - - निश्चय और व्यवहार लक्षण बाला परमतपश्चरण स्वरूप शुद्धनिश्चय प्रायश्चित्त होती है ऐसा है शिग्य ! तुम समझो । [अब टीकाकार मुनिराज प्रायश्चित्त की महिमा को कहते हा पांच लो कहते हैं-] (१८४) श्लोकार्थ---जो अनशन आदि बारह प्रकार के तपश्चरणरूप सहज शुद्धचंतन्य स्वरूप को जानने वालों के लिये यह सहजज्ञान कला का विषय ऐसा यह सहज तन्य पापों के क्षय करने में कारण है। (१८५) श्लोकार्थ-यह प्रायश्चित्त निश्चितरूप से उत्तम जीवों को हो है जो कि इस स्वद्रव्य में धर्म ध्यान और शुक्लध्यान के चिंतनरूप है, कर्म समह अंधकार को नष्ट करने के लिये सम्यग्ज्ञानरूपी तेज है तथा अपनी निर्विकार मात्र में लीन है। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध निश्चय - प्रायश्चित्त अधिकार ( मंदाक्रांता ) आत्मज्ञानाद्भवति यमिनामात्मलब्धिः क्रमेर ज्ञानज्योतिर्निहतकरणग्रामघोरान्धकारा । कर्मारण्योद्भवववशिलाजालकानामज प्रध्वंसेऽस्मिन् शमजलमयीमाशु धारा बमन्ती ।।१६६ ॥ ( उपजाति ) प्रध्यात्मशास्त्रामृतवारिराशेयोद्धृता संयम रत्नमाला बभूव या तत्त्वविदां सुकण्ठे सालंकृतिमं क्तिवधूधवानाम् ॥ १८७ ।। [ ३२० ( १०६ ) श्लोकार्थ - जिसने ज्ञान ज्योति से इन्द्रियग्राम के घोर अन्धकार को नष्ट कर दिया है, जो कर्मरूपी वन में उत्पन्न हुई दावानल अग्नि की ज्वाला ममूह को बुझाने में शीघ्र ही शमजलमयी धारा को बरसाती हुई ऐसी आत्मा की उपलब्धि क्रम से संयमियों के आत्म ज्ञान में उत्पन्न होती है । भावार्थ- -- आत्मा के स्वरूप की प्राप्ति संयमी मुनियों को ही हो सकती है अन्य को नहीं और उन्हें भी आत्मज्ञान के बल से ही हो सकती है अन्यथा नहीं । ( १८७ ) श्लोकार्थ - अध्यात्म शास्त्ररूपी अमृत समुद्र मे मैंने संयमरूपी रत्नमाला निकाली है, जो कि मुक्तिबधु के स्वामी ऐसे तत्त्ववेत्ताओं के सुकंट में अलंकाररूप होती है । भावार्थ - - समुद्र के मंथन से रत्न निकलते हैं वैसे ही श्री पद्मप्रभमलधारीदेव मुनिराज ने अध्यात्म शास्त्ररूपी अमृतमयी समुद्र का मंथन करके संयमरूपी रत्न निकाले हैं जो कि मुक्ति के प्राप्त करने वाले आत्मज्ञानियों के कंठ का हार बन जाते हैं अर्थात् अध्यात्म शास्त्र के अवलम्बनपूर्वक धारण किया गया संयम मुक्ति को प्राप्त करा देता है । सह Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० नियममार ( उपेन्द्रवज्ञा) नमामि नित्यं परमात्मतत्त्वं मुनीन्द्रचित्ताम्बुजगर्भवासम् । विभुतिकोताररूसोल्यमूल विनष्टसंसार द्रुमूलमेतत् ।।१८८।। तारणंतभवेण' समज्जिअसुहासुहकम्मसंदोहो । तवचरणेरण विरणस्सदि, पायच्छित्तं तवं तम्हा ॥११॥ अनन्तानन्तभवेन सजितशुभाशुभकर्मसंदोहः । तपश्चरणेन विनश्यति प्रायश्चित्तं तपस्तस्मात् ॥११॥ जो ही अनंतानंत भवा में मंचित किया गया है। शुभ वा अशुभ कर्म कसा भी गवन रूप भया है ।। वो सब तपश्चरण कर में, मूल नष्ट हो जाना। इसीलिये तप ही निश्च च मे प्रायश्चित कहाना ।।११।। - - - -- - - - - (१८८) श्लोकार्थ-मैं नित्य ही परमम्मनन्त्र को नमस्कार करता हूं जो कि मुनीन्द्रों के हृदय कमल की कणिका पर निवास करने वाला है. मक्तिरूपी कान्ता के रति सुख का मूल कारण है और संसाररूपी वृक्ष की जड़ को नष्ट करने वाला है। भावार्थ-इस परमात्मतत्त्व क. ध्यान मुनिजन ही कर सकते हैं, अन्यजन नहीं, इसलिये यह उनके मन के गोचर है तथा अतीन्द्रिय मुख का कारण है और संसार के दुःखों से मुक्त करने वाला है । गाथा ११८ अन्वयार्थ- [अनंतानंत भवेन] अनंतानंत भवा के द्वारा, [सजित शुभागमा कर्म संदोहः] उपाजित किया गया शुभ और अशुभरूप कर्म समूह, [ तपश्चरकन विनश्यति ] तपश्चरण से नष्ट हो जाता है, [तस्मात् तपः प्रायश्चित्तं] इसलिये तक प्रायश्चित्त है। १. भावेण (क) पाठान्तर Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संविधिसांगा शुद्ध निश्चय - प्रायश्चित अधिकार [ ३३१ अत्र प्रसिद्धशुद्धकारणपरमात्मतत्त्वे सदान्तर्मुखतया प्रतपनं यत्तत्तपः प्रायश्चित्तं भवतीत्युक्तम् । आसंसारत एवं समुपार्जितशुभाशुभकर्मसंदोहो द्रव्यभावात्मकः पंचसंसारसंवर्द्धनसमर्थः परमतपश्चरणेन भावशुद्धिलक्षणेन विलयं याति ततः स्वात्मानुष्ठाननिष्ठं परम तपश्चरणमेव शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्तमित्यभिहितम् । टीका - प्रसिद्ध शुद्ध कारण परमात्म तत्त्व में सदा अन्तर्मुख होकर के जो प्रतपन - प्रताप शील- प्रकाशमान होना है वह तम प्राचिन होता है यहां पर ऐसा कहा गया है। अनादि संसार से ही उपार्जित किये हुए शुभ और अशुभ कर्मों का जो समूह है जो कि द्रव्यकर्म और भावकर्मरूप है तथा द्रय, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप पांच प्रकार के संसार के संवर्धन में समर्थ है, वह भग्यशुद्धि लक्षण वाले परम विलय को प्राप्त हो जाता है, इसलिये अपनी आत्मा के अनुष्ठान पर ही शुद्ध निश्चय प्रायश्चित है ऐसा कहा है। तपश्चरण से निष्ठ परम विशेषार्थ - 'आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभव, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, परिहार और उपस्थापना इसप्रकार से प्रायश्चिन के नव भेद हैं, किन्तु यहां पर तप छेद, को मुख्यम् से लिया है अतः उसी को प्रायश्चित कह दिया है क्योंकि तप के वारह भेदों में से ही यह प्रायश्चिन सातवां भेद है तथा इन नव मंदा में भी एक तप भेद आ गया है । कारण यही है कि अनशन आदि के द्वारा कर्मों की निर्जरा होती है । इसलिए तप को ही अध्यात्म प्रायश्चित्त में घटित करते हुए कहते हैं कि आत्मा में प्रकर्षरूप से उपना, स्थिर रूप से निवास करना निश्चय तप है । वास्तव में शुद्ध आत्मा में निर्वि कल्प समाधिरूप स्थिति ही निश्चय प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त आदिरूप हैं ऐसा अर्थ है । ये प्रतिक्रमण प्रायश्चित भेद निर्विकल्प ध्यान में नहीं हैं वहां केवल एक अभेद अवस्था है ये व्यवहारनय से व्यवहार की अपेक्षा से ही कहे जाते हैं । १. "आलोचना प्रतिक्रमण तदुभय विवेक व्युत्सर्गं तपश्छेत्र परिहारोपस्थापना : " [ तत्त्वार्थ सूत्र सु. २२ नवम प्र. ] Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियममार ( मंदाक्रांता) प्रायश्चित्त न पुनरपरं कर्म कर्मक्षयार्थ प्राहुः सन्तस्तप इति चिदानंदपीयूषपूर्णम् । आसंसारादुपचितमहात्कर्मकान्तारवन्हि ज्वालाजालं शमसुखमयं प्राभृतं मोक्षलक्ष्म्याः ॥१८॥ अप्पसरूवालंबरण, भावेण दु सम्वभावपरिहारं । सक्कदि कादु जीबो, तम्हा झाणं हवे सव्वं ॥११६॥ आत्मस्वरूपालम्बनभावेन तु सर्वभावपरिहारम् । शक्नोति कर्तु जोवस्तस्माद् ध्यानं भवेत् सर्वम् ।।११।। मुनी नि नानम के स्वरूप का अवलंबन ले धार । सभी विभाव हा भावां का त्याग स्वय कर गये ।। इगीलिये यह ध्यान विश्व में, बस सबम्ब कहाना । निर्विकल्प मुनि ही होते हैं स्वात्मतत्व के ध्याना ।।१६।। - - - - - - -- - . %D [ अब टीकाकार प्रायश्चित्त की विशेषता पर ही प्रकाश डालते हैं। कहते हैं ( १८६) श्लोकार्थ-अन्य कुछ क्रिया प्रायश्चित्त नहीं है किन्तु कर्मक्षयः । लिए जो चिदानंदम्पी अमृत से परिपूर्ण तप है उसे ही साधुजन प्रायश्चिन कहते हैं, वह तप अनादिकाल में संसार में संचित किये कर्मरूपी महावन को जलाने के अग्निज्वाला का समह है, शमसुखमय है तथा मोक्ष लक्ष्मी से मिलने के लिये स्वरूप है। गाथा ११६ अन्वयार्थ-[ आत्मस्वरूपालम्बन भावेन तु ] आत्मस्वरूप के अवलम्बन भाव मे, [ जीवः ] जीव, [ सर्वभावपरिहारं ] सर्वभावों का परिहार, [. शक्नोति ] कर सकता है, [ तस्मात् ] इसलिए, [ सर्व ध्यानं भवेत् ] वह ध्यान होता है। ..----- :. -::. Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध निश्चय - प्रायश्चित्त अधिकार [ ३३३ अत्र सकलभावानामभावं कर्तुं स्वात्माश्रयनिश्वयधम्यध्यानमेव समर्थमित्युक्तम् । अखिलपरद्रव्यपरित्यागलक्षणलक्षिताक्षुण्ण नित्यनिरावरण सहजपरम पारिणामिकभावभावनया भावान्तराणां चतुर्णामौदयिकौ पशमिक क्षायिकक्षायोपशमिकानां परिहारं कर्तुं मत्यासन्तभव्यजीवः समर्थो यस्मात् तत एव पापाटवीपायक इत्युक्तम् । अतः पंचमहाव्रत पंचसमितित्रिगुप्तिप्रत्याख्यान प्रायश्चित्तालोचनादिकं सर्वं ध्यानमेवेति । ( संदांता ) यः शुद्धात्मन्यविचलमनाः शुद्धमात्मानमेकं नित्यज्योतिः प्रतिहततमः पुरं जमाद्यन्तशून्यम् । ध्यात्वाज परमकल्या सार्धमानन्दमूर्ति जीवन्मुक्तो भवति तरसा सोऽयम्ाचारराशिः ॥ १६०॥ टीका सकल भावों का अभाव करने के लिए स्वात्मा के आश्रित निश्वय - धर्मध्यान ही समर्थ है, यहां पर ऐसा कहा है | अखिल परद्रव्यों के परित्याग लक्षण से लक्षित, अक्षुण्ण - अविच्छिन्न नित्य निरावरण सहज परम पारिणामिक भाव की भावना से औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक इन अन्य भावरूप चारों भावों का परिहार करने के लिये अतिनिकट भव्य जीव जिस हेतु से समर्थ है, उसी हेतु से वह पापरूपी वन के लिये पात्रक है ऐसा कहा गया है। इसलिये पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त और आलोचना आदि सभी ध्यान ही हैं, ऐसा समझना । [ अब टीकाकार श्री मुनिराज ध्यान के फल को कहते हैं - ] ( १९० ) श्लोकार्थ - जिसने नित्य ज्योति से अंधकार पुंज का नाश कर दिया है जो आदि और अन्त से शून्य है जो परमकला के साथ आनन्द की मूर्तिस्वरूप है ऐसी एक शुद्ध आत्मा का जो शुद्धात्मा में अविचल मन वाला होता हुआ निरन्तर ध्यान करता है सो यह आचार की राशिस्वरूप शीघ्र ही जीवन्मुक्त हो जाता है । । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ] नियमसार सहस्रसहवयरणरयभा, रायादी 'भाववारणं किच्चा । अप्पा जो झायदि, तस्स दु नियमं हवे नियमा ॥१२०॥ शुभाशुभवचनरचनानां रागादिभाववारणं कृत्वा । आत्मानं यो ध्यायति तस्य तु नियमो भवेशियमात् ॥ १२० ॥ जो शुभ अशुभ वचन रचना को पूर्णतया तज करके । रागादिक अंतर भावों को स्वयं दूर अति करके ॥ दिन आत्मा को पाते हैं नित निश्चल मन हो करके । परम समाधीत उन मुनि के होना नियम नियम से ।। १२० ।। शुद्धनिश्रयनियमस्वरूपाख्यानमेतत् । यः परमतत्वज्ञानी महातपोधनो देनं बैनं संचितसूक्ष्मकर्मनिर्मूलनसमर्थनिश्चयप्रायश्चित्तपरायणो नियमितमनोवाक्कायत्वाद्भववल्लीमूलकंदात्मक शुभाशुभस्वरूपप्रशस्ता प्रशस्त समस्तवचनरचनानां निवारणं करोति, गाथा १२० अन्वयार्थ -- [ यः ] जो [ शुभाशुभवचन रचनां ] शुभ-अशुभ वचन रचना को, [ रागादि भाववारणं ] रागादि भाव के निवारण को, [ कृत्वा ] करके, ध्यायति ] आत्मा को ध्याता है, [ तस्य तु ] उसके, [ नियमात् नियमो भवेत् ] नियम [ आत्मानं से नियम होता है | टोका - शुद्ध निश्चय नियम के स्वरूप का यह कथन है । जो परमतत्व ज्ञानी महातपोवन प्रतिदिन संचित हुए सूक्ष्म कर्मों के निर्मूलन में समर्थ ऐसे निश्चय प्रायश्चिन में परायण हैं, वे मन वचन और काय के नियमितनियन्त्रित होने से भवबेल की मूलकंदम्प ऐसे शुभ-अशुभस्वरूप प्रदास्त और यशस्व समस्त वचनों की रचना - बोलने का निवारण करते हैं, न केवल इन वचन रचनाओं १. रायादि ( क ) पाठान्तर २. रचनानां पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है - शुद्ध निश्चय - प्रायश्चित्त अधिकार [ ३३५ केवलमासां तिरस्कारं करोति किन्तु निखिलमोहरागढ़ षादिपरभावानां निवारणं च करोति । पुनरनबरत मखंडाद्वं तसुन्दरानन्दनिष्यन्द्यनुपमनिरंजन निजकारणपरमात्मतत्त्वं नित्यं शुद्धोपयोगबलेन संभावयति, तस्य नियमेन शुद्धनिश्वयनियमो भवतीत्यभिप्रायो भगवतां सूत्रकृतामिति । ( हरिणी ) वचनरचनां त्यक्त्वा भय्यः शुभाशुभलक्षणां सहजपरमात्मानं नित्यं सुभावयति स्फुटम् । परमयमिनस्तस्य ज्ञानात्मनो नियमादयं भवति नियमः शुद्धो मुक्त्यंगना सुखकारणम् ॥१६१ ॥ का तिरस्कार ही करते हैं किन्तु समस्त मोह रागद्वेषादि परभावों का भी त्याग कर देते हैं । पुनः निरन्तर अखण्ड अद्वैत सुन्दर आनन्द के निर्झररूप अनुपम निरंजन निज कारण परमात्मतत्त्व को नित्य ही शुद्धोपयोग के बद में सम्यक् प्रकार से अनुभव करते हैं, उनके नियम से शुद्ध निश्चयनियम होता है ऐसा सूत्रकार भगवान् श्री कुदेकुददेव का अभिप्राय है | भावार्थ- पहले गाया ३ में आचार्य देव ने रत्नत्रय को नियम शब्द से कहा था, वहां पर भी यही अभिप्राय है क्योंकि शुद्धनिश्वयन में परिणत हुए साधु के ही शुद्ध प्रायश्चित्तरूप निश्चय नियम होता है । | अव टीकाकार श्री मुनिराज अभेदरूप निधिकल्प ध्यान की प्रेरणा देते हुए चार श्लोक कहते हैं--] ( १६१ ) श्लोकार्थ - जो भव्य जोव शुभ-अशुभरूप वचन रचना को छोड़कर - नित्य ही स्फुटरूप से सहजपरमात्मा का सम्यक् प्रकार से अनुभव करता है, उस ज्ञान स्वरूप परम संयमी के नियम से यह शुद्ध नियम होता है, जो कि मुक्तिसुन्दरी के सुख का कारण है । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T!! ३३६ ] नियमसार ( मालिनी ) अनवरत मखंडाद्वै तचिह्निविकारे निखिलनयविलासो न स्फुरत्येव किंचित् । अपगत इह यस्मिन् भेववादस्समस्तः तममभिनमामि स्तौमि संभावयामि ।।१६२ ॥ ( अनुष्टुभ् ) इदं ध्यानमिदं ध्येयमयं ध्याता फलं च तत् । एभिविकल्पजालैर्यनिर्मुक्तं तन्नमाम्यन् ॥ १६३॥ ( अनुष्टुभ् ) भेदवादाः कदाचित्स्र्यस्मिन् योगपरायणे । : तस्य मुक्तिर्भवेन्नो वा को जानात्याहंते मते ।११६४ ॥ (१६२ ) श्लोकार्थ - सततरूप से अखंड अद्वैत चैतन्यम्प निर्विकार तत्त्व अखिल नयों का विलास किंचित् स्फुरायमान ही नहीं होना है, यहां जिसमें सम भेदवाद समाप्त हो चुका है, उसको मैं नमस्कार करता हूं उसका स्तवन करता हूँ. उसी की सम्यक् प्रकार से भावना करता हूं । ( १९३ ) श्लोकार्थ - यह ध्यान है, यह ध्येय है, यह ध्याता है और वह हैं इन विकल्प जालों से जो निर्मुक्त है मैं उसे नमस्कार करता हूं । ( १९४) श्लोकार्थ - जिस योग परायण - ध्यान लीन अवस्था में कान भेदवाद होते हैं, अरहन्त देव के मत में उसकी मुक्ति होगी या नहीं, कौन जानता भावार्थ — वीतराग निर्विकल्प ध्यान में ही शुद्ध नियमख्य प्रायश्चित्त) है । इस निर्विकल्प अवस्था के हुए बिना कर्मों का नाश होना संभव नहीं है । भी कहा है "मा' चिट्ठह मा जंप, मा चितह किवि जेण होइ थिरो । अप्पा अप्पम्म रओ, इणमेव परं हवे झाणं ।। ५६ ।। " १. द्रव्यसंग्रह 1 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित अधिकार [ ३३७ कायाई परदवे, थिरभावं परिहरत्तु अप्पारणं । तस्स हवे तणुसग्गं, जो झायइ णिम्विनप्पेण ॥१२१॥ कायादिपरद्रध्ये स्थिरभावं परिहत्यात्मानम् । तस्य भवेत्तनुत्सर्गो यो ध्यायति निर्विकल्पेन ॥१२१ । जो कायादिक पर द्रव्या में स्थिर भाव को तज । निर्विकमभावों से, आत्मा को ध्याते हैं मचि से ।। कायम जमा के होता ही महामुना हैं । निश्चय प्रायदिचत्त उन्हीं के, उनको सदा नमु – ।। १२ । निश्चयकायोत्सर्गस्वरूपाख्यानमेतत् । सादिसनिधनमूर्तविजातीयधिभावव्यंजनपर्यायात्मकः स्वभ्याकारः कायः। प्रादिशब्देन क्षेत्रवास्तुकनक रमणीप्रभृतयः । एतेषु सर्वेषु स्थिरभावं सनातनभावं परिहत्य नित्यरमणीयनिरंजननिजकारणपरमात्मानं व्यव - - - - -- - - .. अर्थ-डे गिय ! नम शरीर की कुछ चेष्टा-क्रिया मत करो, कुछ मत बोलो, मन में कुछ चितवन भी मत करो जैसे बन वैसे एकदम स्थिर हो जाओ और आत्मा में ही लीन हो जावो, यही परमध्यान होता है । गाथा १२१ अन्वयार्थ - [कायादिपरद्रव्ये | काय आदि पर द्रव्य में, [स्थिरभावं] स्थिर भाब को, [ परिहृत्य ] छोड़ करके, [ यः ] जो, [ निर्विकल्पेन ] निविकल्परूप से, [आत्मानं ध्यायति ] आत्मा का ध्यान करता है, [ तस्य ] उस साधु के [ तनुत्सर्ग: भवेत् ] कायोत्सर्ग होता है । टोका-निश्चयकायोत्सर्ग के स्वरूप का यह कथन है। __ सादि-सान्त मूर्तिक विजातीय विभाव व्यंजन पर्यायस्वरूप जो अपना आकार है वह 'काय' कहलाती है । यहां आदि शब्द से क्षेत्र, मकान, स्वर्ण, स्त्री आदि को ग्रहण : करना चाहिये । इन सभी में स्थिर भाव-ये स्थायी हैं ऐसे भाव को तथा ये समीचीन हैं ऐसे भाव को छोड़कर नित्य ही रमणीय निरंजन निज कारण परमात्मा का व्यवहार Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ײך ३३० ] नियमसार हारक्रियाकांडाडम्बरविविधविकल्पकोलाहलविनिर्मुक्तसहजपरमयोगबलेन नित्यं ध्यायति यः सहजतपश्चरणक्षीरवारांराशिनिशीथिनी हृदयाधीश्वरः तस्य खलु सहजवैराग्यप्रासाद शिखरशिखाभरर्णोनिश्चयकायोत्सर्गो भवतीति । Tren ( मंदाक्रांता ) कायोत्सर्गो भवति सततं निश्चयात्संयतानां कायोद्भुत प्रबलतरतत्कर्ममुक्तः सकाशात् । बाचां जल्पप्रकरविरतेर्मानसानां निवृत्तेः स्वात्मध्यानादपि च नियतं स्वात्मनिष्ठापराणाम् ।।१६५ ।। ( मालिनी ) जयति सहजतेजःपुंज निर्मग्नभास्वत्सहजपरमतत्वं मुक्तमोहान्धकारम् । त्रियाकांड के आडम्बर के अनेकों विकल्परूप कोलाहल से रहित सहज योग निर्विकल्प ध्यान के बल से जो नित्य ही ध्यान करते हैं, जो कि सहज तपश्चरणरूपी क्षीर सागर को वृद्धिंगत करने के लिये पूर्ण चन्द्रमा हैं, सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर की शिखामणि स्वरूप उन मुनि के निश्चितरूप से निश्चय कायोत्सर्ग होता है। [ अब टीकाकार मुनिराज निर्विकल्प ध्यान के लिये प्रेरणा देते हुए पांच श्लोकरूप कलशों द्वारा इस प्रायश्चित्त प्रकरण का उपसंहार कर रहे हैं--] ( १६५ ) श्लोकार्थ - निश्चय से कायोत्सर्ग सतत संयमी जनों को होता है। जो कि शरीर से उत्पन्न हुई प्रबलतर उन सम्बन्धी क्रियाओं के छूट जाने से वचनों के जन्मसमूह से विरक्त होने से, मन संबंधी विकल्पों के अभाव से तथा अपनी आत्मा के ध्यान से भी स्वात्मा में लीन हुए महासाधुओं के नियम से होता है । भावार्थ - मन, बचन और काय सम्बन्धी क्रियाओं के निरोध से निर्विकल्प ध्यान में तत्पर हुए साधुओं को ही निश्चय कायोत्सर्ग होता है । ( १६६) श्लोकार्थ - - - सहज तेज पुंज में सहज परम तत्त्व है वह जयशील हो रहा है जो कि डूबा हुआ ऐसा जो स्फुरायमान मोहांधकार से रहित है सहज Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शूद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार [ ३३६ सहजपरमदृष्टया निष्ठितात्माघजातं भवभवपरितापः कल्पनाभिश्च मुक्तम् ।।१६६॥ (मालिनी) भवभवसुखमल्पं फल्पनामात्ररम्यं तबखिलमपि नित्यं संत्यजाम्यात्मशक्त्या । सहजपरमसौख्यं चिच्चमत्कारमात्रं स्फुटितनिविलासं सर्वदा चेतयेहम् ॥१७॥ ( पृथ्वी) निजात्मगुणसंपदं मम हृदि स्फरन्तीमिमां समाधिविषयामही क्षणमहं न जाने पुरा। जगत्त्रितयवैभवप्रलयहेतुदुःकर्मणां प्रभुत्वगुणक्तितःखलु हतोस्मि हा संसृतौ ।।१९।। गरमष्टि से कृतकृत्यरूप है और भव-भव के परितापों से तथा कल्पना जालों से मुक्त है। (१९७) श्लोकार्थ—जो भव-भव का गुख है, वह अल्प-तुच्छ है, कल्पनामात्र से ही सुन्दर लगता है. उस समस्त श्री सुख का मैं आत्मशक्ति से सम्यक्प्रकार से नित्य त्याग करता हूं और जो चिच्चमत्कार मात्र है तथा प्रगटित निज विलासरूप है ऐम सहज परम सौख्य का मैं मदा ही अनुभव करता हूं। (१९८) श्लोकार्थ-मेरे हृदय में स्फुरायमान होती हुई समाधि की विषयभूत-ध्यान के गोचर ऐसी इस अपनी आत्मा की गुणरूपी सम्पत्ति को पहले मैंने एक क्षण भी नहीं जाना । हाय ! बड़े दुःख की बात है कि तीनों जगत के वैभव का प्रलय करने में कारणभूत ऐसे दुष्ट कमों के प्रभुत्व गुण की शक्ति से मैं निश्चित हो संसार में मारा गया हूं। भावार्थ-मेरी आत्मा में अनन्त गुणों का पुज विद्यमान है किंतु उसको न जान करके ही मैं इस कर्म शत्रु के द्वारा इस संसार में मारा जा रहा हूं, और अपनी संपत्ति से भी वंचित हो रहा हूं। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० ] नियमसाद ( आर्या ) भवसंभवविष भूरुहफलमखिलं दुःखकारणं बुद्ध्वा । आत्मनि चैतन्यात्मनि संजातविशुद्धसौख्यमनुभुजे ॥१६६॥। इति सुकविजनपयोजमित्र पंचेन्द्रियप्रस रवजितगात्रमात्र परिग्रह श्रीपद्मप्रभमन धारिदेवविरचितायां नियमसारख्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार अष्टमः श्रुलस्कन्धः ॥ ( १६६ ) श्लोकार्थ - भव में उत्पन्न होने वाले विपवृक्ष के अखिल फल क दुःख का कारण जान करके मैं चैतन्यस्वरूप अपनी आत्मा में उत्पन्न होने वाले विशु सौख्य का अनुभव करता हूं । विशेषार्थ - - इस शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्त अधिकार में प्रारम्भ में तो आचा ने व्रत समिति आदि के परिणाम को ही प्रायश्चित्त कहा है। वास्तव में जिसके द्वारा पाप का शोधन हो उसको प्रायश्चित कहते हैं, पुनः इसमें तपञ्चरण को प्रायश्चि बतलाते हुए अन्त में १२१ वीं गाथा में कायोत्सर्ग को भी ले लिया है। अधिकत प्रायदिवस में तपश्चरण और कायोत्सर्ग ही प्रधान रहते हैं । स्थल- स्थल पर टीकाकार ने यह स्पष्ट किया है कि जो व्यवहार क्रियाओं में पूर्ण निष्णात हैं उन्हीं साधु के यह निश्चय प्रायश्चित्त होता है । यदि वे व्यवहार में ही लगे रहते हैं तो उन्हें यह निश्व धर्म नहीं भी होता है किन्तु जब भी निश्चय प्रायश्चिन आदि साधु के होंगे तो वे व्यवहार क्रिया में पूर्ण निष्णात के ही होंगे न कि व्यवहार क्रिया से शून्य या शिथि के । इसलिए पहली सीढ़ी में व्यवहार में पूर्ण सावधान रहते हुए आगे निश्चय धर्म प्राप्त करने के लिये सतत प्रयत्नशील रहना चाहिये । इस प्रकार से सुकविजनरूपी कमलों के लिये सूर्यसमान, पंचेन्द्रियों के व्यापार से रहित गात्र मात्र परिग्रहधारी श्री पद्मप्रभमलधारीदेव के द्वारा विरचित नियम की तात्पर्यवृत्ति नामक व्याख्या में शुद्धनिश्चय प्रायवित्त अधिकार नाम वाला श्रुतस्कंध पूर्ण हुआ । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ] परम-समाधि अधिकार 38830 अथ अखिलमोहरागद्वषादिपरभावविध्वंसहेतुभूतपरमसमाध्यधिकार उच्यते । वयणोच्चारणकिरियं, परिचत्ता वीयरायभावेण । जो झायदि अप्पारणं, परमसमाही हवे तस्स ॥१२२॥ वचनोच्चारणक्रिया परित्यज्य वीतरागभावेन । यो ध्यायत्यात्मानं परमसमाधिर्भवेत्तस्य ॥१२२।। गीताछंद जो वचन उच्चारण क्रिया को सर्वथा ही त्यागते । बम वीतरागो भाव से निज आत्मा को घ्यावते ।। उनहों मुनी के कही परम समाधि-जो अब नहिं सनभ । उन शुक्ल ध्यानी साघु को कंवल्य की प्राप्ति सुलभ ।।१२२।। अब समस्त मोह रागद्वेष आदि पर भावों के विध्वंस में कारणभूत ऐसे परम समाधि अधिकार को कहते हैं गाथा १२२ अन्वयार्थ-[वचनोच्चारण कियां परित्यक्त्वा] वचन बोलने की क्रिया का परित्याग कर, [यः] जो, [वीतराग भावेन] वीतराग भाव से, [आत्मानं ध्यायति] आत्मा को ध्याता है, [तस्य उसके, [परम समाधिः भवेत्] परम समाधि होती है । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार परमसमाधिस्वरूपाख्यानमेतत् । क्वचिव शुभवचनार्थ वचनप्रपंचांचितपरमवी तरागस वंजस्तवनादिकं कर्तव्यं परमजिनयोगीश्वरेणापि । परमार्थतः प्रशस्ता प्रशस्तसम स्तवाविषयव्यापारो न कर्तव्यः । अत एव वचनरचनां परित्यज्य सकलकर्मक संकर्षक विनिर्मु प्रध्वस्तभावकर्मात्मकपरमवीतरागभावेन त्रिकालनिरावरणनित्य शुद्ध कारणपर मात्मानं स्वात्माश्रयनिश्रवधर्मध्यानेन टंकोत्कीर्णज्ञायकंकस्वरूपनिरतपरम शुक्लध्याने च यः परमवीतरागतपश्चरणनिरतः निरुपरागसंयतः ध्यायति, तस्य खलु द्रव्यभावकर्मदः रूथिनी टाकस्य परमसमाधिर्भवतीति । ३४२ ] टीका - यह परम समाधि के स्वरूप का कथन है । कभी शुभ से बनने के वार से मनोहर पीरागसर्वज्ञ देव का स्तवन आदि पर जिन योगीश्वर को भी करना चाहिये । परमार्थ से प्रशस्त और अप्रशस्त ऐसे समस्त वचन विषयक व्यापार को नहीं करना चाहिए, इसी हेतु मे वचन रचना का परित्याग करके सवल कर्म कलंकरूपी पंक से रहित तथा भाव कर्म के भी प्रध्वस्त हो जाने से होने वाले ऐसे परम वीतराग भाव के द्वारा तीनों कालों में आवरण रहित, नित्य, शुद्ध, कारण परमात्मा को जो परम वीतराग तपश्चरण में लीन हुआ वीतरागी संयमी साधु स्वामाश्रित निश्चय धर्मध्यान से और टंको की जायक एक स्वरूप में निरन ऐसे शुक्लध्यान से ध्याता है, द्रव्यकर्म और भावकर्मरूपी सेना को जीतने वाले ऐसे उस साधु के वास्तव में परम समाधि होती है । भावार्थ - यहां पर निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान में तत्पर वीतरागी, साधु का ही मुख्य रूप से ग्रहण है। यह निश्चय धर्मध्यान सातवे गुणस्थान के द्वितीय | भेद रूप सातिशय अप्रमत्त अवस्था में होता है, पुनः श्रंणी में आरोहण करने वाले के ही शुक्लध्यान होता है । मोहनीय कर्म के अभाव से पूर्ण वीतरागता होती हैं, जो कि ग्यारहवें गुणस्थान में ही विवक्षित है । इन उभय ध्यान से पूर्व छठे और स्वस्थान अप्रमत्तरूप सातवें गुणस्थान में सविकल्प धर्मध्यान होता है । छठे गुणस्थानवर्ती महामुनियों को भी टीकाकार ने प्रथम पंक्ति में वचनों द्वारा जिनेन्द्र गुण स्तवन आदि व्यवहार क्रियाओं में उपादेय बतलाया है, क्योंकि जब तक निर्विकल्प अवस्थारूप ध्यान प्राप्त न हो तब तक आवश्यक क्रियाओं की हानि नहीं करना चाहिये । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम-समाधि अधिकार ( उपजाति ) समाधिना केनचिदुत्तमात्मनां हृदि स्फुरन्तीं समतानुयायिनीम् । यावन्न विद्मः सहजात्मसंपदं न मादृशां या विषया विवामहि ||२००|| संजमरियमतबेर दु. धम्मज्झाणेण सुक्कझाणेख । जो झायइ अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स ॥ १२३ ॥ संयमनियमतपसा तु धर्म्यध्यानेन शुक्लध्यानेन । यो ध्यायत्यात्मानं परमसमाधिर्भवेत्तस्य ॥ १२३ ॥ संयम नियम श्री तपश्चर्या को मदा जो धारते । निजधध्यान विशुद्ध से निज आत्मा को ध्यावते ॥ याशुवन ध्यान विशेष से शुद्धात्म में लम्भय हुए। उन साधु के ही कहो परमसमाधि वे निजमय हुये ||१२३ || [ ३४३ [ अब टीकाकार मुनिराज परमसमाधि की भावना को भाते हुए कहते हैं- ] ( २०० ) श्लोकार्थ - किसी (एक अद्वितीय - परम ) समाधि के द्वारा उत्तम आत्माओं (उत्तम अंतरात्माओं) के हृदय में स्फुरायमान होती हुई, समता भाव की अनुपिनी ऐसी सहज आत्मसंपत्ति का जब तक हम अनुभव नहीं करते हैं, तब तक हम जैसे साधुओं के लिये विषयभूत जो कोई मुख है उसको नहीं समझ सकते हैं । गाथा १२३ अन्वयार्थ -- [ संयम नियम तपसा तु ] संयम, नियम और तप से तथा, [ धर्मध्यानेन - शुक्लध्यानेन ] धर्मध्यान और शुक्लध्यान से, [ यः आत्मानं ध्यायति ] जो आत्मा को ध्याता है, [ तस्य परम समाधिः भवेत् ] उस साधु की परम समाधि होती है । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ] नियममार इह हि समाधिलक्षणमुक्तम् । संयमः सकलेन्द्रियव्यापारपरित्यागः । निक स्वात्माराधनातत्परता । आत्मानमात्मन्यात्मना संधत्त इत्यध्यात्म तपनम् । सकला क्रियाकांडाडम्बरपरित्यागलक्षणान्तःक्रियाधिकरणमात्मानं निरवधित्रिकालनिरूपाणि, रूपं यो जानाति, तत्परिणतिविशेष: स्वात्माश्रयनिश्यधर्मध्यानम् । ध्यानध्येयध्यास फलादिविविधविकल्पनिमुक्तांतर्मुखाकारनिखिलकरणग्रामागोचरनिरंजननिजपरमता विचलस्थितिरूपं निश्चयशुक्लध्यानम् । एभिः सामग्री विशेषः सार्धमखंडातपरमक्षित मात्मानं यः परमसंयमी नित्यं ध्यायति, तस्य खलु परमसमाधिर्भवतीति । { अनुष्टुम् ) निबिकल्पे समाधौ यो नित्यं तिष्ठति चिन्मये । द्वता तविनिमक्तमात्मानं तं नमाम्यहम् ॥२०१॥ टीका-ग्रहां पर समाधि का रक्षण कहा है । समस्त इन्द्रियों के व्यापार का परित्याग संयम कहलाता है। निगम गन्द से स्वात्मा के आराधन मं तत्परता का होना है जो आत्मा को आन्मा के द्वा आत्मा में सम्यकप्रकार में दान करता है-रिथर करता है, वह अध्यात्मरूप तपन : तप है। सम्पुर्ण राह्य क्रियाकांइरूप आडम्बर के परित्याग स्वरूप और अतरंग कि के आधारभूत ऐमो आत्मा जो कि अबधि रहित त्रिकाल में उपाधिरहित स्वरूप उमको जो जानता है वह परिणति विशेष स्वात्माश्रित धर्मध्यान है । ध्यान, ध्येय ध्याता और उनके फलादिरूप विविध विकल्पों से रहित, अन्तर्मुखाकार ममस्त इंडित ग्रामों के अगोचर, निरंजन ऐसे निज परमतत्त्व में अविचलस्थितिरूप निश्चय शुक्ला होता है । इन मंयम, नियम, तप निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यानझप गामग्री विश से रहित जो परमसंयमी अखंड अ त परम चिन्मय आत्मा का नित्य ही ध्यान कारख है उस संयमी के निश्चितरूप से परग समाधि होती है । [टीकाकार मुनिराज ऐसे संयमियों की वंदना में तत्पर हुए कहते हैं (२०१) श्लोकार्थ-जो चैतन्यमय निविकल्प समाधि में नित्य ही स्थि होते हैं उन हैत और अद्वैत से निर्मुक्त ऐसी आत्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम समाधि अधिकार [३४५ कि काहदि वरणवासो, कायकिलेसो विचित्त उववासो। अज्झयरणमौरणपहुदी, समदारहियस्स समएस्स ॥१२४॥ कि करिष्यति बनवासः कायक्लेशो विचित्रोपवासः । अध्ययनमौनप्रभृतयः समतारहितस्य श्रमणस्य ।।१२४॥ जिनके न समता भाव है वे श्रमग यदि बन में रह । अति कर कायकल श नप उपवास भी बहुबिध गहें ।। बह शास्त्र का अध्य गन मौनादिक बहन भी निन करें। ये सब क्रियाय क्या करेगी ? साम्य विन नहि शिव बरें ।।१२४।। अत्र समतामन्तरेण द्रालगधारिणः श्रमणाभासिनः किमपि परलोककारणं नास्तीत्युक्तम् । सकलकर्मकलंककविनिमुक्तमहानंदहेतुभूतपरमसमताभावेन विना कान्तारवासादासेन प्रावृषि वृक्षमूले स्थित्या च ग्रीष्मेऽतितीवकरकरसंतप्तपर्वताग्रगावनिषण्णतया वा हेमन्ते च रात्रि मध्ये झाशांबरयाकलेन र, नालियन गरलेसादा गाथा १२४ अन्वयार्थ— [ वनवासः ] बन में निवास, [ कायक्लेशः ] काय का क्लेश, [बिचित्रोपवासः ] अनेक विविध उपनाम नथा, [ अध्ययन मौन प्रभृतयः ] अध्ययन, मौन आदि कार्य, [ समता रहितस्य श्रमणस्य ] समता से रहिन श्रमण के लिए, [किंकरिष्यति] क्या करेंगे ? टोका—समता के बिना द्रव्यलिंगधागे, श्रमणाभासी साधु के कुछ भी परलोक मुक्ति का कारण नहीं है, एसा यहां कहा है। समस्त कर्मकलंकरूपी कोचड़ से रहित, महान आनन्द के लिये कारणभूत ऐसे परम समता भाव के बिना वनवास में रहने से, वर्षाऋतु में वृक्ष के तलभाग में स्थित होने से, ग्रीष्म ऋतु में अतितीव्र किरण वाले सूर्य की किरणों से तप्तायमान हुए पर्वत के अग्रशिखर पर स्थिर बैठने से अथवा शीत ऋतु में रात्रि के मध्य में दिगम्बर दशा में रहने से अर्थात् खुले मैदान में ध्यान करने से अथवा चर्म, अस्थिभूत Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ 1 नियमसार यिना महोपवासेन या, सदाध्ययनपटुतया च, याविषयव्यापारनिवृत्तिलक्षणेन संततमः । नव्रतेन वा किमप्युपादेयं फलमस्ति केवलद्रव्यलिंगधारिणः श्रमणाभासस्येति । . तथा चोक्तम् अमृताशीत.... (मालिनी "गिरिगहनगुहाधारण्यशून्यप्रदेशस्थितिकरगनिरोधध्यानतीर्थोपसेवा । प्रपठनजपहोमब्रह्मणो नास्ति सिद्धिः मृगय तदपरं त्वं भोः प्रकार गुरुभ्यः ॥" . --- - - - - - -.. - .. .- - . -- .. - - - साग को क्लेशदायी ऐसे महोपवास से तथा मदा अध्ययन की कुशलता से अथक वचनविषयक व्यापार के अभावरूप निरन्तर मौन व्रत में केवल द्रन्याल गधारी श्रमणा भास के लिये क्या कुछ भी उपादेयभूत फल है ? अर्थात् नहीं है । उसीप्रकार से 'अमृताशीति ग्रंथ में भी कहा है "श्लोकार्थ-पर्वत की गहन गुफा आदि में अथवा वन के शून्य प्रदेश में रहना, इन्द्रियों का निरोध करना, ध्यान करना, तीर्थों की उपासना करना, पठन करना, जप और होम करना इत्यादि कार्यों से ब्रह्म स्वरूप आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकती है, अतः भो भव्य ! तुम गुरुओं से उस अन्य ही प्रकार को हो । भावार्थ-इन ध्यान, अध्ययन आदि क्रिया कलापों से भी जिस आत्मतत्त्व की सिद्धि नहीं हो पाती है ऐसी जो कोई निर्विकल्प रूप वीतराग अवस्था है या मुख निश्चयसम्यक्त्व है उसे गुरुओं के प्रसाद से ही प्राप्त किया जा सकता है। १. श्री योगीन्द्रदेवकृत अमृताशीति-श्लोक ५६ | Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम-समाधि अधिकार [३४७ तथा हि (द्रतविलंबित) अनशनादिनपश्चरण: फलं समतया रहितस्य यतेन हि । तत इदं निजतत्वमनाकुलं भज मुने समताकुलमंदिरम् ।।२०२।। [अब टीकाकार मुनिराज समतादेवी की नपामना के लिये प्रेरणा देते हुए कहते है (२०२) श्लोकार्थ-समता से रहित यति को अनयन आदि तपश्चरणों के द्वाग निश्चितरूप से फल नहीं है। इसलिये, हे मुने ! ममता का कुल मंदिर ऐसे इस आकुलता रहित निज तत्व को तुम भजो । भावार्थ-यदि कोई साधु द्रव्यलिंगी है, श्रमण के सदश दिग्बना है किंतु भाव श्रमण नहीं है तथा समताभाव से भी रहित है तो घोराघोर तपश्चरणों के द्वारा भी उसको आत्ममिडिप फल नहीं मिलेगा । हां ! मंदकपाय के द्वारा बाह्य चारित्र से उमे नवग्रंचेयक तक, अहमिन्द्र के सुख तो मिल भी सकते हैं, किन्तु जो वास्तविक निर्वाण फल है, वह नहीं मिल सकता है । इसलिये यहां पर स्वयं भगवान कुदकुददेव ने या शि. समता-वीतराग भाव से रहित साधु के लिये काय क्लेशादि क्या कर सकते हैं ? इससे यह नहीं समझना कि ये काय क्लेशादि व्यर्थ हैं, किन्तु ऐसा समझना कि इतनी ऊंची जिन कल्पी चर्या के आचरण करने वालों को भी तथा अध्यात्म शास्त्र के अध्ययन करने वालों को भी द्रयन्निंगी अवस्था रह सकती है । तब यह मम्यक्त्व कितना सूक्ष्म है कि जिसे वे स्वयं ग्यारह अंग के पाठी होने पर भी नहीं जान पाते हैं, क्या वे आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन नहीं करते हैं ? अवश्य करते हैं फिर भी वे भाव मिथ्यात्वी ही रह जाते हैं । निष्कर्ष यह निकलता है कि अपने सम्यक्त्व रूप श्रद्धान परिणाम को दृढ़ करते रहना चाहिये और जिनेन्द्र देव की आज्ञा के अनुकूल प्रवृत्ति करते हुए रागद्वेष को हटाकर समतादेवी की आराधना करते रहना चाहिए । .-4 20.Enा ...- 4 42 - - - - RE Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ] नियमसार विरवो' सव्वसावज्जे, तिगुत्तो पिहिदिदियो । तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥१२५॥ विरतः सर्वसावचे त्रिगुप्तः पिहितेन्द्रियः । तस्य सामायिक स्थायि इति केवलिशासने ॥१२५।। जो मुनि सरब सावध चर्या से विरत है नित्य हो । औलोग गुप्ता युक्त है और पांच इन्द्रिय के जयी ।। उनही मुनी के सर्वथा स्थायि सामायिक रहे । अरिहन शामन में कहा इसविध यही ऋषिगण कहें ॥१२५।। इह हि सकलसावधव्यापाररहितस्य त्रिगुप्तिगुप्तस्य सकलेन्द्रियव्यापारविमुखस्य | तस्य च मुनेः सामायिकं व्रतं स्थायीत्युक्तम् । अथात्रैकेन्द्रियादिप्राणिनिकुरंबक्लेशहेतुभूत । तसमस्तसावद्यव्यासंगविनिमुक्तः, प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तकायवाङ मनसां व्यापाराभावात् । त्रिगुप्ता, स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राभिधानपंचेन्द्रियाणां मुखस्तत्तद्योग्यविषयग्रहणाभा- 1 गाथा १२५ अन्वयार्थ-[ सर्व सावध विरतः ] जो सम्पूर्ण सावध योग में विरत । [त्रिगुप्तः] तीन गुप्ति से सहित, और [ पिहितेन्द्रियः ] इंद्रियों को संवत्त करने वाले । हैं, [तस्य] उनके [ स्थायिसामायिक ] स्थायी सामायिक है, [ इति केवलिशासने ] | ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा है। टीका-समस्त सावध व्यापार से रहित, तीन गुप्तियों से गुप्त और सम्पूर्ण । इन्द्रियों के व्यापार से विमुख ऐसे उन मुनि के सामायिक व्रत स्थावी है ऐसा यहां पर । कहा है। जो यहां पर एकन्द्रिय आदि प्राणी समुदाय के लिये क्लेश के कारणभूत ऐसे समस्त पाप योग के व्यासंग से रहित हैं, प्रशस्त और अप्रशस्तरूप समस्त काय, वचन तथा मन सम्बन्धी व्यापार के अभाव से तीन गुप्ति से सहित हैं । स्पर्शन, रसना, प्राण, : चक्षु और श्रोत्र इन नामवाली पांच इंद्रियों के मुख से अर्थात् उन-उन के योग्य विषयों १. विरदी (क) पाठा। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 परम-समाधि अधिकार [ ૪૨ वात् पिहितेन्द्रियः, तस्य खलु महामुमुक्षोः परमवीतरागसंयमिनः सामायिकं व्रतं शाश्वत् स्थायि भवतीति । ( मंदाक्रांता ) इत्थं मुक्त्वा भवभयकरं सर्वसावद्यराशि नीत्वा नाशं विकृतिमनिशं कायवाङ् मानसानाम् । अन्तः शुद्धया परमकलया साकमात्मानमेकं बुद्ध्वा जन्तुः स्थिरशममयं शुद्धशीलं प्रयाति ॥ २०३॥ जो समोसव्वभूदेसु, थावरेसु तसेसु वा । तस्स सामागं ठाई के || १२६॥ के ग्रहण का अभाव होने से संकुचित इन्द्रिय वाले हैं - इन्द्रियों का निरोध करने वाले हैं, उन परमवीतराग संबंधी, महामुमुक्षु साधु के निश्चितरूप से सामायिक व्रत शास्वतस्थायी होता है । [ टीकाकार मुनिराज सामायिक चारित्र का महत्व बतलाते हुए कहते हैं- 1 ( २०३ ) श्लोकार्थ - - इसप्रकार भवभयकारी संपूर्ण पापयोग के समूह को छोड़कर काय, बचन, मन की विकृति को हमेशा नष्ट करके अन्तरंग की शुद्धिरूप परमकला मे सहित ऐसी एक आत्मा को जान करके जीव स्थिर शममय ( कषायों की पूर्ण उपशमतारूप) ऐसे शुद्ध चारित्र को प्राप्त कर लेता है । भावार्थ --- 'सर्वसावद्ययोगाद्द्द्विरतोऽस्मि मैं सम्पूर्ण पाप सहित योग से विरक्त हूं इसे ही सामायिक चारित्र कहते हैं । दीक्षा के समय यह एक अभेदरूप चारित्र होता है पुनः अभेद से भेद में आने के बाद छेदोपस्थापना रूप अट्ठाईस मूलगुणों के भेदरूप चारित्र होता है । यहां पर इस अभेद चारित्र का ही स्वरूप और महत्व बतलाया है । गाथा १२६ अन्वयार्थ -- [ यः स्थावरेषु वा श्रसेषु ] जो स्थावर और उस जीवों के प्रति, Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . सा-य ! ३५० ] नियमसार यः समः सर्वभूतेषु स्थावरेषु त्रसेषु वा । तस्य सामायिक स्थायि इति केलिशासने ।।१२६॥ जो त्रस तथा स्थावरों में सर्वप्राणी मात्र में । समभाव को धारण करें मुनि सर्वप्त : सब काल में ।। उन साधु के ही सर्वथा स्थायि सामायिक रहे । प्रहत शानन में कहा, यह कुन्दकुन्द गुरू कहें ।।१२६।। परममाध्यस्थ्यभावाद्यारूढस्थितस्य परममुमुक्षोः स्वरूपमत्रोक्तम् । यः सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिः बिकारकारणनिखिलमोहागढ षाभावाद् भेवकल्पनापोढपरमसमरसौभानसनाथत्वात्त्रसस्थावरजीवनिकायेषु समः, तस्य च परमजिनयोगीश्वरस्य सामायिकाभिधानव्रतं सनातनमिति वीतरागसर्वज्ञमार्गे सिद्धनिति । -- - - - - - - - - -- - - - - [समः] समस्वभावी है, [ तस्य ] उसके [ सामायिक स्थायि ] सामायिक स्थायी है, [इति केलिशासने] ऐगा केवली भगवान के शासन में कहा है । । टीका-परम माध्यस्थ भाव आदि में आरोहण करके स्थित हुए जो परममुमुक्ष हैं उनका स्वरूप ग्रहां कहा है । ___ जो सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर की चूड़ामणि स्वरूप महामुनि विकार के कारणभूत ऐसे सम्पूर्ण मोह रागद्वेष के अभाव से, भेद कल्पना से रहित और परम समरसी भाव से सहित होने से बस-स्थावर जीव निकायों के प्रति समभावी हैं, उन परम जिन योगीश्वर के सनातन सामायिक नामक व्रत होता है, यह वीतराग सर्वज्ञ देव के मार्ग में सिद्ध है। भावार्थ-परम्परा से आगत समीचीन कथन सनातन कथन है यह सामायिक व्रत भी परम्परागत समीचीन व्रत है । [टीकाकार मुनिराज अभेद चारित्र की स्तुति करते हुए पुनरपि आठ श्लोक। कहते हैं-] Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम-समाधि अधिकार ( मालिनी ) सहति परिमुक्त स्थावराणां वधैर्वा परमजितमुनीनां चित्तमुच्चैरजस्रम् । अपि चरमगतं यनिर्मलं कर्ममुक्त्य तदभिनमामि स्तौमि संभावयामि ॥२०४॥ ( अनुष्टुभ् ) केचिदतमार्गस्थाः केचिद्वं तपथे स्थिताः । ता विनिर्मुक्तमार्गे वर्तामहे वयम् || २०५ ।। ( अनुष्टुभ् ) कांस्य तमन्येपि द्वंतं कांक्षन्ति चापरे । विनिर्मुक्तमात्मानमभिनीम्यहम् || २०६ ॥ [ ३५१ ( २०४) श्लोकार्थ- परम जिन मुनियों का चित्त - अंतःकरण हमेशा ही अतिशयरूप से त्रस जीवों की हिंसा और स्थावर जीवों के वध से विमुक्त है और जो चरमसीमा को प्राप्त ऐसा निर्मल है, उस चैतन्य के परिणामरूप मन को मैं कर्मों से मुक्ति प्राप्त करने के लिये नमस्कार करता हूं, उसका स्तवन करता हूं और उसकी सम्यक्प्रकार से भावना करता हूं । भावार्थ-मुनियों का चैतन्य परिणामरूप जो भावमन है वह जीव हिंसा के परिणाम से रहित है तथा निर्मलता में पराकाष्ठा को प्राप्त है उस मन की स्तुति, वंदना, भावना आदि करने से हमारा भी मन पवित्र निर्मल होगा 1 ( २०५ ) श्लोकार्थ - - कोई अद्वैतमार्ग में स्थित हैं और कोई द्वंत मार्ग में स्थित हैं, किन्तु हम द्वैत और अद्वैत से विनिर्मुक्त ऐसे निर्विकल्प मार्ग में रहते हैं । ( २०६ ) श्लोकार्थ -- दूसरे कोई भी अद्वैत को चाहते हैं और अन्य कोई द्वंत को चाहते हैं तथा मैं द्वैत-अद्वैत से मुक्त ऐसी आत्मा को नमस्कार करता हूं । FL Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ] ** नियमसार ( अनुष्टुभ् } अहमात्मा सुखाकांक्षी स्वात्मानमजमच्युतम् । आत्मवात्मनि स्थित्वा भावयामि मुहुर्मुहुः ॥२०७॥ (शिखर) विकल्पोपन्यासंरलमलममीभिर्भवकर रखण्डानन्दात्मा निखिलनयराशेरविषयः । अयं द्वता तो न भवति ततः कचिदचिरात् तमेकं वन्देऽहं भवभयविनाशाय सततम् ॥ २७६ ॥ (शिव) सुखं दुःखं योनौ सुकृतदुरितवानजनितं शुभाभावो भूयोऽशुभपरिणतिर्वा न च न च । देकस्याप्युच्चैर्भवपरिश्वयो बाइमिह नो य एवं संन्यस्तो भवगुणगणैः स्तौमि तमहम् ॥ २०६॥ ( २०७ ) श्लोकार्थ -- मैं सुख को आकांक्षा करने वाला आत्मा जन्म रहिन और नाश रहित ऐसी अपनी आत्मा को, आत्मा के द्वारा ही आत्मा में स्थित होकर पुनः पुनः भाता हूँ । ( २०८ ) श्लोकार्थ - भव को करने वाले इन विकल्प के कथनों से बस होने, बस होवे | अखंड आनन्दस्वरूप आत्मा सकलनय समुह का अविषय है इसलिये यह कोई ( एक अद्वितीय) आत्मा द्वैत और अद्वैत रूप नहीं है. मैं शीघ्र ही भवभय के नाश हेतु सतत उस एक स्वरूप आत्मा की वंदना करना हूँ । ( २०६ ) श्लोकार्थ - योनि में जन्मरूप संसार में सुख और दुःख सुकृत और दु त के समह से उत्पन्न हुए हैं, पुनः आत्मा को शुभ का ही अभाव है अथवा अशुभ परिणति भी नहीं है नहीं है, क्योंकि इस संसार में इस एक आत्मा को भव का परिचय अत्यन्त रूप से बिलकुल नहीं है । इसप्रकार से जो भव के गुण समूह से संन्यस्त हो चुका - मुक्त हो चुका है, उसकी मैं स्तुति करता हूं । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम-समाधि अधिकार (मालिनी) इदमिदमघसेनावैजयन्ती हरेत्तां स्फुटितसहजतेजःपुंजदूरोकृतांहः । प्रबलतरतमस्तोमं सदा शुद्धशुद्ध जयति जगति नित्यं चिच्चमत्कारमात्रम् ॥२१०॥ (पृथ्वी) जयत्यनघमात्मतत्त्वमिदमस्तसंसारक महामुनिगणाधिनाथहृदयारविन्दस्थितम् । विमुक्तभवकारणं स्फुटितशुद्धमेकान्ततः सवा निजमहिम्नि लीनमपि सदृशां गोचरम् ॥२११॥ भावार्थ-संसार में सभी सुख और दुःख पुण्य और पाप के ही फल हैं, किंतु वास्नब में शुद्भनिश्चयनय से मेरी आत्मा में पुण्य और पाप का लेश नहीं है बह ता पूर्ण शुद्ध है । इसीलिये इस शुद्धात्मा का संसार से कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसी शुद्ध भावना से परिणत हुए शुद्धोपयोगी महामुनियों की यहां स्तुति की गई है। (२१०) श्लोकार्थ--जिसने प्रगट हुए सहज तेज पूज से प्रबलतर अंधकार समूह को दुर कर दिया है, जो सदा शुद्ध-शुद्ध है, नित्य है और चैतन्य चमत्कार मात्र है । यह तेज जगत् में जयशील हो रहा है और यही सहज तेज पापरूपी सेना की वजा को हरण करने वाला है ! भावार्थ-चिच्चमत्कार मात्र सहजतेज पाप शत्रु की सेना को जीतकर विजयी बन जाता है । (२११) श्लोकार्य-यह निर्दोष आत्म तत्त्व जयवंत हो रहा है जो कि संसार का अस्त कर चुका है, महामुनियों के गण के अधिनाथ ऐसे गणधर देव के हृदय कमल में विराजमान है, भव के कारणों से विमुक्त है, प्रकट रूप से शुद्ध है और एकान्त से सदा अपनी महिमा में लीन होते हुए भी सम्यग्दृष्टियों का गोचर है । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ } नियमसार जस्स सगिहिदो अप्पा, संजमे रिणयमे तवे । तस्स सामाइगं ठाई, इदि फेवलिसासणे ॥१२७॥ यस्य सन्निहितः आत्मा संयमे नियमे तपसि । तस्य सामायिक स्थायि इति केलिशासने ॥१२७।। जिमा की आत्मा लगी भयम नियम तप में सदा। उम रूप परिणति हो रही निश्चय रतनत्रय युत सदा ।। उल ही मुनी के सर्वथा, स्थायि सामायिक रहे । श्री केवली अईत गासन में इसीविध से कह ।। १२७।। अत्राप्यात्मवोपादेय इत्युक्तः । यस्य खल बाह्यप्रपंचपराङ मुखस्य निजिताकि लेन्द्रियव्यापारस्य भाविजिनस्य पापक्रियानिवृत्तिरूपे बाह्यसंयमे कायवाड मनोगुप्तिमः सकलेन्द्रियव्यापारजितेऽभ्यन्तरात्मनि परिमितकालाचरणमात्रे नियमे परमब्रह्मचिन्म । - - - . . .... ..- - भावार्थ-इस शुद्ध आत्मतत्त्व को चार ज्ञानधारी और सप्त ऋद्धि समन्धित ऐसे गणधर देव भी अपने हृदय में विराजमान करके ध्यान करते हैं यह शुद्धा निश्चयनय की अपेक्षा एकान्तरूप से अपनी महिमा में ही तत्पर है फिर भी सम्यग्दर्शि जन इसका अनुभव करते हैं । गाथा १२७ अन्वयार्थ-[यस्य प्रात्मा] जिसकी आत्मा, [संयमे] मंग्रम में, [ नियम नियम में, और [तपसि] तप में, [सन्निहितः] निकट है, [तस्य] उसके. [सामामि स्थायि] सामायिक व्रत स्थायी है, [ इति केलिशासने ] ऐसा केवली भगवान में शासन में कहा है। टोका-आत्मा ही उपादेय है ऐसा यहां पर भी कथन है । जो बाह्य प्रपंच से पराङ मुख हैं, अखिल इंद्रियों के व्यापार को जिन्होंने जीत लिया है ऐसे जो भावी जिन हैं उनके निश्चितरूप से पाप क्रिया से निवृत्ति बाह्य संयम में, काय गुप्ति, वचनगुप्ति और मनोगुप्तिरूप सम्पूर्ण इन्द्रियों के व्यापार Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -. परम-ममाधि अधिकार [ ३५५ नियतनिश्चयान्तर्गताचारे स्वरूपेऽविचलस्थितिरूपे व्यवहारप्रपंचितपंचाचारे पंचमगतिहेतुभूते किंचनभावप्रपंचपरिहोणे सकलदुराचारनिवृत्तिकारणे परमतपश्चरणे च परमगुरुप्रसादासादितनिरंजननिजकारणपरमात्मा सदा सभिहित इति केवलिनां शासने तस्य परवष्यपराङ मुखस्य परमवोतरागसम्यग्दृष्टेर्वीतरागचारित्रमान: सानावितस्तं स्थायि भवतीति । (मंदाक्रांता) आत्मा नित्यं तपसि नियमे संयमे सच्चरित्रे तिष्टत्युच्चैः परमयमिनःशुद्धष्टेमनश्चेत् । -. - _ - -- ...-- - - - - .. - वजित ऐसे अभ्यन्तररूप मंयम में मर्यादित काल के आचरण मात्र ऐसे नियम में अपने स्वरूप में अविचल स्थितिमा परमब्रह्म स्वरूप चिन्मय में नियत ऐसे निश्चय स्वरूप अन्तर्गत आचार में पंचमगति के लिये कारणभूत ऐसे व्यवहार के विस्तार में सहित पंचाचार में, किंचन भावरूप [ यह किंचित् भी मेरा है ] प्रपंच से रहित और सफल अशुभ आचार के अभाव में कारणभूत ऐसे परम तपश्चरण में परमगुरु के प्रमाद में प्राप्त हुआ ऐसा निरंजनम्प निजकारण परमात्मा सदा निकट में स्थित है । इसप्रकार से केवलि भगवान के शासन में परद्रव्य से पराङ मुख और वीतराग चारित्र को प्राप्त हुए ऐसे परम वीतराग सम्यग्दृष्टि के सामायिक व्रत स्थायी होता है। भावार्थ-जो विगुप्ति से सहित महासाधु हैं और भविष्य में जिनेन्द्र के पद को प्राप्त करने वाले से भावी जिन हैं, उनकी निजकारण परमात्मा स्वरूप आत्मा सदा ही बाह्य और अन्यन्तरकाप संयम, नियम, चारित्र तथा तपश्चरण में स्थित रहती है, नब उन्हीं वीतराग चारित्र से युक्त निश्चय सम्यग्दृष्टि के परमसमता भावरूप सामायिक व्रत स्थायी रूप रहता है। [ अब टीकाकार श्री मुनिराज उन्हीं मुनिराज का गुणगान करते हुए कहते हैं-] (२१२) श्लोकार्थ--शुद्ध सम्यग्दृष्टि ऐसे परमसंयमी की आत्मा नित्य ही तप में, नियम में, संयम में और सम्यक्चारित्र में अतिशयरूप से स्थित है, यदि ऐसा Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ] नियमसार . तस्मिन् बाढं भवभयहरे भावितीर्थाधिनाथे। साक्षादेषा सहजसमता प्रास्तरागाभिरामे ॥२१२।। जस्स रागो दु दोसो दु, विडि रण जणेइ दु । तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥१२८।। यस्य रागस्तु द्वेषस्तु विकृति न जनयति तु । तस्य सामायिक स्थायि इति केवलिशासने ॥१२८॥ ये राग द्वेष बिकार नहिं उत्पन्न हो सकते जिन्हें । वे ही महामुनि वीलगग, समाधि में नित परिगा में ।। हमने म रानावमय म्यापि सामायिक रहे। महंत शासन में कहा यह कुन्दकुन्द गुरू कहें ।। १२८।। इह हि रागद्वेषाभावादपरिस्पंदरूपत्वं भवतीत्युक्तम् । यस्य परमवीतरागसंयमिनः पापाटधोपावकस्य रागो वा द्वषो वा विकृति नावतरति, तस्य महानन्दाभिला - -...अन्तःकरण है तो राग के समाप्त हो जाने से रमणीय भवभय को हरण करने वाले " ऐसे उन भावी तीर्थाधिनाथ में यह सहजसमता निश्चित ही साक्षात् होती है । भावार्थ-वीतरागी परम साधु के आत्मा सदा ही तपश्चरण आदि में स्थित रहती है यही कारण है कि वे भावी तीर्थेश्वर हैं और उनके अन्दर परम साम्य भावना । परम वीतरागता प्रगट होती है । गाथा १२८ अन्वयार्थ--[यस्य] जिनके, [रागः तु द्वषः तु] राग और द्वष, [ विकृति । तु न जनयति ] विकृति को उत्पन्न नहीं करते हैं, [तस्य] उनके, [सामायिक स्थायि] । सामायिक व्रत स्थायी है, [इति] ऐसा, [ केवलि शासने ] केवली भगवान के शासन में । में कहा है। टीका--रागद्वेष के अभाव से परिस्पंद रहित अवस्था होती है, ऐसा यहाँ पर कहा है। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम-समाधि अधिकार [ ३५७. षिणः जीवस्य पंचेन्द्रियप्रसरबजितगात्रमात्रपरिग्रहत्य सामायिकनामवतं शाश्वतं भवतोति केवलिनां शासने प्रसिद्ध भवतीति । (मंदाक्रांता) रागद्वषो विकृतिमिह तो नैव कर्तुं समर्थों ज्ञानज्योतिःप्रहतदुरितानीकशोरान्धकारे । पारातलीये सहजपरमानन्दपीयूषपूरे तस्मिन्नित्ये समरसमये को विधिः को निषेधः ।।२१३॥ जो दु अट्टच रुच, झारणं वज्जेदि रिगच्चसा । तस्स समाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥१२॥ पापप्पी वन को भस्म करने के लिये अग्नि स्वरूप ऐसे जिन परम वीतरागी संयमी राग अथवा हेप विकृति को अवतरित नहीं करते हैं, उन पंचेन्द्रियों के व्यापार से रहित गात्र मात्र परिगारी पने पर मानद अभिलारी जीव के सामायिक नाम का नत शाश्वत होता है, ऐसा कंबली भगवान के शासन में प्रसिद्ध है । [टीकाकार मुनिराज ऐसे निर्विकल्प योगी का वर्णन करते हुए कहते हैं-] (२१३) श्लोकार्थ-जिन्होंने ज्ञान ज्योति से पाप के समूहरूप ऐसे घोर अंधकार को नष्ट कर दिया है जो सहज परमानंद पीयूष के पूर स्वरूप हैं ऐसे आरातीयआधुनिक इन मुनिराज में ये रागद्वेष विकृति को करने के लिये समर्थ नहीं हैं, ऐसे नित्य ही समरसमय उनके लिये क्या तो विधि है और क्या निषेध है ? भावार्थ-जिनके हृदय में भेदविज्ञानरूप प्रकाश उत्पान्न हो चुका है और जो परमानंदरूप अमृत से परमतृप्ति को प्राप्त हैं ऐसे मुनिराज में राग और द्वेष अपना प्रभाव नहीं डाल सकते हैं वे भी परम प्रशमभाव को प्राप्त हो जाते हैं, तब वे साधु निर्विकल्परूप परम उदासीन ऐसे वीतराग भाव में ठहर जाते हैं, उस समय उन्हें कुछ ग्रहण करने और छोड़ने का विकल्प नहीं रह जाता है । __गाथा १२६ अन्वयार्थ--[ यः तु आतं च रौद्रं ध्यानं ] जो आर्त तथा रौद्र ध्यान को, [नित्यशः वर्जयति ] नित्य ही छोड़ देते हैं, [ तस्य ] उनके, [ सामायिकं स्थापि ] Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ] नियमसार यस्त्वातं च रौद्रं च ध्यानं वर्जयति नित्यशः । तस्य सामायिक स्थायि इति केलिशासने ॥१२६।। जो आर्तध्यान व रौद्र ध्यानों, को सदा परिहारते। स्वात्माभिमुख होकर सतत, निजतत्त्व एक निहारते ।। उन महामुनि के ध्यानमय, स्थायि सामायिक रहे । श्री केवली के विमल शासन में इसो विध से कहे ।।१२६॥ आर्तरौद्रध्यानपरित्यागात् सनातनसामायिकवतस्वरूपाख्यानमेतत् । यस्तु । नित्यनिरंजननिजकारणसमयसारस्वरूपनियतशुद्धनिश्चयपरमवीतरागसुखामृतपानपरायणो । जीवः तिर्यग्योनिप्रतावासनारकादिगतिप्रायोग्यतानिमित्तम् आर्तरौद्रध्यानद्वयं नित्यशः । संत्य जति, तस्य खलु केवलदर्शनसिद्ध शाश्वतं सामायिकव्रतं भवतीति । -.- - - -- - - - - - - - सामायिक स्थायी है, [ इति ] ऐसा, [ केवलिशरसने ] केवली भगवान के शासन में । कहा है। ___टीका-आर्तरौद्र ध्यान के परित्याग से सनातन सामायिक व्रत के स्वरूप का यह कथन है। नित्य निरंजन निज कारण समयसार स्वरूप में नियत ( नियम से स्थित ) शुद्ध निश्चय परम वीतराग सुखरूपी अमृत के पीने में तत्पर ऐसे जो जीव तिर्यंचयोनि रूप प्रेतावास और नारक आदि गति की योग्यता के लिये कारणभूत ऐसे आर्तध्यान और रौद्रध्यान को हमेशा छोड़ देते हैं, उनके निश्चितरूप से केवल दर्शन से शाश्वत ऐसा सामायिक ब्रत होता है । भावार्थ-आर्तध्यान तिर्यंच गति का कारण है और रौद्रध्यान नरकगति का कारण है । इन दोनों दुर्व्यानों से रहित मुनिराज को सदा ही धर्म्यध्यान अथवा शुक्लध्यानरूप निश्चय सामायिक व्रत होता है । [अब टीकाकार मुनिराज इन दुर्व्यानों के त्याग की प्रेरणा देते हुए कहते हैं-] Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . परम-समाधि अधिकार [ ३५६ (मार्या) इति जिनशासनसिद्ध सामायिकव्रतमणुवतं भवति । परस्पति मुसिनित्य समयमासरावास्यम् ।।२१४॥ जो दु पुण्णं च पावं च, भावं वज्जेदि णिच्चसा । तस्स सामाइगं ठाई, इदि केलिसासणे ॥१३०॥ यस्तु पुण्यं च पापं च भावं वर्जयति नित्यशः । तस्य सामायिक स्थायि इति केबलिशासने ॥१३०।। संसार सुखप्रद पुण्य भावों, से सतत मुख मोड़ते । वह दुःखदायी पाप भावों, को सदा जो छोड़ते ।। शुद्धोपयोगी उन मुनी के स्थायि सामायिक रहे। धोकेवली के विमल शासन, में इसी विध से कहें ।।१३।। - . . - .-- .।। (२१४) श्लोकार्थ-जो मुनिराज आर्त और रौद्र नाम के दोनों ही ध्यानों को छोड़ देते हैं, उनके इसप्रकार से जिनशासन में प्रसिद्ध, अणुव्रतरूप सामायिक व्रत भावार्थ-आर्तध्यान और रौद्रध्यान से रहित साधु का जो सामायिक व्रत है अणुव्रत है, क्योंकि पूर्णतया मोहनीय के अभाव से होने वाला समताभावरूप मायिक ही स्थायी होता है । इस अपेक्षा से हो वीतरागता के पूर्व कदाचित् समताव है कदाचित् नहीं है अतएव बह महाव्रत न कहलाकर अणुवत ही कहलाता है समझना। गाथा १३० ___अन्वयार्थ-[यः त] जो, [ पुण्य च पापं च भावं ] पुण्यरूप और पापरूप को, [ नित्यशः वर्जयति ] नित्य ही छोड़ देता है, [ तस्य सामायिक स्थायि ] के सामायिक स्थायी है, [ इति केवलिशासने ] ऐसा केवली भगवान के शासन में Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] नियमसार शुभाशुभपरिणामसमुपजनितसुकृतदुरितकर्मसंन्यासविधानाख्यानमेतत् । बाह्याभ्यंतरपरित्यागलक्षणलक्षितानां परमजिनयोगीश्वराणां चरणनलिनक्षालनसंवाहनादियावृत्यकरणजनितशुभपरिणतिविशेषसमुपाजितं पुण्यकर्म, हिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहपरि । णामसंजातशुभकर्म, यः सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिः संसृतिपुरंधिकाविलासपि । भ्रमजन्मभूमिस्थानं तत्कर्मद्वयमिति त्यजति, तस्य नित्यं केवलिमतसिद्ध सामायिकवत । भवतीति । ( मंदाक्रांता) त्यक्त्वा सर्व सुकृतदुरितं संसृतेमूलभूतं नित्यानंदं व्रजति सहजं शुद्धचैतन्यरूपम् । तस्मिन् सद्द्दा विहति सदा शुद्धजीवास्तिकाये पश्चादुच्चः त्रिभुवनजनैरचितः सन् जिनःस्यात् ।।२१५।। .- -- टोका-शुभ और अशुभ परिणाम से उत्पन्न होने वाले पुण्य और पापरूप कमों के त्याग के विधान का यह कथन है । बाह्य और अभ्यन्तर के परित्यागरूप लक्षण से लक्षित, परम जिन योगीश्वरों। के चरण कमलों के प्रक्षालन, संवाहन (दबाने) आदि रूप वैयावृत्ति को करने से उत्पन्न । हुई शुभ परिणति विशेष उपार्जित किया गया पुण्य कर्म है और हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील तथा परिग्रहरूप परिणामों से उत्पन्न हुआ अशुभ कर्म है । सहज बैगग्यरूपी । महल के शिखर का शिखामणि जो-महामुनिराज संसाररूपी स्त्री के विलास विभ्रम को उत्पन्न करने के लिये जन्मभुमि के स्थान स्वरूप ऐसे इन दोनों (पुण्य-पापरूप) कर्मों को छोड़ देते हैं उनके नित्य ही केवली भगवान के मत में सिद्ध यह सामायिक व्रत ( संयम ) होता है । अब टीकाकार मुनिराज पुण्यपाप से रहित, शुद्ध-स्वरूप ऐसी तृतीय भूमिका को प्राप्त करने की प्रेरणा देते हुए तीन श्लोक कहते हैं-] (२१५) श्लोकार्थ-सम्यग्दृष्टि जीव संसार के लिये मूल कारणभूत ऐसें । सभी पुण्य और पाप को छोड़कर नित्य आनन्दरूप, सहज ऐसे शुद्ध चतन्यस्वरूप को . प्राप्त कर लेता है और सदा उस शुद्ध जीवास्तिकाय में विहार करता है । पश्चात् ।। fare Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम-समाधि अधिकार (शिखरिणी) स्वतःसिद्ध ज्ञानं दुरघसुकृतारण्यदहनं महामोहच्वान्तप्रबलतरतेजोमयमिदम् । विनिर्मुक्त मूलं निरुपधिमहानंदसुखद यजाम्येतन्नित्यं भवपरिभवध्वंसनिपुरगम् ।।२१६॥ (शिखरिणी) अयं जोवो जीवत्यघकुलवशात् संसृतिवधूधवत्वं संप्राप्य स्मरजनितसौख्याकुलमतिः । क्वचिद् भव्यत्वेन ब्रजति तरसा नि तिसुखं तदेकं संत्यक्त्वा पुनरपि स सिद्धो न चलति ।।२१७॥ अतिशयरूप से तीन लोक के जनों अचित होता हुआ जिनेन्द्र भगवान हो जाता है । भावार्थ-जो जीव पुण्य-पाप से रहित ऐमे शुद्धोपयोग में लीन होत हैं वे जगत्पूज्य जिनदेव हो जाते हैं । (२१६) श्लोकार्थ-यह स्वत: सिद्ध ज्ञान दुष्ट पाप और पुण्यरूप वन को जलाने के लिये अग्निरूप है. महा मोहरूपी अंधकार के नाश हेतु प्रबलतर तेजोमय है, निर्वाण का मूल है, उपाधि रहित महान आनन्द और सुख को देने वाला है तथा भव के तिरस्कार को ध्वंस करने में निपुण है ऐसे इस ज्ञान को मैं नित्य पूजता हूं। (२१७) श्लोकार्थ---यह जीव पाप समूह (दोष समूह) के वश होने से संसाररूपी वधू का पति होकर काम मे जनित सुख से आकुल बुद्धि वाला होता हुआ जी रहा है । कभी भव्यत्व भाव के द्वारा शीघ्र ही निर्वाण सुख को प्राप्त कर लेता है तब उस एक सुख को छोड़ कर पुनः कभी भी बह सिद्ध चलायमान नहीं होता है । भावार्थ-भव्यत्व के विपाक से कर्मों के निमित्त से यह जीव संसार में दुःख उठाता है पुन: यही जीव जब मुक्ति को प्राप्त कर लेता है तो पुनः इस संसार में कभी भी अवतार नहीं लेता है। - - - --- - - Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ] नियमसार जो दु हस्सं रई सोगं, अरदि वज्जेदि रिणच्चसा । तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥१३१॥ जो दुगंछा भयं वेदं सव्वं वज्जेदि रिणच्चसा । तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥१३२॥ यस्तु हास्यं रति शोकं प्रति वर्जयति नित्यशः । तस्यापि इति केवलियास ॥१३१॥ यः जुगुप्सां भयं वेदं सर्व वर्जयति नित्यशः । तस्य सामायिक स्थायि इति केवलिशासने ।। १३२ ।। जो हास्य रति और शोक अरति का सतत वर्जन करें । समरत सुधा का पान कर, निजतस्व में वर्तन करें ।। उन शुद्ध उपयोगी मुनी के स्थायि सामायिक रहे । श्री केवली के विमल शासन में इसी विध मान्य हैं ।। १३१३॥ जो भय, जुगुप्सा पुरुष स्त्रो, नपुंसक त्रय वेद को । नित छोड़ देते बुद्धि से ध्याते सतत निजरूप को ॥ उन भेद विज्ञानी मुनों के स्थायि सामायिक रहे । श्री केवली के अमल शासन में इसीविध से कहें || १३२ ॥ गाथा १३१-१३२ - अन्वयार्थ – [ यः तु हास्यं रति शोकं अरति ] जो हास्य, रति, शोक और अरति को, [ नित्यशः वर्जयति ] नित्य ही छोड़ देता है, [ तस्य सामायिक स्थायि ] उसके सामायिक स्थायी होता है, [ इति केवलिशासने] ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा है । [ यः ] जो, [ जुगुप्सां, भयं सर्व वेदं ] जुगुप्सा, भय और सभी वेद को, [ नित्यशः वर्जयति ] नित्य ही छोड़ देता है, [तस्य ] उसके, [ सामायिक स्थायि ] सामायिक व्रत स्थायी है, [ इति केवलिशासने ] ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा है । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम-समाधि अधिकार [ ३६३ नवनोकषायविजयेन समासादितसामायिक चारित्रस्वरूपाख्यानमेतत् । मोहनीयसमुपजनितस्त्रीषु नपुसकवेदहास्य रत्य रतिशोकभय जुगुप्साभिवाननवनोकषायकलितकफारम समस्तविकारजालकं परमसमाधिबलेन यस्तु निश्चयरत्नत्रयात्मकपरमतपोनिः संत्यजति, तस्य खलु केवलिभट्टारकशासन सिद्धपरमसामायिकाभिधानत्रतं शाश्वतमन सूत्रद्वयेन कथितं भवतीति । ( शिखरिणी ) त्यजाम्येतत्सर्वं ननु नवकषायात्मकमहं मुदा संसारस्त्रीजनितसुखदुःखावलिकरम् । महामोहान्धानां सतत सुलभं दुर्लभतरं समाधौ निष्ठानामनवरतमानन्दमनसाम् ॥२१८॥ P टीका नव नोकषाय की विजय से प्राप्त होने वाले ऐसे सामाि स्वरूप का यह कथन है । मोहनीय कर्म से उत्पन्न होने वाले स्त्रीवेद, पुरुपवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, सरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन नामवाली नव नोकपायों से होने वाले, कलंक पंक समस्त विकार जालों को परम समाधि के बल से जो निश्चय रत्नत्रय स्वरूप परम छोड़ देते हैं, उनके निश्चितरूप से केवली भट्टारक के शासन में सिद्ध ऐसा रमसामायिक नामका व्रत शाश्वतरूप होता है । इस प्रकार से इन दो सूत्रों से यह हो गया है । I [ अब टीकाकार मुनिराज स्वयं अपनी आत्मा को इस निर्विकल्प सामायिक में प्रेरित करते हुए कहते हैं - ] (२१८) श्लोकार्थ -- संसाररूपी स्त्री से उत्पन्न होने वाले सुख और दुःखों समूह को करने वाले नव नोकषायरूप इन सभी को मैं हर्षपूर्वक छोड़ता हूं, जो कि महामोह से अंधे हुए जीवों के लिये सतत सुलभ हैं और सदा ही आनन्दरूप मन से हित तथा समाधि में लीन हुये ऐसे महामुनियों के अतिशय दुर्लभ हैं । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३६४ ] नियमसार जो दु धम्मं च सुक्कं च, झाणं झाएदि रिगच्चसा । तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे ।। १३३ ॥ यस्तु धयं च शुवलं च ध्यानं ध्यायति नित्यशः । तस्य सामायिक स्थायि इति केलिशासने ।।१३३।। जो मुनी चारों धर्म घ्यानों शुक्ल ध्यानों को सदा । ध्याते स्वयं को स्वयं में स्वयमेव तिज के बाद सदा ।। उनी मुनी का ध्यान वो, स्थायी सामाधिन रहे । श्री कवली के अमल शामन में इसीविय से कहे ।। १३३।। ससधिकारोनहार पलासोपाल् । यस्तु सकल विमलकेवलज्ञानदर्शनलोलपः परमजिनयोगीश्वरः स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यानेन निखिलविकल्पजालनिर्मुक्तनिश्चयशुक्लध्यानेन च अनवरतमखण्डाद्वं तसहजचिद्विलासलक्षरणमक्षयानन्दाम्भोधिमज्जतं । ---.. ...- --.. भावार्थ-हास्य, रति, अरति आदि कपाय- प परिणाम शुद्धोपयोगी साधुओं के पास फटकते भी नहीं हैं और मोही जीवों के पारा हमेशा रहते हैं ऐसे इन किंचित् । कषायरूप परिणामों को भी छोड़ने का उपदेश है । गाथा १३३ अन्वयार्थ - [यः तु] जो साधु, [धर्म च शुक्लं च] धर्म और शुक्ल, [ध्यानं] ! ध्यान को, .[नित्यशः ध्यायति ] नित्य ही ध्याता है. [तस्य सामायिकं स्थायि] उसके सामायिक स्थायी होता है, [ इति केलि शासने ] एना केवली भगवान के शासन में कहा है। टीका-परम समाधि अधिकार के उपसंहार का यह कथन है । जो सकल विमल केवलज्ञान और केवलदर्शन के लोलुपी हैं ऐसे परम जिन योगीश्वर अपनी आत्मा के आश्रित निश्चय धर्मध्यान से और निखिल विकल्प बालों से रहित निश्चय शुक्ल ध्यान से निरन्तर ही अखंड अ त सहज चैतन्य के विलासरूप, Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम-समाधि अधिकार [ ३६५ लबाह्यक्रियापराङ मुखं शश्वदंतःक्रियाधिकरणं स्वात्मनिष्ठनिर्विकल्पपरमसमाधिसंपकारणाभ्यां ताभ्यां धर्मशुक्लध्यानाभ्यां सदाशिवात्मकमात्मानं ध्यायति हि तस्य खलु नेश्वरशासननिष्पन्न नित्यं शुद्ध त्रिगुप्तिमुप्तपरमसमाधिलक्षणं शाश्वतं सामायिकभवतीति । (मंदाकांता) शुक्लध्याने परिणतमतिः शुद्धरत्तत्रयात्मा धर्मध्यानप्यनघपरमानन्दतत्त्वाश्रितेऽस्मिन । प्राप्नोत्युच्चरपगतमहदुःखजालं विशालं भेदाभावात् किमपि भविनां वाङमनोमार्गदरम् ।।२१६॥ दय आनंदरूपी समुद्र में निमग्न, सकल बाह्य क्रिया से पराङ्मुख और हमेशा यन्तर क्रिया के आधारभूत सदाशिव स्वरूप ऐसी आत्मा को ध्याते हैं अर्थात अपनी मा में निष्ठ निविकल्प परमसमाधिरूप संपत्ति के लिये कारण ऐसे उन धर्म और ल ध्यान से अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं, उनके निश्चितरूप से जिनेश्वर के सन में निप्पन्न हुआ, नित्य, शुद्ध, त्रिगुप्ति से गुप्त ऐसा परम समाधिरूप शाश्वत समायिक व्रत होता है। भावार्थ--निश्चय धर्म और शुक्लध्यान से जो अपनी शुद्ध आत्मा का ध्यान करते हैं, उन निर्विकल्प योगी के निर्विकल्प समाधि होती है, उसीका नाम शाश्वत मायिक है। । [अब टीकाकार मुनिराज इस अधिकार की पूर्ति करते हुए परम समाधि के कल को बतलाते हुए श्लोक कहते हैं-] (२१९) श्लोकार्थ-निर्दोष परमानन्द तत्त्व के आश्रित ऐसे इस धर्मध्यान मैं अथवा शुक्लध्यान में जिसकी बुद्धि परिणमित हुई है, वह शुद्ध रत्नत्रयात्मक जीव किसी एक अद्भुत विशाल और महान् दुःख समूहों से रहित तत्त्व को अतिशयरूप से माप्त कर लेता है, जो कि भेद के अभाव से संसारी जीवों के वचनमार्ग और मनो Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार ३६६ ] इति सुफविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरजितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपमप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ परमसमाध्यधिकारो नवमः श्रुतस्कन्धः ।। - --- ... - - -.- -. -. - - - -. - - - - - - - - - --- भावार्थ-~शुद्ध रत्नत्रय से परिणत हुए जीव किसी एक अद्भुत तत्त्व को प्राप्त कर लेने हैं। वास्तव में वह तत्व संसारो जोवों के वचनों से भी परे है और मन के भी अगोचर है केवल महासाधुओं को ही गम्य है । विशेषार्थ-इस "रमसमाधि अधिकार में गाथा १२२ से लेकर १३३ पर्यन्न वीतराग निविकल्प समावि में स्थित होकर आत्मा के ध्यान करने का उपदेश है । नुस ध्यान की सिद्धि के लिये जीवित-मरण, सुख-दुःख आदि में समता भाव रखना परम आवश्यक है उसी समता का वर्णन करके आचार्य देव ने जिनेन्द्र देव के शासन में कथित सामायिक का वर्णन नौ गाथाओं द्वारा नव प्रकार से कहा है। जिसमें कि त्रिगुप्ति, सर्व जीवों में समभाव, संयम आदि में सन्निकटता, रागद्वेष का अभाव, आतं रौद्र ध्यान का त्याग, पुण्य-पाप का वर्जन, हास्य-रति आदि नव नो कपायों का वर्जन ये सब सामायिक का लक्षण है। जो कि शुद्धात्म तत्त्व में स्थिर अवस्थारूप स्थायी सामायिक होती है। यहां पर निकाल देव वंदनारूप सामायिक के अतिरिक्त सर्व सावधयोग से निवत्तिरूप सामायिक चारित्र विवक्षित है, क्योंकि निश्चय Hध्यान भी बाह्य विकल्पों से रहित निर्विकल्परूप है और शुक्लध्यान भी शुद्धोपयोग परिणतिरूप है, ऐसा समझना । इसप्रकार सुकविजन कमलों के लिये सूर्य स्वरूप पंचेन्द्रिय के प्रसार से वजित गात्र-मात्र परिग्रहधारी श्री पद्मप्रभमलधारी देव के द्वारा विरचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में परम समाधि अधिकार नामक नवमां अधिकार समाप्त हुआ। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] परम-भक्ति अधिकार अथ संप्रति हि भक्त्यधिकार उच्यते । सम्मत्तणाणचरणे, जो भत्ति कुरण्इ सावगो समरणो। तस्स दुरिणबुदिभत्ती, होदि ति जिणेहि पण्पत्तं ॥१३४॥ सम्यक्त्वज्ञानचरणेषु यो भक्ति करोति श्रावकः श्रमणः । तस्य तु निवृत्तिभक्तिर्भवतीति जिनैः प्रज्ञप्तम् ।।१३४॥ रोनाछंद जो श्रावक या साधु, मन में प्रति रुचि धर के । समकित ज्ञान चरित्र में नित भक्ती करते ।। उनके ही निर्वाण भक्ती होती सच में । भक्ती का यह रूप बरणा श्री जिनवर ने ।।१३४।। - - -. अब परम भक्ति अधिकार कहा जाता है । गाथा १३४ अन्वयार्थ-[यः श्रावकः श्रमणः] जो श्रावक अथवा श्रमण [ सम्यक्त्वज्ञान परणेषु ] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में [भक्ति करोति] भक्ति करता [तस्य तु] उसके [निर्वृत्ति भक्ति भवति] निर्वाण की भक्ति होती है । [इति जिनः जिप्तं] ऐसा जिनों ने कहा है । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] नियम रत्नत्रयस्वरूपाख्यानमेतत् । चतुर्गतिसंसारपरिभ्रमणकारणतोत्रमिथ्यात्वकर्मप्रकृतिप्रतिपक्षनिजपरमात्मतत्त्वसम्यकश्रद्धानावबोधाचरणात्मकेषु शुद्धरत्नत्रयपरिणामेषु भजनं भक्तिराराधनेत्यर्थः एकादशपदेषु श्रावकेषु जघन्याः षट्, मध्यमास्नयः, उत्तमौ द्वौ च, एते सर्वे शुद्धरत्नत्रयक्ति कुर्वन्ति । अथ भवभयभीरवः परमनैष्कर्म्यवृत्तयः परमतपोधनाश्च रत्नत्रयक्ति कुर्वन्ति । तेषां परमश्रावकारणां परमतपोधनानां च जिनोत्सः प्रज्ञप्ता निव॒तिभक्तिरपुनर्भवपुरंभ्रिकासेवा भवतीति । (मंदाकांता ) सम्यक्त्वेऽस्मिन् भवभयहरे शुद्धबोधे चरित्रे भक्ति कुर्यादनिशमतुला यो भवच्छेददक्षाम् । कामक्रोधाद्य खिलदुरघवातनिर्मुक्तचेता भक्तो भक्तो भवति सततं श्रावक: संयमी वा ॥२२०॥ टीका-यह रत्नत्रय के स्वरूप का कथन है। चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण के लिये कारणभूत जो मिथ्यात्वकर्म प्रकृति है, उससे विपरीत निज परमात्म तत्व का सम्बक श्रद्धान, ज्ञान और उसी में आचरण रूप ऐसे शुद्ध रत्नत्रय स्वरूप परिणामों का भजन भक्ति कहलाता है। उसीको आराधना कहते हैं। ___ ग्यारह पद-प्रतिमाधारी श्रावकों में छह प्रतिमा तक जघन्य हैं, आगे के तीन तक मध्यम और आगे के दो ये उत्तम हैं, इन पद वाले सभी श्रावक शुद्ध रत्नत्रय की भक्ति करते हैं, तथा भवभयभीरु, परम-नैरकर्म्य वृत्ति वाले ( निश्चय भक्ति वाले ) परमतपोधन (शुद्ध) रत्नत्रय की भक्ति करते हैं। उन परम श्रावकों को तथा परम तपोधन साधुओं को जिनवरों के द्वारा कही गई अपुनर्भवरूपी रमणी की सेवा रूप, निर्वाण भक्ति होती है। [अब टोकाकार मुनिराज भक्ति के माहात्म्य को बतलाते हुए कहते हैं-] (२२०) श्लोकार्थ-जो जीव भवभय को हरने वाले ऐसे इस सम्यक्त्व में शुद्ध ज्ञान में और चारित्र में हमेशा भव का छेद करने में दक्ष भक्ति को करता है, वह काम क्रोधादि अखिल पाप समूह से रहित चित्त बाला होता हुआ श्रावक हो या संयमी । हो, भक्त है, भक्त है ।।२२०।। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम-भक्ति अधिकार मोक्खंगयपुरिसाणं, गुरणभेदं जारिणऊण तेसि पि । जो कुरणदि परमभक्त, ववहारायेण परिकहियं ॥ १३५ ॥ मोक्षगतपुरुषाणां गुणभेदं ज्ञात्वा तेषामपि । यः करोति परमभक्त व्यवहारनयेन परिकथितम् ।। १३५ ।। प्राप्त किया निर्वाण, जिन महान पुरुषों ने | उनके गुण के भेद समझ कर जिनने ॥ मन वच तन से नित्य, किया परमभकी को । कही गई व्यवहार, नय से ही भक्तो वो । १३५ ।। [ ३६८ व्यवहारनयप्रधानसिद्धभक्तिस्वरूपाख्यानमेतत् । ये पुराणपुरुषाः समस्तकर्मक्षयोपायहेतुभूतं कारणपरमात्मानमभेदानुपचाररत्नत्रयपरिणत्या सम्यगाराध्य सिद्धा जातास्तेषां विशेषार्थ- इस ग्रन्थ में मुनियोंक भेदाभेद रत्नत्रय का ही वर्णन है उसमें भी शुद्ध रत्नत्रय ही प्रधान है, अतः श्रावकों के सिवाय सर्वत्र आचार्यदेव ने संयत, संयमी, श्रमण मुनि और साधु इन शब्दों का ही प्रयोग किया है। किंतु यहां पर भक्तिका प्रकरण होने से श्रावकों को भी ले लिया है, क्योंकि श्रावक भी रत्नत्रय की आराधना उपासना करते हैं । तथा वे एकदेश रत्नत्नय से सहित ऐसे अण्वती भी होते हैं । गाथा १३५ अन्वयार्थ - [ यः ] जो [ मोक्षगत पुरुषाणां ] मोक्ष को प्राप्त हुये पुरुषों में [ गुणभेदं ज्ञात्वा ] गुणों के भेद को जानकर [ तेषां अपि ] उनकी भी [ परमभक्ति ] परम भक्ति [ करोति ] करता है, ( उसके ) [ व्यवहारनयेन परिकथितं ] व्यवहार नय से भक्ति कही गई है । टीका - यह, व्यवहारनय प्रधान सिद्ध भक्ति के स्वरूप का कथन है । जो पुराण पुरुष समस्त कर्मों के क्षय के लिए उपाय में कारणभूत ऐसे कारण परमात्मा की अभेद, अनुपचार रत्नत्रय की परिणति से सम्यक् प्रकार से आरा 2224 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. ] नियमसार केवलज्ञानाविशुद्धगुणभेदं ज्ञात्वा निर्वाणपरंपराहेतुभूतां परमभक्तिमासन्नभव्यः करोति, तस्य मुमुक्षोर्यवहारनयेन निर्वृत्तिभक्तिर्भवतीति । ( अनुष्टुभ् ) उद्धृतकर्मसंदोहान् सिद्धान् सिद्धिवधूधवान् । संप्राप्ताष्टगुणैश्वर्यान् नित्यं वन्दे शिवालयान् ।।२२१॥ (आर्या ) यवहारनयस्येत्थं निलिभक्तिजिनोत्तमैः प्रोक्ता । निश्चयनिर्वृतिभक्ती रत्नत्रयभक्तिरित्युक्ता ॥२२२।। ( आर्या ) निःशेषदोषदूरं केवलबोधादिशुद्धगुणनिलयम् । शुद्धोपयोगफलमिति सिद्धत्वं प्राहुराचार्याः ॥२२३॥ - - - धित करके सिद्ध हुये हैं, उनके केवलज्ञान आदि शुद्ध गुणों के भेद को जानकर निर्वाण के लिये परंपरा से हेतृभूत ऐसी परमभक्ति को जो आसन्नभव्य करते हैं, उन ममक्ष के व्यवहार नय से निर्वाण भक्ति होती है । [ अब टीकाकार मुनिराज पूनः व्यवहार से सिद्धों की भक्ति के महत्व को स्पष्ट करते हुये छह श्लोक कहते हैं-] श्लोकार्थ-जिन्होंने कर्म समूह को धो डाला है, जो सिद्धिव के पति हैं, तथा जिन्होंने आठ गुणों के ऐश्वर्य को प्राप्त कर लिया है । जो शिवालय-कल्याण के निवास-गृह हैं, ऐसे उन समस्त सिद्धों को मैं नित्य ही वंदन करता हूं ।।२२१॥ श्लोकार्थ-इसप्रकार से व्यवहार नय की यह निर्वाण भक्ति जिनवरों ने कही है, तथा रत्नत्रय की भक्ति ही निश्चय निर्वाण भक्ति है, ऐसा कहा है ।।२२२।। श्लोकार्थ-निःशेष ( संपूर्ण ) दोषों से दूर, केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों के स्थान ऐसे सिद्ध पद को आचार्यों ने शुद्धोपयोग का फल कहा है ।। २२३ ।। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७१ परम-भक्ति अधिकार ( शार्दूलविक्रीडित ) ये लोकाग्रनिवासिनो भवभवक्लेशार्णवान्तं गता ये निर्वाणवधूटिकास्तनभराश्लेषोत्थसौख्याकराः । ये शुद्धात्मविभावनोद्भवमहाकैवल्यसंपद्गुणा स्तान सिद्धानभिनौम्यहं प्रतिदिनं पापाटवीपावकान् ॥२२४।। (शार्दूलविक्रीडित) त्रैलोक्याग्रनिकेतनान् गुणगुरून ज्ञेयाधिपारंगतान् मुक्तिश्रीवनितामुखाम्बुजरवीन स्वाधीनसौख्यार्णवान् । सिद्धान् सिद्धगुणा हा भवहीन नातिन् नित्यान तान् शरणं व्रजामि सततं पापाटवीपाचकान् ।।२२५।। ( वसंततिलका) ये मर्त्यदेवनिकुरम्बपरोक्षभक्तियोग्या: सदा शिवमयाः प्रवराः प्रसिद्धाः । लोकार्थ-जो लोक के अग्रभाग में निवास करते हैं जो भव-भब के चला हपी ममुद्र के पार को प्राप्त हो चुके हैं। जो निर्वाण वध के पुष्ट स्तन के आलिंगन से उत्पन्न हुये से सौग्य की खान हैं, जो शुद्ध आत्मा की भावना से उत्पन्न हुये कैवल्य सम्पदा रूपी महा गुणों से सहित हैं और पापरूपी वनी को दग्ध करने के लिये अग्नि स्वरूप हैं, से उन सिद्धों को मैं प्रतिदिन नमस्कार करता हूं ।। २२४।। श्लोकार्थ-तीन लोक का अग्रभाग ही जिनका निबारागृह है, जो गुणों से गुरु-भारी हैं, थाष्ठ-गम्भीर, जो ज्ञेयरूपी समुद्र के पारंगत है, जो मुक्ति लक्ष्मीरूपी मुदरी के मुख कमल को विकसित करने के लिये सूर्य हैं, जो स्वाधीन सौख्य के समुद्र हैं, जिन्होंने आठ गुणों को सिद्ध कर लिया है, जो भव के हरने वाले हैं, जिन्होंने आठ कों के समूहों को नष्ट कर दिया है, जो शाश्वत रूप हैं, ऐसे उन पापरूपी वन को भस्म करने के लिये अग्नि स्वरूप सिद्धों को मैं सदा ही शरण ग्रहण करता हूं ।।२२५।। श्लोकायं-जो मनुष्यों के तथा देवों के समुदाय की परोक्ष भक्ति के योग्य हैं, सदा शिवमय-कल्याण स्वरूप हैं, श्रेष्ठ हैं, तथा प्रसिद्ध हैं वे सिद्ध भगवान सुसिद्धि Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ] नियमसार सिद्धाः सुसिद्धिरमणीरमणीयववत्रपंकेरुहोरुमकरंदमध्रुव्रताः स्युः ॥ २२६ ॥ मोक्खपहे अप्पाणं, ठविकरण य कुरणदि रिगब्बुदी भत्ती । तेरा दु जीवो पावइ, असहाय गुरगं रियप्पा ॥१३६॥ मोक्षपये आत्मानं संस्थाप्य च करोति निर्वृतेर्भक्तिम् । तेन तु जीवः प्राप्नोत्यसहायगुणं निजात्मानम् ॥ १३६॥ जो आत्मा को मोक्ष, पथ में स्थापित करके । अपने में ही आप निवृति भक्ती करते । इसमें ही वे जीव, निज आत्मा को पाते। पर सहाय से शून्य गुणमय परिणम जाते ।। १३६ ।। रूपी रमणी के रमणीय मुत्र कमल की श्रेष्ठ मकरंद - पराग के लिये भ्रमर सहा हैं ।। २२६ ॥ भावार्थ सिद्धों के स्थान पर विद्यावर या ऋद्धिधारी मुनि अथवा देवतागण आदि भी नहीं पहुंच सकते हैं । इसलिये ये सब उन सिद्धों को परोक्ष में ही भक्ति करते हैं । अन्यत्र अतदेव के समवसरण में तथा अकृत्रिम जिनालय आदि में सर्वत्र देवतागण प्रत्यक्ष से भक्ति करते हैं और मनुष्य भी अहंतों के समवसरण में तथा ढाई द्वीप के चैत्यालयों में प्रत्यक्ष भक्ति करते हैं । अन्यत्र चैत्यालयों की परोक्ष से भक्ति करते हैं । गाथा १३६ अन्वयार्थ – [ मोक्ष पथे श्रात्मानं संस्थाप्य ] मोक्षमार्ग में अपनी आत्मा को सम्यक् प्रकार से स्थापित करके [ निर्वृत्तेः ] निर्वाण की [ भक्ति करोति ] भक्ति करता है, [तेन तु जीवः ] उससे यह जीव [ असहायगुणं निजात्मानं ] असहाय - स्वाभाविक गुण स्वरूप अपनी आत्मा को [ प्राप्नोति ] प्राप्त कर लेता है । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम-भक्ति अधिकार निजपरमात्मभक्तिस्वरूपाख्यानमेतत् । भेदकल्पना निरपेक्षनिरुपचाररत्नत्रयात्मके निरपरागमोक्षमार्गे निरंजननिजपरमात्मानंदपीयूषपानाभिमुखो जीवः स्वात्मानं संस्थाप्यापि च करोति निर्वृतेर्मु क्त्यंगनायाः चरणनलिने परमां भक्ति, तेन कारणेन स भव्यो भक्तिगुणेन तिरावर सहजज्ञानगुणत्वादस हायगुणात्मकं निजात्मानं प्राप्नोति । ( स्रग्धरा ) [ ३७३ आत्मा ह्यात्मानमात्मन्यविचलित महाशुद्धरत्नत्रयेऽस्मिन् free front fनरुपमसहजज्ञानशीलरूपे । संस्थाप्यानंद भास्वन्निरतिशयगृहं चिचचमत्कार भक्त्या प्राप्नोत्युच्रयं यं विगलितविपदं सिद्धिसीमन्तिनीशः ॥ २२७ ॥ टीका - यह अपनी परमात्मा की भक्ति के स्वरूप का कथन है । निरंजन निज परमात्मा के आनन्द रूपी अमृत के पान करने में अभिमुख जो जीव, भेद कल्पना से निरपेक्ष अनुपचार रत्नत्रय स्वरूप ऐसे वीतरागरूप मोक्षमार्ग में अपनी आत्मा को सम्पर्क प्रकार से स्थापित करके भी निर्वाणरूपी मुक्ति स्त्री के चरण कमलों में परम भक्ति करता है उस कारण से वह भव्य जीव भक्ति गुण के द्वारा साधरण रहित सहज ज्ञान गुणरूप होने से असहाय गुणस्वरूप ऐसी अपनी आत्मा को प्राप्त कर लेता है । [ अब टीकाकार मुनिराज निश्चय भक्ति को बतलाते हुए कहते हैं— ] श्लोकार्थ --- इस अविचल महाशुद्ध रत्नत्रय स्वरूप, मुक्ति के लिए कारणभूत मा रहित सहज ज्ञान, दर्शन और शीलरूप, ऐसी नित्य आत्मा में आत्मा को ापित करके यह आत्मा चैतन्य चमत्कार की भक्ति द्वारा आनन्द से शोभायमान निरतिशय स्थानरूप तथा विपदाओं से विरहित ऐसे पद को अतिशयरूप से प्राप्त कर ता है और वह सिद्धिरूपी भार्या का स्वामी हो जाता है ।। २२७|| भावार्थ - आत्मा को आत्मा के द्वारा आत्मा के लिए आत्मा में ही स्थिर करके ध्यान करने वाला व्याता इस निश्चय भक्तिरूप निर्विकल्प समाधि के अक्षय स्वरूप सिद्ध स्थान को प्राप्त कर लेता है | Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ] नियमसार रायादीपरिहारे, अप्पारणं जो दु जुजदे साहू । सो जोगभत्तिजुत्तो, इदरस्स य कह हवे जोगो ॥१३७॥ रागादिपरिहारे आत्मानं यस्तु युनक्ति साधुः । स योगभक्तियुक्तः इतरस्य च कथं भवेद्योगः ॥१३७।। ओ साधु गगादि, योष दूर करने में । निज आत्मा को नित्य, लगा रहे उसही में ।। उनका ही वह यत्न, योगभक्ति कहलाये । अन्य साधु के योग, क्या कैसे हो पावे ? ।।१३।। निश्चययोगभक्तिस्वरूपान्यानमेतत् । निरवशेषेणान्तमु खाकारपरमसमाधिना निखिलमोहरागद्वषादिपरभावानां परिहारे सति यस्तु साधुरासन्नभव्यजीवः निजेनाखंडाद्वैतपरमानन्दस्वरूपेण निजकारणपरमात्मानं युक्ति, स परमतपोधन एव शुद्धनिश्चयोपयोगभक्तियुक्तः । इतरस्य बाह्यप्रपंचसुखस्य कथं योगभक्तिर्भवति । - - - - - - - - - - - -- - - -- - - - - - - - - - - -- गाथा १३७ अन्वयार्थ-[यः तु साधुः] जो साधु [रागादि परिहारे] रागादि के परित्याग में [आत्मानंयुनक्ति] आत्मा को लगाता है [ स: योगभक्तियुक्तः ] वह योग भक्ति से युक्त है । [इतरस्य च] अन्य साधु के [योगः कथं भवेत् ] योग कैसे हो सकता है ? । टीका-यह निश्चय योग भक्ति के स्वरूप का कथन है । परिपूर्ण रूप से जो अन्तर्मुखाकार परम समाधि है उसके द्वारा समस्त मोह, राग द्वषादि परभावों का परिहार हो जाने पर जो आसन्न जीव ऐसा साधु अखण्ड, अद्वैत परमानन्द स्वरूप निज के साथ निजकारण परमात्मा को युक्त करता है वह परमतपोधन ही शृद्ध निश्चय उपयोग की भक्ति से युक्त है । अन्य बाह्य प्रपंच में सख मानने वाले को योग भक्ति किसप्रकार से हो सकती है ? भावार्थ--अपनी आत्मा में ही आत्मा को जोड़ने वाले साधु के निश्चय योग भक्ति होती है अन्य बाह्य प्रपंचों में लगे हुए के नहीं हो सकती है । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा चोक्तम् तथा हि परम-भक्ति अधिकार 20 ( अनुष्टुभ् ) "आत्मप्रयत्नसापेक्षा विशिष्टा या मनोगतिः । तस्या ब्रह्मणि संयोगो योग इत्यभिधीयते ॥ " ( अनुष्टुभ् ) आत्मानमात्मनात्मायं युनक्त्येव निरन्तरम् । स योगभक्तियुक्तः स्यानिश्चयेन मुनीश्वरः ॥ २२८ ॥ सव्वविपाभावे, अप्पाणं जो दु जुजदे साहू | सो जोगभत्तिजुत्तो, इवरस्स य किह हवे जोगो ॥ १३८ ॥ [ ३७५ इसीप्रकार से अन्यत्र भी कहा है " श्लोकार्थ- - आत्मा के प्रयत्न में सापेक्ष ऐसी जो विशेष मनोगति है उसका - ब्रह्मस्वरूप आत्मा में संयोग ही 'योग' इस नाम से कहा जाता है ।" उसी प्रकार से [ टीकाकार मुनिराज योग भक्ति को स्पष्ट करते हुए कह [रहे हैं- ] श्लोकार्थ - जो यह आत्मा आत्मा को निरन्तर आत्मा के साथ ही जोड़ता . निश्चय से वह मुनीश्वर योग भक्ति से युक्त होता है ।। २२८ ।। भावार्थ - ध्यान में तत्पर हुए तथा ग्रीष्मकाल में पर्वत की चोटी पर, वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे एवं शिशिर ऋतु में खुले स्थान में या नदी के किनारे ध्यान करने आले त्रिकाल योग में तत्पर हुए साधु योगी कहलाते हैं उनके गुणों का स्तवन करते मन से वचन से और काय से भक्ति करना ही व्यवहार से योग भक्ति है और आत्मा में ही अपनी आत्मा को स्थिर करना निश्चय योग भक्ति है । गाथा १३८ - अन्वयार्थ – [ यः साधुः तु ] जो साधु [ सर्वविकल्पाभावे ] सर्व विकल्पों के भाव में [आत्मानं युनक्ति ] आत्मा को लगाता है [ सः योगभक्ति युक्तः ] वह योग Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ]. नियमसार सर्वविकल्पाभावे आत्मानं यस्तु युक्ति साधुः । स योगभक्तियुक्तः इतरस्य च कथंभवेद्योगः ।।१३।। सर्व विकल्प अभाव, में जो साधु सतत हो । करते हैं सेलीन, निज आत्मा को सच हो । वे ही साधु योग भक्ती युक्त कहावें । अन्य साधु के योग कहो कहां बन पावे ? ||१३८।। अत्रापि पूर्वसूत्रवग्निश्ययोगभक्तिस्वरूपमुक्तम् । अत्यपूर्वनिरुपरागरत्नत्रयात्मकनिचिद्विलासलक्षरपनिविकल्पपरभसमाधिना निखिलमोहरागद्वषादिविविधविकल्पाभावे परमसमरसीभावेन निःशेषतोऽन्तर्मुखनिजकारणसमयसारस्वरूपमत्यासन्नभव्यजीवः सदा युनक्त्यैव, तस्य खलु निश्चययोगभक्तिर्नान्येषाम् इति । (अनुष्टुभ् ) भेदाभावे सतीयं स्याद्योगभक्तिरनुत्तमा । तयात्मलब्धिरूपा सा मुक्तिर्भवति योगिनाम् ॥२२६।। -- . .- ... ........- - - - . भक्ति मे युक्त होता है, [ इतरस्य च ] तथा अन्य साधु के [ योगः कथं भवेत् ] योग किस प्रकार से होगा? टीका-यहां पर भी पूर्व सूत्र के समान निश्चय योग भक्ति का स्वरूप कहा। है-अतिशय अपूर्व राग रहित रत्नत्रय स्वरूप निज चैतन्य विलास लक्षण ऐसी निविकल्प परम समाधि के द्वारा समस्त मोह, राग, द्वेष आदि विविध विकल्पों का अभाव हो जाने पर परम समरसी भाव के साथ सम्पूर्णतया अंतर्मुख निजकारण समयसार स्वरूप आत्मा को जो अत्यासन्न भव्य जीव सदा ही युक्त करता है-जोड़ता है, उसके निश्चितरूप से निश्चय योग भक्ति होती है, किन्तु अन्य साधुओं के नहीं होती है । [अब टीकाकार मुनिराज उसीको स्पष्ट करते हुए कहते हैं-] श्लोकार्थ-भेद का अभाव हो जाने पर यह सर्वोत्तम योग भक्ति होती है। उस भक्ति के द्वारा योगियों को वह आत्मा के स्वरूप को उपलब्धिरूप मुक्ति होती है ।। २२९ ।। ----- - Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 र-भक्ति अधिकार [ ३७७ विवरीयाभिणिवेसं, परिचत्ता जोण्ह'कहियतच्चेसु । जो जुजवि अप्पाणं, णियभावो सो हवे जोगो ॥१३॥ विपरीताभिनिवेशं परित्यज्य जैनकथिततत्त्वेषु । यो युनक्ति आत्मानं निजभावः स भवेद्योगः ।।१३६॥ जो विपरीत अभिप्राय, मन वच तन से तजते । जिन भाषित तत्त्वार्थ में निज को रत चाग्ने ।। उनका वह निज भाव, निश्चय योग कहाव । जो मुनि धारे योग वे ही निज सुख पावें ।। १३६ ।। इह हि निखिलगुणधरगणधरदेवप्रभृतिजिनमुनिनाथकथिततत्वेष बिपरीताभिनिवेशविजितात्मभाव एव निश्चयपरमयोग इत्युक्तः । अपरसमयतीर्थनाथाभिहिते विपरोते पदार्थे ह्यभिनिवेशो दुराग्रह एव विपरीताभिनिवेशः अमु परित्यज्य जैनकथित - - -... -.. .. . -. गाथा १३६ अन्वयार्थ--[ यः ] जो [ विपरीताभिनिवेशं ] विपरीत अभिप्राय को [ परित्यक्त्वा ] छोड़कर [ जैन कथित तत्वेषु ] जिनेंद्र देव द्वारा कथित तत्त्वों में । [आत्मानं युतक्ति] आत्मा को लगाता है । [ सः निजभावः ] उसका बह निजभाव । स्वरूप [योगः भवेत् ] योग होता है । टीका-अखिन गुगगी के धारक गणधर देव आदि जिनमुनिनाथों के द्वारा कहे गये तत्त्वों में विपरीत आग्रह मे रहित आत्मभाव ही निश्चय परम योग है, ऐसा यहां । पर कहा है। अन्य संप्रदाय के तीर्थ कर्ताओं के द्वारा कहे गये विपरीत पदार्थ में जो अभिनिवेशदुराग्रह है वही विपरीत अभिनिवेश है। इसको छोड़कर जिनेन्द्र देव द्वारा Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ] नियमसार तत्त्वानि निश्चयव्यवहारनयाभ्यां बोद्धव्यानि । सकलजिनस्य भगवतस्तीर्थाधिनाथस्य पादपद्मोपजीविनो जनाः, परमार्थतो गणधर देवादय इत्यर्थः । तैरभिहितानि निखिल - जीवादितत्त्वानि तेषु यः परमजिनयोगीश्वरः स्वात्मानं युनक्ति, तस्य च निजभाव एव परमयोग इति । (वसंततिलका) तत्त्वेषु जैन मुनिनाथमुखारविंदव्यक्तषु भव्यजनता भवघातकेषु । दुराग्रहममु जिनयोगिनाथः साक्षाद्युनक्ति निजभावमयं स योगः ।।२३० ।। कथित तत्त्वों को निश्चय और व्यवहार नयों के द्वारा जानना चाहिये सकन्द जिनकल - शरीर सहित ऐसे अर्हत भगवान तीर्थाधिनाथ के पाद कमलों के जो उपजीवकउपासक या आश्रित है वे 'जैन' कहलाते हैं । परमार्थ से वे जैन गणधर देव आदि हैं यहां ऐसा अर्थ है । उन गणधरदेवादिकों द्वारा सम्पूर्ण जीवादि तत्त्व कहे गये हैं उनमें जो परम जिन योगीश्वर अपनी आत्मा को लगाते हैं, उनका जो निजभाव है वही परमयोग है ऐसा समझना । 1 [टीकाकार मुनिराज इसी बात को कलश द्वारा व्यक्त करते हैं ( २३० ) श्लोकार्थ - इस दुराग्रह को छोड़कर, जैन मुनिनाथ ऐसे गणधर देवों के मुख कमल से व्यक्त-प्रगट हुए और भव्य जनों के भवों का घात करने वाले ऐसे तत्त्वों में जिनयोगीनाथ साक्षात् अपने भाव को लगाते हैं सो वह भाव ही योग है । भावार्थ --- जिनेन्द्र के मुख कमल से निकली हुई और गणधर देवों द्वारा ग्रंथ रूप कही गई जो वाणी है आज भी परम्परागत आचार्यों द्वारा उसी का अंश अपने को उपलब्ध है । ऐसे श्रुत में प्रतिपादित तत्त्वों में जो महामुनि अपने भाव को स्थिर करते हैं वह स्थिर भाव ही योग अर्थात् ध्यान के नाम से कहा जाता है । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R a mananews पा-भक्ति अधिकार उसहाविजिणवरिंदा, एवं काऊरण जोगवरभत्ति । रिणबुदिसुहमावण्णा, तम्हा धरु जोगवरत्ति ॥१४०॥ वषभादिजिनवरेन्द्रा एवं कृत्वा योगवरभक्तिम् । निर्वृतिसुखमापनास्तस्माद्धारय योगवरभक्तिम् ।।१४।। थी बृपभादि जिनेन्द्र तीर्थकर आदिक मब । एम विध मे ही योग वर भनी करके निन । नात किया निवाए गुग्नमय अविचन पद को। अनः गे हे माशु ! निश्चय योग भक्ति को ।। १४०।। भवत्याधिकारोपसंहारोपन्यासोयम् । अस्मिन् भारते वर्षे पुरा किल श्रीनायादिश्रीवर्द्ध मानचरमाः चतुविशतितीर्थकरपरमदेवाः सर्वज्ञवीतरागाः त्रिभुवनवतिकीतयो महादेवाधिदेवाः परमेश्वराः सर्वे एवमुक्तप्रकार स्वात्मसंबन्धिनी शुद्धनिश्चययोगवरभक्ति कृत्वा परमनिर्वाणवधूटिकापीवरस्तनभर गाढोपगूढनिभरानन्दपरमसुधारसपुरपार - .. - - -- गाथा १४० अन्वयार्थ-[वृषभादिजिनवरेन्द्राः] वृषभादि जिनवरेन्द्र [एवं] उमप्रकार से [योगवरभक्ति] योग की उत्तम भक्ति [कृत्वा] करके [ निर्वृत्ति सुखं ] निर्वाण सुख को [आपन्नाः] प्राप्त हुए हैं, [तस्मात्] इसलिए [योगवरभक्तिधारय] तुम योग की जनम भक्ति को धारण करो । टीका-भक्ति अधिकार के उपमंहार का यह कथन है । - इस भारत वर्ष में पहले जो श्री नाभि पुत्र-वृषभदेव से लेकर अंतिम श्री वर्द्धमान देव पर्यंत चौबीस तीर्थकर परम देव सर्वज्ञ वीतराग त्रिलोक में व्याप्त कीति से युक्त महादेवाधिदेव परमेश्वर हुए हैं, वे सभी इस उपर्युक्त प्रकार से अपनी आत्मा से सम्बन्ध रखने वाली ऐसी शुद्ध निश्चय योग की उत्तम भक्ति को करके अति पुष्ट स्तन वाली परम निर्वाण वधू के गाद आलिंगन से सर्व आत्मा के प्रदेशों में अतिशय आनन्दरूप परमसुधारस के पूर में परितृप्त हो चुके हैं। इसलिए प्रगटित भव्यत्व गुण - - - 4 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] नियममार तृप्तसर्वात्मप्रदेशा जाताः, ततो यूयं महाजनाः स्फुटितभव्यत्वगुणास्तां स्वात्मान वीतरागसुखप्रदां योगर्भाक्त कुरुतेति । ( शार्दूलविक्रीडित ) नाभेयादिजिनेश्वरान् गुणगुरून् त्रैलोक्य पुण्योत्करान् श्रीदेवेन्द्र किरीटकोटिविलसन्माणिक्यमालावितान् । पौलोमीप्रभृतिप्रसिद्धदिविजाधीशांगना संहतेः शक्र ेणोद्भव भोगहास विभलान् श्रीकीर्तिनाथान् स्तुचे || २३१|| से सहित हे महापुरुषों ! तुम लोग अपनी आत्मा के लिए प्रयोजनभूत ऐसे वीतराग सुख को प्रदान करने वाली ऐसी योग भक्ति को करो | [as टीकाकार मुनिराज इस अधिकार को संकुचित करते हुए सात ल द्वारा योग भक्ति का माहात्म्य प्रकट करते हैं-] ( २३१ ) श्लोकार्थ - जो गुणों से गुरु हैं, त्रैलोक्य के पुण्य की राशि हैं। देवेन्द्रों के मुकुटों के अग्रभाग में सुशोभित हुए माणिक्य रत्नों की मालाओं से अति शची आदि प्रसिद्ध इंद्राणियों के समूह से सहित ऐसे इंद्र के द्वारा हुए विमल भोग हास से सहित अर्थात् नृत्य, गान आनन्द से युक्त हैं तथा श्री अंतरंग एवं बहिरंग और कीर्ति के स्वामी हैं ऐसे वृषभादि जिनेश्वरों की मैं स्तुति करता हूं । भावार्थ - चौबीस तीर्थंकर अपने अनंत गुणों से अतिशय भारी होने त्रिभुवन के गुरु कहलाते हैं, तीनों लोकों में जितना भी पुण्य है उस सभी पुंज स्वरूप हैं. देवेंद्रगण उनको अपने रत्न खचित मुकुटों को झुकाकर नमस् करते हैं, सौधर्म इन्द्र सभी इन्द्र और इंद्राणियों के साथ भगवान के जन्म कल्पत आदि में महान् महोत्सव करते हैं । वे तीर्थंकर तीनों जगत् के भव्य जीवों स्तुत्य हैं । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८१ परम भक्ति अधिकार ( आर्या ) वृषभाविवीरपश्चिमजिनपतयोप्येवमुक्तमार्गेण । कृत्वा तु योगक्ति निर्वाणवधूटिकासुखं यान्ति ।।२३२॥ ( आर्या । अपुनर्भवसुखसिद्धचं कुर्वेऽहं शुद्धयोगवरभक्तिम् । संसारघोरभीत्या सर्वे कुर्वन्तु जन्तवो नित्यम् ॥२३३॥ ( शार्दूलविक्रीनि) रागद्वेषपरंपरापरिणतं चेतो विहायाधुना शुद्धध्यानसमाहितेन मनसानंदात्मतत्त्वस्थितः । धर्म निर्मलशर्मकारिणमहं लब्बा गुरो। सन्निधौ ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लीये परब्रह्मरिण ।।२३४।। (२३२) श्लोकार्य-वृषभदेव से लेकर वीर पर्यन जिनपनि भी इम उपयुक्त __ मार्ग मे योग भक्ति को करके निर्वाण वध के सुख को प्राप्त कर लेते हैं। (२३३) श्लोकार्थ-अपुनर्भव के मुख की सिद्धि के लिये मैं शुद्ध योग की उत्तम भक्ति को करता हूं, सभी संसारी प्राणी संसार के घोर दुःखों की भीति से नित्य ही उस भक्ति को करो। (२३४) श्लोकार्थ-गुरु के निकट में निर्मल सुखकारी धर्म को प्राप्त करके, ज्ञान के द्वारा समस्त मोह की महिमा को जिसने नष्ट कर दिया है, ऐसा मैं अब राग और ष की परम्परा से परिणत हुये चित्त को छोड़कर शुद्ध ध्यान से एकाग्रता को प्राप्त ऐसे मन से आनंद स्वरूप आत्म तत्व में स्थित होता हुआ परब्रह्मरूप परमात्मा में लीन होता हूं। -- . - -. Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३-२ ] 65 नियमसार (अनुदुम् ) निर्वृतेन्द्रियलौल्यानां तत्त्वलोलुपचेतसाम् । सुन्दरानन्दनिष्यन्दं जायते तत्त्वमुत्तमम् ।।२३५।। ( अनुष्टुभ् ) अत्यपूर्व निजात्मोत्थभावना जातशर्म I यतन्ते यतयो ये ते जीवन्मुक्ता हि नापरे ।। २३६॥ ( वसंततिलका ) अद्वन्द्व निष्ठमनघं परमात्मतत्त्वं संभावयामि तदहं पुनरेकमेकम् । कि त मे फलमिहात्यपदार्थ साथै मुक्तिस्पृहस्य भवशर्मणि निःस्पृहस्य || २३७॥ ( २३५ ) श्लोकार्थ -- जिन्होंने इन्द्रियों की लोलुपता को समाप्त कर दिया है, और जिनका चिन्त तत्त्वों में बोलती है ऐसे परमसाधु के सुन्दर आनन्द को झराने वाला उत तत्त्व प्रगट होता है । ( २३६) श्लोकार्थ -- जो यतिगण अतिशय और अपूर्व अपनी आत्मा से उत्पन्न हुई भावना से होने वाले सुख के लिये यत्न करते है. वे ही जीवन्मुक्त हैं, किंतु अन्य नहीं हैं । ( २३७) श्लोकार्थ - अद्व में लीन - रागद्वेषादि द्वंद्व से रहित स्वरूप में स्थित, निर्दोष, केवल एक रूप से उस एक परमात्म तत्त्व की मैं पुनः पुनः सम्यक् प्रकार से भावना करता हूं । मुक्ति की स्पृहा से सहित तथा भव सुख में निःस्पृह ऐसे मुझे इस लोक में उन अन्य पदार्थों के समुदाय से क्या फल है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है । विशेषार्थ -- इस परम भक्ति अधिकार में गाथा १३४ से लेकर १४० तक पंच परमेष्ठी की और उनके रत्नत्रय गुणों की भक्ति का उपदेश है । व्यवहार भक्ति, स्तुति, नमस्कार, गुणगान आदि रूप है और निश्चयभक्ति वीतराग निर्विकल्प ध्यान Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम-भक्ति अधिकार [ ३८३ इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवजितगात्रमात्रपरिग्रहलीप प्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारख्याबायां तात्रवृत्ती परमभक्त्यधिकारो दशमः श्रुतस्कन्धः ।। - -- -.. ...... . - ... - - . ... ..-- - - रूप है । पहले इममें व्यवहार भक्ति की मुख्यता रखी है जिसमें पहली प्रतिमा से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक उपासक भी रत्नत्रय की भक्ति करने वाले माने गये हैं। पनः निश्चय भक्ति की प्रधानता से निर्वाण भक्ति और योग भक्ति की विशेषता बताई है तथा उम भक्ति का फल परमानन्दमयी निर्वाण सौख्य माना है। इसलिये व्यवहार भक्ति के द्वारा निश्चयरूप अपने आत्म तत्त्व की भक्ति को सिद्ध करके अपनी आत्मा को ही पुज्य भगवान बना लेना चाहिये । इस प्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिये सूर्य सदग, पंचेन्द्रियों के प्रसार में वजित गात्र-मात्र परिवहधारी ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारि देव के द्वारा विरचित नियमसार की तात्पर्यवनि नामक टीका में परम भक्ति अधिकार नामक दशवां श्रुतम्कंध पूर्ण हुआ। Sunauics SASSALESE Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ ] निश्चय - परमावश्यक अधिकार en. अथ सांप्रतं व्यवहारषडावश्यकप्रतिपक्षशुद्धनिश्वयाधिकार उच्यते । जो ग हवदि प्रणवसो, तस्स दु कम्मं भणति श्रावासं । कम्मविणासणजोगो, रिगव्वुविमग्गो ति पज्जुत्तो' ॥१४१ ॥ जाता है यो न भवत्यन्यवशः तस्य तु कर्म भणन्त्यावश्यकम् । कर्म विनाशनयोगो निर्वृत्तिमार्ग इति प्ररूपितः ॥ १४१ ॥ वसंततिलका छेद जो अन्य के वश नहीं वह नहि पराश्रित । उसका हो कर्म बस आवश्यक कहाता ।। श्री कर्म नाशकृत योग सुयोगियों का । निर्वाण मार्ग वह ही सच में कहाता ।।१४१ ॥ अब व्यबहार, पट् आवश्यक से प्रतिपक्ष ऐसे शुद्धनिश्चय अधिकार को कहा गाथा १४१ अन्वयार्थ -- [ यः अन्यवशः न भवति ] जो अन्य के वश नहीं है [ तस्य तु कर्म श्रावश्यकं ] उसकी क्रिया को आवश्यक [ भांति ] ऐसा कहते हैं (क्योंकि) [ कर्म १. पिज्जूतो ( क ) पाठा. । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F. . . निश्चय परमावण्या अधिकार अत्रानबरतस्ववशस्ग निधनाद अस्ल म् । यः खलु यथाविधिपरमजिनमार्गाचरणकुशलः सर्ववैवान्तर्मुखत्वादनन्यवशो भवति किन्तु साक्षात्स्ववश इत्यर्थः तस्य किल व्यावहारिकक्रियाप्रपंचपराङ मुखस्य स्वात्माश्रयनिश्चयधर्म्यध्यानप्रधानपर मावश्यककर्मास्तीत्यनवरतं परमतपश्चरगनिरतपरमजिनयोगीश्वरा वदन्ति । किं च यस्त्रिाप्तिगुप्तपरमसमाधिलक्षणपरमयोगः सकलकर्मविनाशहेतुः स एव साक्षान्मोक्षकारणत्वानिवृतिमार्ग इति निरुक्तियुत्पत्तिरिति । तथा चोक्त श्रीमदमृत चन्द्रसूरिभिः विनाशनयोगः ] क्रम का विनाश करने वाला योग [नि तिमार्गः] मोक्ष का मार्ग द्र [इति प्ररूपितः] गंमा कहा गया है । टोका-गर्दव अपन बगहये-अपने में स्थित हा मे मनि के निश्चय आवश्यक क्रिया होती है या यहां कहा गया है। जो निश्चितरूप से विधि के अनुसार परम जिनभाग के आचरण में कान हैं सदैव अंतर्मुख परिणत होने से अन्य के वश में नहीं होते हैं किन्तु साक्षात् अपने वश में ही रहते हैं अर्थात् अपने स्वरूप में स्थित रहते हैं यहां यह अभिप्राय है। उन व्यवहारिक क्रियाओं के प्रपंच से पराङमाव हुए साधु के निज आत्मा के आश्रिन निश्चय धर्मध्यान जिसमें प्रधान है गो परमआवश्यक क्रिया होती है ऐसा निरन्तर परम तपश्चरण में लीन हुए परम जिन योगीश्वर कहते हैं क्योंकि जो त्रिगुप्ति में गुप्न परम समाधि लक्षण वाला परमयोग है वह सकल कर्म के विनाश में कारण होने से निर्वृत्ति-मुक्ति में कारण है और वही साक्षात् मोक्ष का कारण होने से निर्वत्ति-मुक्ति का मार्ग है। इमप्रकार से यहां आवश्यक शब्द की निरुक्ति अर्थात् व्युत्पनि को गई है। भावार्थ-यह निश्चय आवश्यक क्रिया वीतराग निर्विकल्प समाधि में लीन हुए ऐसे महामुनि के ही होती है वे ही परवस्तु की आधीनता को छोड़कर अपने स्वरूप के आधीन रहत हैं अन्य नहीं । उसीप्रकार श्री अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1-1-1- 4. -. नियममार ( मंदाक्रांता) "आत्मा धर्मः स्वयमिति भवन प्राप्य शुद्धोपयोग नित्यानन्दप्रसरसरसे ज्ञानतत्वे निलीय । प्राप्स्यत्युच्चरविचलतया निःप्रकम्पप्रकाशा स्फूर्जज्योतिःसहजविलसद्रत्नदीपस्य लक्ष्मीम् ।।" तथा हि ( मंदाकांता ) आत्मन्युच्चर्भवति नियतं सच्चिदानन्दमूत धर्मः साक्षात् स्ववशजनितावश्यकर्मात्मकोऽयम् । सोऽयं कर्मक्षयकरपटुर्निव तेरेकमार्ग: तेनवाहं किमपि लगा पनि शिबिशपम् ।।२३८।। श्लोकार्थ--'आत्मा शुद्धोपयोग को प्रान करके स्वयं धर्मम्प होता हुआ नित्य आनन्द के विस्तार से सरस रोमे ज्ञाननन्ध में लीन होकर अतिशयरूप अविचलपने से स्फुरायमान ज्योति से महज गोभायमान ऐसे स्नदीपक की निष्प्रकंप प्रकाशरूप गोभा को प्राप्त कर लेगा। उमीप्रकार से [ श्री पद्मप्रभमलधारी देव निश्चय आवश्यक क्रिया में अपने आपको प्रेरित करते हुए कहते हैं--- ] (२३८) श्लोकार्थ-स्ववश में होने से उत्पन्न हुआ आवश्यक क्रिया स्वरूप यह धर्म साक्षात नियम से सच्चिदानंद मूर्तिस्वरूप आत्मा में अतिशयरूप से होता है । सो यह धर्म कमां का क्षय करने में कुशल है. और निर्वाण का एक मार्ग है। इस मार्ग से ही मैं शीघ्र ही कोई एक अद्भुत ऐसे निर्विकल्प सुख को प्राप्त होता है। भावार्थ-अन्य पदार्थ के अवलम्बन से रहित होकर अपने आप जो अपनी आत्मा का अवलम्बन ले लेते हैं वास्तव में वे शीन ही आत्मा से उत्पन्न हुए सांसारिक सुख की तुलना से रहित ऐसा कोई एक विलक्षण सुख प्राप्त कर लेते हैं । १. प्रवचनसार की तत्त्व दीपिका टीका में श्लो. ५ वां पृ. २१८ । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय-परमावश्यक अधिकार, [६८७ रण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोधवा। जत्ति त्ति उवाग्रं ति य णिरवयवो होदि णिज्जुत्ती ॥१४२॥ न वशो अवशः अवशस्य कर्म वाऽवश्यकमिति बोद्धव्यम् । युक्तिरिति उपाय इति च निरवयवो भवति निरुक्तिः ।।१४२।। या जो न वश वह वश वह स्वाम्म आ थिन । उमकी क्रिया ही बग़ ब्रायश्यक समझ लो ।। यो हो है युक्ति वह मान उपाप भी है। उसने विदेह मुनि हो यह है निरुती ।। १४२।। अवशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य परमावश्यककर्मावश्यं भवतीत्यत्रोक्तम् । यो हि योगी स्वात्मपरिग्रहादन्येषां पदार्थानां वशं न गतः, अत एव अवश इत्युक्तः, अवशस्य तस्य परमजिनयोगीश्वरस्य निश्चयधर्मध्यानात्मकपरमावश्यककर्मावश्यं भवतीति बोद्धव्यम् । निरवयवस्योपायो युक्तिः । अवयवः काय:, अस्याभावात् अवयवाभावः । अवशः गाथा १४२ -- . -- .. - --- अन्वयार्थ-[नवश : अवशः] जो (अन्य ) के वश में नहीं है बह 'अवश' है [ अवशस्य कर्म वा आवश्यक ] और जो अबश का कर्भ है वह आवश्यक है [ इति बोद्धव्यं ] ऐसा जानना चाहिए [ युक्तिः इति उपायः इति च ] वही (शरीर रहिन होने की) युक्ति है और वही उपाय है [ निरवयवः भवति ] उसमे जीव निरवयबशरीर से रहित हो जाता है [निरुक्तिः] सी निक्ति है । दीका-अवश हुए परम जिनयोगीश्वर को परम आवश्यक क्रिया अवश्य होती है ऐसा यहां पर कहा है । जो योगी हैं वे स्वात्मा के परिग्रह से अतिरिक्त अन्य पदार्थों के वश में नहीं होते हैं इसीलिये वे 'अवश' इसप्रकार कहे जाते हैं, उन अबश हुये परम जिनयोगीश्वर के निश्चय धर्मध्यानरूप परम आवश्यक क्रिया अवश्य होती है ऐसा जानना चाहिये । अवयव रहित होने का उपाय युक्ति है, यहाँ अवयव का अर्थ काय है उस काय के . Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८७ ] निगमसार परद्रव्याणां निरवयवो भवतीति निरुक्तिः व्युत्पत्तिश्चेति । { मंदाक्रांता) योगी कश्चित्स्वहितनिरतः शुद्धजीवास्तिकाया अन्येषां यो न वश इति या संस्थितिः सा निरुक्तिः । तस्मादस्य प्रहतदुरितध्वान्तपुजस्य नित्यं स्फूर्जज्ज्योतिःस्फुटितसहजावस्थयामूर्तता स्यात् ।।२३६।। वट्टदि जो सो समरणो, अण्णवसो होदि असहभावरण । तम्हा तस्स दु कम्म, प्रावस्सयलक्खणं रा हवे ॥१४३।। - ---- - -----.--.----... - - . .. --..---- अभाव मे अवयव का अभाव हो जाता है। जो परद्रव्यों के वश नहीं है वे अवशसाधु निरवयय-अशरीगे हो जाते हैं. इसप्रकार से यहां पर निक्ति-व्युत्पत्ति की अब टीकाकार मुनिराज अवश योगी के माहात्म्य को बतलाते हये कहते हैं.-] (२३६) श्लोकार्थ-कोई स्वहित में तत्पर हये योगी जो कि शुद्ध जीवास्तिकाय से अतिरिक्त अन्य पदार्थों के वश नहीं है और इसप्रकार से उनकी जो सम्यक स्थिति है सो निरुक्ति है इस हेतु से जिसने पापरूपी अंधकार के पुज को नष्ट कर दिया है वे योगी नित्य ही स्फुरायमान ज्योतिरूप प्रगट हुई सहज अवस्था में अमूर्तिक हो जाते है । । भावार्थ-अपने स्वाभाविक आत्मस्वरूप में स्थित हये योगी अन्य के आश्रय से रहित होकर देहमयी मूर्ति रहित ऐसे अमूर्तिक अशरीरी सिद्ध हो जाते हैं । गाथा १४३ अन्वयार्थ-[ यः ] जो [ अशुभभावेन ] अशुभभाव से [ वर्तते ] प्रवृत्ति करता है [सः श्रमणः] वह साधु [अन्यषशः भवति] अन्य के वश होता है [तस्मात्] Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय-परमावश्यक अधिकार [ ३८६ वर्तते यः स श्रमणोऽन्यवशो भवत्यशुभभावेन । तस्मात्सस्य तु कर्मावश्यक लक्षणं न भवेत् ॥१४३।। जो भी श्रमण अशुभ भावस्वरूप वर्ते । वो अन्य के वश हुआ निश्चित समझिये ।। इस हेतु से उस समय उस साधु के तो। होता स्वरूप नहिं आवश्यक क्रिया का ।। १४३।। इह हि भेदोपचाररत्नत्रयपरिणतेर्जीवस्यावशत्वं न समस्तोत्युक्तम् । अप्रशस्तरागाधशुभभावेन यः श्रमणाभासो दलिगी वर्तते स्वस्वरूपादन्येषां परद्रव्याणां वशो भूत्वा, ततस्तस्य जघन्यरत्नत्रयपरिणतेर्जीवस्य स्वात्माश्रयनिश्चयधHध्यानलक्षणपरमावश्यककर्म न भवेदिति अशनार्थ द्रयलिंगं गृहीत्वा स्वात्मकार्यविमुखः सन् परमतपश्चरमादिकमप्युदास्य जिनेन्द्र मंदिरं वा तत्क्षेत्रवास्तुधनधान्यादिकं वा सर्वमस्मदीयमिति मनश्वकारेति । इसलिये [ तस्य तु अावश्यकलक्षणं कर्म ] उस साधु के आवश्यक लक्षण बाला कर्म [न भवेत् ] नहीं होता है । टीका-भेदोपचार रत्नत्रय से परिणत हये जीव के अवशपना नहीं होता है ऐसा यहां कथन है । है जो श्रमणाभास द्रव्यलिंगी साधु है वह अपने स्वरूप से अतिरिक्त अन्य परद्रव्यों के वश होकर अप्रशस्त राग आदि अशुभभाव से वर्तन करता है इसलिये जघन्य ननत्रय से परिणत हुए उस जीव के अपनी आत्मा के आथित निश्चय धर्मध्यान लक्षण ऐसा परम आवश्यक कर्म नहीं होता है क्योंकि वह भोजन के लिये द्रव्यलिंग को ग्रहण करके अस्वात्म कार्य से विमुख होता हुआ परम तपश्चरणादि से भी उदासीन होकर जिनेन्द्र देव के मंदिर अथवा उस संबंधी क्षेत्र, मकान, धन, धान्यादि ये सभी हमारे हैं ऐसा मन में समझ लेता है। व भावार्थ-जो द्रलिंगी साधु हैं वे जिनमंदिर, वसतिका आदि पर वस्तुओं को अपनी मानकर व्यवहार आवश्यक क्रियाओं में भी प्रमादी हो जाते हैं पुनः निश्चय Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियममार ( मालिनी) अभिनवमिदमुच्चर्मोहनीयं मुनीनां त्रिभुवनभुवनान्ततिपुंजायमानम् । तृणगृहमपि मुक्त्वा तीववैराग्यभावाद् वसतिमनुपमा तामस्मदीयां स्मरन्ति ॥२४०।। ( शार्दूलविक्रीडित ) कोपि क्वापि मुनिर्बभूव सुकृती काले कलावष्यलं मिथ्यात्वादिकलंककरहितः सद्धर्मरक्षामणिः । सोऽयं संप्रति भूतले दिवि पुनर्देवैश्च संपूज्यते मुक्तानेकपरिग्रहव्यतिकरः पापाटवीपावकः ।।२४।। आवश्यक क्रियायें तो उनसे बहुत ही दूर हैं । तथा ये निश्चय आवश्यक क्रियायें भी व्यवहार रत्नत्रय मे सहित मुनि के ही होती है न कि ब्यवहार रत्नत्रय के बिना भो। ऐसा समझकर व्यवहार रत्नत्रयरूप साधन से निश्चय को साध्य करना चाहिए। अब टीकाकार मुनिराज इस काल के मुनियों की प्रशंसा करते द्वाप नथा व्यवहार निश्चयरूप उभय धर्म में प्रेरित करते हुए पांच श्लोक कहते हैं--] (२४०) श्लोकार्थ-त्रिभुवनरूपी भवन के अन्तर्गत हुए तिमिरपुज के समान मुनियों का यह (कोई एक) नवीन तीब्रमोह कर्म है कि जिससे (पूर्व में) वे तीन वैराग्यभाव से तृण के घर को भी छोड़कर पुनः 'हमारी यह अनुपम वसति है। ऐसा स्मरण करते हैं। भावार्थ-जिन्होंने वैराग्य की उज्ज्वलता से पहले फूस की झोंपड़ी तक को छोड़ दिया पुनः यदि वे अपने या अन्य किसी वसतिका आदि में ममत्व रखते हैं तो आचार्य कहते हैं कि यह कोई अद्भुत ही उनका मोहनीय कर्म का विपाक दिख रहा है । (२४१) लोकार्थ-कलिकाल में भी कहीं कोई पुण्यशाली जीव मिथ्यात्व आदि कलंकपंक से रहित तथा सच्चे धर्म की रक्षा के लिये मणिस्वरूप ऐसे मुनि होते Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय परमावश्यक अधिकार ( शिखरिणी) तपस्या लोके स्मिनिखिलसुधियां प्राणदयिता नमस्या सा योग्या शतमखशतस्यापि सततम् । परिप्राप्यतां यः स्मरतिमिरसंसारजनितं सुखं रेमे कश्चित कलिहतोऽसौ जडमतिः ।। २४२ ।। [ ३६१ हैं। अनेक परिग्रह समूह को जिन्होंने त्याग कर दिया है और जो पापरूपी वन के लिये अग्नि के समान हैं ऐसे वे मुनिराज इस समय पृथ्वी तल पर तथा स्वर्ग में देवों से पूजे जाते हैं । भावार्थ- - आज इन दुःपसकाल में भी निर्दोष मुनि विचरण करते हैं जो कि सच्चे धर्म की रक्षा करने वाले एक मणि विशेष के सदृश हैं । जैसे कोई उत्तम जानि का हीरा गरुत्मणि आदि जीवों को भूतपिशाचों से या अन्य आपत्तियों से रक्षित करता है उसीप्रकार पंचमकाल के अंत तक जिनमासन की परम्परा को अविच्छिन्न चलाने वाले ये साधु आज भी विद्यमान हैं जो कि मनुष्यों से तो क्या देवों में भी पूजित माने गये हैं । ( २४२ ) श्लोकार्थ - इस लोक में तपस्या समस्त बुद्धिमानों को प्राणों में भी प्यारी है वह सौ इंद्रों से भी सतत् नमस्कार करने योग्य है । जो कोई इस तपस्या को प्राप्त करके कामांधकार से सहित ऐसे सांसारिक सुख में रमते हैं, बड़े खेद की बात है कि वे जड़मति कलिकाल में मारे गये हैं । श्री भावार्थ - यह जैनेन्द्र मार्ग की तपश्चर्या तीनों लोकों में सभी इंद्र नरेन्द्रों से पूज्य है, सर्वोत्तम है जो इसको प्राप्त करके - जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करके पुनः विषय सुख के लोलुपी होते हैं वे बेचारे इस कलिकाल के प्रभाव से ही नष्ट हो रहे हैं ऐसा मझना क्योंकि यदि कोई अद्भुत चितामणि रत्न को प्राप्त करके भी उसे कौवे को उड़ाने में फेंक दे पुन: सुख की आशा करे तो वह जड़ बुद्धि ही कहलावेगा । RES Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निगममार ( आर्या } अन्यवशः संसारी मुनिवेषधरोपि दुःखभाङनित्यम् । स्ववशो जीवन्मुक्तः किचिन्न्यूनो जिनेश्वरादेषः ॥२४३।। (प्रार्या ) अत एव भाति नित्यं स्वयशो जिननाथमार्गमुनिवर्गे । अन्यवशो भात्येवं भृत्यप्रकरेषु राजवल्लभवत् ॥२४४।। - -- - -- - ----- - - - - - - - - - - - - - - (२४३) श्लोकार्थ-अन्य के वदा में हये मंसारी जीव मुनि वेप बारी होते हुए भी नित्य ही दुःग्ब को भोगने वाले होते हैं और स्ववश हुए जीवन्मुक्त हैं ये जिनेश्वर से किचित् ही पुन है । भावार्थ-वास्तव में यहां पर १२ गुणस्थानवी बोतरागो ओणमोह हुए ऐमे मुनि की अवस्था विशेष का कथन है क्योंकि वे ही अंतर्मुहूर्त तक इस गुणस्थान में रहकर अंत में तीनों घानिया कर्मों को समाप्त कर जिनेश्वर होने वाले हैं वे मोह कर्म के अभाव से पूर्णतया स्ववश हो चके हैं । १२४४) श्लोकार्य-इसीलिये जिननाथ के शासन में रहने वाले मुनियों के समुदाय में वे स्ववश हुये मुनिराज नित्य ही शोभायमान होते हैं और इसप्रकार से अन्य के बश हुए मुनि नौकर के समूह में राजप्रिय नौकर के समान शोभा को नहीं पाते हैं। भावार्थ- अन्य परद्रव्यों के आश्रित हुये मुनि नौकर के समान पराधीन हैं, किंतु परद्रव्यों के संपर्क से सर्वथा पृथक् हुए ऐसे महामुनि वीतराग निर्विकल्प समाधि में लीन होते हुए स्वाधीन रहते हैं वे ही जिनशासन की शोभा को बढ़ाने वाले हैं क्योंकि वे कुछ ही काल में अहंत अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६३ निश्चय-परमावश्यक अधिकार जो चरदि संजदो खल, सहभावे सो हवेइ अण्णवसो। तम्हा तस्स दु कम्म, प्रावासयलक्खरणं ण हवे ॥१४४॥ यश्चरति संयतः खल शुभभावे स भवेदन्यवशः । तस्मात्तस्य तु कर्मावश्यकलक्षणं न भवेत् ।।१४४॥ . जो साधु नित्य शुभ मान में प्रार्ने वो अन्यवश नियम में श्रत में कहानि ।। इस हेतु से उन मुनी की जो क्रिया बो । निश्चय स्वरूप नहिं आवश्यक कहाव ॥१८। अत्राप्यन्यवशस्याशुद्धान्तरात्मजीवस्य लक्षणमभिहितम् । यः खल जिनेन्द्र वदविन्दविनिर्गतपरमाचारशास्त्रक्रमेण सदा संयतः सन् शुभोपयोगे चरति, व्यावहारिकध्यानपरिणतः अत एव चरणकरणप्रधानः, स्वाध्यायकालमवलोकयन स्वाध्यायमा करोति, दैनं दैनं भुक्त्वा भुक्त्वा चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं च करोति, तिसृष गाथा १४४ अन्वयार्थ-[यः संयतः खल शुभभावे चरति] हो संयमी मुनि निश्चित रूप शुभभाव में चर्या करता है [ सः अन्यवशः भवेत् ] वह अन्यवश होता है [तस्मात् जयतु] इसलिये उसके [आवश्यक लक्षणं कर्म] आवश्यक लक्षण क्रिया [न भवेत् ] ही होती है। टीका-यहां पर भी अन्य के वा हुए ऐसे अशुद्ध अंतरात्मा का लक्षण न जो निश्चितरूप से जिनेन्द्र भगवान् के मुखकमल से विनिर्गत ऐसे परम चारशास्त्र के क्रम से सदा संयत होते हुए शुभोपयोग में आचरण--चर्या करते हैं वे वहारिक धर्मध्यान से (ही) परिणत हैं इसी हेतु से उनके चरण और करण प्रधान वे स्वाध्यायकाल का अवलोकन करते हुए स्वाध्याय क्रिया को करते हैं, प्रतिदिन और करके चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान करते हैं। तीनों संध्याओं में भगवान् Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] नियमसार संध्यासु भगवदहत्परमेश्वरस्तुतिशतसहस्रमुखरमुखारविन्दो भवति, त्रिकालेषु च नियमपरायणः इत्यहोरात्रेऽप्येकावशक्रियातत्परः, पाक्षिकमासिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकप्रतिक मणाकर्णनसमुपजनितपरितोषरोमांचकंचुकितधर्मशरीरः, अनशनावमौदर्यरसपरित्यागत्तिपरिसंख्यानविविक्तशयनासनकायक्लेशाभिधानेषु षट्सु बाह्यतपस्सु च संततोत्साहपरायणः, स्वाध्यायध्यानशुभावरणप्रच्युतप्रत्यवस्थापनात्मकप्रायश्चित्तविनयवयावृत्त्यव्युत्सर्गनामधेयेषु चाभ्यन्तरतपोनुष्ठानेषु च कुशलबुद्धिः, किन्तु स निरपेक्षतपोषनः साक्षान्मोक्षकारणं स्वात्माश्यावश्यककर्म निश्चयतः परमात्मतत्त्वविश्रान्तिरूपं निश्चयधर्मध्यानं शुक्ल ध्यानं च न जानीते, अतः परद्रव्यगलत्वादन्यवश इत्युक्तः । अस्य हि तपश्चरण अर्हत परमेश्वर की लाखों स्तुतियों से जिनका मुखकमल मुखरित रहता है अर्थात् । तीनों संध्याओं में वे भगवान् अर्हत की अनेक प्रकार से स्तुति वेदना करते हैं । और : तीनों कालों में नियम से पारायण होते हैं इसप्रकार से अहोरात्र में भी होने वाली ग्यारह क्रियाओं में तत्पर रहते हैं । पाक्षिक, मासिक, चातुर्मासिक और वार्षिक प्रति- . क्रमण के मूनने से उत्पन्न हा सन्तोष से जिनका धर्मम्पी शरीर रोमांच से रोमांचित हो जाता है । अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश इन नाम वाले छह प्रकार के बाह्य तपों में सदैव उत्साहशील होते हैं। स्वाध्याय, ध्यान तथा शुभआचरण से च्युत होने पर उनमें पुनः स्थापनस्वरूप प्रायश्चित्त, विनय, वयावृत्य और व्युत्सर्ग इन नाम वाले छह प्रकार के अभ्यन्तर तपों के । अनुष्ठान में कुशल बुद्धि वाले हैं किन्तु वे निरपेक्ष सुपोधन साक्षात् मोक्ष के लिये । कारणभूत से अपनी आत्मा के आश्रित जो आवश्यक क्रिया है, जो कि निश्चय से परमात्मतत्व में विश्रांतिरूप धर्मध्यान और शुक्लध्यान है उसको नहीं जानते हैं अत: परद्रव्य के आधीन होने से वे अन्यवश ऐसे कहे गये हैं जिनका चित्त तपश्चरण में निरत है ऐसे ये ही अन्यवश हुए तपोधन स्वर्गलोक आदि के क्लेश की परम्परा से शुभोपयोग के फलस्वरूप ऐसे प्रशस्तरागरूपी अंगारों से सिकते हुए ( कदाचित् ) आसन्नभव्यता नामक गुण का उदय होने पर परमगुरुदेव के प्रसाद से प्राप्त हुए परम तत्त्व के श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठानरूप शुद्धनिश्चयरत्नत्रय की परिणति द्वारा निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ------ - - - निश्चय-परमावश्यक अधिकार [ ३६५ ----- - ---- ---- -- - निरतचित्तस्यान्यवशस्य नाकलोकादिक्लेशपरंपरया शुभोपयोगफलात्मभिः प्रशस्तरागांजारः पच्यमानः समासम्मभव्यतागुणोदये सति परमगुरुप्रसादासादितपरमतत्त्वश्रद्धानपरिमानानुष्ठानात्मकशुद्धनिश्चयरत्नत्रयपरिणत्या निर्वाणमुपयातीति । -- -...- - विशेषार्थ--टीकाकार कहते हैं कि यहां पर अशुद्ध अंतरात्मा का कथन है । वास्तव में अंतरात्मा के जघन्य, मध्यम और उत्तम के भेद से तीन भेद हैं। 'अविरत सम्यग्दष्टि जघन्य अंतरात्मा हैं, देशवती से लेकर उपशांतकषाय नामक ग्यान्हवं गुणअयान तक मध्यम अंतरात्मा हैं एवं क्षीणमोह नामक बारहवे गुणस्थानवती उत्तम तरात्मा' हैं ।" यहां मोझकर्म से सर्वथा रहित ये उत्तम अंतरात्मा ही गद्ध अंतरात्मा में शेष अशुद्ध अन्तरात्मा हैं। ये साधु पूर्व में नरण करण में प्रधान रहते हैं अर्थात संचमहात्रत, पंचसमिति और तीन गुप्ति ये तेरह प्रकार के चार चरण हैं। पंचपरमेष्ठी की स्तुति, छह आवश्यक क्रिया, असही और नि सही में तेरह क्रियाय करण कहलाती हैं। यहां पर संयमी की अहोगत्र संबंधी ग्यारह क्रियाओं को कहा है। उसका पष्टीकरण ऐसा है कि साधु के अहोरात्र में देव सक और रात्रिक ऐसे दो प्रतिक्रमण, सोनों संध्या कालों में तीन बार देववंदना, पौर्वाण्हिक, अपराहिक, पूर्वरात्रिक, अपरत्रिक ऐसे चार स्वाध्याय तथा रात्रियोग प्रतिष्ठापन और निष्ठापन ये 12 क्रियायें की जाती हैं जो कि अवश्य करणीय हैं । इन ग्यारह क्रिया सम्बन्धी अट्ठाईस कायोत्सर्ग जाते हैं । यथा-दो प्रतिक्रमण के आठ, तीन देववंदना के छह, चार स्वाध्याय के घरह, तथा रात्रियोग प्रतिष्ठापन-निष्ठापन संबंधी दो ऐसे ८+६+ १२२-२८ होते । यहां टीकाकार ने यह स्पष्ट किया है कि जो माधु आचारांग के आधार से आचार वों द्वारा कथित क्रियाओं में परिपूर्णतया निष्णात होते हैं वे निश्चय आवश्यक क्रिया करने में समर्थ हो सकते हैं अन्य नहीं । तथा जब तक वे निश्चयधर्मध्यान या शुक्लमान तक नहीं पहुंचे हैं तब तक वे अन्य वश ही हैं जब उस आवश्यक को प्राप्त हये १. मिस्सोत्ति बाहिरप्पा तरतमया तुरिया अंतरप्प जहण्णा । मत्तोत्ति मज्झिमंतर खीणुत्तर परमजिण सिद्धा ।।१२६।। कुन्दकुन्ददेव । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार (हरिगी) त्याग सुरलोकामिगले.सी मुनिमको भजतु परमानन्दं निर्वाणकारणकारणम् । सकलविमलज्ञानावासं निरावरणात्मकं सहजपरमात्मानं दूरं नयानय संहतेः ॥२४५॥ दव्वगुणपज्जयारणं, चित्तं जो कुरणइ सो वि अण्णवसो। मोहान्धयारबवगयसमरणा कहयंति एरिसयं ।।१४५॥ द्रव्यगुणपर्यायाणां चित्तं यः करोति सोप्यन्यवशः । मोहान्धकारव्यपगतश्रमणाः कथयन्तीदृशम् ११४५।। जी द्रव्य और गुगा पर्यय भेद को भी । चित्त में धरे वह मूनी भी अन्य वश है ।। मोहान्धकार बिरहित ऋषि भाषते यो । क्योंकी विकल्प विरहित नहिं ध्यान उसके ।। १४५।। स्ववश हो जाते हैं अर्थात् वारहवें गुणस्थान में पहुंच जाते हैं तब उन्हें केवलज्ञान और निर्वाण प्राप्त करने में देरी नहीं लगती है । (२४५) श्लोकार्थ--मुनि पुङ्गव-श्रेष्ठ मुनिजन सुरलोक आदि के क्लेश में रति को छोड़ो और परमानंदमय निर्वाण के कारण का कारण, सकल विमल केवल ज्ञान का निवास गृह, आवरण रहित सुनय और कुनय समूह से दूर ऐसे सहज परमात्मा को भजो-आश्रय लेवो । गाथा १४५ अन्वयार्थ-[ द्रव्यगुणपर्यायाणां ] द्रव्य गुण और पर्यायों में [ यः ] जो [ चित्तं करोति ] चित्त को लगाता है [ सः अपि अन्यवशः ] वह भी अन्यवश है [ मोहान्धकार ध्यपगत श्रमणाः ] मोहान्धकार से रहित श्रमण [ ईदृशं कथयति ] ऐसा कहते हैं । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय परमावश्यक अधिकार [ ३६७ अत्राप्यन्यवशस्य स्वरूपमुक्तम् । यः कश्चित् द्रव्यगधारी भगवबर्हन्मुखारविन्दविनिर्गतमूलोत्तरपदार्थसार्थप्रतिपादन समर्थः क्वचित् षण्णां द्रव्याणां मध्ये चित्तं धत्ते, क्वचित्तेषां मूर्तीमूर्तचेतनाचेतनगुणानां मध्ये मनश्चकार, पुनस्तेषामर्थ व्यंजनपर्यावारणांमध्ये बुद्धि करोति, अपि तु त्रिकालनिरावरणनित्यानंदलक्षणनिजका रणसमयसारस्वरूपतिरत सहजज्ञानादिशुद्धगुणपर्यायाणामाधारभूतनिजात्मतत्त्वे चित्तं कदाचिदपि न योजयति, अत एव स तपोधनोऽप्यन्यवश इत्युक्तः । प्रध्वस्तदर्शनचारित्र मोहनीय कर्मध्वांतसंघाताः परमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नवोतरासुखामृतपानोन्मुखाः श्रवणा हि महाश्रवणाः परमश्रुतकेवलितः, ते खलु कथयन्तीदृशम् अन्य वशस्य स्वरूपमिति । टीका-हां पर भी अन्य मुनि का स्वरूप कहा है जो कोई द्रव्यलिंगबारी मुनि भगवान् अर्हत के मुखकमल से निकले हुए मूल और उत्तर पदार्थ को अर्थ सहित प्रतिपादन करने में समर्थ हैं वे कभी छह द्रव्यों के मध्य में से किसी में मन लगाते हैं, कभी अनेक मूर्तिक- अमूर्तिक, चेतन और अचेतन गुणों में से किसी में मन लगाते हैं । पुनः उनकी अर्थ और व्यंजन पर्यायों में से किसी में बुद्धि को करते हैं. किन्तु त्रिकाल, निरावरण, नित्यानंदमय निजकारण समयसार के स्वरूप में लीन हुए महज ज्ञानादि शुद्ध गुण और शुद्ध पर्यायों के आधारभूत ऐसे निज आत्मतत्त्व में चित्त को कदाचित् भी नहीं लगाते हैं इसी हेतु से वे तपोधन भी 'अन्य' इसप्रकार से कहे गये हैं । जिन्होंने तमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मरूप अंधकार समूह को ध्वस्त कर दिया है ऐसे परमात्मतत्त्व की भावना से उत्पन्न हुये वीतराग सुखामृत के पीने में तत्पर श्रमण ही वास्तव में महाश्रमण श्रुतकेवली कहलाते हैं वे निश्चितरूप से अन्यवश के ऐसे स्वरूप को कहते हैं । भावार्थ - पूर्व गाथा में भावलिंगी ऐसे व्यवहार चारित्र में कुशल छठे गुण वर्ती को अन्यवश कह दिया है यहां पर द्रव्यलिंगी मुनि को भी अन्यवश कह दिया | मिथ्यादृष्टि से लेकर पंचम गुणस्थान तक के जीव भी द्रव्यलिंगी कहलाते हैं । ...... Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] नियममार तथा चोक्तम्-- ( अनुष्टुभ् ) "आत्मकार्य परित्या माद विशमा ।। . यतीनां ब्रह्मनिष्ठानां किं तया परिचिन्तया ॥" तथा हि ( अनुष्टुभ् ) यावच्चिन्तास्ति जन्तूनां तावद्भवति संसृतिः । यथेधनसनाथस्य स्वाहानाथस्य वर्द्धनम् ॥२४६।। परिचत्ता परभावं, अप्पाणं झादि रिणम्मलसहावं । अप्पवसो सो होदि हु, तस्सदु कम्मं भरणंति आवासं ॥१४६॥ - - - - - - भव्य जीव द्रलिंगधारी होते हुए उसी भव में या आगे के भव में संस्कार की विशेषता चारित्र को धारण कर भी बन सकते हैं किन्तु जो अभव्य जीव मिथ्यात्व गुणस्थानवी ही रहते हैं फिर भी वे इस द्रव्यचारित्र के प्रसाद से नववेयक तक भी चले जाते हैं। उसीप्रकार से कहा भी है श्लोकार्थ-"आत्मकार्य को छोड़कर प्रत्यक्ष और परोक्ष से विरुद्ध ऐसी उस चिता से आत्मा के स्वरूप में लीन हुये यतिबों को क्या प्रयोजन है ?" (२४६) श्लोकार्थ-जीवों को जब तक चिंता है तभी तक संसार है जैसे ईंधन सहित, स्वाहानाथ-अग्नि की वृद्धि ही होती है । भावार्थ-अग्नि में ईंधन के डालते रहने से वह बढ़ती ही है उसीप्रकार से चिता से संसार की वृद्धि ही होती है । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय-परमावश्यक अधिकार [ ३६६ परित्यज्य परभावं आत्मानं ध्यायति निर्मलस्वभावम् । प्रात्मयशः स भवति खलु तस्य तु कर्म भणन्त्यावश्यम् ।।१४६।। जो साधु सर्व पर भाव सुत्याग करके । निर्मल स्वभाव निज आतम तत्त्व ध्याते ।। वे आत्मवश नियम से जग में कहाले । उनका हो कर्म प्रावश्यक नाम पाता ।।१४६।। अत्र हि साक्षात् स्ववशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य स्वरूपमुक्तम् यस्तु निरुपरा- गनिरंजनस्वभावत्यादौदयिकादिपरभावानां समुदयं परित्यज्य कायकरणवाचामगोचरं _ सदा निरावरणत्वान्निर्मलस्वभावं निखिलदुरधवीरवैरिवाहिनीपताकालुण्टाक निजकारण परमात्मानं ध्यायति स एवात्मवश इत्युक्तः । तस्याभेदानुपचाररत्नत्रयात्मकस्य निखिलबाह्यक्रियाकांडाडंबर विविधविकल्पमहाकोलाहलप्रतिपक्षमहानंदानंदप्रदनिश्चयधर्मशुक्ल - ध्यानात्मकपरमावश्यककम भवतीति । - -- --.. -.... गाथा १४६ ___ अन्वयार्थ— [ परभावं परित्यक्त्वा ] परभाव को छोड़कर [ निर्मलस्वभावं प्रात्मानं ] निर्मल स्वभावी आत्मा का [ ध्यायति ] जो ध्यान करता है [ सः खलु प्रात्मवशः भवति ] वह निश्चित रूप से आत्मवश होता है, [ तस्य तु कर्म आवश्यं ] । उसकी क्रिया को आवश्यक [भणंति] कहते हैं । । टीका-यहां पर साक्षात् स्ववश हुये ऐसे परम जिनयोगीश्यर का स्वरूप __जो रागरहित निरंजन स्वभाव होने से औदयिक आदि पर भावों के समुदाय का त्याग करके शरीर, इंद्रिय और वचनों के अगोचर सदा निरावरणरूप होने से निर्मल स्वभाव, समस्त दुष्ट पापरूपी बीर वैरी की सेना की पताका को हरण करने बाले ऐसे निजकारण परमात्मा का ध्यान करता है वही साधू 'आत्मवश' ऐसा कहा गया है। उस अभेद अनुपचार रत्नत्रयस्वरूप साधु के निखिल बाह्य क्रियाकांड के Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० 1 नियममार - - - - - . -- ( पृथ्वी ) जयत्ययमुबारधीः स्ववशयोगिवृन्दारकः प्रनष्टभवकारणः प्रहतपूर्वकर्मावलिः । कदितः स्फुटितशुद्धबोधात्मिकां सदाशिवमयों मुवा प्रति सर्वथा निर्वृतिम् ।।२४७॥ ( अनुष्टुभ् ) प्रध्वस्तपंचबाणस्य पंचाचारांचिताकृतेः । अवंचकगुरोर्वाक्यं कारणं मुक्तिसंपदः ।।२४८।। -.- ---- - .. . . . ... -. ---.. --. आइम्बर के विविध विकल्परूप जो महाकोलाहल है उसके प्रतिपक्षरूप महान् आनंदानंद को प्रदान करने वाली ऐसी निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान स्वरूप परमआवश्यक क्रिया होती है। [अब टीकाकार श्री मुनिराज स्ववश मुनियों की प्रशंसा करते हुए आठ प्रलोक कहते हैं-] (२४७) श्लोकार्थ-जिन्होंने संसार के कारण को नष्ट कर दिया है तथा जो पूर्व में संचित ऐसे कर्मसमह को नष्ट करने वाले हैं ऐसे में उदार वृद्धि वालं स्ववश हये योगिपुगव जयशील हो रहे हैं। वे स्पष्टरूप उत्कट विवेक से प्रगटित शुद्धज्ञान स्वरूप, सदा शिव मय ऐसी मुक्ति को हर्षपूर्वक सर्वथा प्राप्त कर लेते हैं । भावार्थ--यहां पर स्ववश हये मनि की जो अवस्था बतलाई है उसके प्रसाद से वे शीघ्र ही घानिया कर्मों से रहित होकर निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं। (२४८) श्लोकार्थ-जिन्होंने पांच बाणों से सहित ऐसे कामदेव को ध्वस्त कर दिया है जो पांच आचारों से सहित पूज्य आकृति वाले हैं ऐसे अवंचक गुरु के वचन मुक्ति संपदा के कारणभूत हैं। भावार्थ-दर्शनाचार, ज्ञानाचार आदि पांच आचार रूप ही है आकार जिनका ऐसे वे पंचाचार परिणत साधुजन किसी की वंचना नहीं करते हैं इसलिये इनके पूर्ण विश्वस्त गुरुदेव के वचन निर्वाण के कारण माने गये हैं । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय-परमावश्यक अधिकार [ ४०१ ( अनुष्टुभ्) इत्थं बुद्ध्या जिनेन्द्रस्य मार्ग निर्वाणकारणम् । निर्वागसंपदं याति यस्तं धंदे पुनः पुनः ॥२४६।। (द्रुतविलंबित) स्ववशयोगिनिकायविशेषक प्रहतचारवधूकनकस्पृह । त्वमसि नशर भयकान स्मरकिरातशरक्षतचेतसाम् ।।२५७ ।। (द्रुतविलंबित ) अनशनादितपश्चरण: फलं तनुविशोषरणमेव न चापरम् । तव पदांबुरुहद्वचितया स्थवश जन्म सदा सफलं मम ।।२५।। .-.-:. .-.-... । (२४६ ) श्लोकार्थ—जिनेन्द्रदेव का मार्ग निर्वाण का कारण है. एसा जानकर -जो मुनि निर्वाण संपत्ति को प्राप्त कर लेते हैं उनको मैं पुनः पुनः वंदना करता हूं। E (२५०) श्लोकार्थ-जिसने सुन्दर कामिनी और कनक से स्पृहा को नष्ट E कर दिया है ऐसे स्ववश योगी समूह में तिलक स्वरूप हे योगिराज ! कामदेवरूपी भील के बाणों से क्षत चित्त वाले ऐसे हम लोगों को इस भव वन में आप ही शरण हैं। (२५१) श्लोकार्थ-~-अनशन आदि तपश्चरणों के द्वारा होने वाला फल शरीर शोषण मात्र ही है अन्य कुछ नहीं है । हे स्ववश मुनिराज ! आपके चरण कमल युगल की चिंता से ही सदा मेरा जन्म सफल है । भावार्थ-अनशन अवमौदर्य आदि तपश्चरणों के फल की यहां अवहेलना की से, ऐसा प्रतीत होता है किंतु ऐसी बात नहीं है क्योंकि अन्यत्र ग्रंथों में इन तपश्वरणों में अत्यधिक कर्मों को निर्जरा मानी है लपश्चरण के बिना भी पूर्णतया कर्मों की निर्जरा श्रीना असम्भव है। श्री समंतभद्र स्वामी ने कहा है कि Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ ] नियमसार ( मालिनी ) जयति सहजतेजोराशिनिर्मग्नलोक: स्वरसविसरपूरक्षालितांहाः समंतात् । सहज समरसेना पूर्णपुण्यः पुराणः स्ववशमनसि नित्यं संस्थितः शुद्धसिद्धः ॥ २५२॥ ( अनुष्टुभ् ) सर्वज्ञवीतरागस्य स्ववशस्यास्य योगिनः । न कामपि भिदां क्वापि तां विद्यो हा जडा त्रयम् ।। २५३ || "हे भगवन् ! आपने' आध्यात्मिक तप की वृद्धि के लिये परम दुश्चर ऐसे बाह्य तपश्चरण को किया था " । इसलिये यहां एकांत नहीं समझना, तत्वज्ञान शून्य तपश्चरण ही मात्र ऐसा है जो मुक्ति को प्राप्त कराने में असमर्थ है। फिर भी यह निर्दोष तपश्चरण मात्र द्रव्यलिंगी मुनि को नवग्रैवेयक तक भी पहुंचा देता है । तथा इससे लौकिक अभ्युदय फल भी मिलते हैं । अतः यहां सर्वथा तपश्चरण का निषेध नहीं है प्रत्युत गुरु भक्ति से गुरुओं के चरणों उपासना का ही महत्त्व स्पष्ट है । की ( २५२ ) श्लोकार्थ - सहज तेज की हो रहा है, जो कि सब ओर से निजरस के सहज समरस के द्वारा परिपूर्ण भरे हुये होने से स्ववश हुए योगी के मन में नित्य ही विराजमान है और शुद्ध सिद्ध है । राशि में डूबा हुआ लोकजीव जयशील विस्तार के पूर से पाप को धो चुका है, पुण्य - पवित्र है, पुराण- सनातन है, ( २५३ ) श्लोकार्थ - सर्वज्ञवीतराग में और स्वात्माधीन इन योगियों में कभी कुछ भी भेद नहीं है, किंतु अहो ! खेद की बात है कि हम जड़ बुद्धि उनमें भेद मानते हैं । भावार्थ - - शुद्ध निश्चयनय से प्रत्येक संसारी आत्मा और परमात्मा सिद्धों में कोई अंतर नहीं है, यह अंतर मात्र व्यवहारनय से ही है। किंतु यहां पर तो स्ववश १ "बाह्य तपः परमदुश्च रमाचरंस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिवृ हणार्थम् ।" [ स्वयंभूस्तोत्र ] Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय-परमावश्यक अधिकार [४०३ ---- - -. . . .- -.-.-- ( अनुष्टुभ् ) एक एव सदा घन्यो जन्मन्यस्मिन्महामुनिः । स्ववशः सर्वकर्मभ्यो बहिस्तिष्ठत्यनन्यधीः ।।२५४॥ प्रावासं जइ इच्छसि, अप्पसहावेसु करयदि थिरभाव । तेण दु सामण्णगुणं, संपुष्णं होवि जीवस्स ॥१४७॥ आवश्यकं यदीच्छसि आत्मस्वभावेषु करोषि स्थिरभाषम् । तेन तु सामायिकगुणं सम्पूर्ण भवति जीवस्य ।।१४७।। भो साधु ! आप आवश्यक चाहते यदि । आत्म स्वभाव उसमें स्थिर भाव धारो ।। उससे हि जीव गुण तो, परिपूर्ण होता। सावध हीन सामायिक नाम का जो ॥१४७।। ..- पोगी बारहवें गुणस्थान में स्थित हैं अन्तर्मुहूर्त में ही शेष तीन घातिया को भी समाप्त करके सर्वज्ञ वीतराग होने वाले हैं। उसके पहले वीतरागी तो हो ही चुके हैं निग्रंथ । संज्ञा भी वहीं पर सार्थक है इसलिये सर्वज्ञ में और इनमें भेद मानना अज्ञान ही है । । (२५४) श्लोकार्थ-इस जन्म-संसार में स्ववश महामुनि ही एक सदा धन्य हैं जो कि अन्य में उपयोग से रहित ऐसे अनन्यबुद्धि वाले होते हुए सभी कर्मों से बाहर स्थित हैं। भावार्थ-वास्तव में वे ही इस संसार में धन्यवाद के पात्र हैं कि जो श्रीतराग निर्विकल्प ध्यान में अपने उपयोग को स्थिर कर चके हैं। उनसे सभी कर्म अपने आप पृथक् हो जाते हैं। उनका उपयोग अन्य तरफ न होने से वे अनन्यधी कहलाते हैं। गाथा १४७ अन्वयार्थ-[यदि आवश्यकं इच्छसि] यदि तुम आवश्यक को चाहते हो तो [आत्मस्वभावेषु स्थिरभावं करोषि ] आत्मा के स्वभावों में स्थिर भाव करो [तेन तु] । उसीसे [ जोवस्य ] जीव का [ सामायिकगुणं संपूर्ण भवति ] सामायिक गुण संपूर्ण होता है। - -- .--. .. - Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ] नियममार शुद्धनिश्चयावश्यकप्राप्त्युपायस्वरूपाख्यानमेतत् । इह हि बाह्यषडावश्यकप्रपंचकल्लोलिनीकलकलवानश्रवणपराङ मुख हे शिष्य शुद्धनिश्चयधर्मशुक्लध्यानात्मकस्वात्माश्रयावश्यकं संसारव्रततिमूललवित्रं यदीच्छसि, समस्तविकल्पजालविनिमुक्तनिरंजननिजपरमात्मभावेषु सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजसुखप्रमुखेषु सततनिश्चलस्थिरभावं करोषि, तेन हेतुना निश्चयसामायिकगुणे जाते मुमुक्षोर्जीवस्य बाह्यषडावश्यककियाभिः किं जातम् अप्यनुपादेयं फलमित्यर्थः । अतः परमावश्यकेन निष्क्रियेण अपुनर्भवपुरन्ध्रिकासंभोगहासप्रवीणेन जीवस्य सामायिकचारित्रं सम्पूर्ण भवतीति । तथा चोक्त श्रीयोगीन्द्रदेवैः मालिनी ) 'यदि चलति कथंचिन्मानसं स्वस्वरूपाद् भ्रमति बहिरतस्ते सर्वदोषप्रसंगः । टीका-पद्धनिश्चय आयमका की रितु के उप यह कथन है। बाह्य पट् आवश्यक प्रपंच रूपी नही की कल-कल ध्वनि के सुनने से पराङमुख हे शिष्य ! यदि तुम संसाररूपी वेल के मल को काटने में कुठार सदश, ऐसी शुद्धनिश्चय धर्मध्यान और शुअलध्यानरुप म्यागाश्रित आवश्यक क्रिया को चाहते हो, तो सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजचारित्र और सहजसुख ये चतुष्टय प्रमुख हैं जिसमें ऐसे समस्त विकल्प जालों से रहित निरंजन स्व.प अपने परमात्म भावों में सतत निश्चल स्थिर भाव करो इस हेतु से निश्चय सामायिक गुण के हो जाने पर मुमुक्षु जीव को [मात्र] बाह्य षट् आवश्यक क्रियाओं से क्या होगा ? अर्थात् अनुपादेय फल ही होगा उपादेयभूत परमात्म तत्त्व नहीं प्राप्त होगा वह अर्थ हुआ। इसलिए मुक्तिरूपी सुन्दरी के संभोग और हास्य को प्राप्त कराने में कदाल ऐसे निष्क्रिय-निश्चय परम आवश्यक के द्वारा जीव का सामायिक चारित्र गंपूर्ण होता है । इसीप्रकार स श्री योगीन्द्रदेव ने भी कहा है "श्लोकार्थ-'यदि किसी प्रकार से तुम्हारा मन अपने स्वरूप से चलित होता है और बाहर घूमता है तो तुम्हें मभी दोषों का प्रसंग होगा। इसलिए तुम हमेशा १. अमृताशोति, श्लोक ६४ । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय परमावश्यक अधिकार ४०५ तदनवरतमंतर्मग्नसंविग्नचित्तो भव भवसि भवान्तस्थायिधामाधिपस्त्वम् ।।" तथा हि (शार्दूलविक्रीडित ) यद्येवं चरणं निजात्मनियतं संसारदुःखापहं मुक्तिश्रीललनासमुद्भवसुखस्योच्चरिदं कारणम् । बुद्ध्येत्थं समयस्य सारमनघं जानाति यः सर्वदा सोयं त्यक्तबहिःक्रियो मुनिपतिः पापाटबीपावकः ।।२५५।। आवासएण होणो, पन्भट्ठो होदि चरणदो समणो । पुव्वुत्तकमेण पुणो, तम्हा आवासयं कुज्जा ॥१४८॥ आवश्यकेन होनः प्रभ्रष्टो भवति चरणतः श्रमणः । पूर्वोक्तक्रमेण पुनः तस्मादावश्यक कुर्यात् ।।१४८।। .-- -- -. . .- - ..अंतर्मग्न ऐसे संवेग पूर्ण चित्त सहित हो जावी. कि जिससे तुम भवके अन्तरूपी ऐसे स्थायी धाम के अधिपति हो जावोगे ।" । उसीप्रकार से [टीकाकार मुनिराज निश्चयचारित्र के महत्त्व को कहते हैं-] {२५५) श्लोकार्थ- यदि इसप्रकार मंसार के दुःखों को दूर करने वाला और आत्मा में ही नियम से निश्चित ऐमा चारित्र हो तो यह मुक्ति लक्ष्मीरूपी रमणी से उत्पन्न होने वाले सुख का अतिशयरूप में कारण है । ऐसा समझकर जो मुनिनाथ समय-आत्मा के निर्दोष सार को सदा जानते हैं, सो वे बाह्य क्रियाओं से रहित हुए वापरूपी वनी को भस्मसात् करने के लिए अग्निस्वरूप होते हैं। गाथा १४८ अन्वयार्थ-[ आवश्य केन हीनः ] आवश्यक से हीन [ श्रमणः ] श्रमण चरणतः प्रभ्रष्टः भवति ] चारित्र से भ्रष्ट होते हैं, [ तस्मात् पुनः ] पुनः इसलिए Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियममार जो साधु हीन आवश्यक की क्रिया से । चारित्र से वह मुनी सच भ्रष्ट ही है ।। पूर्वोक्त क्रम समझ के इस ही लिये तो। व्यवहार निश्चय क्रिया षट् नित्य पालो ।।१४८।। अत्र शुद्धोपयोगाभिमुखस्य शिक्षणमुक्तम् । अत्र व्यवहारनयेनापि समतास्तुतिवंदनाप्रत्याख्यानादिषडावश्यकपरिहीणः श्रमणश्चारित्रपरिभ्रष्ट इति यावत्, शुद्धनिश्चयेन परमाध्यात्मभाषयोक्तनिर्विकल्पसमाधिस्वरूपपरमावश्यक्रियापरिहोणश्रमणो निश्चयचारित्रभ्रष्ट इत्यर्थः । पूर्वोक्तस्ववशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य निश्चयावश्यकक्रमेण स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानस्वरूपेण सदावश्यकं करोतु परममुनिरिति ।। [ पूर्वोक्तक्रमेण ] पूर्वकथित क्रम से [ आवश्यकं कुर्यात् ] आवश्यक क्रिया करना चाहिए। टोका-यहां पर शुद्धोपयोग के अभिमुख हुए मुनि को शिक्षा कहीं है। यहां पर यह बताया है कि व्यवहारनय से भी समता स्तुति, वंदना, प्रत्याख्यान आदि षट् आवश्यक क्रियाओं से हीन हआ श्रमण चारित्र से परिभ्रष्ट है । और शुद्धनिश्चयनय से परम अध्यात्म भाषा से कथित ऐसी निर्विकल्प समाधिस्वरूप परमावश्यक क्रिया से हीन हुआ श्रमण निश्चयचारित्र से भ्रष्ट है ऐसा अर्थ है । अतः पूर्वोक्तस्ववश हुए परमजिनयोगीश्वर का जो निश्चय आवश्यक का क्रम है जो कि स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यान और शुक्लध्यानस्वरूप है उसी क्रम से परममुनि सदा आवश्यक क्रिया को करो। भावार्थ-यहां पर टीकाकार ने स्पष्ट कह दिया है कि जो साधु व्यवहार क्रियाओं से शून्य हैं, वे चारित्र से ही भ्रष्ट हैं । पुनः उनके निश्चय क्रिया तो बहुत ही दूर है किंतु जो निश्चय को साध्य समझते हुए व्यवहार क्रियाओं में प्रवृत्ति करते हैं जब तक निश्चय को प्रारत नहीं कर लेते हैं तभी तक उसे उपादेयभूत समझते हैं वे ही साधु व्यवहार में निष्पन्न होते हुए एक दिन निश्चय को अवश्य ही प्राप्त कर लेते हैं। [ अब टीकाकार मुनिराज निश्चय क्रियाओं के महत्त्व को दो श्लोकों से कहते हैं Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय परमावश्यक अधिकार ( मंदाक्रांता ) श्रात्मावश्यं सहजपरमावश्यकं चेकमेकं फर्यादुच्चैरघकुत्रं ि सोऽयं नित्यं स्वरसविसरापूर्ण पुण्यः पुराणः वाचां दूरं किमपि सहजं शाश्वतं शं प्रयाति ।। २५६ ॥ ( अनुष्टुभ् ) स्ववशस्य मुनीन्द्रस्य स्वात्मचिन्तनमुत्तमम् । इदं चावश्यकं कर्म स्यान्मूलं मुक्तिशर्मणः ॥ २५७ ॥ श्रावासएण जुत्तो, समरणो सो होदि अंतरंगप्पा | श्रावासय परिहोणो, समरणो सो होदि बहिरप्पा ॥१४६॥ आवश्यकेन युक्तः श्रमणः स भवत्यंतरंगात्मा | आवश्यकपरिहीणः श्रमणः स भवति बहिरात्मा ॥ १४६ ॥ [ ४०७ ( २५६ ) श्लोकार्थ - आत्मा अवश्य ही गावकुल की नायक और निर्वाण के मूलभूत ऐसी केवल एक सहज परमावश्यक क्रिया को ही अतिशयरूप से करे । यही स्वरस - अपने अनुभव के विस्तार से परिपूर्ण भरित पुण्यस्वरूप और पुराण सो वह आत्मा वचनों के अगोचर कोई एक अद्भुत सहज और शाश्वत सुख को कर लेगा । ( २५७ ) श्लोकार्थ - - स्ववश मुनीन्द्र का वह उत्तम स्वात्म चिंतन ही श्यक कर्म है जो कि मुक्तिसुख का मूल है । भावार्थ -- शुद्धोपयोगी मुनि के जो अपनी आत्मा के स्वरूप का ध्यान होता 'आवश्यक क्रिया है तथा मुक्ति का मूल कारण कहा गया है । गाथा १४६ अन्वयार्थ -- [ श्रावश्यकेन युक्तः ] आवश्यक से सहित [ श्रमणः ] श्रमण है [ वह [ अन्तरंगात्मा ] अंतर आत्मा है और जो [आवश्यकपरिहीणः ] आवश्यक Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ | नियमसार जो साधु नित्य आवश्यक युक्त होता | वोही अवश्य मुनि अन्तर आत्मा है ।। जो शून्य है श्रमण आवश्यक क्रिया से । उसको कहें यतिपती बहिरातमा ही ||१४६ ।। अनावश्यक कर्माभावे तपोधनो बहिरात्मा भवतीत्युक्तः । अभेदानुपचाररत्रयात्मकस्वात्मानुष्ठाननियतपरमावश्यक कर्मणानवरत संयुक्तः स्ववशाभिधानपरमश्रमणः सर्वोत्कृष्टोऽन्तरात्मा, षोडशकषायाणामभावादयं क्षीणमोहपदत्रों परिप्राप्य स्थितो महात्मा । श्रसंयतसम्यग्दृष्टिर्जघन्यांतरात्मा । अनयोर्मध्यमाः सर्वे मध्यमान्तरात्मानः । निश्चयव्यवहारनयद्वयप्रणीतपरमावश्यकक्रियाविहीनो बहिरात्मेति । उक्त च मार्गप्रकाशे - ( अनुष्टुभ् ) "बहिरात्मान्तरात्मेति स्यादन्यसमयोद्विधा । बहिरात्मानयोर्देहकर खाद्य तितात्मधीः ॥ " से रहित [ श्रमरणः ] श्रमण है [स] वह [ हिरा भवति ] बहिरात्मा होता है । टीका - आवश्यक क्रिया के अभाव में तपोधन बहिरात्मा होता है, ऐसा यहां पर कहा है । अभेद अनुपचार रत्नत्रय स्वरूप अपनी आत्मा के अनुष्ठान में निश्चितरूप परमावश्यक क्रिया से हमेशा संयुक्त 'स्ववश' इस नाम वाले परमश्रमण सर्वोत्कृष्ट अंतरात्मा है, क्योंकि सोलह कषायों के अभाव से ये क्षीण मोह पदवी को प्राप्त बारहवें गुणस्थान में स्थित हुए महात्मा हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि जीव जघन्य अन्तरात्मा हैं और इन दोनों के मध्य में रहने वाले सभी मध्यम अन्तरात्मा हैं । तथा निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों से प्रणीत परम आवश्यक क्रियाओं से रहित जीव बहिरात्मा हैं । इसीप्रकार से मार्गप्रकाश में भी कहा है " श्लोकार्थ - अन्य समय - परसमय के बहिरात्मा और अन्तरात्मा ऐसे दो प्रकार होते हैं । इन दोनों में से जो देह् इंद्रिय, आदि में उत्पन्न हुई आत्म बुद्धि वाला है वह बहिरात्मा है ।" Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा हि निश्चय परमावश्यक अधिकार ( अनुष्टुभ् ) “जघन्यमध्यमोत्कृष्ट भेदादविरतः सुदृक् । प्रथमः क्षीणमोहोऽन्त्यो मध्यमो मध्यमस्तयोः ।। " | ४०६ ( मंदाक्रांता ) योगी नित्यं सहपरमावश्यक कर्मप्रयुक्तः संसारोत्थप्रबलसुखदुःखाटवीदूरवर्ती । तस्मात्सोऽयं भवति नितरामन्तरात्मात्मनिष्ठः । स्वात्मभ्रष्टो भवति बहिरात्मा बहिस्तत्वनिष्ठः ।। २५८ ।। " श्लोकार्थ -- जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से अंतरात्मा के तीन भेद । उसमें से अविरत सम्यग्दृष्टि जीव प्रथम - जघन्य अन्तरात्मा हैं, क्षीणमोह जीव अिन्त्य - उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं और इन दोनों के मध्य में रहने वाले मध्यम अन्तरात्मा हैं ।" រ៉ विशेषार्थी कुंदकुंद देव अन्यत्र ग्रंथ में कहते हैं कि बहिगत्मा और विन्तरात्मा परसमय हैं और परमात्मा को स्वसमय कहा है। इनके भेदों को तुम गुणस्थान में समझो । मिश्र गुणस्थान पर्यंत बहिरात्मा हैं, चतुर्थं गुणवर्ती जघन्य अंतरात्मा है। पंचमगुणस्थान से लेकर ग्यारहवे गुणस्थान तक तरतमता से मध्यम अंतरात्मा हैं, क्षीणकषाय वाले बारहवे गुणस्थानवर्ती उत्तम अंतर आत्मा हैं और तेरहवं चौदहवें गुणस्वानवर्ती जिन तथा सिद्ध भगवान् परमात्मा हैं। यहां मार्ग प्रकाश में जो अन्य समय है जिसका अर्थ परसमय है तथा स्वसमय से परमात्मा को ग्रहण किया है ऐसा समझना । उसीप्रकार से - [ टीकाकार मुनिराज अध्यात्म भाषा से बहिरात्मा और उतरात्मा के लक्षण को कहते हैं- | ( २५८ ) श्लोकार्थ - - जो योगी नित्य ही सहज परमावश्यक क्रिया का योग करता हुआ, संसार में उत्पन्न हुये प्रबल सुख-दुःखरूपी बनी के दूरवर्ती होता १. ररणसार गाथा १२८, १२६ । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० ] नियमसार अन्तरबाहिरजप्पे, जो बट्टइ सो हवेइ बहिरप्पा | जप्पेसु जो रण वट्टइ, सो उच्चइ अन्तरंगप्पा ॥ १५० ॥ अन्तरबाह्यजल्पे यो वर्तते स भवति बहिरात्मा । जल्पेषु यो न वर्तते स उच्यतेऽन्तरंगात्मा ॥ १५०॥ जो बाह्य जल्प अरु अन्तरजल्प में भी । वर्तन करे वह मुनी बहिरातमा है || जो जन्म से रहित सर्व विकला शुन्य | ही अमरण सतत अन्तर आत्मा हैं ॥। १५० ।। बाह्याभ्यन्तरजल्प निरासोऽयम् । यस्तु जिन्नलिंगधारी तपोधनाभासः पुण्यकर्मकांक्षया स्वाध्यायप्रत्याख्यानस्तवनादिबहिर्जल्पं करोति, अशनशयनयानस्थानाविषु है। इसलिये यह पति से में स्थित होता हुआ अन्तरात्मा होता है और जो स्वात्मा से भ्रष्ट है तथा बाह्यतत्त्वों में निष्ठ है वह बहिरात्मा होता है । भावार्थ- हां पर मात्र उत्तम अन्तरात्मा ही विवक्षित है। गौगारूप से मध्यम और जघन्य अन्तरात्मा भी आ जाते हैं क्योंकि वे भी आत्मतत्त्व की भावना में तथा उसके साधनभूत ऐसे जिनेन्द्रदेव कथित व्यवहार मार्ग में स्थित हैं। किंतु जो आत्मतत्त्व के श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र से रहित हैं वे बहिरात्मा हैं । गाथा १५० अन्वयार्थ -- [ यः ] जो [ अन्तरबाह्यजल्पे ] अन्तरङ्ग और बहिरंग जल्प में [वर्तते ] वर्तता है, [सः बहिरात्मा ] वह बहिरात्मा [ भवति ] होता है, और [ यः जल्पेषु ] जो जल्पसमूह में [ न वर्तते ] नहीं रहता है, [सः अन्तरंगात्मा ] वह अंतरात्मा [ उच्यते ] कहा जाता है । टीका - यह, बाह्य और अंतर जल्प का निराकरण है। जो जिनलिंगधारी तपोधनाभास मुनि पुण्य कर्म की आकांक्षा से स्वाध्याय, प्रत्याख्यान, स्तवन आदि रूप बाह्य जल्प को करते हैं, और अशन, शयन, गमन, स्थान आदि क्रियाओं में सत्कार Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mail निश्चय-परमावश्यक अधिकार [ ४११ सत्काराविलाभलोभस्सन्नन्तर्जल्पे मनश्चकारेति स बहिरात्मा जीव इति । स्थात्मध्यानपरायणस्सन निरक्शेषेणान्तमुखः प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तविकल्पजालकेषु कदा चिदपि न वर्तते अत एव परमतपोधनः साक्षादंतरात्मेति । तथा चोक्त श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः ( वगंततिलका ) "स्वेच्छासमुच्छलदनल्पविकल्पजालामेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम् । अन्तर्बहिः सररसंफरसस्वभावं स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम् ॥" आदि लाभ के लोभी होते हुए अंतर्जल्प में मन को लगाते हैं ये बहिरात्मा जीव हैं । इनसे अतिरिक्त जो मुनि म्बात्मध्यान में परायण होते हुये, परिपूर्णरूप से अंतर्मुख हुय, प्रशस्त और अप्रशस्त समस्त विकल्प जालों में कदाचित् भी नहीं वर्तते हैं। इन हेतु गे बे परम तपोधन साक्षात् अन्तरात्मा होते हैं। भावार्थ- यहां पर भी अन्तरात्मा से सातिशय अप्रमत्त सप्तम गुणस्थानवर्ती मुनियों से लेकर ग्यारहव तक मध्यम अन्तरात्मा गौणलया और बारहवें गणस्थानवी उत्तम अन्तरात्मा मुख्यतया विवक्षित हैं, क्योंकि टीकाकार ने 'साक्षात्' यह पद रखा है। उसीप्रकार से श्री अमनचन्द्रसूरि ने भी कहा है "श्लोकार्थ-'जिसमें स्वेच्छा मे बहुत से विकल्प जाल उठ रहे हैं ऐसी इस । विशाल नयपक्ष की कक्षा-नयों के समूह की भूमिका को उलंघन करके अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग में समरसरूपी एक रस ही जिसका स्वभाव है ऐसे अनुभूतिमात्र एक अपने आव को यह तत्त्ववेदी प्राप्त कर लेता है।" १. समयसार कल शह। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ ] नियममार तथा हि ( मंदाक्रांता) मुक्त्वा जल्पं भवभयफर बाह्यमाभ्यन्तर च स्मृत्वा नित्यं समरसमयं चिच्चमत्कारमेकम् । ज्ञानज्योतिःप्रकटितनिजाभ्यन्तरंगान्तरात्मा क्षीणे मोहे किमपि परमं तत्त्वमन्तर्ददर्श ॥२५६।। जो धम्मसुक्कझाम्हि परिणवो सोवि अन्तरंगप्पा । झाणविहीणो समणो, बहिरप्पा इदि विजाणीहि ॥१५१॥ यो धHशुक्लध्यानयोः परिणत: सोप्यन्तरंगात्मा । ध्यानविहीनः श्रमणो बहिरात्मेति विजानीहि ॥१५१।। जो धर्म शुक्ल पर ध्यानमयी हुए हैं। वे साधू ही नियम से बस अन्तरात्मा ।। जो ध्यान हीन मुनि वे बहिरातमा हैं । क्योंकि न शुद्ध नहि भी शुभध्यान उनके ।। १५१ ।। । ___अब [ टीकाकार मुनिराज अन्तस्तत्त्व को प्राप्त करने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं- ] (२५६) श्लोकार्थ-भवभयकारी ऐसे बाह्य और आभ्यन्तर जल्प को छोड़ कर समरसमयी एक चैतन्य चमत्कार का ही नित्य स्मरण करके, जिसने ज्ञान ज्योति से अपने अभ्यन्तर स्वरूप को प्रगट किया है ऐसा अन्तरात्मा मोह के क्षीण-समाप्त हो जाने पर कोई एक अद्भुत परमतत्व को अन्तरङ्ग में देख लेता है । गाथा १५१ अन्वयार्थ-[ यः ] जो [धर्मशुक्लध्यानयोः] धर्मध्यान और शुक्लध्यान से [परिणतः] परिणत है [ सः अपि ] वह भी [ अंतरंगात्मा ] अन्तरात्मा है, और [ध्यानविहीनः श्रमणः] ध्यान से रहित श्रमग [ बहिरात्मा ] बहिरात्मा है [ इति विजानीहि ] ऐसा तुम समझो । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१३ निश्चय-परमावश्यक अधिकार अत्र स्वात्माश्रयनिश्चयधर्म्यशुक्लध्यानद्वितयमेथोपादेयमित्युक्तम् । इह हि साक्षादन्तरात्मा भगवान् क्षीणकषायः, तस्य खलु भगवतः क्षीणकषायस्य षोडशकषायाणाम भावात् दर्शनचारित्रमोहनीयकर्मराजन्ये विलयं गते अत एव सहजचिद्विलासलक्षणमत्यपूर्वमात्मानं शुद्धनिश्चयधर्मशुक्लध्यानवयेन नित्यं ध्यायति । प्राभ्यां ध्यानाभ्यां विहीनो यलिंगधारी द्रव्यश्रमणो बहिरात्मेति हे शिष्य त्वं जानीहि । --. ..----- टीका- यहां पर स्वात्माश्रित निश्चय धर्म और गलध्यान ये दो हो उपादेय हैं, ऐमा कहा है। यहां पर साक्षात् अंतरात्मा भगवान् श्रीकपात्री हैं, क्योंकि निश्चितरूप से उन भगवान के सोलह कषायों के अभाव से दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय कर्मरूपी राजयोद्धा विलय को प्राप्त हो चुके हैं इसी देत मे ये स्वाभाविक चैतन्यबिलासरूप अति अपूर्व आत्मा का शुद्धनिश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान इन दोनों के द्वारा नित्य ही ध्यान करते हैं। किंतु इन दोनों ध्यान में रहित हुये द्रव्यलिंगधारी द्रव्य श्रमण बहिरात्मा हैं ऐसा है शिष्य ! तुम जानो।। विशेषार्थ-यहां पर टीकाकार ने स्पष्ट कहा है कि जिनके दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय का सर्वथा अभाव हो गया है ऐसे बारहवें गुणस्थानवर्ती महामुनि के ही निश्चय धर्मध्यान और निश्चय शुक्लध्यान होता है। इस निश्चय धर्मध्यान को धारहवें गुणस्थान में मानने की बात ध्यानशतक' ग्रंथ में भी कही है । वे क्षीणकषायी ही उत्कृष्ट अंतरात्मा हैं वे ही यहां विवक्षित हैं। इन दोनों ध्यानों से जो रहित हैं वे अहिरात्मा कहे गये हैं । इस कथन से उत्कृष्ट अंतरात्मा से अतिरिक्त सभी बहिरात्मा श्राने गये हैं। यहां बहिरामा शब्द से मिथ्यादृष्टि को नहीं लेना चाहिये । अथवा निश्चय और व्यवहार दोनों धर्मध्यानों में रहित को बहिरात्मा मानने मिथ्यादृष्टि ही आते हैं क्योकि चतुर्थ गुणस्थान में भी आज्ञा विचय आदि धर्मध्यान आने ही हैं। इस दृष्टि से जघन्य और मध्यम अंतरात्मा भी गौणरूप से आ सकते हैं सा समझना । अथवा जो धर्मध्यान और शुक्लध्यान से रहित हैं वे अर्थापत्ति से आर्तध्यान | रौद्रध्यान से सहित हो सकते हैं | वे धर्मध्यान शून्य द्रव्यलिंगी मुनि वास्तव में Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ ] निममगार ( वसंततिलका) कश्चिन्मुनिः सततनिर्मलधHशुक्लध्यानामृते समरसे खलु वर्ततेऽसौ । तारयां मिहीननुमको बीहरभकोऽयं पूर्वोक्तयोगिनमहं शरणं प्रपद्ये ॥२६०।। कि च केवलं शुद्धनिश्चयनयस्वरूपमुच्यते ( अनुष्टुभ् ) बहिरात्मान्तरात्मेति विकल्पः कुधियामयम् । सुधियां न समस्त्येष संसाररमणीप्रियः ।।२६१॥ - - - - बहिरान्मा हैं । छठे गुणस्थानवर्ती साधु निश्चय धर्मध्यान की भावना से सहित हैं तथा चतुर्थ, पंचम गुणस्थानवर्ती व्यवहार धर्मध्यान से परिणत हैं अतएव वे बहिरात्मा नहीं हैं, वे यहां गौण हैं। [ अब टीकाकार मुनिराज इसी बात को दो कला काव्य द्वारा कहते हैं- ] (२६०) श्लोकार्थ-कोई मुनि सतत निर्मल धर्म और शुक्लध्यानामतरूपी समरस में वर्तते हैं वे सचमुच में अंतरात्मा हैं। तथा इन दो ध्यानों से रहित मुनि बहिरात्मा हैं । मैं पूर्व कथित (अन्तरात्मा) योगी की शरण को प्राप्त होता हूं। अब केवल शुद्ध निश्चयनय का स्वरूप कहा जाता है (२६१) श्लोकार्थ-बहिरात्मा और अन्तरात्मा ऐना यह विकल्प कूद्धियों को होता है किंतु संसाररूपी रमणी के लिये प्रिय ऐसा यह विकल्प सुबुद्धियों को नहीं होता है। भावार्थ-यहां केवल मात्र शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से ही यह कथन है क्योंकि "सवे सुद्धा हु सुद्धणया" शुद्धनिश्चयनय से सभी जीव सर्वथा शुद्ध ही हैं । संसार और मोक्ष की वहां बात ही नहीं है। क्योंकि जब सभी संसारी जीव भी सिद्ध सदृश पूर्णतया शुद्ध ही हैं तब संसार क्या होगा? किंतु जब व्यवहारनय से भेद करके Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय -परमावश्यक अधिकार [ ४१५ पडिकमणपहुदिकिरियं, कुव्वंतो णिच्छयस्स चारितं । तेण दु विरागचरिए, समरणो अभुट्टिदो होदि ।।१५२॥ प्रतिक्रमणप्रभृतिक्रियां कुर्वन् निश्चयस्य चारित्रम् । तेन तु विरागचरिते श्रमणोन्युस्थितो भवति ।।१५२।। जो माधु ये प्रनित्र.नादि सभी किया । या उन्हें मनात हो निश्चय चरित्र ।। वे बन गगमय चारित में उम गे । आम्द भी नियम में फिर हो सकंग ।।१२।। परमवीतरागचारिस्थितस्य परमतपोधनस्य स्वरूपमत्रोक्तम । यो हि विमुक्तं हिकव्यापारः साक्षादपुनर्भवकांक्षी महामुमुक्षुः परित्यक्तसकलेन्द्रियव्यापारत्वाग्निश्चयप्रतिक्रमणादिसत्कियां कुर्वन्नास्ते, तेन कारणेन स्वस्वरूपविश्रान्तिलक्षणे परमबोतरागचारित्रे स परमतपोधनस्तिष्ठति इति । संगारी आत्मा को शुद्ध करने का पुरुषार्थ किया जाता है उम मम एवं में यह विकल्प होता ही है अनन्तर निर्विकल्प अवधारूप ध्यान में विकल्प छट जाता है । हम अपेक्षा म कबुद्धि कहा है। गाथा १५२ ___ अन्वयार्थ-[ निश्चयस्य चारित्रं प्रतिक्रमण प्रभृति क्रियां ] निश्चयनय के चारित्रम्प प्रतित्रामण आदि क्रिया को [कुर्वन् ] करना हुआ [श्रमणः] श्रमण [तेन तु] उसी में [ विराग चरिते ] बीतराग चारित्र में [ अभ्युत्थितः भवति ] आरूढ़ हो जाता है। टोका--परमवीन राग चारित्र में स्थित हुये परमत पोधन के बम्प को यहां पर कहा है। जो ऐहिक व्यापार से रहित हुये साक्षात् अपुनर्भव के इन्छक महामुमुक्षु मकल इंद्रियों के व्यापार को छोड़ देने से निश्चय प्रतिक्रमण आदि सक्रिया को करते रहते हैं, उस कारण से वे तपोधन अपने स्वरूप में विश्रांति लक्षण ऐसे परमवीतराग चारित्र में स्थित होते हैं । Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ ] नियमसार ( मंदाक्रांता ) आत्मा तिष्ठत्यतुलमहिमा नष्टदृशीलमोहो यः संसारोद्भवसुखकरं कर्म मुक्त्वा विमुक्तः । मूले शीळे मविरहिये सोऽयमाचार राशि: तं वंदेहं समरससुधासिन्धु राकाशशांकम् ॥१२६२॥ वयणमयं पडिकमरणं, वयरणमयं पच्चखारण नियमं च । श्रालोयरण वयरणमयं तं सव्वं जारण 'सज्झायं ।। १५३ ।। वचनमयं प्रतिक्रमणं वचनमयं प्रत्याख्यानं नियमश्च । आलोचनं वचनमयं तत्सवं जानीहि स्वाध्यायम् ।। १५३ ।। बाचामयी प्रतिक्रमण वचमय नियम जो । वाणी स्वरूप ग्राम प्रत्याख्यान भी हैं ।। आलोचना वचनरूप इसी तरह जो । स्वाध्यायरूप तुम उन सबको समझ लो ।। १५३ ।। [ अब टीकाकार मुनिराज कलश काव्य कहते हैं -- ] ( २६२ ) श्लोकार्थ - जिसके दर्शन मोह और चारित्र मोह नष्ट हो चुके हैं, ऐसा जो अतुलमहिमाशाली आत्मा संसार में उत्पन्न होने वाले सुख के कारणभून कर्म को छोड़कर मुक्ति के लिये मूल ऐसे मल से रहित चारित्र में स्थित होता है, सो यह आत्मा आचार की राशि स्वरूप - चारित्र का समूह ही है । समरसरूपी सुधा के सागर को वृद्धिंगत करने के लिये पूर्णिमा के चन्द्रमास्वरूप ऐसे उस आत्मा को मैं वन्दन करता हूं | गाथा १५३ अन्वयार्थ -- [ वचनमयं प्रतिक्रमणं ] वचनमय प्रतिक्रमण [ वचनमयं प्रत्याख्यानं ] वचनमय प्रत्याख्यान [ नियमः च ] वचनमय नियम तथा [ वचनमयं आलोचनं ] वचनमय आलोचना [ तत्सर्व ] उन सबको [ स्वाध्यायं जानीहि ] तू स्वाध्याय जान । १. सभा (क) पाठा० । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्वय-परमावश्यक अधिकार [ ४१७ सकलवाग्विषयव्यापारनिरासोऽयम् । पाक्षिकाविप्रतिक्रमण क्रियाकारणं निर्यापकाचार्यमुखोद्गतं समस्तपापक्षयहेतुभूतं द्रध्यश्रुतमखिलं वाग्वर्गणायोग्यपुद्गलद्रव्यात्मकत्वान ग्राह्य भवति, प्रत्याख्याननियमालोचनाश्च । पौद्गलिकवचनमयत्वात्तत्सर्व स्वाध्यायमिति रे शिष्य त्वं जानीहि इति । ( मंदाक्रांता) मुक्त्वा भव्यो वचनरचनां सर्वदातः समस्तां निर्वाणस्त्रीस्तनभरयुगाश्लेषसौख्यस्पृहाढयः । नित्यानंदादादला हिमापार रुपये स्थित्वा सर्व तृगमिव जगज्जालमेको ददर्श ॥२६३।। - -- - - - - टीका--यह ममस्त वचन विषयक व्यापार का निराकरण है। ---- पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण क्रिया का कारण ऐमा जो निर्यापकाचार्य के मुखकमल से निकला हुआ और समस्त पापों के क्षय में हेतुभूत जो अखिल द्रव्यश्रुत है वह वचन वर्गणा के योग्य पुद्गल द्रव्यरूप होने से ग्राह्य नहीं है । तथा प्रत्यास्यान नियम और आलोचना भी (पद्गल द्रव्यात्मक होने से) ग्राह्य नहीं है। पौद्गलिक वचनमय होने से ये सब स्वाध्याय हैं ऐसा हे शिष्य ! तू जान । भावार्थ-निश्चयनय की अपेक्षा से वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप ध्यान में स्थित हुये साधु के सभी बच नरूप क्रियायें अग्राह्य हैं अर्थात् उस अवस्था में वे स्वयं ही नहीं हैं और जब तक ये क्रियायें हैं तब तक सब स्वाध्यायरूप ही हैं । [अब टीकाकार मुनिराज निजात्मध्यानी साधु का स्वरूप कहते हैं-] (२६३) श्लोकार्थ-निर्वाण स्त्री के पुष्ट स्तन युगल के आलिंगन जन्य सौख्य की स्पृहा से सहित भव्य जीव इसो हेतु से समस्त वचन रचना को छोड़कर और नित्यानन्द आदि अतुलमहिमा के धारक ऐसे अपने स्वरूप में स्थित होकर वह एकाकी समस्त जगत् जाल को तृण के समान देखता है । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ ] नियमसार तथा चोक्तम् "परियट्टणं च वायण पुच्छण अणुपेक्खरणा य धम्मकहा । थुदिमंगलसंजुत्तो पंचविहो होदि सज्झाउ ॥" जदि सक्कदि कादुजे, पडिकमरणादि करेज्ज झारणमयं । सत्तिविहीणो जा जइ, सद्दहणं चेव कायन्वं ॥१५४॥ यदि शक्यते कुतुम अहो प्रतिक्रमणादिकं करोषि ध्यानमयम् । शक्तिविहीनो यावद्यदि श्रद्धानं चैव कर्तव्यम् ॥१५४॥ जो शक्य ह. यदि तुम्हें सब ध्यान का । आवश्यकी प्रनिक्रमादि बिया कगंजे ।। शनी बिहीन जब तक यदि आप तब तक । श्रद्धान ही इन क्रिपायों में रखीजे ।।१५।। इसीप्रकार अन्यत्र भी कहा है गाथार्थ-'परिवर्तन-पढ़ हुये का दुहराना, वाचना-शास्त्र व्याख्यान, पृच्छना-पूछना अनुप्रेक्षा-बार-बार चितवन करना और धर्मकथा-त्रेसठशलाका पुरुषों के चरित्र को पढ़ना या उपदेश करना, स्तुति और मंगल सहित यह पांच प्रकार का स्वाध्याय होता है । गाथा १५४ अन्वयार्थ-[यदि कतुं शक्यते] यदि करना शक्य हो सके तो [अहो] अहो साधु ! [ध्यानमयं] ध्यानमय [ प्रतिकमणादिकं ] प्रतिक्रमण आदि [करोषि] करो [यदि शक्तिविहीनः] यदि शक्ति हीन हो तो [यावत् श्रद्धानं च एव] तब तक श्रद्धान को ही [कर्तव्यं] करना चाहिए । ६. मूलाचार के पंचाचार अधिकार में गाथा २१६ । २. 'कुर्यात्' पाठ संभावित है। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शकाचार्य निश्चय परमावश्यक अधिकार [ ४१६ अत्र शुद्धनिश्चयधर्म ध्यानात्मक प्रतिक्रमणादिकमेव कर्तव्यमित्युक्तम् । मुक्तिसुन्दरीप्रथमदर्शनप्राभृतात्मक निश्चयप्रतिक्रमणप्रायश्चित्तप्रत्याख्यानप्रमुखशुद्धनिश्चय क्रियाश्चैव कर्तव्याः संहनन शक्तिप्रादुर्भावे सति हंहो सुनिशार्दूल परमागममकरंदनिष्यन्दिमुखपद्मप्रभ सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणे परद्रव्यपराङ मुखस्वद्रव्यनिष्णातबुद्धे पंचेन्द्रियप्रसरअजितगात्र मात्र परिग्रह | शक्तिहीनो यदि दग्धकाले काले केवलं स्वया निजपरमात्मतत्त्वश्रद्धानमेव कर्तव्यमिति । (शिरी ) असारे संसारे कलिविलसिते पापबहुले न मुक्तिमार्गेऽस्मिन्ननघजिननाथस्य भवति । टीका-- शुद्धनिश्चय धर्मध्यानरूप प्रतिक्रमण आदि ही करना चाहिए ऐसा यहां पर कहा है । सहज वैराग्यरूपी प्रासाद के शिखर के शिखामणि स्वरूप परद्रव्य से पराङ्मुख हुये तथा स्वदव्य में निष्णात बुद्धिमन् ! पंचेन्द्रिय के प्रसार से वर्जिन गात्रमात्र परिग्रह धारक, परमागमरूपी मकरंद के अरते हुए मुखकमल से शोभायमान ऐसे है पद्मप्रभ मुनिपुंगव ! संहनन शक्ति के प्रादुर्भाव होने पर तो मुक्ति सुन्दरी के प्रथम दर्शन में भेंट स्वरूप ऐसे निश्चय प्रतिक्रमण, प्रायश्चित और प्रत्याख्यान प्रमुख शुद्धनिश्चय क्रिया ही करना चाहिये और यदि इस दग्धकालरूप अकाल ( पंचमकालरूप कलिकाल में ) तु शक्तिहीन है तो तुझे केवळ निजपरमात्मतत्त्व का श्रद्धान ही करना चाहिये 1 [ टीकाकार मुनिराज उसी श्रद्वान की प्रेरणा देते हुए कलश काव्य कहते हैं--] कलिकाल के विलास से सहित मुक्ति नहीं होती है इसलिये इस ( २६४) श्लोकार्थ - - पाप से भरपूर और इस असार संसार में निर्दोष जिननाथ को इस मार्ग में काल में अध्यात्म ध्यान कैसे हो सकता है ? निर्मल बुद्धि वालों ने भवभय हारी ऐसे इस निजात्मा के श्रद्धात को ही स्वीकृत किया है । ! Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a . Pune नियमसार प्रतोऽध्यात्म ध्यानं कथमिह भवेधिर्मलधियां निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम् ।।२६४।। जिणकहियपरमसुत्ते, पडिकमणादिय परीक्खऊण फुडं । मोणबएण जोई, णियकज्ज साहये रिणच्चं ॥१५॥ जिनकथितपरमसूत्रे प्रतिक्रमणादिकं परीक्ष्ययित्वा स्फुटम् । मौनव्रतेन योगी निजकार्य साधयेन्नित्यम् ॥ १५५ ।। - - - - - -------. - -- -- -.-- -.. -- भावार्थ-यहां टीकाकार का गप्टरूप में कहना है कि इस निकृष्ट काल में हीन संहनन होने से अध्यात्म ध्यान नहीं हो सकता है अन: आन्म तत्त्व का श्रद्धान ही करना उचित है । इस पर यह प्रश्न हो सकता है कि पुनः इन अध्यात्म ग्रंथों की रचना क्यों की गई है ? किन्तु ऐसी बात नहीं है । जिनागम के द्वारा ऊंची से ऊची अवस्थाओं की सभी बातों का वर्णन ग्रंथों में तो रहेगा ही और अपनी योग्यता के अनुसार ही ग्रंथों का स्वाध्याय करना चाहिये । पहले धावकों को श्रावकाचार आदि ग्रंथों से अपनी जीवन चर्या अवश्य निर्दोष बनाना चाहिए अनन्तर इन ग्रंथों के स्वाध्याय से सम्यग्जान को वृद्धि करना चाहिए। भगवती आराधना ग्रंथ में एक इसीप्रकार से प्रश्न हुआ है । यथा-"यदि ते वर्तयितु इदानींतनानामसामर्थ्य किं तदुपदेशेनेति चेत् तत्स्वरूप परिज्ञानात्सम्यग्ज्ञानं । तच्च मुमुक्षूणामुपयोग्येवेति ।" अर्थात् यदि भक्त प्रत्याख्यान मरण ही आजकल हो सकता है तथा उत्तम संहनन के अभाव में प्रायोपगमन और इंगिनी इन दो मरणों को करने के लिए आजकल के साधुओं में सामर्थ्य नहीं है तो यहां पर इनका उपदेश क्यों करते हैं ? ऐसी बात नहीं है क्योंकि उनका स्वरूप जानने से सम्यग्ज्ञान होता है जो कि मुमुक्षुओं के लिए उपयोगी ही है ।। गाथा १५५ ___ अन्वयार्थ-[जिनकथितपरमसूत्रे] जिनकथित परम सूत्र में [ प्रतिक्रमणादिकं ] प्रतिक्रमण आदि की [स्फुट परीक्षयित्वा] प्रगटरूप से परीक्षा करके [ योगी १. भगवती आ, थी अपराजित सूरिकृत टीका में पृ. ११० । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२६ निश्चय-परमावश्यक अधिकार सर्वज्ञ प्रोक्त परमागम सत्र में जो । घण प्रतिक्रमण आदि उन्हें समझकर ।। भो साधु ! मौनयुत नित्य उन्हें करोजे । जससे स्वयं हि निज कारज साध लीजे ।। १५५।। इह हि साक्षादन्तर्मुखस्य परमजिनयोगिनः शिक्षणमिदमुक्तम् । श्री महन्मुखारविन्दविनिर्गतसमस्तपदार्थगर्भीकृतचतुरसन्दर्भ द्रव्यश्रुते शुद्धनिश्चयनयात्मकपरमात्मध्यानात्मकप्रतिक्रमणप्रभृतिसत्क्रियां बुद्ध्वा केवलं स्वकार्यपरः परमजिनयोगीश्वरः प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तवचनरचनां परित्यज्य निखिलसंगव्यासंगं मुक्त्वा चैकाकोभूय मौनव्रतेन साध समस्तपशुजनैः निद्यमानोऽप्यभिन्नः सन् निजकार्य निर्वाणवामलोचनासंभोगसौख्यमूलमनवरतं साधयेदिति । -- - - - - - - - मौनव्रतेन ] योगी मौनबनपूर्वक [निजकार्य नित्यं] निजकार्य को नित्य ही [साधयेत् सिद्ध करे। टीका--माक्षात् अंतर्मुख हुए परिणमित योगी का यहां पर यह शिक्षा कही है। श्रीमान् अहंत देव के मुखकमल से निकले हुए समस्त पदार्थ जिसमें गभित हैं ऐसे चतुरवचनों से संदर्भित द्रव्यश्रुत में (कही गई) शुद्धनिश्चयनयात्मक परमात्मध्यानस्वरूप प्रतिक्रमण आदि सक्रिया को जानकर केवल स्वकार्य में तत्पर ऐसे परमजिनयोगीश्वर प्रशस्त और अप्रशस्त ऐसी समस्त वचन रचना को छोड़कर और सर्वसंग के व्यासंग को भी छोड़कर, एकाकी होकर मौनत्रत से सहित समस्त पशु-अज्ञानीजनों के द्वारा निदा किये जाने पर भी 'अभिन्न (अक्षोभित ) होना हा निर्वाण मुन्दरी के संभाग सौग्य का मूल ऐसे निजकार्य को सदैव ही साधित करे । [ अब टीकाकार मुनिराज आत्मतत्त्व को साधना के उपाय को बतलाते हुए दो प्रलोक कहते हैं-] १. छिन्न-भिन्न-अपने स्वरूप से च्युत नहीं होना । DER Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार ( मंदाक्रांता) हित्वा भौतिं पशुजनकृतां लौकिकीमात्मवेदी शस्ताशस्तां वचनरचनां घोरसंसारकीम् । मुक्त्वा मोहे कनक रमणीगोचरं चात्मनात्मा स्वात्मन्येव स्थितिमविचलां याति मुक्त्यै मुमुक्षुः ।।२६५।। ( बसंततिलका) भोति विहाय पशुभिर्मनुजैः कृतां तं मुक्त्वा मुनिः सकललौकिकजल्पजालम् । आत्मप्रवादकुशल: परमात्मवेदी प्राप्नोति नित्यसुखदं निजतत्त्वमेकम् ॥२६६॥ णाणाजीवा णाणाकम्मं जाणाविहं हवे लद्धी। तम्हा वयणविवाद, सगपरसमएहिं वज्जिज्जो ॥१५६॥ - .. .- . - -- - -- - - - ... .. - - (२६५) श्लोकार्थ-आत्मज्ञानी मुमुक्षु आत्मा अज्ञानी जनों द्वारा की गई लौकिक भीति को तथा घोर संसार की करने वाली, प्रशस्त और अप्रशस्तरूप वचन रचना को छोड़कर और कनक-कामिनी सम्बन्धी मोह को तजकर मुक्ति प्राप्ति के लिए अपनी आत्मा में ही आत्मा के द्वारा अविचल स्थिति को प्राप्त होता है । (२६६) श्लोकार्थ-आत्मप्रवाद नामक पूर्व में कुशल, परमात्म ज्ञानी पशु सदृश-अज्ञानी मन'या के द्वारा किये गए भय को छोड़कर तथा लौकिक जन में संबंधित उस सकल जल्प जाल को भी त्यागकर नित्य सुखदायी ऐसे एक निजतत्त्व को प्राप्त कर लेता है। ___ भावार्थ-जो साधु परकृत निदा से क्षुब्ध नहीं होते हैं और संसारी जनों से संबंधित लौकिक प्रपंचों से सर्वथा दूर रहते हैं वे ही निर्विकल्प ध्यान के अधिकारी हो सकते हैं तथा वे ही आत्म तत्त्व को सिद्धि कर सकते हैं अन्य नहीं । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A. ट . - - निश्रय-परमावश्यक अधिकार [ ४२३ नानाजीवा नानाकर्म नानाविधा भवेल्लब्धिः । तस्माद्वचनविवादः स्वपरसमयवर्जनीयः ॥१५६।। नाना प्रकार जन नाना विध करम हैं। माना प्रकार लब्धी दिखती जगत में। इस हेतु से स्वमन परमन के जनों से । जो भी विवाद वच का मन्त्र छोड़ दोजे ।। १५६।। वाग्विषयच्यापारनिवृत्ति हेतूपन्यासोऽयम् । जीवा हि नानाविधाः मुक्ता अमुक्ताः भव्या अभव्याश्च, संसारिणः त्रसाः स्थावराः । द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसंक्यसंझिमेदात् पंच प्रसाः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः। भाविकाले स्वभावानन्तचतुष्टयात्मसहजज्ञानादिगुणः भबनयोग्या भव्याः, एतेषां विपरीता ह्यभव्याः । कर्म नानाविधं द्रव्यभावनीकर्मभेदात्, अथवा मूलोत्तरप्रकृतिभेदाच्च, अथ तीव्रतरतीवमंदमंदतरोदयभे- - - - - - - - - .. -- -- - - -- ---- गाथा १५६ अन्वयार्थ--[ नानाजीवाः ] नाना प्रकार के जीव हैं [ नानाकर्मः ] नाना प्रकार के कर्म हैं, [नानाविधा लब्धिः] और नाना प्रकार की लब्धियां हैं [तस्मात्] इसलिए [स्वपर समयैः] ग्व और पर समय सम्बन्धी [ वचनविवाद: ] वचन विवाद [वर्जनीयः] वजित करना चाहिए । टीका-यह वचन विषयक व्यापार के अभाव के हेतु का कथन है । ___ जीव अनेक प्रकार के हैं, मुक्त और संसारी, भव्य और अभब्य तथा मंसारी के बस और स्थावर इन्यादि भेद हैं। इनमें भी दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय, तथा पंचेन्द्रिय के संज्ञी और असंजी इन भेदों से श्रस जीव के पांच भेद हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और बनस्पति ऐसे स्थावर के भेद हैं । भावी काल में स्वाभाविक अनंतचतुष्टयात्मक सहज ज्ञानादिक गुणों से होने योग्य भव्य होते हैं, इनसे विपरीत अभव्य हैं । द्रव्यकर्म, भावकर्म और नो कर्म के भेद से कर्म अनेक प्रकार के हैं अथवा मूल प्रकृति और उत्तरप्रकृति के भेदों से अथवा Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार ... दाद्वा । जीवानां सुखादिप्राप्तेर्लब्धिः कालकरणोपवेशोपशमप्रायोग्यसाभेवात्, पञ्चधा । ततः परमार्थवेदिभिः स्वपरसमयेषु वादो न कर्तव्य इति । (शिखरिगी) विकल्पो जीवानां भवति बहुधा संसृतिकरः तथा कर्मानेकविधमपि सदा जन्मजनकम । असौ लब्धि ना विमलजिनमार्गे हि विदिता ततः कर्तव्यं नो स्वपरसमयैर्वादवचनम् ॥२६७॥ लणं रिणहि एक्को, तस्स फलं प्रणुहवेइ सुजणते । तह णारणी सारगरिणाह, भुजेइ चइत्त परतत्ति ॥१५७॥ तीव्रतर, तीब्र, मंद और मंदनररूप उदय के भेदों से भी अनेक प्रकार के हैं । जीवों के मुखादि की प्राप्ति हेतू लब्धि काल, करण, उपदेश, उपशम और प्रायोग्य इन भेदों में पांच प्रकार की है । इसलिय परमार्थ जाताओं को स्व और पर के समय-मम्प्रदायों में विवाद नहीं करना चाहिए । भावार्थ-तत्त्वज्ञानी जन जब जीवों के अनेक भेद प्रभेद कर्मों के अनेक प्रकार तथा काललब्धि, उपशमलब्धि, उपदेशलब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धि ऐसी लब्धियों के स्वरूप को समझ लेते हैं तब वे स्वसम्प्रदाय और परसंप्रदाय के विषयों में विसंबाद न करके परमवीतरागी बन जाते हैं क्योंकि सभी जीव कर्माश्रिन हैं पुनः उनके विषय में विसंवाद करना ठीक नहीं है । [ टीकाकार मुनिराज बचन विकल्पों से हटाते हुए श्लोक कहते हैं-] (२६७) श्लोकार्थ-जीवों के संसार को करने वाले ऐसे बहुत प्रकार के भेद हैं तथा सदा जन्म के उत्पन्न करने वाले ऐसे कर्म भी अनेक प्रकार के हैं, यह लब्धि भी विमल जिनदेव के शासन में अनेक प्रकार की प्रसिद्ध है इसलिए स्वसमय और परसमयों के साथ वचन विवाद नहीं करना चाहिए । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय परमावश्यक अधिकार लब्ध्वा निधिमेकस्तस्य फलमनुभवति सुजनत्वेन । तथा ज्ञानी ज्ञाननिधि भुक्त े त्यक्त्वा परततिम् ॥१५७॥ कोई मनुष्य जिसविध निधि प्राप्त करके । गुप्त फल अनुभवे उसका स्वघर में ।। वैसे हि ज्ञाननिवि ज्ञानी भोगता है | संपूर्ण अन्य जन समति छोड़ करके ||९५७ ।। [ ४२५ अत्र दृष्टान्तमुखेन सहजतत्वाराधना विधिरुक्तः । कश्चिदेको दरिद्रः क्वचित् कदाचित् सुकृतोदयेन निधि लब्ध्वा तस्य निधेः फलं हि सौजन्यं जन्मभूमिरिति रहस्ये स्थाने स्थित्वा अतिगूढवृत्त्यानुभवति इति । दृष्टान्तपक्षः । दान्तपक्षेऽपि सहजपरमतत्वज्ञानी जीवः क्वचिवासनभव्यस्य गुणोदये सति सहजवंश सम्पती या परमगुरु चरणनलिन युगल निरतिशय भक्त्या मुक्तिसुन्दरीमुखमकरन्दायमानं सहजज्ञाननिधि परिप्राप्य परेषां जनानां स्वरूपविकलानां तति समूहं ध्यानप्रत्यूह कारण मिति त्यजति । गाथा १५७ अन्वयार्थ -- [ एक: निधि लब्ध्वा ] जैसे कोई निर्धन निधि को पाकर [सुजनत्वेन ] सुजनरूप से - गुप्तरूप से [ तस्य ] उसके [ फलं अनुभवति ] फल का अनुभव करना है [ तथा ] वैसे ही [ज्ञानी ] ज्ञानीजन [ परतति ] परजनों के समुदाय को [ त्यक्त्वा ] छोड़कर [ज्ञाननिधि भुक्ते ] ज्ञाननिधि का अनुभव करता है । टीका—यहां पर दृष्टांत की प्रमुखता से सहजतत्व की आराधना का विधान कहा है | कोई एक दरिद्र प्राणी कहीं पर कदाचित् पुण्य के उदय से निधि को प्राप्त कर उस निधि के फलस्वरूप सौजन्य - जन्मभूमि है ऐसे उस गुप्तस्थान में रहकर अत्यन्त गुप्त रीति से उसका अनुभव करता है यह दृष्टांत हुआ । अब दाष्टीत पक्ष में भी सहज परमतत्त्व ज्ञानी जीव कभी आसन भव्यता गुण के उदय में सहज वैराग्यरूपी सम्पत्ति के होने पर परम गुरु के चरण कमल युगल की निरतिशय उत्कृष्ट भक्ति से मुक्ति Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियममार (शालिनी) अस्मिन् लोके लौकिकः कश्चिदेकः लब्ध्वा पुण्यात्कांचनानां समूहम् । गूढो भूत्वा वर्तते त्यक्तसंगो ज्ञानी तद्वत ज्ञानरक्षां करोति ।।२६८।। ( मंदाक्रांता) त्यक्त्वा संग जननमरणातकहेतु समस्तं कृत्वा बुद्धया हृदयकमले पूर्णवैराग्यभाधम् । स्थित्वा शक्त्या सहजपरमानंदनियंग्ररूपे क्षीणे मोहे तृणमिव सदा लोकमालोकयामः ॥२६६ ।। सन्वे पुरागपुरिमा, एवं आवास य माना । अपमत्तपहुदिहारणं, पडिवज्ज य केवली जादा ॥१५८॥ सुन्दरी के मुख की मकरन्द सदृश स्वाभाविक ज्ञानरूपी निधि को प्राप्त करके स्वरूप में शून्य ऐसे अन्यजनों के समद को ध्यान में विघ्न का कारण ऐसा समझकर छोड़ देना है। (२०६८) श्लोकार्थ-इस लोक में कोई एक ली क्रिकजन पुण्य से कंचन-धन के समर प्राप्त कर तथा गुप्त होकर रहता है बम ही परिग्रह रहिन निग्रंथ ऐसा ज्ञानी माधु ज्ञान की रक्षा करता है । (२६६) श्लोकार्थ-जन्म-मरण रूपी आतंक-व्याधि के कारण ऐसे समस्त परिग्रह को छोड़कर अपने हृदय कमल में बुद्धि मे पूर्ण वैराग्य भाव को करके तथा स्वाभाविक परमानंदमय निराकुलरूप ऐसे अपने स्वाप में शक्तिपूर्वक स्थित होकर मोह के क्षीण हो जाने पर हम इस लोक को नित्य ही तृण सदृश देखते हैं 1 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय परमावश्यक अधिकार सर्वे पुराणपुरुषा एवमावश्यकं च कृत्वा । अप्रमत्तप्रभृतिस्थानं प्रतिपद्य च केवलिनो जाताः ।। १५८ ।। तीर्थंकरात्रि सब पुरुषों ने इसी विध व्यवहार निश्चय पडावश्यक क्रिया कर ॥ [ ४२.७ हो अप्रमत्त फिर श्रेणी में पहुंच के । श्री केवली जिन हुए उनको न मैं ।। ११८६ परमावश्यकाधिकारोपधाय | स्वात्माश्रयनिश्रयधर्म शुक्लध्यानस्वरूपं बाह्यावश्यकादिक्रियाप्रतिपक्षशुद्ध निश्चय परमावश्यकं साक्षादपुनर्भववारांगनानङ्गसुखकारणं कृत्वा सर्वे पुराणपुरुषास्तीर्थ करपरमदेवादयः स्वयं बुद्धाः केचिद् बोधितबुद्धाचाप्रमत्तादितयोगिभट्टारक गुणस्थानपंक्तिमध्यारूढाः सन्तः केवलिनः सकलप्रत्यक्षज्ञानधराः परमावश्यकात्माराधनाप्रसादात् जाताश्चेति । गाथा १५८ अन्वयार्थ -- [ सर्वे पुराण पुरुषाः ] सभी पुराण पुरुष [ एवं ] इसप्रकार से [ आवश्यकं चकृत्वा ] आवश्यक को करके [ अप्रमत्त प्रभृति स्थानं ] अप्रमत्त आदि गुणस्थानों को [ प्रतिपद्य ] प्राप्त करके [ केवलिनः जाताः ] केवली भगवान् होगये हैं । टीका - परमावश्यक अधिकार के उपसंहार का यह कथन है । स्वात्मश्रित निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान स्वरूप वाह्य आवश्यक आदि क्रिया में प्रतिपक्ष शुद्धनिश्चय परमावश्यक रूप ऐसे साक्षात् अपुनर्भवरूपी रमणी के अनंग - अशरीरी - सुख के कारण को करके सभी पुराण पुरुष जिनमें से तीर्थंकर परमदेव आदि स्वयं बुद्ध हुये हैं और कोई बोधित बुद्ध हुये हैं ये सभी ही अप्रमत्न गुणस्थान से लेकर मयोग केवली भट्टारक पर्यंत गुणस्थानों की पंक्तियों के मध्य आरूढ़ होते हुए सकल प्रत्यक्ष (केवलज्ञान) धारी केवली भगवान् हुये हैं वे परमावश्यक स्वरूप आत्मा की आराधना के प्रसाद से ही हुये हैं ऐसा समझना । [ अब टीकाकार मुनिराज इस अधिकार के उपसंहार में आत्मा की आराधना लिये प्रेरित करते हुए दो श्लोक कहते हैं--] Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ । नियममार (गार्दूलविक्रीडित ) स्वात्माराधनया पुराणपुरुषाः सर्वे पुरा योगिनः प्रध्यस्ताखिलकर्मराक्षसगणा ये विष्णवो जिष्णवः । तान्नित्यं प्रणमत्यनन्यमनसा मुक्तिस्पृहो निस्पृहः स स्यात् सर्वजनाचितांत्रिकमल: पापाटवीपावकः ।।२७०।। ( मंदाक्रांता) मुक्त्वा मोहं कनकरमणीगोचरं हेयरूपं नित्यानन्दं निरुपमगुणालंकृतं दिव्यबोधम् । चेतः शीघ्र प्रविश परमात्मानमव्यग्ररूपं लब्बा धर्म परमगुरुतः शर्मणे निर्मलाय ॥२७१।। - - --- - ---- .-..- - (२७०) श्लोकार्थ—पहले जा सभी पराण पुरुष योगी अपनी आत्मा की आराधना से अखिल कममती राक्षस गो को नाक या-जान से तीन लोक में व्यापक और जिष्णु-जयशील हुए हैं । उनको जो मुक्ति की स्पृहा बाला भी निःस्पृह जीव एकाग्र मन में नित्य ही प्रणाम करता है वह पापरूपी अटवी को दग्ध करने में अग्निस्वरूप और मर्व जनों से अर्चित चरण कमल वाला हो जाता है। भावार्थ-जो भव्य जीव स्यात्मा की आराधना से स्त्रात्मोपलब्धिम्प सिद्धि को प्राप्त कर चक हैं उनको एकाग्रचित्त से नमस्कार करने वाला भक्त भी स्वयं सर्वजन पूज्य भगवान् बन जाता है । (२७१) श्लोकार्थ-हे मन ! तू निर्मल मुख के लिये परम गझ मे धर्म को प्राप्त करके कनक और कामिनी सम्बन्धी हेयरून मोह को छोड़कर, नित्यानंदरूप निरुपम गुणों में अलंकृत, दिव्य जान वाले, अव्यग्ररूप-व्यग्रता ( आकुलता रहित ) ऐसे परमात्मा में शीघ्र ही प्रवेश कर । भावार्थ-यहां टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारीदेव महामुनि अपने मन को प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि हे मन ! यदि तू परमात्मा में तन्मय होगा तो परमात्मा बन जावेगा अन्यथा बाह्य वस्तुओं में उलझा रहने से दुःख ही दुःख उठावेगा । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म [ ८२६ निश्चय -परमावश्यक अधिकार इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरजितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपप्रभमलधा. रिदेवविरचितायां नियमसारख्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ निश्चयपरमावश्यकाधिकार एकावशमः श्रुतस्कन्धः । - - इसप्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिये सूर्य सदृश, पंचेन्द्रिय के प्रसार से रहित गात्रमात्र परिग्रहधारी श्री पद्मप्रभमलधारी देव के द्वारा विरचित नियममार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में निश्चय परमावश्यक अधिकार नामका ग्यारहवां श्रुतस्कंत्र पूर्ण हुआ । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -HEAR [ १२ ] शद्धोपयोग अधिकार अथ सफलकर्मप्रलयहेतुभूतशुद्धोपयोगाधिकार उच्यते । जादि पस्सदि सव्वं, बवहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाणवि, पस्सदि रिणयमेण अप्पाणं ॥१५॥ जानाति पश्यति सर्व व्यवहारनयेन केवली भगवान् । केवलज्ञानी जानाति पश्यति नियमेन आत्मानम् ॥१५६।। चाल छेद हे दोनबंधु ) ग्री के वली भगवान तो व्यवहार नय से हो । संपूर्ण वस्तु जानते व देखते सभी ।। वम शुद्ध निश्चयनय से, वे केवली जिनजी। निज आलमा को जानते वा देखते नित ही 11१५६।। ___ अब समस्त कर्मों के प्रलय में हेतुभूत ऐसा शुद्धोपयोग अधिकार कहा जाता है । गाथा १५६ अन्वयार्थ-[ व्यवहारनयेन ] व्यवहारनय से [ केवली भगवान् ] केवली भगवान [सर्व जानाति पश्यति] सब कुछ जानते और देखते हैं [नियमेन] निश्चयनय से [केवलज्ञानो] केवलज्ञानी [ आत्मानं जानाति पश्यति ] आत्मा को जानते और देखते हैं। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शृद्धोपयोग अधिकार [ ४३१ अत्र ज्ञानिनः स्वपरस्वरूपप्रकाशकत्वं कथंचिदुक्तम् । आत्मगुणघातकघातिकर्मप्रध्वंसनेनासावितसकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शनाम्यां व्यवहारनयेन जगत्त्रयकालत्रयवतिसचराचरद्रव्यगुणपर्यायान् एकस्मिन् समये जानाति पश्यति च स भगवान् परमेश्वरः परमभट्टारकः 'पराश्रितो व्यवहारः' इति वचनात् । शुद्धनिश्चयतः परमेश्वरस्य महादेवाधिदेवस्य सर्वज्ञवीतरागस्य परद्रव्यप्राहकत्वदर्शकत्वज्ञायकत्वादिविविधविकल्पवाहिनीसमुद्भूतमूलध्यानाषाद: (१) स भगवान त्रिकालनिरुपाधिनिरवधिनित्यशुद्धसहजज्ञानसहजदर्शनाम्यां निजकारणपरमात्मानं स्वयं कार्यपरमात्मापि जानाति पश्यति च । कि कृत्वा ? पाय धर्मोः तावत् सरप्रकाशकत्व प्रदीपवत् । घटादिप्रमितेः प्रकाशो दोपस्तावद्भिन्नोऽपि स्वयं प्रकाशम्बरूपत्वात् स्वं परं च प्रकाशयति; आत्मापि व्यवहारेण जगत्त्रयं कालत्रयं च पर ज्योतिःस्वरूपत्वात स्वयंप्रकाशात्मकमात्मानं च प्रकाशयति । टोका-ज्ञानी कथंचित् स्वपर प्रकाशक है, गा यहां पर बसा है। परम भट्टारक भगवान् पन्भेश्वर आत्म गुणों के घातक घातिकर्म के ध्वंस हो जाने से प्राप्त हुए सकल बिमल केवलज्ञान आर कंवलदर्शन के द्वारा व्यवहारनय से तीनलोकवर्ती और तीनकालवर्ती में चराचर महित द्रव्य गण पर्यायों को एक । ममय में जानते हैं और देखते हैं क्योंकि पराथिताब्यवहार" व्यवहार पराश्रित है। ऐसा वचन है । ___शुद्धनिश्च यनय में 'परमेश्वर महादेवाधिदेव मर्वन वीतराग के परद्रव्य के ग्राहकत्व, दर्शकत्व, ज्ञायकच आदि विविध विकल्पमापी सेना की उत्पत्ति के लिये मूल | ऐसे ध्यान का अभाव हो जाने से वे भगवान् तीनों काल में उपाधि रहित, अवधि रहित, नित्य, शुद्ध, सहज ज्ञान और महग दर्शन के द्वारा निज कारण परमात्मा को स्वयं कार्य परमात्मा होते हुए भी जानते और देखते हैं । क्या करके जानते देविते हैं ? ज्ञान का धर्म ही तो स्वपर प्रकाशकपना है प्रदीप के समान | घटादि के जानने रूप क्रिया से प्रकामरूप दीपक भिन्न होते हुए भी स्वयं प्रकाशरूप होने से अपने को और * यहां संस्कृत टीका में प्रशुद्धि मालम होती है, इसलिये संस्कृत टीका में तथा उसके अनुवाद में शंका को सूचित करने के लिये प्रश्नवाचक चिह्न दिया है । ... -...-------- Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ ] नियममार उक्त' च षण्णवतिपाषडिविजयोपार्जितविशालकीतिभिर्महासेनपण्डितवेवं: ( अनुष्टुभ ) "यथाबस्तुनिर्णीतिः सम्यग्ज्ञानं प्रदीपवत् । तत्स्वार्थव्यवसायात्म कथंचित् प्रमितेः पृथक् ।। " विश्वशेोणित्वमेवेति सततनिरुपरागनिरंजनस्वभाव निरतत्वात् स्वाश्रितो निश्वयः इति वचनात् । सहजज्ञानं तावत् श्रात्मनः सकाशात् संज्ञालक्षणप्रयोजनेन भिन्नाभिधानलक्षणलक्षितमपि भिन्नं भवति न वस्तुवृत्या चेति, अतः कारणात् एतदात्मगतवर्शनसुखचारित्रादिकं जानाति स्वात्मानं कारणपरमात्मस्वरूपभपि जानातीति । परको प्रकाशित कर देता है। उसी प्रकार से आत्मा भो ज्योतिःस्वरूप होने से व्यवहारनय से त्रिलोक और त्रिकालरूप परको तथा स्वयं प्रकाशरूप आत्मा को प्रकाशित करता है । छयानवे पाखंड मतों पर विजय प्राप्त करने से उपार्जित की है विशालकीति जिन्होंने ऐसे महामेन पंडित देव ने भी ऐसे ही कहा है श्लोकार्थ - यथार्थरूप से वस्तु का निर्णय होना सम्यग्ज्ञान है, वह प्रदीप के समान स्व और अर्थ का निश्चय कराने वाला है, तथा प्रमिति - जाननेरूप क्रिया से कथंचित् भिन्न है । " भिन्न लक्षण आदि से अब निश्चयनय के पक्ष में भी ( ज्ञान के ) स्वपर प्रकाशकपना है ही है, क्योंकि वह उपराग रहित निरंजन स्वभाव में निरन है । तथा "स्वाश्रितां निश्चयः " निश्चय स्वाश्रित है ऐसा वचन है । उसीको कहते हैं - सहजज्ञान, संज्ञा, लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा से आत्मा से भिन्न है क्योंकि भिन्न नाम और लक्षित हो रहा है तथापि वह सहजशान भिन्न लक्षण आदि से परमार्थ से भिन्न नहीं है । इसलिये यह ( सहज ज्ञान ) आत्मा में होने वाले दर्शन, सुख चारित्र आदि को जानता है और कारण परमात्मास्वरूप ऐसी अपनी आत्मा को भी जानता है । ऐसा अर्थ हुआ । लक्षित होते हुए भी Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार [ ४३३ __तथा चोक्त श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः ( मंदाक्रांता) "बन्धच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेतनित्योद्योतस्फुटितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम् । एकाकारस्वरसभरतोलापतागंभीरधी पूर्ण ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि ।।" तथा हि ( स्रग्धरा) आत्मा जानाति विश्वं शनवरतमयं केवलज्ञानमूर्तिः मुक्तिश्रीकामिनीकोमलमुखकमले कामपीडां तनोति । --.----. .- -. . - - -..- - उसीप्रकार से श्री अमृतचन्द्रमुरि ने भी कहा है__ "श्लोकार्थ-'अपनी अचल महिमा में लीन हुआ पूर्ण ज्ञान जाज्वल्यमान हो रहा है, जो कि कर्म बंध के विच्छेद से अतुल और अक्षय से मोक्ष का अनुभव करता हा नित्य उद्योतरूप सहजावस्था को प्रकटित करता हुआ एकांत से-सर्वथा शुद्ध है, और एकाकाररूप स्वरम के भार से अत्यन्त गम्भीर तथा धोर है।" भावार्थ-जव कर्म बंध का अभाव हो जाता है तब जान उपयुक्त विशेषणों से विशिष्ट होता हुआ पूर्णरूप प्रकट हो जाता है और अपने स्वभाव में ही लीन Prinauthinkhojikasan उसीप्रकार से | टीकाकार श्री मुनिराज इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- ] (२७२) श्लोकार्थ---यह केवलज्ञान की मूर्तिस्वरूप आत्मा व्यवहारनय से ही विश्व को जानता है, और मुक्तिलक्ष्मीरूपी कामिनी के कोमल मुखकमल पर १. समयसार कलश-१६२ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ ] नियममार शोभा सौभाग्यचिह्नां व्यवहरणनयाद्देवदेवो जिनेशः तेनोच्चनिश्चयेन प्रहतमलकलिः स्वस्वरूपं स वेत्ति ।।२७२॥ जुगवं वट्टइ णाणं, केवलगाणिस्स दंसरणं च तहा। दिरणयरपयासतापं, जह वट्टइ तह मुणेयध्वं ॥१६०।। युगपद् वर्तते ज्ञानं केवलज्ञानिनो दर्शनं च तथा । दिनकरप्रकाशतापौ यथा वर्तेते तथा ज्ञातव्यम् ॥१६०।। अहन केवली के, ये ज्ञान व दर्शन । दोनों सदा करें ही इकसाथ में वर्तन ।। यि का प्रकाश श्री प्रताप साथ ही जैसे । होने सदा प्रभू के ज्ञान दर्श भी वैसे ।।१६।। इह हि केवलज्ञान केवलदर्शनयोर्युगपद्वर्तनं दृष्टान्तमुखेनोक्तम् । अत्र दृष्टान्त - .. -- - ----- काम पीड़ा को नथा मौभाग्यचिह्न युक्त शोभा को विस्तृत करता है । नियनय से वह देव जिनेश्वर मल और क्लेश को नष्ट करने वाला होता हुआ अतिशयरूप से अपने स्वरूप को ही जानता है । भावार्थ-केवलज्ञानी आत्मा व्यवहारनय से समस्त विश्व को जानता है और निश्चयनय में अपने स्वरूप को ही जानता है । । गाथा १६० अन्वयार्थ---[ केवलजानिनः ] केवलज्ञानी के [ ज्ञान तथा च दर्शनं ] ज्ञान और दर्शन [ युगपद् ] युगपत् [ वर्तते ] होते हैं, [ यथा ] जैसे [ दिनकर प्रकाशतापौ ] सूर्य के प्रकाश और ताप [ वर्तते ] युगपत् रहते हैं [ तथा ज्ञातव्यं ] वैसे ही जानना चाहिये । टीका-यहां पर केवलज्ञान और केवलदर्शन का युगपत् रहना यह कथन दृष्टांतमुग्व से किया है । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार मध्यगतस्य सर्बाधिनाथस्य क्षे कचित्काले बलाहकप्रक्षोभाभावे विद्यमाने नभस्स्थलस्य किरणस्य प्रकाशतापौ यथा युगपद् वर्तते तथैव च भगवतः परमेश्वरस्य जगत्त्रयकालत्रयर्थातिषु स्थावरजंगमद्रव्यगुण पर्यायात्मकेषु ज्ञेयेषु सकल विमलकेवलज्ञान केवलदर्शने च युगपद् वर्तते । कि च संसारिणां दर्शनपूर्वमेव ज्ञानं विति इति । तथा चोक्त प्रवचनसारे अन्यच्च - -- "जाणं अत्यंतगयं लोयालोएसु बित्थडा दिट्ठी । मणिट्ठ सम्बं इट्ठ पूजं तु तं ल ।।" [ ४३५ यहां पर दृष्टांत के पक्ष में किसी काल में मंत्र के प्रक्षोभ का अभाव होने पर बादलों के न होने पर आकाश स्थल के मध्य में स्थित ह भास्कर के प्रकाश और नाम एक साथ रहते हैं । उसी प्रकार से तीर्थाधिनाथ भगवान परमेश्वर के तीनों जगत् और तीनों कालवर्ती स्थावर और जंगम रूप द्रव्य गुण पर्यायात्मक ज्ञेय पदार्थों में सकल विमल केवलज्ञान और केवल दर्शन एक साथ होते हैं, और विशेष यह है कि संसारी जीवों के दर्शन पूर्वक ही ज्ञान होता है, ऐसा समझना । इसी प्रकार से प्रवचनमार में भी कहा है "गाथार्थ - ज्ञान' पदार्थों के अंत को प्राप्त हो चुका है और दर्शन लोकालोक में विस्तृत है, सर्व अनिष्ट नष्ट हो गया है पुनः जो इष्ट है वह सब उपलब्ध हो गया है । " और अन्य भी है- १. प्रवचनसार गाथा - ६१ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार "दंसरणपुध्वं गाणं छदमत्थाणं ण दोण्णि उवप्रोग्गा । जुगवं जम्हा केवलिणाहे जुगवं तु ते दोघि ॥" तथा हि-- वर्तते ज्ञानदृष्टी भगवति सततं धर्मतीर्थाधिनाथे सर्वज्ञेऽस्मिन समंतात् युगपदसदृशे विश्वलोकैकनाथे । एतायुष्णप्रकाशौ पुनरपि जगतां लोचनं जायतेऽस्मिन् तेजोराशौ दिनेशे हतनिखिलतमस्तोमके ते तथैवम् ॥२७३॥ ( वसंततिनका ) सद्बोधपोतमधिरुह्य भवाम्बुराशिमुल्लंघ्य शास्वतपुरी सहसा त्वयाप्ता। "गाथार्थ-छद्मस्थ' जीवों के दर्शन पूर्वक ज्ञान होता है, क्योंकि उनके यगपत् दो उपयोग नहीं होते हैं। और केवली भगवान के वे दोनों उपयोग युगपत् ही होते हैं।" उसी प्रकार से [ श्री टीकाकार मुनिराज केवलज्ञानी भगवान की चरण शरण को ग्रहण करते हुये चार श्लोक कहते हैं-] (२७३) श्लोकार्थ-धर्मतीर्थ के अधिपति, विश्वलोक के एक नाथ असदृशलोकोत्तर से इन सर्वज्ञ भगवान् में सतत् सब तरफ से ज्ञान और दर्शन युगपत् रहते हैं। जैसे अखिल तिमिर समूह को नष्ट करने वाले, तेज के पुज स्वरूप, इस सूर्य में ये उष्णत्व और प्रकाश एक साथ इस लोक में जगत के जीवों के नेत्र गोचर होते हैं। उसी प्रकार से वे ज्ञान और दर्शन भी केवली के यगपत प्रगट होते हैं। (२७४) श्लोकार्थ-हे देव ! आप सद्बोधरूपी जहाज में बैठकर संसाररूपी समुद्र को उलंघ कर सहसा शाश्वतपुरी में पहुंच गये हैं। अब मैं भी उस जिननाथ के १. द्रव्यसंग्रह गाथा-१४ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्र युद्धोपयोग अधिकार तामेव तेन जिननाथपथाधुनाहं याम्यत्यवस्ति शरणं किमिहोत्तमानाम् ।।२७४॥ ( वाकांता ) एको देवः स जयति जिनः केवलज्ञानभानुः कामं कान्ति वदनकमले संतनोत्येव कांचित् । मुक्तस्तस्याः समरसमयानंगसौख्यप्रदायाः को नालं शं दिशतुमनिशं प्रेमभूमेः प्रियायाः ।। २७५ ।। अनुष्टुभ् ) जिनेन्द्रो मुक्तिकामिन्या: मुखपद्म जगाम सः । अलिलीलां पुनः काममनङ्गसुखमद्वयम् ।।२७६ ।। [ ८३७ मार्ग से उसी शास्त्रतनगरी को प्राप्त करता हूं। क्योंकि इस लोक में उत्तम पुरुषों के लिये क्या अन्य कुछ ( उस मार्ग मे अतिरिक्त ) शरण है ? भावार्थ - जिनराज ने जिस ज्ञान के आश्रय से संसार से निकलकर मुक्ति कां प्राप्त किया है उस मार्ग के अतिरिक्त मार्ग मे कोई भी जीव मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकते हैं, इसलिये उसी जिनदेव के मार्ग की शरण लेना चाहिये । (२७५) श्लोकार्थ - केवलज्ञान भानु ऐसे वे एक देव जिनदेव जयशील हो रहे हैं । वे समरसमयी अनंग सौख्य को प्रदान करने वाली ऐसे उस मुक्ति सुन्दरी के मुखकमल पर इच्छानुसार किसी एक अद्भुत कांति को विस्तृत करते हैं, क्योंकि कौन अपनी स्नेहमयी प्रिया को निरन्तर सुख देने में समर्थ नहीं होगा ? ( २७६) श्लोकार्थ - उन जिनेन्द्रदेव ने मुक्ति कामिनी के मुखकमल के प्रति भ्रमर की लीला को धारण किया, पुनः यथेष्ट अद्वितीय अनंग - आत्मिक सुख को प्राप्त किया । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियममार गाणं परप्पयासं, दिट्ठी अप्पप्पयासया चेव । अप्पा सपरपयासो, होदि ति हि मण्णसे जवि हि ॥१६१॥ ज्ञानं परप्रकाशं दृष्टिरात्मप्रकाशिका चैव । आत्मा स्वपरप्रकाशो भवतीति हि मन्यसे यदि खलु ।।१६१॥ एकांत से यदि ज्ञान ये परको हि प्रकाशे । दर्शन भी यदि आत्मा को मात्र प्रकाशे ।। आत्मा स्वपर प्रकाशी है मान्यता यही । तब तो सुनो जो दोष इसमें आवते सही ।। १६१।। आत्मनः स्वपर प्रकाशकत्वविरोधोपन्यासोयम् । इह हि तावदात्मनः स्वपरप्रकाशकत्वं कमिति चेत् । ज्ञानदर्शनादिविशेषगुणसमृद्धो ह्यात्मा, तस्य ज्ञानं शुद्धात्मप्रकाशकासमर्थत्वात् पर प्रकाशकमेव, यद्येवं दृष्टिनिरंकुशा केवलमभ्यंतरे ह्यात्मानं प्रकाशयति चेत् अनेन विधिना स्वपरप्रकाशको ह्यात्मेति हहो जडमते प्राथमिकशिष्य, दर्शनशुद्ध रभावात् एवं मन्यसे, न खल जडस्त्वत्तस्सकाशादपरः कश्चिज्जनः । अथ द्यविरुद्धा al गाथा १६१ अन्वयार्थ— [ ज्ञान पर प्रकाशं च ] ज्ञान परप्रकाशी है और [ दृष्टिः आत्मप्रकाशिका एव ] दर्शन आत्म प्रकाशी ही है तथा [आत्मा स्वपरप्रकाशः भवति] आत्मा स्व और पर का प्रकाशक होता है, यदि इति हि खल मन्यसे] यदि तुम ऐसा ही निश्चित मानते हो, तो ठीक नहीं है। यह आत्मा के स्वपर प्रकाशकपने के विरोध का कथन है। प्रथम ही यहां आत्मा को स्वपर प्रकाशकपना किस प्रकार है ? आत्मा ज्ञान दर्शनादि विशेष गुणों से समद्ध है, उसका ज्ञान शुद्ध आत्मा को प्रकाशित करने में असमर्थ होने से परप्रकाशक ही है, यदि ऐसी बात है तो दर्शन निरंकुश हुआ केबल अभ्यंतर में ही आत्मा को प्रकाशित करता है और इस विधि से आत्मा ही स्वपर प्रकाशक है, इसप्रकार मानने पर तो हे जड़मति प्राथमिक शिष्य ! यदि तू दर्शन शुद्धि के अभाव से ऐसा मानता हो तो वास्तव में तुझसे भिन्न अन्य कोई पुरुष जड़ नहीं है, अर्थात् तू ही मूर्ख है । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार [ ४३६ । स्याद्वादविद्यादेवता समभ्यर्चनीया सद्भिरनवरतम् तत्रकान्ततो ज्ञानस्य परप्रकाशकत्वं न समस्ति; न केवलं स्थान्मते वर्शनमपि शुद्धास्मानं पश्यति । वसनज्ञानप्रभृत्यनेकधर्मागामाधारो द्वारमा । व्यवहारपक्षेपि केवलं परप्रकाशकस्य ज्ञानस्य न चात्मसंबन्धः । सदा बहिरवस्थितत्वात्, आत्मप्रतिपत्त रभावात् न सर्वगतस्वं; अतःकारणाविदं ज्ञानं न ह भाति, मृगतृष्णाजलवत् प्रतिभासमात्रमेव । दर्शनपक्षेऽपि तथा न केवलमभ्यन्तरप्रतिप तिकार वर्शनं भवति । सदैव सर्व पश्यति हि चक्षः स्वस्याभ्यन्तरस्थितां कनीनिकां न पश्यत्येव । अतः स्वपरप्रकाशकत्वं ज्ञानदर्शनयोरविरुद्धमेव । ततः स्वपरप्रकाशको हात्मा ज्ञानदर्शनलक्षण इति । 1. तथा चोक्त श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः इसलिये सत् पुरुषों को अविरुद्ध स्याद्वाद विद्या देवता की सम्यक् प्रकार से अर्चना-आराधना करनी चाहिये, उस स्याद्वाद में एकांत से जान को पर प्रकाशकता नहीं है, स्याद्वादमत में दर्शन भी केवल शुढात्मा को ही नहीं देखता है। क्योंकि आत्मा दर्शन, जान आदि अनेक धर्मों का आधार है। व्यवहार पक्ष में भी केवल परप्रकाशीज्ञान का आत्मा के साथ संबंध नहीं रहेगा, क्योंकि सदा वह बाहर ही स्थित रहेगा, तथा आत्मा के ज्ञान का अभाव होने से वह सर्वगत भी नहीं रहेगा और इस कारण से यह ज्ञान ही नहीं होगा प्रत्युत मृगतष्णा के जल सदृश प्रतिभास मात्र ही रहेगा। दर्शन के पक्ष में भी कहते हैं कि उसी प्रकार से दर्शन भी केवल अभ्यंतर के ज्ञान का कारण नहीं है क्योंकि चक्ष सदा ही सब देखतो है, किन्तु अपने भीतर में स्थित हुई कनीनिका-पुतली को नहीं देखती है । इसलिये ज्ञान और दर्शन इन दोनों में स्वपर प्रकाशपना अविरुद्ध ही है। इस हेतु से ज्ञान दर्शन लक्षण वाला आत्मा ही स्वपर प्रकाशक है, ऐसा समझना । ___उसी प्रकार से श्रीमान् अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा है Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० ] तथा हि नियमसार ( स्रग्धरा "जानमप्येष विश्वं युगपदपि भवद्भाविभूतं समस्तं महाभावाद्यदात्मा परिणमति परं नैव निलूं नकर्मा । तेनासो कुरा एवं प्रस भविकसितज्ञप्ति विस्तारपीतज्ञेयाकारां त्रिलोकीं पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्तिः ॥ " ( मंदाक्रांता ) ज्ञानं तावत् सहजपरमात्मानमेकं विदित्वा लोकालोको प्रकटयति वा तद्वतं ज्ञेयजालम् । दृष्टिः साक्षात् स्वपरविषया क्षायिकी नित्यशुद्धा ताभ्यां देवः स्वपरविषयं बोधति ज्ञेयराशिम् ॥। २७७ ।। जाणं परप्पयासं, तइया णाणेण दंसणं भिण्णं । रण हवदि परदव्वगयं, दंसणमिदि वण्णि दं तम्हा ||१६२ || " श्लोकार्थ - जिसने कर्मों को छिन्न कर दिया है, ऐसा वह आत्मा, भुत, भविष्यत् और वर्तमान समस्त विश्व को युगपत् जानता हुआ भी मोह के अभाव से पररूप परिणत नहीं होता है । इसलिये जिसने अत्यन्त विकसित हुई ज्ञप्ति के विस्तार से समस्त ज्ञेयाकारों को पी लिया है। ऐसे तीन लोक संबंधी पदार्थों को पृथक् अपृथक् उद्योतित करता हुआ यह ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है ।" और उसी प्रकार से [ अब टीकाकार मुनिराज इसी को स्पष्ट करते हुये कहते हैं--] ( २७७ ) श्लोकार्थ -- ज्ञान एक सहज परमात्मा को जानकर लोकालोक को अथवा उसके समस्त ज्ञेय जाल को प्रगटित करता है । और नित्य शुद्ध, क्षायिक दर्शन भी साक्षात् स्वपर को विषय करता है । उन दोनों के द्वारा यह देव ( आत्मा ) स्वपर विषयक ज्ञेय समूह को जानता है । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार [ ४४१ ज्ञानं परप्रकाशं तदा ज्ञानेन दर्शनं भिन्नम् । न भवति परद्रव्यगतं दर्शन मिति वरिणतं तस्मात् ।।१६२॥ यदि मात्र परप्रकाशक ये ज्ञान है तब तो। इस ज्ञान से वो दर्शन होवेगा भिन्न तो ।। क्योंकि तुम्हारे मत से दर्शन स्वगा-रहे । नहि परप्रकाश करता परद्रव्यमत न है ॥१६२।। पूर्वसूत्रोपात्तपूर्वपक्षस्य सिद्धान्तोक्तिरियम् । केवलं परप्रकाशकं यदि चेत् ज्ञानं तदा परप्रकाशकप्रधानेनानेन ज्ञानेन दर्शनं भिन्नमेव । परप्रकाशकस्य ज्ञानस्य चात्मप्रकाशकस्य दर्शनस्य च कथं सम्बन्ध इति चेत सह्यविध्ययोरिव अथवा भागीरथीश्रीपर्वतवत् । आत्मनिष्ठं यत् तद् दर्शनमस्त्येव, निराधारत्वात तस्य जानस्यशुन्यलापत्तिरेव, अथवा अत्र तत्र गतं ज्ञानं तत्तद्रव्यं सर्वं चेतनत्वमापद्यते, अतस्त्रिभुवने न कश्चिदचेतनः अन्वयार्थ-[ ज्ञानं पर प्रकाशं ] ज्ञान परप्रकाशी है [ तदा ] तब तो [ ज्ञानेन दर्शनं भिन्न ] ज्ञान से दर्शन भिन्न सिद्ध हुआ, [दर्शनं परद्रव्यगतं न भवति] क्योंकि दर्शन परद्रव्यगत-परद्रव्यों का प्रकाशक नहीं होता है [ इति वर्णितं तस्मात् ] ऐसा पूर्व में वर्णन किया है ।। टोका---पूर्व सूत्र में कथित पूर्वपक्ष का यह सिद्धान्त संबंधी कथन है । यदि ज्ञान केवल परप्रकाशी होवे तो परप्रकाशन में प्रधान ऐसे इस ज्ञान से दर्शन भिन्न हो रहेगा । और यदि ऐसा है तो परप्रकाशी ज्ञान और स्वप्रकाशी दर्शन : का संबंध कसे होगा ? जैसे कि सह्य और विध्य पर्वत का अथवा भागीरथी और । श्रीपर्वत का संबंध नहीं है । जो आत्मा में स्थित है वह दर्शन ही है, तब तो निराधार होने से उस ज्ञान । को शून्यता की ही आपत्ति होती है । अथवा जहां, जहां ज्ञान जावेगा, वे वे सभी द्रव्य । चेतनरूप हो जावेंगे, अतः त्रिभुवन में कोई अचेतन पदार्थ नहीं सिद्ध होगा, ऐसा इस Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ ] नियमसार पदार्थः इति महतो दूषणस्यावतारः । तदेव ज्ञानं केवलं न परप्रकाशकम् इत्युच्यसे है शिष्य तहि दर्शनमपि न केवलमात्मगतमित्यभिहितम् । ततः खल्विदमेव समाधानं सिद्धान्त हृदयं ज्ञानदर्शनयोः कथंचित् स्वपरप्रकाशत्वमस्त्येवेति । तथा चोक्तं श्रीमहासेनपंडितदेवैः तथा हि- "ज्ञानाद्भिनो न नाभिन्नो भिन्नाभिन्नः कथंचन । ज्ञानं पूर्वापरीभूतं सोऽयमात्मेति कीर्तितः ॥” ( मंदाक्रांता ) आत्मा ज्ञानं भवति न हि वा दर्शनं चैव तद्वत् ताभ्यां युक्तः स्वपरविषयं वेत्ति पश्यत्यवश्यम् । संज्ञाभेदाद कुलहरे चात्मनि ज्ञानदृष्टयोः भेदो जातो न खलु परमार्थेन बह्न ष्णवत्सः ॥। २७८ ।। महान दूषण का प्रसंग हो जावेगा । इस दोष के भय से यदि तुम ऐसा कहो कि ज्ञान केवल परकाशी नहीं है तब तो हे शिष्य ! दर्शन भी केवल आत्मगत नहीं है, ऐसा ही कहना होगा । इसलिये निश्चितरूप से यही समाधान सिद्धांत के रहस्यरूप है कि ज्ञान और दर्शन कथंचित् स्वपरप्रकाश हैं ही हैं । उसी प्रकार से श्री महासेन पंडित देव ने भी कहा है " श्लोकार्थ - ज्ञान से आत्मा न भिन्न है और न अभिन्न है किंतु कथंचित् भिन्नाभिन्न है, क्योंकि पूर्व और अपर दोनों अवस्थाओं में व्याप्त हुआ जो ज्ञान है, सो यह आत्मा है ऐसा कहा गया है।" उसी प्रकार से [ अब टीकाकार मुनिराज इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं - ] (२७८) श्लोकार्थ - आत्मा ( एकांत से ) ज्ञान नहीं है, उसीप्रकार दर्शन भी नहीं है, किंतु उन दोनों से युक्त हुआ वह स्वपर विषय को जानता और देखता अवश्य है, Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार [ ४४३ अप्पा परप्पयासो, तइया अप्पेण दंसरणं भिण्णं । रण हवदि परदब्वगयं, दसरणमिदि वरिपदं तम्हा ॥१६३।। आत्मा परप्रकाशस्तदात्मना दर्शनं भिन्नम् । न भवति परद्रव्यगतं दर्शन मिति वणितं तस्मात् ॥१६३॥ प्रात्मा है पर प्रकाशक यदि आपका ये मत । तो प्रात्मा से दर्शन होगा स्वयं पृथक् ।। क्योंकि तुम्हारा दर्शन नहिं पर प्रकाशता । मी तुम्हीं ने पहले रक्खी थी मान्यता ।।। ६३ ।। एकान्तेनात्मनः परप्रकाशकत्वनिरासोयम् । यथैकान्तेन ज्ञानस्य परप्रकाशकत्वं 1. पुरा निराकृतम्, इदानीमात्मा केवलं परप्रकाशश्चेत् तत्तथैव प्रत्यादिष्टं भावभाववतो रेकास्तित्वनिवृ त्तत्वात् । पुरा किल ज्ञानस्य परप्रकाशकत्वे सति तद्दर्शनस्य भिन्नत्वं । ज्ञातम् । अत्रात्मनः परप्रकाशकत्वे सति तेनैव दर्शनं भिन्नमित्यवसेयम् । अपि चारमा पाग समह के हरण करने वाले ऐसे आत्मा में संज्ञा के भर से ज्ञान और दर्शन में भेद हो गया है, किंतु परमार्थ रो अग्नि और उष्ण के समान वह भेद नहीं है । गाथा १६३ अन्वयार्थ— [ आत्मा परप्रकाशः ] यदि आत्मा परप्रकाशी है [ तदा ] । तब तो [ आत्मना दर्शन भिन्न ] आत्मा से दर्शन भिन्न हो जायेगा [ दर्शन परद्रव्य। गतं न भवति ] क्योंकि दर्शन परद्रव्यगत नहीं है। [ इति यणितं तस्मात् ] ऐसा । पूर्व मूत्र में वर्णन किया गया है । टीका---एकांत से आत्मा के 'परप्रकाशकत्य का यह निरसन है । जिसप्रकार पहले एकांत से ज्ञान के परप्रकाशकत्व का निराकरण किया है, वैसे ही अब यदि "आत्मा केवल परप्रकाशी है" तो उसका उसीप्रकार वपन्दन हो जाता है, क्योंकि भाव और भाववान् एक अस्तित्व से बने हैं। पहले ज्ञान को परप्रकाशक मानने पर उससे दर्शन को भिन्न कहा है और यहां पर आत्मा को परप्रकाशक कहने पर उससे ही दर्शन * यहाँ कुछ अशुद्धि हो ऐसा लगता है । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ ] नियमसार न परद्रव्यगत इति चेत् तद्दर्शनमप्यभिन्नमित्यवसेयम् । ततः खल्यात्मा स्वपरप्रकाशक .. इति यावत् । यथा कथंचित्स्वपरप्रकाशकत्वं ज्ञानस्य साधितम् अस्यापि तथा, धर्ममिणोरेकस्वरूपत्वात् पावकोष्णवदिति । ( मंदाक्रांना) आत्मा धर्मी भवति सुतरां ज्ञानग्धर्मयुक्तः तस्मिन्नेव स्थितिमविचला तां परिप्राप्य नित्यम् । सम्यग्दृष्टिनिखिलकररणग्रामनोहारभास्वान् मुक्ति याति स्फुटितसजावस्थया संस्थितां ताम् ॥२७॥ गाणं परवयास, ववहारणयेण दंसणं तम्हा । अप्पा परप्पयासो, ववहारणयेण सणं तम्हा ॥१६४॥ - -- . . . ... - - भिन्न हो जायेगा, ऐमा समझना चाहिये । और यदि "आत्मा परद्रव्यगन नहीं है" ऐसा कठोग तो दर्शन भी अभिन्न ही रहेगा ऐसा समझना चाहिये । अयान आत्मा को स्वपरप्रकाशी कहने से दर्शन को भी आत्मा से अभिन्न ही कहना चाहिये । इमलिये आत्मा निश्चितरूप से स्वपरप्रकाशक है, ऐसा समझना । जैसे कथंचित् ज्ञान को स्वपरप्रकाशी सिद्ध किया है वैसे हो आत्मा को समझना, क्योंकि धर्म और धर्मी एक स्वरूप हैं, अग्नि और उष्णता के समान । अर्थात-आत्मा धर्मी है, क्योंकि वह अतिशयरूप से ज्ञान और दर्शन से युक्त हैं । [ अब टीकाकार मुनिराज पुनरपि धर्म और धर्मी को स्पष्ट करते हुए कहते हैं (२७६) श्लोकार्थ-आत्मा धर्मी है, क्योंकि वह अतिशयरूप से ज्ञान और दर्शन से युक्त है उसमें ही नित्य उस अविचल स्थिति को प्राप्त करके, अखिल इन्द्रिय समूहरूपी हिम के लिये सूर्य स्वरूप सम्यग्दृष्टि 'जीव' प्रगट हुयी सहज अवस्था से सुस्थित ऐसे उस मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार [ ४४५ ज्ञानं परप्रकाशं व्यवहारनयेन दर्शनं तस्मात् । आत्मा परप्रकाशो व्यवहारनयेन दर्शनं तस्मात् ।।१६४।। अतएब अब समझ लो ब्यवहार नय से यह । है ज्ञान पर प्रकाशी दर्शन उसी तरह ॥ इयवहार नप से आत्मा पर को प्रकाशना । दर्शन भी तो बरो ही पर को प्रकाशता ।।१६४।। व्यवहारनयस्य सफलत्वप्रद्योतनकथनमाह । इह सकलकर्मक्षयप्रादुर्भावासादितसकलबिमलकेवलज्ञानस्य पुद्गलादिमूर्तामूर्तचेतनाचेतनपरद्रव्यगुरणपर्यायप्रकरप्रकाशकत्वं कमिति चेत् पराश्रितो व्यवहारः इति वचनात् व्यवहारनयबलेनेति । ततो दर्शनमपि तादृशमेव । त्रैलोक्यप्रक्षोभहेतभूततीर्थकरपरमदेवस्य शतमखशतप्रत्यक्षवंदनायोग्यस्य कार्यपरमात्मनश्च तद्वदेव परप्रकाशकत्वम् । तेन व्यवहारनयबलेन च तस्य खलु भगवतः केवलदर्शनमपि तादृशमेवेति । -..--.- -- - --- - -... -.- - - - --. गाथा १६४ अन्वयार्थ— [ व्यवहारनयेन ] व्यवहार नय से [ जानं परप्रकाशं ] ज्ञान परप्रकाशी है [ दर्शनं तस्मात ] इसलिये दर्शन भी परप्रकाशी है, [ व्यवहारनयेन ] व्यवहार नय से [ आत्मा परप्रकाशः ] आत्मा परप्रकाशी है [ दर्शनं तस्मात् ] अतः दर्शन भी परप्रकाशो है। टीका-व्यवहारनय की सफलता को प्रकाशित करते हुए कहते हैं । प्रश्न----यहां जो सकल कर्मों के क्षय से प्रकट होने वाला सकल विमल केवल जान है वह पुदगलादि मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतनरूप परद्रव्य और उनकी गुणपर्यायों के समूह का प्रकाशक कंसे है ? उत्तर-पराश्रितो व्यवहारः" ( असद्भुत ) व्यवहार पराश्रित है, इस वचन से व्यवहारनय की अपेक्षा से ऐसा है, इसलिये दर्शन भी वैसा ही है और उसीप्रकार से सौ इंद्रों से प्रत्यक्ष में वंदना योग्य, ऐसे त्रैलोक्य में प्रक्षोभ के लिये कारण Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ] नियमसार तथा चोक्त श्रुतबिन्दौ--- ( मालिनी) "जयति विजितदोषोऽमयंमत्येन्द्र मौलिप्रविलसदुरुमालाभ्यचितांघ्रिजिनेन्द्रः । त्रिजगदजगती यस्येदृशौ व्यश्नुवाते सममिय विषयेष्वन्योन्यवृत्ति निषेद्धम् ॥" तथा हि - - - - - -- - - - - -- भूत तीर्थकरपरमदेव जो कि कार्य परमात्मा हैं वे भी परप्रकाशक हैं । उसो व्यवहार नय के बल से वास्तव में उन भगवान का केवलदर्शन भी वैसा ही है । इसीप्रकार में 'थनविदु' में भी कहा है "श्लोकार्थ-जिन्होंने दोषों को जीत लिया है, देवेन्द्र और नरेन्द्रों के मुकुटों में लगे हये प्रकाशशील अनध्यं मालाओं में अचित हैं चरणयगल जिनके ऐसे जिनेन्द्र भगवान जयवंत हो रहे हैं। विषयों में परस्पर में प्रवेश न करते हुये ऐसे तीनों लोक । और अलोक जिनमें युगपत् ही व्याप्त हो रहे हैं।" भावार्थ:-जिनके ज्ञानस्वरूप आत्मा में समस्त लोक और अलोक एवं उनके चेतन-अचेतन पदार्थ परस्पर में एक दूसरे में प्रवेश न करके अथवा ज्ञान ज्ञेय में और ज्ञेय ज्ञान में प्रवेश न करके एक साथ झलक रहे हैं ऐसे महिमाशाली गतेन्द्र पूजित, निर्दोष जिनेन्द्र भगवान सदा जयशील हैं।" उसीप्रकार [ श्री टीकाकार मुनिराज ज्ञानस्वरूप आत्मा की प्रशंसा करते हुए कहते हैं-] १, यह ग्रन्थ अप्राप्य है । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार [ ४४७ ( मालिनी) त्ययहरणनयेन ज्ञानपुजोऽयमात्मा प्रकटतरसुदृष्टिः सर्वलोकप्रदर्शी । विदितसकलमूर्तामूर्ततस्वार्थसार्थः स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ॥२८०।। पारणं अप्पपयासं, पिच्छ्यण्यएण दंसणं तम्हा । प्रप्पा अप्पपयासो, रिगच्छ्यरण्यएण दंसणं तम्हा ॥१६॥ ज्ञानमात्मप्रकाशं निश्चयनयेन दर्शनं तस्मात । आत्मा आत्मप्रकाशो निश्चयनयेन दर्शनं तस्मात् ।।१६५॥ ये जान निश्चय न आत्मा को जानता । वमे ही ये दर्शन भी यात्गा प्रकाशता ।। प्रात्मा भी निश्चय नय से प्रात्म प्रकाशता । दर्शन भी तो वैसे ही ग्रामा प्रकाशना । १६५।। (२८०) श्लोकार्थ--जान स्वरूप यह आत्मा अत्यन्त प्रगट दर्शन बाला E होता हुआ व्यवहारनय से सर्वलोक को देखने वाला है तथा समस्त मर्तिक अमतिक E ऐसे तत्त्वार्थ समूह को जानता हुआ वह परम लक्ष्मी रूपी कामिनो का प्रिय वल्लभ में हो जाता है। भावार्थ-आत्मा के दर्शन और ज्ञान ये भेद सद्भुत व्यवहारनय से ही हैं निश्चयनय से तो यह अग्वगड एक ही हैं । गाथा १६५ अन्वयार्थ-[निश्चयनयेन] निश्चयनय से [ज्ञानं] ज्ञान [ आत्मप्रकाशं ] आत्म प्रकाशी है, [ दर्शनं तस्मात् ] दर्शन भी उसीप्रकार आत्म प्रकाशी है । [निश्चयनयेन] निश्चयनय से [ आत्मा ] आत्मा [ आत्मप्रकाशः ] आत्मप्रकाशी है, [दर्शनं तस्मात् ] दर्शन भी वैसा ही है । ui-la मामल Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ ] नियममार निश्चयनयेन स्वरूपाख्यानमेतत् । निश्चयनयेन स्वप्रकाशकत्वलक्षणं शुद्धज्ञानमिहाभिहित तथा सकलावरणप्रमुक्तशुद्धदर्शनमपि स्थप्रकाशकपरमेव । प्रात्मा हि विमुक्तसकलेन्द्रियव्यापारत्वात स्वप्रकाशकत्वलक्षणलक्षित इति यावत् । दर्शनमपि विमुक्त: बहिविषयत्वात स्वप्रकाशकत्वप्रधानमेय । इत्थं स्वरूपप्रत्यक्षलक्षणलक्षिताक्षुण्णसहजशुद्ध- । ज्ञानवर्शनमयत्वात् निश्चयेन जगत्त्रयकालत्रयतिस्थावरजंगमात्मकसमस्तद्रव्यगुणपर्याय विषयेषु आकाशाप्रकाशकादि प्रकाशाप्रकाशकादि ] विकल्पविदूरस्सन् स्वस्वरूपे * संज्ञालक्षणप्रकाशतया निरवशेषेणान्तर्मुखत्वादनबरतम् अखंडाद तचिच्चमत्कारमूतिरात्मा तिष्ठतीति । (मंदाक्रांता) आत्मा ज्ञानं भवति नियतं स्वप्रकाशात्मकं या दृष्टिः साक्षात् प्रहतबहिरालंबना सापि चैषः । टीका-यह निश्चयनय की अपेक्षा स्वरूप का कथन है । यहां निश्चयनय से शुद्धज्ञान को स्वप्रकाशक लक्षण वाला कहा है, उसीप्रकार से सकल आवरण से रहित शुद्ध दर्शन भी ग्यप्रकाशकम्प ही है । निश्चिनरूप मे आत्मा सकल इंद्रियों के व्यापार से मुक्त होने में स्वप्रकाशक लक्षण सं लक्षित ही है और दर्शन भी बाह्य विषयों से रहित होने ग स्वप्रकाशकत्व प्रधान ही है । इसप्रकार स्वरूप को प्रत्यक्ष करने का लक्षण से लक्षित अक्षण्ण-अखंड सहज शुद्ध ज्ञान दर्शनमय होने से निश्चय में जगत्त्रय, कालत्रयवर्ती रथावर जंगमरूप समस्त द्रव्य गुण और पर्यायरूप विषयों में आकार प्रकाशक आदि विकल्पों से अति दुर रहला हुआ अपने स्वरूप में सम्यक् अनुभव लक्षण प्रकाश के द्वारा निरवणेषरूप से अंतर्मुख होने से सतत अखण्ड, अद्वैत चिच्चमत्कार मूर्ति स्वरूप आत्मा रहता है। [अब टोकाकार मुनिराज ज्ञानदर्शनमयो आत्मा की महिमा बतलाते हुए कहते हैं-] (२८१) श्लोकार्थ-आत्मा ज्ञानस्वरूप है और ज्ञान निश्चय से स्व. प्रकाशात्मक है । जो दर्शन है वह भी साक्षात् बाह्य आलंबन को नष्ट कर चुका है, यह आत्मा इस दर्शनरूप भी है । ऐसा यह आत्मा एकाकाररूप निजरस के विस्तार से * यहां कुछ अशुद्धि हो ऐसा लगता है । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्धोपयोग अधिकार एकाकारस्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराणः स्वस्मिन्नित्यं नियतवस तिनिविकल्पे महिम्नि ।। २६१ ॥ अप्पसरूवं पेच्छदि, लोयालोयं रण केवली भगवं । जइ कोइ भरगइ एवं, तस्स य कि दूसरणं होई ॥१६६॥ आत्मस्वरूपं पश्यति लोकालोको न केवली भगवान् । यदि कोपि भरत्येवं तस्य च किं दूषणं भवति ॥ १६६ ॥ भगवान् केवली यदि खानम स्वरूप की । बस देखते हैं किन्तु नहि लोक अलोक को ॥ यदि आप ऐसा कहते तो सत्य से नहीं | इसमें अनेक garm क्या हैं तो वही ।। १६६ । । [ ४४९ शुद्धनिश्चयनयविवक्षया परदर्शनत्वनिरासोऽयम् । व्यवहारेण पुद्गलादित्रिकालविविधविषद्रव्यगुणकि समय परिच्छित्तिसमर्थसकलविमल केवलावबोधमयत्वादि परिपूर्ण भरित पवित्र है और पुराण- सनातन है। यह नित्य ही निर्विकल्प महिमारूप अपने आपमें निश्चितरूप से वास करता है । गाथा १६६ अन्वयार्थ -- [ केवली भगवान् ] केवली भगवान् [ आत्मस्वरूपं पश्यति ] आत्मा के स्वरूप को देखते हैं [ न लोकालोको ] किंतु लोकालोक को नहीं, [ एवं यदि कः अपि भणति ] ऐसा यदि कोई भी कहता है तो [ तस्य च किं दूषणं भवति ] उसके लिये क्या दूषण है ? टीका - शुद्ध निश्चयनय की विवक्षा से परके अन्य पदार्थों के देखने का यह निराकरण है । व्यवहारनय से तीनों काल सम्बन्धी पुद्गल आदि द्रव्यों को और उनकी गुण पर्यायों को एक समय में जानने में समर्थ सकल विमल केवलज्ञानमयत्व आदि विविध Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ] नियममार महिमाधारोऽपि स भगवान् केवलदर्शनतृतीयलोचनोऽपि परमनिरपेक्षतया निःशेषतोऽन्तर्मुखत्वात् केवलस्वरूप प्रत्यक्ष मात्र व्यापारनिरत निरंजन निजसहज दर्शनेन सच्चिदानंदमयमात्मानं निश्चयतः पश्यतीति शुद्धनिश्चय नयविवक्षया यः कोपि शुद्धान्तस्तत्त्ववेदी परमजिनयोगीश्वरो वक्ति तस्य च न खलु दूषणं भवतीति । ( मंदाक्रांत ) पश्यत्यात्मा सहज परमात्मानमेकं विशुद्धं स्वान्तः: सः शुद्धघावसथमहिमा धारमत्यन्तधीरम् । स्वात्मन्युच्च र विचलतया सर्वदान्तनिमग्नं तस्मिन्नेव समिति महाद महिमाओं के धारी होते हुए भी तथा चे भगवान केवलदर्शनरूप तृतीय लोचन वाले होते हुए भी परम निरपेक्षता के कारण निश्चवनय से परिपूर्ण तथा अंतर्मुख होने से केवल स्वरूप के प्रति प्रत्यक्ष मात्र के व्यापार में लीन हुए निर्जन निज सहज दर्शन के द्वारा सच्चिदानंदमय आत्मा को देखते हैं । इसप्रकार शुद्ध निश्चय की विवक्षा से जो कोई भी शुद्ध चैतन्यतत्त्व के ज्ञाता परम जिन योगीश्वर कहते हैं उस कथन में वास्तव में दूषण नहीं है । भावार्थ- नय की विवक्षा से इस कथन में कोई दोष नहीं हैं। अथवा क्या दूषण आता है मां आगे वो गाथाओं से दिखाते हैं । कहते हैं [ अत्र टीकाकार मुनिराज इस बात को स्पष्ट करते हुए कलश काव्य J ( २८२ ) श्लोकार्थ -- यह आत्मा अपने अन्तरङ्ग शुद्धि का आवास होने से महिमा के आधारभूत अत्यन्त धीर और स्वात्मा में अतिशयतया अविचलरूप से सर्वदा आभ्यंतर में निमग्न ऐसे एक विशुद्ध सहज परमात्मा को देखता है। क्योंकि स्वभाव से महान ऐसे उस आत्मा में व्यावहारिक प्रपंच है ही नहीं । भावार्थ - यहां ज्ञान, दर्शन या आत्मा में जो स्वस्वरूप के प्रत्यक्ष की अपेक्षा है वह निश्वयनय से है और जो परवस्तु के प्रत्यक्ष की अपेक्षा है वह व्यवहारनय से Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोका अधिकार ४५१ मुत्तममुत्तं दध्वं, चेयरमियरं सगं च सव्वं च । पेच्छंतस्स दु पारणं, पच्चक्खमरिणदियं होई ॥१६७।। मूर्तममूतं द्रव्यं चेतनमितरत् स्वकं च सर्व च । पश्यतस्तु ज्ञानं प्रत्यक्षमतीन्द्रियं भवति ।।१६७।। मूर्तिक अमुर्त चेतन और जड़ हैं द्रव्य जो । निजपर स्वरूप जो भी संपूर्ण वस्तु को ।। जो देख रहे नित ही उनका ही ज्ञान यो । प्रत्यक्ष व अतीन्द्रिय माना गया है वो ।। १६७ ।। केवलबोधस्वरूपाख्यानमेतत् । षण्णां द्रव्याणां मध्ये मूर्तत्वं पुद्गलस्य पंचानाम् प्रमूर्तत्वम, चेतनत्वं जीवस्यैव पंचानामचेतनत्वम् । मूर्तामूर्तचेतनाचेतनस्वद्रव्यादिकमशेष त्रिकालविषयम् अनवरतं पश्यतो भगवतः श्रीमदर्हत्परमेश्वरस्य क्रमकरणच्यवधानापोडं चातीन्द्रियं च सकलविमलकेवलज्ञानं सकलप्रत्यक्ष भवतीति । RDCP pho है। अत: स्व की अपेक्षावाला-स्वाश्रित निश्चय है और पर की अपेक्षावाला पराश्रित व्यवहार है । ऐसी विवक्षा शैली से ही ऐसा कथन है । गाथा १६७ अन्वयार्थ-[ मूर्त अमूर्त ] मूर्तिक अमूर्तिक, [ चेतनं इतरत् ] चेतन और अचेतन [द्रव्यं ] द्रव्यों को [ स्वकं च सर्व ] अपने को तथा समस्त को [ पश्यतः तु] देखने वाले का [ज्ञानं] ज्ञान [अतीन्द्रियं प्रत्यक्षं भवति ] अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है । टीका---यह केवलज्ञान के स्वरूप का कथन है। छहों द्रव्यों में से पुद्गलद्रव्य मूर्तिक है शेष पांचों द्रव्य अमूर्तिक है और जीव ही चेतन है शेष पांचों द्रव्य अचेतन हैं । इन तीन काल सम्बन्धी मूर्तिक, अमूर्तिक, चेतन, अचेतन, स्वद्रव्य आदि अशेष को सतत देखते हुए श्रीमान् अहंत परमेश्वर भगवान के क्रम और इन्द्रियों के व्यवधान से रहित अतीन्द्रिय ऐसा सकल विमल केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष होता है । Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५.२ ] तथा चोक्त प्रवचनसारे तथा हि "जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तसु अविदियं च पच्छष्णं । सयलं सगं च इदरं तं गाणं हवदि पञ्चक्वं ॥ " निगमसार ( मंदाक्रांता ) सम्यग्वर्ती त्रिभुवनगुरुः शाश्वतानन्तधामा लोकालोat werखिलं चेतनं । तातयं यन्नयनमपरं केवलज्ञानसंज्ञं तेनैवायं विदितमहिमा तीर्थनाथ जिनेन्द्रः ॥ २८३॥ इसीप्रकार से प्रवचनसार में भी कहा है , "गाथार्थ- 'देखने वाले का जो ज्ञान अमूर्त को मूर्त पदार्थों में भी अतीन्द्रिय को और प्रच्छल को इन सबको, स्व को तथा पर को भी देखता है वह ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है ।" भावार्थ – जो सर्वदर्शी भगवान् अमूर्तिक पदार्थों को, मूर्तिक पुद्गल में भी अविभागी परमाणु जैसे अतीन्द्रिय पदार्थों को तथा प्रच्छन्न-काल और देश से अत्यन परोक्ष ऐसे राम रावण आदि और हिमवान् सुमेरु आदि पदार्थों को, अपनी आत्मा को और संपूर्ण लोकालोक को स्पष्ट देखते हैं, इसलिये उनका ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है । उसीप्रकार से [ टीकाकार मुनिराज भी अतीन्द्रिय ज्ञानी की स्तुति करने हुए कहते हैं- 1 ( २८३ ) श्लोकार्थ केवलज्ञान नामका जो तीसरा एक अन्य नेत्र है, उसी नेत्र के द्वारा ये प्रसिद्ध महिमाशाली, त्रिभुवन गुरु, शाश्वत अनंतधाम में निवास करने १. प्रव. गाथा ५४. JA Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धयोग अधिकार पुष्बुत्तसयलदव्वं, णाणागुणपज्जएण संजुत्तं । जो ग य पेच्छइ सम्मं, परोक्खविट्ठी हवे तस्स ॥१६८ || पूर्वोक्तसकलद्रव्यं नानागुणपर्यायेण संयुक्तम् । यो न च पश्यति सम्यक् परोक्षदृष्टिर्भवेत्तस्य ।। १६८ ।। कहा है 1 [ ८५३ जो पूर्व में कई हैं संपूर्ण द्रव्य भी । नाना गुणों व नाना पर्याय युक्त भी ।। स्पष्ट रूप से जो नहि देखते उन्हें । उनका परोक्ष वन प्रत्यक्ष नहि बने ।। १६८ ।। अत्र केवलदृष्टेरभावात् सकलज्ञत्वं न समस्तीत्युक्तम् । पूर्वसूत्रोपात्तमूर्तादिद्रव्यं समस्त गुण पर्यायात्मकं मूर्तस्य मूर्तगुणाः, अचेतनस्याचेतनगुणाः, अनुसंस्थामूर्त-गुणाः, चेतनस्य चेतनगुणाः षड्ढानिवृद्धिरूपाः सूक्ष्माः परमागमप्रामाण्यादभ्युपगम्याः वाले तीर्थनाथ जिनेन्द्र भगवान् लोकालोक को स्व परको तथा वेतन और अचेतन ऐस अखिल पदार्थ को सस्यक प्रकार से जानते हैं । गाथा १६८ अन्वयार्थ --- [ नाना गुणपर्यायेण ] सकलद्रव्यं ] संयुक्त पूर्वोक्त समस्त द्रव्यों को सम्यक् प्रकार से नहीं देखता है, [ तस्य दर्शन होता है । नाना गुण पर्यायों से [ संयुक्तं पूर्वोक्त[ यः च ] जो [ सम्यक् न पश्यति ] ] उसके [ परोक्षदृष्टि: भवेत् ] परोक्ष टीका —— केवलदर्शन के अभाव से सर्वज्ञता नहीं है, ऐसा यहां पर पूर्व सूत्र में कथित मृर्तादि द्रव्य समस्त गुण और पर्यायों से सहित हैं । मूर्तद्रव्य के मूर्तगुण हैं, अचेतन के अचेतन गुण हैं, अमूर्त के अमूर्त गुण हैं, चेतन के चेतन गुण हैं। छह प्रकार की हानि और वृद्धिरूप सूक्ष्म परमागमरूप प्रमाण से स्वीकार Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियममार अर्थपर्यायाः षण्णा द्रव्याणां साधारणाः, नरनारकाविव्यंजनपर्याया जीवानां पंचसंसारप्रपंचानां, पुद्गलानां स्थूलस्थूलादिस्कन्धपर्यायाः, चतुर्णा धर्मादीनां शुद्धपर्यायाश्चेति, एभिः संयुक्त तद्रव्यजालं यः खलु न पश्यति, तस्य संसारिणामिव परोक्षदृष्टिरिति । ( वसंततिलका) यो नव पश्यति जगत्त्रयमेकदेव कालत्रयं च तरसा सकलजमानी। प्रत्यक्षदृष्टिरतुला न हि तस्य नित्यं सर्वजता कथमिहास्य जाहात्म: स्याणमय' लोयालोयं जागइ, अप्पारणं व केवली भगवं । जइ कोइ भणइ एवं, तस्स य कि दूसणं होई ॥१६६॥ करने योग्य अर्थ पर्यायें हैं जो कि छहों द्रव्यों में साधारण हैं, नर नारकादि व्यंजन पर्यायें हैं, जो कि पांच प्रकार के संसार प्रपंच-परिवर्तन से सहित ऐसे जीवों के होती हैं । पुदगलों के स्थूल-स्थल आदि स्कंध पर्याय हैं और धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल इन चार द्रव्यों में शुद्ध पर्यायें ही होती हैं, इन गुण पर्यायों से संयुक्त उन द्रव्य समूहों को जो वास्तव में नहीं देखते हैं, उनके, संसारी जीवों के समान परोक्षरूप दर्शन होता है । अर्थात् जो बाह्य पदार्थों को नहीं देखते हैं उनका दर्शन परोक्ष ही है अतः वे सर्वज्ञ भी नहीं हो सकते हैं। [ अब टीकाकार मुनिराज पूर्ण दर्शन के बिना सर्वज्ञता भी नहीं है ऐसा कहते हैं-] (२८४) श्लोकार्थ--"जो मैं सर्वज्ञ हूं' ऐसे अभिमान वाले हुए जीव एक ही समय में तीनों जगत् को और तीनों कालों को शीघ्रता से युगपत् नहीं देखते हैं, उन्हें हमेशा अतुल प्रत्यक्ष दर्शन नहीं है, पुनः यहां उन जड़ात्मा को सर्वज्ञता कैसे होगी? Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार लोकालोको जानात्यात्मानं नैव केवली भगवान् । यदि कोऽपि भणति एवं तस्य च किं दूषणं भवति ॥ १६६ ॥ भगवान् केवली यदि इन लोक श्लोक को 1 यस जानते हैं निज को नहि जानते हैं वो । यदि आप ऐसा कहते तो जान लीजिये 1 क्या होंगे इसमें परण वे ध्यान दीजिये ।। १६६ ।। [ ४५५ व्यवहारनयप्रादुर्भावकथनमिदम् । सकलविमल केवलज्ञानत्रितयलोचनो भगवान् अपुनर्भवकमनीयकामिनीजीवितेशः षड्द्रव्यसंकीर्णलोकत्रयं शुद्धाकाशमात्रालोकं च जानाति पराश्रितो व्यवहार इति मानात् व्यवहारेण व्यवहारप्रधानत्वात् निरुपरागशुद्धात्मस्वरूपं नैव जानाति, यदि व्यवहारनयविवक्षया कोपि जिनन्तथतत्त्वविचारलब्धः ( दक्षः ) कदाचिदेवं वक्ति चेत्, तस्य न खलु दूषणमिति । गाथा १६६ अन्वयार्थ – [ केवली भगवान् ] केवली भगवान् | लोकालोकौ ] लोकालोक को [ जानाति ] जानते हैं, [ प्रात्मानं नैव ] किंतु आत्मा को नहीं, [ यदि एवं कः अपि भणति ] यदि ऐसा कोई भी कहता है तो [ तस्य च किं दूषणं भवति ] उसको क्या दूषण होता है ? टोका-हार के प्रादुर्भाव का यह कथन है । अपुनर्भवगी कमनीय कामिनी के प्राणनाथ ऐसे सकल विमल केवलज्ञान मी तृतीय नेत्रधारी भगवान् छहों द्रव्यों से व्याप्त तोनों लोकों को और शुद्ध आकाश मात्र अलोक को जानते हैं तो व्यवहार की प्रधानता होने से वे व्यवहारनय से जानते हैं क्योंकि "व्यवहार पराश्रित है" ऐसा माना गया है, किंतु वे राग रहित शुद्धात्मा के स्वरूप को नहीं जानते हैं । यदि व्यवहारनय की विवक्षा मे कोई भी जिननाथ के तत्त्व विचार में निपुण जीव कदाचित् ऐसा कहते हैं तो उन्हें वास्तव में दूषण नहीं है । भावार्थ- -- अथवा केवली भगवान् परप्रकाशी हैं स्वप्रकाणी नहीं, ऐसी मान्यता में क्या दूषण है सो आगे दो गाथाओं द्वारा स्पष्ट करते हैं । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार तथा चोक्त श्रीसमन्तभद्रस्वामिभिः-- ( अपरवक्त्र ) "स्थितिजनननिरोधलक्षणं चरमचरं च जगत्प्रतिक्षणम् । इति जिन सकलज्ञलांछन वचनमिदं वदतांवरस्य ते॥" तथा हि ( वसंततिलका) जानाति लोकमखिलं खलु तीर्थनाथः स्वात्मानमेकमनघं निजसौख्यनिष्ठम् । नो वेत्ति सोऽयमिति तं व्यवहारमार्गाद् वक्तीति कोऽपि मुनिपो न च तस्य दोषः ।।२८५।। - - - - - - - ----- --- - इसीप्रकार गे धी समंतभद्र स्वामी ने भी कहा है "श्लोकार्थ—हे 'जिनदेव ! आप वक्ताओं में थंष्ठ हैं यह चर जंगम और अचर स्थावररूप जगत् प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य लक्षणवाला है, ऐसा यह आपका वचन सर्वज्ञता का चिह्न है ।" ___ उसीप्रकार [टीकाकार मुनिराज व्यवहार कथन की अपेक्षा से कलश काव्य कहते हैं (२८५) श्लोकार्थ-तीर्थनाथ भगवान वास्तव में अखिल लोक को जानते हैं किंतु वे निज सौख्य में निष्ट एक निर्दोष अपनी आत्मा को नहीं जानते हैं। इस प्रकार से कोई भी मुनिपति व्यवहार मार्ग से उन समदर्शी को ऐसा कहते हैं तो उन्हें कोई दोष नहीं है। १. बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, मुनिसुव्रतनाथ की स्तुति में लोक, ११४ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार गाणं जीवसरूवं, तम्हा जाणेइ अप्पगं अप्पा । अप्पारणं ग वि जाररादि, अप्पादोहोदि विदिरित्तं ।।१७०॥ ज्ञानं जीवस्वरूपं तस्माज्जानात्यात्मकं आत्मा । प्रात्मानं नापि जानात्यात्मनो भवति व्यतिरिक्तम् ॥१७०।। यह जान तो आतमा का लक्षण है सासना । अतएव आतमा को आत्मा हो जानता ।। यदि ज्ञान आत्मा को नहि जानता सहो। तब तो ये ज्ञान आत्मा से भिन्न होगा ही। १७०।। अत्र ज्ञानस्वरूपो जोव इति वितर्केणोक्तः । इह हि ज्ञानं ताबज्जीवस्वरूपं भवति, ततो हेतोरखण्डाढतस्वभावनिरतं निरतिशयपरमभावनासनाथं मुक्ति सन्दरीनाथं, बहिर्यावृत्तकौतुहलं निजपरमात्मानं जानाति कश्चिदात्मा भव्यजीव इति अयं खल भावार्थ -- यदि कोई मुनिराज व्यवहारनय को प्रधानता में एसा कहते हैं कि जिनदेव नीक को तो जानते हैं, किंतु आत्मा को नहीं जानते हैं जो इस कथन में कोई दोष नहीं है क्योंकि स्यादाद में सभी कथन नयों की अपेक्षा से ही होता है । गाथा १७० अन्वयार्थ- [ज्ञानं जीवस्वरूपं] ज्ञान जीव का स्वरूप है [तस्मात् इसलिये । [आत्मा आत्मकं जानाति] आन्मा आत्मा को जानता है, [न अपि आत्मानं जानाति] । यदि ज्ञान आत्मा को नहीं जानता है तो [पात्मनः व्यतिरिक्तः भवति ] वह आत्मा मे भिन्न हो जायेगा। टोका-'जीव ज्ञानस्वरूप है ऐसा यहां बितर्क पूर्वक कहा है । प्रथमतः ज्ञान तो वास्तव में जीव का स्वरूप है, इसी हेतु से कोई आत्मा जो कि भव्य जीत्र है, वह अखण्ड, अद्वैत स्वभाव में लीन, निरतिशय अद्वितीय परम भावना से सनाथ मुक्ति सुन्दरी के नाथ, और बाह्य कौतूहल से रहित ऐसी निज परमात्मा को जानता है ऐसा जो कथन है सो यह वास्तव में स्वभाववाद है । इससे विपरीत जो वितर्क-ऊहापोह या विचार है वह वास्तव में विभाववाद है, जो कि प्राथमिक शिष्यों का अभाव है । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियममार ४५.८ ] स्वभाववादः । अस्य विपरीतो वितर्कः स खलु विभाववाद: प्राथमिक शिष्याभिप्रायः । कथमिति चेत्, पूर्वोक्तस्वरूपमात्मानं खलु न जानात्यात्मा स्वरूपावस्थितः संतिष्ठति । यथोष्णस्वरूपस्याग्नेः स्वरूपमग्निः किं जानाति तथैव ज्ञानज्ञेयविकल्पाभावात् सोऽयमात्मात्मनि तिष्ठति । हंहो प्राथमिकशिष्य अग्निवदयमात्मा किमचेतनः । किं बहुना । तमात्मानं ज्ञानं न जानाति चेद् देवदत्तरहितपरशुवत् इदं हि नार्थक्रियाकारि, अत एव आत्मनः सकाशाद् व्यतिरिक्त भवति । तन्न खलु सम्मतं स्वभाववावितामिति । प्रश्न- यह वितर्क ऐसा कैसे है ? क्योंकि वास्तव में आत्मा पूर्वोक्त आत्मा को नहीं जानता है ऋितु स्वरूप में अवस्थित रहता है। जिसप्रकार उष्ण भ्वरूप वाली अग्नि के स्वरूप को क्या अग्नि जानती है ? अर्थात् नहीं जानती है उसी प्रकार से ज्ञान और ज्ञेयरूप विकल्प के अभाव से सो पक्षमा अरुका में स्थित रहता है अर्थात् आत्मा को नहीं जानता है क्योंकि वह उसीमें स्थित है अथवा उसीप I उत्तर- हे प्राथमिक शिष्य ! क्या अग्नि के समान यह आत्मा अचेतन है ? बहुत कहने से क्या यदि ज्ञान उस आत्मा को नहीं जानता है तो देवदत्त से रहित उस कुल्हाड़ी के समान यह ज्ञान अर्थक्रियाकारी नहीं रहेगा, इस हेतु से वह आत्मा में भिन्न सिद्ध होगा । किंतु यह बात वास्तव में स्वभाव वादियों को सम्मत नहीं है । विशेषार्थ- गाथा १६९ में जो कहा है कि केवली भगवान लोकालोक को तो जानते हैं कि आत्मा को नहीं, यदि ऐसा कोई कहे तो क्या दूषण है ? वास्तव में सिद्धांत की अपेक्षा ज्ञान को पर प्रकाशी कहा है उसी दृष्टि से यहां प्रश्न है । टीकाकार ने इसे व्यवहारनय की अपेक्षा से सिद्ध कर दिया है और कहा कि ऐसा कहने वालों को कोई दूषण नहीं है । पुनः आचार्य ने १७० वीं गाथा में कहा है कि ज्ञान तो जीव का स्वभाव है यदि वह स्वयं अपनी आत्मा को न जाने तो वह आत्मा से भिन्न हो जावेगा । टीकाकार ने ज्ञान को परप्रकाशी कहने में विभाववाद कहकर उसका निराकरण कर दिया है क्योंकि निश्चयनय से आत्मा और ज्ञान तथा दर्शन स्वपरप्रकाशी हैं । इस बात को गाथा १६५ में कह चुके हैं तथा आगे १७१ में भी कहेंगे । कारण यह है कि यदि जान अपने को नहीं जानेगा तो जानते रूप अर्थ क्रिया से शुन्य Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० ] तथा चोक्तम् नियममार "गाणं अव्विदिरित जीवादो तेण अप्पगं मुणइ । जदि अप्पगं ण जागइ भिण्णं तं होदि जीवादो ॥ " प्रयाणं विरगु णाणं, खाणं विणु अप्पगो रग संदेहो । तम्हा सपरपयासं, गाणं तह दंसणं होदि ॥ १७१ ॥ आत्मानं विद्धि ज्ञानं ज्ञानं विद्ध्यात्मको न संदेहः । तस्मात्स्वपरप्रकाशं ज्ञानं तथा दर्शनं भवति ।। १७१ ।। आत्मा को ज्ञान जानो ओ ज्ञान आत्मा 1 ऐसा हि जान निश्चित संदेहनाशना || अतएव ज्ञान होता निजपर प्रकाशकर। दर्शन उसी तरह मे निजपर प्रकाशकर ।।१७९॥ भावार्थ - ज्ञान तो शुद्ध आत्मा का स्वभाव है यदि वह साधक अवस्था में अपनी आत्मा का अनुभव नहीं करना है तो वह आत्मा का स्वभाव नहीं रहेगा। किंतु ऐसा है नहीं अतः जान स्वसंवेदनरूप से प्रारम्भ अवस्था में भी आत्मा का अनुभव कराता है । इसीप्रकार से और भी कहा है "गाथार्थ - ज्ञान जोव से अभिन्न है, इसलिये यह आत्मा को जानता है, यदि ज्ञान आत्मा को न जाने तो वह जीव से भिन्न ही सिद्ध होगा ।" गाया १७१ श्रन्वयार्थ -- [ आत्मानं ज्ञानं विद्धि ] तुम आत्मा को ज्ञान समझो और [ ज्ञानं आत्मक: विद्धि ] ज्ञानको आत्मा समझो, [ न संदेह: ] इसमें संदेह नहीं है । [तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानं तथा वर्शनं ] ज्ञान तथा दर्शन [स्वपर प्रकाशं ] स्वपर प्रकाशी [ भवति ] होते हैं । 4 Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार [ ४६१ गुणगुरिणनोः भेदाभावस्वरूपाख्यानमेतत् । सकलपरद्रव्यपराङ मुखमात्मानं स्वस्वरूपपरिच्छित्तिसमर्थसहजज्ञानस्वरूपमिति हे शिष्य स्वं विद्धि जानीहि तथा विज्ञानमात्मेति जानीहि । तत्वं स्वपरप्रकाशं ज्ञानदर्शनद्वितयमित्यत्र संदेहो नास्ति । ( अनुष्टुभ् ) आत्मानं ज्ञानदारूपं विद्धि दृग्ज्ञानमात्मकं । स्वं परं चेति यत्तत्वमात्मा द्योतयति स्फुटम ।। २८७॥ टीका-..सूण और गुणी में भेद के अभाव । स्वमा का यह कथन है । हे शिष्य ! ममस्त परद्रव्य में पराङ मुम्ब सी आम को स्वस्वरूप के जानने में ममर्थ सहजज्ञानस्वरूप तुम समझो, तथा विज्ञान को हो मातभा मा जानो, इसलिये नाविक बात यह है कि जान और दर्शन ये दोनों ही स्वपरप्रकाशी हैं। इसमें संदेह नहीं है। । अव टीकाकार मुनिराज नाव्य कलाणा द्वाग टर्म' बान को पुष्ट करते हैं. ] (२८७) श्लोकार्थ- आत्मा को ज्ञान दर्शनरूप और ज्ञान दर्शन को नम आत्माहप जानो। क्योंकि जो स्व और पर रूप तत्त्व हैं उन सबको यत्र आमा स्पष्ट रूप से प्रकाशित करता है । विशेषार्थ-गाथा १५९ से लेकर १७१ तक ऐसे ५३ गाथाओं में आचार्य श्री कदद देव ने आत्मा के ज्ञान और दर्शन गण की विशेष विवेचना की है। जिसमें मात्र गाथाओं के अर्थ को क्रम से पढ़ लेने पर भाव स्पष्ट हो जाते हैं, यथाकेवली भगवान् व्यवहार से सर्व को जानते और देखते हैं, निश्चयनय से वे आत्मा को जानते और देखते हैं। केवलज्ञानी के ज्ञान और दर्शन युगपत् रहते हैं जैसे कि सूर्य के प्रकाश और ताप साथ-साथ रहते हैं । "ज्ञान परप्रकाशी है, दर्शन आत्मप्रकाशी है, तथा आत्मा स्वपरप्रकाशी है, यदि तुम ऐसा मानो तो क्या दूषण आता है सो दिखाते हैं ?" Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ] निगममार यदि ज्ञान परप्रकाशी है तो आत्मा से दर्शन भिन्न रहेगा, क्योंकि दर्शन परद्रव्य का जानने वाला नहीं है ऐसा तुमने कहा है । यदि आत्मा परप्रकाशी है तो आत्मा से दर्शन भिन्न रहेगा, क्योंकि दर्शन परद्रव्यगत नहीं है, ऐसा तुमने कहा है । अर्थात् ज्ञानको परप्रकाशी और दर्शन को स्वप्रकाशी कहने से उपर्युक्त दो गाथा कथित दूषण आ जाते हैं । करते हैं [ पुनः आचार्य देव स्वयं नयों की अपेक्षा से वास्तविकता को स्पष्ट ] व्यवहारनय से ज्ञान परप्रकाशी है, दर्शन भी वैसा है, व्यवहारनय से आत्मा परप्रकाशी है और भी चैना है। से ज्ञान आत्मप्रकाशी है दर्शन भी वैसा है, निश्वयनय से आत्मा स्वप्रकाशी है और दर्शन भी वैसा है। यहां पर निश्चयतय स्वाश्रित है और व्यवहार पराश्रित है, इसलिये ऐसा कहा गया है। पुनः कहते हैं केवली भगवान आत्मस्वरूप को देखते हैं, लोकालोक को नहीं यदि कोई ऐसा कहता है ना उसके क्या दूषण होता है ? अर्थात् नयों की अपेक्षा से कोई दूषण नहीं है, अथवा आगे दो गाथाओं से दुषण दिखाते हैं मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन द्रव्य को तथा स्वको और समस्त को देखने वाले सर्वदर्शी का ज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है । नाना पर्यायों से सहित पूर्वोक्त समस्त द्रव्यों को जो सम्यक् युगपत् अथवा स्पष्ट नहीं देखते हैं, उनके परोक्ष दर्शन होना है । अर्थात् जिनका दर्शन आत्मा को ही जानता है, परपदार्थों को नहीं, उनका दर्शन परोक्ष ही रहता है न कि प्रत्यक्ष । पुनः कहते हैं कि "केवली भगवान लोकालोक को जानते हैं किंतु आत्मा को नहीं जानते हैं, यदि ऐसा कोई कहता है तो उसके क्या दूषण होता है ?" अर्थात् नयों की अपेक्षा से कुछ भी दूषण नहीं है, अथवा आगे कही गई दो गाथाओं से दूषण दिखाते हैं । "ज्ञान जीव का स्वरूप है, इसलिये आत्मा - आत्मा को जानता है यदि वह आत्मा को नहीं जाने तो वह ज्ञान आत्मा से भिन्न हो जावेगा ।" इसलिये तुम आत्मा Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शु-द्वोपयोग अधिकार [ ४६३ को ज्ञान समझो और ज्ञान बो ही आत्मा समझो इसमें कुछ भी संदेह नहीं है । इस हेतु से ज्ञान स्वपरप्रकाशी है और दर्शन भी स्वपरप्रकाशी है। ऐसा समझना चाहिए। यहां तक आचार्य श्री कुदकुद देव ने व्यवहारन य स ज्ञान, दर्शन और आन्मा को परप्रकाशी और निश्चयनय ये ज्ञान, दर्शन और आत्मा इन तीनों को स्वप्रकाशी कहकर पुनः इन तीनों को ही कंथचित् एक दूसरे में अभिन्न मिग करते हुए स्वपर. प्रकाशी सिद्ध किया है अब इस ज्ञान-दर्शन के विषय में अन्य ग्रंथों की चर्चा देखिये "अन्तर्मुख नि:प्रका को दर्शन और बहिब चित्प्रकाश को झान माना है .'' बात यह है कि मामान्य को छोड़कर केवल विशेा अन्य ना विशेष को छोड़कर सामान्य अर्थ क्रिया करने म नमर्थ है अत. या अवस्तु है, उस कारण के बल विजय का ग्रहण करने वाला नहीं हो सकेगा और केबर सामान्य का ग्रहण करने वाला दर्शन भी प्रमाण नहीं हो सकेगा। "ज 'सामग्णा भावाण णेय कट्टमाया यहां पर भी सामान्य' शब्द का अर्थ आत्मा है क्योंकि आमा सम्पूर्ण बाह्य पदाथों में साधारणरूप में पाया जाना है।" श्रीमान् भट्टाकलंक देवकृत लघीयस्त्रय की टीका में भी स्पष्टतया कहा है कि-"यहां पर सामान्य के ग्रहण को दर्शन कहा है कित सिद्धांन में स्वरूप के ग्रहण को दर्शन कहा है अतः उपर्यत. कथन में सिद्धांत के साथ विरोध क्यों नहीं होगा ?" १. "अंतहिनियोश्विप्रकाशदर्शनज्ञानव्यपदेशभाषा: पु. १ पृ० १४६] २. "ज सामग्णं गहणं'.............तात्मन: सकल बाद्यार्थसाधारणत्वतः सामान्यस्यपदेश भाजो ग्रहणात् ।" [ घ ० पु० पृ० ६४८ ] ___३. ननु स्वरूप ग्रहणमेव दर्शन मितिराद्धांतेन कथं न विरोधः इति चेन्न, अभिप्राय भेदान् ........ तत्त्वतस्तु स्वरूप ग्रहणमेव दर्शन के बलिनां तयोयुगपत्प्रवृत्तः । अन्यथा ज्ञानस्य सामान्य विशेषात्मकवस्तु विषयत्वाभाव प्रसंगात् । । लधीयस्त्रयं प्र० १४] Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] नियगसार ऐसा नहीं कहना, क्योंकि अभिप्राय से भेद है । पर के विसंवाद को दुर करने के लिये न्याय शास्त्र होते हैं इसलिए उनमें स्वीकृत निर्विकल्पदर्शन ( बौद्ध ने ज्ञानको निर्विकल्पदर्शन कहा है) की प्रमाणता का खण्डन करने के लिए स्याद्वादियों ने दर्शन को सामान्य ग्रहण करने वाला माना है. किंतु वास्तव में स्वरूप का ग्रहण करना ही दर्शन है क्योंकि केवलियों में ज्ञान और दर्शन की युगपत् प्रवृत्ति होती है । इसी बात को द्रव्यसंग्रह की टोका में भी कहा है तर्क- न्याय के अभिप्राय से मत्तावलोकन को दर्शन कहा है इसके बा सिद्धांत के अभिप्राय से कहते है आगे होने वाले ज्ञानकी उत्पत्ति के लिये प्रयत्नरूप जो निज आत्मा का परिच्छेदन अर्थात् अवलोकन वह दर्शन कहलाता है और उसके पीछे जो बाह्य विषय में विकल्परूप से पदार्थ का ग्रहण है वह ज्ञान है, यह बार्तिक है 1...... शिप्य कहता है कि यदि आत्मा का ग्राहक दर्शन है और परका ग्राहक ज्ञान है तो नैयायिक के मत में जैसे ज्ञान अपने को नहीं जानता है वैसे जैनमत में भी जान आत्मा को नहीं जानेगा ? इसका उत्तर यह है कि नेयायिक मन में ज्ञान और दर्शन ये दो गुण पृथक्पृथक नहीं हैं । किंतु जैनमत में आत्मा ज्ञान गुण से परद्रव्य को जानता है और दर्शन गुण से आत्मा को जानता है । ...... . क्योंकि यदि सामान्य ग्राहक दर्शन और विशेष ग्राहक ज्ञान होंगे तब ज्ञान को प्रमाणता नहीं होगी। क्योंकि वस्तु का ग्राहक प्रमाण है और वस्तु सामान्य विशेषात्मक है, पुनः ज्ञान ने वस्तु के एकदेशरूप ऐसे विशेष को ही ग्रहण किया है वह विशेष वस्तु नहीं है । अतः सिद्धांत से निश्चय से गुण गुणी में अभेद होने से संशय, विमोह, विभ्रम से रहित जो वस्तु का ज्ञान है उस ज्ञान स्वरूप आत्मा ही प्रमाण है । " निष्कर्ष यह निकला कि न्याय अर्थ और सिद्धांत - अर्थ को जानकर दुराग्रह का त्याग करके नय विभाग से जब कोई मध्यस्थ वृत्ति से व्याख्यान करता है तब दोनों १. बृहद्रव्यसंग्रह पृ० १८३ । २. यदि कोऽपि तर्कार्थं सिद्धांतार्थं च जाकांत दुराग्रहत्यागेन नयविभागेन मध्यस्थवृत्या व्याख्यानं करोति, तदा द्वयमपि घटल इति । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार जाणतो पस्तो, ईहापुण्वं रग होइ केवलियो । केवलिणारी तम्हा, तेण दु सोऽबंधगो भरिदो ॥ १७२ ॥ जानन् पश्यन्नीहापूर्वं न भवति केवलिनः । केवलज्ञानी तस्मात् तेन तु सोऽबन्धको भरितः ।। १७२ ।। भगवान केवली का जानन व देखना बंधना ।। होना न इच्छापूर्वक अन् इसमे हि केवली जित लोक सुन कहें । इच्छा बिना उनके कर्गों का बंध है ।। १७२ ।। [ ४६५ सर्वज्ञवीतरागस्य बांद्राभावत्वमत्रोक्तम् । भगवानर्हत्परमेष्ठी साद्यनिधनामुर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्ध सद्द्भूतव्यवहारेण केवलज्ञाना विशुद्धगुणावामाधारभूतत्वात् विश्वम बातें घट जाती हैं। क्योंकि 'तर्क ग्रंथ में मुख्यरूप से परसमय - अन्य सम्प्रदाय का व्याख्यान है और गुनः सिद्धांत में मुख्य वृति से स्वसमय का व्याख्यान है । यहां पर इस नियमसार में भी आचार्यदेव ने सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए प्रश्न उठाये हैं, पुनः अध्यात्म ग्रंथ में नयविवक्षा से ज्ञान, दर्शन, तथा आत्मा इन तीनों को भी कथंचित् स्वपर प्रकाशी सिद्ध कर दिया हैं, ऐसा समझना । गाथा १७२ अन्वयार्थ – [ केबलिनः ] केवली भगवान् का [ जानन् पश्यन् ईहापूर्वं न भवति ] जानना और देखना ईहा पूर्वक नहीं होता है. [ तस्मात् ] इसलिये [ केवलज्ञानी ] जो केवलज्ञानी है [स] वह [ तेन तु ] उस हेतु से [ अबंधक: भगतिः ] अबंधक कहा गया है । टीका -- यहां पर सर्वज्ञ वीतराग के वांछा का अभाव कहा है । भगवान् अर्हत परमेष्ठी सादिसांत अमूर्तिक अतीन्द्रिय स्वभावभूत शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय की १. तर्फे मुख्यवृत्या परसमयव्याख्यानं........ .. सिद्धांते पुनः स्वसमय व्याख्यानं मुख्यवृत्या | [ वृहद्रव्यसंग्रह पृ. १९२ ] Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I ४६६ ] निगमसार श्रान्तं जानन्नपि पश्यन्नपि वा मनः प्रवृत्तेरभावादीहापूर्वकं वर्तनं न भवति तस्य केवलिनः परमभट्टारकस्य, तस्मात् स भगवान् केवलज्ञानीति प्रसिद्धः पुनस्तेन कारणेन स भगवान् अन्धक इति । तथा चोक्त' श्रीप्रवचनसारे तथा हि " ण वि परिणमवि ण गेहदि उप्पज्जदि णेव तेसु असु । जाणावि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो ॥ " ( मंदाक्रांता ) जानन् सर्वं भुवनभुवनाभ्यन्तरस्थं पदार्थ पश्यन् तद्वत् सहजमहिमा देवदेवो जिनेशः । अपेक्षा से केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों के आधारभूत होने से विश्व का निरन्तर जानते हुए भी और देखते हुए भी मन की प्रवृत्ति का अभाव होने से न केवली परम भट्टारक के ईहापूर्वक वर्तन नहीं होता है । इसलिये वे भगवान् केवलज्ञानी हैं यह बात प्रसिद्ध है, पुन: उसी कारण से वे भगवान् अबंधक हैं । उसी प्रकार से श्री प्रवचनासर में कहा है "गाथार्थ - आत्मा पदार्थों को जानता हुआ भी उनरूप परिणमन नहीं करता है, न उन्हें ग्रहण करता है और न उन पदार्थों में उत्पन्न हो होता है, इसलिये वह अबंधक कहा गया है ।" भावार्थ - केवलज्ञानी भगवान् सभी पदार्थों को जानते हुए भी न उनरूप परिणत ही होते हैं न उनको ग्रहण ही करते हैं और न उनरूप से उत्पन्न होते हैं और इसीलिये उन्हें पूर्ण वीतरागता रहने से कर्मों का बंध नहीं होता है । उसी प्रकार से [टीकाकार मुनिराज काव्य कलश द्वारा कहते हैं— ] ( २८८ ) श्लोकार्थ - सहज महिमाशाली देवदेव जिनेश्वर भुवनरूपी भवन के भीतर में स्थित सम्पूर्ण पदार्थों को जानते हुए तथा वैसे ही देखते हुए भी मोह का Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृद्धोपयोग अधिकार मोहाभावादपरमखिलं नैव गृह्णाति नित्यं । ज्ञानज्योतिर्हतमलकलिः सर्वलोकैकसाक्षी ।।२८८॥ परिणामपुववयणं, जीवस्स य बंधकारणं होई । परिणामरहियवयणं, तम्हा रणारिणस्स ण हि बंधो॥१७३॥ ईहायुवं वयरणं, जीवस्स य बंधकारणं होई। ईहारहियं वयणं, तम्हा रणारिणस्स रग हि बंधो ॥१७४।। परिणामपूर्ववचनं जीवस्य च बंधकारणं भवति । परिणामरहितवचनं तस्माज्ज्ञानिनो न हि बंधः ।।१७३।। ईहापूर्व वचनं जीवस्स च बंधकारणं भवति । ईशारहितं वचनं तस्माज्जानिनो न हि बंध: 1।१७४।। जीवों के जो वचन हों परिणाम पूर्वक । वे बंध के ही कारण क्योंकि मनःपूर्वक ।। परिणाम रहित वागी ज्ञानी प्रभु की है। प्रतएव बंध उनके केमे भी नहीं है ।।१७।। अभाव हो जाने से अखिल अन्य पदार्थों का नित्य ही (कदापि ग्रहण नहीं करते हैं किंतु जान ज्योति से मल के क्लेश को नष्ट कर देने वाले में समस्त लोक के एक साक्षी होते हैं। भावार्थ--केवनी भगवान सम्पूर्ण जगत को जानते देखते हैं फिर भी मोहनीय कर्म के सर्वथा अभाव हो जाने से ये किसी में रागद्वेष नहीं करते हैं, अनाव वे केवल ज्ञाता दृष्टा ही रहते हैं | गाथा १७३-१७४ अन्वयार्थ-[ परिणामपूर्ववचनं ] परिणाम पूर्वक वचन [ जीवस्य च ] जीव के लिये [बंधकारणं भवति ] बंध का कारण है, [ज्ञानिनः] ज्ञानी के परिणाम रहिसवचनं] परिणामरहित वचन हैं [तस्मात् बंध न हि] इसलिये उनके बंध नहीं होता है। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियममार जोवों के वचन जो भी अभिनापनहित हों। वे बंध के हैं कारण इन्छा बिना न हों। श्री केवली प्रभू के इच्छा रहित वचन । इम हेतु बंध उनके होता न ये नियम ।।१७४।। इह हि ज्ञानिनो बंधाभावस्वरूपमुक्तम् । सम्यग्ज्ञानी जीवः क्वचित् कदाचिदपि स्वबुद्धिपूर्वकं वचनं न वक्ति स्वमनःपरिणामपूर्वकमिति यावत् । कुतः ? 'अमनस्का: केवलिनः' इति वचनात् । अतः कारणाज्जीवस्य मनःपरिणतिपूर्वकं वचनं बंधकारणमित्यर्थः, मन:परिणामपूर्वकं वचनं केवलितो न भवति; ईहापूर्व वचनमेव साभिलाषात्मकजीवस्य बंधकारणं भवति, केवलिमुखारविवविनिर्गतो विन्यध्वनिरनोहात्मकः समस्तजनहृदयालादकारणं; ततः सम्यग्ज्ञानिनो बंधाभाव इति । [ईहापूर्व वचन | ईहापूर्वक वचन [ जीवस्य च ] जीव के [ बंधकारणं भवति ] बंध के लिये कारण होने हैं [ज्ञानिनः] ज्ञानी के [ ईहारहितं वचनं ] ईहा रहित वचन हैं [तस्मात् ] इसलिये उनके [बंधः न हि] बंध नहीं है। टीका-यहां पर जानी के बंधाभाव स्वरूप को कहा है। सम्यकज्ञानी क्वचित कदाचित् भी अपनी बुद्धिपूर्वक वचन नहीं बोलते हैं, अर्थात् अपने मन के उपयोग पूर्वक वचन नहीं बोलने हैं । प्रश्न—मनःपूर्वक क्यों नहीं बोलने हैं ? उत्तर--क्योंकि अमनस्का: केवलिनः" केवनी भगवान् मनरहित होते हैं ऐसा वचन है 1 इस कारण से मनकी परिणति पूर्वक हुये जीव के वचन बंध के कारण होते हैं ऐसा अर्थ हुआ और मन को परिणति पूर्वक वचन केवली के नहीं होते हैं । ईहापर्वक वचन ही अभिलाषासहित के लिये बंध के कारण होते हैं, किंतु केवली भगवान् के मुखकमल से निकली हुई दिव्यध्वनि ईहा-इच्छापूर्वक नहीं है तथा समस्त जोवों के हृदय को आजाद का कारण है, इसलिये सम्यग्जानी के बन्ध का अभाव है। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार ( मंदाक्रांता]) वचनरचनारूपमत्रास्ति तंव ईहापूर्व तस्मादेष प्रकट महिमा विश्वलोकैकभर्ता । अस्मिन् बंधः कथमिव भवेद्रव्यभावात्मकोऽयं मोहाभावान्न खलु निखिलं रागरोषाविजालम् ।। २८६ ।। ( मंदाता ) एको देवस्त्रिभुवन गुरुष्टकर्माष्टकाः सबोधस्थं भुवनमखिलं तद्गतं वस्तुजालम् । आरातीये भगवति जिने नैव बंधो न मोक्षः तस्मिन् काचिन्न भवति पुनर्मूच्र्छना चेतना च ।। २६० ।। [ ४६६ | अक्ष टीकाकार मुनिराज केवली भगवान् की दिव्यध्वनि की प्रशंसा करते हुए आगे कलगरूप तीन काव्य कहते हैं--] ( २८६ ) श्लोकार्थ - इन केवली भगवान् में इच्छापूर्वक वचन रचना का स्वरूप नहीं है, इसलिये ये भगवान् प्रकटरूप से महिमाशाली हैं और विश्वलोक के एक अद्वितीय स्वामी हैं। इनमें द्रव्य और भावरूप यह बंध कैसे हो सकता है ? क्योंकि मोह का अभाव हो जाने मे उनके समस्त रागद्रे षादि समूह निश्चितरूप से नहीं रहता है। ! ( २६० ) श्लोकार्थ- जिन्होंने अष्टकर्म के आधे अर्थात् चार घातिया कर्मों को नाश कर दिया है ऐसे एक अर्हतदेव ही त्रिभुबन के गुरु हैं क्योंकि यह समस्त लोक और उसमें स्थित समस्त वस्तु समूह उनके सज्ज्ञान में स्थित है । ऐसे साक्षात् स्वरूप जिनेन्द्र भगवान् में न बंध ही है और न मोक्ष ही है, तथा न उनमें कोई मूर्च्छाअज्ञानदशा ही है और न चेतना - ज्ञानदशा ही है । भावार्थ - अर्हतदेव ही सर्वज्ञ हैं अतः उनमें बंध - मोक्ष या ज्ञान तथा अज्ञानरूप अवस्थायें नहीं हैं क्योंकि वे पूर्णज्ञानी हैं, ज्ञान स्वरूप ही परिणत हो चुके हैं । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ४.५० नियममार ( मंदाको न घेतस्मिन् भगवति जिने धर्मकर्मप्रपंचो रागाभावादतुलमहिमा राजते वीतरागः । एष श्रीमान् स्वसुखनिरतः सिद्धिसीमन्तिनौशो ज्ञानज्योतिश्छुरितभुवनाभोगभागः समन्तात् ।।२६१॥ ठाणणिसेज्जविहारा, ईहापुव्वं रण होइ केवलिणो । तम्हा ण होइ बंधो, साक्खट्ठ मोहरणीयस्स ॥१७५॥ स्थाननिषण्णविहारा ईहापूर्व न भवन्ति केवलिनः । तस्मान्न भवति बंधः साक्षार्थं मोहनीयस्य ॥१७५।। श्री कंवली प्रभू जो बैटे ब खड हो । विहर न इच्छा पूर्वक स्वयमेव किया हों ।। अतएवं बंध उनकः कैसे भि नहीं है । इंद्रिय विषय प्रहरण में मोहा के बंध है ।।१७५।। (२६१) श्लोकार्थ-इन जिनेन्द्र भगवा म धर्म और कर्म का प्रपंच नहीं है क्योंकि राग का अभाव हो जाने से अतुल महिमाशाली वीतराग देव शोभायमान होते हैं । ये श्रीमान् भगवान अपने सुख में लीन हैं, सिद्धिरूपी रमणी के स्वामी हैं, तथा सब ओर से जिन्होंने ज्ञानज्योति के द्वारा नमस्त भवन के अभ्यन्तर भाग को व्याप्त कर लिया है। भावार्थ-- -अहत भगवान के मोहनीय कर्म का पूर्णतया अभाव हो जाने से वे वीतरागी हैं तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतगय के अभाव से वे केवलज्ञानी हैं, सर्वदर्शी हैं तथा अनन्तशक्तिशाली हैं। इसलिये उनका ज्ञान तीनों लोकों में और अलोक में भी मर्वत्र व्याप्त हो रहा है। गाथा १७५ __ अन्वयार्थ— [ केलिनः ] केवली भगवान् के [ स्थाननिषण्णविहाराः ] खड़े होना, बैठना और बिहार करना [ ईहापूर्व न भवंति ] इच्छापूर्वक नहीं होते हैं, Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार । ४१ केवलिभट्टारकस्यामनस्करवप्रद्योतनमेतत् । भगवतः परमाहस्यलक्ष्मीविराजमानस्य केवलिनः परमवीतरागसर्वज्ञस्य ईहापूर्वकं न किमपि वर्तनम, अतः स भगवान न चेहते मनःप्रवृत्तरभावात् अमनस्का: केलिनः इति वचनाद्वा न तिष्ठति नोपविशति न चेहापूर्व श्रीविहारादिकं करोति । ततस्तस्य तीर्थकरपरमदेवस्य द्रव्यभावात्मकचतुविधबंधो न भवति । स च बंधः पुनः किमर्थं जातः कस्य संबंधश्च । मोहनीयकर्मबिलास विजम्भितः, अक्षार्थमिन्द्रियार्थं तेन सह यः वर्तत इति साक्षार्थ मोहनीयस्य वशगतानां साक्षार्थप्रयोजनानां संसारिणामेव बंध इति । तथा चोक्त प्रवचनसारे .... - [तस्मात् बंधः न भवति ] इसलिये उनकं बंध नहीं होता, तथा [मोहनीयस्य] मोह से सहित जीव के [साक्षार्थं] इंद्रिय के विषयसहितरूप से बन्ध होता है। टोका- केवली भट्टारक के अमनस्कता का यह प्रकाशन है। गरम आइत्यलक्ष्मी से विराजमान परमवीतराग सर्वज्ञ कंवली भगवान् के इच्छापर्वका कुछ भी प्रवृत्ति नहीं है, इसलिए वे भगवान् इच्छा नहीं करते हैं पयोंकि उनके मन को प्रवृत्ति का अभाव है अथवा "अमनस्काः वेवलिनः" केवली भगवान् मनरहित हैं, ऐसा कथन होने से वे भगवान् न इच्छापूर्वक ठहरते हैं, न इच्छापुर्वक बैठते हैं और न इच्छा पूर्वक श्रीविहार आदि ही करते हैं। इसलिए उन तीर्थ कुर परमदेव के द्रव्य और भावरूप से प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप त्रारी प्रकार का बन्ध नहीं होता है। प्रश्न-पुनः यह बन्ध किसकारण से होता है ? और किसके होता है ? उत्तर-वह कर्मबन्ध मोहनीयकर्म के विलास से उत्पन्न होता है, साक्षार्थइन्द्रियों के विषय से जो सहित हैं वे साक्षार्थ हैं, ऐसे मोहनीयकर्म के वशीभूत हा इन्द्रियविषयों में प्रवृत्ति करनेवाले संसारी जीवों के ही वह बन्ध होता है। ऐसा अर्थ हुआ। उसीप्रकार से प्रवचनसार में कहा है Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ r७२ ] निगामार "ठारणिसेज्जविहारा धम्मुवबेसो य णियदया तेसि । अरहंताएं काले मायाचारो व्व इत्थोणं ॥" ( शार्दूलविक्रीडित) देवेन्द्रासनकंपकारणमहाकवल्यबोधोवये मुक्तिश्रीललनामुखाम्बुजरबेः सद्धर्मरक्षामणेः । सर्व वर्तनमस्ति चेन्न च मनः सर्व पुराणस्य तत् सोऽयं नन्बपरिप्रमेयमहिमा पापाटवीपावकः ॥२६२॥ गाथार्थ- 'अहंतदेवों के उस काल में खड़े होना, बैठना, विहार करना और धर्मोपदेश देना यह क्रिया स्वभाव से होती हैं जैसे कि स्त्रियों में मायाचार स्वभाव से होता है । [ अब टीकाकार मुनिराज अहंतदेव की महिमा को बतलाते हए कलशकाव्य कहते हैं-] । (२९२) श्लोकार्थ-देवेन्द्रों के आसन कपायमान होने में कारणभूत पने महान कैवल्यबोध के उदय हो जाने पर मुक्तिश्रीरूपी स्त्री के मुखकमल को विकसित करने में सूर्यस्वरूप और सद्धर्म की रक्षा के लिए मणिसदृश ऐसे पुराण--- सनातनरूप जिनेन्द्र देव की यदि संपूर्ण प्रवृत्तियों होती हैं तो भी उनके मन नहीं है । अर्थात वे क्रियायें अभिप्रायपूर्वक नहीं हैं । सो ये भगवान अपरिमेय-अगम्य महिमाशाली हैं और पापरूपी वन के लिए पावकस्वरूप हैं। 1 भावार्थ-अहन भगवान् के केवलज्ञान प्रगट होते ही देवों के आसन कंपिन हो जाते हैं। ऐसे महिमाशाली जिनेन्द्र की सारी प्रवृत्तियां अभिप्राय रहित होती हैं क्योंकि उनके भाव इंद्रिय और भाव मन नहीं हैं। १. प्रवचनमार गाथा ४४ । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार [ ४३३ आउस्स खयेण पुणो, णिण्णासो होइ सेसपयडीरणं । पच्छा पावइ सिग्धं, लोयग्गं समयमेत्तेण ॥१७६।। आयुषः क्षयेण पुनः निर्माशो भवति शेषप्रकृतीनाम् । पश्चात्प्राप्नोति शीव्र लोकाग्न समयमाण ।।१७६॥ पायु का नाश होता उन केवनी को जब । प्र शेष प्रकृनियों का जई में गिनाग मब ।। नन शोधक समय में वे लोक शिखर । जकर के तिष्ठते हैं मुक्त्पंगना कर के ।१७६।। शुद्धजीवस्य स्वभावगतिप्राप्त्युपायोपन्यासोऽयम् । स्वभावगतिक्रियापरिणतस्य षट्कापनमविहीनस्य भगवतः सिद्धक्षेत्राभिमुखस्य ध्यानध्येयध्यातृतस्फलप्राप्तिप्रयोजनविकल्पशून्येन स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपेण परमशुक्लध्यानेन आयुःकर्मक्षये जाते वेदनीयनामगोत्राभिधानशेषप्रकृतीनां नि शो भवति । शुद्धनिश्चयनयेन स्वस्वरूपे सहजमहिम्ति लीनोऽपि व्यवहारेण स भगवान् क्षणार्धन लोकाग्रं प्राप्नोतीति । - .... गाथा १७६ अन्वयार्थ--[पुनः] फिर-उन केवलो के [श्रायुषः क्षयेण] आयु के भय से [शेष प्रकृतीनां ] शेष प्रकृतियों का [निर्मशः भवति ] संपूर्णतया विनाश हो जाता है [ पश्चात् ] पुनः वे [ शीघ्र समयमात्रेण ] शीघ्र ही एक समय मात्र में [ लोकाग्रं प्राप्नोति ] लोक के अग्रभाग को प्राप्त कर लेते हैं। टोका-शुद्ध जीव के स्वाभाविक गति की प्राप्ति के उपाय का ग्रह कथन है । स्वाभाविक गति क्रिया से परिणत, छह अपक्रम से रहित, सिद्ध-क्षेत्र के सन्मुख हुए जो भगवान हैं, उनके ध्यान, ध्येय, ध्याता और उसके फल की प्राप्ति और प्रयोजन के विकल्पों से शन्य, अपने स्वरूप में अविचलस्थितिरूप ऐसे परम शूक्लध्यान के द्वारा आयु कर्म का क्षय हो जाने पर वेदनीय, नाम और गोत्र नामकी शेष प्रकृतियों का समूल नाश हो जाता है । शुद्ध निश्चयनय से सहज महिमाशाली ऐसे अपने स्वरूप Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निगगसार ( अनुष्टुभ् ) षट्कापक्रमयुक्तानां भविनां लक्षणात् पृथक् । सिद्धानां लक्षणं यस्मादूर्ध्वगास्ते सदा शिवाः ॥२६॥ ( मंदाक्रांता } बन्धच्छेदादतुलमहिमा देवविद्याधराणां प्रत्यक्षोऽद्य स्तवनविषयो नव सिद्धः प्रसिद्धः । लोकस्याग्ने व्यवहरणतः संस्थितो देवदेवः स्वात्मन्युच्चैरबिचलतया निश्चयेनैत्रमास्ते ॥२६४॥ ...... ...... - -.- - ---. . . - -- --- में लीन होते हुये भी वे भगवान बहारमोक्षण में लोक के अग्रभाग को प्राप्त कर लेते हैं। . [ अब टीकाकार श्री मुनिराज सिद्धों के गुणों का गान करते हुये तीन श्लोक कहते हैं---] (२६३) श्लोकार्थ-जो छह अपक्रम मे सहित हैं ऐसे संसारी जीवों के लक्षण से सिद्धों का लक्षण भिन्न है, इसलिये वे सिद्ध ऊर्ध्वगामी हैं और सदाशिवकल्याण स्वरूप हैं। भावार्थ-संसारी जीव परभव में जाने समय चार विदिशाओं को छोड़कर बार दिशाओं में और ऊर्ध्व-अधो ऐसी छह दिशाओं में गमन करते हैं। इसे ही षट अपक्रम कहते हैं। (२६४) श्लोकार्थ-बंध का उच्छेद हो जाने से अतुल महिमाधारी ऐसे सिद्ध भगवान अब देवों और विद्याधरों के प्रत्यक्ष स्तवन के विषय नहीं हैं ऐसी बात प्रसिद्ध है। बे देवदेव व्यवहारनय से लोक के अग्रभाग में सुरक्षित हैं और निश्चयनय से अपनी आत्मा में अतिशयतया अविचलरूप से ही रहते हैं। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुपयो, अधिकार [ ४७५ ( अनुष्टुभ् ) पंचसंसारनिमुक्तान् पंचसंसारमुक्तये । पंचसिद्धानहं वंदे पंचमोक्षफलप्रदान् ।।२६५॥ . जाइजरमरणरहियं, परमं कम्मढ़वज्जियं सुद्धं । रगाणाइचउसहानं, अक्खयमविरणासमच्छेयं ॥१७७॥ जातिजरामरणरहितं परम कर्माष्टजितं शुद्धम् ज्ञानादिचतुःस्वभावं अक्षयमविनाशमन्छेयम् ।।१७७।। निर्वाण धाम आठों. कर्मों में शुन्य है। गतजन्मजरामृत्यु प्रो परम शुद्ध के ।। बर ज्ञान दर्ग वीरज मुख चार स्वभावी। अक्षय विनाश विरहित अद्य स्वभावी ।।2।। -- - - - - - (२६५) श्लोकार्थ-पांच प्रकार के संसार से राहत, पांच प्रकार के मोक्ष को प्रदान करनेवाले ऐसे पांच प्रकार के सिद्धों को मैं पांच प्रकार के संसार से मुक्त होने के लिए वंदन करता है। भावार्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव ये पांच प्रकार का संसार है, इन पांच प्रकार के संसार से मुक्त-रहित जो फल है उनको सिद्ध करनेवाले पांच प्रकार के सिद्ध हो जाते हैं, पांच प्रकार के संसार से छूटने के लिए उनको यहां वंदन किया गया है। गाथा १७७ अन्वयार्थ-ये सिद्ध भगवान् [जातिजरामरणरहितं] जन्म, जरा और मरण से रहित [ परमम् ] परम, [ कर्माष्टवजितं ] आय कर्मों से रहित, [ शुद्ध ] शुद्ध [ज्ञानादि चतुः स्वभावं] ज्ञानादि चार स्वभाववाले [ अक्षयं ] अक्षय [ अविनाशं ] अविनाशी और [अच्छेद्यं] अच्छेद्य हैं । Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ ] नियममार कारणपरमतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् । निसर्गतः संसृतेरभावाज्जातिजरामरणरहितम्, परमपारिणामिकभावेन परमस्वभावत्वात्परमम्, त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपत्वात् कर्माष्टकजितम्, द्रव्यभावकर्मरहितत्वाच्छुद्धम्, सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजचिच्छक्तिमयत्वाज्ज्ञानादिचतुःस्वभावम्, सादिसानधनमून्द्रियात्मकविजातीयांवभावव्यंजनपर्यायवी. तत्वावक्षयम्, प्रशस्ताप्रशस्तगतिहेतुभूतपुण्यपापकर्मद्वन्द्वाभावादविनाशम्, वधमन्धच्छेदयोग्यमूर्तिमुक्तत्वादच्छेद्यमिति । ( मालिनी) अविचलितमखंडज्ञानमद्वन्द्वनिष्ठ निखिलदुरितदुर्गवातदावाग्निरूपम् । टोका–कारण परमतत्त्र के स्वरूप का यह कथन है । म्वभाव में मंमार का अभाव होने से जो जन्म, जरा और मरण से रहित है, परम पारिणामिक भाव के द्वारा परमस्वभाव होने से परम हैं, कालिक उपाधि रहित स्वरूपवाले होने से आठों कर्मों से रहित हैं, द्रव्यकर्म और भावकर्म से रहित होने मे शुद्ध है. महजज्ञान, महज़दर्शन, सहजनास्त्रि और सहजचैतन्य शक्तिमय होने से जानादि चा स्वभ बवाल हैं, अर्थात् अनंतचतुष्टय सहित हैं, सादि और सांत, मूर्तिक इंद्रि प, विजातीय ऐसी विभावव्यंजन पर्याय से रहित होने में अक्षय हैं. प्रशस्त तथा अप्रशस्तगति के लिए हेतु भून ऐसे पुण्य-पाप कर्मरूप हद के अभाव में अविनाशी हैं, और बंध तथा बंध के द्वारा छेदन के योग्य ऐसी मति म युक्त होने मे अच्छेद्य-नहीं रिदने प्रोग्य है । भावार्थ-ग्रह सिद्धों का म्घमा बनलाया गया है. गुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से संसारी जीवों की आत्मा भी ऐसी ही सिद्धस्वरूप है उमे कारणपरमतरव कहते हैं। [ अब टीकाकार श्री मुनिराज मिद्धभक्ति की प्रेरणा देते हुए कहते हैं-] (२९६) श्लोकार्थ- जो अविचल हैं, अचण्ड ज्ञानरूप हैं, राग द्वेषादि द्व ।। में स्थिन नहीं हैं, ममम्त दुरित के दुस्तर समूह को भस्मसात् करने में अग्निरूप हैं Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार भज भजसि निजोत्थं दिव्यशर्मामृतं त्वं सकलविमलबोधस्ते भवत्येव तस्मात् ।।२९६।। श्रव्वाबाहमणदियमणोवमं पुण्णपावजिम्मुक्कं । पुणरागमणविरहियं णिच्च प्रचलं अणालंबं ॥ १७८ ॥ अन्याबाधमतीन्द्रियमनुपमं पुण्यपापनिर्मुक्तम् । पुनरागमनविरहितं नित्यमचलमनालंबम् ॥१७८॥ कथन है । [ ४७७ बाबा रहित प्रतीन्द्रिय अनुपम कहा गया । सत्र पुण्य पराय विरहित परिशुद्ध हो गया । पुनरागमन विर्वाजन भी नित्य रूप है । प.से है अवपूर्ण है ॥१७८॥ अत्रापि निरुपाधिस्वरूपलक्षण परमात्मतत्त्वमुक्तम् । अखिलदुरघवीरबंरीवरूथिनीसंभ्रमागोचरसहजज्ञानदुर्गनिलयत्वादव्याबाधम्, सर्वात्मप्रदेशभरितचिदानन्दमयत्वाद , ऐसे निज में उत्पन्न हुए दिव्यनुखरूपी अमृत को तुम भजो यदि उसे भोग तो तुम्हे सकल विमलज्ञान प्रकट होगा । भावार्थ- शुद्ध वात्मतत्त्व की उपासना से ही पूर्ण केवलज्ञान प्रगट होता है, इसलिए उसीका आश्रय लेना श्रेयस्कर है । गाथा १७६ अन्वयार्थ - ये सिद्ध भगवान् [ अब्याबाधं ] अव्यावाथ, [ अतीन्द्रियं ] अतीन्द्रिय, [ अनुपसं] अनुपम [ पुण्यपापनिर्मुक्त' ] पुण्य-पाप से रहित, [ पुनरागमनविरहितं ] पुनरागमन से रहित, [ नित्यं ] नित्य, [ अचलं ] अचल और [ निरालंबं ] निरालंब हैं । टीका- यहां पर भी निरुपाधिस्वरूप लक्षणवाले ऐसे परमात्मतत्व का Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yige ] नियममार तोन्द्रियम्, त्रिषु तत्त्वेषु विशिष्ट त्वादनौपम्यम् संसृतिपुरंधिकासंभोगसंभवसुखदुःखाभावात्पुण्यपापनिमुक्तम्, पुनरागमनहेतुभूतप्रशस्ताप्रशस्तमोहरागढषाभावात्पुनरागमनविरहितम, नित्यमरणतद्भवमरणकारणकलेवरसंबन्धाभावान्नित्यम्, निजगुणपर्यायप्रच्यवनाभावावचलम, परद्रव्यावलम्बनाभावादनालम्बमिति । तथा चोक्त श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः-- ( मावाना) "आसंसारात्प्रतिपदममी गगिणो नित्यमत्ताः सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्यमंधाः । एततेत: पमिदमिदं यत्र चैतन्यधातु: शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति ॥" - - - - -- - - -- - - - - -- - - - - - - -- - - -- - समस्त दुष्ट पाररूपी वीर वैगरी को रोना उपद्रव के अगोचर एंसे सहज ज्ञानरूपी गढ़ में निवास होने में जो अव्याबाध है, संपूर्ण आत्मप्रदशों में भरे हए चिदानन्दमय होने से अतीन्द्रिय हैं, नीनों तत्त्व में बहिरात्मतत्त्व, अन्तरात्मतत्त्व और परमात्मतत्त्व इन तीनों में विशेष होने से जो अनुपम हैं, संसाररूपी स्त्री के सम्भोग से उत्पन्न होनेवाले सुख दुःखों का अभाव होने से जो पुण्य और पाप से निर्मुक्त हैं, पुनरागमन के कारणभूत से प्रगरन और अप्रशस्त मोह, राग, द्वेष का अभाव हो जाग में जो पुनरागमन से रहित है, निन्यमग्ण और तद्भव मरण के कारणभूत शरीर के सम्बन्ध का अभाव होने से जो निन्य है, अपनी गुण और पर्यायों से च्युत नहीं होने से अचल हैं और परद्रव्य के आलम्बन का अभाव होने से जो निरालंब हैं। इन । उपर्युक्त गुणों मे बिशिष्ट सिद्ध परमात्मा होते हैं। इसीप्रकार से श्री अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा है-- श्लोकार्थ-'हे 'अंधप्राणियों ! अनादि संसार से पद-पद पर ये रागी जीव नित्य ही मत्त हो रहे हैं, और जिस पद में सो रहे हैं, वह पद अपद है, अपद है ऐसा १. समयमार कलश श्लोक १३८ । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग प्रधिकार [ ४७६ तथा हि-- ( शार्दूलविक्रोडिन । भावाः पंच भवन्ति येष सततं भावः परः पंचमः स्थायी संसृतिनाशफारणमयं सम्यग्दृशां गोचरः । तं मुक्त्वाखिलरागरोषनिकर बुद्ध्वा पुनर्बुद्धिमान एको भाति कलौ युगे मुनिपतिः पापाटधीपावकः ॥२६७।। ..-.- . तुम समझो । इधर आवो, आवो तुम्हाग पद यह है, यह है जहां पर शुद्ध-शुद्ध चैतन्य धातु अपन रस के अतिशय भार से स्थायी भाव को प्राप्त हो रहा है।" भाई-आत्रवः ध्यजीवों को अन्यन्त कम्णाभाव मे समझा रहे । हैं कि अरे भव्य ! राग से अंधे हये ये मंसारो प्राणी अनादिकाल में अपने स्थान से । च्युत होते हुए अन्य गिगक निन्दास्थान में भटक रहे हैं वास्तव में यह तुम्हारा स्थान नहीं है, यहां दो-दो बार कहने से आचार्य श्री की अतिशय कम्णा झलक रही है । वास्तव में आचार्य बड़े ही प्रेम में बुला रहे है कि भाई ! इधर आवो आवो जो कि मोक्षपद है और जहां कि चैनन्यमयी बात स टिन तम्हारा दिव्य शरीर है जो कि अविनाशी है। उसीप्रकार में [ टीकाकार मनिराज इस कलिकाल में भी महामुनि की। प्रशंसा करते हुए कलशकाव्य करते हैं- 1 (२६७) श्लोकार्थ-भाव पाँच होते हैं जिनमें यह परम पंचमभाव सनन् स्थायी है, संसार के नाम का कारण है और सम्यग्दष्टियों के गोचर है । पापरूपी अटवी को जलाने के लिये अग्नि सदश ऐसे बुद्धिमान एक मनिराज ही उस पंचमभाव को जानकर पुन: समस्त रागद्वप के समह को छोड़कर इस कलियुग में शोभायमान होते हैं। भावार्थ-टीकाकार का स्पष्ट कहना है कि आज इस कलिकालरूप निकृष्ट : काल में भी बीतरागी महामुनि पंचमभाव का आश्रय लेने वाले निःस्पृह ऐसे विचरण करते हैं। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निगममार रगवि दुक्खं गवि सुक्खं, णवि पीडा व विज्जदे बाहा । णवि मरणं णवि जणणं, तत्थेव य होइ णिवाणं ॥१७६॥ नापि दुःखं नापि सौख्यं नापि पीडा नैव विद्यते बाधा । नापि मरणं नापि जननं तत्रैव च भवति निर्वाणम ||१७६।। जहा प न दुःख कित्रिन नहि इंद्रियों का सुख । पीड़ा नहीं है कुछ भी बाधा भी नहीं कन्छ । नति गृत्य भी जहां पर नहि जन्म भी रहे। होता वहीं गे निग्नित निर्वाण नान ये ।।१७।। इह हि सांसारिकविकारनिकायाभावाभिर्वाणं भवतीत्युक्तम् । निरुपरागरत्नत्रयात्मकपरमात्मनः सततान्तमु खाकारपरमाध्यात्मस्वरूपनिरतस्य तस्य याऽशुभपरिणतेरभावान्न चाशुभकर्म अशुभकर्माभावान्न दुःखम्, शुभपरिणतेरभावान्न शुभकर्म शुभकर्माभावान्न खलु संसारसुखम्, पीडायोग्ययातनाशरीराभावान्न पीडा, असातावेदनी .-.. ....- -. ... .. ....-.- - गाथा १७६ __ अन्वयार्थ—[ दु.खं न अपि ] जहां दुःख भी नहीं है. [ सौख्यं न अपि ] मुम्म भी नहीं हैं. [ पीड़ा अपि न ] पीड़ा भी नहीं है [ बाधा न एव विद्यते ] बाबा भी नहीं है [ मरणं न अपि ] मरण भी नहीं है तथा [ जननं अपि न ] जन्म भी नहीं है [तत्र एव च निर्वाणं भवति] वहीं पर निर्वाण है। टीका--सांसारिक विकारसमूह के अभाव से ही निर्वाण होता है ऐसा यहां । पर कहा है। निरन्तर अंतम खाकार से परिणत ऐसे परम अध्यात्मस्वरूप में लीन हये ऐसे उन निम्पराग रलत्रयात्मक परमात्मा में अशुभपरिणति का अभाव होने से अशुभकर्म नहीं हैं और अशुभकर्म के अभाव से उनके दुःख भी नहीं है तथा शुभ परिणति के अभाव से उनके शुभकर्म नहीं है और शु., कर्म के न होने से वास्तव में उन्हें संमार के सुख भी नहीं हैं, पीड़ा के योग्य यातनारूप शरीर के अभाव से उन्हें Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्धोपयोग अधिकार [ ४८१ यकर्माभावान्नैव विद्यते बाधा, पंचविधनकर्माभावान्न मरणम्, पंचविधनो कर्महेतु भूतकर्मपुद्गलस्वीकाराभावान्न जननम् । एवंलक्षणलक्षिताक्षुण्ण विक्षेपविनिर्मुक्तपरमतत्त्वस्य सदा निर्वारणं भवतीति । ( मालिनी ) भवभव सुखदुःखं विद्यते नॅब बाधा जननमरणपीडा नास्ति यस्येह नित्यम् । तमहमभिनमामि स्तौमि संभावयामि स्मरसुखविमुखस्सन् मुक्तिसौख्याय नित्यम् ॥ २६८ ॥ पीड़ा नहीं है, असातावेदनीयकर्म के अभाव से उन्हें बाधा भी नहीं है, पांच प्रकार के तथा पांच प्रकार के नोकर्म के लिये उन्हें जन्म भी नहीं है परमतत्त्व को सदा निर्वाण नोकर्म के अभाव से उनके मरण भी नहीं है कारणभूत ऐसे कर्मपुद्गलों को स्वीकार न करने से इन लक्षणों में लक्षित, अखण्ड और त्रिक्षेपरहित ऐसे होता है । भावार्थ- संसार में कर्म के निमित्त से होनेवाले विभावों के अभाव से परमतत्त्व स्वरूप परमात्मा ही निर्वाण के अधिकारी हैं। यहां पंचवित्र नोर्म से औदारिक आदि पांच शरीरों का ग्रहण समझना चाहिए । [ अब टीकाकार श्री मुनिराज उसी परमतत्त्व स्वरूप आत्मा की आराधना के लिये प्रेरणा देते हुए दो श्लोक कहते हैं--] ( २८ ) श्लोकार्थ - इस लोक में जिसके हमेशा भव भव के दुःख और सुख नहीं है, बाधा नहीं है तथा जन्म, मरण और पीड़ा भी नहीं है । मैं कामसुख से विमुख होता हुआ मुक्तिसुख की प्राप्ति के लिये नित्य ही उस परमात्मतत्त्व को नमस्कार करता हूं, उसकी स्तुति करता हूं और उसी की सम्यक् प्रकार से भावना करता हूँ । Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ ] नियमसार ( अनुष्टुभ् ) आत्माराधनया हीनः सापराध इति स्मृतः । अहमात्मानमानन्दमंदिरं नौमि नित्यशः ॥ २६६॥ वि इंदिय उवसग्गा, गवि मोहो विम्हियो ग णिद्दा य । रग य तिन्हा व छहा, तत्थेव य होइ णिवाणं ॥ १८० ॥ नापि इन्द्रियाः उपसर्गाः नापि मोहो विस्मयो न निद्रा च । न च तृष्णा नैव क्षुधा तत्रैव च भवति निर्वाणम् ॥ १८० ॥ नहि इन्द्रियां जहां पर उसमें भी नहीं । नहि मोह और विस्मय निद्रा भी तो नहीं || बाधा नहीं क्षुधा की तृष्णा भिनहीं है । होती वही तो निश्चित निर्वाण मही है || १५०|| परमनिर्वाणयोग्य परमतत्वस्वरूपाख्यानमेतत् । अखंडेक प्रदेशज्ञानस्वरूपत्वात् स्पर्शनरसनप्राणचक्षुः श्रोत्राभिधानपंचेन्द्रियव्यापारा: देवमानवतियंग चेतनोपसर्गाश्च न -- ( २९६ ) श्लोकार्थ - आत्मा की आरावना मे होन जोव अपराध महित हैं। ऐसा माना गया है, इसलिये मैं नित्य ही आनन्द के मन्दिर-स्थान स्वरूप अपनी आत्मा को नमस्कार करता हूँ । गाया १५० अन्वयार्थ - [इन्द्रियाः उपसर्गाः अपि ] जहां पर इंद्रियां नहीं हैं और उपसर्ग भी नहीं है [ मोहः विस्मयः अपि न ] मोह और विस्मय भी नहीं है, [ निद्रा च न ] और निद्रा भी नहीं है, [तृष्णा च न ] तृष्णा भी नहीं है तथा [ क्षुधा न एव ] क्षुधा भी नहीं है [ तत्र एव च निर्वाणं भवति ] वहीं पर निर्वाण है । टीका—यह परमनिर्वाण के योग्य ऐसे परमतत्त्व के स्वरूप का कथन है । अखण्ड एकप्रदेशी ज्ञानस्वरूप होने से स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण नामवाली इन पांच इंद्रियों के व्यापार ( उस परमतत्त्व ) में नहीं हैं, तथा देव, Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धपयोग अधिकार [ ४८३ भवन्ति, क्षायिकज्ञानयथाख्यातचारित्रमयत्वान्न दर्शनचारित्रभेदविभिन्नमोहनीयद्वितयमपि, बाह्यप्रपंचविमुखत्वा विस्मयः, नित्योन्मीलितशुद्धज्ञानस्वरूपत्वाम्न निद्रा, आसालावेदनीय कर्मनिर्मूलनान्न क्षुधा तृषा च । तत्र परमब्रह्मणि नित्यं ब्रह्म भवतीति । तथा चोक्तममृताशोतौ- ( मालिनो ) "ज्वरजननजराणां वेदना यत्र नास्ति परिभवति न मृत्युर्नागतिर्नो गतिर्वा । तदतिविशदचित्त लभ्यतेऽङ गेऽपि तत्त्वं गुणगुरुगुरुपादाम्भोज सेवाप्रसादात् ||" मनुष्य, तिर्यञ्च और अचेतन कृत उपसर्ग भी नहीं हैं, क्षायिकज्ञान और वयाख्यानचारित्रमय होने से दर्शनमोह और चारित्रमोह के भेद से भिन्न ऐसे दोनों मोहनीय कर्म भी नहीं हैं, वाह्यप्रपंचों से विमुख होने से जहां पर विस्मय - आश्चर्य नहीं है, नित्य उन्मीलित- प्रगटरूप शुद्धज्ञान स्वरूप होने से जहां पर निद्रा भी नहीं है तथा असातावेदनीयकर्म का समूलनाश हो जाते से भुवा और तृषा भी नहीं हैं उसी परमब्रह्म स्वरूप में सदा ब्रा निर्वाण है । भावार्थ - जिस परमतत्त्व के अनुभव में ये इन्द्रियव्यापार, उपसर्ग आदि नहीं हैं उसी परमतत्त्व में आत्मा की तन्मयता हो जाना ही परमनिर्वाण है । इसीप्रकार से अमृताशीति ग्रंथ में भी कहा है " श्लोकार्थ -- 'जहां पर ज्वर, जन्म और जरा की वेदना भी नहीं है, मृत्यु भी तिरस्कार नहीं कर सकती है, तथा जहां पर गति और अगति भी नहीं है । उस परमतत्त्व को अतिनिर्मल चित्तवाले पुरुष शरीर में स्थित होते हुए भी गुणों में गुरु ऐसे गुरुदेव के पादकमल की सेवा के प्रसाद से प्राप्त कर लेते हैं ।' १. अमृताशीति श्लोक ५८ । Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Y: ४ ] निगमगार तथा हि ( मंदाक्रांता। यस्मिन् ब्रह्मण्यनुपमगुणालंकृते निर्विकल्पेऽक्षारणामुच्चविविधविषमं वर्तनं नैव किंचित् । नेवान्ये वा भविगुणगणाः संसृतेमूलभूताः तस्मिन्नित्यं निजसुखमयं भाति निर्धारणमेकम् ॥३००। रणवि कम्मं गोकम्म, रवि चिता व अट्टरुहाणि । रणवि धम्मसुक्कझाणे, तत्थेव य होइ रिणवाणं ॥१८१॥ भावार्थ-जिम परमतत्त्व में जन्म, मरग आदि के दःख, पराभव, गमनआगमन आदि कुछ भी विकार नहीं है । उस तन्त्र को प्राप्त करने के लिये गुरुओं के नगणकमलों की उपामना ही सबगे प्रमुख उपाय है । इसीप्रका ग | टीकाकार मुनिराज भी निर्वाण के बाप को कहत हाए __ शलाक कहते हैं--1 (३०० ) श्लोकार्थ—अनुपम गुणों से अलंकृत और निविकल्प ऐगे जिस बता म-आन्मानन्ध में इंद्रियों का विविध और विपमरूप किचित् भी वर्तन अत्यनप से नहीं है, तथा संसार के लिये मूलभून, अन्य संसारो गुण समुदाय भी नहीं हैं। उस ब्रह्मस्वरूप में नित्य ही निजसुखमय एक-अद्वितीय निर्वाण प्रतिभामित होता है । भावार्थ-अनंत गुणपुज स्वरूप और ममस्त विकल्पों से रहित पूर्ण ___ निर्विकल्प ऐग शुद्धात्मा में शुद्ध निश्चयनय से संसार संबंधी रागद्वेष आदि विकार भाव नहीं हैं । वस ऐसी बोतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित होने पर ही निर्वाण सुख प्रगट हो जाता है । Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालोपयोग अधिकार [ ४८५ नापि कर्म नोकर्म नापि चिन्ता नैवात रौद्रे । नापि धय॑शुक्लध्याने तत्रैव च भवति निर्वाणम् ॥१८१।। जहां कर्म हैं नहीं कुछ नोकर्म भो नहीं। पिता व सतराद्री दुश्यान भी नहीं ।। नहिं धर्म शक्ल दोनों भि ध्यान जहां पर । निर्वागा नाम से तो होता वही सुन्दर ।।१८।। सकलकर्मविनिर्मुक्तशुभाशुभशुद्धध्यानध्येयविकल्पविनिर्मुक्तपरमतत्वस्वरूपात्यानमेतत् । सदा निरंजनत्वान्न द्रव्यकर्माष्टक, त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपत्वान्न नोकर्मपंचक च, अमनस्कत्वान्नचिता, औदयिकादिविभावभावानामभावादातरौद्रध्याने न स्तः, धर्म्य - शुक्लध्यानयोग्यचरमशरीराभावात्तद्वितयमपि न भवति । तत्रैव च महानंद इति । गाथा १८१ अन्वयार्थ-[ कर्म नोकर्म अपि न ] जहां पर कम और नोकर्म भी नहीं है. [चिना अपि न ] चिता भी नहीं है, [ आर्तरौद्र एव न ] अनं-रौद्रभ्यान भी नहीं है तथः [ धर्मशुक्लध्याले अपि न ] मध्यान और शुक्लध्यान भी नहीं हैं [ तत्र एव च निर्वाणं भवति | वहीं पर निर्वाण है । टीका--सकलकर्म से निर्मुक्त, शुभ-अशुभ और शुद्धता ध्यान-ध्येय रो जिन ऐसे परमतत्त्व के स्वरूप का यह कथन है । गदा निरंजनरूप होने से जिनके आठों कर्म नहीं हैं, लीनों कालों में उपाधि रहित स्वपवाले होने मे जो पांच 'प्रकार से नोकर्म से रहित हैं. मन रहित होने से जिन्हें चिता नहीं है, औदयिक आदि विभावभावों के अभाव रो जिनके आर्तध्यान और रौद्रध्यान नहीं है तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान के योग्य ऐसे चरमशरीर के अभाब से ये दोनों ध्यान भी नहीं हैं । वहीं पर महान आनन्द है ऐसा समझना । १. प्रौदारिक ग्रादि पांच प्रकार के शरीर पांच प्रकार के नोकर्म हैं । Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ kee ] नियममार ( मंदाक्रांता ) निर्वाणस्थे प्रहृतदुरितध्वान्तसंधे विशुद्ध कमशेषं न च न च पुनध्यनिकं तच्चतुष्कम् । तस्मिसिद्ध भगवति परंब्रह्मणि ज्ञानपु जे काचिन्मुक्तिर्भवति वचसां मानसानां च वरम् ॥३०१॥ विज्जदि केवलरणारणं, केवलसोक्खं च केवलं विरियं । केवलदिट्टि अमुत्त अत्थित्त' सप्पवेसत्त ॥१८२॥ 1 विद्यते केवलज्ञानं केवलसौख्यं च केवलं वीर्यम् । केवल दृष्टिमूर्तत्वमस्तित्वं सप्रदेशत्वम् ॥ १८२ ॥ -1 भावार्थ — जिस अवस्था में कर्म कर्म जादि समाप्त होचुके हैं उसो अवस्था में महान आनन्द प्रगट होजाता है जो कि परमानन्द कहलाता है बही अनंतमुखरूप है उसी का नाम परमनिर्वाण है । [ अब टीकाकार मुनिराज भी पूर्णशुद्ध अवस्था की महिमा को कहते ह एक कलश काव्य कहते हैं - ] (३०१ ) श्लोकार्थ - निर्वाण में स्थित, दुरितरूपी तिमिर समुदाय को नष्ट करनेवाले ऐसे विशुद्ध परमब्रह्म में अशेषकर्म नहीं हैं तथा वे चारों ध्यान भी नहीं हैं ज्ञानपुं स्वरूप परमब्रह्म ऐसे सिद्धभगवान् के ऐसी कोई मुक्ति होजाती है जो बैंक वचन और मन से दूर है 1 भावार्थ — धर्मध्यान और शुक्लध्यान भी सिद्धि के लिये साधन हैं अतएव ये ध्यान भी सिद्धि की प्राप्ति होजाने पर नहीं रहते हैं । यही कारण है कि सिद्धों की सिद्धावस्था सामान्यजनों के वचन और मन के अगोचर है | गाथा १८२ श्रन्वयार्थ - उन सिद्धभगवान् के [ केवलज्ञानं ] केवलज्ञान, [ केवल दृष्टिः ] देवलदर्शन, [ केवलसौख्यं च ] केवलसौख्य, [केवलं वीर्य ] केवलवीर्य, [ अमूर्तत्त्वं ] Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - शुद्धोगयोग अधिकार [ ४८७ --- निर्वाण धाम पर जो श्री सिद्ध प्रभु रहें । कैवल्य ज्ञान केवल दर्शन उन्हीं के हैं। कैवल्यवीर्य केवल सुख भी उन्हीं के हैं। अस्तित्व सप्रदेशी अनमूर्त गुण भी हैं ।।१५२।। भगवतः सिद्धस्य स्वभावगुणस्वरूपाख्यानमेतत् । निरवशेषेणान्तर्मुखाकारस्वात्माश्रयनिश्चयपरमशुक्लध्यानबलेन ज्ञानावरणाचष्टविधकमधिलये जाते ततो भगवतः सिद्धपरमेष्ठिनः केवलज्ञानकेवलदर्शनकेबलवीर्यकेवलसौख्यामूर्तत्वास्तित्वसप्रदेशत्वादिस्वभावगुणा भवन्ति इति । ( मंदाक्रांना ) बन्धच्छेदाद्भगवति पुनित्यशुद्धे प्रसिद्ध तस्मिसिद्धे भवति नितरां केवलज्ञानमेतत् । : - ... -- -- - - - - अमूर्तत्व, [अस्तित्थं] अस्तित्व और [सप्रदेशत्वं] सप्रदेशत्व [विद्यते] होते हैं । टीका-भगवान सिद्ध के स्वाभाविक गुणों के स्वरूप का यह कथन है। मंपूर्णतया अंतम खाकार ऐसे स्वात्माश्रित निश्चय परमशुक्लध्यान के बल से ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के कर्मों का विलय होजाने पर भगवान् सिद्धारमेटी के केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलवीर्य, केवलसौख्य, अमूर्तत्त्व, अस्तित्व और सप्रदेशन्त्र आदि ऐसे स्वाभाविक गुण होते हैं । भावार्थ-सिद्धों के अनंतदर्शन आदि अनंतचतुष्टय और नामकर्म आदि के अभाव से अमूर्तत्व आदि गुण प्रगट हो जाते हैं जो कि स्वभावगुण कहलाते हैं । [ अब टीकाकार मुनिराज इन्हीं स्वभावगुणों को कहते हुए एक कलगकाव्य कहते हैं-] (३०२) श्लोकायं-बंध का विच्छेद होजाने से नित्यशुद्ध तथा प्रसिद्ध ऐसे उन सिद्धभगवान् में अतिशयरूप यह केवलज्ञान होता है, साक्षात् समस्त पदार्थों Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ ] নিয়ম - ... -'-A ai दृष्टिः साक्षादखिलविषया सौख्यमात्यंतिक च शक्त्यायन्यद्गुणमणिगणः शुद्धशुद्धश्च नित्यम् ।।३०२॥ रिणव्वाणमेव सिद्धा, सिद्धा णिव्वाणमिदि समुद्दिष्टा । कम्मविमुक्को अप्पा, गच्छइ लोयग्गपज्जंतं ।।१८३॥ निर्वाणमेव सिद्धाः सिद्धा निर्वाणमिति समुद्दिष्टाः । कर्मविमुक्त आत्मा गच्छति लोकानपर्यन्तम् ।।१८३॥ निर्धारण ही तो जग में बस सिद्ध कहाते । जो सिद्ध हैं वे ही तो निर्वागा कहाते ।। जव प्रात्मा ये कर्मों से मुक्त हो जाता । उस ही समय लोकान के पर्यंत में जाता ।।१८।। सिद्धिसिद्धयोरेकत्वप्रतिपादनपरायणमेतत् । निर्वाणशब्दोऽत्र द्विष्ठो भवति । _ - -- को विषय करनेवाला ऐसा दर्शन-केबलदर्शन होता है तथा आन्यन्तिक सौख्य प्रगट हो जाता है एवं अत्यन्त शृद्ध ऐसे अनन्त वीर्य आदि अन्य गुण मणियों के समूह भी नित्य हो रहा है। भावार्थ----कर्मबंध का अभाव होजाने से सिद्धभगवान् के केवलज्ञानादि ६. अनन्तगुणसमह प्रगट होजाते हैं। गाथा १८३ . अन्वयार्थ-[ निर्वाणं एव सिद्धाः ] निर्वाण ही सिद्ध हैं और [ सिद्धाः । निर्वाणं ] सिद्ध ही निर्वाण हैं [ इति समुद्दिष्टाः ] ऐसा कहा गया है, क्योंकि [ कर्म विमुक्तः आत्मा ] कर्म से विमुक्त आत्मा ही [ लोकाग्रपर्यंतं ] लोक के अग्रभाग पर्यंत [ गच्छति ] जाता है। टीका-सिद्धि और सिद्धभगवान् में एकत्व का प्रतिपादन करनेवाला यह कथन है ! 'निर्वाण' शब्द यहां पर दो में स्थित है । Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार [ ४८६ कथमिति चेत् । 'निर्वाणमेव सिद्धा' इति वचनात् । सिद्धाः सिद्धक्षेत्र तिष्ठंतीति व्यवहारः, निश्चयतो भगवंतः स्वस्वरूपे तिष्ठति । ततो हेतोनिर्वाणमेव सिद्धाः सिद्धा निर्वाणम् इत्यनेन क्रमेण निर्वाणशब्दसिद्धशब्दयोरेकत्वं सफलं जातम् । अपि च यः कश्चिदासनभव्यजीवः परमगुरुप्रसादासादितपरमभावभावनया सकलकर्मकलंकपकविमुक्तः स परमात्मा भूत्वा लोकाग्रपर्यतं गच्छतीति । ( मानिनी ) अथ जिनमतमुक्त मुक्तजीवस्य भेदं क्वचिदपि न च विद्मो युक्तितश्चागमाच्च । यदि पुनरिह भव्यः कर्म निर्मूल्य सर्व स भवति परमश्रीकामिनोकामरूपः ।।३०३।। प्रश्न-कैसे ? ___ उत्तर-'निर्वाणमंत्र सिद्धाः' निर्वाण ही सिद्ध हैं, ऐसा वचन पाया जाना है। सिक भगवान् सिद्ध क्षेत्र में रहते हैं, ऐसा व्यवहार है. निश्चय से भगवान् अपने स्वरूप में स्थित रहते हैं और इस हेतु से "निर्वाण ही सिद्ध हैं और सिद्ध ही निर्माण हैं," इस प्रकार के क्रम से निर्वाण शब्द और सिद्ध शब्द इन दोनों में एकत्व सफल हो गया है । तथा, जो कोई आसन्नभव्य जीव परमगुरु के प्रगाद से प्राप्त हुए परमभाव की भावना से सकल कर्म कलंक रूपी कीचड़ मे विमुक्त हो जाते हैं, वे परमात्मा होकर लोक के अग्रभाग तक चले जाते हैं। [अब टीकाकार मुनिराज पुनरपि निर्वाण और निर्वाण प्राप्त जीवों में अभेद दिखलाते हुए कलश काव्य कहते हैं-] (३०३) श्लोकार्थ-जिनेंद्र देव के मत की मुक्ति में और मुक्त जीव में हम कहीं पर भी युक्ति से और आगम से भेद नहीं समझते हैं। यदि पुनः इस लोक में कोई भव्य जीव सम्पूर्ण कर्म को निर्मूल कर देता है, तो वह परमश्री-मुक्तिलक्ष्य रूपी कामिनी का प्रिय वल्लभ हो जाता है। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० ] नियमसार जीवाणं पुग्गलाणं, गमणं जाणेहि जाव धम्मत्थी । धम्मत्थिकायभावे, ततो परदो ण गच्छति ॥ १८४ ॥ जीवानां पुद्गलानां गमनं जानीहि यावद्धर्मास्तिक: । धर्मास्तिकायाभाये तस्मात्परतो न गच्छति ।। १८४ । जीवों का पुद्गलों का जाना हो वहीं तक | धर्मास्तिकाय रहता सहकारि जहां तक ॥। धर्मारित काय का कहां प्रभाव है श्रागे । स हि सिद्ध लोक से जाते नहीं आगे || १८४।। अत्र सिद्धक्षेत्रादुपरि जीवपुद्गलानां गमनं निषिद्धम् । जीवानां स्वभावक्रिया सिद्धिगमनं विभावक्रिया षट्कापक्रमयुक्तत्वं पुद्गलानां स्वभावक्रिया परमाणुगतिः विभाव क्रिया यणुकादिस्कन्धगतिः । प्रतोऽमीषां त्रिलोकशिखरादुपरि गतिक्रिया भावार्थ - कर्मों से छूटना ही मुक्ति है और जो कर्मों से छूट चुके हैं वे ही मुक्त हैं। पुनः मुक्ति और मुक्त जीवों में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि मुक्ति के बिना मुक्त जीव अथवा मुक्त जीवों के बिना मुक्ति नामकी कोई चीज नहीं है । गाथा १८४ अन्वयार्थ - [ जीवानां पुद्गलानां गमनं ] जीत्रों का और पुद्गलों का गमन [जानीहि ] वहां तक ही जानो कि [ यावत् धर्मास्तिक: ] जहां तक धर्मास्तिकाय है, [ धर्मास्तिकाया भावे ] क्योंकि धर्मास्तिकाय के अभाव में [तस्मात् परतः ] उससे आगे [ न गच्छति ] नहीं जाते हैं । टीका -- यहां सिद्धक्षेत्र के ऊपर जीव और पुद्गलों के गमन का निषेध किया है। जीवों की स्वभाव क्रिया सिद्धि के लिये गमन है और विभाव क्रिया छह अपक्रम से युक्त गमन है अर्थात् अन्य भव में जाते समय छह दिशाओं में जो गमन होता है उसे अपक्रम कहते हैं । पुद्गलों की स्वभाव क्रिया परमाणु की गति है और विभाव क्रिया द्वणुक आदि स्कंधों की गतिरूप है । इसलिये इनकी त्रिलोक शिखर के Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार [ ४६१ नास्ति, परतो गतिहेतोधर्मास्ति कायाभावात् यथा जलाभावे मत्स्यानां गतिक्रिया नास्ति । अत एव यावद्धर्मास्तिकायस्तिष्ठति तरक्षेत्रपर्यन्तं स्वभाविभावगतिक्रियापरिणतानां जीवपुद्गलानां गतिरिति । (अनुष्टुम् ) त्रिलोकशिखरावं जीवपुद्गलयो योः । नेवास्ति गमनं नित्यं गतिहेतोरभावतः ।।३०४।। रिणयमं णियमस्स फलं, णिट्ठिपवयरणस्स भत्तीए । पुवावरविरोधो जदि अवरणीय पूरयंतु समयण्हा ॥१८५॥ नियमो नियमस्य फलं निर्दिष्टं प्रवचनस्य भक्त्या । पूर्वापरविरोधो गद्यपनीय पुरयंतु समयज्ञाः ।।१८५।। इस विध रा जो नियम है औ उस नियम का फल । प्रवचन की भक्ति से ही, मैंने कहा सनल ।। यदि इनमें कुछ भी पूर्वापर से विरोध हो । शोधन कर उसका जो, शनी विशेष हों ।। १८५।। --- . . .- - - - ऊपर गतिक्रिया नहीं है, क्योंकि उसके आगे गति के हेतुभूत ऐसे धर्मास्तिकाय का अभाव है, जैसे जल के अभाव में मछलियों की गति क्रिया नहीं होती है। इसलिये जहां तक धर्मास्तिकाय रहता है उतने क्षेत्र पर्यंत ही स्वभाव और विभावरूप गति क्रिया में परिणत हुये जीव और पुद्गलों का गमन होता है । [ टीकाकार मुनिराज इसी बात को कलश काव्य से कहते हैं- (३०४) श्लोकार्थ-त्रिलोक शिखर से ऊपर में जीव और पुद्गल इन दोनों का गमन नहीं होता है। क्योंकि वहां नित्य ही गति हेतुक ( धर्मास्तिकाय ) का अभाव है। गाथा १६५ अन्वयार्थ--[नियमः नियमस्य फलं] नियम और नियम का फल [प्रवचनस्य भक्त्या] प्रवचन की भक्ति से [निर्दिष्टं] कहा गया है । [यदि पूर्वापरविरोधः] यदि Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " या. ४६२ ] नियमगार शास्त्रादौ गृहीतस्य नियमशब्दस्य तत्फलस्य चोपसंहारोयम् । नियमस्तावच्छुद्धरत्नत्रयव्याख्यानस्वरूपेण प्रतिपादितः । तत्फलं परमनिर्वाणमिति प्रतिपादितम् । न कवित्वदात् प्रवचनभक्त्या प्रतिपादितमेतत् सर्वमिति यावत् । यद्यपि पूर्वापरदोषो विद्यते चेत्तदोषात्मकं लुप्त्वा परमकवीश्वरास्समयविदश्चोत्तमं पदं कुर्वन्विति । ( माननः) जयति नियमसारस्तत्फलं चोत्तमानां हृदयसरसिजाते निर्वृतेः कारणत्वात् । प्रवचनकृतभक्त्या मूत्रकृद्धिः कृतो यः स खल निखिलभव्यश्रेणिनिर्वाणमार्गः ।।३०५।।। इसमें पुर्वापर विरोध हो तो [समयज्ञाः] आगन के ज्ञाता [ अपनीय ] उसे दूर करके [ पूरयंतु | पूर्ण करे। शास्त्र के आरम्भ में कथिन न्यिम शब्द का और उसके फल का यह उपमहार । नियम तो शुद्धगन्नत्रय के व्याख्यान स्वरूप में प्रतिपादित किया गया है और उसका फल परम निर्वाण है ऐसा प्रतिपादित किया है कवित्य के गर्व से मैंने यह कथन नहीं किया है। किंतु प्रवचन की भक्ति मे यह गब प्रतिपादित किया गया है। यदि इसमें पूर्वापर दोष होवे तो आगम वेत्ता परमकवीश्वर उन दोषात्मक पदों का लोप __ करके दूर कर के उत्तम पद को कर लेवे, ऐसा अभिप्राय है। [ अब टीकाकार मुनिराज नियम और उगक फल के महत्व को कहदे हा एक कला काव्य कहते है-] (३०५) श्लोकार्य-यह नियमसार और उसका फल उत्तम पुरुषों के हृदय कमल में जयशील हो रहा है, क्योंकि वह निर्वाण का कारण है। प्रवचन की भक्ति से सूत्रकार श्री कुदकुददेव ने जो कहा है वह निश्चितरूप से अखिल भव्य ममूह के लिये निर्वाण का मार्ग है। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार ईसाभावेण पुणो, केई णिदंति सुन्दरं भग्गं । तेसि वयणं सोच्चाऽर्भात मा कुरणह जिरणमग्गे ॥ १८६॥ ईर्षाभावेन पुनः केचिन्निन्दन्ति सुन्दरं मार्गम् । तेषां वचनं श्रुत्वा अभक्ति मा कुरुध्वं जिनमार्गे ॥ १८६॥ कुछ लोग ईर्ष्या से सुरमार्ग की । निंदा किया करते हैं मिथ्यात्व हो । उनके वचन को सुनकर जिननांग के प्रति । तुम मुक्ति को न छोड़ो हित प्रतिकरो रति ।। १८६ ॥ [ ૪૨૩ इह हि भव्यस्य शिक्षणमुक्तम् । केचन मंदबुद्धयः त्रिकालनिरावरण नित्यानंदेकलक्षणनिचि कल्पकनिजकारण परमात्मतत्त्वसम्यक् श्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानरूप शुद्ध रत्नत्रय प्रतिपक्षमिथ्यात्व कर्मोदयसामर्थ्येन मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रपरायणाः ईर्ष्याभावेन समत्सरपरिणामेन सुन्दरं मार्ग सर्वज्ञवीतरागस्य मार्ग पापक्रियानिवृत्तिलक्षणं भेदोपचाररत्नत्रया - गाथा १८६ अन्वयार्थ – [ पुनः ईर्षाभावेन ] पुनः भाव मे [ केचित् ] कोई लोग [ सुन्दरं मार्गे निंदन्ति ] सुन्दर मार्ग की निंदा करते हैं, [ तेषां वचनं ] उनके वचन [श्रुत्वा ] सुनकर [जिनमार्गे ] जिनंद्र देव के मार्ग में [ अभक्त मा कुरुध्वं ] तुम लोग अभक्ति मन करो । टीका- यहां पर भव्यजीव के लिये शिक्षा दी है । कोई मंद बुद्धि वाले त्रिकाल निवारण नित्यानंदरूप एक लक्षण वाले निविकल्प ऐसे निजकारण परमात्म तत्त्व का सम्यक् श्रद्धान उसीका ज्ञान और उसीमें अनुष्ठान रूप जो शुद्ध रत्नत्रय है उसके प्रतिपक्षी ऐसे मिथ्यात्व कर्म के उदय की सामर्थ्य से मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र में परायण हुये जीव ईर्ष्याभाव से मत्सरसहित परिणाम से सुन्दर मार्ग को जो कि पाप क्रिया से निवृत्ति त्यागरूप है, भेदोपचार रत्नत्रयात्मक है और अभेदोपचार रत्नत्रयात्मक है ऐसे वीतराग सर्वज्ञ देव Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६४ ] नियमसार मकमभेदोपचाररत्नत्रयात्मकं केचिनिन्दन्ति, तेषां स्वरूपविकलानां कुहेतुदृष्टान्तसमन्धितं कुतर्कवचनं श्रुत्वा ह्यक्ति जिनेश्वरप्रणोतशुद्धरत्नत्रयमार्गे हे भव्य मा कुरुष्व, पुनर्भक्तिः कर्तव्येति । ( शार्दूलविक्रीडित ) देहव्यूहमहोजराजिभयदे दुःखावलीश्वापदे विश्वाशातिकरालकालदहने शुष्यन्मनीषावने नानादुर्णयमार्गदुर्गमतमे दुइ मोहिनां देहिनां जैन दर्शनमेकमेव शरणं जन्माटवीसंकटे ।।३०६॥ तथा हि - .. - -- - । के मार्ग की कोई लोग निंदा करते हैं। उन स्वरूप से शून्य हुये जनों के कुहेतु और | कुदृष्टांत से सहित कुतर्क वचन को सुनकर जिनेश्वर देव के द्वारा प्रणीत शुद्ध रत्नत्रय मार्ग में हे भन्य ! तुम अभक्ति मत करो, किंतु तुम्हें उस मार्ग में भक्ति ही करना चाहिए। [ अब टोकाकार मुनिराज जिनेन्द्र देव की भक्ति की प्रेरणा देते हुए दो कलश काव्य कहते हैं-] (३०६) श्लोकार्थ-देह समूहरूपी वृक्ष पंक्ति से जो भयप्रद है, दुःख परंपरा रूपी जंगली पशुओं से जो व्याप्त है, अति कराल कालरूपी अग्नि जहां पर सबका भक्षण कर रही है, जिसमें बुद्धिरूपी जल सूख रहा है और जो दर्शन मोह से सहित जीवों के लिए नाना दुर्नयरूपी मार्गों से अत्यन्त दुर्गम है ऐसे इस संसाररूपी बिकट वन में जैन दर्शन ही एक शरण है । भावार्थ-मिथ्यात्व से ग्रसित हुए प्राणियों के लिए इस संसार में एक जन धर्म ही परम शरण है, अन्य कुछ नहीं है । * यहां कुछ अशुद्धि हो ऐसा लगता है । Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार [ ४६५ ( शार्दूलविक्रीडित ) लोकालोकनिकेतनं वपुरदो ज्ञानं च यस्य प्रभोस्तं शंखध्यनिकंपिताखिलभुवं श्रीनेमितीर्थेश्वरम् । स्तोतु के भुवनत्रयेऽपि मनुजाः शक्ताः सुरा वा पुनः जाने तत्स्तवनककारगमहं भक्तिजिनेत्युत्सुका ॥३०७॥ णियभावणाणिमित्त, मए कदं णियमसारणामसुदं । णच्चा जिणोवदेसं, पुवावरदोसणिम्मुक्कं ॥१७॥ निजभावनानिमित्तं मया कृतं नियमसारनामश्रुतम् । ज्ञात्वा जिनोपदेशं पूर्वापरदोषनिमुक्तम् ॥१८७।। जिनमें विरोध पूर्व पर ले कभी नहीं । न जिनोपदेन मेंने जानकर के हो ।। तिज अात्म भावना को भाने के लिये ही । इस नियमसार नामक श्रुत को रचा सही ।। 25७|| (३०७) श्लोकार्थ-जिनप्रभु का यह ज्ञानरूपी गागेर लोकालोक कः म्यान है, जिन्होंने शंख की ध्वनि से अखिल-भमण्डल को कम्पित कर दिया था ऐमें उन श्री नेमिनाथ तीर्थश्वर का स्तवन करने के लिये तीन लोक में भी कोई मनाय अगवा देव समर्थ है ? फिर भी उनके स्तवन में कारण केवल एक जिनेन्द्र देव के प्रति अनि उत्सुक भक्ति ही है ऐसा मैं समझता हैं। भावार्थ-थी नेमि जिनेन्द्र देव की स्तुति करने के लिए यद्यपि में समर्थ नहीं हूं फिर भी उनके प्रति उत्कट भक्ति ही मुझे स्तुति करने में वाचालित कर रही है। गाथा १८७ अन्वयार्थ-[ पूर्वापरदोषनिर्मुक्तं ] पूर्वापरदोष से रहित ऐसे [जिनोपदेशज्ञात्वा] जिनेन्द्र देव के उपदेश को जानकर [ मया ] मैंने [ निज भावना निमित्तं ] अपनी भावना के निमित्त [ नियमसार नामश्रुतं ] नियमसार नामक शास्त्र को [ कृतं ] कहा है। Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ] नियमसार शास्त्रनामधेयकथनद्वारेण शास्त्रोपसंहारोपन्यासोयम् । अत्राचार्याः प्रारब्धस्यान्तगमनत्वात् नितरां कृतार्थतां परिप्राप्य निजभावमानिमित्तमशुभवचनार्थं नियमसाराभिधानं श्रुतं परमाध्यात्मशास्त्रशतकुशलेन मया कृतम् । किं कृत्वा, पूर्व ज्ञात्वा अयंचक परमगुरुप्रसादेन बुध्वेति । कम् ? जिनोपदेशं वीतरागसर्वज्ञमुखारविन्द विनिर्गतपरमोपदेशम् । तं पुनः किं विशिष्टम् ? पूर्वापरदोषनिर्मुक्तं पूर्वापरदोषहेतु भूतसकलमोहरागोषाभावावाप्त मुखविनिर्गतत्वान्निर्दोषमिति । टीका - शास्त्र के नामकरण के कथन द्वारा यह इस शास्त्र के उपसंहार का कथन है । यहां पर आचार्यवर्य श्री कुरंदकुद भगवान प्रारम्भ किये हुए ग्रन्थ के अंत की प्राप्त करने से अतिशय रूप कृतार्थता को प्राप्त होकर कहते हैं कि निज भावना के निमित्त से अशुभ की वंचना के लिये सैंकड़ों परम अध्यात्म शास्त्रों में कशल ऐसे मैंने इस "नियमसार" नामक शास्त्र को रचा है । रचा है । प्रश्न – क्या करके यह शास्त्र रचा है ? - उत्तर --- पहले जानकर अतंचक परमगुरु के प्रसाद से समझकर इसको प्रश्न – किसको जानकर ? - उत्तर ---- जिनोपदेश को वीतराग सर्वज्ञदेव के मुखारविंद से निकले हुए ऐसे परम उपदेश को जानकर । प्रश्न --- पुनः वह उपदेश कैसा है ? उत्तर— - पूर्वापर दोष में हेतु भूत ऐसे सकल मोह, राग, द्व ेष का अभाव हो जाने से जो आप्त सच्चे देव हैं, उनके मुख कमल से निर्गत होने से जो निर्दोष है इसलिये यह पूर्वापर दोष रहित है । [ अब इस शास्त्र का उपसंहार करते हुए टीककार श्री पद्मप्रभमलधारिदेव कहते हैं कि - ] Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार [ ४६७ किञ्च अस्य खलु निखिलागमार्थसार्थप्रतिपादनसमर्थस्य नियमशब्दसंसूचित विशुद्धमोक्षमार्गस्य अंचितपंचास्तिकायपरिसनाथस्य संचितपंचाचारप्रपंचस्य षड्द्रव्यविचित्रस्य सप्ततत्त्ववपदार्थगर्भीकृतस्य पंचभावप्रपंचप्रतिपावनपरायणस्य निश्चयप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानप्रायश्चित्तपरमालोचनानियमव्युत्सर्गप्रभृतिसकलपरमार्थक्रियाकांडाडंबरसमृद्धस्य उपयोगत्रयविशालस्य परमेश्वरस्य शास्त्रस्य द्विविधं किल तात्पर्य, सूत्रतात्पर्य शास्त्रतात्पर्य चेति । सूत्रतात्पर्य पद्योपन्यासेन प्रतिसूत्रामेव प्रतिपादितम्, शास्त्रतात्पर्य त्विदमुपदर्शनेन । भागवतं शास्त्रमिदं निर्वाणसुन्दरीसमुद्भवपरमवीतरागात्मकनिर्यावाधनिरन्तरानंगपरमानन्दप्रदं निरतिशय नित्यशुद्धनिरंजननिजकारणपरमारमभावनाकारणं समस्तनयनिचयांचितं पंचमगतिहेतुभूतं पंचेन्द्रियप्रसरजिनगात्रमात्रपरिग्रहेण निमितमिदं जो नियमसार शास्त्र निश्चित रूप से मंग आगम के अर्थ समूह का प्रतिपादन करने में समर्थ है. 'नियम' शब्द मे विशुद्ध मोशमार्ग को जिसने सम्यक प्रकार से मूचित किया है, जो श्रेल पंचास्तिकाय के वर्णन में पहिन है, जिसमें पंचाचार का विस्तृत वर्णन संग्रहील है । जो छह द्रव्यों के वर्णन ने विचित्र है, जिसमें सात तत्त्व और नत्र पदार्थ गर्भित है, जो पांच प्रकार के भावों का विस्तार से प्रतिपादित करने में परायण है, जो निश्चय प्रतिक्रमण, निश्चय प्रत्याभ्यान, निश्चय प्रायश्चित्त, परम आलोचना, नियम व्युत्सर्ग आदि समस्त परमार्थ क्रिया कांड के आडम्बर से समृद्धशाली है और जो तीन उपयोगों मे महान् है ऐसे इस परमेश्वर शास्त्र का वास्तव में दो प्रकार का तात्पर्य है-एक सूत्र तात्पर्य दूसरा शास्त्र तात्पर्य । सूत्र का तात्पर्य नो पद्य-गाथा के कथन से प्रत्येक मूत्र में ही प्रतिपादित किया गया है और शास्त्र का तात्पर्य निम्न टीका के द्वारा प्रतिपादित किया जाता है । यह नियमसार शास्त्र भागवत् शास्त्र है, जो कि निर्वाण सुन्दरी से उत्पन्न होने वाले परम वीतरागी स्वरूप, अव्याबाध, निरंतर और अनंग-अतीन्द्रिय परमानन्द को देने वाला है, जो निरतिशय, नित्य शुद्ध, निरंजन, निजकारण परमात्मा की भावना का कारण है, जो समस्त नयों के समुदाय से सुशोभित है, जो पंचमगति का कारणभूत है, और जो पंचेन्द्रियों के विस्तार से रहित गात्र-मात्र परिग्रहधारी-दिगम्बर महामुनि के Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियममार ये खलु निश्चयव्यवहारनययोरविरोधेन जानन्ति ते खलु महान्तः समस्ताध्यात्मशास्त्रहृदयवेदिनः परमानन्दवीतरागसुखाभिलाषिणः परित्यक्तबाह्याभ्यन्तरचतुर्विशतिपरिग्रहप्रपंचाः त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपनिरतनिजकारणपरमात्मस्वरूपश्रद्धानपरिज्ञानाचरणास्मफभेदोपचारकल्पनानिरपेक्षस्वस्थरत्नत्रयपरायणाः सन्तः शब्दब्रह्मफलस्य शाश्वतसुखस्य भोक्तारो भवन्तीति । ( मालिनी) मुकधिजनपयोजानन्दिमित्रेण शस्त ललितपदनिकानिमितं शास्त्रमेतत् । निजमनसि विधत्ते यो विशुद्धात्मकांक्षी स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।३०८।। -. -... - द्वान रचित है, एंसे इस शास्त्र को जो निश्चित रूप से निश्चय और व्यवहार नथ के अविगेत्र से जानते हैं, वे समस्त अध्यात्म शास्त्र के रहस्य को जानने वाले, 'परमानन्द वीतराग सुख के अभिलाषी, बाह्य--अभ्यन्तर ऐसे चौबीस प्रकार के परिग्रह म्प प्रपंच के परित्यागी, कालिक उपाधि रहित स्वरूप में लीन हए निजकारण परमात्मा के स्वरूप के श्रद्धान ज्ञान और अनुष्ठान स्वरूप ऐसे भेदोपचार कल्पना से निरपेक्ष, स्वस्थ, रत्नत्रय में तत्पर होते हुए महापुरुष निश्चित E से गब्दब्रह्म के फलस्वरूप शास्वत सुग्व के भोक्ता हो जाते हैं । | अब टीकाकार मुनिराज इस भागवन् स्वरूप नियनसार ग्रंथ की तात्पर्यहै वृत्ति टीका को पूर्ण करते हुए चार कलश काव्यों के द्वारा ग्रंथ के माहात्म्य को तथा | शुभ कामना को व्यक्त कर रहे हैं । ] (३०८) श्लोकार्थ---सुफविजनरूपी कमलों को आनन्दित करने में सूर्य | स्वरूप ऐसे पद्मप्रभ मलधारि देव ने ललित पदसमहों से इस प्रशस्त शास्त्र को बनाया है । जो विशृद्ध आत्मा के आकांक्षी जीव इसको अपने हृदय में धारण करते हैं वे परम लक्ष्मीरूपी कामिनी के प्रियकांत हो जाते हैं। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग अधिकार ( अनुष्टुभ् ) पद्मप्रभाभिधानोद्धसिन्धुनाथसमुद्भवा t उपन्यासोमिमायं स्थेयाच्चेतसि सा सताम् ॥ ३०६ ॥ ( अनुष्टुभ् ) अस्मिन् लक्षणशास्त्रस्य विरुद्ध पदमस्ति चेत् । लुप्त्वा तत्कवयो भद्राः कुर्वन्तु पदमुत्तमम् ॥ ३१०॥ ( वसन्ततिलका ) यावत्सदागतिपथे रुचिरे विरेजे तारागणैः परिवृतं सकलेन्दुबिंबम् । तात्पर्यवृत्तिरपहस्तितहेयवृत्तिः स्थेयात्सतां विपुलचेतसि तावदेव ||३११|| [ ४ee ( ३०६ ) श्लोकार्थ --- पद्मप्रभ नाम के उत्कृष्ट समुद्र से उत्पन्न हुई यह रचना रूपी-तरंगमाला है, वह सत्पुरुषों के चित्त में स्थित रहे । ( ३१० ) श्लोकार्थ - - इस ग्रंथ में कोई पद व्याकरण शास्त्र से विरुद्ध होवे तो भद्रस्वभावी कविजन उसका लोप करके पदों को उत्तम कर लेवें । भावार्थ --- यदि इस शास्त्र में व्याकरण शास्त्र से कोई पद, वाक्य गलत हो तो भद्र परिणामी कवि इसको सुधार कर पढें, यह तात्पर्य है । ( ३११ ) श्लोकार्थ --- जब तक तारागणों से घिरा हुआ पूर्णचन्द्र बिंत्र सुन्दर सदागतिपथ - आकाश मार्ग में शोभित होता रहे तभी तक जिसने हैयवृत्तियों को दूर कर दिया है, ऐसी यह तात्पर्यवृत्ति व्याख्या सत्पुरुषों के विशाल हृदय में स्थित रहे । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियममार ५०० ] इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरजितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारख्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ शुद्धोपयोगाधिकारो द्वादशः श्रुतस्कन्धः ॥ समाप्ता चेयं तात्पर्यवृत्तिः । ___ इसप्रकार सकत्रिजनरूपी कमलों को विकसित करने के लिये सूर्य के सदृश पंचेन्द्रिय के प्रसार से रहित पात्र-मात्र परिग्रहधारी श्री पद्मप्रभमलधारि देव के द्वारा विरचित नियमसार की तात्पर्य वृत्ति नामक टीका में शुद्धोपयोग-अधिकार नाभक बारहवां श्रुत स्कन्ध समाप्त हुआ । SAR Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषानुवादकाः प्रशस्तिः महावीरं जिनं नत्वा महावीरैकशासनम् । भारती सर्वसाधू श्च स्तौमि सिद्धिफलाप्तये ।। १ ।। प्रसिद्ध मूलसंघेऽस्मिन् कुदकुदान्वयाभिधे । ख्याते सरस्वनीगच्छे बला-कारे गणे शुभे ।। २ ।। तस्मिन्नाचार्यमालास्ति जिनसूत्रेण गुम्फिला । तस्यामेको मणिः संप्रत्याचार्यः शांतिसागरः ।। ३ ।। कलिकालंकनेताऽसौ मुनिमार्गस्य दर्शकः । चारित्र चक्रभृन हयप्यकिञ्चनो दिगम्बरः ।। ४ ।। चतुःसंघकधौरेयः नापट्टे वीरसागरः ।। मम दीक्षागुमर्जीयात् नहात्रतप्रदायक: ।। ५ ।। ज्ञानमत्याख्ययैषाहनायिका भूबि विधता । चतुरनुयोगवार्धावावगाहनतत्परा ।। ६ कष्टसहस्रीनाम्नाटसनलीग्रन्थ भयमुम् । अनूद्याध्यात्मग्रन्थ श्वानृदितो मातृभाषया ।। ७ ।। वीराब्दे द्वयधिक पंचविशे चैत्रेऽसिते शुभे । नवम्यां च तिथी क्षेत्र कमजाङ्गलदेशके ।। ८ ।। हस्तिनागपुरे नीर्थे शांतिनाथजिनालये । शास्त्र नियमसारस्यानुवादः पूर्णतामगात् ।। ६ ।। यावत्कं जैनधर्मोऽयं वर्नने भवि सौख्यदः । तावत्कं सानुवादोऽयं ग्रंथो जगति विद्यताम् ।।१०।। स्वात्मसौख्यामृतं महय पठितृभ्योऽपि सत्वरम् । दद्यात् बोधि समाधि च गांतिमात्यंतिकीमपि ।।११।। ।। इति शं भूयात् ।। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 502 भाषानुवाद कत्रों की प्रशस्ति श्री महावीर जिनेन्द्र को नमस्कार करके भगवान् महावीर का एकच्छन शासन ऐसे जैन धर्म की, जिनवाणी भारती की और सर्व साधुओं की सिद्धिफल की प्राप्ति के लिये मैं स्तुति करती हूं । श्री मूलसंघ में कुंदकु दाम्नाय प्रसिद्ध है, उसमें सरस्वती गच्छ और बलात्कारगण है 1 उसमें जिनसूत्र से गुथी हुई ऐसी आचार्यों की परंपरारूप माला है । इस युग में उसी माला के एक मणिस्वरूप आचार्य श्री शांतिसागर महाराज हुये हैं । ये इस कलिकाल में मुनिमार्ग के दिखलाने वाले एक नेता थे। चारित्रचक्रवर्ती होते हुये भी अकिंचन दिगम्बर थे। उन्हीं के पट्ट पर चतुविध संघ के अधिनायक वीरसागर महाराज हुये हैं, ये मुझे महाव्रत की आर्यिका दीक्षा देने वाले मेरे दीक्षा गुरु सदा जयशील होवें । सो मैं इस जगत में 'ज्ञानमती' नाम से आर्यिका हूं। मैं सतत चारों अनुयोग रूपी समुद्र में अवगाहन करती रहती हूं । जिसका 'कष्ट महसी' दूसरा नाम है ऐसे 'अष्ट सहस्री' नामक न्याय ग्रंथ का मैंने मातृ भाषा में अनुवाद करके पश्चात् उस अध्यात्मग्रन्थ नियमसार का हिंदी अनुवाद किया है । वीर संवत् पच्चीस सौ दो ( २५०२ ) में, चैत्र कृष्णा नवमी जो कि ऋषभदेव का जन्म दिवस है इसलिये शुभ तिथि है उस पवित्र तिथि में, कुरुजांगल देश में स्थित हस्तिनापुर नामक तीर्थक्षेत्र पर श्री शांतिनाथ भगवान् के मन्दिर में इस 'नियमसार' शास्त्र का अनुवाद पूर्ण हुआ है । जब तक इस पृथ्वी तल पर सुख को देने वाला यह जैन धर्म रहेगा, तब तक इस जगत में अनुवाद सहित यह ग्रंथ विद्यमान रहे। यह ग्रंथ मुझे और पढ़ने वालों को भी स्वात्मसुखरूपी अमृत को देवे तथा शीघ्र ही बोधि - रत्नत्रय की प्राप्ति, समाधि और आत्यंतिक शांति को भी प्रदान करे । ॥ इति शं भूयात् ॥ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ боз परिशिष्ट संयत, जिन गाथाओं में दिगम्बर मुनियों के वाचक मुनि, साधु, श्रमण, आचार्य, उपाध्याय ये शब्द आये हैं । वे गाथायें : १. पंचाचारसमग्गा, पंचिदियदतिदप्पणिद्दलया । वीरा गुणगंभीरा, आयरिया एरिसा होंति । ७३ ।। २. रयगसममंजुत्ता, जिण कहियपयत्थदेसया सुरा । णिक्कखभावरहिया, उवज्झाया एरिसा होति ॥७४॥१ ३. वावारविमुक्का चउम्विहाराहणासारता । णिगंथा निम्मोहा, साहू एरिसा होंति ॥ ७५ ॥ t ४. मातृण सल्लभावं, पिस्सल्ले जो दु साहु परिणमदि । सां पडिकमणं उच्चइ, पडिकमणमओ हवे जम्हा ||७|| " साहू | चत्ता अगुतिभावं तिगुत्तिगुत्तो हवेइ जो सो पडिकमणं उच्चड, पडिकमणमओ हवे जम्हा ||८|| ६. उत्तम अ आदा, तम्हि ठिदा हर्णादि मुणिवरा कम्मं । तम्हा भाणमेव हि उत्तमअट्ठस्स पडिकमणं ॥ ६२ ॥ ७. झाणणिलीणां साहू, परिचागं कु सव्वदोसाणं | तम्हा दु झाणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिकमणं ||१३|| ८. एवं भेदभासं, जो कुव्वड जीवकम्मणो णिच्चं । पचक्खाणं सक्कदि, धरिदु सो संजदी नियमा ।। १०६ ।। लोकम्मम्म रयिं विहावगुणाज्जएहिं वदिरितं । अप्पाणं जो कार्यादि, समणस्सालोयणं होदि ॥ १०७ ॥ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार १०. उक्किट्ठो जो बोहो, णाणं तस्सेव अपणो चित्तं । __ जो धरद् मणी णिचं. पाराच्छिन्नं हवे तस्स ||११६।। ११. कि बहणा भणिएण दु, वरतवचरणं महेसिरगं सव्वं । पायच्छित्तं जाणह, अणेयकम्मागग खयहेउ ।। ११७।। १२. कि काहदि वणवासो, कायकिलेसो विचित्तउववासो । अज्झयण मोणपहुदी, समदारहियरस समरणस्स ।।१२४।। १३. सम्मतणाणन रणं, जो भत्ति कुणइ सावगो समणो । नस्स दु णिदिभती, होरि त्ति जिणेहि पणतं । १३४।। १४. रायादी परिहारे, अप्पागं जो दु जुजदे साह । सो जोगभत्ति जुनो, इदरम्स य कह हवे जोगो ।।१३७।। १५. सववियप्पाभाने, अपाणं जो दु अजदे साह । सो जोगभत्तिजनो, इदरम्स य किन हवे जोगो ।। १३८।। १६. यदि जो सो समणो. अगण वसो होदि असुहभावेण । तम्हा तस्म दु कम्म, आवस्मयलक्खण ण हवे ।।१४३।। १७. जो चरदि संजदो खल, गहभावे सो हवेइ अण्णबसो। तम्हा तस्स दु कम्म, आवासबलवखणं ण हवे ।।१४४।। १८. आवासएण हीणो, 'पभट्ठो होदि चरणदो समणो । पुवत्स कमेण पुणो, तम्हा आवासयं कुज्जा ।। १४८।। १५. आबासएण जुत्तो, समणो सो होदि अंतरंगप्पा । __ आवासय परिहीयो, समणो सो होदि बहिरपा ।। १४९।। २०. जो धम्मसुक्क झाणम्हि, परिणदो सोघि अंतरंगप्पा । झाणबिहीणो समणो, बहिरप्पा इदि विजाणीहि ।।१५१।। Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ বিক্ষিপ্ত २१. पडिकमणपहुदि किरियं, कुव्वतो णिच्छयस्स चारित्तं । वेण दु विराग चरिए, समणो अन्भट्ठिदो होदि ।।१५२।। २२. जिणकहियपरमसुत्ते, पडिकमणादिय परीक्खऊण फुडं । मोणवएण जोई, णियकज साहये णिच्वं ।।१५५11 जिन गाथाओं में व्यवहार निश्चयनयों का नाम आया है वे गाथायें निम्नलिखित हैं १. कत्ताभोत्ता आदा, पोग्गलकम्मस्य होदि ववहारा । कमजभाषणादा, कता भाना दु रिंगच्छयदो ।। १८१। २. वम्बथिएण जीवा, वदिरित्ता पुब्बभणिदपज्जाया । पज्जयणएरण जीवा, मंजुत्ता होनि दुविहेहि ।।१५।। ३. एदे सच्चे भावा, ववहारणयं पडुच्च भणिदा ह । सव्वे सिद्धसहावा, सुद्धणया मंसिदी जीवा ।। ८१।। ४. ववहारणयचारित्ते. ववहारणयस्स होदि तवचरणं । णिच्छयणयचारित्ते, तवचरणं होदि रिगच्छयदो ।।५५।। ... कालुस्समोहसण्णा रागहोसाइअमूह भावाणं । परिहारो मणगुत्ती, ववहारणएण परिकहियं ।।६६।। ६. एरिसयभावणाए, ववहारणयस्स होदि चारित्तं । णिच्छयरगयस्स चरणं, एत्तो उड्ढं पवक्ग्वामि ।।७६॥ ७. मोक्खंगयपुरिसाणं, गुणभेदं जाणिऊण तेसि पि । जो कुणदि परमत्ति , ववहारणयेण परिकहियं ।। १३५।। ८. जाणदि पस्सदि सब्बं, ववहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि, पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।।१५९।। । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार ९. गाणं परप्पयासं ववहारपएण दसणं तम्हा । अप्पा परप्पयासो, ववहारणएण दंसणं तम्हा ।। १६४।। १०. गाणं अण्पपयासं, णिच्छयणयएण दसणं तम्हा । अपा अप्पपयासो, णिच्छयरण्यएण सणं तम्हा ।। १६५।। कुछ विशेष गाथायें : अन्य करणानुयोग ग्रन्थ से जानने की प्रेरणा--. च उदह भेदा भणिदा, तेरिच्छा सुरगणा च उन्भेदा । एदेसि वित्थारं लोयविभागेसु णादच्वं ।। १७ ।। इस काल में ध्यानमय क्रियायें शक्य नहीं हैं जदि सक्कदि कादु जे. पडिकमणादि करेज्ज झाणमयं । सत्तिविहीणो जा जइ, सद्दहणं चेव कायब्वं ।।१५४।। मभी तीर्थकों ने योगभक्ति की है उसहादिजिणरिदा एवं काऊण जोगवरभसि । णिब्वुदिगुहमावण्णा, तम्हा धरु जोगवत्ति ।। १४०।। मभी महापुरुषों ने आवश्यक के बल से केवलज्ञान पाया है सन्त्रे पुराणपुरिसा, एवं आवासयं य काऊण 1 अपमत्तपहुदिठाणे, पडिवज्ज य केवली जादा ॥१५८।। यह गाथा समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय में भी आई है अरसमरूबमगंधं, अव्वत्तं चेदणागुणमसदं । जाण अलिंगग्गहणं, जीव मणिहिट्ठसंठाणं ॥४६।। Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिक्ष श्री पदमप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित कलशकाव्य (विशेष काव्य) पद्मप्रभस्तुति१. जयति विदितगात्रः स्मेरनीरेजनेत्रः, सुकृतनिलयगोत्रः पंडिताम्भोजमित्रः । मुनिजनवनचैत्र: कर्मवाहिन्यमित्र., सकलहितचरित्रः, श्रीसुसीमासुपुत्रः ।।६।। २. मदननगरदाः कांतकायप्रदेशः पदविनतग्रमीण: प्रास्तकीनाशपाशः । दुरघबनताशः कीर्तिसंपूरिताश: जयति जगदधीशः चारुपद्मप्रभेशः ।। ५.० ३ ।। ३. पद्मप्रभाभिधानोदसिधुनाथसमुद्भवा । उपन्यासोमिमालेयं स्थंयाच्चेतमि सा मताम् ।।३।। नेमिनाथ स्तुति ४. शतम्यणतपूज्य: प्राज्यसद्वोधराज्य: स्मरगिरिगुरनाथ: प्रास्तदुष्टाघयूथः । पदनतवनमाली भव्यपद्मांशुमाली दिशतु शमनिशं वा नेमिरानंदभूमिः ।।१३।। जगदिदमजगच्च ज्ञाननीरेसहान्तभ्रमरवदवभाति प्रस्फुटं यस्य नित्यम् । तमपि किल यजेहं, नेमितीर्थकरेशं जलनिधिमपि दोभ्या॑मुत्तराम्युलवीचिम् ।।१४।। ६. लोकालोकनिकेतनं वपुरदो ज्ञानं च वस्य प्रभो स्तं शंखध्वनिकंपिताखिलभुवं श्रीनेमितीर्थेश्वरम् । स्तोतु के भुवनत्रयेऽपि मनुजाः शक्ताः सुरा बा पुनः जाने तत्स्तवनैककारणमहं भक्तिजिनंदत्युत्सुका ।।३०७।। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] नियमसार __वीरजिन स्तुति--- ७. जयति जगति वीरः शुद्धभावास्तमारः त्रिभुवनजनपूज्यः पूर्णबोधेकराज्य: नतदिविजसमाजः प्रास्तजन्मद्र बीजः समवसतिनिवासः केवल श्रीनिवासः ।।८।। ८. इत्थं बुद्धबोपदेशं जननमृतिहरं यं जरानाशहेतु भक्तिप्रव्हामरेन्द्रप्रकट मुकूटसद्रत्नमालाचितांन : । वोरात्तीर्थाधिनाथादुरितमलबुलम्वातविध्वंसदक्षं एते संतो भवाब्धेरपरतटममी यांति सच्छीलपोताः ।।६।। - जिनेंद्रदेव की स्तुति के अनेक लोक हैं उनमें से यहां एक देते हैं ६. नानाननन राधिनाथविभवानाकर्ण्य चालोक्य च त्वं क्लिश्नासि मुधात्र कि जड़मते ! गुण्याजितास्ते ननु । तच्छक्तिजिननाथपादकमल दार्चनायामियं भक्तिस्ते यदि विद्यले बहुविधा भोगाः स्युरेते त्वयि ।।२९।। आचार्यों के नामस्मरण १०. सिद्धांतोद्घश्रीधवं सिद्धसेन, नर्काब्जार्क भट्टपूर्थाकलंकम् । शब्दाधीन्दु पूज्यपादं च बंद, तद्विद्याढ्य वीरवि व्रतीन्द्रम् ।।३।। ११. सकलकरणग्रामालम्बाद्विमुक्तमनाकुलम् । स्वहितनिरतं शृद्ध निर्वाणकारणकारणम् । शमदमयमावासं मैत्रीदयादममंदिरम् निरुपममिदं बंद्य श्रीचन्द्रकीर्तिमुनेर्मनः ।।१०४।। १२. नमोऽस्तु ते संयमबोधमूर्तये, स्मरेभकुभस्थलभेदनाय वै । विनेयपंकेज विकासभानबे, विराजते माघबसेनसूरये ।। १०८।। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट [ પૂર્ १३. यस्य प्रतिक्रमणमेव सदा मुमुक्षोनस्त्यिप्रतिक्रमणमध्य गुमात्रमुच्चैः । तस्मै नमः सकलसंयमभूषणाय, श्रीवीरनंदिमुनिनामधराय नित्यम् । १२६ । इस काल में सच्चे मुनि हैं- १४. कोऽपि क्वापि मुनिर्बभूव सुकृती काले कलावप्यलं मिथ्यात्वादिकलंक पंकरहितः सङ्घर्म रक्षामणिः । सोऽयं संप्रति सुतदिति पुनर्देवैश्च संपूज्यते मुक्तानेक परिग्रहव्यतिकरः पापाटीपावक: ri १५. भावाः पंच भवति येषु सततं भावः परः पंचमः स्थायी संनिनायकारणमयं सम्यन्दृशां गोचरः । तं मुक्त्वाखिलरागशेषनिकरं वृद्ध्या पुनर्वृ] द्विमान् एको भाति कलौ युगे सुनिपतिः पापाटीपावकः ||२७|| इस काल में ध्यान शक्य नहीं तो श्रान करना चाहिये१३. असारे संसारे कलिसि पापबह न मुक्तिस्मिन्नजिननाथस्य भवति । अतोऽध्यात्मं ध्यानं कथमिह भवेन्निर्मलधियां निजात्मश्रद्धानं भवत्यहरं स्वीकृतमिदम् ॥२६४।। अध्यात्म से संयमरत्नमाला निकाली है- १७. अध्यात्मशास्त्रामृतवागराशेर्मोनां संयमरत्नमाला | बभूव या तत्त्वविद मुठे, सालंकृतिर्मुक्तिवधूधवानाम् ।। १८७ ।। आलोचना कामधेन् है- १८. आलोचना सननगुनात्मक या निर्मुक्तमार्ग फलदा यमिनामजस्रम् । शुद्धात्मतत्त्व नियताचरणानुरूपा स्यात्संयतस्य मम सा किल कामधेनुः ॥ १७२॥ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० ] नियमसार १६. शुद्धनिश्चयनयेन विमुक्तौ संसृतावपि च नास्ति विशेषः । एवमेव खलु तत्त्वविचारे, शुद्धतत्त्वरसिकाः प्रवदति ||७३ || २०. शुक्लध्यानप्रदीपोऽयं यस्य चित्तालये बभौ । स योगी तस्य शुद्धात्मा प्रत्यक्षो भवति स्वयम् || १२४ || २१. निर्यापकाचार्य निरुक्तियुक्ता मुक्ति सदाकर्ण्य च यस्य चित्तं । समस्तचारित्रनिकेतनं स्यात् तस्मै नमः संयमधारिणेऽस्मै ।। १२५ ।। २२. जयति सहजतेजः प्रास्तरागधिकारो मनसि विराणां गोवशुः । विषयसुखरतानां दुर्लभः सर्वदार्य परमसुख समुद्र शुद्धबोधोऽस्तनिद्रः ॥ १३२॥ २३. अन्यवणः संसारी मुनिवेषधरोऽपि दुःखभाङ नित्यम् । स्ववशो जीवन्मुक्तः किंचिन्त्यूनो जिनेश्वरादेषः ॥ २४३ ॥ २८. मुक्त्वा जन्यं भवभयकरं बाह्यमान्यंतरं च स्मृत्वा नित्यं समरसमयं चमत्कारमेकं । ज्ञानज्योतिः प्रकटित निजाभ्यन्तरागान्तरात्मा क्षीणे मोहे किमपि परमं तत्वदर्श ॥ २५६ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. इथून यूल खंविदु अणरिपक्खो जो अत्तागमतच्चाण श्रतादि प्रत्तम अप्पसरूवं पेच्छ्रद अप्पसरूवालबण अप्पा विणु णार श्रप्पा परप्पयामो अरसमरूवमगंध प्रवाबाहमगिदिय असरीश अविणासा अंतरवाहिरजप्पे उस्सखये पुण श्रादा मजम गाणे आराहणाई बइ बालोयणमालु छण प्रादास जद्द इच्छसि श्रावासएण जुत्तो श्रावासएण होणो ईसाभावेण पुणो Fargo वर्ण feng जो बोहो * श्री नियमसार की वर्णानुक्रम सूची अ आ उ गाथा पृष्ठ २१ २० २५ ५. २६ १६६ ११६ १७१ १६३ ४६ १७८ ४८ १५० १७६ ४७३ १०० २६६ ८४ २१३ १०८ २६४ ४०३ ४०७ ४०५ | १४७ १४६ १४८ ६६ ६४ ७६ १२ ७४ ४४६ ३३२ ४६० ४४३ १३३ ४७७ २३७ 600 १-६ १७४ ११६ ४६३ ૪૬૭ ३२५ उत्तम प्रादा सम्म परिचत्ता उसादिजिणखरिदा एको मे सासदो ग्रप्पा एगो य मरदि जीवो एदे छवाणिय एदे सध्ये भावा एयरसवर्ग एरिस भेदभा एरिसय भावणाए एवं भेदभासं कत्ता भोत्ता श्रादा कदकारिदाणुमोद कम्ममहीरुहमूल कम्मादो अप्पारणं काय करियारियो कायापर कालुस मोहसण्या कि कादि वस्वामी कि बहुणा भणिएण दु कुलजरिए जीवाण केवल रामसहावी केवल मिंदिर हियं कोहं खमया माण कोहादिसमभाव ए क गाथा पृष्ठ ६२ २३८ ८६ १४० १०२ १०१ ३४ YE २७ ८२ ७६ १०६ १८ ६३ ११० १११ ७० १२१ ६६ १२४ ११७ ५६ ६ ११ ११५ ११४ २१६ ૨૦૨ २७३ २७० ६६ १४० ७६ २०६ १६६ २०३ ૪ १६६ ३०० ३०३ १८३ ३३७ १७५ શ્ ३२७ १५२ २५५ ३१ ३२० ३१८ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२] नियमसार गाथा गाषा पृष्ठ गमणणिमित्तं धम्मगामे वा रगयरे वा ३० ५८ घणघाइ कम्मरहिया ७१ १० ३६२ जुगर्व घट्टा गाणं . जो चरदि संजदो खलु जो ग हर दि अण्णवसो - जो दु भट्टं च रद्द जो दुगंछा भयं वेदं जो दु धम्मं च सुक्कं च जो दु पुण्णं च पावं च जो दु इस्सं रई सोग जो धम्मसुरकझाणा जो पम्सदि अप्पाणं | जो समो सम्बभूदेसु च उगइभव संभमण बउदहभेदा भणिदा चक्खु अचाखू मोही चत्ता ह्यगुन्तिभावं चल मलिणमगादत्त १३० १३१ ३६२ ४१२ W १५१ १०६ १२६ २६६ ३४६ छायात वमादीया छुहत भीतरोगो ६६ । माणिलीणों साहू । झाणिलीकोन ठाणरिगसेजविहारा २७५ । १५४ ४१८ १८८ ३५६ १२८ १२७ १७७ ४१५ १८० १९१ १५६ जं किचि में दुचरित्त जादि सदि कादु जे जस्स रागो दु दोसो दु जस्म सणिण हिदो प्रप्पा जाइजरमरणरहिवं जाणतो पस्सनो जाणदि पस्मदि सर्व जा रायादिपि यत्ती जारिसिया सिद्धप्पा जिणकहिथपरमसुत्ते जीवाण पूरगलाण जोवादिबहिनच्चं जीवादीदवारण जोवादु पुरगलादो जीवा पोग्गल काया जोयो उवश्रोगमप्रो ३९७ ४०२ ४८४ ४०० ३३० १८० गट्टकम्मबंधा रामिण जिएवं दीर गरणारयति रियसुरा ण वसो अबसो भवसगवि इंदिय उघसम्मा णधि कम्म गोकम्म गवि दुक्खं गावि सुक्ख गंतातभवेण सणारणं प्रप्पपयासं रणारा जोवसरूवं णाणं परप्पयास गाणं परप्पयासं गाणं परप्पयासं गाणाजीवाणाणाणाहं कोहो माणो णाहणारयभावो १३६ ४२० १५५ १५४ xr ४४० ४४४ Mcna Re Wor १६४ १५६ ८१ ૪૨૨ २०० २०० GIS Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५१३ गाथा गाथा पृष्ठ ६८ २६२ wr.m ४६७ ar inॐ Ko Rom गाथा सूची पृष्ट । २०० । पडिटिदिप्रशुभाग परिचत्ता परभावं परिणामपुब्बयणं २८१ पंचाचारसमग्गा १३० पासुगभूमिपदेसे १२५ पासुगमगेण दिवा पुगलदग्वं मोतं २५८ पुम्वुत्तसयल दवं पुश्वुत्तसयल भावा पेसुषणहास कक्कस पोग्गलदध्वं उचाइ ४८८ पोय इकमंडलाई १७२ णाहं बालो बुढो णाह मग्गणठाणो पाहं रागो दोसो गिक्कसायस्स दंतस्स णिगंथो गोरागो णिडो णि तो रिणयभावरणाणिमित्तं णियभावं णदि मुच्चइ रिगयम णियमस्स फलं णियम मोक्ख उवायो णियमेण प ज कज्ज णिध्वारणमेव सिद्धा रिगोपदोसारहिमो गोकम्मकम्मरहियं णो खइयभावठाणा यो खलु सहावठाणा णो ठिदिबंधट्टाणा .. १८७ १८५ ४६१ ४५३ ५० . १४३ १०३ २६१ बंधणछेदणमारण om.G. भूपव्वदमादीया तस्स मुहग्गदययणं तह दसरा उपमोगो २६३ थीराजचोरभत्तक ६७ द २३३ २३७ दण इच्छिवं दव्वगुणपज्जयाएं दवस्थिएण जीवा ५३ १४५ १६७ मगो मागफल तिय मदमाणमायलोहवि ममति परिवज्जामि १७७ माणुस्सा दुविधप्पा मिच्छत्तपदिभाषा मिच्छादसणणारण१५७ मुत्तममुत्त दवं मोक्वपहे अप्पाणं मोक्खंगयपुरिसाणं भोत्तूण अट्टरुद्द मोत्तूरण प्रणायारं मोतण वयणरयणं मोत्तूण सयलजप्पम४२५ | मोत्तण सल्लभावं ११ १३५ २२७ धाउचक्कस्स पुणो पडिकमणणामधेये पडिकमणपदिकिरियं २०६ २५२ १५२ २२१ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ ] नियममार गाथा पर । । बिरदो सब्यसावज्जे १६२ । विवरोयाभिरिण वेसवि विवरीयाभिणिवेसं गाथा १२५ ३४८ ७४ रपणतयसंजुत्ता रागेण व दोसेण व रायानीमनहारे १५४ ३७७ - लणं णिहि एकको लोयायासे तान लोयालोयं जागा - ८७ - ३६७ ३५८ मग्णाग चउभे सम्पावनिभेदेण दु मम्मनणाणचरणे गम्मनमणिमिन मम्मन समागणं सम्म में सबभूदेस १३३ । मम्वविप्रपाभावे ३१६ सम्वे पुगगपुरिसा ४१६ ममि गंथारा १२२ ३४, | भन्यज्जासंबेज्जा १४६ , मंजमणियम सवेरा दु ७५ १६४ ' मुहग्रसुहवयगरयणं १८२ ४८६ । सुहमा वंति खंधा १०४ १३८ १४६ २७८ ३७५ बट्टदि जो सो समरणो वण्णरसगंधफासा व दस मि दिसोलसजमवयरामयं पडिक मरणं वयणोच्चारणकिरियं ववहारणयचरित्ते दावारविप्पमुक्का विजदि केवलगाएं ४२६ १५० ६० ३५ १२३ ३४३ २४ ६६ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक ३६२ २१५ १८४ २४४ २१२ २३३ - कलशकाव्यों की वर्णानुक्रम सूची - - -- . प्रलोक पृष्ठ प्रत्यक्श: संसारी | प्रगनपरमात्म अपरिस्पंदरूपस्थ १४६ २८७ । अपवर्गाय भन्यानां ३९२ अपि च बहविभावे अपि च सकल रागअपुन भवसुख अन्यामनि स्थिति बुवा ४८४ अभिवमिदमुच्च११८ २२६ अभिनवमिदं पाप प्रयंबो जीव२१७ अविचलतमखंत्र२३६ प्रसति च मति वन २७४ प्रराति यति विभाव प्रसारे नसारे ३० अस्माकं मानसान्युच्चः अस्मिन् लक्षमा शास्त्रस्य अस्मिन् लोके प्रहमात्मा सुखाकांक्षी ७E २४० ० २१७ ३६१ ४७६ १३४ 0 प्रक्षय्यान्तप्रखडितमनारतं अचेतने पुद्गलप्रत एव भाति नित्यं प्रतितीव्र मोहसंभवअत्यपूर्वनिजात्मोस्वअथ जिनपति मार्गाप्रथ जिनमतमुक्तप्रथ तनुमनोवाचां अथ नययुगयुक्ति अथ निजपरमानंदभथ नियतमनोवाअथ मवजलराशी अथ मम परमात्मा अथ विविधविकल्प प्रथ सकल जिनोक्तअथ सति परभावे मथ सति परमाणोप्रय सुललितवाचा अद्वन्तनिष्ठमनघ अध्यात्मशास्त्रामनवरतमखण्टुप्रनबरतमखण्डाअनशनादिअनशनादिअनशनादिअनादिममसंसारपनिशमतुलबोषा ५७ 0 २६४ ४१६ U ७६ ४१ A . ४२६ ३५२ २०७ 1 २३७ १८७ ३२६ ० १६२ १५७ १२४ अंचितपंचमगतये ३३. श्रा ३२८ नाकर्षनि रत्नाना ३४७ प्रात्मज्ञानाद्भवति आत्मध्यानाद३०७ : प्रारमन्युच्चर्भवति १२६ । प्रारमा जानाति विश्वं १६४ २०२ २५१ १६७ ६४ ७८ १८६ १२३ ३२६ __४०१ २४५ २३८ २७२ ४३३ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ ] आत्मा ज्ञानं भवति प्रात्मा ज्ञान भवति आत्मा तित्य मात्मा धर्मी भवति प्रात्मानमात्मनात्मायं श्रात्मानमात्मनि मात्मा नित्यं तपसि श्रात्मानं ज्ञानदृग्रूपं श्रात्मा भिन्नो भवति आत्माराधनया होन: प्रारमावश्य सहज श्रात्मा स्पष्टः श्रात्मा ह्यात्मानमा मात्मा ह्यात्मानमा प्राद्यन्तमुक्तमनघ प्रालोचनाभेद श्रालोचना सतत मालोच्यालोच्य श्रासंसारादखिल इति जिन मार्गाम्भोधेइति जिनपति मार्गद इति जिनपतिमार्गा इति जिनशासन सिद्ध इति निगदितभेद इति परगुणपर्या इति ललितपदाना इति विपरीतविमुक्त इति विरचितमुच्चे इति विविधविकल्पे इति सति मुनिनाथइथं निजज्ञेन इ श्लोक २७८ २५१ २६२ २७६ २२८ १२६ २१२ २८७ LE૨ २६६ २५६ १५५ १५४ २२७ ६८ १५३ १७२ १५.२ १६१ ५१ ४३ १६ २१४ १८ २५ ५३ १० ५० ३८ ११० नियममार पृष्ठ ४४२ ४४८ ४१६ ४४४ ३७५ २५६ ३५५ ४६१ ३०४ ४=२ ४०७ २६८ २६७ ३७३ १३० २६५ ३११ २६३ ३०३ ८५ २८ ३५.६ ३५ ४४ १०३ १० ६५ ७१ २०६ ૬૭ १३० इत्थं बुद्ध्वा जिनेन्द्रस्य इत्थं युध्वा परम इथं बुदध्वोपदेशं इत्थं मुक्या इदमिदमघसेना इदं ध्यानमिदं ध्येय इह गमननिमित्त ईहापूर्व वचन उद्भुतकर्म संदोहान् एक एव सदा धन्यो एको देवस्त्रिभुवन एको देवः स जयति एको भाव: स जयति | एको याति प्रबल कश्चिन्मुनिः सततकपायक लिरजितं कायोत्सर्गी भवति काव्य तमभ्येपि उ 먹 क केचिदतमार्गस्थाः को नाम वक्ति विद्वान् कोपि क्वापि मुनिबभूव क्वचिद्व्रजति कामिनीक्वचिल्लसति निर्मल क्वचिल्लसति सद्गुरोः क्षमा कोषकषायं श्लोक २४६ ८१ ६१ २०३ २१० १६३ ४६ २८६ २०१ २५.४ २६० २७५ १६० १३७ २६० ११७ १९५ २०६ २०५ १३२ २४१ & १३६ २६ १८२ पृष्ठ ४०१ १६२ १२५ ३४६ ३५३ ३३६ ८७ ૪૬. ३७० ४०३ ४६६ ४३७ ३०२ २०७२ ४१४ २२२ ३३८ ३५१ ३५१ २६१ ३६० ७ २६६ ४५ ३२५ ...... Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गलनादरित्युक्तः गुणधर गणधर रचितं गुप्तिर्भविष्यति सदा घोरसंसृति चित्तत्व भावनासक्त जगदिदमजगच्च जयति जगति वीर : जयति नियमसार जयति परमतत्वंजयति विदितगात्रः जयति विदितमोक्ष : जयति शांत जयति सततं अयति स परमात्मा जयति समता नित्यं जयति समयसारः जयति समितिरेषा जयति सहजतत्त्वं जयति सहजतेज : जयति सहजतेज: जयति सहजतेजो जयति सहजयोष जयति सहजं तत्त्वं जयत्यनवचिन्मयं जयस्यनघमारम् जयत्ययमुदारधीः जानन् सर्वं भुवन ग घ न ज लोक १८५ ३७ ሂ ६१ १७६ १३६ 5 ३०५ ६६ € € १७८ १४२ १२८ १४१ * श्लोकसूची पृष्ठ ८२ १४५ १६६ १७० २५२ ६५ ३ 50 २७८ २२ ६ ४६२ १२५ १८६५ १८७ ३१४ २०३ २५७ २५० १०७ १६२ २८७ ३३० ३०८ ४०२ ७५ १५१ १७६ ३१३ १५६ २६६ २११ ૨૦૦ २८८ ३५३ ४०० ४६६ जानाति लोकमखिलं जितरतिपत्तिचापः जिन प्रभुमुखारबिन्द जिनेन्द्रो मुक्तिकामिन्याः ज्ञानज्योतिः प्रत ज्ञानं नाव महज ज्ञानं तावद्भवति तत्त्वे जंनमुनिनाथ तपस्या लोकेस्मिनि त्यक्त्वा वाचं त्यक्त्वा विभावमखिलं त्यक्त्वा विभावमखिल त्यक्त्वा सर्व सुकृत त्यक्त्वा संग जनन त्यजतु भवभोरु त्यजतु सुरलोकादि त्यजाम्येतत्स सहतिपश्मि सहतिपरिमुक्त त्रिलोकशिखरादुवं त्रैलोक्यानिकेतनान् स्वयि सति परमात्म दु रघत्र नकुठारः ज्ञप्तिवृत्पात्मक देवेन्द्रासन दपिका रण देहम्यूक्ष्म हीजराजि त ध्यानावलोमप इलोक २८५ ६ १५० २७३ ઘર २७७ २८६ २३० २८५ ३२ १५. १२२ २१५ २६६ ८० २४५ २१८ २०४ ३०४ २२५ ३६० ८२६ १६० ३६६ ३६३ १६ १५४ ܕ ६२ २३ [ ५१७ १३ ४५६ ༔ང་ २८५ ૨ ३०६ ४३७ १३२ Tre' ४६६ २७८ ३६१ १७८ ३०० २३८ ३५१ ४६१ ३७१ १२८ ४१ ४७२ ४६४ ११६ २३२ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८] नियमसार श्लोक पृष्ठ श्लोक पृष्ठ २४८ १८८ २८८ ७४ २६१ १८१ १८६ १८० १६५ नमामि नित्य नमोऽस्तु ते न ह्यस्माकं न ह्यतस्मिन् नानानुननराधिनाथअभियादिजिनेश्वरान निजात्मगुणसंपदं नित्य शुद्धचिदानन्दनियतमिह जनाना निद्वंद निरुपद्रव निर्मुक्तसंगनिकर नियणिवाचार्यनिवणिस्ये प्रहतदुरितनिविकल्पे समाधी निवतेन्द्रियलोल्यानां निश्चयरूप समिति नि:शेषदोपदरं नीत्वास्तान् प्रध्वस्तपंचवाणस्य प्रनदुरितोस्कर १०८ प्रपद्यहं सदाशुद्ध प्रागेव शुद्धता येषां ४७० प्रायश्चित्तंमुक्त प्रायश्चित्तं न पून३८० प्रायश्चित्तं भवति ३३६ प्रायश्चित्त र तमाना प्रीन्य प्रीतिविमुक्त१६२ । प्रेक्षावद्भिः सहज२६० २६६ २५० बन्धच्छदादतुलबन्धच्छेदाममति रात्मान्तरात्मेति १३७ ३२० ३३२ ३१८ ३२८ m 2 x xx.ams UP Out..." १३३ १२५ ०. २६१ ४८७ ४१४ २२३ १०२ १५८ २६८ १६७ ४८१ ३३६ १२९ १०६ १६३ भव त तनुविभूतिः भब भयभेदिनि भगवति भवभ वसुखदुःख भवभवसुखमल्म भवभोगपराङ मुख ४६६ भविना भव सुख विमुखं भबिनि भवगुणाः स्युः भवमंभव विषभूरुहभव्य : समस्त भावकम निरोधन ४७५ । भावा: पंच भवन्ति भाविकाल भवभीति विहाय पशुभि भुवा भक्त । २८५ भेदवादा: कदाचिरस्यु२०६ । भेदाभावे सतीयं १६६ ३४० पदार्थ रत्नाभर प्रमप्रभाभिधानो परपरिणतिदूरे परब्रह्मण्यनुष्ठानपरिग्रहाग्रह मुक्त्वा पश्यत्यात्मा सहजपंचसंसारनिमुक्तान् पंचास्तिकायषद्रव्यपुदगलोऽचेतनो जीवप्रतीतिगोचरा: सर्वे प्रत्याख्यानं भवति प्रस्याख्यानाद्भवति २०६ २०२ २६५ २६७ २८४ ४२२ २६६ ८६ २२६ ३७६ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकसूची [ ५१९ श्लोक पृष्ठ रागषपरंपरापरिणत रागद्वेषौ विकृतिमिह श्लोक पृष्ठ २३४ ३८१ २१३ ३५७ १०० १८७ १३५ १४६ २८६ ललितललितं लोकालोकनिकेतन ३०७ ४५ ५ १४० मत्स्वान्तं मयि मदननगसुरेश: मम सहजसुदृष्टी महानंदानंदो मृक्तः कदापि मुत्तयङ्गनालिमुक्त्वा कायविकारं मुस्वा जल्प मुक्त्वानाचारमुच्चमुत्रत्वा भन्यो वचन रचना मुक्त्वा मोहकनकमोक्षे मोक्षे जयति मोक्षोपायो भवति २५६ २८० १५० ४१२ २१७ ११५ १६१ २६३ २७१ २७३ ४२८ २२ २४ वक्तिव्यक्त वचन रचनां त्यक्त्वा वर्तनाहेतरेष: स्यात् वर्ततेज्ञानदृष्टी वाचं वाचंयमीन्द्राणां विकल्पो जोवाना विकल्पोपन्यासविजितजन्मविषयसुखविरक्ताः वृषभादिवोरपश्चिमव्यवहरणन येन व्यवहरगनयेन व्यवहारनयस्येस्थं ३५२ १७६ २५५ ४०५ ४-४ २३२ ३६१ २८६ १२६ ३३ २८० ४४७ १५३ ३२८ पद्य वं चरणं निजात्म यस्मिन् ब्रह्मण्यनुपमपस्य प्रतिक्रमणमेव यः कर्मशमंनिकर या शुद्धात्मज्ञानया शुद्धात्मन्यविचलयः सर्वकर्मविषभुयावचिन्तास्ति जन्तुमा यावत्सदा गतिपथे ये मत्यदेवनिकुरम्बये लोकाननिवासिनो योगी कश्चित्स्वहितयोगी नित्यं सहजयो नैव पश्यति जगत्त्रय २४६ ३६८ ६४ rw २२२ १५२ २२६ २२४ २३६ शतमखशतपूज्या शल्य त्रयं परित्यज्य ४६६ शस्ताशस्तमनो शस्ताशस्तसमस्त३७१ शीलमपवर्गयोषिद शुक्लध्यानप्रदीपोऽयं शुक्लध्याने परिणतमतिः ४५४ शुद्धनिश्चयनयेन शुद्ध तत्त्वं शुद्धात्मानं निजसुख१६३ । शुक्षासुद्धविकल्पना १०७ १२४ २४७ ४०६ २५८ २८४ १५७ रत्नत्रयमयान् शुद्धान् १०५ २६६ १३६ . . --: Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० ] पटुकायक्रमयुक्तानां सकलकररणनामासबोधपोतमधिरुह्य सबोध मंडन मिदं समयनिर्मियकाला समयसार समाधिना समितिरिह यतीनां समितिसमीतीय समितिसमिति समिति संहति सम्यक्त्वेऽस्मिन् सम्यग्दृष्टस्त्यजति सम्यग्वर्ती त्रिभुवनगुरुः सर्वज्ञवीतरागस्य सहजज्ञानसाम्राज्य व स श्लोक २६३ tax २७४ १२० ܣܘܢ नियमसार १६२ ४३६ २३३ ४७ ६० ६६ १२६ ३४३ ६५ १७४ पृष्ठ २२० १२७ ४७४ ८७ १७२ ८६ २८३ २५३ २२ १७४ ६० १७४ ३६८ २५.५. ४५.२ ४०२ ३७ | सहजपरमं तत्त्वं संज्ञानभावपरिमुक्त संसारघोर सानन्द तत्वमज्ज सिद्धान्तोद्मश्रीषवं सुकविजनपयोजा सुकृतमपि समस्तं सुखं दुःख योनी स्कन्धेस्तैः पद्मकारैः स्मरकरिमृगराजः स्वतः सिद्ध ज्ञान स्वर्गे वास्मिन्मनुजस्ववशयोगि स्ववशस्य मुनिन्द्रस्य स्वस्वरूपस्थितान् स्वात्माराधनया पुराण ह हित्वा भीति पशुजनकृत श्लोक १७७ ३२ १६४ १७४ ३ ३०८ ५६ २०६ ३६ ६७ २१६ २८ २५० २५७ १०३ २७० २६५ पृष्ठ ३१३ ५६ ३०६ ३१२ २ YES ११६ ३५२ ૭૪ १८६ ३६१ ५३ ४०१ ४०७ १६० ४२८ ४२२ है Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उधृत गाथा श्लोकों की वर्णानुक्रम सूची । ग्रन्थ का नाम ग्रन्थकर्ता का नाम पष्ट संक्या ममयमार कलश रन्तकार प्रमृतचंद्रसूरि समतभद्र विद्यानन्द . प्रनवरतमनंतअन्यनमनतिरिक्त अभिमतफलसिदः अलमलमतिजल्पः प्रस्मिन्ननादिनि महिंसाभूतानां प्राप्नपरीक्षा समयसार कलश अमृतचन्द्र स्वयंभूनोत्र ममतभद्र प्राचारपचतदेवक प्रात्मकार्य परित्यश्य नात्म प्रयत्न सापेक्षा पास्माधर्मः समयसार कलम पारमामिनः एकत्वसप्तति रत्नकरंट मालोच्यसमेन: प्रासंसारात्प्रतिपद अमृतचन्द्र पद्मनन्दी श्रीसमंतभद्र अमृतचन्द्र समयसार कलश इत्युच्छेदात्परपरिणतेः इत्येवं परणं समयसारकला एमृतचन्द्र ११२ प्रवचनसार टीका २१६ उस्सृज्य कार्यकर्माणि तत्वानुशासन Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ नियमसार ग्रन्थ का नाम ग्रन्थकर्ता का नाम पत्र संख्या उभयनय विरोध समयसार कलश मभृतचन्द्र यशस्तिलक २७२ एकस्वभाविशसि एयरसवण्णगन्धं एवं त्यवत्वा वहि वाचं पंचास्तिकाय सोमदेवरि कुन्दकुन्द पूज्यपाद ममाधिशतक मागेत्रका १३ अमृत चन्द्र २१ कालाभावेन भावानां कान्त्य व स्मपन्ति कुसूल गभ. केवलज्ञान दक्सौड्य सममसार कन्न। मार्गप्रकाश एकत्वसप्तति पमानन्दी २५७ गिरिगहेनगुहा अमृताशीति ३४६ मात्मानुशासन चकविहायनिज. चिच्छक्तिच्याप्त समयसार कलश गुणभद्र अमृतपन्द्र गुगभद्र चित्तस्थमध्यन मात्मानुशासन २२ ४. मार्यप्रकाश भुतविन्दु प्रवचनसार - जघन्यमध्यमोत्कृष्ट जयतिविजितदोषो बस्म अणेसण मप्पा जं पेच्छदी अमुक्त जानत्रयेप विश्व ज्वरजनन जरा ४५२ अमृतमन्द्र ४४. समयसार कसा अमृतानीति ४८३ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानस्वभावः स्यादात्मा ज्ञानाद्विनोन नाभिश्रः सज्ज विहारा विपरिणमदि गाणं अत्यंतगयं गं प्रविवदिरित रिद्धन दुगुखो रिद्धिः वा लुक्ला वा गोम्मम्महाये नदेयं परमं ज्ञानं गाणं तेजो दर्शनं निश्चयः पुि सरण पुरुदं गाणं यानुसारि चर नमस्यं च तदेकं नहि विदधति निषिद्ध सर्वस्मिन् निष्क्रियं करणातीतं किन पसरणं परियटुणं च वायर ग्रन्थ का नाम श्रात्मानुशासन स्वरूप संबोधन प्रवचनसार प्रवचनसार " प्रवचनसार r " लोकसूची त पद्मनं० पंच वि० प्रवचनसार " 여 "P ण एकस्य सप्तति द्रव्य संग्रह प्रवचनसार टीका समयसार मुलाणार द पद्मनन्दी पंच समयसार कलश न प्रत्यवर्ता का नाम गुणभद्र कलंक कुनकुन्द्र कुरंदकुन्द्र 4. कुरंदकुरप " कुन्दकुन्द गद्यनन्दी नेमिचंद्र अमृतचन्द्र " " 27 प्रा० पदो प्रमृतचद्र # कुन्दकुन्द्र नन्दी [ ५२३ पृष्ठ संख्या ४१९ YY? ४५० ४६६ ४३५ ४६० ५६ ५६ १६७ २६८ २१ १५० ४३६ २०७ २६८ १११ २६४ २२१ २४१ v Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ५२४ } नियमसार प्रन्य का नाम अन्यकर्ता का नाम पृष्ठ मंध्या पंपाचार पराफिनन पुरवी जलं च छाया प्रत्याख्याच भविष्य पंचास्तिकाय वादिराजदेव कुन्दकुन्द अमृतचन्द्र समयसार कलश २५४ वप्रच्छेदात् कलयदतुन बहिरामानरात्मनि ४३३ समयसार कलह मार्गप्रकाश अमृतचन्द्र ४० पात्मानुशासन २३५ भावपामि भवाब भेदविज्ञानतः सिद्धा समयसार कलश गुरगपत अमृतचन्द्र गुगभद्र २०६ अयं माय महागती प्रात्मानुशासन ३२४ मझ पमिगहो जह समयसार अमृतानीति ममगार कलश कुन्दकुन्द योगीन्द्रदेव मुस्खालमत्व. माहदिलामविम्भिन अमृतचन्द्र ४३२ पथावस्तुनिीसि यत्रप्रतिक्रमणमेव पदमासन गृहानि यदि चलति कपंचित् चमनियम नितान्त स्व. संबोधन समयमार कलश समाधिशतक अकलंक अमृतचन्द्र पूज्यपाद योगीन्द्रदेव गुणपद्र २५६ अमृताशोति ४०४ प्रात्मानुशासन १६८ लोयायामपदेशे ट्रव्यसंग्रह नेमिचन्द्र वनचरभवादावन वसुधान्त्य चतु: स्पर्गेषु व्यबहरणनय: स्यात् प्रात्मानुशासन मार्गप्रकाश समयसार कलमा अमृतचन्द्र १४० Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक सूची ( ५२५ पृष्ठ संख्या ग्रन्थ का नाम प्रत्यकर्ता रा नाम ममयसार नश पंचास्तिकाय अमृतचन्द्र कुन्दकुन्द प्रवननसार १२ प्रात्मानुशासन गुगभद्र कुन्दकुन्द समयसार १४ सकलमपि विहाया. समग्रो णिमिसो कठा ममत्रो दु अप्पदेसो समधिगत समस्ता सम्वेभावा जम्मा संसिविराधसिद्ध सिद्धान्तोऽय मुदान सो धम्म) अत्यदया स्थितिजनन निरोध स्पुलस्यूलास्ततः स्वयकर्मकरोत्यात्मा स्वरनिकर विसर्ग स्वेच्छा समुच्छलद मनवमार कलश प्रमृतचन्द्र समंतभद्र स्वय भूस्तोत्र मार्गप्रकाप अमृताशीति योगीन्द्रदेव १२७ ममबसार निश अमृतचन्द्र COMEDNA DSuनत 591 Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र प्रष्ट पृष्ठ पंबिम पंभिगम शुद्ध गुरुणा प्रति भाव में स्थित उत्पन्न * गुरुणाप्रति में स्थित उत्पन्न जो [ भौमिः । वीतराग य तृण, स्पर्श इदियापारणं भव्य पूर्वा पर मोटे-मोक्ष মযিঃ पवायं ग्रहण शार्दू मसात्वम् कार्यशुद्धिपर्याय भव्यजीर कों से अपने पृषक ३६ वीतराग तृगास्पर्श इदियए।गणं भव्य : पूर्वापर मोक्षमोक्ष भणि पदार्थ का ग्रहण शार्दूल ! सत्त्वम् कार्य शुद्ध पर्याय भव्यजीव के कर्मों का अपने से पथक . ४४ ५२ खडित रहते हुये वायसुहुमं च सूक्ष्मस्यूझर सम्बंध মাৰি की इच्छुक संरित रहित हुये बापरसुहमं च सुहमसुहमं च समबंध मादि, के इच्छुक ७५ ७८ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र [ ५२७ पृष्ठ पंक्ति रामणवरणोण लोक के निसरी के परिगामो परिणाम समावागतो राग लोकस्पो शिखरी के परिमाणो परिमारा हुये सिद्धारण पोदशभिः द्रव्याण्यव पश्चा संठाणज्य [ सिद्धाणप्प ] पोडमाभिः ट्रव्याण्येव पश्चा ८ यतो गयतो । भवंगुण भवमुग मुखस्या भावान्न सुवस्याभावान प्रास्वन पाश्वत तिदंमा तिदसणं चतुष्टय माबरण चतुष्टयमावरण करके कार्य समयसार रूप गुटोपयोग करके कार्य को प्राप्त करके कार्य मल, चल अन्यकार ग्रन्यकार ने में गात्र से रहिन पात्र मसतानम् मसतामिदम् पर घर पर पर दधिन दोधात MMM nx १७७ १८. १८१ चिरपे माग १८४ चिद्रूपेसम्पग प्ररिहता पतीन तिवासे प्रगुक्त अरिहंता पतीन्न दुद्धिवाले ११७ प्रामुक्त Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ ] नियमसार अशुद्ध २०३ २०७ २१३ १२१ कुन्दकुम्ददेव के विराहरण निविकल्पयम परमति: कुरदकुन्ददेव ने विराहणं निर्विकल्पमय परमान: २२३ प्राकार प्राकर २३२ बदहा ফানুস बदमहा शश्वत् २४६ जोवेग प्रलंघन् २६३ प्रवसेस प्रसंधयन् प्रवसं मोहयाद: २६८ मोठ्यादा तदेवा तदेवा चेतत् भेदात्रिविधम् २७५ देत्तत् भेदारित्रविध कारण बनते हैं। २७८ बनते हैं प्रसवत रिपु पूणिमा को २७५ मासक्त रिपू पूर्णिमा के २८० २६१ ध्यावति ध्यायति २९४ शुदी सुती २९५ मुनि मुनि को मुक्त नि मुक्त नि पराणा ककुमंडल अनादिविद्या परितप्त परागाककुम्भंडलं wৱৰিয়া परितृप्त १० Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र [ ५२६ पृष्ठ पृष्ठ पंक्ति पंक्ति शुद्ध ३२१ ३२२२० ३२४६ ३२६ मन क्रोध का चिनसंगो क्रोध के चतसंगो हात्र हात्र ३३२ महाकम महाकर्म ३५२ ३५२ Au Xxx समई कनांहा। तिष्ठत्युन्न: समुह कृसांहःतिष्ठत्युचः मफान सकल ३६० संजान शुभ विशा उपाजिम भक्नि भवति संजातमशुभ विशेष से उपाजित भक्तिभवति ३७६ भक्त्या भक्त्या ३९२ दु:खभाद भार नमें भावन में ४०१ ४०१ ४१८ ४२० मावस्यककर्म गुणवर्ती कुनम परोध्ययित्वा प्रतिष वमिदं पा जंगम मावश्यकर्म गुणस्थानवी फतुंम् परीक्षयित्वा प्रतिए धमिदं ४५६ ४५६ प्रचर स्थावर ४५७ प्रभाव है घर-जंगम मचर-स्थावर अभिप्राय है तत्वं गहरा तत्वं ग्रहणं प्रवचनासर प्रवचनसार Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 530 ] नियमसार पृष्ठ मशुद्ध शुद्ध 476 निन्दास्थान ( उस परमतत्त्व ) में 462 निन्धस्थान ( उस परमतत्त्व में.) प्रसाता प्रासाता 860 कहां धर्मास्ति काया कहा धर्मास्तिकाया शानी तुम भक्ति . तुम मुक्ति भागवत् भागवन् भागवत 498 भागवत